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बुधवार, 30 जनवरी 2013

भारत में खाद्यान्न सुरक्षा के मायने


भारत में खाद्यान्न सुरक्षा की सार्थकता 
डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
               आधुनिक विज्ञान और  सूचना-संचार क्रांति के  इस युग में हम विकास की नित नई इबारत लिख रहे  है । हमारी धरती से हर किसी का पेट भरने लायक अनाज भी पैदा होने लगा  है । परंतु फिर भी संसार के  85 करोड़  से भी ज्यादा नर-नारी और  बच्चे हर रोज  भूखे पेट सोने के  लिए विवश है। हजार-करोड़  बच्चे कुपोषण के  कारण काल कवलित होते  जा रहे है । व्यापक अन्नोत्पादन के बाबजूद सबको भरपूर भोजन नही मिल पा रहा हे। पौष्टिक भोजन तो अब बीते युग की बात लगती हे।  चूक कहां है ? मानवता पर भूख का यह कलंक क्यों  लग रहा है ? विकास की सुनहरी  इबारते गढ़ने के  बाबजूद भी बेरोजगारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी और  भुखमरी अपने चरम पर आखिर क्यों  है । खाद्य पदार्था की कीमतो  में हो  रही बेतहासा बृद्धि और  आसन्न भुखमरी के खिलाफ राष्ट्रीय, क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लड़ाई के लिए संगठित प्रयास भी हो रहे है । सन 1996 में आयोजित विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन में राज्यो  और  सरकारो  के  अध्यक्षों  नें घोषणा की थी कि हर किसी को पौष्टिक और  पर्याप्त भोजन  मिलना एक अधिकार है ताकि सबको  भूख से मुक्ति मिल सके । सभी ने एक मत हो कर  विश्व के नक़्शे  से हमेशा के लिए भूख का खात्मा करने की वचनबद्धता व्यक्त की थी। परन्तु 16 वर्ष बीतने के  बाद भी स्थिति में अपेक्षित सुधार नजर नहीं आ रहा है । मानव अधिकारों की वैश्विक घोषणा (1948) का अनुच्छेद 25 (1) कहता है कि हर व्यक्ति को अपने और अपने परिवार को बेहतर जीवन स्तर बनाने, स्वास्थ्य की स्थिति प्राप्त करने, का अधिकार है जिसमें भोजन, कपड़े और आवास की सुरक्षा शामिल है।खाद्य एवं कृषि संगठन ने 1965 में अपने संविधान की प्रस्तावना में घोषणा की कि मानवीय समाज की भूख से मुक्ति सुनिश्चित करना उनके बुनियादी उद्देश्यों में से एक है।
        कभी सोने  की चिढ़िया कहलाने वाला भारत आज गरीबी, मुखमरी, भ्रष्टाचार और  मंहगाई से  क्यों परेशांन हाल में दिख रहा है, इस पर विचार  विमर्श करना हम सब का कर्तव्य  है । आज से 176 वर्ष पूर्व  लॉर्ड मैकाले ने संपूर्ण भारत का दौरा  करने के पश्चात्  ब्रिटेन के निचले सदन हाउस ऑफ कॉमंस में  अपने महत्वपूर्ण वक्तव्य में कहा था कि  भारत में मैंने किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा जो भिखारी हो, जो चोर हो, इसका मतलब ये हुआ इंग्लेण्ड में उस समय भिखारी और चोर रहे होंगे । जाहिर है कि 1835 में भारत में न तो भुखमरी और न  न ही गरीबी थी। गरीबी नहीं तो चोरी की संभावना भी नहीं रहती है। भारत छोड़ने के  पूर्व 1947 में अग्रेजो  ने एक सर्वे कराया था जिसमे कहा गया था कि भारत में 4 करोड़ लोग गरीब है । देश में पहली पंच वर्षीय योजना (1952) लागू करते  समय देश में वास्तविक गरीबों की संख्या 16 करोड़ थी। आंकड़ों के तराजू में भारत की गरीबी को कई बार तोला गया है। आश्चर्यजनक पहलू यह है कि आंकड़ों के परिणाम एकदम विरोधाभासी रहे है। भारत सरकार द्वारा नियुक्त प्रोफेसर अर्जुन सेनगुप्त आय¨ग(2007) के अनुसार भारत की 115 करोड़ की जनसँख्या में से 77 प्रतिशत ( लगभग 83 करोड  70 लाख) लोग बहुत गरीब हैं । एक दिन में खर्च करने के लिए इनक¢ पास 20 रूपये भी नहीं है और इन 84 करोड़ में से 50 करोड़ ऐसे हैं जिनके पास खर्च करने के लिए 10 रूपये भी नहीं है, 25 करोड़ के पास खर्च करने के लिए 5 रुपया भी नहीं है और बाकी के पास 50 पैसे भी नहीं है खर्च करने के लिए। एशियाई विकास बैंक के अनुसार यह आंकड़ा 62.2 प्रतिशत बनता है। गरीबों की गिनती के लिए मापदण्ड तय करने में जुटे विशेषज्ञों के समूह की बात यदि सरकार स्वीकार करे तो देश की 50 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा से नीचे (बीपीएल) पहुंच जाएगी।  सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समूह ने बीपील का पैमाना तय करने कैलोरी खपत को आधार बनाने का सुझाव दिया तथा यह माना कि 2400 कैलोरी के पुराने मापदण्ड को आधार बनाया गया तो देश में बीपीएल की आबादी 80 प्रतिशत तक पहुंच सकती है। इसके  उलट योजना आयोग ने तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट को आधार मानकर करीब  38 फीसदी आबादी को ही गरीबी रेखा से नीचे माना है । अभी हाल ही में 21 सितंबर, 2011 को  योजना आयोग ने देश की सबसे बड़ी अदालत में जो हलफनामा पेश किया है, उसमें बताया गया है कि खान पान में शहर¨ं में 965 रूपये और  गाँवो  में 781 रूपये प्रतिमाह खर्च करने वाले को  गरीब नहीं माना जा सकता । इस प्रकार शहर में 32 रूपये और  गाँव में 26 रूपये प्रतिदिन खर्च करने वाला व्यक्ति बी.पी.एल. परिवार को  मिलने वाली सुविधा पाने का हकदार नहीं है । भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने प्रत्येक कामकाजी आदमी को प्रतिदिन 50 ग्राम दाल, 200 ग्राम सब्जी, 520 ग्राम अनाज, 45 ग्राम तेल और 200 ग्राम दूध का सेवन आवश्यक बताया है। इस आधार पर वर्ष 2010 में एक थाली की कीमत 35.95 रूपये थी जो  कि वर्तमान में 62 रूपये में मिल रही है । अब जरा स¨चिये कि 26 रूपये में तो  गांव के  गरीब को  एक वक्त का आधा पेट भर भोजन का भी इंतजाम नहीं ह¨ सकता है । ऐसे में गरीबो  की थाली खाली रहना स्वाभाविक है । यह विडंबना नहीं त¨ क्या है कि आजादी क¢ 64-65 साल और  11 पंचवर्षीय योजनाओ के  बावजूद भी हम न तो  गरीबी को  ठीक तरह परिभाषित कर सके  है और  न ही देश में गरीबो  की सही संख्या का आंकलन कर पाये है ।
          अक्सर कहा जाता है कि जनसंख्या बढ़ने से गरीबी और  भुखमरी बढ़ती है । आइये देखते है कि यह तर्क कितना सही है और  कितना गलत । आजादी के  समय हमारे यहाँ गरीबों की संख्या 4 करोड़ थी अब उस स्तर के गरीबों की संख्या 84 करोड़ हो गयी है मतलब आबादी बढ़ी  3.5 गुना लेकिन गरीब बढ़ गए 21 गुना । परन्तु स¨चने की बात है गरीबों के अनुपात में आबादी के हिसाब से वृद्धि होनी चाहिए थी, अर्थात गरीबों की संख्या में भी 3.5 गुनी वृद्धि होनी चाहिए थी । जाहिर है कि हमारे देश में आज 2011 मे 14 -15 करोड़ से ज्यादा गरीब नहीं होने चाहिए थे ?  इसी अवधि में अनाज का उत्पादन लगभग छः गुना बढ़ा है, मतलब आबादी बढ़ी साढ़े तीन गुनी और अनाज उत्पादन में वृद्धि हुई छः गुनी, फिर भूख और गरीबी से क्यो  त्रस्त है हमारे देश के लोग? हां आबादी बढ़ती पाँच गुना और अनाज उत्पादन में वृद्धि होती तीन गुना तो मैं मान लेता कि भुखमरी होने का कारण जायज है। जब इन 64 वर्ष में औद्योगिक उत्पादन में दस गुनी वृद्धि हुई है तो  फिर देश में बेरोजगारों की इतनी बड़ी फौज कैसे खड़ी हो गयी है ?  कहीं न कहीं नीतियों के स्तर पर देश के  नीति निर्माताओ और   सरकार से चूक हुई है जो गरीबी, भुखमरी और बेकारी रोकने में असफल रही है। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे । महान अर्थशास्त्री माल्थस के  सिद्धांत अनुसार जिस देश में जनसँख्या ज्यादा होगी वहाँ गरीबी ज्यादा होगी, बेकारी ज्यादा होगी। इस सिद्धांत को यूरोप के देशों ने ही नकार दिया है परन्तु दुर्भाग्य से  हम लोग वही सिद्धांत पढ़ते-पढ़ाते आ रहे है । भारत अकेला ऐसा देश नहीं है जिसकी जनसँख्या बढ़ी है । दुनिया के हर देश की जनसँख्या कई गुना बढ़ी है । अमेरिका की जनसँख्या पिछले 60 वर्षों में ढाई गुना बढ़ी है, ब्रिटेन सहित यूरोप की जनसँख्या तो पिछले 60 सालों में तीन गुना बढ़ी है, लेकिन इसी अवधि में उनके यहाँ अमीरी बढ़ गयी है एक हजार गुनी। स¨चने की बात है कि अमेरिका और यूरोप में जनसँख्या बढ़ने से पिछले साठ सालों में अमीरी आती है तो भारत में जनसँख्या बढ़ने से गरीबी क्यों आनी चाहिए और अगर भारत में जनसँख्या बढ़ने से गरीबी आती है तो यूरोप और अमेरिका में भी जनसँख्या बढ़ने से गरीबी आनी चाहिए थी ? क्योंकि सिद्धांत हमेशा सार्वभोमिक होते हैं, सिद्धांत कभी किसी देश की सीमाओं में नहीं बंधा करते। आप को  यह जानकर हैरानी होगी कि चीन की सरकार तो यह मानती है कि जितने ज्यादा हाथ उतना ज्यादा उत्पादन और उसने ये सिद्ध कर के दुनिया को दिखाया भी है । तो भारत में ये सिद्धांत कि जितने ज्यादा हाथ तो उतना ज्यादा उत्पादन क्यों नहीं चल सकता? उसका एक कारण ये है कि चीन की सरकार ने अपनी सारी व्यवस्था को ऐसे बनाया है जिसमे अधिक से अधिक लोगों को काम मिल सके और भारत सरकार ने अपनी व्यवस्था को ऐसे बनाया है जिसमे कम से कम लोगों को काम मिल सके। बस इतना ही फर्क है। 
             बढ़ती मंहगाई और  घटती खाद्यान्न उपलब्धता के  परिप्रेक्ष्य में कृषि की दशा और दिशा को समझना आवश्यक है । स्वतन्त्रता के  समय भारत अकाल, सूखा, गरीबी और भुखमरी से पीड़ित ऐसा देश था, जिसे अमेरिका से गेंहू आयात कर अपनी जनता के पेट की आग बुझानी पड़ी थी । साठ के  दशक में    भारतीय अर्थव्यवस्था को  शिप-टु-माउथ खाद्यान्न अर्थव्यवस्था कहा जाता था, अर्थात उस समय जहाज से उतरने वाला गेंहू सीधे भूखे लओगो के  पेट तक जाता था । वर्ष 1966 से 1970 के दौरान  भारत ने हरित क्र्रांति को  अपनाया जिसने भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था की दिशा एवं दशा बदल दी और  देश के किसानों का पसीना खेतों में मोती बन उगने लगा और देश न सिर्फ खाद्य आत्मनिर्भरता की दहलीज पर आकर खड़ा हो गया बल्कि अपनी एक अरब की जनसंख्या का पेट भरने के बाद दूसरे देशों को निर्यात करने की भी स्थिति में आ गया। देश का कुल खाद्यान्न उत्पादन 51 मिलियन टन (1950-51) से बढ़कर 218.20 मिलियन टन (2010-11) तक पहुँच गया है । भरपूर फसल उत्पादन के  बावजूद भी प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की घटती उपलब्धतां हम सबके  लिए चिन्ता और   चिन्तन का विषय बनी हुई है। विगत दो  दशको  से भारतीय कृषि संक्रमण काल से गुजर रही है । भारत में वर्ष 1990-91 में अनाज की प्रति व्यक्ति दैनिक उपलब्धता 468 ग्राम थी वह वर्ष 2005-06 में घटकर 412 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रह गई। विश्व में सबसे अधिक क्षेत्रों में दलहनी खेती करने वाला देश भी भारत ही है। दाल की प्रति व्यक्ति दैनिक उपलब्धता वर्तमान में 31 ग्राम प्रति दिन प्रति व्यक्ति क¢ आस पास है जबकि 1961 में एक व्यक्ति को   69.0 ग्राम दाल मिला करती थी । देश में 39 प्रतिशत आबादी को  पौष्टिक भोजन, 48 प्रतिशत को  कम पौष्टिक तथा 20 प्रतिशत को  अब मात्र प्राण रक्षा हेतु ही भोजन मिल पाता है । सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान आजादी के समय के 51 प्रतिशत से घटकर वर्तमान में मात्र 18 प्रतिशत रह गया है और रोजगार में हिस्सेदारी 72 फीसदी से घटकर 52 फीसदी पर पहुंच गई है । भारत के पास दुनिया की कुल 2.4 प्रतिशत जमीन है, पर दुनिया की आबादी का करीब 18 प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है । खेती लायक जमीन सिर्फ अमेरिका में हमसे ज्यादा है और जल क्षेत्र सिर्फ कनाडा और अमेरिका में अधिक है, फिर भी देश में आज कृषि की खस्ता हाल में है । कृषि य¨ग्य भूमि दिन-प्रतिदिन घट रही है । हमारे यहां प्रति व्यक्ति 0.3 हेक्टेयर कृषि भूमि है जबकि विकसित देशों में यह आंकड़ा 11 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है । कृषि के आवश्यक साधनों की उपलब्धता भी विश्व के औसत की तुलना में चार से छठवें हिस्से के बराबर है । कृषि के लिए आवश्यक प्राकृतिक साधनों की उपलब्धता लगातार घट रही है जबकि सूखा व बाढ़ जैसी आपदाओं का प्रकोप बढ़ता जा रहा है । इस दौरान कृषि को मिलने वाले बजट में भी कमी होती गई। अब सीधा सा हिसाब है कि अगर निवेश घटेगा तो स्वाभाविक तौर पर उस क्षेत्र का विकास बाधित हो जाएगा। वैश्विक जलवायु परिवर्तन जैसी बड़ी आपदा भी कृषि के भविष्य के लिए चुनौती बन गई है, इससे देश में कृषि की स्थिति अ©र भी दयनीय हो गयी है । इसका सबसे ज्यादा प्रभाव किसानों पर पड़ा है । इसक¢ अलावा जब से देश में तथाकथित ‘आर्थिक उदारवाद’ की बयार बहनी शुरू हुई है तब से किसानों का जीवन और मुश्किल हो गया है। यही कारण है कि किसानों की आत्महत्याओं के मामले बढ़ गये हैं । इस मामले में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ अग्रणी हैं ।  वर्ष 2020 तक देश की जनसंख्या  132 करोड़ तक पहुँचने का अनुमान है । उस समय देश को  कुल मिलाकर 375 मिलियन टन खाद्यान्नों  (344.7 मिलियन टन अनाज तथा 30.3 मिलियन टन दालो ) की जरूरत होगी। ऐसी स्थिति में यदि भारत में खाद्यान्न फसलों की उत्पादकता तथा उत्पादन में सुधार करने के लिए तात्कालिक और दूरगामी कदम नहीं उठाये गये तो हमारी मांग को देखते हुए हमारा देश काफी पिछड़ जायेगा। देश में गंभीर खाद्य संकट पैदा हो जायेगा। यह खाद्य संकट राजनैतिक संकट का भी रूप लेगा और विकसित देश हमारी खाद्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने उत्पादित खाद्य पदार्थ का प्रयोग राजनैतिक हथियार के रूप में करेंगे।  यह स्थिति हमारी आजादी और सम्प्रभुता दोनों पर हमला करेगी। इस दुष्चक्र से निकलने के  लिये केन्द्र तथा राज्य सरकारों को कृषि उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने तथा किसानों की खेती से मोह भंग होने की स्थिति से पहले ही खेती किसानी को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की ईमानदार पहल करनी होगी। 
                आखिर क्या बजह है कि रिकार्ड फसलोत्पादन के बावजूद खाद्यान्नो की महंगाई और  भूखे लोगो  की संख्या पिछले 2-3 सालो से लगातार बढती जा रही रही है । बढ़ती मंहगाई के  कारण आम आदमी दैनिक आवश्यकता के  अनुरूप खाद्यान्न क्रय नहीं कर पा रहा है ।इस दुनिया में भगवान का संतुलन कितना अजीब  है की  100 किलो ग्राम अनाज का बोरा   जो इंसान उठा सकता है, वह  उसे खरीद नहीं सकता और जो  खरीद सकता है वह  उसे उठा नहीं सकता ।  जाने माने अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन (1981) का मानना है कि ज्यादातर मामलों में भूख और अकाल अनाज की उपलब्धता की कमी के कारण नहीं पड़ते, बल्कि उनकी वजह असमानता और वितरण व्यवस्था की कमी होती है। दरअसल  आज कल पौष्टिक अनाजों यथा ज्वार, बाजरा, मक्का, कोदो , कुटकी, रागी आदि को  कच्चे माल के  रूप में शराब व जैव ईधन बनाने में प्रयुक्त कर अमीरों की मौज-मस्ती की पूर्ति की जा रही है। इस अमानवीय कृत्य में अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्र ही नहीं भारत भी आगे बढ़ रहा है । ब्रिटेन की स्वयंसेवी संस्था ऑक्सफेम ने दुनिया में बढ़ रहे खाद्यान्न् संकट के सिलसिले में चेतावनी दी है कि अनाज से यदि शराब और इथेनॉल बनाना बंद नहीं किया गया तो 2030 तक खाद्यान्नों की मांग 70 फीसद बढ़ जाएगी और इनकी कीमतें आज के मुकाबले दोगुनी हो जाएंगी। भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो यह चेतावनी सच ही ठहर रही है । पिछले सात सालों  में खाद्यान्नों की कीमतें डेढ़ सौ से दो सौ फीसदी तक बढ़ चुकी हैं। अकेले महाराष्ट्र में अनाज से शराब बनाने वाली 270 भट्ठियों में रोजाना 75 हजार लीटर से डेढ़ लाख लीटर तक शराब बनाई जा रही है। ज्ञात हो  एक लीटर शराब बनाने के  लिए  तकरीबन 20-30 किलो अनाज को  सड़ाया जाता है । इसी तरह से अनाज वाली फसलो  से आजकल जैव ईधन अर्थात इथेनॉल का कारोबार भी हजारों टन का आंकड़ा पार कर गया है।  शराबी तथा मांसाहारियों की बढ़ती तायदात भी खाद्यान्न संकट की बड़ी वजह बन रही है। भारत में शराब पीने और मांस खाने वाले लोगों की संख्या  में निरन्तर बढत होती जा रही़ है। मध्यम और  गरीब वर्ग में मांसाहार तथा  शराबखोरी की लत अधिक देखी जा रही है । एक अनुमान के  मुताबिक भारतवर्ष 2013 तक रूस क¨ पीछे छोड़ते हुए चीन के  बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शराब का बाजार होगा । आज से 20 वर्ष पहले 300 भारतियो में से एक शराबी हुआ करता था और  अब प्रत्येक 20 में से एक आदमी शराब का शोकीन  है । वर्ष 2009 की स्थिति में 200 मिलियन केस शराब (एक केस में 12 बोतल अर्थात 9 लीटर शराब) और  195.5 मिलियन केस  (प्रत्येक केस  में 9.5 लीटर) बियर की खपत हुई । भारत में 23 हजार  दुकाने  एवं 10 हजार बार-रेस्तराओ  के  माध्यम से सरकार का यह व्यापार दिन दूनी रात चोगुनी रफ़्तार  से फल फूल रहा है । कुछ ऐसी ही वजहों से भारत में 20 प्रतिशत लोग भुखमरी का अभिशाप झेल रहे हैं। माना कि शराब उद्ययोग  से सरकार को मोटा  मुनाफा होता है परन्तु लाख-करोड़ो  परिवारो  का सुख-चैन और उनका   खुशियाँ छीनकर व्यवसाय करना-कराना कहां तक जायज है ? बकरे या मुर्गियों के पालन में जितना अनाज खर्च होता है, उतना अगर सीधे अनाज को ही भोजन के  रूप में उपयोग में लाया जाये तो वह कहीं ज्यादा भूखों की भूख मिटा सकता है। अध्ययन बताते है कि तीन महीने में एक मुर्गा जब तक आधा किलो मांस देने लायक होता है, तब तक इस अवधि में वह 10 से 12 किलो तक अनाज खा जाता है। यानी 12 किलो अनाज (कीमत 250-300 रूपये) के बदले मिलता है, महज आधा किलो मांस (कीमत 100-125 रूपये ) उपलब्ध हो पाता   है। बकरे और  सुअर आदि के साथ भी कमोबेश यही स्थिति है। यह अनाज का न केवल दुरुपयोग है, बल्कि भूखो के  साथ क्रूर मजाक और  एक तरह की नाइंसाफी ही है। 
             खाद्यान्न के दाम बढ़ने के लिए अनाज पर बाजार का बढ़ता प्रभुत्व भी कम जिम्मेवार नहीं है। अप्रैल 2008 में जारी फेडरल बैंक आफ कंसास की रिपोर्ट बताती है कि अनाज पर बाजारवादी ताकतों का बढ़ता प्रभुत्व इसकी बढ़ती कीमतों के लिए सर्वाधिक जिम्मेवार है। साठ के दशक में खेत में पैदा होने वाले अनाज की कीमत और उपभोक्ता तक पहुंचने पर उसकी कीमत के बीच 59 फीसदी का फर्क होता था। जो अब बढ़कर अस्सी फीसदी हो गया है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बाजारवादी ताकतें किस कदर अनाज की कीमतों के साथ खेल रही हैं। खाद्यान्न संकट और बढ़ती महंगाई के लिए विश्व बैंक की नीतियां भी कम द¨षी नहीं हैं। बीते चार दशक में विश्व बैंक ने जिन नीतियों को विकासशील देशों पर थोपा है उससे इन देशों की कृषि बदहाल हो गई है और किसान तबाही के  कगार पर खड़े है। वायदा बाजार भी विश्व बैंक की नीतियों की ही देन है। स¨ना चांदी जैसी अमूल्य वस्तुओ में वायदा व्यापार तो  समझ में आता है, इससे आम आदमी या गरीब का ज्यादा  वास्ता नहीं है परन्तु दैनिक उपभोग की अत्यावश्यक वस्तुओ  जैसे गेहूं, चावल, दाल, तेल, शक्कर आदि में भी इस गोरख धंधे ने अपने पांव पसार लिये है ।  इसमें अनाज के उत्पादन या उपलब्ध्ता से कहीं ज्यादा का वायदा कारोबार पहले ही हो जाता है। वास्तविकता में जब उतनी मात्रा में खाद्यान्न उपलब्ध ही नहीं होगा तो संकट का पैदा होना स्वभाविक है।एक आंकलन के  अनुसार भारत में सालाना करीब 40 हजार करोड़ से ज्यादा का वायदा व्यापार होता है। सूत्रों  से प्राप्त जानकारी के  अनुसार अकेले रायपुर शहर में यह वायदा कारोबार 500 करोड़  से अधिक है । दरअसल वायदा व्यापार के  माध्यम से उपभोक्ता वस्तुओ की जमाखोरी और  कालाबजारी के  अलावा विक्रय कर चोरी भी  बदस्तूर तरीके से जारी  रही है जिससे सरकार को  प्रति माह करोड़ो  रूपये के  राजस्व की हांनि हो  रही है । फलस्वरूप मंहगाई की मार हम सब भुगत ही रहे है । 
  खाद्यान्नो की महंगाई का एक कारण, बढ़ते उत्पादन के बावजूद उसके भण्डारण एवं वितरण की बदहाली भी हैं । भारतीय खाद्य निगम तथा राज्य सरकार की विभिन्न एजेंसियों की कुल भण्डारण क्षमता  विगत दस वर्ष से लगभग 370 लाख टन के  आस पास अटकी हुई  है । इसे बढाने की बजाय अब सरकार निजी भण्डारण क्षेत्रो  को प्रोत्साहित कर रही है । जाहिर है  निजी भण्डारण क्षमता का लाभ आमतौर पर निजी क्षेत्र के बड़े किसान व आढतिये, व्यापारी आदि ही ज्यादा उठाएंगे । खासकर काला बाजारी व जमाखोरी के लिए इनके संभावित दुरपयोग  से इनकार नहीं किया जा सकता । आम भारतीय किसान तो  इन भण्डार ग्रहो  में घुसने तक की जुर्रत नही कर  सकता है, भण्डारण करना तो  दूर है । निजी भंडारण को बढावा देने में भी सरकारी धन व छूटो का ही अधिकाधिक लाभ बहुराष्ट्रीय कंपनियां और  पूंजीपति ही उठा रहे है । इसके  बाबजूद अभी तक कुल भण्डारण क्षमता 910 लाख टन हो पायी है । याद रहे इन भण्डार ग्रहो  में तमाम कृषि उत्पादो यथा सब्जी, फल अनाज आदि को  रखा जाता है । देश में भण्डारण की कमी या फिर उपलब्ध भण्डार गृहो  का आम किसान की पहुंच से बाहर होने के  कारण भारत में पैदा होने वाले कुल अनाज का 20  से 30  प्रतिशत हिस्सा प्रति वर्ष नष्ट हो जाता है । किसानो के  खून पशीने से उपजे इस अन्न की बरवादी को  गंभीरता से  लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 27 जुलाई, 2010 को कहा कि जिस देश में हजारों लोग भूखे मर रहे हों, वहां अन्न के एक दाने की बर्बादी भी अपराध है । इसी तरह 12 अगस्त, 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने फिर दोहराया  कि अनाज सड़ाने के बजाए केंद्र सरकार गरीब और भूखे लोगों तक इसकी आपूर्ति सुनिश्चित करे । देश की सर्वोच्च  अदालत के  इस फरमान को  सरकार एक सलाह समझ बैठी जिसके चलते अदालत को फिर कहना पड़ा कि यह आदेश है, सलाह नहीं है. तब तक 6.86 करोड़ का अनाज सड़ चुका था ।  
भारत के  सभी व्यक्तियो, विशेष रूप से निर्धनो को  खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के  लक्ष्य को लेकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली एक महत्वपूर्ण राज्य हस्तक्षेप कार्यक्रम है ज¨ वर्ष 1960 से संचालित है जिसके  तहत निर्धन तथा निर्धनतम परिवारो को  चिन्हित करके  उन्हे रियायती मूल्य पर खाद्यान्न मुहैया कराया जाता है । अनेक सर्वेक्षणों ने प्रदर्शित किया है कि गरीबी रेखा के नीचे के वर्गीकरण में दो तरह की खामियां हैं। पहली उनको बाहर रखना जो गरीब हैं और जिनके पास अपने को गरीब मनवाए जाने के लिए आवश्यक साधन नहीं है। दूसरी खामी यह है कि जो गरीब और इसके पात्र नहीं हैं, उनके नाम सूची में शामिल हो जाना क्योंकि वे प्रभावशाली होने के नाते यह करवा सकते हैं। इस प्रक्रिया में  50 से 60 प्रतिशत तक वास्तविक गरीब सूची से बाहर हो जाते हैं और दसियों लाख उन परिवारों को सरकारी सहायता प्राप्त अनाज मिलता रहता है जो इसके पात्र नहीं हैं। इन खामियों को कम से कम रखने का एकमात्र उपाय सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सर्वजनीकरण है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के  अतिरिक्त भारत सरकार द्वारा अनेको  निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम भी चलाये जा रहे है जिनमें खाद्य सुरक्षा के  घटक भी शामिल है । उदाहरण क¢ लिये काम के  बदले अनाज, दोपहर का भोजन, अन्तोदय अन्न योजना, खाद्य सुरक्षा मिशन आदि । लेकिन, इसके बावजूद देश में गरीबी घटने की बजाय, बढ़ी है। ऐसा क्यों हुआ ? क्योंकि योजनाओं का क्रियान्वयन निष्ठा व  ईमानदारी से नहीं ह¨ता है और योजनाओ  का लाभ जरूरतमंद अथवा पात्र हितग्राही तक नहीं पहँच पा रहा है। इस कटू सत्य को तो सरकार भी स्वीकार कर रही है कि इन योजनाओं के सौ में से मात्र 14 पैसे जरूरतमन्दों तक पहुंच पाते है । 
              आजादी के  बाद जो  नीतियां व व्यवस्था बनाई गई है जो गरीबी देती है, बेकारी देती है, भुखमरी देती है वो दुर्भाग्य से या तो  अंग्रेजों की बनाई हुई है या फिर भूमण्डीकरण व विश्व व्यापारीकरण की देन है जिनका हम अंधा अनुशरण करते आ रहे है और उस व्यवस्था के विरोधाभास हमको दिखाई तो देते हैं लेकिन उस व्यवस्था को ठीक करने का रास्ता नहीं दिखाई देता । इसलिए हम अपनी जनसँख्या और  अपने लोगों को ही हमेशा कोसते रहते हैं । व्यवस्था की गलती, नीतियो  की कमी हमको दिखाई देना बंद हो चुका है । ऐसी नीतियो  से गरीबी ही मिल सकती है, अमीरी नहीं मिल सकती और अगर अमीरी मिलेगी भी तो थोड़े लोगों को जो शायद एक प्रतिशत भी नहीं हैं, पूरे भारत की आबादी की। हो सकता है, भारत में एक करोड़ लोग बहुत अमीर हों लेकिन 99 करोड़ लोगों को आप हमेशा जीवन में संघर्ष करते हुए ही पाएंगे । हमारे देश में सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि 80 प्रतिशत संसाधन या फिर सरकारी सहायता का लाभ 20 प्रतिशत अमीर हड़प रहे है और  80 प्रतिशत आबादी 20 प्रतिशत संसाधनो  पर गुजर-बसर करने को  मजबूर है । मुंबई में एक उद्योगपति हैं जो अपनी पत्नी को जन्मदिन के तोहफे  के रूप में बोईंग विमान दे देते हैं और उसी मुंबई के  किसी कोने में एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी झोपड़ी भी है, जहाँ 100-100 वर्ग फिट के कच्चे कमरे में मानवता कराह रही हैं। अमीर भारत में गरीबी की इससे बढ़ी दरदे -दास्तान और  क्या हो  सकती है। इस प्रकार हम दावे से कह सकते है, मुश्किल हमारी व्यवस्था में है, लोगों में नहीं । हमें आशंका है कि बढ़ते भ्रष्टाचार, मंहगाई, गरीबी, भुखमरी से फैलते अंसतोष  और  सामाजिक-आर्थिक असमानता के  कारण कही हमें तीसरे विश्व महायुद्ध की विभीषिका से दो -चार न होना पड़ जाए ।
            भारत में सम्पूर्ण विकास के  नाम पर सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओ  की भरमार है जिनके  बारे में जनता अर्थात हितग्राहियो  को असल  जानकारी न होना सामान्य बात है परन्तु विभागीय अधिकारिओ  का योजना के  बारे में अनभिज्ञ रहना कोई आश्चर्य नही है। ऐसे में इन योजनाओ  का परिणाम जगजाहिर है । कृषि मंत्रालय के  अन्तर्गत केन्द्र प्रवर्तित 51 योजनाएं चल रही है जिनका कुल बजट 15 हजार करोड़ रूपये से अधिक का है । इन समस्त योजनाओ को  मात्र 10 योजनाओ  में इकजाई करने से बेहतर योजना प्रबंधन कर अनावश्यक खर्चा कम किया जा सकता है और  उत्तम समावेशी लाभ प्राप्त किया जा सकता है । गरीबी, भुखमरी और  महंगाई से आम आदमी को  राहत पहुँचाने के  लिए सबसे पहला कदम यह होना चाहिए कि जिन क्षेत्रों में लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिल पा रहा है वहां तत्काल भो न उपलब्ध कराना आवश्यक है जिससे वे उत्पादक कार्य  में जुट सके । किसान और किसानी को यथाशीघ्र आवश्यक मदद के  रूप में उन्नत किस्म के  बीज, खाद-उर्वरक, कृषि उपकरण, पौध  संरक्षण दवाएं, और कृषि ऋण रियायती दर पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए । इसके  अलावा किसानो  को उनके  कृषि उत्पादो  का सरकारी मूल्य कृषि लागत के  आधार पर तय किया जाना आवश्यक है तभी खेती लाभ का सो दा हो सकेगी और  ग्रामीण नौजवान  खेती की तरफ उन्मुख होंगे  । गेहूं, चावल, मक्का, कपास, गन्ना क¢ साथ साथ दलहनी, तिलहनी और मोटे  अनाज वाली हमारी परंपरागत  फसलें जैसे ज्वार, बाजरा, कोदो , कुटकी, रागी आदि के  उत्पादन को  भी प्रोत्साहित  करते हुए सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गेंहू-चावल के  साथ इन्हे भी शामिल करना आवश्यक है, जिससे खाद्य सुरक्षा के  साथ-साथ हमारी पोषण  सुरक्षा भी मजबूत हो सके । खाद्यान्न पर आधारित जैव ईंधन के उत्पादन पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने की जरूरत है ।  जैव ईंधन तैयार करने के  वैकल्पिक साधनो  जैसे बायोमास आदि का उपयोग  किया जा सकता है । कृषि योग्य भूमि का निरंतर घटना सबसे अधिक चिन्ता का विषय है । अतः सरकार को  चाहिए कि वह कृषि भूमि का गैर कृषि कार्य  में परिवर्तन पर अंकुश लगाएं । विशेष ओद्योगिक क्षेत्र बनाने के लिए कृषि योग्य भूमि कस उपयोग पर कड़ा प्रतिबन्ध लगाना  चाहिए। मेरा तो सुझाव हे की अब भारत की सभी प्रादेशिक सरकारों को अपने अपने राज्यों में विशेष कृषि क्षेत्र स्थापित करना चाहिए जिसमे छोटे एवं मझोले किसानो के समूह बनाकर विविध कृषि करने उन्हें प्रेरित करना चाहिए। इसके अलावा प्रत्येक देश व् राज्यों  को अपने-अपने यहां अनाज का एक ऐसा रिजर्व तैयार करना चाहिए जिसका उपयोग अचानक पैदा होने वाले खाद्यान्न संकट से निपटने में किया जा सके। बाजार से अन्न व आवश्यक वस्तुओ  की जमाखोरी बढ़ रही है और कारोबारी भाव के साथ खेल रहे हैं। इससे अनाज के भाव बढ़ने से खाद्यान्न गरीबो  की पहुंच के  बाहर होते जा रहे है । इसलिए देश में महंगाई के  फलस्वरूप फैलने वाली  गरीबी और  भुखमरी को  कम करने के  लिए  वायदा बाजार पर प्रतिबंध लगाना बेहद जरूरी है। इन सब में सबसे अहम बात है कि भूखे को  भोजन देकर हम उसकी एक दिन की भूख मिटा सकते है परन्तु यदि उसे भोजन अर्थात अनाज  पैदा करने   की खातिर उन्हें   आधुनिक तौर  तरीके  सिखा देते है तो  उसके  जीवन भर की भूख मिट सकती है ।आज आवश्यकता है कि कृषि विज्ञान की तमाम उपलब्धियो को  देश के  हर गाँव व प्रतिएक  खेत तक पहुँचाने की, गांव के  नर-नारियो, बच्चे  एवं युवाओ को  कृषि उत्पादन की उन्नत  तकनीक के साथ  साथ कृषि में रोजगार के  वैकल्पिक साधनो के  बारे में शिक्षित-दीक्षित करने की । ऐसा करने से एक तरफ हमारी कृषि समृद्ध होगी वही दूसरी तरफ देश में अनुत्पादक कृषको  की संख्या में भी कमी होगी जिसके  फलस्वरूप ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार होगा।
               विकास की उपलब्धियो  से हम ताकतवर बन सकते है, महान नहीं । महान उस दिन बनेगें जिस दिन मंहगाई की मार से आम आदमी को  मुक्ति मिलेगी, जिस दिन कोई  भूखा नहीं सोएगा, जिस दिन कोई  बच्चा कुपोषित नहीं रहेगा, जिस दिन कोई  ग्रामीण अशिक्षित नहीं रहेगा और  जिस दिन सत्ता की कुर्सी पर कोई  राजा बन कर नहीं, सेवक बन कर बैठेगा । यह आदर्श स्थिति जिस दिन हमारे राष्ट्रीय चरित्र में आयेगी, उस दिन महानता हमारे सामने होगी  । फूलो  से इत्र बनाया जा सकता है, पर इत्र से फूल नहीं उगाए जाते । उसके  लिए बीज को   अपनी हस्ती मिटानी पड़ती है । देखिये जब देश की आजादी की लड़ाई चल रही थी तो पूरा भारत उस लड़ाई में नहीं लगा था चन्द लोगों ने उस लड़ाई को लड़ा और हमें आजादी हासिल हुई  । अब हमें स्वराज्य के लिए लड़ना होगा, स्वराज्य मतलब अपना राज्य, अपनी व्यवस्था, तभी हम सफल हो पाएंगे एक राष्ट्र के रूप में, और आप इसमें भारत की पूरी जनता से उम्मीद न कर सकते है कि वो इस महा यज्ञ में शामिल हो जायेगी । हां सभी गणमान्य नागरिको  के समर्थन की जरूरत अवश्य होगी। किसी जन-क्रांति के पहले एक वैचारिक क्रांति होती है । मैंने इस लेख के  माध्यम से उसी वैचारिक क्रांति के लिए ही भारतीय जनमानस को  प्रेरित करने का विनम्र  प्रयास किया है । 
जय किसान !जय जवान ! जय विज्ञान !
नोट : बगैर लेखक की अनुमति के पुनः प्रकाशित करना अपराध माना जाएगा। कृपया ध्यान रखें।

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

भारतीय कृषि के सतत विकास हेतु आवश्यक पहल


डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

       कृषि, भारतीय अर्थव्यवस्था का न केवल अभिन्न और सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है बल्कि यह देश की बहुत बड़ी आबादी के रोजगार, व्यवसाय और आय का साधन भी है। आज हम जिस युग में जी रहे हैं वह वैश्वीकरण का युग है। दुनिया भर के देश एवं लोग एक-दूसरे के काफी करीब आ रहे हैं और इसका प्रभाव औद्योगिक, व्यवसायिक या तकनीकी क्षेत्रों के साथ-साथ कृषि और कृषि पर आधारित अन्य क्षेत्रों पर भी व्यापक रूप से पड़ रहा है। कृषि के विश्व बाजार से जुड़ने से कृषि और किसानों को देश के भीतर और देश के बाहर भी एक नई तरह की प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन इसके साथ ही, यह समय कृषि और किसानों के सामने एक नया अवसर और संभावनाएं तलाशनें का भी मौंका देता है। किसानों के लिए बाजार को समझना बेहद जरूरी हो गया है। अगर अच्छा बाजार है तो उसके अनुसार कृषि उत्पादन के लिए आवश्यक उपाय करना अपनाना चाहिए और नई जगह मार्केट बनाने के लिए भी कोशिष करना चाहिए। 
इसमें कोई संदेह नहीं हैं कि हमारे देश ने कृषि शिक्षा, कृषि अनुसंधान और  कृषि की नई तकनीक तथा उन्नत प्रजाति के फसलों को विकसित करने में महत्वपूर्ण उपलब्धियां अर्जित की हैं। वर्ष 1951 में हमारे देश का खाद्यान्न उत्पादन मात्र 51 मिलियन टन था, जो कि वर्तमान में 227 मिलियन टन के आस-पास पहुंच गया है। ‘हरित क्रांति’ के माध्यम से भारत  ने खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त कर ली है। इसी तरह तिलहनों के लिए ‘पीत क्रांति’, दूध के लिए ‘श्वेत क्रांति’, मत्स्य उत्पादन के लिए ‘नीली क्रांति’ के साथ-साथ उद्यानिकी और पुष्प उत्पादन के क्षेत्र में रेखांकित की जाने वाली उपलब्धियों प्राप्त हुई है। इन उपलब्धियो  ने न केवल किसानों को लाभान्वित किया हैं बल्कि हमारे देश की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाया हैं और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का सम्मान बढ़ाया है। 
परन्तु  जहां एक ओर कृषि उत्पादन लगातार बढ़ता दिख रहा हैं वहीं दूसरी ओर देश की बढ़ती हुई आबादी की मांग के अनुसार यह वृद्धि अपर्याप्त दिखाई देती है। वर्ष 1991 में खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता लगभग 510 ग्राम थी, जोकि  वर्तमान में 421 ग्राम प्रति व्यक्ति रह गई है। इसी तरह दलहन के क्षेत्र में पहले जहां दालों की उपलब्धता 70 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन थी। यह क्रमशः गिरकर 50 ग्राम और अब मात्र 30 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रह गई है। इसके कारण विशेषकर शाकाहारियों के लिए दैनिक आहार में प्रोटीन की उपलब्धता में कमी आने से कुपोषण जैसी समस्याए फ़ैल रही है जा की हम सब के लिए  चिंता और चिंतन का विषय  है। तिलहन उत्पादन में भी हम पीछे हैं। और हमें अपनी आवश्यकता का 35 से 40 प्रतिशत खाद्य तेल का आयात करना पड़ता है। दलहन और तिलहन उत्पादन बढ़ाने के लिए केन्द्र शासन द्वारा विश्¨ष प्रयास किये जा रहे हैं। मै वैज्ञानिको  का आहवान करना चाहता हूँ कि चावल-गेहूँ की भांति दलहन-तिलहन तथा सब्जी उत्पादन के क्षेत्र  में भी क्रांति लाने के कारगर उपाय करें 
हमारे देश में जहां दो तिहाई आबादी कृषि पर आधारित है, परन्तु देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान लगातार कम होता जा रहा है। ग्रामीण भारत में भी लघु एवं सीमांत किसानों का बाहुल्य है जिनके पास उपलब्ध कास्तकारी का रकबा पीढ़ी दर पीढ़ी बंटवारे के कारण और छोटा होता जा रहा है। यह भी हमारे लिए चिंता और सोच का विषय है। कृषि का सतत विकास आज देश की प्रमुख आवश्यकता हैं क्योंकि इसके बिना हम अपने राज्य और देश की जो विकास दर चाहते हैं वह संभव नहीं है। यह जरूरी  है कि खेती-किसानी को और अधिक टिकाऊ एवं लाभकारी बनाया जाएं, कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता में तेज गति से वृद्धि हो तथा खाद्यान्न संबंधित सभी आवश्यकताएं देश में  ही पूरी हों। यह भी जरूरी हो गया है कि कृषि कार्य में युवाओं का रूझान बढ़े और इस क्षेत्र में कुशल संसाधन प्रबंधन से देश में सम्पन्नता बढ़ें। इसका महत्व समझा जाये इसे छोटा काम न समझा जाये। 
छत्तीसगढ़ की 80 प्रतिशत आबादी कृषि या कृषि आधारित कार्यों में संलग्न है।  प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्र 137.87 हेक्टेयर का लगभग 35 प्रतिशत हिस्सा या लगभग 47.99 लाख हेक्टेयर जमीन खेती योग्य है। इसी तरह राज्य का लगभग 12.3 लाख हेक्टेयर हिस्सा वनों से आच्छादित है। यह कुल भौगोलिक रकबा का लगभग 45 प्रतिशत है। प्रकृति ने छत्तीसगढ़ को खनिज स्त्रोतों एवं प्राकृतिक संपदा से भरपूर नवाजा है। लेकिन मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से अभी भी हम पीछे है। हमें ज्ञान-विज्ञान और कौशल के माध्यम से सामूहिक प्रयत्न करना है कि हम अपने प्रदेश को अग्रणी और विकसित राज्यों की सूची में सबसे ऊपरी पायदान में पहुंचा सकें। 
खेती में विविधता आवश्यक है। छत्तीसगढ़ में आम फसलों के साथ फल-फूल, सब्जियाँ, मसाले और औषधीय फसलों की खेती के साथ-साथ पशुपालन, कुक्कुट एवं मत्स्य पालन को भी समन्वित रूप से बढ़ावा दिया जाना जरूरी है। हमारे राज्य में उपजाऊ जमीन और पानी भरपूर होने के बाबजूद एक फसली क्षेत्र की प्रधानता है। जिन राज्यों मई फसल सघनता अधिक है वे आज संपन्न राज्यों की श्रेणी में सुमार है। छत्तीसगढ़ में भी  अब  आवश्कता है  एक फसलीय जमीन को  दो और तीन फसलीय खेती में तब्दील कर दिया जाए  तभी हमारे किसानो को वर्ष के   365 दिन भरपूर काम और अच्छी  आमदनी प्राप्त हो सकेगी। इससे न केवल हमारे किसान की आर्थिक दशा में सुधार होगा वरन गाँव से शहर की और ग्रामीणों का पलायन भी थम सकता है।छत्तीसगढ़ के तेजी से विकास के लिए यह जरूरी हैं कि हम कृषि के उत्पादन में कम से कम राष्ट्रीय औसत के बराबर पहुचे .। हमारें छत्तीसगढ़ में 96 लाख मवेशी हैं अगर इन्हें गुढ़वत्ता युक्त दाना चारा उपलब्ध हो सके   और इनकी नस्ल सुधार की दिशा में सार्थक पहल की जाए तो हमारे राज्य में भी दूध की नदियां बह सकती है। राज्य सरकार ने कामधेनु विश्विद्यालय स्थापित किया है जिससे पशुधन विकास की आशा बलवती हुई है। हमें अच्छे और उन्नत किस्म के बीजों पर भी विशेष रूप से ध्यान देने की जरूरत है। राज्य में राष्ट्रीय बागवानी मिशन संचालित है। यहां आम, अमरूद, पपीता, अनार, सीताफल और नींबू आदि उत्पादन लेने की भी अच्छी संभावनाएं है। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के माध्यम से उन्नत कृषि तकनीकी प्रसार का कार्य किया जा रहा है जिससे फसलो त्पादन और  किसानो  की आमदनी बढ़ने की अच्छी संभावना है । आज के युग में कृषि उत्पादों की  संग्रहण सुविधाओं और प्रसंस्करण कार्यों ने  फसलों के मूल्य संर्वधन (वेल्यू एडीसन) का महत्वपूर्ण कार्य किया है। इससे खाद्य पदार्थो की उपलब्धता बढ़ी हैं, रोजगार के लिए नये अवसर बढ़े हैं और उपजों क व्यापक बाजार  को बढ़ावा मिला है। प्रदेश की लोकप्रिय सरकार ने कृषि का अलग से बजट प्रस्तुत कर के कृषि और किसानो के कल्याण की अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है। वास्तव में यह अनुकरनिय पहल है।छत्तीसगढ़ में  इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय अपने महाविद्यालयो  एवं कृषि विज्ञान केन्द्रों के  माध्यम से प्रदेश की खेती किसानी को समोन्नत  करने निरन्तर प्रयासरत है । 

बुधवार, 23 जनवरी 2013

कृषिका: इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के छठवें द...

कृषिका: इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के छठवें द...: इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के छठवें दीक्षांत समारोह  छत्तीसगढ़ के माननीय राज्यपाल श्री शेखर दत्त जी का उद्बोधन रायपुर,...

श्री चन्द्रशेखर साहू जी, माननीय मंत्री कृषि, पशुधन विकास, मत्स्य पालन एवं श्रम विभाग, छत्तीसगढ़ शासन का इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के पष्ठम् दीक्षांत समारोह के अवसर पर उदबोधन


इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के पष्ठम् दीक्षांत समारोह के अवसर पर 
श्री चन्द्रशेखर साहू जी, माननीय मंत्री
कृषि, पशुधन विकास, मत्स्य पालन एवं श्रम विभाग, 
छत्तीसगढ़ शासन का उदबोधन 



इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के पष्ठम् दीक्षांत समारोह के मुख्य अतिथि, हम सब के मार्गदर्शक एवं प्रेरणा स्त्रोत, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह जी, अध्यक्ष की आसंदी पर विराजमान आदरणीय राज्यपाल छत्तीसगढ़ एवं कुलाधिपति, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय माननीय श्री शेखर दत्त जी, कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि माननीय पदमश्री डा. अनिल के. गुप्ता, कार्यपालिक उपाध्यक्ष, नेशनल इनोवेशन फाउन्डेशन, इस विश्वविद्यालय के सम्माननीय कुलपति डा. एस.के. पाटील जी, प्रबंध मंडल तथा विद्या परिषद् के सम्माननीय सदस्यगण, अधिष्ठाता, निदेशक, प्राध्यापक, वैज्ञानिकगण, उपाधि एवं स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाले प्रिय छात्र-छात्राओं, आमंत्रित अतिथि गण, प्रेस एवं मीडिया के पधारे प्रतिनिधियों, देवियों एवं सज्जनों।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय का आज 27वा स्थापना दिवस है। इस अवसर पर यह पावन समारोह आयोजित हो रहा है जिसमें मैं आप सब के बीच उपस्थित होकर गौरवान्वित हूँ ! मैं आप सब को बधाई देता हूँ, विशेषकर उन छात्र-छात्राओं को जिनकी लगन और कड़ी मेहनत आज पुरस्कृत होने जा रही है। साथ ही मैं संकाय के सभी प्राध्यापकों, वैज्ञानिको और कुलपति जी को भी शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ, जिनके मार्गदर्शन मे विद्यार्थियों ने प्रवीणता हासिल की है। बीते हुये 26 वर्षों के कार्य-कलापों का विश्लेषण कर अतीत की उपलब्धियों तथा उनकी कमियों पर गौर करना चाहिए। इस प्रयत्न में राज्य को कृषि क्षेत्र में उत्कृष्ट बनाना ही लक्ष्य होना चाहिए।
मैंने जो देखा है और सुना है कि विगत् 26 वर्षों में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय ने अनेक उपलब्धियाँ अर्जित की है। कृषि शिक्षा के क्षेत्र में हमने काफी तरक्की की है। साथ ही शोध, तकनीकी उन्नयन और प्रसार के क्षेत्र में भी हमारे योगदान को सराहना मिल रही है। छत्तीसगढ़ की विभिन्न फसलों जैसे धान, गेहँू, चना, तिवड़ा, सरसों, अलसी, सोयाबीन, सब्जी, फल आदि  की 50 से अधिक उन्नत किस्में विकसित की गई है। इनमें से 13 किस्में तो वर्ष 2010 में ही विकसित हुई है। इसी प्रकार विश्वविद्यालय द्वारा डिजाईन एवं निर्मित किये गये विभिन्न प्रकार के 40 कृषि यंत्र आज प्रदेश के सभी क्षेत्रों में सीधे किसानों तक अनुदान पर पहुंचाये जा रहे हैं। अभी तक 5 करोड़ 24 लाख रूपये मूल्य के 1 लाख 11 हजार कृषि यंत्र/मशीनों का उत्पादन कर किसानों तक पहुंचाया गया है। कृषि यंत्रीकरण की बढ़ती हुई उपयोगिता एवं माँग को देखते हुये वर्ष 2012-13 में 50 नये कृषि सेवा केन्द्र स्थापित किये जायेगें। इस हेतु 10 करोड़ रूपये का प्रावधान किया है। विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक एवं कृषि विभाग इन उपलब्धियों के लिये बधाई के पात्र है। इससे प्रदेश में कृषि के मशीनीकरण को बढ़ावा मिलेगा तथा मजदूरों की समस्या से कुछ हद तक छुटकारा भी मिलेगा। मेरे विचार से हाई-टेक मशीनरी का उपयोग करके कम समय में कृषि कार्य सम्पन्न कर दूसरी फसल लेने के बारे में आशावान हुआ जा सकता है। शासन भी किसानों को नाम मात्र के किराये पर इन मशीनों को उपलब्ध कराने का प्रयास कर रहा है। इससे कृषि मजदूरों की कमी की समस्या पर अंकुश लगेगा। इसके अलावा, जल एवं मृदा संरक्षण, समन्वित कीट-रोग प्रबंधन, खरपतवार नियंत्रण, फसल प्रणाली विकास, वानिकी विकास, पशु पालन, डेयरी प्रौद्योगिकी एवं उन्नत कृषि यंत्रों के विकास में विश्वविद्यालय ने विशेष प्रगति की है। सीमित संसाधनों के बावजूद यहां के वैज्ञानिकों व छात्र-छात्राओं ने अपने ज्ञान और कौशल का परिचय देते हुए राज्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मैं पुनः आप सभी को बधाई व धन्यवाद देता हूँ तथा आशा करता हॅू कि आने वाले दिनों में और अधिक उत्साह के साथ एकजुट होकर प्रदेश की खेती किसानी को उच्च शिखर पर पहुंचाने का सार्थक प्रयास जारी रखेंगे।
खेत में किसान, सीमा में जवान। जब तक सीमा में जवान सजग है, तक तक देश और देश की सीमा सुरक्षित है। इसी प्रकार जब तक खलिहान में किसान है, संसार के प्राणी मात्र का उदर-पोषण होता रहेगा। अन्नदाता का स्थान हर युग में देवतुल्य वर्णित है, परन्तु व्यवस्था में किसान की स्थिति उतनी ही दयनीय है। इस अन्तर को पाटने की जिम्मेदारी हम सब की है। पूरा विश्व आज आर्थिक मंदी की चपेट में है, परन्तु भारत में इसका प्रभाव नगण्य है। इसका कारण खेती है। खेती से आर्थिक, सामाजिक, रोजगार, खाद्यान्न, स्वास्थ्य संबंधित सभी समस्याओं का समाधान सुनिश्चित हैं। किसानों को जब सुविधा और सम्मान मिलेगा तभी खेती-किसानी के प्रति युवा वर्ग आकर्षित होगा और तभी जय जवान, जय किसान का नारा सार्थक होगा।
महात्मा गाँधी कहा करते थे कि भारत सात लाख गाँवों में बसा है। भारत कृषि-प्रधान देश है। कृषि-संस्कृति उसकी मूल संस्कृति है। सरदार पटेल ने कृषि को ही देश की संस्कृति माना था। इस कृषि संस्कृति पर हमारे पूर्वजों को भी गर्व था। जवाहर लाल नेहरू जी ने भी कहा था कि दूसरी चीजें प्रतीक्षा कर सकती है लेकिन कृषि नहीं।
भगवान श्री कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता बलदाऊ हलधर कहलाते थे। हलधर का अर्थ है कृषक। हल बलदाऊ का आयुध था। हल, कृषि-संस्कृति का प्रतीक है। भगवान श्री गोपाल कहलाते थे। गोपालन और कृषि का वही संबंध है जो भगवान श्री कृष्ण और बलदाऊ का। तात्पर्य यह कि हमारे देश में प्राचीन काल से कृषि तथा गौ पालन का सर्वोपरि महत्व था। ये हमारे अर्थतंत्र के केन्द्र थे। हमारे देश में कृषि विज्ञान वैदिक काल के समकक्ष प्राचीन है। पाराशर स्मृति में कृषि कर्म को मनुष्य मात्र का प्रधान कर्म कहा गया है। ़ऋषि पाराशर कृषि संस्कृति के सबसे बड़े सम्पोषक और प्रचारक थे।
ऐसे ही कृषि प्रधान देश भारत के आग्नेय कोण में स्थित है हमारा राज्य छत्तीसगढ़। प्राचीन काल में इसका नाम था कौशल। बाद में इसे दक्षिण कौशल या महाकौशल नाम से सम्बोधित किया जाता रहा। अब यह छत्तीसगढ़ के नाम से प्रसिद्ध है। छत्तीसगढ़ धान के प्रचुर उत्पादन के कारण धान के कटोरा के नाम से भी सुविख्यात है। कृषि वैज्ञानिक डाॅ. रिछारिया जी के अनुसार विश्व में धान की साढ़े बीस हजार प्रजातियाँ पायी जाती है उनमें से दस हजार प्रजातियाँ छत्तीसगढ़ में पायी जाता है। आज हमें गर्व है कि विश्वविद्यालय में अब तक 23,070 से अधिक जननद्रव्य सुरक्षित है, जो हमारी धरोहर है। इसका संरक्षण किया जाना चाहिए।
कृषि और किसानों का लक्ष्य अब मात्र भरपूर अन्न उत्पादन ही नहीं, अपितु कृषि का विविधीकरण  व्यवसायिक लाभ कमाना होना चाहिए। अतएव मेरा मानना है कि खेती किसानी के लिए नई-नई और उन्नत तकनीकों को खेत खलिहान तक पहुंचाने से ही किसानों की आर्थिक दशा में सुधार होगा। फसलों की कम लागत में ज्यादा उत्पादन देने वाली, सूखा रोधी और कीट-व्याधी प्रतिरोधक किस्मों को विकसित करने की आवश्यकता है। कम पानी में अधिक उत्पादन देने वाली किस्में तथा पद्धतियाँ विकसित की जानी चाहिए। परम्परागत रोपा पद्धति की तुलना में श्री विधि या मेडागास्कर पद्धति से धान उत्पादन औसतन 30 प्रतिशत अधिक दर्ज किया गया है। इस विधि के क्षेत्र विस्तार हेतु आगामी खरीफ मौसम मे 20 हजार हेक्टेयर में वृहद प्रदर्शन आयोजित किया जावेगा। जिसके लिये 7 करोड़ रूपये का प्रावधान है। प्रदेश में शुष्क खेती की आधुनिक तकनीक अपनाते हुये किसानों को खरीफ के साथ-साथ रबी फसल लेने के लिये प्रोत्साहित किया जावेगा। इस हेतु 40 हजार हेक्टेयर में प्रदर्शन लिया जावेगा। इसी तरह उद्यानिकी विकास के लिये नदी के कछार एवं तटों पर सब्जी उत्पादक किसानों के प्रोत्साहन हेतु प्रदर्शन आयोजित किये जावेंगे। अनुसूचित जनजाति बाहुल्य क्षेत्र में कृषकों की बाड़ी में सब्जी की खेती हेतु टपक सिंचाई योजना के अंतर्गत लागत का 75 प्रतिशत अनुदान दिया जावेगा। राष्ट्रीय बीमा योजनांतर्गत देय प्रीमियम बाबत् देय भार को कम करने के लिये राज्य सरकार के अंशदान को 5 प्रतिशत बढ़ाकर 20 प्रतिशत किया जावेगा। इससे प्रदेश के 24 लाख लघु एवं सीमांत किसानों को फायदा होगा। वर्तमान में प्रदेश में 7 मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला संचालित हैं, इस वर्ष 4 नवीन प्रयोगशालाए स्थापित की जावेगी। आगामी खरीफ मौसम में कृषकों को अनुदान पर हरी खाद के बीज उपलब्ध कराये जावेंगे, जिसके लिये 4.25 करोड़ रूपये का प्रावधान है। उन्नत ज्ञान के साथ-साथ परम्परागत ज्ञान भी लाभप्रद है। उदाहरण के तौर पर मैं यह बताना चाहता हूँ  कि बागबहरा तथा गरियाबंद में कमार जनजाति द्वारा बम्बू चैक डेम से बहती जल सरिता को मोड़कर धान में सिंचाई की जाती है। अब प्रदेश में तीन शक्कर कारखाने स्थापित हो चुके है, परन्तु गन्ने का क्षेत्र और उत्पादन बढ़ाने की दिशा में हमारे प्रयास नगण्य है। गन्ना फसल पर गहन शोध तथा क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप किस्में विकसित करने की आवश्यकता है। इस हेतु हमारे राज्य में एक राष्ट्रीय गन्ना अनुसंधान केन्द्र स्थापित करने की आवश्यकता है। इससे किसानों को गन्ने की उन्नत तकनीकी और सुधरे बीज उपलब्ध हो सकेंगे। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सहयोग से राज्य में बायोटिक स्ट्रेस प्रबंधन का राष्ट्रीय संस्थान बरोंडा में स्थापित हो रहा है। 
दो वर्ष पूर्व मैंने किसानों के साथ पीपली लाईव फिल्म देखी थी जो किसानों की आधारभूत समस्याओं में से एक ऋण ग्रस्तता के जमीनी सच को उजागर करती है। अब छत्तीसगढ़ में तो ऐसी स्थिति नहीं है फिर भी इस फिल्म से छात्रों, कृषि वैज्ञानिकों, प्रसार अमले और किसानों को विपरीत परिस्थितियों में भी दृढ़ निश्चय के साथ संघर्ष करने की प्रेरणा लेनी चाहिए। इस फिल्म से केन्द्र सरकार सहित उन राज्यों की सरकारों को भी सबक लेना चाहिए, जहां किसानों की आत्महत्याओं के अधिक मामले सामने आए। मेरे प्रेरणास्त्रोत और राज्य के ऊर्जावान मुख्यमंत्री डा. रामन सिंह के कुशल नेतृत्व में प्रदेश सरकार ने किसानों की बेहतरी के लिए खेती किसानी के लिए सबसे पहले 3 प्रतिशत में किफायती ब्याज पर कृषि ऋण उपलब्ध कराने की योजना शुरू की थी, वर्तमान में यह ब्याज दर घटाकर 1 प्रतिशत हो गई है। समर्थन मूल्य पर धान खरीदी पर बोनस से लेकर सरकार ने उन्नत बीजों की व्यवस्था के साथ-साथ सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने, नलकूप खोदने, तालाब बनाने से लेकर नदी कछार क्षेत्रों में उथले ट्यूबवेल बनाने जैसी योजनाएँ संचालित की है। सरकार ने खेतीहर महिला मजदूरों को बारिश में भीगने से बचाने के लिए निःशुल्क बरसाती देने के साथ-साथ सब्जी उत्पादक किसानों को बिजली और डीजल पम्प खरीदने पर भी 17000 रूपये तक की छूट देने की योजना चलाई है। ऐसी कई योजनाओं के कारण ही प्रदेश के किसानों में खुशहाली और सम्पन्नता आयी है। आज देश में प्राथमिक क्षेत्र में विकास की दर 2 प्रतिशत से आगे नहीं है, जबकि छत्तीसगढ़ में तमाम चुनौतियों के बावजूद कृषि के क्षेत्र में यह वृद्धि दर 5 प्रतिशत से अधिक है। छत्तीसगढ़ में विकास की गंगा बहाने में आप सब की भागीदारी है। प्रदेश सरकार की प्रतिबद्धता को साकार करने और किसानों की खुशहाली में आप सब के निरन्तर सहयोग की हमें दरकार है जिससे शासन की किसान हितैषी योजनाओं का अधिक से अधिक लाभ राज्य के प्रत्येक गाँव परिवार तक पहुंच सके।
अंत में मै पुनः आज स्नातक और स्नातकोत्तर उपाधि और पदक से नवाजे जाने वाले सभी छात्र-छात्राओं को बधाई और कोटिशः शुभकामनाएँ देता हूँ और आशा करता हूँ कि उनके द्वारा संजोये गये उज्जवल भविष्य के सपने तथा उनके माता-पिता और गुरूजनों की आशाएँ आकांक्षाएँ फलीभूत हों। आज के कार्यक्रम में मुझे आमंत्रित करने तथा आप के समक्ष अपनी भावनाएँ व्यक्त करने का अवसर देने हेतु मैं विश्वविद्यालय परिवार और यहाँ के मुखिया डा. पाटील जी का आभारी हूँ। 
धन्यवाद।
जय हिन्द, जय किसान, जय छत्तीसगढ़। 

डा. रमन सिंह माननीय मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़ का उद्बोधन षष्ठम् दीक्षांत समारोह 20 जनवरी, 2013 इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर (छत्तीसगढ़)



सम्माननीय मुख्य अतिथि डा. रमन सिंह माननीय मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़ का  उद्बोधन 
षष्ठम् दीक्षांत समारोह 20 जनवरी, 2013 
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर (छत्तीसगढ़) 




आज के दीक्षांत समारोह के अध्यक्ष माननीय राज्यपाल छत्तीसगढ़ एवं कुलाधिपति श्री शेखर दत्त जी, पद्मश्री     डा. अनिल के. गुप्ता, कार्यपालक उपाध्यक्ष, नेशनल इनोवेशन फाउन्डेशन, प्रदेश के कृषि, पशुपालन, मत्स्य पालन एवं श्रम विभाग के माननीय मंत्री श्री चन्द्रशेखर साहू जी,  कुलपति डा. एस.के. पाटील जी, प्रबंध मंडल तथा विद्या परिषद् के सम्माननीय सदस्यगण, अधिष्ठाता, संचालक, प्राध्यापकगण, उपस्थित अतिथिगण, उपाधि एवं स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाले प्रिय छात्र एवं छात्राओं, मीडिया के महानुभाव, देवियों और सज्जनों।
मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि मैं तेजी से कृषि विकास की ओर अग्रसर छत्तीसगढ़ राज्य के समर्पित वैज्ञानिकों, प्राध्यापकों, प्रसार विशेषज्ञों, कृषक प्रतिनिधियों, नीति निर्धारकों, विद्वानों और विद्यार्थियों के साथ विश्वविद्यालय के सबसे गरिमामय समारोह में उपस्थित हूँ। 
वर्तमान में भारत की 54 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या युवा है। देश एवं हमारे प्रदेश की प्रगति में भी युवाशक्ति का उल्लेखनीय योगदान है। यहां उपस्थित सभी छात्र-छात्राओं का आव्हान करता हूँ  कि वे कृषि, शोध और प्रसार के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित करते हुये, समाज व राष्ट्र को नई दिशा प्रदान करें । युवा जिज्ञासु, ऊर्जावान, आदर्शवादी, साहसी और सकारात्मक विचारों से ओत-प्रोत होते हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था का दायित्व है कि युवाओं की इन प्रतिभाओं को निखारें। संस्कृत में बहुत सुन्दर श्लोक है:
विद्या ददाति  विनयं,  विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्ध नमाप्नोति धनाद्धर्म ततः सुखम् ।।
तात्पर्य यह है कि शिक्षा ही जीवन में सुख और सम्पन्नता लाती है।  छत्तीसगढ़ में हर विधा की उच्च शिक्षा के अवसर तथा सुविधाए उपलब्ध कराई जा रही हंै। व्यावसायिक शिक्षा के अवसर बढ़ाने के लिए विभिन्न संकायों में नवीन सुविधाओं तथा नवीन प्रौद्योगिकी को बढ़ावा दिया जा रहा हैं। हमारा प्रयास है कि छत्तीसगढ़ में विकसित हो रही संभावनाओं के लिए कुशल मानव संसाधन राज्य में ही उपलब्ध हो सकें ताकि बुनियादी अधोसंरचना के साथ नई पीढ़ी का भविष्य संवर सके।

राज्य गठन को 12 वर्ष  पूर्ण हो चुके हैं । इस बीच हमने हर क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की है । छत्तीसगढ़ का नाम अब देश में सर्वाधिक तेजी से विकास कर रहे राज्यों में भी अग्रणी रूप में  लिया जाता है । हम चाहते हैं कि राज्य के विकास में कृषि का सर्वाधिक योगदान दर्ज हो ।  अपनी उपलब्धियों और कमियों का आकलन करने का यह सही समय है। हम इस विश्वविद्यालय को देश की दूसरी हरित क्रांति का अग्रदूत बनाने का संकल्प लें।   ग्रामीण क्षेत्रों को पुनः सशक्त बनाने का प्रण लें। भविष्य की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए एवं पुराने अनुभवों का उपयोग करते हुये, नए तरीकों और अन्वेषणों को खेत-खलिहान तक पहुँचाना होगा। इस हेतु उपलब्ध अपार प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर उपयोग सुनिश्चित कर खेती को लाभप्रद बनाना होगा। पिछले वर्षों में विश्वविद्यालय की उपलब्धियाँ प्रशंसनीय रही हैं। विभिन्न फसलों की 50 से अधिक उन्नत किस्में विश्वविद्यालय ने विकसित की है। विश्वविद्यालय ने धान के 23070 जननद्रव्य संजोकर रखे हुए हैं, जिसमें प्रदेश के माटीपुत्र डा आर.एच. रिछारिया का विशिष्ट अविस्मरणीय योगदान है। कृषि विश्वविद्यालय ने एकफसली क्षेत्र को बहुफसली क्षेत्र में परिवर्तित करने, खाद्य एवं पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने तथा ग्रामीण क्षेत्रों में आय एवं रोजगार के अवसर बढ़ाने के उद्देश्य से उपयुक्त फसल पद्धति विकसित करने में सराहनीय कार्य किया है। विश्वविद्यालय का कृषि अभियांत्रिकी संकाय भी राज्य के विकास में सक्रिय सहयोग दे रहा है। इस संकाय ने 40 विभिन्न उन्नत कृषि यंत्रों का विकास एवं उत्पादन कर उन्हें राज्य के किसानों तक पहुंचाया है। मुझे यह जानकर खुशी हुई कि आपका विश्वविद्यालय कृषि फसलों का उत्पादन बढ़ाने के साथ ही कृषि उपकरणों के निर्माण में 
भी आगे आ रहा है। किसानों की सुविधा के लिये विश्वविद्यालय की निर्माण इकाई ने अभी तक 5 करोड़ 24 लाख रूपये मूल्य के 1 लाख 11 हजार कृषि यंत्र/मशीनों का निर्माण कर उन्हें किसानों तक पहुंचाया है। विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक इन उपलब्धियों के लिये बधाई के पात्र हैं। वस्तुतः कृषि कार्यों में हाई-टेक मशीनरी जैसे कम्बाइन हार्वेस्टर, सेल्फ-प्रोपेल्ड ट्रांसप्लांटर, सेल्फ-प्रोपेल्ड रीपर का उपयोग कर मजदूरों की कमी की समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। शासन भी इन्हें किराये पर किसानों को उपलब्ध कराने हेतु प्रयासरत् है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद एवं राज्य सरकार के सहयोग से संचालित कृषि विज्ञान केन्द्रों द्वारा किसानों एवं प्रसार अधिकारियों को प्रशिक्षण एवं प्रक्षेत्र प्रदर्शनों के आयोजन से राज्य में कृषि तकनीकी प्रसार में बहुत मदद मिल रही है। मुझे ज्ञात है कि सरगुजा और बस्तर के कृषि विज्ञान केन्द्रों को उत्कृष्ट कार्य के लिए पूर्व में राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया है। इसी तरह आदिवासी अंचल के एक कृषक ने सस्ता और सुन्दर बीज बोआई यंत्र विकसित कर पूरे राष्ट्र में सराहना व सम्मान प्राप्त किया। कृषि यंत्रीकरण की बढ़ती हुई उपयोगिता एवं मांग को देखते हुये वर्ष 2012-13 में 50 नये कृषि सेवा केन्द्र स्थापित किये जायेंगे। इस हेतु 10 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है। इन सभी उपलब्धियों तथा उत्कृष्ट कार्यों के लिए यहां के कुलपति, वैज्ञानिक, छात्र तथा किसान भाई बधाई के पात्र हैं। इनके सतत् प्रयास से प्रदेश की कृषि को नई पहचान मिली है।
यह कृषि विश्वविद्यालय राज्य के किसानों की जरूरतों को ध्यान में रखकर कृषि शिक्षा, अनुसंधान एवं विस्तार कार्यक्रम चलाता है। विश्वविद्यालय ने आधारभूत सुविधाओं तथा मानव संसाधन की कमी के बावजूद ‘‘विश्वसनीय छत्तीसगढ़’’ की पहचान स्थापित करने में उल्लेखनीय योगदान दिया है।  हमारे राज्य में स्थापित किया जाने वाला ’’राष्ट्रीय बायोटिक स्ट्रेस मैनेजमेन्ट इंस्टीट्यूट’’ कृषि विकास की दिशा में एक बढ़ता हुआ कदम है। राज्य में धान और गन्ना के राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्रों की भी आवश्यकता है। राज्य में स्थापित 3 शक्कर कारखानों के संचालन के लिये गन्ने पर शोध की जरूरत है। राज्य की मुख्य फसल धान की औसत उपज में हमारे किसान अभी पिछड़े हुए हैं अतः धान उत्पादकता बढ़ाने हेतु गहन अनुसंधान की आवश्यकता है। राज्य की लगभग 32 प्रतिशत जनसंख्या जनजातियों की है जिसकी कृषि प्रणालियाँ भिन्न हैं तथा उत्पादकता कम है ।
 पिछले 9 वर्षों में छत्तीसगढ़ ने अनेक उपलब्धियाँ हासिल की है। आज छत्तीसगढ़ अनेक क्षेत्रों में, देश में अव्वल स्थान पर है। पूर्व में हमें धान उत्पादन के क्षेत्र में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था, तो इस वर्ष भी राज्य में न्यूनतम बेरोजगारी हेतु भारत शासन द्वारा पुरस्कृत किया गया है। हमने ’’गांव, गरीब और किसान’’ की बेहतरी का वादा पूरा किया है।
वर्ष 2012-13 में पहली बार 6244 करोड़ रूपये का अलग से कृषि बजट बनाया गया है। यह कुल बजट का 17 प्रतिशत है। सिंचाई क्षमता में विस्तार को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुये बजट में 16 प्रतिशत की वृद्धि की गई है। किसानों को अब केवल एक प्रतिशत ब्याज दर पर कृषि ऋण उपलब्ध कराया जा रहा है।  कृषि बीमा प्रीमियम में राज्य सरकार ने अंशदान 5 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत किया है।   पशुपालन क्षेत्र में शिक्षा और अनुसंधान के प्रोत्साहन के लिए ’’कामधेनु विश्वविद्यालय’’ की स्थापना की गई।   सूक्ष्म सिंचाई योजना के तहत् लघु और सीमांत किसानों को ड्रिप, स्प्रिंकलर के लिए 75 प्रतिशत तक का अनुदान दिया जा रहा है। किसान को मात्र दो रूपये में मिट्टी परीक्षण की सुविधा दी गई है। किसानों को सिंचाई पम्पों के ऊर्जाकरण के लिए पूर्व के 50 हजार रूपये के स्थान पर अब 75 हजार रूपये का अनुदान दिया जा रहा है।एक से तीन हार्सपावर तक के सिंचाई पंप वाले किसानों को 5000 यूनिट तथा पाँच हार्सपावर पंप वाले किसानों को 7500 यूनिट बिजली प्रति वर्ष मुत में दी जा रही है। किसानों को मीटर किराया, फिक्स चार्ज और विद्युत उपकर से मुक्ति मिली है। राज्य सरकार द्वारा पिछले 9 वर्षों में 2.90 लाख पम्पों का ऊर्जाकरण किया गया है।   कृषि उत्पादन बढ़ाने और खेती की लागत कम करने हेतु प्रदेश में नई कृषि नीति तैयार की गई है।
 हमने कृषि शिक्षा को बढ़ावा देने का सतत् प्रयास किया है।  राज्य गठन के समय जहां कृषि, पशुपालन और दुग्ध प्रौद्योगिकी के एक-एक महाविद्यालय थे, वही वर्तमान में 7 शासकीय कृषि महाविद्यालय तथा 1-1 कृषि अभियांत्रिकी व उद्यानिकी महाविद्यालय संचालित किये जा रहे हैं। इसके अलावा निजी संस्थाओं द्वारा संचालित 15 महाविद्यालय, कृषि विश्वविद्यालय से संबंद्ध हैं। अगले वर्ष हम 3 नये कृषि एवं 1 नवीन कृषि अभियांत्रिकी महाविद्यालय प्रारंभ कर रहे हैं। समग्र प्रयासों से छत्तीसगढ़ को देश का सर्वश्रेष्ठ राज्य बनाना है। इस बात को मैं अटलजी के शब्दों में कहता हूँ। - 
कमर कसें, बलिदान करें, 
जो पाया उसमें खो न जाएं।
छत्तीसगढ़ राज्य की 80 प्रतिशत आबादी की आजीविका कृषि एवं कृषि से संबंधित क्षेत्र पर आधारित है। कृषि पर निर्भर 33 लाख परिवारों में से 54 प्रतिशत लघु एवं सीमांत किसान हैं। राज्य में कृषि विकास को गति देने की आवश्यकता है। आज भी बहुतेरे कृषक परम्परागत तरीके से खेती किसानी करते आ रहे हैं, जिससे उन्हें उत्पादन कम मिलता है। यहाँ उपलब्ध अपार प्राकृतिक संसाधनों तथा फसल उत्पादन, बागवानी, पशुपालन एवं वन-आधारित उद्यमों से जुड़े अवसरों को देखते हुए नई कृषि तकनीकी के इस्तेमाल से राज्य में ग्रामीण जनता का जीवन स्तर ऊँचा उठाने की प्रबल संभावनाएँ हैं। बागवानी के क्षेत्र में फल, सब्जी, फूल, औषधीय एवं खुशबूदार पौधों का विशिष्ट महत्व है। खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र में सब्जी, मांस, अण्डे, मशरूम, शहद और वन-उत्पादों से जुड़ी तमाम संभावनाएँ हैं। 
 छत्तीसगढ़ संभावनाओं से भरा हुआ राज्य है। आवश्यकता इस बात की है कि हम सब मिलकर इस क्षेत्र के विकास के लिए कार्य करें और समाज के अन्तिम व्यक्ति की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने का लक्ष्य रखें। इस हेतु राज्य कृषि विभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, कृषि विश्वविद्यालय तथा कृषकों के बीच आपसी सामन्जस्य एवं सहयोग की आवश्यकता है।  मैं उपाधि और पदक प्राप्त करने वाले युवा कृषि छात्र-छात्राओं एवं वैज्ञानिकों से अपील करूँगा कि वे कृषक समुदाय की सेवा समर्पण, निष्ठा, संवेदनशीलता और सहानुभूति के साथ करें। मैं सभी उपाधि प्राप्तकर्ताओं और   गुरूजनों को बधाई देता हूँ  जिन्होंने दक्ष वैज्ञानिकों की भावी पीढ़ी तैयार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।  आशा करता हूँ कि देश और राज्य के सर्वांगीण विकास में आप सब अपना बहुमूल्य योगदान देते रहेंगे।  
जय किसान, जय जवान, जय विज्ञान, जय हिन्द, जय छत्तीसगढ़।

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के छठवें दीक्षांत समारोह छत्तीसगढ़ के माननीय राज्यपाल श्री शेखर दत्त जी का उद्बोधन


इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के छठवें दीक्षांत समारोह छत्तीसगढ़ के माननीय राज्यपाल श्री शेखर दत्त जी का उद्बोधन


रायपुर, 20 जनवरी 2013

आज के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि एवं छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह जी, श्री चन्द्रशेखर साहू जी, मंत्री - कृषि, पशु विकास, मत्स्य एवं श्रम, छत्तीसगढ़ शासन, पद्मश्री डा. अनिल के. गुप्ता, कार्यपालन उपाध्यक्ष, नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन, डा. एस.के. पाटील, कुलपति, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर, विश्वविद्यालय के प्रबंध मंडल एवं विद्या परिषद के सदस्य, प्राध्यापक, वैज्ञानिक, राज्य शासन के अधिकारीगण, विद्यार्थियों, प्रेस एवं मीडिया के महानुभाव, देवियों एवं सज्जनों।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर, के 27वें स्थापना दिवस पर आयोजित छठवें दीक्षांत समारोह में शामिल होते हुए मुझे काफी प्रसन्नता हो रही है। मैं विश्वविद्यालय के पदक और उपाधि ग्रहण करने वाले सभी छात्र-छात्राओं को हार्दिक बधाई एवं उज्जवल भविष्य की शुभकामनाए देता हूँ । 
ज्ञान की जिज्ञासा, रचनात्मकता एवं नवोन्मेष जीवन को परिवर्तित करने की कुंजी हैं। ये सभी कारक अनुसंधान के रूप में व्यक्त होते हैं एवं ज्ञान की नई राह खोलते है , जो निश्चित ही देश के समग्र विकास के लिए महत्वपूर्ण है। शायद इसलिए अनुसंधान को विश्वविद्यालय के प्रमुख कार्य के रूप में चिन्हित किया गया है। भारत में कृषि, सूचना प्रौद्योगिकी, ऊर्जा, अंतरिक्ष आदि क्षेत्रों में हमारे बैद्धिक संसाधनों के निरंतर प्रयासों के कारण उल्लेखनीय उन्नति हुई है और हमारा देश भविष्य मे ‘वैश्विक ज्ञान केन्द्र’ बनने की ओर अग्रसर है। हमारी उच्च शिक्षा पद्धति विशेषकर हमारे विश्वविद्यालयों के कार्यों पर हमारी सफलता निर्भर करेगी। संसाधनों, उचित प्रोत्साहन एवं समर्पित भावना की कमी आदि ऐसे अवरोध हैं जो विश्वविद्यालय के अनुसंधान की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहे हैं। हमारे विश्वविद्यालयों में क्षमता निर्माण की कमी एवं अपर्याप्त प्रशिक्षण ने भी विद्यार्थियों की रचनात्मकता को प्रभावित किया है।
हमारे युवाओं की प्रतिभा में निखार ला कर समाज के हित में उसका उपयोग किया जा सकता है। हमारे देश के तीव्र गति से बढ़ते आर्थिक विकास के कारण नवसर्जक युवा  सशक्त भारत के रोलमाडल के रूप में उभर रहे हैं और नये मानदण्ड स्थापित कर रहे हैं। 
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था ’’सभी अन्य चीजें रूक सकती है, लेकिन कृषि नहीं’’। भारत की खाद्य, पोषण, जीविकोपार्जन तथा आर्थिक सुरक्षा कृषि क्षेत्र की सफलता पर निर्भर करती है। सकल घरेलू उत्पादन (जी.डी.पी.) में कृषि एवं सहायक क्षेत्रों की भागीदारी पिछले 50 वर्षों में 61 प्रतिशत से घटकर 17.5 प्रतिशत तक गिर गई। भारत की विश्व में भागीदारी - मानव जनसंख्या में 16.8 प्रतिशत, पशु संख्या में 11 प्रतिशत, जल संसाधनों में 4.2 प्रतिशत तथा जमीन में 2.3 प्रतिशत है। प्रति व्यक्ति संसाधनों की उपलब्धता देखे तो यह विश्व के औसत से 4 से 6 गुणा कम है। इसी प्रकार सन् 1950 के मुकाबले फसल तीव्रता 26 प्रतिशत बढ़कर 137 प्रतिशत दर्ज हुई है। वर्षा आश्रित क्षेत्र कुल बोये गये क्षेत्र का 65 प्रतिशत है। इसी प्रकार भूजल एवं जमीन का बहुत बड़े पैमाने पर क्षरण हुआ है। वर्तमान में कुल वर्षा जल का मात्र 29 प्रतिशत ही संरक्षित हो पाता है, वह भी पूरी दक्षता से उपयोग नहीं हो पाता। वर्तमान विधियों को अपनाते हुये जल उपयोग दक्षता शायद ही 40 प्रतिशत से ऊपर गई होगी। इसी प्रकार पोषक तत्वों की उपयोग दक्षता 2 से 50 प्रतिशत के बीच है। उत्पादन व्यवस्था के विभिन्न आयामों एवं तत्वों के बीच एकीकरण एवं समन्वय करते हुये एकीकृत पोषक तत्व एवं कीट प्रबंधन व्यवस्था का उपयोग किया जाना समय की मांग  है।
पिछले कई दशकों से उपयोग की जा रही एक फसल की व्यवस्था एवं रासायनिक ऊर्वरकों के अधिकाधिक उपयोग से मृदा की उत्पादन क्षमता में गिरावट आई है। गहन कृषि जिसमें अधिक उत्पादन देने वाली किस्मों एवं संकर बीजों का उपयोग किया जाता है, जिसमें मृदा से तेजी से पोषक तत्वों का हा्रस होता है। भारत इसका ताजा उदाहरण है, जहा खेती का स्थायित्व एक बहुत बड़ी चुनौती है। खेती की उत्पादन व्यवस्था में दीर्घकालिक स्थायित्व लाने के उपायों पर समग्र रूप में विचार करने की जरूरत है। जैविक एवं कार्बनिक उर्वरकों का निरंतर उपयोग न केवल संतुलित सूक्ष्म तत्वों की आपूर्ति करता हैं वरन् मृदा की जैविक एवं भौतिक-रासायनिक गुणों में अभिवृद्धि भी करता है। फसल व्यवस्था में स्थायित्व लाने के लिए जैविक एवं कार्बनिक खाद का उपयोग करने के साथ फसलचक्र में दलहनी फसलों को शामिल करते हुए प्रभावी फसल प्रबंधन व्यवस्था की जा सकती है। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करते हुए वैश्विक खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ऐसे परिवर्तन लाने होंगे कि हरितक्रांति के दौर से विश्व में हमेेशा हरितक्रांति होती रहे। 
वर्ष 2011 के राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल तथा छत्तीसगढ़ खाद्य सुरक्षा विधेयक 2012 में जनसामान्य तक भोजन की पहुंच को वैधानिक अधिकार का दर्जा प्रदान किया गया है। जिससे भूख से मुक्त भारत का गांधी जी का सपना साकार हो सकेगा। हमारे देश में लोगों के स्वस्थ जीवन के लिए कार्बनिक सिद्धांतों पर आधारित खाद्य, उत्तम एवं सुरक्षित हैं जो हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को हानि भी नहीं पहुंचाते। 
श्री पद्धति धान उत्पादन की क्रांतिकारी विधि है, जिसका उपयोग सर्वप्रथम 1980 में मेडागास्कर में हुआ। इस विधि में उर्वरक, जल एवं बीज की आवश्यकता को कम किया जा सकता है तथा धान उत्पादन को दोगुना किया जा सकता है। कोनोवीडर तथा अम्बिका पैडी वीडर आदि के उपयोग से स्वतंत्र गैस विनिमय, जड़ों को स्थापित करने एवं जड़ों का विकास करने आदि में मदद मिलती है। यह रासायनिक दवाओं का एक अच्छा विकल्प प्रस्तुत करता है। उच्च क्षेत्रों में सुखी बुआई के द्वारा एरोबिक धान सीधे कतारों में तथा शेष स्थानों में विकसित एरोबिक धान का रोपा लगाकर खरपतवार पर नियंत्रण पाया जा सकता है। निम्न भूमि के धान के किसान खेतों में क्रमशः सूखा एवं नमी का क्रम रखते हुये जल के उपयोग को बहुत कम कर सकते हैं। इस जल बचत धान उत्पादन टेक्नोलाॅजी से 47 से 56 प्रतिशत जल संसाधनों की बचत के साथ ही वातावरण में कम ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जित होती है। यह आंकलन किया गया है कि पानी से डूबे धान के खेत में 25 प्रतिशत तक मीथेन गैस उत्पन्न होती है। 
उपरोक्त संदर्भ में कृषि विकास का एक ऐसा रोड मैप तैयार किया जाना चाहिए जिसमें बायोफार्मिंग का उपयोग करते हुये प्रति इकाई की लागत से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा प्राप्त हो सके। इसमें रसायनों का कम से कम उपयोग किया जाए तथा उनके स्थान पर बायो-पेस्टिसाईड एवं जैव उरर्वरकों आदि का उपयोग किया जाना चाहिए। कार्बनिक खाद्य पदार्थों की बढ़ती हुई मांग पूरे विश्व में है। उपभोक्ताओ में कार्बनिक उत्पादों की गुणवत्ता के प्रति जागरूकता, रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती कीमतें व आपूर्ति में कमी, किसानों को कार्बनिक खेती करने के लिए प्रेरित कर रही हैं। महिला किसानों के उपयोग-समूह एवं स्व-सहायता समूहों को बायोफार्म बनाने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। खेती एवं इससे संबंधित गतिविधियां बढ़ायी जा सकती हैं। पशुपालन, मुर्गी पालन, वरमी-कम्पोस्ट इकाई तथा बायो गैस प्लांट आदि को स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुरूप किसानों को आर्थिक गतिविधियां से जोड़ा जाना चाहिए। बायोफार्म स्थानीय उपलब्ध संसधानों का उपयोग करते हुये किसानों का सशक्तिकरण करते है। इसमें स्थानीय ज्ञान पद्धति एवं विशेष परामर्श को पुर्नजीवित करते हुए इसका उपयोग किया जा सकता है। इससे किसानों की धीरे धीरे बाहरी निर्भरता कम होती है और खाद्य सुरक्षा बढ़ती है। 
कृषि के विश्व बाजार से जुड़ाव के कारण कृषि और किसानों को एक नई तरह की प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। जिसके परिणाम स्वरूप किसानों के लिए बाजार को समझना बेहद जरूरी हो गया है। हमारे किसानों को बाजार की मांग  के अनुसार उत्पाद तैयार करना पड़ेगा तथा बाजार की संभावनाओं के अनुरूप नये अवसर तैयार करने होंगे। 
सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति कृषि के लिये भी मील का पत्थर साबित हुई है। सुदूर गाँव  के चैपाल पर भी अब इंटरनेट और कम्प्यूटर का उपयोग हो रहा है। इससे किसान कृषि के क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों, अनुसंधानों, शोध-निष्कर्षो, नई तकनीकों, आधुनिक यंत्रों, मौसम बदलाव और बाजार की स्थिति से परिचित हो रहे हैं। किसानों को कृषि तकनीकों से लाभांवित करने तथा उनके सशक्तिकरण के लिए विश्वविद्यालय के कृषि विज्ञान केन्द्र निरंतर कार्य कर रहे हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के 65 वर्षों में देश के खाद्य उत्पादन में लगभग 5 से 6 गुना वृद्धि हमारी विशिष्ट उपलब्धि है। इसका श्रेय हरित क्रांति, पीली क्रांति, श्वेत क्रांति, नीली क्रांति को है, जिससे देश मजबूत हुआ है तथा अंतर्राष्ट्रीय गौरव बढ़ा है।
कृषि उत्पादन में वृद्धि के बावजूद दलहन, तिलहन आदि के उत्पादन में भी हम मांग  की तुलना में काफी पिछड़े हुये हैं। हमें खाद्य तेल का आयात करना पड़ रहा है। दलहन, तिलहन तथा उद्यानिकी के क्षेत्र में एक और क्रांति की आवश्यकता है। नये स्नातको को इन चुनौतियों का सामना करने के लिये आगे आना चाहिए। 
वर्ष 1991 में खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति प्रति दिन उपलब्धता लगभग 510 ग्राम थी, यह घटकर सन् 2010 में 438 ग्राम हो गई, वर्तमान में यह 403 ग्राम रह गई है। इसी तरह दलहन के क्षेत्र में पहले जहाँ  दालों की उपलब्धता 70 ग्राम थी। यह घटकर अब मात्र 22 ग्राम रह गई है। जिसके कारण आहार में प्रोटीन की कमी चिंता का कारण है।
कृषि कार्यों को पूर्ण करने के लिये कृषि मशीन उपकरण को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। बड़ी स्वचालित मशीनें जैसे धान रोपाई यंत्र, कम्बाईन हार्वेस्टर, सेल्फ प्रोपेल्ड रीपर, थे्रशर आदि किसानों को खेतों पर किराये पर उपलब्ध कराई जा सकती है। यह छोटे और सीमांत किसानों के लिये लाभदायक साबित होगा। एग्रो सर्विस सेन्टर तथा नये उद्यमी स्नातकों को इस दिशा में पहल करनी चाहिए। मांग  पर आधारित कृषि मशीनीकरण की प्रक्रिया राज्य के कृषि विकास दर में पर्याप्त रूप से वृद्धि लाकर राज्य के एकफसली क्षेत्रों को दो फसली क्षेत्र में बदलने की क्षमता रखती है। जीरो टिल सीड कम फर्टीलाईजर ड्रिल धान में कटाई के बाद उपलब्ध नमी का उपयोग कर बिना जुताई के सीधे कतारों में बुवाई कर दूसरी रबी की फसल लेने में मदद् करती है। पहाड़ी क्षेत्रों, आदिवासी क्षेत्रों तथा लघु एवं सीमांत कृषकों के फायदे लिए विश्वविद्यालय ने विभिन्न प्रकार के 40 उन्नत यंत्र विकसित किये है। ये यंत्र या मशीनें राज्य के कृषि विभाग के सहयोग से, अनुदान पर, किसानों को विकासखंड स्तर तक पंहुचा कर दी जा रही है। इन यंत्रों में महिलाओं के लिये भी उपयोगी यंत्र है। अभी तक 5.24 करोड की लागत के 1 लाख 11 हजार कृषि यंत्र या मशीनों को किसानों तक पहुंचाया गया है। जिसमें 68 लाख रूपये का शुद्ध मुनाफा हुआ। लोकप्रिय यंत्रों में अम्बिका पैडी वीडर, हाथ खुरपी, मैज शेलर, बियासी हल एवं भोरमदेव सीड ड्रिल है।
वृष्टिछाया क्षेत्रों में स्थाई विकास के लिए वाटरशेड पर आधारित विकास की रणनीति बेहतर हो सकती है। जिसमें ज्ञान आधारित नवोन्मेष के बेहतर परिणामों द्वारा किसानों को सीधा फायदा पहुंचाया जा सकता है।
केन्द्रीय जल आयोग की योजना के अंतर्गत किसानों के लिए 176 हेक्टेयर में 6 उन्नत तकनीकांे का प्रदर्शन किया गया। इन तकनीकों में श्री विधि से धान उत्पादन, जीरो टिल सीड ड्रिल से रबी फसल उत्पादन, ड्रिप एवं स्प्रिंकलर  से सिंचाई कर उद्यानिकी फसल उत्पादन लिया गया। इसके साथ ही 22 किसानों के यहां डबरी सह-उथला कुआ बनाकर धान को पूरक सिंचाई दी गई एवं रबी फसलें ली गई। इससे धान उत्पादन में 22 से 43 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसके साथ ही इन डबरी में मछली एवं बतख पालन कर किसानों की आय को बढ़ाया गया। इसी तरह एन.ए.आई.पी. (नेशनल एग्रीकल्चर इनोवेशन प्रोजेक्ट) योजना के अंतर्गत आदिवासी किसानों के जीविकोपार्जन को समुन्नत करने हेतु बड़े माॅडल तैयार किये गये हंै। उपयुक्त सरंचनाओं जैसे डबरी, कुए स्टाप डेम, चेक डेम, डायवर्सन आदि रेनवाटर हार्वेस्टिंग सरंचनाऐं 184 माइनर पर बनाकर 390 हे. क्षेत्र तथा 658 किसानों को लाभान्वित किया गया। इनसे सूखे से बचाव के साथ उपज में 8 से 12 क्विंटल या हेक्टेयर वृद्धि हुई। भूजल दोहन के लिए बाड़ी में बने रिंग वेल का उपयोग सिंचाई व निस्तार हेतु किया गया। सभी क्लस्टर में कुल 63 कुओं से 82 किसानों के 93 हेक्टेयर में सिंचाई की गई। 
हमारे देश में 52 प्रतिशत आबादी कृषि पर आश्रित है, परन्तु देश के जी.डी.पी. में कृषि का योगदान लगातार घटता जा रहा है। हमारे देश में लघु एवं सीमांत किसानों का बाहुल्य है, जिनका पीढ़ी दर पीढ़ी घटता रकबा चिंता एवं सोच का विषय है। यह जरूरी है कि खेती-किसानी को और अधिक स्थाई व लाभकारी बनाया जाए तथा खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता लायी जा सके। इसके लिए स्रोतों के बेहतर एवं कुशल प्रबंधन के लिए हमारे युवा नेतृत्व को आगे आना होगा। इसके साथ ही सहकारी खेती तथा सहकारी संस्थाओं को भी प्रोत्साहन देने की जरूरत है।
पिछले वर्षों में हमारे देश और प्रदेश में सिंचाई के साधनों में काफी वृद्धि हुई है परन्तु बुनियादी रूप से अधिकांष खेती आज भी वर्षा पर ही आश्रित है। अति वर्षा के कारण बाढ़ और कम वर्षा के कारण सूखे की स्थिति का सामना करने के लिये स्थाई खेती को मजबूत बनाने के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग, ड्रेनेज सिस्टम विकसित किया जाना चाहिए। इन कार्यों को महात्मा गाँधी  नरेगा योजना के साथ जोड़ा जा सकता है।
बारहवीं पंचवर्षीय योजना में भी कुशल मानव संसाधन विकास का प्रावधान है। मेरा यह सुझाव है कि कृषि वैज्ञानिक राज्य के विकासखंड स्तर की परिस्थितियों और जलवायु के अनुरूप शोध और अनुसंधान पर जोर दें।
यह हमारे लिये गर्व की बात है कि छत्तीसगढ़ में लगभग 23070 (तेईस हजार सत्तर) धान के जर्मप्लाज्म है । धान के अतिरिक्त कोदों, कुटकी, रागी, रामतिल, तिवड़ा, अलसी, सोयाबीन, अरहर, मक्का व गेहूं आदि फसलों की भी खेती यहां की जाती है। विश्वविद्यालय कृषि के विकास और कृषि तकनीकों को किसानों के खेतों तक पहुंचाने के लिए जागरूक है। मुझे इस बात की खुशी है कि विश्वविद्यालय ने लगभग सभी फसलों की उन्नत किस्मों का विकास करने तथा उन्नत कृषि और कृषि तकनीकी को प्रोत्साहन दिया है।
इसी तरह विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने फसल प्रणाली, समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन, कीट एवं रोग नियंत्रण, सघन धान उत्पादन, जैविक खेती, खरपतवार नियंत्रण, खाद्य प्रसंस्करण, कृषि यंत्रीकरण, जल प्रबंधन, मृदा संरक्षण, सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली, उद्यानिकी, वानिकी और जैव प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य किया है।
छत्तीसगढ़ के कुल भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 34 प्रतिशत भाग (लगभग 47 लाख हेक्टेयर) में खेती होती हैं। वहीं राज्य के लगभग 46 प्रतिशत भाग (लगभग 63.4 लाख हेक्टेयर) वनों से आच्छादित हैं। प्रकृति से छत्तीसगढ़ को खनिज स्रोतों एवं प्राकृतिक सम्पदा का उपहार मिला है। हमें ज्ञान-विज्ञान और कौशल के द्वारा सामूहिक प्रयास कर अपने प्रदेश को अग्रणी और विकसित राज्य बनाना है।
छत्तीसगढ़ में केवल धान की ही फसल नहीं होती बल्कि उत्तर के पहाड़ी तथा दक्षिण के पठारी आदिवासी क्षेत्रों में अन्य फसलें भी उगाई जाती हैं। छत्तीसगढ़ में उद्यानिकी फसलों के साथ-साथ पशुपालन एवं मत्स्य पालन को भी समन्वित रूप से बढ़ावा दिया जाना जरूरी है। हमारे राज्य में जमीन और पानी की कमी नहीं है, लेकिन एक फसलीय खेती के बदले दो और तीन फसलीय खेती को बढ़ावा देकर किसान को साल भर काम मिले ऐसा प्रयास करने की जरूरत है। छत्तीसगढ़ के तीव्र विकास के लिए यह जरूरी हैं कि हम कृषि के उत्पादन में कम से कम राष्ट्रीय औसत के बराबर पहुंचें। छत्तीसगढ़ में मवेशियों को अच्छा चारा तथा नस्ल सुधार कर दूध का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। हमें अच्छे बीजों पर भी विशेष रूप से जोर देने की जरूरत है। राज्य में राष्ट्रीय बागवानी मिशन संचालित है। यहां आम, अमरूद, पपीता, अनार, सीताफल और नींबू आदि के उत्पादन की भी अच्छी संभावनाए हैं। हमारा राज्य संभावनाओं से भरा है और इसे मूर्त रूप प्रदान करने में आप सभी की महत्वपूर्ण भूमिका है।
आज के युग में कृषि उत्पादों की संग्रहण सुविधाओं और प्रसंस्करण कार्यों ने फसलों के मूल्य संवर्धन (वेल्यू एडीशन) का महत्वपूर्ण कार्य किया है। इससे खाद्य पदार्थों की उपलब्धता बढ़ी हैं, रोजगार के लिए नये अवसर बढ़े हैं और फसलों के व्यापक उत्पादन को बढ़ावा मिला है।
मैं इस बात को दोहराना चाहता हूं कि इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय का यह विशेष उत्तरदायित्व है कि वह अपने छात्र-छात्राओं एवं शोधकर्ताओं में इस तरह की योग्यता व क्षमता का विकास करे जिससे वे प्रदेश और देश के समग्र विकास करने तथा किसानों को सम्पन्न बनाने में अपना सम्पूर्ण और सक्रिय योगदान दें। मुझे यह जानकर भी खुशी हुई है कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के मापदंडों एवं दिशा-निर्देशों के अनुरूप कृषि स्नातक एवं स्नाकोत्तर शिक्षा पाठ्यक्रम की समीक्षा की गई है। शिक्षकों और विद्यार्थियों को कृषि के नवीन क्षेत्रों जिनमें कृषि अनुसंधान प्रणाली, जैविक खेती, जैव प्रौद्योगिकी, प्रिसीजन फार्मिंग, वाटर हार्वेस्टिंग, बारानी खेती आदि क्षेत्रों में प्रशिक्षित किया जा रहा है।
हमारे किसान इस विश्वविद्यालय को एक ऐसे ज्ञान और आशा के केन्द्र के रूप में देखते हैं, जो उनकी चुनौतियों एवं समस्याओं का सामना करने में काफी मद्दगार साबित हो सकता है। किसानों की समस्याओं को आत्मीय रूप से समझना तथा उन्हें दूर करने के लिए विस्तार कार्य करना बेहद जरूरी है। किसान को केवल सही राह दिखाने की जरूरत है। इसके बाद वह अच्छे सुझावों और उपायों को स्वयं अपना लेते हैं। इसी तरह किसानों के परम्परागत ज्ञान को भी समझना होगा और उनका व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार करना जरूरी है।
किसानों की इस आशा और विश्वास को पूरा करने के लिए विश्वविद्यालय के सभी वैज्ञानिकों, शिक्षकों तथा छात्र-छात्राओं को कठिन परिश्रम करना होगा। इसके लिए यह भी जरूरी है कि विश्वविद्यालय, राज्य शासन के कृषि सहित इससे जुड़े विभिन्न विभागों, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के संस्थानों और अंतर्राष्ट्रीय कृषि संस्थानों के साथ अधिक से अधिक सहयोग तथा समन्वय के साथ उपलब्ध संसाधनों का बेहतर उपयोग करते हुए कार्य करे। मैं आशा करता हूँ  विश्वविद्यालय के ज्ञान के निरंतर प्रवाह से किसान लगातार लाभान्वित होते रहेंगे।
अंत में, मैं यह कहना चाहता हूँ  कि किसानों की प्रगति से ही हम सबका भविष्य जुड़ा हुआ है। कृषि एवं कृषिगत व्यवसायों से जुड़े कृषक भाईयों एवं बहनों के सुख-दुख को हम महसूस कर सकते हैं। निश्चित ही किसानों के कल्याण एवं उत्थान से ही हम सभी की समृद्धि जुड़ी हुई है। 
अंत में एक बार फिर से मैं छात्र-छात्राओं के उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ  एवं आशा करता हूँ  कि इसके बाद आपके जीवन को नई दिशा मिलेगी और नये अवसर प्राप्त होंगे। विश्वविद्यालय ने आपको एक अच्छी आधारशिला दी है और आप सफलता प्राप्त कर प्रदेश एवं देश के विकास में अपना अमूल्य योगदान दें।

धन्यवाद.जय हिन्द।

CONVOCATION ADDRESS by Padmashri Dr. Anil K Gupta, IGKV,Raipur, Jan.20,2013



CONVOCATION ADDRESS 
by Padmashri Dr. Anil K Gupta, 
Professor, Indian Institute of Management Executive Vice Chairman
National Innovation Foundation, Ahemadabad


Indira Gandhi Krishi Vishwavidyalaya Krishak Nagar, Raipur (Chhattisgarh)


6th Convocation January 20, 2013


Entrepreneurial innovations for sustainable agriculture: Unleashing the creativity of youth

Having surpassed the national growth rate in agriculture almost by 100 per cent, Chhattisgarh has achieved a distinction which country can be proud of.  There are not many states, which have done it.  But, growth alone will not suffice.  It has to be sustainable, inclusive and entrepreneurial so that benefits reach all sections of society.  We cannot debit the account of nature and the future generation to credit current consumption.  Having a long term view helps.  It gives us energy for mounting major missions that seem impossible in the short run.  Having pursed a shodhyatra in Narayanpur a couple of years ago, there are insights, which I would like to share about harnessing the anger and alienation of youth for creative and collaborative development.

I am extremely happy that the Indira Gandhi Krishi Vishwavidyalaya, Raipur has made significant progress in achieving various professional, social and institutional milestones in service of small farmers and entrepreneurs.  However, if we need to make major breakthroughs, we will have to redefine the connections among communities, local knowledge systems, aspirations of youth and delivery of education, pursuit of research and the design of extension systems. 
Rethinking extension:

Dr. K.L. Munshi, then Food and Agriculture Minister and President of the Governing Board of ICAR had eloquently argued for redefining the meaning of extension.  In a series of lectures entitled, “The Gospel of Dirty Hand”, he had stressed the need in 1952 for soiling hands, learning from people, connecting water and nutrient cycles with village management systems.  In a landmark idea, he had talked about the need for establishing land army.  The first unit of land army comprising students of Delhi University had gone to clean up the Chattarpur drain.  The idea was that youth would be mobilized for constructive activities to work with local communities and generate viable common property institutional solutions.  The vision was revived in late 70’s in Karnataka. But it proved to be short-lived.  There are several challenges which, agricultural research, educationand extension systems are facing today and we cannot use conventional solutions for uncertain future in the wake of climate change as well as socio-economic turbulence around the world. 

Challenges:

a.                   From ex-situ to in-situ value addition:  Almost entire forest produce is brought out from the forest as a raw material.  Practically, no value addition takes place inside the forest by the tribal communities.  The loss of quality as well as extraction efficiency in oil, nuts and other products is inevitable.  The dominance of contractors who obviously do not have long-term interest of the community in the mind is also obvious.  The regulatory structures for developing ayurvedic medicine including simple powders prevent small-scale decentralized processing.  While forest officers in parts of Udaipur have used bamboo incense making machines as well as food processing machinery developed by grassroots innovators like Dharamavir from Haryana, Paresh Panchal, Gujarat and Ralte from Mizoram increased the per day wages to `400/=, similar effort needs to be mounted all over the country.  National Innovation Foundation [NIF] will support every such effort, which adds value to local produce, reduces drudgery for women and other workers using cycle hoe and motorcycle plough or other devices and generates self-employment opportunities.  In agriculture as well as forestry, even the grading of the grains or the seeds adds value.  Many years ago, in a meeting organized by solvent extractors associations, this issue of sorting and grading came up in a big way in the context of non-edible tree seeds used for oil for soap industry.  There should be a special youth venture fund set up targeting youth to trigger an entrepreneurial revolution for value addition.  The forces engaged in commodity trading may resist such efforts.  But, no change has ever come about without facing resistance.  The mitanin model developed in the state became the basis of countrywide Asha model not without resistance.  During our shodhyatra, the two channels that were working most evidently in the remote villages were the health workers and food grain supply systems.  It is possible to build upon locally acceptable solutions provided they meet strongly felt needs and address concerns of the youth.   In the next five years the state should resolve to set up thousands of value adding units in forest as well as other rural areas to prevent exploitation of tribal and other small farming communities and ensure significant improvement in the quality of life.  The education system will have to focus much more strongly on development of entrepreneurial skills.  In a Vice Chancellors’ conference in Hisar, I had advocated introduction of such courses in every agriculture university so that we produce entrepreneurial leaders who will provide jobs rather than seek them. 

b.                  Knowledge networks for sustainability:  The soil health, plan and animal health and human health are interlinked.  If soil becomes deficient in zinc, boron or other minerals, that deficiency will inevitably affect our health.  The regions, which receive low rainfall are rich in mineral because of poor drainage.  The crops grown in such regions are likely to be rich in location-specific minerals.  Similarly, the intensively cultivated regions will have the opposite outcomes.  The health experts are aware how many chronic diseases can be indicated because of deficiencies or in a few cases, excesses.  If mineral rich grains and oil seeds are characterized for their health benefits, they become functional foods and the value goes up tremendously.  The consumers are willing to pay extra for such crops.  Who had imagined that flax seeds will be sold in grams rather than quintals.  Every time we change the unit of sale per quintal to per 100 gram, we have transformed opportunities for farmers and also for consumers.   Preventive health is more democratic than curative health.  A healthy society does not wait for symptoms to accentuate before taking action.  This is an area of buoyant growth in years to come.  It will also give boost to organic agriculture and particularly those small farmers who pursue low external material - input agriculture.  The knowledge networks among experts from agriculture, health, nutrition and other related disciplines will have to be created to harness the potential of huge global market for the purpose.

c.                   Venture fund for agriculture:  It is ironic that despite contributing so much for the national economy, there is no dedicated incubation and innovation promotion social venture fund in the country.  Whatever efforts are being made by various agencies are mired in the bureaucratic mindsets and structures.  University should set up an autonomous section 25 company with people of high integrity and eminence including representatives of private sector and civil society organisations to provide risk capital for building value chain around innovative technologies.  This fund could target ventures by faculty, students and even unemployed youth or professionals who wish to start new businesses.  A separate fund could be created for young budding entrepreneurs from rural and urban areas to promote agri-food-herbal value chains.  There could also be machineries or processing plants that innovators want to set up using new technologies developed by university or independently. 

d.                  Blending formal and informal science and supporting innovators:  Most agriculture universities do encourage innovative farmers but an institutionalized mechanism is missing.  For instance, the Directors [Research] generally do not monitor how many experiments were started, stopped or modified in the light of the feedback from farmers.  Likewise, there is no dedicated space and fund for validating, value adding and disseminating innovations by farmers and mechanics at every Krishi Vigyan Kendra.  I hope Chhattisgarh will become the first state to do so.  And thus ensure a close blending of formal and informal system.  Honey Bee Network and its affiliated institutions such as SRISTI, Grassroots Innovation Augmentation Network [GIAN] and NIF are committed to support such an initiative.  The innovations could be from or for Chhattisgarh.  Basic purpose is to ignite the mind of farming community about new ways of improving productivity, conserving resources and generating enterprises. We must have time bound targets for reducing and eventually eliminating the chemical pesticides and other inputs by working with nature and utilizing herbal alternatives.  There should be special fund to pay testing fees for farmers’ innovations so that their products can compete with the formal sector.  Many times, scientists feel inhibited in appreciating a solution developed by a farmer, which is better than their own.  Recently, a farmer in Tamil Nadu improved a weeder developed by the university.  The university not only acknowledged it but also bought five such devices from that innovator.  Shekh Usmani is one of the awardees of NIF who developed bamboo based splitting and incense stick making machine.  The variety HMT developed by Dada Sab Khobragade from Maharashtra is ranked on the top in several districts of Chhattisgarh.  If more such innovations can be tried out from various parts of the country for improving the local economy, why shouldn’t university become a hub for sourcing and sinking such ideas.

e.                   Combining open source with intellectual property protected knowledge systems:  A concept of Technology Commons developed during our research implies that even in the case of patented technology, farmer to farmer or artisan to artisan copying and improvements should not only be allowed but also encouraged.  People to firm transfer of technology should be through licensing and benefit sharing agreement.  We should popularize such concepts which adapt the instruments of IPR for our needs.  Further, every student of M.Sc., and Ph.D. should be required to review the patent databases including the expired and the abandoned patents in their research synopsis.  This will ensure that our students work on the edge and benefit from global pool of knowledge which may not have been included in the books or journals yet.  We should incentivize both patent protection as well as creation of open source databases.  Honey Bee Network is willing to provide about 8000 – 10000 practices for wider dissemination in local language through computers in every village or school.  When we share ideas, many people will realize that they too have equally important or valid ideas.  The experimental and innovative ethic will then grow and spread.

f.                    In-situ conservation of agro biodiversity:  The gene banks have played an important role in conservation of germplasm.  At the same time, several studies have shown that many important genes are lost in the gene banks because the stresses under which those genes have to express are missing at research stations.  Given the likely hazards caused by climate change, we have to ensure that outcome of historical experimentation and conservation by our communities is not lost because of absence of proper mechanisms for conserving agro biodiversity.  The contribution of Prof. Richharia is well known.  We need to identify endemic zones of different varieties of various crops and animal breeds.  Through design of appropriate incentives and insurance mechanism, every village could be persuaded to set aside a few plots to conserve local varieties for future use.  The loss of yield in comparison to the improved varieties can be off-setted by procuring these grains for urban consumption.  By organizing Sattvik – Traditional Food Festival at IIMA campus during last ten years, SRISTI has demonstrated that many of these crops and their varieties are readily purchased by the urban consumers at premium once the nutritional advantages and traditional recipes are shared.  More than 45,000 people came to IIMA campus during Dec 29 – 31, 2012.  Several organic farmers and providers of traditional food, local crafts earned several lakh rupees in three days.  University could organize such festivals with the help of voluntary organization in different cities and the entire procurement of traditional varieties can be easily sold at premium at such festivals.  A viable market based model of conserving agro biodiversity and associated knowledge of women can be developed based on the results Sattvik during the last decade.  Similarly, many products of local breeds of cows and other animals are also preferred by the consumers. 

g.                   Water conservation through large scale community mobilization:  Gujarat has achieved an enviable reputation for in-situ conservation of water through 100,000 and more check dams, farm ponds and other mechanisms.  Group of farmers can visit Saurashtra and see how civil society led efforts have brought about large scale transformation.  Similarly, we observed in many tribal houses, an effort to conserve rooftop rainwater.  Groups could go to Mizoram where almost every house has rooftop water harvesting structures.  The quality of sanitation in the villages is exemplary.  Any number of delegations go abroad to study models of development but, we seem to hesitate in learning from within the country. 

h.                   Harnessing anger and alienation of youth for reconstructing entrepreneurial transformation of tribal areas:  There is a very painful conflict going on in several parts of the state sapping tremendous energy of all concerned.  I believe that by engaging with the youth and changing the mindset of the police department, we can bring about a conciliatory atmosphere for dialogue and collaborative development.  We should not use such areas as places of punishment posting.  The only request we received during our walk was transfer of a teacher who was not doing his job well.  That shows that people value education even in the most interior areas and they want their children to get better opportunities.  Expansion of ITIs, community polytechnics and other community workshops can help youth acquire new skills.  Every village school should have computer labs for building skills and acquire knowledge.  A database of high quality open source teaching materials with local examples and references can go a long way in turning the mood around.  The peace is possible and participative development perhaps can be the only way.

Let me conclude by highlighting the tremendous opportunities we have for making Chhattisgarh a model of sustainable and healthy state by blending cultural, technological and institutional knowledge and values of our society.  I congratulate all the students who are passing out today to enter the real world with enormously complex challenges.  I trust that you will remember that there is at least one thing in the world, which each one of you alone can do better than others.  Once you discover that, you find the elusive passion that connects purpose with performance.  Indian agriculture requires a redefinition of knowledge intensive engagement with soil, society and sustainable spirit of humankind.   We cannot build a model of sustainable agriculture without sustaining soil eco system, water quality and level, agro biodiversity and reconnecting the innovation, investment and enterprise.

I am sure many of you will pave the way on which future generations will walk with pride.  No change is too small and no initiative too timid.  Every step in the direction of making the consumption and production compatible within the caring limits of the environment counts. May you all be the vanguard of connecting culture of creativity, conservation, collaboration and compassion towards nature and each other.