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बुधवार, 30 जनवरी 2013

भारत में खाद्यान्न सुरक्षा के मायने


भारत में खाद्यान्न सुरक्षा की सार्थकता 
डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
               आधुनिक विज्ञान और  सूचना-संचार क्रांति के  इस युग में हम विकास की नित नई इबारत लिख रहे  है । हमारी धरती से हर किसी का पेट भरने लायक अनाज भी पैदा होने लगा  है । परंतु फिर भी संसार के  85 करोड़  से भी ज्यादा नर-नारी और  बच्चे हर रोज  भूखे पेट सोने के  लिए विवश है। हजार-करोड़  बच्चे कुपोषण के  कारण काल कवलित होते  जा रहे है । व्यापक अन्नोत्पादन के बाबजूद सबको भरपूर भोजन नही मिल पा रहा हे। पौष्टिक भोजन तो अब बीते युग की बात लगती हे।  चूक कहां है ? मानवता पर भूख का यह कलंक क्यों  लग रहा है ? विकास की सुनहरी  इबारते गढ़ने के  बाबजूद भी बेरोजगारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी और  भुखमरी अपने चरम पर आखिर क्यों  है । खाद्य पदार्था की कीमतो  में हो  रही बेतहासा बृद्धि और  आसन्न भुखमरी के खिलाफ राष्ट्रीय, क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लड़ाई के लिए संगठित प्रयास भी हो रहे है । सन 1996 में आयोजित विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन में राज्यो  और  सरकारो  के  अध्यक्षों  नें घोषणा की थी कि हर किसी को पौष्टिक और  पर्याप्त भोजन  मिलना एक अधिकार है ताकि सबको  भूख से मुक्ति मिल सके । सभी ने एक मत हो कर  विश्व के नक़्शे  से हमेशा के लिए भूख का खात्मा करने की वचनबद्धता व्यक्त की थी। परन्तु 16 वर्ष बीतने के  बाद भी स्थिति में अपेक्षित सुधार नजर नहीं आ रहा है । मानव अधिकारों की वैश्विक घोषणा (1948) का अनुच्छेद 25 (1) कहता है कि हर व्यक्ति को अपने और अपने परिवार को बेहतर जीवन स्तर बनाने, स्वास्थ्य की स्थिति प्राप्त करने, का अधिकार है जिसमें भोजन, कपड़े और आवास की सुरक्षा शामिल है।खाद्य एवं कृषि संगठन ने 1965 में अपने संविधान की प्रस्तावना में घोषणा की कि मानवीय समाज की भूख से मुक्ति सुनिश्चित करना उनके बुनियादी उद्देश्यों में से एक है।
        कभी सोने  की चिढ़िया कहलाने वाला भारत आज गरीबी, मुखमरी, भ्रष्टाचार और  मंहगाई से  क्यों परेशांन हाल में दिख रहा है, इस पर विचार  विमर्श करना हम सब का कर्तव्य  है । आज से 176 वर्ष पूर्व  लॉर्ड मैकाले ने संपूर्ण भारत का दौरा  करने के पश्चात्  ब्रिटेन के निचले सदन हाउस ऑफ कॉमंस में  अपने महत्वपूर्ण वक्तव्य में कहा था कि  भारत में मैंने किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा जो भिखारी हो, जो चोर हो, इसका मतलब ये हुआ इंग्लेण्ड में उस समय भिखारी और चोर रहे होंगे । जाहिर है कि 1835 में भारत में न तो भुखमरी और न  न ही गरीबी थी। गरीबी नहीं तो चोरी की संभावना भी नहीं रहती है। भारत छोड़ने के  पूर्व 1947 में अग्रेजो  ने एक सर्वे कराया था जिसमे कहा गया था कि भारत में 4 करोड़ लोग गरीब है । देश में पहली पंच वर्षीय योजना (1952) लागू करते  समय देश में वास्तविक गरीबों की संख्या 16 करोड़ थी। आंकड़ों के तराजू में भारत की गरीबी को कई बार तोला गया है। आश्चर्यजनक पहलू यह है कि आंकड़ों के परिणाम एकदम विरोधाभासी रहे है। भारत सरकार द्वारा नियुक्त प्रोफेसर अर्जुन सेनगुप्त आय¨ग(2007) के अनुसार भारत की 115 करोड़ की जनसँख्या में से 77 प्रतिशत ( लगभग 83 करोड  70 लाख) लोग बहुत गरीब हैं । एक दिन में खर्च करने के लिए इनक¢ पास 20 रूपये भी नहीं है और इन 84 करोड़ में से 50 करोड़ ऐसे हैं जिनके पास खर्च करने के लिए 10 रूपये भी नहीं है, 25 करोड़ के पास खर्च करने के लिए 5 रुपया भी नहीं है और बाकी के पास 50 पैसे भी नहीं है खर्च करने के लिए। एशियाई विकास बैंक के अनुसार यह आंकड़ा 62.2 प्रतिशत बनता है। गरीबों की गिनती के लिए मापदण्ड तय करने में जुटे विशेषज्ञों के समूह की बात यदि सरकार स्वीकार करे तो देश की 50 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा से नीचे (बीपीएल) पहुंच जाएगी।  सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समूह ने बीपील का पैमाना तय करने कैलोरी खपत को आधार बनाने का सुझाव दिया तथा यह माना कि 2400 कैलोरी के पुराने मापदण्ड को आधार बनाया गया तो देश में बीपीएल की आबादी 80 प्रतिशत तक पहुंच सकती है। इसके  उलट योजना आयोग ने तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट को आधार मानकर करीब  38 फीसदी आबादी को ही गरीबी रेखा से नीचे माना है । अभी हाल ही में 21 सितंबर, 2011 को  योजना आयोग ने देश की सबसे बड़ी अदालत में जो हलफनामा पेश किया है, उसमें बताया गया है कि खान पान में शहर¨ं में 965 रूपये और  गाँवो  में 781 रूपये प्रतिमाह खर्च करने वाले को  गरीब नहीं माना जा सकता । इस प्रकार शहर में 32 रूपये और  गाँव में 26 रूपये प्रतिदिन खर्च करने वाला व्यक्ति बी.पी.एल. परिवार को  मिलने वाली सुविधा पाने का हकदार नहीं है । भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने प्रत्येक कामकाजी आदमी को प्रतिदिन 50 ग्राम दाल, 200 ग्राम सब्जी, 520 ग्राम अनाज, 45 ग्राम तेल और 200 ग्राम दूध का सेवन आवश्यक बताया है। इस आधार पर वर्ष 2010 में एक थाली की कीमत 35.95 रूपये थी जो  कि वर्तमान में 62 रूपये में मिल रही है । अब जरा स¨चिये कि 26 रूपये में तो  गांव के  गरीब को  एक वक्त का आधा पेट भर भोजन का भी इंतजाम नहीं ह¨ सकता है । ऐसे में गरीबो  की थाली खाली रहना स्वाभाविक है । यह विडंबना नहीं त¨ क्या है कि आजादी क¢ 64-65 साल और  11 पंचवर्षीय योजनाओ के  बावजूद भी हम न तो  गरीबी को  ठीक तरह परिभाषित कर सके  है और  न ही देश में गरीबो  की सही संख्या का आंकलन कर पाये है ।
          अक्सर कहा जाता है कि जनसंख्या बढ़ने से गरीबी और  भुखमरी बढ़ती है । आइये देखते है कि यह तर्क कितना सही है और  कितना गलत । आजादी के  समय हमारे यहाँ गरीबों की संख्या 4 करोड़ थी अब उस स्तर के गरीबों की संख्या 84 करोड़ हो गयी है मतलब आबादी बढ़ी  3.5 गुना लेकिन गरीब बढ़ गए 21 गुना । परन्तु स¨चने की बात है गरीबों के अनुपात में आबादी के हिसाब से वृद्धि होनी चाहिए थी, अर्थात गरीबों की संख्या में भी 3.5 गुनी वृद्धि होनी चाहिए थी । जाहिर है कि हमारे देश में आज 2011 मे 14 -15 करोड़ से ज्यादा गरीब नहीं होने चाहिए थे ?  इसी अवधि में अनाज का उत्पादन लगभग छः गुना बढ़ा है, मतलब आबादी बढ़ी साढ़े तीन गुनी और अनाज उत्पादन में वृद्धि हुई छः गुनी, फिर भूख और गरीबी से क्यो  त्रस्त है हमारे देश के लोग? हां आबादी बढ़ती पाँच गुना और अनाज उत्पादन में वृद्धि होती तीन गुना तो मैं मान लेता कि भुखमरी होने का कारण जायज है। जब इन 64 वर्ष में औद्योगिक उत्पादन में दस गुनी वृद्धि हुई है तो  फिर देश में बेरोजगारों की इतनी बड़ी फौज कैसे खड़ी हो गयी है ?  कहीं न कहीं नीतियों के स्तर पर देश के  नीति निर्माताओ और   सरकार से चूक हुई है जो गरीबी, भुखमरी और बेकारी रोकने में असफल रही है। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे । महान अर्थशास्त्री माल्थस के  सिद्धांत अनुसार जिस देश में जनसँख्या ज्यादा होगी वहाँ गरीबी ज्यादा होगी, बेकारी ज्यादा होगी। इस सिद्धांत को यूरोप के देशों ने ही नकार दिया है परन्तु दुर्भाग्य से  हम लोग वही सिद्धांत पढ़ते-पढ़ाते आ रहे है । भारत अकेला ऐसा देश नहीं है जिसकी जनसँख्या बढ़ी है । दुनिया के हर देश की जनसँख्या कई गुना बढ़ी है । अमेरिका की जनसँख्या पिछले 60 वर्षों में ढाई गुना बढ़ी है, ब्रिटेन सहित यूरोप की जनसँख्या तो पिछले 60 सालों में तीन गुना बढ़ी है, लेकिन इसी अवधि में उनके यहाँ अमीरी बढ़ गयी है एक हजार गुनी। स¨चने की बात है कि अमेरिका और यूरोप में जनसँख्या बढ़ने से पिछले साठ सालों में अमीरी आती है तो भारत में जनसँख्या बढ़ने से गरीबी क्यों आनी चाहिए और अगर भारत में जनसँख्या बढ़ने से गरीबी आती है तो यूरोप और अमेरिका में भी जनसँख्या बढ़ने से गरीबी आनी चाहिए थी ? क्योंकि सिद्धांत हमेशा सार्वभोमिक होते हैं, सिद्धांत कभी किसी देश की सीमाओं में नहीं बंधा करते। आप को  यह जानकर हैरानी होगी कि चीन की सरकार तो यह मानती है कि जितने ज्यादा हाथ उतना ज्यादा उत्पादन और उसने ये सिद्ध कर के दुनिया को दिखाया भी है । तो भारत में ये सिद्धांत कि जितने ज्यादा हाथ तो उतना ज्यादा उत्पादन क्यों नहीं चल सकता? उसका एक कारण ये है कि चीन की सरकार ने अपनी सारी व्यवस्था को ऐसे बनाया है जिसमे अधिक से अधिक लोगों को काम मिल सके और भारत सरकार ने अपनी व्यवस्था को ऐसे बनाया है जिसमे कम से कम लोगों को काम मिल सके। बस इतना ही फर्क है। 
             बढ़ती मंहगाई और  घटती खाद्यान्न उपलब्धता के  परिप्रेक्ष्य में कृषि की दशा और दिशा को समझना आवश्यक है । स्वतन्त्रता के  समय भारत अकाल, सूखा, गरीबी और भुखमरी से पीड़ित ऐसा देश था, जिसे अमेरिका से गेंहू आयात कर अपनी जनता के पेट की आग बुझानी पड़ी थी । साठ के  दशक में    भारतीय अर्थव्यवस्था को  शिप-टु-माउथ खाद्यान्न अर्थव्यवस्था कहा जाता था, अर्थात उस समय जहाज से उतरने वाला गेंहू सीधे भूखे लओगो के  पेट तक जाता था । वर्ष 1966 से 1970 के दौरान  भारत ने हरित क्र्रांति को  अपनाया जिसने भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था की दिशा एवं दशा बदल दी और  देश के किसानों का पसीना खेतों में मोती बन उगने लगा और देश न सिर्फ खाद्य आत्मनिर्भरता की दहलीज पर आकर खड़ा हो गया बल्कि अपनी एक अरब की जनसंख्या का पेट भरने के बाद दूसरे देशों को निर्यात करने की भी स्थिति में आ गया। देश का कुल खाद्यान्न उत्पादन 51 मिलियन टन (1950-51) से बढ़कर 218.20 मिलियन टन (2010-11) तक पहुँच गया है । भरपूर फसल उत्पादन के  बावजूद भी प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की घटती उपलब्धतां हम सबके  लिए चिन्ता और   चिन्तन का विषय बनी हुई है। विगत दो  दशको  से भारतीय कृषि संक्रमण काल से गुजर रही है । भारत में वर्ष 1990-91 में अनाज की प्रति व्यक्ति दैनिक उपलब्धता 468 ग्राम थी वह वर्ष 2005-06 में घटकर 412 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रह गई। विश्व में सबसे अधिक क्षेत्रों में दलहनी खेती करने वाला देश भी भारत ही है। दाल की प्रति व्यक्ति दैनिक उपलब्धता वर्तमान में 31 ग्राम प्रति दिन प्रति व्यक्ति क¢ आस पास है जबकि 1961 में एक व्यक्ति को   69.0 ग्राम दाल मिला करती थी । देश में 39 प्रतिशत आबादी को  पौष्टिक भोजन, 48 प्रतिशत को  कम पौष्टिक तथा 20 प्रतिशत को  अब मात्र प्राण रक्षा हेतु ही भोजन मिल पाता है । सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान आजादी के समय के 51 प्रतिशत से घटकर वर्तमान में मात्र 18 प्रतिशत रह गया है और रोजगार में हिस्सेदारी 72 फीसदी से घटकर 52 फीसदी पर पहुंच गई है । भारत के पास दुनिया की कुल 2.4 प्रतिशत जमीन है, पर दुनिया की आबादी का करीब 18 प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है । खेती लायक जमीन सिर्फ अमेरिका में हमसे ज्यादा है और जल क्षेत्र सिर्फ कनाडा और अमेरिका में अधिक है, फिर भी देश में आज कृषि की खस्ता हाल में है । कृषि य¨ग्य भूमि दिन-प्रतिदिन घट रही है । हमारे यहां प्रति व्यक्ति 0.3 हेक्टेयर कृषि भूमि है जबकि विकसित देशों में यह आंकड़ा 11 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है । कृषि के आवश्यक साधनों की उपलब्धता भी विश्व के औसत की तुलना में चार से छठवें हिस्से के बराबर है । कृषि के लिए आवश्यक प्राकृतिक साधनों की उपलब्धता लगातार घट रही है जबकि सूखा व बाढ़ जैसी आपदाओं का प्रकोप बढ़ता जा रहा है । इस दौरान कृषि को मिलने वाले बजट में भी कमी होती गई। अब सीधा सा हिसाब है कि अगर निवेश घटेगा तो स्वाभाविक तौर पर उस क्षेत्र का विकास बाधित हो जाएगा। वैश्विक जलवायु परिवर्तन जैसी बड़ी आपदा भी कृषि के भविष्य के लिए चुनौती बन गई है, इससे देश में कृषि की स्थिति अ©र भी दयनीय हो गयी है । इसका सबसे ज्यादा प्रभाव किसानों पर पड़ा है । इसक¢ अलावा जब से देश में तथाकथित ‘आर्थिक उदारवाद’ की बयार बहनी शुरू हुई है तब से किसानों का जीवन और मुश्किल हो गया है। यही कारण है कि किसानों की आत्महत्याओं के मामले बढ़ गये हैं । इस मामले में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ अग्रणी हैं ।  वर्ष 2020 तक देश की जनसंख्या  132 करोड़ तक पहुँचने का अनुमान है । उस समय देश को  कुल मिलाकर 375 मिलियन टन खाद्यान्नों  (344.7 मिलियन टन अनाज तथा 30.3 मिलियन टन दालो ) की जरूरत होगी। ऐसी स्थिति में यदि भारत में खाद्यान्न फसलों की उत्पादकता तथा उत्पादन में सुधार करने के लिए तात्कालिक और दूरगामी कदम नहीं उठाये गये तो हमारी मांग को देखते हुए हमारा देश काफी पिछड़ जायेगा। देश में गंभीर खाद्य संकट पैदा हो जायेगा। यह खाद्य संकट राजनैतिक संकट का भी रूप लेगा और विकसित देश हमारी खाद्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने उत्पादित खाद्य पदार्थ का प्रयोग राजनैतिक हथियार के रूप में करेंगे।  यह स्थिति हमारी आजादी और सम्प्रभुता दोनों पर हमला करेगी। इस दुष्चक्र से निकलने के  लिये केन्द्र तथा राज्य सरकारों को कृषि उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने तथा किसानों की खेती से मोह भंग होने की स्थिति से पहले ही खेती किसानी को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की ईमानदार पहल करनी होगी। 
                आखिर क्या बजह है कि रिकार्ड फसलोत्पादन के बावजूद खाद्यान्नो की महंगाई और  भूखे लोगो  की संख्या पिछले 2-3 सालो से लगातार बढती जा रही रही है । बढ़ती मंहगाई के  कारण आम आदमी दैनिक आवश्यकता के  अनुरूप खाद्यान्न क्रय नहीं कर पा रहा है ।इस दुनिया में भगवान का संतुलन कितना अजीब  है की  100 किलो ग्राम अनाज का बोरा   जो इंसान उठा सकता है, वह  उसे खरीद नहीं सकता और जो  खरीद सकता है वह  उसे उठा नहीं सकता ।  जाने माने अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन (1981) का मानना है कि ज्यादातर मामलों में भूख और अकाल अनाज की उपलब्धता की कमी के कारण नहीं पड़ते, बल्कि उनकी वजह असमानता और वितरण व्यवस्था की कमी होती है। दरअसल  आज कल पौष्टिक अनाजों यथा ज्वार, बाजरा, मक्का, कोदो , कुटकी, रागी आदि को  कच्चे माल के  रूप में शराब व जैव ईधन बनाने में प्रयुक्त कर अमीरों की मौज-मस्ती की पूर्ति की जा रही है। इस अमानवीय कृत्य में अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्र ही नहीं भारत भी आगे बढ़ रहा है । ब्रिटेन की स्वयंसेवी संस्था ऑक्सफेम ने दुनिया में बढ़ रहे खाद्यान्न् संकट के सिलसिले में चेतावनी दी है कि अनाज से यदि शराब और इथेनॉल बनाना बंद नहीं किया गया तो 2030 तक खाद्यान्नों की मांग 70 फीसद बढ़ जाएगी और इनकी कीमतें आज के मुकाबले दोगुनी हो जाएंगी। भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो यह चेतावनी सच ही ठहर रही है । पिछले सात सालों  में खाद्यान्नों की कीमतें डेढ़ सौ से दो सौ फीसदी तक बढ़ चुकी हैं। अकेले महाराष्ट्र में अनाज से शराब बनाने वाली 270 भट्ठियों में रोजाना 75 हजार लीटर से डेढ़ लाख लीटर तक शराब बनाई जा रही है। ज्ञात हो  एक लीटर शराब बनाने के  लिए  तकरीबन 20-30 किलो अनाज को  सड़ाया जाता है । इसी तरह से अनाज वाली फसलो  से आजकल जैव ईधन अर्थात इथेनॉल का कारोबार भी हजारों टन का आंकड़ा पार कर गया है।  शराबी तथा मांसाहारियों की बढ़ती तायदात भी खाद्यान्न संकट की बड़ी वजह बन रही है। भारत में शराब पीने और मांस खाने वाले लोगों की संख्या  में निरन्तर बढत होती जा रही़ है। मध्यम और  गरीब वर्ग में मांसाहार तथा  शराबखोरी की लत अधिक देखी जा रही है । एक अनुमान के  मुताबिक भारतवर्ष 2013 तक रूस क¨ पीछे छोड़ते हुए चीन के  बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शराब का बाजार होगा । आज से 20 वर्ष पहले 300 भारतियो में से एक शराबी हुआ करता था और  अब प्रत्येक 20 में से एक आदमी शराब का शोकीन  है । वर्ष 2009 की स्थिति में 200 मिलियन केस शराब (एक केस में 12 बोतल अर्थात 9 लीटर शराब) और  195.5 मिलियन केस  (प्रत्येक केस  में 9.5 लीटर) बियर की खपत हुई । भारत में 23 हजार  दुकाने  एवं 10 हजार बार-रेस्तराओ  के  माध्यम से सरकार का यह व्यापार दिन दूनी रात चोगुनी रफ़्तार  से फल फूल रहा है । कुछ ऐसी ही वजहों से भारत में 20 प्रतिशत लोग भुखमरी का अभिशाप झेल रहे हैं। माना कि शराब उद्ययोग  से सरकार को मोटा  मुनाफा होता है परन्तु लाख-करोड़ो  परिवारो  का सुख-चैन और उनका   खुशियाँ छीनकर व्यवसाय करना-कराना कहां तक जायज है ? बकरे या मुर्गियों के पालन में जितना अनाज खर्च होता है, उतना अगर सीधे अनाज को ही भोजन के  रूप में उपयोग में लाया जाये तो वह कहीं ज्यादा भूखों की भूख मिटा सकता है। अध्ययन बताते है कि तीन महीने में एक मुर्गा जब तक आधा किलो मांस देने लायक होता है, तब तक इस अवधि में वह 10 से 12 किलो तक अनाज खा जाता है। यानी 12 किलो अनाज (कीमत 250-300 रूपये) के बदले मिलता है, महज आधा किलो मांस (कीमत 100-125 रूपये ) उपलब्ध हो पाता   है। बकरे और  सुअर आदि के साथ भी कमोबेश यही स्थिति है। यह अनाज का न केवल दुरुपयोग है, बल्कि भूखो के  साथ क्रूर मजाक और  एक तरह की नाइंसाफी ही है। 
             खाद्यान्न के दाम बढ़ने के लिए अनाज पर बाजार का बढ़ता प्रभुत्व भी कम जिम्मेवार नहीं है। अप्रैल 2008 में जारी फेडरल बैंक आफ कंसास की रिपोर्ट बताती है कि अनाज पर बाजारवादी ताकतों का बढ़ता प्रभुत्व इसकी बढ़ती कीमतों के लिए सर्वाधिक जिम्मेवार है। साठ के दशक में खेत में पैदा होने वाले अनाज की कीमत और उपभोक्ता तक पहुंचने पर उसकी कीमत के बीच 59 फीसदी का फर्क होता था। जो अब बढ़कर अस्सी फीसदी हो गया है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बाजारवादी ताकतें किस कदर अनाज की कीमतों के साथ खेल रही हैं। खाद्यान्न संकट और बढ़ती महंगाई के लिए विश्व बैंक की नीतियां भी कम द¨षी नहीं हैं। बीते चार दशक में विश्व बैंक ने जिन नीतियों को विकासशील देशों पर थोपा है उससे इन देशों की कृषि बदहाल हो गई है और किसान तबाही के  कगार पर खड़े है। वायदा बाजार भी विश्व बैंक की नीतियों की ही देन है। स¨ना चांदी जैसी अमूल्य वस्तुओ में वायदा व्यापार तो  समझ में आता है, इससे आम आदमी या गरीब का ज्यादा  वास्ता नहीं है परन्तु दैनिक उपभोग की अत्यावश्यक वस्तुओ  जैसे गेहूं, चावल, दाल, तेल, शक्कर आदि में भी इस गोरख धंधे ने अपने पांव पसार लिये है ।  इसमें अनाज के उत्पादन या उपलब्ध्ता से कहीं ज्यादा का वायदा कारोबार पहले ही हो जाता है। वास्तविकता में जब उतनी मात्रा में खाद्यान्न उपलब्ध ही नहीं होगा तो संकट का पैदा होना स्वभाविक है।एक आंकलन के  अनुसार भारत में सालाना करीब 40 हजार करोड़ से ज्यादा का वायदा व्यापार होता है। सूत्रों  से प्राप्त जानकारी के  अनुसार अकेले रायपुर शहर में यह वायदा कारोबार 500 करोड़  से अधिक है । दरअसल वायदा व्यापार के  माध्यम से उपभोक्ता वस्तुओ की जमाखोरी और  कालाबजारी के  अलावा विक्रय कर चोरी भी  बदस्तूर तरीके से जारी  रही है जिससे सरकार को  प्रति माह करोड़ो  रूपये के  राजस्व की हांनि हो  रही है । फलस्वरूप मंहगाई की मार हम सब भुगत ही रहे है । 
  खाद्यान्नो की महंगाई का एक कारण, बढ़ते उत्पादन के बावजूद उसके भण्डारण एवं वितरण की बदहाली भी हैं । भारतीय खाद्य निगम तथा राज्य सरकार की विभिन्न एजेंसियों की कुल भण्डारण क्षमता  विगत दस वर्ष से लगभग 370 लाख टन के  आस पास अटकी हुई  है । इसे बढाने की बजाय अब सरकार निजी भण्डारण क्षेत्रो  को प्रोत्साहित कर रही है । जाहिर है  निजी भण्डारण क्षमता का लाभ आमतौर पर निजी क्षेत्र के बड़े किसान व आढतिये, व्यापारी आदि ही ज्यादा उठाएंगे । खासकर काला बाजारी व जमाखोरी के लिए इनके संभावित दुरपयोग  से इनकार नहीं किया जा सकता । आम भारतीय किसान तो  इन भण्डार ग्रहो  में घुसने तक की जुर्रत नही कर  सकता है, भण्डारण करना तो  दूर है । निजी भंडारण को बढावा देने में भी सरकारी धन व छूटो का ही अधिकाधिक लाभ बहुराष्ट्रीय कंपनियां और  पूंजीपति ही उठा रहे है । इसके  बाबजूद अभी तक कुल भण्डारण क्षमता 910 लाख टन हो पायी है । याद रहे इन भण्डार ग्रहो  में तमाम कृषि उत्पादो यथा सब्जी, फल अनाज आदि को  रखा जाता है । देश में भण्डारण की कमी या फिर उपलब्ध भण्डार गृहो  का आम किसान की पहुंच से बाहर होने के  कारण भारत में पैदा होने वाले कुल अनाज का 20  से 30  प्रतिशत हिस्सा प्रति वर्ष नष्ट हो जाता है । किसानो के  खून पशीने से उपजे इस अन्न की बरवादी को  गंभीरता से  लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 27 जुलाई, 2010 को कहा कि जिस देश में हजारों लोग भूखे मर रहे हों, वहां अन्न के एक दाने की बर्बादी भी अपराध है । इसी तरह 12 अगस्त, 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने फिर दोहराया  कि अनाज सड़ाने के बजाए केंद्र सरकार गरीब और भूखे लोगों तक इसकी आपूर्ति सुनिश्चित करे । देश की सर्वोच्च  अदालत के  इस फरमान को  सरकार एक सलाह समझ बैठी जिसके चलते अदालत को फिर कहना पड़ा कि यह आदेश है, सलाह नहीं है. तब तक 6.86 करोड़ का अनाज सड़ चुका था ।  
भारत के  सभी व्यक्तियो, विशेष रूप से निर्धनो को  खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के  लक्ष्य को लेकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली एक महत्वपूर्ण राज्य हस्तक्षेप कार्यक्रम है ज¨ वर्ष 1960 से संचालित है जिसके  तहत निर्धन तथा निर्धनतम परिवारो को  चिन्हित करके  उन्हे रियायती मूल्य पर खाद्यान्न मुहैया कराया जाता है । अनेक सर्वेक्षणों ने प्रदर्शित किया है कि गरीबी रेखा के नीचे के वर्गीकरण में दो तरह की खामियां हैं। पहली उनको बाहर रखना जो गरीब हैं और जिनके पास अपने को गरीब मनवाए जाने के लिए आवश्यक साधन नहीं है। दूसरी खामी यह है कि जो गरीब और इसके पात्र नहीं हैं, उनके नाम सूची में शामिल हो जाना क्योंकि वे प्रभावशाली होने के नाते यह करवा सकते हैं। इस प्रक्रिया में  50 से 60 प्रतिशत तक वास्तविक गरीब सूची से बाहर हो जाते हैं और दसियों लाख उन परिवारों को सरकारी सहायता प्राप्त अनाज मिलता रहता है जो इसके पात्र नहीं हैं। इन खामियों को कम से कम रखने का एकमात्र उपाय सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सर्वजनीकरण है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के  अतिरिक्त भारत सरकार द्वारा अनेको  निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम भी चलाये जा रहे है जिनमें खाद्य सुरक्षा के  घटक भी शामिल है । उदाहरण क¢ लिये काम के  बदले अनाज, दोपहर का भोजन, अन्तोदय अन्न योजना, खाद्य सुरक्षा मिशन आदि । लेकिन, इसके बावजूद देश में गरीबी घटने की बजाय, बढ़ी है। ऐसा क्यों हुआ ? क्योंकि योजनाओं का क्रियान्वयन निष्ठा व  ईमानदारी से नहीं ह¨ता है और योजनाओ  का लाभ जरूरतमंद अथवा पात्र हितग्राही तक नहीं पहँच पा रहा है। इस कटू सत्य को तो सरकार भी स्वीकार कर रही है कि इन योजनाओं के सौ में से मात्र 14 पैसे जरूरतमन्दों तक पहुंच पाते है । 
              आजादी के  बाद जो  नीतियां व व्यवस्था बनाई गई है जो गरीबी देती है, बेकारी देती है, भुखमरी देती है वो दुर्भाग्य से या तो  अंग्रेजों की बनाई हुई है या फिर भूमण्डीकरण व विश्व व्यापारीकरण की देन है जिनका हम अंधा अनुशरण करते आ रहे है और उस व्यवस्था के विरोधाभास हमको दिखाई तो देते हैं लेकिन उस व्यवस्था को ठीक करने का रास्ता नहीं दिखाई देता । इसलिए हम अपनी जनसँख्या और  अपने लोगों को ही हमेशा कोसते रहते हैं । व्यवस्था की गलती, नीतियो  की कमी हमको दिखाई देना बंद हो चुका है । ऐसी नीतियो  से गरीबी ही मिल सकती है, अमीरी नहीं मिल सकती और अगर अमीरी मिलेगी भी तो थोड़े लोगों को जो शायद एक प्रतिशत भी नहीं हैं, पूरे भारत की आबादी की। हो सकता है, भारत में एक करोड़ लोग बहुत अमीर हों लेकिन 99 करोड़ लोगों को आप हमेशा जीवन में संघर्ष करते हुए ही पाएंगे । हमारे देश में सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि 80 प्रतिशत संसाधन या फिर सरकारी सहायता का लाभ 20 प्रतिशत अमीर हड़प रहे है और  80 प्रतिशत आबादी 20 प्रतिशत संसाधनो  पर गुजर-बसर करने को  मजबूर है । मुंबई में एक उद्योगपति हैं जो अपनी पत्नी को जन्मदिन के तोहफे  के रूप में बोईंग विमान दे देते हैं और उसी मुंबई के  किसी कोने में एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी झोपड़ी भी है, जहाँ 100-100 वर्ग फिट के कच्चे कमरे में मानवता कराह रही हैं। अमीर भारत में गरीबी की इससे बढ़ी दरदे -दास्तान और  क्या हो  सकती है। इस प्रकार हम दावे से कह सकते है, मुश्किल हमारी व्यवस्था में है, लोगों में नहीं । हमें आशंका है कि बढ़ते भ्रष्टाचार, मंहगाई, गरीबी, भुखमरी से फैलते अंसतोष  और  सामाजिक-आर्थिक असमानता के  कारण कही हमें तीसरे विश्व महायुद्ध की विभीषिका से दो -चार न होना पड़ जाए ।
            भारत में सम्पूर्ण विकास के  नाम पर सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओ  की भरमार है जिनके  बारे में जनता अर्थात हितग्राहियो  को असल  जानकारी न होना सामान्य बात है परन्तु विभागीय अधिकारिओ  का योजना के  बारे में अनभिज्ञ रहना कोई आश्चर्य नही है। ऐसे में इन योजनाओ  का परिणाम जगजाहिर है । कृषि मंत्रालय के  अन्तर्गत केन्द्र प्रवर्तित 51 योजनाएं चल रही है जिनका कुल बजट 15 हजार करोड़ रूपये से अधिक का है । इन समस्त योजनाओ को  मात्र 10 योजनाओ  में इकजाई करने से बेहतर योजना प्रबंधन कर अनावश्यक खर्चा कम किया जा सकता है और  उत्तम समावेशी लाभ प्राप्त किया जा सकता है । गरीबी, भुखमरी और  महंगाई से आम आदमी को  राहत पहुँचाने के  लिए सबसे पहला कदम यह होना चाहिए कि जिन क्षेत्रों में लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिल पा रहा है वहां तत्काल भो न उपलब्ध कराना आवश्यक है जिससे वे उत्पादक कार्य  में जुट सके । किसान और किसानी को यथाशीघ्र आवश्यक मदद के  रूप में उन्नत किस्म के  बीज, खाद-उर्वरक, कृषि उपकरण, पौध  संरक्षण दवाएं, और कृषि ऋण रियायती दर पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए । इसके  अलावा किसानो  को उनके  कृषि उत्पादो  का सरकारी मूल्य कृषि लागत के  आधार पर तय किया जाना आवश्यक है तभी खेती लाभ का सो दा हो सकेगी और  ग्रामीण नौजवान  खेती की तरफ उन्मुख होंगे  । गेहूं, चावल, मक्का, कपास, गन्ना क¢ साथ साथ दलहनी, तिलहनी और मोटे  अनाज वाली हमारी परंपरागत  फसलें जैसे ज्वार, बाजरा, कोदो , कुटकी, रागी आदि के  उत्पादन को  भी प्रोत्साहित  करते हुए सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गेंहू-चावल के  साथ इन्हे भी शामिल करना आवश्यक है, जिससे खाद्य सुरक्षा के  साथ-साथ हमारी पोषण  सुरक्षा भी मजबूत हो सके । खाद्यान्न पर आधारित जैव ईंधन के उत्पादन पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने की जरूरत है ।  जैव ईंधन तैयार करने के  वैकल्पिक साधनो  जैसे बायोमास आदि का उपयोग  किया जा सकता है । कृषि योग्य भूमि का निरंतर घटना सबसे अधिक चिन्ता का विषय है । अतः सरकार को  चाहिए कि वह कृषि भूमि का गैर कृषि कार्य  में परिवर्तन पर अंकुश लगाएं । विशेष ओद्योगिक क्षेत्र बनाने के लिए कृषि योग्य भूमि कस उपयोग पर कड़ा प्रतिबन्ध लगाना  चाहिए। मेरा तो सुझाव हे की अब भारत की सभी प्रादेशिक सरकारों को अपने अपने राज्यों में विशेष कृषि क्षेत्र स्थापित करना चाहिए जिसमे छोटे एवं मझोले किसानो के समूह बनाकर विविध कृषि करने उन्हें प्रेरित करना चाहिए। इसके अलावा प्रत्येक देश व् राज्यों  को अपने-अपने यहां अनाज का एक ऐसा रिजर्व तैयार करना चाहिए जिसका उपयोग अचानक पैदा होने वाले खाद्यान्न संकट से निपटने में किया जा सके। बाजार से अन्न व आवश्यक वस्तुओ  की जमाखोरी बढ़ रही है और कारोबारी भाव के साथ खेल रहे हैं। इससे अनाज के भाव बढ़ने से खाद्यान्न गरीबो  की पहुंच के  बाहर होते जा रहे है । इसलिए देश में महंगाई के  फलस्वरूप फैलने वाली  गरीबी और  भुखमरी को  कम करने के  लिए  वायदा बाजार पर प्रतिबंध लगाना बेहद जरूरी है। इन सब में सबसे अहम बात है कि भूखे को  भोजन देकर हम उसकी एक दिन की भूख मिटा सकते है परन्तु यदि उसे भोजन अर्थात अनाज  पैदा करने   की खातिर उन्हें   आधुनिक तौर  तरीके  सिखा देते है तो  उसके  जीवन भर की भूख मिट सकती है ।आज आवश्यकता है कि कृषि विज्ञान की तमाम उपलब्धियो को  देश के  हर गाँव व प्रतिएक  खेत तक पहुँचाने की, गांव के  नर-नारियो, बच्चे  एवं युवाओ को  कृषि उत्पादन की उन्नत  तकनीक के साथ  साथ कृषि में रोजगार के  वैकल्पिक साधनो के  बारे में शिक्षित-दीक्षित करने की । ऐसा करने से एक तरफ हमारी कृषि समृद्ध होगी वही दूसरी तरफ देश में अनुत्पादक कृषको  की संख्या में भी कमी होगी जिसके  फलस्वरूप ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार होगा।
               विकास की उपलब्धियो  से हम ताकतवर बन सकते है, महान नहीं । महान उस दिन बनेगें जिस दिन मंहगाई की मार से आम आदमी को  मुक्ति मिलेगी, जिस दिन कोई  भूखा नहीं सोएगा, जिस दिन कोई  बच्चा कुपोषित नहीं रहेगा, जिस दिन कोई  ग्रामीण अशिक्षित नहीं रहेगा और  जिस दिन सत्ता की कुर्सी पर कोई  राजा बन कर नहीं, सेवक बन कर बैठेगा । यह आदर्श स्थिति जिस दिन हमारे राष्ट्रीय चरित्र में आयेगी, उस दिन महानता हमारे सामने होगी  । फूलो  से इत्र बनाया जा सकता है, पर इत्र से फूल नहीं उगाए जाते । उसके  लिए बीज को   अपनी हस्ती मिटानी पड़ती है । देखिये जब देश की आजादी की लड़ाई चल रही थी तो पूरा भारत उस लड़ाई में नहीं लगा था चन्द लोगों ने उस लड़ाई को लड़ा और हमें आजादी हासिल हुई  । अब हमें स्वराज्य के लिए लड़ना होगा, स्वराज्य मतलब अपना राज्य, अपनी व्यवस्था, तभी हम सफल हो पाएंगे एक राष्ट्र के रूप में, और आप इसमें भारत की पूरी जनता से उम्मीद न कर सकते है कि वो इस महा यज्ञ में शामिल हो जायेगी । हां सभी गणमान्य नागरिको  के समर्थन की जरूरत अवश्य होगी। किसी जन-क्रांति के पहले एक वैचारिक क्रांति होती है । मैंने इस लेख के  माध्यम से उसी वैचारिक क्रांति के लिए ही भारतीय जनमानस को  प्रेरित करने का विनम्र  प्रयास किया है । 
जय किसान !जय जवान ! जय विज्ञान !
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