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गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

सृष्टि की प्रथम फसल जौ की खेती : सीमित लागत अधिक मुनाफा

डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्यविज्ञान बिभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषकनगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
          
              भारत में जौ (बारले) की खेती प्राचीनकाल (9000 वर्ष पूर्व ) से होती आ रही है। भारत में धार्मिक रूप से जौ  का विशेष महत्व है । चैत्र प्रतिपदा से हिन्दू नववर्ष के प्रारंभ के साथ ही बड़े नवरात्र शुरू होते हैं। ये नौ दिन माता की आराधना के लिए महत्वपूर्ण माने जाते हैं। नवरात्रि में देवी की उपासना से जुड़ी अनेक मान्यताएं हैं और  उन्ही में से एक है नवरात्रि पर घर में जवारे या जौ लगाने की। नवरात्रि में जवारे इसलिए लगाते हैं क्योंकि माना जाता है कि जब शृष्टि की शुरूआत हुई थी तो पहली फसल जौ ही थी। इसलिए इसे पूर्ण फसल कहा जाता है। यह हवन में देवी-देवताओं को चढ़ाई जाती है । बसंत ऋतु  की पहली फसल  जौ ही होती है। जिसे हम माताजी को अर्पित करते है जिसके  पीछे मूल भावना  यही है कि माताजी के आर्शीवाद से पूरा घर वर्ष भर धनधान्य से परिपूर्ण बना रहे।

क्यों करें जौ की खेती
               भूली बिसरी प्राचीन फसलों में से एक जौ, के  महत्व को आज के आधुनिक युग में वो पहचान नहीं मिल रही है जिसकी वह असली हकदार है।   भारत की धान्य फसलों में  गेहूँ के बाद दूसरा स्थान जौ का आता है। प्राचीन काल से ही जौ का प्रयोग मनुष्यों के लिए भोजन तथा जानवरों के दाने के लिए किया जा रहा है। हमारे देश मे जौ का प्रयोग रोटी बनाने के लिए शुद्ध रूप मे और चने के साथ मिलाकर बेझर के रूप में किया जाता है। जौ और चना को भूनकर पीसकर सत्तू बनाये जाते है। सत्तू का सेवन ग्रीष्म ऋतू में  स्वस्थ्य के लिए लाभकारी होता है। इसके अलावा जौ का प्रयोग माल्ट बनाने में किया जाता है जिससे बीयर एवं व्हिस्की का निर्माण किया जाता है। आमतौर पर  जौ का प्रयोग जानवरों के चारे व दाने तथा मुर्गी पालन हेतु उत्तम दाने के लिए किया जाता है। जौ के दाने में 11.12 प्रतिशत प्रोटीन, 1.8 प्रतिशत फाॅस्फोरस, 0.08 प्रतिशत कैल्सियम  तथा 5 प्र्रतिशत रेशा पाया जाता है। जौ खाद्यान  में बीटा ग्लूकॉन की अधिकता और ग्लूटेन की न्यूनता जहाँ एक ओर मानव रक्त में कोलेस्ट्रॉल स्तर को कम करता है, वही दूसरी ओर सुपाच्यता व शीतलता प्रदान करता है। इसके सेवन से पेट सबंधी गड़वड़ी , वृक में पथरी बनना तथा आंतो की गड़वड़िया दूर होती है। आज जौ का सबसे ज्यादा उपयोग पर्ल बारले, माल्ट, बियर , हॉर्लिक्स , मालटोवा टॉनिक,दूध मिश्रित बेवरेज आदि बनाने में बखूबी से किया जा रहा है। मानव स्वस्थ्य के लिए बेहद उपयोगी इस खाद्यान्न फसल की सबसे बड़ी खूबी यह है की इसकी खेती कम पानी, सीमित खाद एवं उर्वरक एवं सभी तरह की भूमियों  में लहलहाती रहती है। वर्तमान जलवायु  परिवर्तन का इस फसल की बढ़वार एवं उत्पादन पर ख़ास फरक नहीं पड़ता है यानी कृषि जलवायु की कठिन परिस्थितियों में भी इसे सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है। गेंहू से पहले परिपक्वता, प्रमुख रोगों के प्रति अवरोधिता और समस्याग्रस्त भूमिओं में भी अच्छी उपज इस फसल की  विशेषताओं में चार चाँद लगा देते है। कम लागत में  फसल से पौष्टिक और अधिक उपज मिलें हर किसान की यही चाहत होती है और  जौ की खेती से यह चाहत पूरी हो सकती है। 
                   भारत में हरित क्रांति के फलस्वरूप प्राचीन फसलों का क्षेत्रफल निरंतर घटता जा रहा है। जो के स्थान पर अब गेंहू, सरसों और अन्य रबी फसलों ने ले लिया है।   भारत  में लगभग 616.5 हजार हैक्टर  में जौ  की खेती प्रचलित है जिससे 1958 किग्रा. प्रति हैक्टर की दर   से लगभग 1207.1 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है । उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक क्षेत्र  में जौ  की खेती  की जा रही है । इसके बाद राजस्थान और  मध्य प्रदेश का स्थान आता है । उत्पादन में राजस्थान के बाद उत्तर प्रदेश एवं  मध्य प्रदेश का क्रम आता है जबकि औसत उपज के मामले  में पंजाब प्रथम स्थान (3364 किग्रा. प्रति हैक्टर), हरियाणा द्वितिय (2680 किग्रा.) व राजस्थान तीसरे स्थान (2380 किग्रा.) पर रहा है । मध्य प्रदेश में जौ  की खेती लगभग 83.2 हजार हैक्टर में होती है जिससे 1251 किग्रा. प्रति हैक्टर के हिसाब से 104.1 हजार टन उत्पादन प्राप्त लिया जा रहा है । छत्तीसगढ़ में जौ  की खेती सिर्फ 3.8 हजार हैक्टर में होती है  जिससे 842 किग्रा. प्रति हैक्टर औसत  उपज के हिसाब से करीब 3.2 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है । इस प्रकार से जौ के उत्पादन में प्रादेशिक भिन्नता बहुत अधिक है, जिसकी वजह से इसकी औसत उपज काफी कम है। व्यसायिक क्षेत्रों में जौ की बढ़ती मांग को देखते हुए इसका प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाना नितांत आवश्यक है।  किसान भाई यदि जौ उत्पादन की वैज्ञानिक विधियों  का अनुसरण करें तो उन्हें भरपूर उतपादन और आमदनी हो सकती है।

जौ की उपज बढ़ाने की  नवीनतम उत्पादन तकनीक.
उपयुक्त जलवायु           
                जौ शीतोष्ण  जलवायु की फसल है लेकिन उपोष्ण  जलवायु में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है। गेहूँ की अपेक्षा जौ की फसल प्रतिकूल वातावरण  अधिक सहन  कर सकती है।  इसलिए  उत्तर प्रदेश के पूर्वी नम और  गर्म भागों  में जहाँ गेहूँ की पैदावार ठीक नहीं होती है, जौ की फसल अच्छी होती है । बोने के समय इसे नम, बढ़वार  के समय ठंडी और फसल पकने के समय सूखा  तथा  अधिक तापमय शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है । फसल वृद्धि के समय 12 से 15 डिग्री  सेंटीग्रेडे तापक्रम तथा पकने के समय 30 डिग्री  सेंटीग्रेडे तापक्रम की आवयकता पड़ती है। जौ की खेती 60 से 100 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। इसकी जलमाँग कम होने के कारण सूखा ग्रस्त  क्षेत्रों के लिए यह उपयुक्त फसल है। नमी अधिक होने पर (विशेषकर पकने से पहले¨) रोगों  का प्रकोप अधिक होता है । जौ  सूखे के प्रति गेहूँ से अधिक सहनशील है, जबकि पाले  का प्रभाव इस फसल पर अधिक होता है ।
खेती के लिए उपयुक्त मिट्टियाँ 
            जौ की खेती लगभग सभी   प्रकार की मिट्टियो  में आसानी से की जा सकती है परन्तु इसके लिए अच्छे जल निकास वाली  मध्यम दोमट मिट्टी जिसकी मृदा अभिक्रिया 6.5 से 8.5 के मध्य हो, सर्वोत्तम होती है। भारत में जौ की खेती अधिकतर रेतीली भूमि में कि जाती है। चूने की पर्याप्त  मात्रा वाली मृदाओं में जौ  की बढवार अच्छी होती है । इसमें क्षार सहन करने की शक्ति गेहूँ से अधिक होती है इसलिये इसे कुछ क्षारीय (ऊसर) भूमि में भी सफलता पूर्वक जा सकता है ।
भूमि की तैयारी
               जौ  के लिए गेहूँ की भाँति खेत  की तैयारी की आवश्यकता नहीं होती  है ।  खरीफ की फसल काटने के पश्चात् खेत में मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करने के बाद 3 - 4 बार देशी हल से जुताइयाँ करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए। इससे भूमि मे नमी संरक्षण भी होता है। भारी मृदाओ में बखर चलाकर भी खेत तैयार किया जाता है। भूमि की बारीक ज¨त ह¨ने पर फसल अच्छी आती है ।
उन्नत किस्में  का चयन   
भारत के बिभिन्न जौ  उत्पादक क्षेत्रों  के लिए जौ  की उन्नत  किस्मों  की संस्तुति निम्नानुसार की गई है ।
1. उत्तर पश्चिम मैदानी क्षेत्र(पंजाब, हरयाणा, राजस्थान, पश्चिम उत्तरप्रदेश) .:
(अ) सिंचित समय से बोआईः DWRUB-52, RD-2552, RD-2035,  DWR28, RD-2668, RD-2592, BH-393 और  PL-426
(ब) सिंचित देर से बोआईः RD-2508 और  DL-88 (माल्ट के लिए )
(स) असिंचित समय से बोआईः गीतांजली , RD-2508, RD-2624, RD-2660 और  PL-419
2. उत्तर पूर्वी मैदानी क्षेत्र (पूर्वी उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड, पूर्वी मध्य प्रदेश)
(अ) सिंचित समय से बोआईः K-508, K-551, DL-36  RD-2503, NDB-1173,  नरेंद्र बार्ली -2
(ब) सिंचित देर से बोआईः DL-36,K -329, RD-2508, NDB-209 और K-329
(स) असिंचित समय से बोआईः K-603, K-560 और  JB-58
3 . मध्य क्षेत्र (मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़):
(अ) सिंचित समय से बोआईः RD-57, PL-751, RD-2035, RD-2552 और  RD-2052

(ब) असिंचित समय से बोआईः JB-58
4. दक्षिण क्षेत्र (महाराष्ट्र, कर्नाटक ): सिंचित समय से बोआईः BCU-73, DL-88, M-130
5. उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र :(उत्तरांचल , हिमाचल प्रदेश, जम्मू -कश्मीर, आदि ): असिंचित : HBL-113, HBL276, BHS-352, VLB-1 and VLB-56
जौ की प्रमुख छिलकायुक्त किस्मों  की विशेषताएं
1. ज्योति: यह किस्म 13-135 दिन में पककर तैयार हो जाती है तथा पकने पर बालियाँ जमीन की ओर थोडी झुक जाती है। इसके पौधे सीधे ऊँचे होते हैं। दाने सुनहरे रंग के होती है जिनमें 14. 5ः प्रोटीन होती है। उपज क्षमता 35-40 क्विटल प्रति हेक्टेयर है।
2. विजया: यह किस्म 120-125 दिन मे पकने वाली किस्म सिचित व असिंचिंत क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। बाली में 60. 65 दाने होते हैं दानो मे लगभग 11-12.5 प्रतिशत प्रोटीन होती है। इसकी उपज क्षमता 25 - 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
3. आजाद: यह सिंचित व असिंचित क्षेत्रो के लिए उपयुक्त है। फसल अवधि 125 - 130 दिन व सिंचित क्षेत्रों मे 30 - 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्रप्त होती है। दाने का रंग भूरा होता है।
4. आर. एस. 6: यह 115 - 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है सिंचित व असिंचित क्षेत्रो के लिए उपयुक्त है। इसके दानें मे लगभग 8 प्रतिशत प्रोटीत होती है। अतः माल्ट बनाने के लिए उपयुक्त किस्म है। उपज क्षमता 35 - 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
5. रतना: यह किस्म 110 - 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसके पौधों ऊचे होते है। दाने सुनहरे रंग के होते है जिनमें 14 प्रतिशत प्रोटीन होती है। उपज क्षमता 25 - 30 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है। असिंचित शुष्क क्षेत्रों तथा क्षारीय ऊसर भूमि में उगाने के लिए उपयुक्त है।
6. रणजीत (डीएल-70): यह एक छः कतारी अर्ध बौनी किस्म है जो सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। फसल 120 - 125 दिन में पकती ह। दाने छोटे तथा आकार में समान होते है। इससे 30-35 क्विंटल  दाना प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।
7. डीएल-88: यह अर्द्ध बौनी किस्म देर से बुआई करने के लिए उत्तम है। उपन क्षमता 35 - 40 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है।
8. आरडी-57: यह छः पंक्तियों वाली अर्ध बौनी किस्म है। माल्ट बनाने के लिए उपयुक्त है। फसल 120 - 130 दिन में पकती है। इससे 30 - 35 क्विंटल  दाना प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।
9. आरडी-31: यह अर्ध बौनी किस्म है जो सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। इससे 30 - 32 क्विंटल  दाना प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।
जौ की प्रमुख छिलका रहित किस्मों  की विशेषताएं
1. करण-4: यह 100-110 दिन मे तैयार होने वाली छिलका रहित किस्म है। इसका पौधा अर्द्ध बौना तथा पत्तियाँ पतली होती है। दाना गेहूँ की तरह, छिलका रहित, सरबती तथा सख्त होता है। इसकी औसत उपज 40-45 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है।
2. करण-19: यह 130 दिन में तैयार होने वाली छिलका रहित किस्म है। इसका पौधा अर्द्ध बौना तथा पत्तियाँ पतली होती है। दान चमकदार, छिलका रहित, मोटा तथा कठोर होता है। इसकी औसत उपज 40 - 45 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है।
बोआई का समय
            जौ बोने का उचित समय मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक है। असिंचित क्षेत्रों में 15 - 30 नवम्बर तक बोआई कर देनी चाहिए। सिंचित अवस्था में पछेती बोआई 15 - 20 नवम्बर तक की जा सकती है। देरी से बोनी करने पर फसल पर गेरूई रोग का प्रकोप होता है जिससे उपज कम हो जीत है।
बीज दर एवं बोजोपचार
             स्वस्थ्य और  पुष्ट बीज ही बोने हेतु प्रयुक्त करना चाहिए । बीज की मात्रा बोने की विधि और  खेत  में नमी के स्तर पर निर्भर करती हैं। सिंचित अवस्था एवं समय से हल के पीछे पंक्तियों में बोआई करने पर 75 - 90 किग्रा. तथा असिंचित दशा में बोआई करने के लिए 80-100 किग्रा. बीज लगता है। सीड ड्रील से बोआई करने पर 80 - 90 तथा डिबलर से 25 - 30 किग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता पड़ती है। बोआई से पहले बीज को  वीटावैक्स या  बाविस्टीन 2.5 ग्रा. प्रति किग्रा. बीज की दर उपचारित करना आवश्यक है।
बोआई विधियाँ     
             परंपरागत रूप से किसान जौ  की बुआई छिटकवाँ बिधि से करते आ रहे है, जिससे प्रति इकाई अपर्याप्त पौध संख्या होने की वजह से उन्हें काफी कम उत्पादन मिल पाटा है।  अधिकतम उपज लेने हेतु जौ को सुविधानुसार  अग्र प्रस्तुत किसी एक विधि से बोया जाना चाहिए ।
1 .हल के पीछे कूंड़ मेंः इस विधि में हल से कूंड़ निकाले  जाते है और  उसमें हाथ से या हल में नाई बांधकर बीज डाला जाता है । इसमें बीज समान गहराई पर और  पंक्तियों  में पड़ता है । अतः बीज अंकुरण अच्छा ह¨ता है । आमतौर  पर जौ  और  गेहूँ की बोआई इसी विधि से की जाती है ।
2 .सीड ड्रिल द्वाराः यह पशु या ट्रेक्टर चलित एक मशीन है जिसका  बिभिन्न फसलों की कतार बुआई  हेतु प्रयोग किया जाता है । बोआई की यह सर्वोत्तम विधि है जिसमें बीज कतार में एक निश्चित दूरी तथा समान गहराई पर गिरते है । इसमें बीज दर भी आवश्यकतानुसार निश्चित की जा सकती है ।
3 .डिबलर द्वाराः यह एक ऐसा यन्त्र  है जिसमें नीचे की तरफ लगभग 7-10 सेमी. लम्बी खूटियाँ लगी होती है । जब इसे भूमि पर रखकर दबाते है  तो भूमि में समान दूरी पर छेद हो  जाते है, जिनमे बीज बो  दिया जाता है । यह विधि तभी उचित रहती है जब बीज की मात्रा काफी कम हो और बोआई सिमित  क्षेत्रफल  में करनी होती है । कम बीज को अधिक क्षेत्र  में बोने के लिए यह विधि अच्छी मानी जाती है । इस विधि में समय और  श्रम ज्यादा लगता है।  अतः जौ की बोआई करने के लिए यह विधि आर्थिक रूप से लाभकारी  नहीं है ।
पौध अन्तरण एवं बीज बोने की गहराई                  
                अच्छी  उपज के लिए प्रति इकाई पर्याप्त पौध संख्या स्थापित होना अनिवार्य है। इसके लिए पंक्ति से पंक्ति की सही दूरी पर बुआई करना जरूरी होता है। सामान्यतौर पर जौ  की दो  पंक्तियों  के बीच 22 - 25 सेमी. की दूरी  उपयुक्त रहती हैं। सिंचित परिस्थित और समय से बोआई के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20 - 22 सेमी. रखी जानी चाहिए । इससे अधिक दूरी रखने पर पौधों  की संख्या कम हो  जाती है तथा उपज घट जाती है । साथ ही इससे कम दूरी रखने पर पौधे  ज्यादा घने हो  जाते है, जिससे  उनमें बालियां  छोटी बनती है । बीज बोने की गहराई पर भूमि में उपलब्ध नमी की मात्रा का विशेष प्रभाव पड़ता है । यदि भूमि में नमी की मात्रा  काफी है तो  बीज 5 सेमी. की गहराई पर पड़ना चाहिए । परन्तु नमी की कमी होने पर बीज को  7.5 सेमी की गहराई तक भी डाला जा सकता है । इससे अधिक गहरा बोने पर बीज अंकुरण कम होता है क्योंकि बीज का प्रांकुरचोल  छोटा होने के कारण भूमि के अन्दर ही रह जाता है । दूसरी ओर, अधिक उथला  बोने पर बीज भूमि के सूखे क्षेत्र   में आ जाता है और  अंकुरित नहीं हो  पाता । अतः बीज का नम मिट्टी में गिरना आवश्यक है । सामान्यतौर  पर जौ  की बोआई खेत  में 5-7.5 सेमी की गहराई पर की जाती है ।
खाद एवं उर्वरक
                  जौ से अधिकतम उपज लेने के लिए बोआई की परिस्थिति के अनुसार खाद एवं उर्वरक का प्रयोग किया जाना चाहिए। सिंचित समय से बोआई हेतु 60 किग्रा. नत्रजन, 30 किग्रा. फाॅस्फोरस और 20 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। असिंचित (बारानी) दशा में 30 किग्रा. नत्रजन, 20 किग्रा. फाॅस्फोरस और 20 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर देना उचित रहता है। सिंचित दशा में नत्रजन की आधी मात्रा तथा फाॅस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय कूड़ में 8 - 10 सेमी. की गहराई पर बीज के नीचे देनी चाहिए। शेष आधी नत्रजन को दो बराबर भाग में बाँटकर पहली व दूसरी सिंचाई के समय देना लाभप्रद रहता है। असिंचित दशा में तीनों उर्वरकों को बोआई के समय कूड़ में दिया जाना चाहिए।
अधिक उपज के लिए सिंचाई                     
                 जौ   को  गेहूँ की अपेक्षा कम पानी की आवश्यकता होती है परन्तु  अच्छी उपज लेने के लिए 2 - 3 सिंचाइयाँ की जाती है। पहली सिंचाई फसल में कल्ले फूटते समय  (बोने के 30 - 35 दिन बाद), दूसरी बोने के 60 - 65 दिन बाद व तीसरी सिंचाई बालियों में दूध पड़ते समय  (बोने के 80 - 85 दिन बाद) की जानी चाहिए। दो सिंचाई का पानी उपलब्ध होने पर पहली सिंचाई कल्ले फूटते समय बोआई  के 30 - 35 दिन बाद व दूसरी पुष्पागम  के समय की जानी चाहिये। यदि सिर्फ एक ही सिंचाई का पानी उपलब्ध है तब कल्ले फूटते समय (बोआई के 30 - 35 दिन बाद) सिंचाई करना आवश्यक है। प्रति सिंचाई 5 - 6 सेमी. पानी लगाना चाहिए। दूध पड़ते समय सिंचाई शान्त मौसम में करनी चाहिए क्योंकि इस समय फसल के गिरने का भय रहता है। जौ के खेत में जल निकासी का भी उचित प्रबन्ध आवश्यक है।
खरपतवार नियंत्रण
               जौ में प्रायः निराई-गुड़ाई की आवश्यकता नहीं होती है। सिंचित दशा में खरपतवार नियंत्रण हेतु नीदनाशक दवा 2,4-डी सोडियम साल्ट (80%) या 2,4-डी एमाइन साल्ट (72%) 0.75 किग्रा. प्रति हेक्टेयर को 700-800 लीटर पानी में घोलकर बोआई के 30 - 35 दिन बाद कतार में छिड़काव करना चाहिए, इससे । इससे चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार नियंत्रित रहते हैं। मंडूसी और जंगली जई के नियंत्रण के लिए आइसोप्रोटुरान  75   डव्लू पी 1 किग्रा या पेंडीमेथालिन (स्टोम्प) 30 ई सी 1. 5 किग्रा प्रति हेक्टेयर को 600 - 800 ली. पानी मे घोलकर बोआई के 2 -3 दिन बाद  छिड़काव करना चाहिए।
फसल चक्र     
              आमतौर पर जौ  के लिए वे सभी फसल चक्र अच्छे रहते है, जो  गेहूँ के लिए  उपयुक्त होते है । सामान्यतौर  पर खरीफ की  सभी फसलें  यथा धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, मूंगफली, मूंग आदि के उपरांत जो  की फसल ली जा सकती है । रबी की सभी फसलें (गेहूँ, चना, मटर, सरसों  आदि ) के साथ जौ  की मिलवां या अंतरफसली खेती  की जा सकती है । असिंचित क्षेत्रों में जौ  को  प्रायः चना, मटर या मसूर के साथ ही मिलाकर ब¨या जाता है ।
कटाई एवं गहाई    
            गेहूँ फसल की अपेक्षा जौ की फसल जल्दी पकती है। नवम्बर के आरम्भ में बोई गई फसल मार्च के अन्तिम सप्ताह में पक कर तैयार हो जाती है। इस फसल की एक बार चारे के लिए काटने के बाद दाने बनने के लिए छोड़ देने पर भी अच्छी उपज प्राप्त हो जाती है।  पकने के बाद फसल की कटाई तुरन्त कर लेनी चाहिए अन्यथा दाने खेत में झड़ने लगते हैं  और दानों में 18  - 20  प्रतिशत नमी रहने पर कटाई करते हैं। कटाई हँसियाँ से या बड़े स्तर पर कम्बाइन हारवेस्टर से की जा सकती है। कटाई के बाद फसल को खलिहान में 4 - 5 दिन सुखाने के बाद बैलों की दाॅय चलाकर या शक्ति चालित थ्रेशर से मड़ाई कर लेनी चाहिए। इसके बाद ओसाई कर दाना साफ कर लेना चाहिए। थ्रेसर से मड़ाई व ओसाई एक साथ हो जाती है ।
उपज एवं भंडारण
                जौ की उन्नत किस्मों से सिंचित अवस्था  में 40 - 50  क्विंटल  तक दाना तथा 45 - 55  क्विंटल  प्रति हेक्टेयर तक भूसे की उपज प्राप्त की जा सकती है। असिंचित जौ की फसल से 7 - 10 क्विंटल  प्रति हेक्टयर दाने की उपज प्राप्त की जाती है। अब बाजार में किसान को जौ उपज का अच्छा लाभ  भी मिल जाता है। यदि उपज को बचा के रखना है तो अच्छी तरह सुखाने के बाद जब दानों में नमी का अंश 10-12 % रह जाये, उचित स्थान पर भंडारण करते है।   
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