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गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

हरी खाद:भूमि की सेहत सुधारे और उपज बढ़ायें

 डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)  
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

भारत में हरित क्रांति के दौरान और उसके पश्चात फसलोत्पादन बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरकों का अत्यधिक मात्रा में प्रयोग हुआ है तथा जीवांश वाली खादों जैसे गोबर की खाद, कम्पोस्ट और हरी खाद का उपयोग लेश मात्र किया जा रहा है। रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से तात्कालिक रूप से पोषक तत्वों की पूर्ती तो हो जाती है परन्तु भूमि के भौतिक और जैविक गुणों का सर्वनाश हो जाता है। उर्वरको को बेतरतीब और असंतुलित मात्रा में प्रयोग से भूमि की उत्पादक क्षमता में तेजी से गिरावट देखी जा रही है।भारत में मृदा उर्वरकता एवं उत्पादकता बढ़ाने में  जैविक खादों का  प्रयोग प्राचीन काल से चला आ रहा है। सधन कृषि पद्धति के अन्तर्गत  नगदी फसलों की खेती को बढ़ावा देने से भूमि की अन्तर्गत क्षेत्रफल बढ़ने के कारण हरी खाद के प्रयोग में निश्चिय ही कमी आई लेकिन बढ़ते ऊर्जा संकट, उर्वरकों के मूल्यों में बृद्धि तथा गोबर की खाद एवं अन्य कम्पोस्ट जैसे कार्बनिक स्रोतों की सीमित आपूर्ति से आज हरी खाद का महत्व और बढ़ गया है।  यदि हरी खाद का प्रयोग करें तो निश्चित रूप से भूमि की भौतिक दशा में सुधार के साथ साथ भूमि की उर्वरा और उपजाऊ शक्ति बढ़ाकर किसान गुणवत्ता युक्त फसलोत्पादन अधिक मात्रा में प्राप्त कर सकते  है।
क्या है हरी खाद ?
मृदा उर्वरता को बढ़ाने के लिए समुचित हरे पौधों को उसी खेत में उगाकर अथवा अन्य कहीं से लाकर खेत में मिला देने की प्रक्रिया को हरी खाद देना कहते है। दुसरे शब्दों में   अविच्छेदित अर्थात् बिना गले-सड़े हरे पौधों अथवा उनके भागों को जब मृदा की नाइट्रोजन या जीवांश की मात्रा बढ़ाने के लिए खेत में दबाया जाता है तो इस क्रिया को हरी खाद देना कहते हैं। फसलें, जो मृदा में जीवांश पदार्थ की मात्रा स्थिर  रखने अथवा बढ़ाने के लिए उगाई जाती है, हरी  खाद की फसलें कहलाती हैं तथा उनका सस्य -क्रम में प्रयोग हरी खाद देना कहलाता है।

हरी खाद की फसल के आवश्यक  गुण

हरी खाद की फसल का मुख्य उद्देश्य भूमि को जीवांश पदार्थ प्रदान करना होता है। इसके लिए आवश्यक है कि हरी खाद के लिये जो फसल बोई गई है वह अधिकाधिक वृद्धि करे ताकि भूमि को ज्यादा से ज्यादा जीवांश पदार्थ प्राप्त हो। हरी खाद की फसल में कुछ विशेष गुणों का होना अति आवश्यक होता है। ये विशेष गुण इस प्रकार से हैं-
  • हरी खाद वालीफसल  कम समय में अधिकतम  वृद्धि करने वाली हो जिससे कम समय में मृदा को ज्यादा से ज्यादा कार्बनिक पदार्थ प्राप्त हो सकें.
  • फसल दलहनी कुल की होना चाहिए क्योंकि इस कुल के पौधों की जड़ो में पाई जाने वाली ग्रन्थियों में उपस्थित बैक्टेरिया वायुमंडल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन को मृदा में स्थिर करते है .
  •  फसल की जड़ें भूमि में गहराई तक जाने वाली हो ताकि वे पोषक तत्वों और नमीं को अधोमृदा से निकालकर ऊपर लाने में सक्षम हो सकें.
  •  फसल की जल और  पोषक तत्वों की माँग तुलनात्मक रूप से कम हो।
  • फसल  विपरीत जलवायुविक  परिस्थितियों को सहन करने की क्षमता रखती हों।
  • फसल बीमारीयों तथा कीट-पंतगों के आक्रमण को सहन करने की क्षमता रखती हो।
  • फसल ऐसी हो जिसे कम उपजाऊ मृदा में भीआसानी से  उगाया जा सके और उसकी जल मांग भी कम होना चाहिए। 
  • खाद्यान्न फसल चक्र में  उसका उचित स्थान होना चाहिए। फसल  कम देख रेख में  शीघ्र तैयार होने वाली होना चाहिए। 
  • फसल भूमि को अधिक मात्रा में जीवांश पदार्थ और नाइट्रोजन  प्रदान  करने वाली  हों।
  • फसल बहुद्देश्यीय होना चाहिए  जैसे - चारा, खाद, रेशा, आदि

हरी खाद देने विधियां

भारत के विभिन्न भागों में मृदा एवं जलवायु की परिस्थितियों में  में  हरी खाद देने की अलग अलग विधियाँ अपनाई जाती है। उत्तरी  भारत में अमूमन  उन्ही खेतों में हरी खाद वाली फसलें लगाई जाती है जिनमे खाद देनी होती है जबकि पूर्वी और मध्य भारत में कभी कभार मुख्य फसल के साथ ही हरी खाद वाली फसल भी लगाईं जाती है। दक्षिण  भारत में खेत की मेड अथवा तालाबों के किनारे हरी खाद वाली फसलों को उगाकर अथवा अन्य जगहों से पेड़ पौधों की पत्तियों और शाखाओं को काटकर खेत में मिला दिया जाता है। इस  प्रकार हरी खाद देने के ढंग को दो वर्गों में विभाजित किया गया है। 
हरी खाद की स्थानिक विधि: इस विधि में हरी खाद की फसल को उसी खेत में उगाया जाता है। जिसमें हरी खाद का उपयोग करना होता है। यह विधि समुचित वर्षा अथवा सुनिश्चित सिंचाई वाले क्षेत्रों में अपनाई जाती है। इस विधि में फूल आने से पूर्व वानस्पतिक बृद्धिकाल (45-60 दिन) में मिट्टी में पलट दिया जाता है। मिश्रित रूप से बोई गई हरी खाद की फसल को उपयुक्त समय पर जुताई द्वारा खेत में दवा दिया जाता है।
हरी पत्तियों की हरी खादः इस विधि में हरी खाद की फसलों की पत्तियों एवं कोमल शाखाओं को तोडकर खेत में फैलाकर जुताई द्वारा मृदा में दवाया जाता है। व मिट्टी में थोडी नमी होने पर भी सड़ जाती है। यह विधि कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए  उपयोगी होती है।
हरी खाद के लिए प्रयोग होने वाली फसलें 
खरीफ की  फसलें - सनई, ढैचा,मूगँ मोठ, उर्द,लोबियाआदि। 
रबी की फसलें - सेजी, मटर, बरसीम, खिसारी, मसूर,  मेंथीआदि। 
विभिन्न फसलों द्वारा मृदा को प्रदान की गई हरे पदार्थ और नाइट्रोजन की मात्रा
फसल का नाम
मौसम
हरे पदार्थ की मात्रा (टन/हे.)
नाइट्रोजन का प्रतिशत
भूमि को प्राप्त नाइट्रोजन (किग्रा/हे.)
सनई
खरीफ
20-30
0.43
86-129
ढैंचा
खरीफ
20-26
0.42
84-105
उड़द
खरीफ
10-12
0.41
41-49
मूंग
खरीफ
8-10
0.48
38-48
गूआर
खरीफ
20-25
0.34
68-85
लोबिया
खरीफ
15-18
0.49
74-88
सैंजी
रबी
26-29
0.51
120-135
खिसारी
रबी
12.5 
0.54
66
बरसीम
रबी
16
0.43
60

हरी खाद का महत्व/हरी खाद के लाभ

हरी खाद वाली फसलें भूमि की उर्वरता बढ़ाने और भूमि की भौतिक दशा सुधारने में महत्वपूर्ण योगदान देती है।हरी  खाद के प्रयोग से निम्न लिखित लाभ प्राप्त होते है। 
मृदा में जीवांश पदार्थ में बढ़ोत्तरी: मृदा में बड़ी मात्रा में  हरे पदार्थो को मिलाने से कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ती है। मौसम और प्रबंधन के अनुसार  अलग -अलग फसलें प्रति वर्ष 40-100 किग्रा./हे.  नत्रजन  मृदा में बढ़ाती है।  दरअसल दलहनी फसलों की जड़ों में पाया जाने वाले राइजोबियम जीवाणुओं द्वारा वातावरण की स्वतन्त्रत नत्रजन का भूमि में  स्थिरीकरण होता है, जिससे फसल को नत्रजन तत्व उपलब्ध होता है। 
पोषक तत्वों का संरक्षण: खाली पड़ी/परती  भूमि की अपे़क्षा यदि इनमे  हरी खाद की फसल उगाई जाये तो पोषक तत्वों को  उद्धिलन  द्वारा होने वाली  हानियों से बचाया जा सकता है क्योकि ये पोषक तत्व खेत में खड़ी फसल के द्वारा अवशोषित कर लिये जाते है तथा जब फसल  को हरी खाद के लिए खेत में दबाते है तो  जीवांश पदार्थ का विच्छेदन  होकर पुनः अगली फसल को पोषक तत्व  प्राप्त हो जाते है।
पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि:हरी खाद की फसलें जब भूमि में दबायी जाती हैं तो इनके विच्छेदन के बाद अनेक कार्बनिक और अकार्बनिक  अम्ल पैदा होते हैं। ये अम्ल पोषक तत्वों जैसे - कैल्शियम, मैग्नीशियम, फास्फोरस तथा पोटाश  आदि की घुलनशीलता को बढ़ातें हैं जिससे  पौधों को इनकी  उपलब्धता बढ़ जाती है।
मृदा सतह का संरक्षण :हरी खाद की अधिकांश फसलों की वानस्पतिक तथा जड़ों की वृद्धि अधिक होने के कारण ये एक तरह से मृदा को आच्छादन प्रदान करती है।इन  फसलों की जड़ों में  मृदा कणों को अपने साथ कुछ हद तक बाँधे रखने की क्षमता  होती है। अतः मृदा कटाव की सम्भावना  नहीं रहती  है तथा मृदा कटाव में बह कर जाने वाले पोषक तत्वों का भी संरक्षण होता है। अतः हरी खाद वाली फसलें  अप्रत्यक्ष रूप से भूमि की उर्वरता को कायम रखने में मदद करती है।
जैविक प्रभाव:हरी खाद के इस्तेमाल से भूमि में अनेकलाभदायी  जीवाणु क्रियाशील हो जाते हैं।भूमि में अनेक जैविक क्रियाओं जैसे-कार्बनडाई आक्साइड , अमोनिया , नाइट्राइट, नाइट्रेट  वअन्य पदार्थो के  विच्छेदन में  इन्ही जीवाणुओं की क्रियाशीलता से मदद मिलती  है। इसके आलाव वातावरण की स्वतन्त्र नाइट्रोजन व भूमि में स्थिरीकरण की क्रिया भी इन्ही जीवाणुओं के सहयोग से संपन्न  होती है। 
खतपतवार नियंत्रण: हरी खाद की फसल तीव्रगति से  वृद्धि करके खरपतवारों को प्रकाश, जल,पोषक तत्वों आदि की उपलब्धता कम कर देती है जिससे  खरपतवारों की वृद्धि और विकास अवरुद्ध हो जाता है। अप्रत्यक्ष रूप से खरपतवारों द्वारा होने वाली पोषक तत्वों की हानि को भी हरी खाद कम  करती है।
मृदा संरचना में सुधार:हरी  खाद से प्राप्त जीवांश पदार्थ से हल्के गठन वाली मिट्टियों  तथा चिकनी भूमियों की संरचना में सुधार होता  है । इस प्रकार भूमि की  जल धारण क्षमताऔर पोषक तत्वों की उपलब्धता  बढ़ती है तथा वायु संचार में भी वृद्धि होती  है। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से मृदा  की उर्वरता में सहयोग होता है।
क्षारीय एंव लवणीय भूमियों का सुधार: हरी खाद की फसल भूमि में मिलने के बाद अनेकप्रकार के  अम्ल पैदा  करती  हैं जो क्षारीयता को कम करने में मददगार होती  हैं और मृदा से  वाष्पीकरण को रोक कर भी इस तरह की भूमियाँ बनने में रोकती है। अतः अप्रत्यक्ष रूप गैर उर्वर  भूमियों को उर्वर और उपजाऊ  बनाने में मदद करती  है।


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