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शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

टिकाऊ खेती के लिए आवश्यक है फसल चक्र परिवर्तन


डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

भारतीय अर्थव्यस्था में कृषि का विशेष महत्त्व है। आज भी सकल घरेलू उत्पाद का लगभग १९% भाग कृषि एवं कृषि सम्बंधित व्यवसाय से आता है तथा कृषि आज भी 60 % जनसँख्या को रोजगार प्रदान कर रही है। बढ़ती जनसँख्या के कारण कृषि जोत का आकार  दिनों दिन काम होता जा रहा है। भारत में लगभग 65 % क्षेत्र में  कृषि वर्षा पर निर्भर करती है। मानसून की अनियमितता और वर्षा जल में हो रही कमीं के कारण यहाँ के किसान उन्नत तकनीक के लिए महंगे आदान इस्तेमाल करने का जोखिम नहीं उठाते है जिसके फलस्वरूप उन्हें काफी कम उत्पादन प्राप्त हो पाता है। इस क्षेत्र के किसान वर्षा काल में सिर्फ एक फसल ज्वार, बाजरा, मक्का या धान वर्षों से उगाते आ रहे है जो मौसम की प्रतिकूलता के कारण वांक्षित उत्पादन नहीं दे पाती है।  एक ही फसल की बार बार बुआई करने से भूमि में पोषक तत्वों की कमीं तथा कीट, रोग और खरपतवारों का प्रकोप बढ़ जाता है। अतः  भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाये रखते हुए खाद्यान्न उत्पादन को टिकाऊ बनाने के लिए किसानों को उपलब्ध संसाधनों का कुशल प्रयोग करते हुए फसलों को हेर-फेर कर बोना होगा। फसल चक्र का मुख्य उद्देश्य भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखना तथा इसके अलावा फसल संरक्षण, भूमि के भौतिक गुणों को अच्छा बनाये रखना होता है । प्राचीन समय में फसल चक्र में हरी खाद की फसल उगाना तथा खेत को परती छोड़ना आज आवश्यक नहीं रह गया है क्योंकि आधुनिक समय में हमारी जनसंख्या जिस तरह से बढ़ रही है उसके लिए यह आवश्यक है कि सघन खेती वाले कार्यक्रमों के लिए सघन फसल चक्र बनाये जायें ताकि अधिक उत्पादन हो सके। किसी निश्चित  क्षेत्रफल पर निश्चित अवधि में दो या दो से   अधिक फसलों को इस प्रकार हेर-फेर कर बोना कि भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहे, फसल चक्र   कहलाता है। साधारणतया शस्य-जलवायुविक परिस्थितिओ के अनुसार फसल चक्र निम्नलिखित तरह के होते हैं-

  • ऐसे फसल चक्र जिनके पूर्व  या बाद में खेत को  परती छोड़ा जाता  है जैसे- परती-सरसों, परती-गेंहू,  गेहॅू-परती आदि। 
  • ऐसे  फसल चक्र जिनमें मुख्य फसल से पूर्व या बाद में हरी, खाद वाली फसल उगाई जाती है, उदाहरणार्थ हरी खाद-धान, हरी खाद-गेहॅू, गेहॅू-हरी खाद, धान-हरी खाद 
  • ऐसे फसल चक्र जिसमें बिना दाल वाली फसल से पूर्व अथवा बाद में दाल वाली फसल उगाई   जाती है उदाहरणार्थ - धान-मसूर, गेहॅू-मूॅग,ज्वार-चना।
  • भूमि की उर्वरा शक्ति की परवाह न करके अनाज के बाद अनाज वाली फसल लेना जैसे- धान-धान, धान-गेंहू, मक्का-गेहूॅ आदि। 
  • भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने के लिये दलहनी  के बाद पुनः  दलहन फसल  लेना जैसे - सोयाबीन-चना, मॅूग-चना, सोयाबीन-मटर आदि। 
  • ऐसे फसल चक्र जिनमें सघनता से कई तरह की फसलों को लिया जाना है जैसे -  मॅूग-मक्का-लोबिआ, लोबिआ-सरसों-गेहॅू, गेंहू-गन्ना आदि।  
उपरोक्त फसल चक्रों में से कृषक सुविधानुसार कोई सा भी फसल चक्र की योजना बना सकते  है।

फसल चक्र हेतु फसलों का चुनाव  

किसी भी फसल चक्र को बनाने से पूर्व उसमें सम्मिलित की जाने वाली फसलों को चुनते समय निम्नलिखित प्रभावी कारकों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए-
जलवायु- इसमें  स्थान विशेष में वार्षिक  वर्षा की मात्रा और वितरण, न्यूनतम और अधिकतम  तापक्रम, प्रकाश की अवधि कारकों के अनुसार फसलों का चयन। 
मृदा का प्रकार -  इसमें मृदा में नमीं,  मृद गठन, मृदा पी. एच. के आधार पर फसलें लगाईं जाती है।शस्य प्रबन्धन- खाद व उर्वरकों की उपलब्धता,  सिंचाई जल की उपलब्धता, पौध सरंक्षण  रसायनों उपलब्धता को ध्यान के रख कर फसलें उगाई जाती है। 
आर्थिक कारक - उत्पाद की घरेलू आवश्यकता या बाजार में मांग, न्यूनतम समर्थन मूल्य आदि 

फसल चक्र के सिद्वान्त 

फसल चक्र परिवर्तन अथवा फसल विविधीकरण समय की मांग है तथा किसान को जोखिम कम करने एवं टिकाऊ फसल उत्पादन के लिए यह आवश्यक है। फसल चक्र की योजना मौसम  और जलवायु  तथा भूमि की स्थिति और प्रकार के आधार पर बनाई जानी चाहिए।   कोई भी फसल चक्र बनात समय निम्न बातों को ध्यान में अवश्य रखना चाहिये -
  • गहरी जड़ों वाली फसलों के साथ उथली जड़ों वाली  उगानी चाहिये जिससे विभिन्न फसलें अलग अलग सतह से नमीं और पोषक तत्वों को ग्रहण कर सकें। 
  • अधिक खाद चाहने वाली फसलों के साथ कम खाद चाहने वाली फसलें बोना चाहिए ताकि  अधिक खाद चाहने वाली फसलों को दिया जाने वाल खाद यदि फसल न ग्रहण कर पाये तो  उसके बाद बोई जाने वाली कम खाद चाहने वाली फसल उसे ग्रहण कर सके तथा वह बेकार    न जाये।
  • अधिक पानी चाहने वाली फसलों के बाद कम पानी चाहने वाली फसलें बोना चार्हिए जैसे धान के बाद चना, मसूर, अलसी आदि जिससे भूमि की भौतिक और रासायनिक दशा अच्छी बनी रहेगी 
  • दलहनी फसलों के बाद अदलहनी (अनाज वाली) फसलें उगाना चाहिये। दलहनी फसलें अपनी जड़ों में स्थिति   नत्रजन स्थिरीकरण करने वाले बैक्टीरिया पाये जाते हैं जिससे वायुमण्डल की नत्रजन भूमि में   स्थिर हो जाती हे जिसे अगली बिना दाल वाली फसल आसानी से उपयोग कर सकें।
  • एक ही कुल की फसलों की लगातार बुआई करने से फसलों पर कीट-रोग और खरपतवारों का आक्रमण अधिक होता है साथ ही पोषक तत्वों की सामान मांग होने के कारण भूमि में तत्व विशेष की कमीं हो सकती है। 
  • मृदा क्षरण को प्रोत्साहित करने वाली फसलों (जुआर, बाजरा, मक्का आदि) के बाद मृदा क्षरण को रोकने वाली फसलें (चना, मूंग, मोठ आदि) की बुआई करनी चाहिए। 
  • फसल चक्र बनाते समय उन सभी फसलों का समावेश करना चाहिए जिससे किसान के पास उपलब्ध सभी संसाधन जैसे श्रम, बीज, सिचाई, खाद, पूँजी आदि का पूर्ण एवं समुचित उपयोग हो सकें। 
  • फसल चक्र में इस तरह की फसलों को समायोजित करना चाहिए जिनसे  अधिकाधिक आर्थिक लाभ      हो सके। इसके लिये आवश्यक है कि स्थानीय आवश्यकताओं तथा स्थानीय बाजार  की मांग के अनुसार फसल चक्र बनाया जाये।
फसल चक्र के लाभ 
फसल चक्र के उपरोक्त सिद्धांतों का अनुशरण करते हुए फसल चक्र अपनाने से अग्र लिखित लाभ प्राप्त किये जा सकते है। 
  1. फसल चक्र अपनाने से मृदा उर्वरता तथा मृदा नमी का सन्तुलित रूप से उपयोग होेता है तथा इन पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ता हैं। उदाहरणार्थ यदि एक फसल मृदा से अधिक मात्रा में पोषक तत्व ग्रहण करती है तो अगली दलहनी फसल मृदा में पोषक तत्व का स्थिरीकरण करती है इस प्रकार सन्तुलन बना रहता है।
  2. विभिन्न दलहनी, उथली,गहरी, जड़ों वाली फसलों का समावेश फसल चक्र में होने के कारण  मृदा के गुणों (भौतिक, रासायनिक, जैविक) पर अच्छा ही असर होता है।
  3. फसल चक्र में विभिन्न तरह की फसलों के समायोजन के कारण खरपतवारों, कीटों तथा बीमारियों पर अचछा नियंत्रण रखा जा सकता है। एक ही फसल बार-बार उगने से इनका   आक्रमण बढ़ता है।
  4. मृदा की उर्वरा शक्ति, मृदा, नमी, वायु, संचार इत्यादि जब अच्छे बने रहते हैं तो फसलोत्पादन स्वतः ही बढ़ जाता है और उपज अपेक्षाकृत अधिक प्राप्त होती है।
  5. कीट तथा बीमारियों से बचाव के कारण फसल उपज की गुणता बढ़ जाती है।
  6. अच्छे गुण वाली अधिक फसल उपज होने के कारण अधिक आर्थिक लाभ होता है।
  7. फसल चक्र अपनाकर खेती करने से सिंचाई के साधनों, फार्म, यन्त्रों, मजदूरों, की उपलब्धता    तथा उपलब्ध अन्य साधनों हम भली-भाॅति उपयोग में ला सकते हैं और उनकी दक्षता  बढ़ा सकते हैं तथा इस प्रकार उनकी आयु भी बढ़ जाती है। 

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