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शनिवार, 16 जून 2018

नवोदित कृषि का अमोघ अस्त्र :उर्वर सिंचाई (फर्टिगेशन)


डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

भारत में हरित क्रांति की सफलता में उन्नत किस्मों के साथ साथ सिंचाई और उर्वरकों का अहम् योगदान रहा है और आने वाले वर्षों में भी रहेगा. क्षेत्रफल के हिसाब से देखा जाये तो विश्व में सबसे अधिक क्षेत्रफल हमारे देश में है परन्तु प्रति हेक्टेयर फसल उत्पादकता की दृष्टि से हमारा देश अभी भी काफी पीछे है।  बढती आबादी के भरण पोषण के लिए हमे प्रति इकाई उत्पादकता बढ़ाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है ।  जलवायु परिवर्तन और वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण देश में प्रति वर्ष वर्षा की मात्रा  कम होती जा रही है जिससे कृषि के लिए सिंचाई जल की आपूर्ति में भी कमी होन स्वाभाविक  है।  ऐसे में हमे उपलब्ध जल संसाधनों के सक्षम और कुशल उपयोग से ही फसलोत्पादन को बढ़ाना है।  रासायनिकों के असंतुलित प्रयोग से हमारी उपजाऊ जमीने बंजर होने की कगार पर है, तो दूसरी तरफ रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है।  फसलोत्पादन को टिकाऊ बनाने के लिए आवश्यक है की उपलब्ध जल की प्रति बूँद से अधिकतम उत्पादन लिया जाए साथ ही उर्वरकों आदि कृषि आदानों के कुशल एवं संतुलित प्रयोग करते हुए फसल उत्पादकता बढ़ाने हेतु आवश्यक उपाय किये जाने चाहिये। सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों के अभ्युदय से जल तथा पोषक तत्वों के कुशल एवं संतुलित प्रयोग की आशा जगी है।  सूक्ष्म सिंचाई पद्धतियों को अपनाकर 40-70% पानी की बचत के साथ-साथ उर्जा और मजदूरी में भी बचत होती है और गुणवत्तापूर्ण उत्पादन के साथ-साथ 30-40% तक उपज में वृद्धि प्राप्त की जा सकती है।  फर्टिगेशन दो शब्दों फ़र्टिलाइज़र अर्थात उर्वरक और इरिगेशन अर्थात सिंचाई से मिलकर बना है।   सिंचाई के  पानी के साथ साथ  उर्वरकों का सीधा प्रयोग कर पौधों की जड़ों तक पहुँचाने की प्रक्रिया को फर्टिगेशन अर्थात सिंचाई के साथ उर्वरीकरण या उर्वर सिंचाई कहते है।  इस प्रक्रिया में सिंचाई जल के साथ आवश्यक घुलनशील उर्वरकों को मिश्रित कर दिया जाता है।  यह कार्य ड्रिप सिंचाई प्रणाली तंत्र की कंट्रोल यूनिट पर स्थापित उर्वरक इंजेक्टर प्रणाली के माध्यम से किया जाता है। इसमें उर्वरकों के अलावा अन्य  जल विलेय रसायनों तथा कीटनाशकों का प्रयोग भी सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों द्वारा किया जा सकता है।  वास्तव में फर्टिगेशन फसल और मृदा की आवश्यकताओं के अनुरूप उर्वरक एवं जल का संतुलित मात्रा में उपयोग करने के लिए प्रभावी तकनीक है।  फसलोत्पादन में जल और पोषक तत्वों  का उचित समन्वय अधिक पैदावार और उत्पाद की गुणवत्ता का आधार स्तम्भ है।  फर्टिगेशन में उर्वरकों को कई बार में सुनियोजित सिंचाई के साथ दिया जाता है, इससे पौधों उनकी आवश्यकता के अनुसार पोषक तत्व उपलब्ध हो जाते है, साथ ही मूल्यवान उर्वरकों का अपव्यय भी नहीं होता है। 

फर्टिगेशन तकनीक की आवश्यकता

यह सर्विदित है की कृषि में जल एवं उर्वरक आवश्यक निवेश है एवं कृषि की सफलता या बिफलता इन दोनों तत्वों के समुचित बंधन पर ही टिकी होती है। जल एवं उर्वरकों के असंतुलित प्रयोग से अनेक प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हो रही है। मसलन पंजाब के उत्तर-पश्चिम भाग में भू-जल स्तर तेजी से नीचे गिर रहा है।  जबकि दक्षिण-पश्चिम भाग में लवणता की समस्या तेजी से बढ़ रही है।  कमोवेश भारत के हर राज्य में जल एवं उर्वरक जनित समस्याएं उत्पन्न हो रही है।  ऊसर भूमि का क्षेत्रफल भी बढ़ता जा रहा है।  इसके अलावा मृदा के भौतिक,रासायनिक एवं जैविक गुणों में भी तेजी से गिरावट देखी जा रही है, जिसका मृदा उर्वरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। फसलों और प्राणी जगत में  नित नई बीमारियों का प्रकोप हो रहा है।  इन सभी समस्यायों के द्भव में असंतुलित जल एवं उर्वरक प्रयोग का अहम् योगदान है।  भारतीय मृदाओं में फसलोत्पादन के लिए आवश्यक नत्रजन, फॉस्फोरस,पोटाश के अलावा जस्ता और सल्फर जैसे पोषक तत्वों का निरंतर क्षरण होता जा रहा है।  भूमि में पोषक तत्वों की कमीं की पूर्ती करने हेतु रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है।  उर्वरकों की बढती मांग की पूर्ति करने के लिए उर्वरकों का एक बड़ा हिस्सा बाहर से आयात किया जाता है, जिस पर देश को प्रति वर्ष करोंड़ो रुपये खर्च करने पड़ते है।फर्टिगेशन द्वारा उर्वरकों का प्रभावी उपयोग करके उर्वरक लागत को काफी हद तक कम किया जा सकता है।  इसके अलावा भूमंडलीकरण और विश्व व्यापारीकरण के कारण विश्व कृषि बाजार का परिद्रश्य तेजी से बदल रहा है जिससे पारंपरिक फसलों के स्थान पर  बहुत सी नकदी फसलें, सब्जियां, फल, पुष्पों आदि का प्रचलन बढ़ता जा रहा है।  इ फसलों को अन्तराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप उत्पादित करने के लिए उर्वर सिंचाई प्रणाली (फर्टिगेशन) का इस्तेमाल अति आवश्यक और समीचीन हो गया है। 

फर्टिगेशन हेतु उपयुक्त उर्वरक

हमारे देश में नत्रजन धारी उर्वरकों  को ही मुख्यतः फर्टिगेशन द्वारा प्रयोग में लाया जाता है।  फॉस्फोरस और पोटाश युक्त उर्वरक पुर्णतः जल विलेय न होने के कारण इस विधि से पौधों को आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाते है।  इसके अलावा ये उर्वरक सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली को भी अवरुद्ध कर देते है. यद्यपि कुछ पोटाश युक्त उर्वरकों जैसे पोटैशियम सल्फेट, पोटेशियम नाइट्रेट, पोटेशियम क्लोराइड को इस विधि से भी फसलों को दिया जा सकता है. अनेक सूक्ष्म तत्व जैसे लोहा एवं जिंक को चिलेट के रूप में तथा ताबां को कॉपर सल्फेट के रूप में फर्टिगेशन द्वारा फसलों को दिया जा सकता है।  वैसे आज कल किसानों के लिए फर्टिगेशन के माध्यम से देने के लिए पानी में घुलनशील उर्वरक बाजार में कई कंपनीयो द्वारा उपलब्ध करवाए जा रहे है| किसान यह ध्यान रखे कई यूरिया, पोटाश पानी में अत्यधिक घुलनशील है, साथ ही घुलनशील उर्वरक भी बाजार में उपलब्ध है| किसान फॉस्फोरस पौषक तत्व के लिए उन उर्वरक को काम में ले जिनमें फॉस्फोरस का स्वरूप फास्फोरिक एसिड के रूप में हो, इसे उर्वरक तरल रूप में बाजार में उपलब्ध है|
इसके अलावा किसान मोनो अमोनियम फॉस्फेट (नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस)पॉलीफीड (N, P, K), मल्टी K (N & K) और पोटैशियम सलफेट (पोटैशियम और सल्फर) आदि उर्वरक फर्टिगेशन में उपयोग कर सकते है, यह उर्वरक पानी में अत्यधिक घुलनशील है साथ ही इन उर्वरको से किसान अपनी फसल एवं पौधों को सूक्ष्म  पोषक तत्वों जैसे Fe, Mn, Cu, B, Mo की आपूर्ति  भी कर सकते है। 
नाइट्रोजन फर्टिगेशन उर्वरक:- यूरिया, अमोनियम सलफेट, अमोनियम नाइट्रेट, कैल्शियम अमोनियम सलफेट, कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट, कुछ प्रमुख नाइट्रोजन उर्वरक है जो किसान ड्रिप सिचाई के दौरान फर्टिगेशन के रूप में काम लिए जासकते  है। 
फॉस्फोरस  फर्टिगेशन उर्वरक:- फास्फोरिक एसिड एंड मोनो अमोनियम फॉस्फेट। 
पोटैशियम फर्टिगेशन उर्वरक:-पोटैशियम नाइट्रेट, पोटैशियम क्लोराइड, पोटैशियम सलफेट और मोनो पोटैशियम फॉस्फेट। 

उर्वरक प्रयोग का उपयुक्त समय

फसल को आवश्यकतानुसार पोषक तत्वों की समान एवं सही समय पर आपूर्ति ही उर्वर सिंचाई की सफलता का मूल मन्त्र है. मृदा के एक बड़े हिस्से के जल संतृप्त होने के बाद ही उर्वर सिंचाई प्रारंभ की जानी चाहिए नत्रजन-नाइट्रेट  अधिकाधिक मात्रा में मृदा के ऊपरी सतह में उपस्थित रहे और पौधों को सुगमता से उपलब्ध हो सकें।  इस प्रकार सिंचाई चक्र के अंतिम हिस्से से उर्वरक प्रयोग प्रारंभ करना अधिक फायदेमंद होगा। 

फर्टिगेशन में उर्वरक प्रयोग की शुरुआत उर्वरकों की प्रकृति के साथ-साथ मृदा की भौतिक सरंचना पर भी निर्भर करती है।  यदि बलुई मिटटी में फर्टिगेशन करना है तो सिंचाई चक्र के अंतिम भाग में उर्वरक प्रयोग शुरू करना चाहिए जिससे पोषक तत्वों के निक्षालन (लीचिंग)  न्यूनतम या नगण्य सम्भावना रहे, जबकि चिकनी मिटटी में उर्वरक प्रयोग सिंचाई चक्र की शुरुआत से ही प्रारंभ कर सकते है, क्योंकि इसमें निक्षालन प्रक्रिया बहुत धीमी होती है और जल का मिट्टी में फैलाव क्षैतिज दिशा में तेज होता है।  इस प्रकार हर स्थान पर पोषक तत्वों की उपस्थिति में समानता बनाये रख सकते है।

 फर्टिगेशन तकनीक प्रयोग में  कुछ सावधानियां

फर्टिगेशन के लिए उर्वरक घोल बनाने से पहले हमे कुछ तकनिकी बातों पर विशेष ध्यान देनें की आवश्यकता है। 
Ø जब भी हम घोल बनाये उस समय घोलने के लिए आवश्यक जल का 50-75 % भाग पानी कंटेनर में भरें. साथ ही साथ इस बात का भी ध्यान रखें की यदि तरल उर्वरक एवं पानी में घुलनशील उर्वरक दोनों का प्रयोग एक साथ ही करना है तो पहले तरल उर्वरक को कंटेनर में डालें उसके बाद विलेय उर्वरक को मिश्रित करें। 
Ø यदि किसी अम्ल का प्रयोग करना है तो हमेशा अम्ल को पानी में मिलायें। अम्ल में पानी घोलने का प्रयास न करें। 
Ø सूक्ष्म सिंचाई के लिए प्रयोग होने वाले गंदे पानी के उपचार के लिए क्लोरीन गैस का प्रयोग करना है तो गैस को कंटेनर के पानी में मिलायें परन्तु क्लोरीन गैस मिश्रण के समय इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि कंटेनर में कोई अम्ल या अम्लीय उर्वरक नहीं है वरना विषाक्त क्लोरीन गैस की उत्पत्ति संभव है। 
Ø क्लोरीन एवं अम्ल का भण्डारण एक ही स्थान पर अर्थात एक ही कक्ष में नहीं करना चाहिए। 
Ø दो कंपाउंड (मिश्रण) को मिश्रित करने से पूर्व यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि कैल्शियम एवं सल्फेट युक्त कंपाउंड तो नहीं है, वरना इनकी रासायनिक क्रिया से अघुलनशील या कम घुलनशील कंपाउंड की उत्पत्ति होगी. उदाहरण के लिए यदि कैल्शियम नाइट्रेट एवं अमोनियम सल्फेट उर्वरक का प्रयोग एक ही साथ करें तो ये दोनों मिलकर कैल्शियम सल्फेट (जिप्सम) नामक एक बहुत कम घुलनशील कंपाउंड उत्पन्न करते है जो कि सूक्ष्म सिंचाई में प्रयुक्त होने वाले सवेंदनशील उपकरणों जैसे फ़िल्टर, ड्रिपर, माइक्रोजेट आदि को अवरुद्ध कर देता है, जबकि ये दोनों कंपाउंड अलग-अलग पानी में अति घुलनशील है और उर्वर सिंचाई में बहुतायत में प्रयोग किये जाते है। 

फर्टिगेशन हेतु उपयुक्त फसलें

            उर्वर सिंचाई के दायरे में सामान्यतौर पर कतार बोनी वाली सभी फसलों में लाया जा सकता है परन्तु प्रारंभिक लागत अधिक होने के कारण इसका प्रयोग  अधिक आय देने वाली या नकदी फसलों तक ही सीमित है जैसे-
फसलें: गन्ना, आलू,कपास, चाय आदि। 
सब्जियां :टमाटर, मिर्च,गोभी, ब्रोकली, शिमला मिर्च, भिन्डी, बेल वाली सब्जियां-लौकी, तोरई, कुंदरू, करेला, खीरा आदि। 
फल : आम, अनार, अनानास,संतरा, पपीता, संतरा,किन्नो,केला,अंगूर,स्ट्रॉबेरी आदि। 
फूल:गुलाब,कारनेशन,आर्किड,जरबेरा, ग्लोडीओलस, लिलियम आदि। 

फर्टिगेशन तकनीक से लाभ

§          फर्टिगेशन जल एवं पोषक तत्वों के नियमित प्रवाह को सुनिश्चित करता है जिससे पौधों की विकास  दर तथा फसलोत्पाद की गुणवत्ता में वृद्धि होती है।
v  इस प्रक्रिया द्वारा पानी और पोषक तत्वों  को फसल की मांग के अनुसार उचित समय पर दे सकते है। इस प्रकार फर्टिगेशन जल एवं उर्वरक के अनावश्यक व्यय को नियंत्रित करने में सहायक है। 
v  फर्टिगेशन पोषक तत्वों की उपलब्धता और पौधों की जड़ों के द्वारा उपयोग बढ़ा देता है। 
v  फर्टिगेशन उर्वरक देने की विश्वस्तरीय और सुरक्षित विधि है। फर्टिगेशन से जल और उर्वरक पौधों के मध्य न पहुंचकर सीधे उनकी जड़ों तक पहुंचते हैं इसलिए खरपतवार कम संख्या में उगते हैं।
v  फर्टिगेशन के माध्यम से अत्यधिक जल और रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से होने वाले पर्यावरणीय दुष्प्रभाव को नियंत्रित करने में सहायता होती है
v  परंपरागत उर्वरक उपयोग विधि की अपेक्षा फर्टिगेशन सरल और अधिक सुविधाजनक है जिससे समय और श्रम दोनों की बचत होती है।
v  इस प्रक्रिया में उर्वरक कम मात्रा में परन्तु कई बार में सिंचाई जल के साथ देने से पोषक तत्वों एवं पानी की नियमित बनी रहती है, जिससे पौधों की वृद्धि दर तथा गुणवत्ता में इजाफा होता है। 
v  ड्रिप द्वारा फर्टिगेशन से बंजर (रेतीली या चट्टानी मिट्टी) में जहां जल एवं पोषक तत्वों को पौधे के मूल क्षेत्र के वातावरण में नियन्त्रित करना कठिन होता वहां भी फसल ली जा सकती है।
v  सिंचाई के साथ पौध वृद्धि कारकों (ग्रोथ हर्मोंन),खरपतवारनाशको, कीटनाशको और फफुन्द्नाश्कों का प्रयोग प्रभावी ढंग से किया जा सकता है। 
फर्टिगेशन पर देश विदेश में किये गए अनुसंधानों से ज्ञात होता है कि इस प्रणाली को अपनाने से प्रचलित प्रणाली की अपेक्षा जल एवं उर्वरक की काफी बचत होती है।  इस विधि में उर्वरक उपयोग दक्षता अधिक होने के कारण 20-40 % कम उर्वरक प्रयोग करके भी इष्टतम पैदावार और उत्पाद की उच्च गुणवत्ता प्राप्त की जा सकती है। 

फर्टिगेशन के प्रसार में बाधाएं

इस नवोदित तकनीकी के विस्तार में सबसे बड़ी बाधा इसकी प्रारंभिक लागत का अधिक होना है, जो भारत के सीमान्त और लघु किसानों क्रय क्षमता से बाहर है।  इसके अतिरिक्त कुछ तकनीकी बाधाओं की वजह से भी इस प्रणाली का विकास धीमी गति से हो रहा है। 
v उर्वरक सिंचाई के तकनीकी पहलुओं तथा सुचारू संचालन के विषय में किसानो को जानकारियों का आभाव जैसे उर्वरक की किस्म, मात्रा, प्रयोग का समय एवं सांद्रता आदि के बारे में भारतीय किसान अन्विज्ञ है, जिसके कारण कृषको को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। 
v फर्टिगेशन में पूर्णरूपेण जल में विलेय उर्वरकों का प्रयोग ही संभव है।  यदि रासायनिक उर्वरक पूरी तरह जल में घुलनशील नहीं है तो उनके प्रयोग से प्रणाली के ड्रिपर एवं स्प्रिंकलर के छेदों के अवरुद्ध होने का खतरा बना रहता है। 
v जल में पूर्ण विलेय  उर्वरकों की बाजार में उपलब्धता कम है।  इनकी कीमत अधिक होने के कारण इनका प्रयोग अधिक आमदनी देने वाली फसलों तक ही सीमित है।       

सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली अब सरकार के मिशन मोड़ पर  

भारत सरकार ने वर्ष 2005 में उपलब्ध पानी के स्त्रोतों का उपयोग सूक्ष्म सिंचाई में करने हेतु सूक्ष्म सिंचाई योजना की शुरुआत की जिससे पांच वर्षो में देशभर में 26 लाख हेक्टेयर खेती भूमि को सूक्ष्म सिंचाई से आच्छादित हो गई।  वर्ष 2010 से भारत सरकार ने इस योजना में परिवर्तन करते हुए राष्ट्रिय सूक्ष्म सिंचाई मिशन के रूप में लागू किया है।  यह मिशन सिंचाई जल की उपयोगिता, दक्षता एवं उत्पादों की गुणवत्ता में वृद्धि के लिए कारगर  सिद्ध होगा।  भारत सरकार द्वारा प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना लागू की गई है जिसके उपघटक 'पर ड्रॉप मोर क्रॉप' माइक्रोइरीगेशन कार्यक्रम के अन्तर्गत ड्रिप एवं स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रभावी ढंग से विभिन्न फसलों में अपनाने हेतु प्रोत्साहित किया जा रहा है। राष्ट्रिय सूक्ष्म सिंचाई मिशन में लघु एवं सीमान्त किसानो को 50% केन्द्रांश और 40% राज्यांश कुल 90% अनुदान ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई पद्धति अपनाने पर दिया जा रहा है। देश में उपलब्ध जल संसाधनों के कुशल उपयोग और उर्वर क्षमता बढ़ाने के लिए सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली के साथ उर्वरीकरण से भारत के किसान प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन लेकर ही अपनी आमदनी को दो गुना तक बढ़ा सकते है।

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बुधवार, 6 जून 2018

बेहतर फसलोत्पादन हेतु जल सरंक्षण एवं सिंचाई की नवोदित पद्धतियाँ


डॉ गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (ससिविज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

            भारत की अधिकांश आबादी की जीविका-आजीविका का मुख्य आधार कृषि है जो शुरू से ही मानसून की वर्षा पर निर्भर रही है।  वर्षाकाल के बाद रबी फसलों की सिंचाई के लिए देश के सभी भागों में वर्षा जल संग्रहण की विविध प्रकार की परम्पराएँ प्राचीन काल से प्रचलन में रही है।  भारत के अनेक राज्यों में वर्षा जल सरंक्षण हेतु तालाब, पोखर, डबरियों की समृद्ध परम्परा रही है।  प्राचीनकाल से ही इन तालाबो का इस्तेमाल  फसलों की सिंचाई, मछली पालन, पशुओं के लिए पेयजल आदि कार्यो में किया जा रहा है।  वर्तमान में आबादी के बढ़ते दबाव के कारण तालाबों पर भी अवैध कब्जे होते जा रहे है।  इनके रख रखाव की कमी के कारण अधिकांश तालाब कचरे/खरपतवारों से अटे पड़े है जिससे उनकी जल संघ्रहण क्षमता कम हो गई है और उनमें संग्रहित जल की गुणवत्ता भी खराब हो चुकी है।  कुदरत ने हमें सदानीरा नदियाँ और झरनों के असंख्य स्त्रोत दिए है, साथ ही इनके प्रबंधन की परंपरागत तकनीकें और ज्ञान-विज्ञान भी हमारे पास है, लेकिन प्रकृति प्रदत्त जल स्त्रोतों का हमने अत्याधिक और असंतुलित दोहन किया है।  दरअसल  भूजल सदियों से भारत की जीवन रेखा रही है और आने वाले समय में भी रहेगी।  शहर हो या गाँव, कृषि हो या फिर उद्योग सभी की जरूरतें मुख्यतः भू-जल से ही पूरी हो रही है।  दुनिया में भूजल का सबसे ज्यादा दोहन भारत में हो रहा है।  देश के अधिकांश स्थानों पर भूजल का असंतुलित तरीके से अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है जिससे  भू-जल स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है और अनेक क्षेत्रों में भूजल स्त्रोत समाप्त होते जा रहे है जो आने वाले समय में भयंकर जल संकट की स्थिति आने का संकेत दे रहे है।  सेन्ट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के आंकलन के अनुसार वर्ष 2007 से 2017 के दरम्यान देश में 61% भूमि गत जल स्तर में गिरावट दर्ज की गई थी. वर्षा जल ही भूजल का मुख्य स्त्रोत है. हमारी नदियाँ, आद्र क्षेत्र, स्थानीय जल स्त्रोत जैसे तालाब, कुएं, वन क्षेत्र आदि भूजल का पुनर्भरण (रिचार्ज) का कार्य करते है।  आज हमारी नदियाँ, तालाब आदि गाद से भरी पड़ी है जिससे उनकी  जल संग्रहण क्षमता कम हो गई है।  हमें नदियों और तालाबों में जमीं गाद (बालू,मिटटी/कचड़ा) निकालकर साफ़ सफाई की व्यवस्था करें ताकि उनमे वर्षा जल की अधिक मात्रा में संग्रहित हो सके. देश के अधिकांश राज्यों में भूजल पुनर्भरण (रिचार्ज) से अधिक जल खर्च हो रहा है, मसलन राजस्थान और दिल्ली में 137%, उत्तर प्रदेश में 74%, गुजरात में 67%,मध्य प्रदेश में 57% और छत्तीसगढ़ में 35% जल रिचार्ज से अधिक खर्च हो रहा है। 

                          कृषि क्षेत्र के लिए आवश्यक है जल सरंक्षण 

          भारत में लगभग 80 % जल कृषि में सिंचाई हेतु प्रयोग किया जाता है परन्तु जल की उपलब्धता में लगातार कमीं  के कारण कृषि क्षेत्र के लिए जल की उपलब्धतता पर दबाव अधिक बढ़ रहा है, और यह सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि, वर्ष 2025  तक कुल शुद्ध जल का केवल 63 % भाग ही कृषि उपयोग के लिए उपलब्ध हो पायेगा।  भारत में जहाँ 1951  में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 5177  घन मीटर थी वहीँ 2011  में यह घटकर 1545  घन मीटर पहुँच गई है।  इस प्रकार बीते 60  वर्षों में जल उपलब्धता में लगभग 70  प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई।  पानी की मांग उद्योग एवं घरेलू उपयोग में बढ़ने के कारण, सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता पर दबाव बढ़ता जा रहा है।  भारत में उपयोग किये जाने वाला भूमिगत जल स्त्रोत सीमित है।  भूमिगत जल के अंधाधुंध दोहन से जल स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। वर्ष प्रति वर्ष घटती बारिश और गिरते भूजल की वजह से आसन्न जल संकट को ध्यान में रखते हुए भारत के प्रधान मंत्री ने प्रति बूँद अधिक फसल (मोर क्रॉप पर ड्राप) का नारा दिया है साथ ही सरकार ने प्रधान मंत्री सिचाई परियोजना प्रारम्भ की है।  अधिकांश किसानों द्वारा अपनाई जा रही  पारंपरिक सिंचाई प्रणाली की जल उपयोग दक्षता बहुत ही कम (35-40 %) है।  प्रति इकाई जल से अधिकतम फसल उत्पादन  हेतु विशेषकर  नकदी फसलों/सब्जियों/फलों के लिए ड्रिप सिंचाई, फव्वारा सिंचाई, पलवार का प्रयोग, उठी क्यारियों में कूंड  द्वारा सिंचाई, सीमित जल नियंत्रित सिंचाई आदि तकनीके बहुत ही कारगर सिद्ध हो रही है जिनके प्रयोग से नकदी फसलों/सब्जियों से सर्वाधिक पैदावार के साथ साथ अधिकतम जल उपयोग क्षमता भी  हासिल की जा सकती है।
जल सरंक्षण और सिंचाई की उन्नत तकनीके
1. ड्रिप या टपक सिंचाई
           भविष्य में जल कमी की भयावता को देखते हुए कृषि क्षेत्र में प्रकृति प्रदत्त जल के सही/कुशल उपयोग की आवश्यकता है।  कृषि में सिंचाई हेतु टपक सिंचाई जैसी विधि को अपनाकर हम जल को संरक्षित कर संपोषित विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। टपक सिंचाई, सिंचाई की वह विधि है जिसमें जल को मंद गति से बूँद-बूँद के रूप में फसलों के जड़ क्षेत्र में एक छोटी व्यास की प्लास्टिक पाइप से प्रदान किया जाता है। इस सिंचाई विधि में उर्वरकों को घोल के रूप में भी प्रदान किया जाता है।
 टपक सिंचाई या बूँद बूँद सिंचाई पानी की कमी वाले क्षेत्रों के लिए वरदान साबित हो रही है. भारत में लगभग 20 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में सब्जियों एवं फलों की सिंचाई ड्रिप के माध्यम से होती है, जबकि पूरे देश में इसकी क्षमता 60 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में सब्जी फसलों की सिंचाई करने की है।  सिंचाई की इस नवोदित  पद्धति में पानी की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है एवं पानी के अधिकतम उपयोग क्षमता को इस विधि से प्राप्त किया जा सकता है।  इसमें बूँद-बूँद करके पानी प्रत्येक पौधे की जड़ों के पास ड्रिपर के माध्यम से दिया जाता है।  इस विधि में पानी कम अंतराल पर लेकिन कम मात्रा में दिया जाता है। मृदा जल नमीं हमेशा लगभग क्षेत्र क्षमता पर बरक़रार रखा जाता है जो कि सब्जी उत्पादन के लिए सबसे उपयुक्त नमी स्तर होता है। 
          टपक सिंचाई से लगभग 25 -70  प्रतिशत पानी बचाया जा सकता है जो मृदा, जलवायु, फसल आदि पर निर्भर करता है।  ड्रिप सिंचाई पद्धति से 85-90  % तक जल उपयोग दक्षता हासिल की जा सकती है जबकि पारम्परिक सिंचाई प्रणाली में जल उपयोग दक्षता लगभग 50 ¬प्रतिशत तक ही होती है। भारतीय सब्जी अनुसन्धान संस्थान, वाराणसी में किये गए प्रयोगों में टमाटर, खीरा, भिन्डी एवं ब्रोकली में ड्रिप सिंचाई के प्रयोग से क्रमशः 55 -62  %, 34  %,31 % एवं 38 % तक जल की बचत दर्ज की गई है।  टपक सिंचाई के साथ प्लास्टिक पलवार का प्रयोग करने से 15 -35  % तक अतिरिक्त जल की बचत के साथ जल प्रयोग की दक्षता में काफी सुधर हुआ।  सिंचाई की यह विधि शुष्क  एवं अर्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिए अत्यन्त ही उपयुक्त होती है जहाँ इसका उपयोग नकदी फसलें/सब्जियों/फलों की सिंचाई हेतु किया जाता है।
2.छिडकाव या फौव्वारे द्वारा सिंचाई
          सिंचाई की फव्वारा या बौछारी विधि में पानी फव्वारे  के रूप में वर्षा जल की तरह भूमि पर गिराया जाता है।  पानी सूक्ष्म छिद्र या नोज़ल के माध्यम से उपयुक्त दबाव देकर फौव्वारे के रूप में गिराया जाता है।  इस विधि का प्रयोग मुख्यतः सभी फसलों एवं सभी प्रकार की मृदा के लिए किया जा सकता है परन्तु यह विधि बलुई, बलुई दोमट के साथ साथ  असमान  भौगोलिक क्षेत्र के लिए  भी लाभदायक पाई गई  है।  भारी मिट्टियाँ  जिनकी जल  अन्तःशरण दर 4 मिमी/घंटा से कम हो, के लिए यह विधि लाभकारी नहीं होती है।  यह विधि उथली जड़वाली एवं जल के प्रति सहिष्णु फसलें जैसे मटर, पालक एवं सब्जियों की पौधशाला के लिए बहुत लाभकारी होती है. छिडकाव विधि से सिंचाई करके शरद ऋतु में आलू, मटर आदि को पाले के प्रभाव से बचाया जा सकता है।  छिडकाव द्वारा सिंचाई में घुलनशील उर्वरकों, कीटनाशकों, फफूंद नाशको एवं खरपतवारनाशी आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है।  इस विधि का प्रयोग हवा चलने की दशा में सीमित हो जाता है, क्योंकि इससे पानी का एक समान वितरण सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। 
3. ऊंची उठी हुई क्यारियों में फसलों/सब्जियों को लगाना
         ऊंची उठी क्यारी विधि में सब्जियों/फसलों को ऊंची उठी हुई चौड़ी क्यारियों (75 -100 से.मी.) में दोनों किनारों पर लगाया जाता है और पानी क्यारी के दोनों तरफ कूंड के माध्यम से दिया जाता है. चूँकि सिंचाई सिर्फ कूंड के द्वारा की जाती है इसलिए लगभग 50  % क्षेत्र  हमेशा सूखा बना रहता है. इस विधि से सब्जियों में सिंचाई करने से निम्न लाभ होते है:
v  इस विधि से लगभग 25-35  % जल वचत की जा सकती है। 
v  जड़ क्षेत्र में उचित वायु एवं जल का अनुपात बना रहता है, जो की जड़ों के विकास के लिए उपयुक्त होता है। 
v  अंतः सस्य क्रियाओं एवं दवाओं आदि के प्रयोग में सुगमता होती है। 
v  खेत में जलभराव की समस्या नहीं होती है। 
v  फसल पर कीड़ो एवं रोगों का प्रकोप कम होता है। 
v  समतल क्यारियों की अपेक्षा 15-25 % अधिक उत्पादन एवं उत्तम फसल गुणवत्ता। 
v  यह विधि कतारों में बोई जाने वाली फसलें जैसे सब्जियों और अंतः फसली तथा मल्च आदि प्रयोग के लिए बहुत उपयुक्त होती है। 
v  क्यारियों में लगाई सब्जियों में यदि मल्च (पलवार) भी लगा दिया जय तो लगभग ५०% पानी की बचत के साथ साथ उत्पादन एवं गुणवत्ता में भी बढोत्तरी देखि गयी है। 
4.एकांतर सिंचाई पद्धति
एकांतर सिंचाई विधि को आशिंक जड़ क्षेत्र में सिंचाई विधि भी कहा जाता है जिसमे नियंत्रित तरीके से सिंचाई की जाती है।  इससे उपज में कमीं आये बिना सीमित  जल से सिंचाई  की जाती है।  इसमें सिंचाई दो प्रकार से की जा सकती है : (अ) स्थिर एकांतर कूंड सिंचाई एवं (ब) चक्रीय एकांतर कूंड सिंचाई।  भारतीय सब्जी अनुसन्धान संसथान में किये गए अनुसन्धान में ज्ञात हुआ है कि चक्रीय एकांतर कूंड सिंचाई से प्राप्त टमाटर की उपज कूंड द्वारा सिंचित टमाटर की उपज के समतुल्य पाई गई साथ ही इस तकनीक से 27 % तक जल की बचत हुई। इसमें काली प्लास्टिक के पलवार का प्रयोग करने जल प्रयोग की दक्षता अधिकतम (16.5  क्विंटल उपज प्रति मिमी जल) हुई एवं जल की वचत  54 % हुई, जबकि एकांतर कूंड सिंचाई मात्र से ही दोनों तरफ कूंड द्वारा सिंचाई की तुलना में लगभग ३९% पानी की बचत अंकित की गई। 
5. पलवार (मल्च) का इस्तेमाल
जल सरंक्षण की विभिन्न विधियों के अलावा पलवार (मल्च) का प्रयोग भी  नकदी फसलों और सब्जियों के लिए बहुत लाभप्रद है।  मृदा के ऊपरी सतह से वाष्पीकरण द्वारा होने वाली नमीं का ह्रास रोकने तथा सतह अपवाह (रन-ऑफ़ वाटर) को कम करने में पलवार प्रयोग प्रभावकारी साबित हुआ है। इसके अलावा पलवार से मृदा में जल धारण क्षमता बढती है एवं मृदा नमीं अधिक समय तक सरंक्षित रहती है।  पलवार के इस्तेमाल से पौधों में पोषक तत्व ग्रहण करने की क्षमता बढती है. पलवार मृदा तापमान को नियंत्रित करता है जिससे जड़ों का विकास अच्छा होता है।  पलवार मृदा से जल वाष्पीकरण की दर को 15 -50  प्रतिशत तक कम कर देता है।  नकदी फसलो एवं सब्जियों की सफल खेती में कार्बनिक और प्लास्टिक मल्च का प्रयोग प्रभावशाली पाया गया है. गीष्मकालीन फसलों का उत्पादन बढ़ाने एवं जल की बचत करने के लिहाज से कार्बनिक मल्च जैसे फसलों के अवशेष (ठूठ, भूषा आदि), सूखे खरपतवार आदि का प्रयोग लाभकारी रहता है। इसी प्रकार टमाटर, फूलगोभी, पत्तागोभी, मिर्च तथा कद्दुवर्गीय सब्जियों में प्लास्टिक मल्च विशेषकर कलि पॉलिथीन का प्रयोग फायदेमंद रहता है।  इन पल्वारों के प्रयोग से सब्जियों में 30 -50 % तक पानी की बचत की जा सकती है।  पॉलिथीन मल्च का प्रयोग ड्रिप सिंचाई पद्धति के साथ ज्यादा प्रभावकारी एवं  लाभकारी पाया गया है। सब्जी उत्पादन हेतु अधिकांशतः काली एवं पारदर्शी प्लास्टिक शीट का प्रयोग किया जाता है।  प्लास्टिक मल्च की मोटाई 0.012  से 0.031  मिमी या 25  से 40  माइक्रान तक होती है। टमाटर पर किये गये प्रयोग के अनुसार काली एवं पारदर्शी प्लास्टिक मल्च से लगभग 11 -15  % तक जल की बचत हुई परन्तु जब काली मल्च का इस्तेमाल ऊंची उठी क्यारियों एवं ड्रिप सिंचाई हेतु किया गया तब परम्परागत सिंचाई की तुलना में 50 -66  % तक जल की बचत दर्ज की गई।  कार्बनिक पलवार जैसे पौधों के अवशेष, सूखी घास/खरपतवार, धान की पुआल आदि ग्रीष्मकालीन फसलों के लिए काफी प्रभावकारी साबित हुई है। बसंत-ग्रीष्म ऋतु में भिन्डी में मटर के पुआल का पलवार 10  टन प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से लगभग 30 % तक जल की बचत हुई. इसी प्रकार टमाटर में धान के पुआल का पलवार अकेले (7.5 टन/हे) या कूंड सिंचित उठी क्यारियों में प्रयोग करने से समतल क्यारियों में पौध रोपण की तुलना में क्रमशः 15  एवं 49 % तक जल की बचत हुई। 
इस प्रकार उपरोक्त बातों/तथ्यों से हम इस नतीजे पर पहुंचते है कि जलवायु परिवर्तन और धरती पर कम हो रही हरियाली के कारण मानसूनी वर्षा में निरंतर कमीं परिलक्षित हो रही है। जल की सबसे अधिक खपत करने वाले कृषि क्षेत्र के समक्ष भारी संकट उत्पन्न हो सकता है। भारत की 60 % से अधिक खेती किसानी वर्षा की मेहरवानी पर टिकी है। ऐसे में हमें प्रधानमंत्री के 'प्रति बूँद अधिक फसल'  की अवधारणा पर खेती करने हेतु आवश्यक उपाय करने होंगे। उपलब्ध वर्षा जल के अधिकतम सरंक्षण हेतु पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ जमीन पर कार्य करना होगा। उपलब्ध जल स्त्रोतों के संतुलित दोहन और पानी की बर्वादी रोकने के लिए सख्त कानूनों को अमलीजामा पहनाना होगा।  कृषि क्षेत्र में भी बाढ़ विधि से सिंचाई विधि पर अंकुश लगाते हुए सिंचाई की नवोदित टपक और फव्वारा सिंचाई पद्धतियों के अंतर्गत क्षेत्र विस्तार करना होगा तभी कृषि क्षेत्र से बढ़ती आबादी के लिए पर्याप्त अन्नोत्पादन की उम्मीद की जा सकती है। 
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सोमवार, 4 जून 2018

सतत लाभकारी फसलोत्पादन हेतु उत्तम कृषि पद्धतियाँ अपनाएं


डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर, इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

      बदलते कृषि परिवेश में, बढ़ते तापमान, पर्यावरण प्रदूषण, मृदा क्षरण तथा फसल पर कीट, बीमारियों और खरपतवारों के प्रकोप को कम करने के लिए उत्तम एवं सुधरी कृषि क्रियाओं को अंगीकार करना नितांत आवश्यक है. फसलोत्पादन में  इसके प्रत्येक घटक जैसे भूमि का चयन,खेत की तैयारी, फसल प्रबंधन,खरपतवार नियंत्रण, पौध सरंक्षण, फसल कटाई आदि का महत्वपूर्ण योगदान है।  उत्तम कृषि पद्धतियाँ कृषि उत्पादन तथा उत्पादन के पश्चात की प्रक्रियाओं के सिद्धांतों का एक संग्रह है, जिनके इस्तेमाल से हम सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक स्थिरता को ध्यान में रखते हुए सुरक्षित एवं स्वच्छ कृषि उत्पादन प्राप्त कर सकते है। 

उत्तम कृषि प्रणाली के प्रमुख उद्देश्य

v  सतत कृषि उत्पादन और प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाना। 
v  प्राकृतिक संसाधनों का समुचित और संतुलित उपयोग करना। 
v  खाद्ध्य श्रंखला के अंतर्गत उत्पाद की गुणवत्ता एवं सुरक्षा का लाभ उठाना। 
v  खाद्ध्य आपूर्ति श्रंखला में बदलाव करते हुए आधुनिक विपणन सुविधाओं का लाभ उठाना। 
v  कृषकों एवं कृषि आदान/उत्पाद निर्यातकों के लिए नई विपणन सुविधाओं का विकास करना.
v  सामजिक एवं आर्थिक मांगों की पूर्ती करना। 
चयनित कृषि क्रियाओं हेतु उत्तम कृषि पद्धतियाँ
1.मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन
मृदा के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में सुधार हेतु कार्बनिक तथा जैविक गतिविधियाँ कृषि उत्पादन को सतत बनाये रखने के लिए महत्वपूर्ण है. ये सभी कारक एक साथ मिलकर मृदा की उर्वरता और उत्पादकता को निर्धारित करते है। 
v  मृदा की जैविक गतिविधियों को बढाकर पौधों को उपलब्ध नमी और पोषक तत्व उपयोग में सुधार करना। 
v  मृदा क्षरण और पोषक तत्वों तथा हानिकारक रसायनों के निक्षालन से होने वाले नुकसान को कम करना। 
v  मृदा की भौतिक सरंचना में सुधार हेतु जेविक खेती के मध्यम से मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा  और जल धारण क्षमता बढ़ाना। 
v  न्यूनतम जुताई क्रियाओं को अपनाते हुए मृदा में नमीं सरंक्षण को बढ़ावा देना
v  मृदा एवं वायु द्वारा हो रहे मृदा क्षरण को कम करना। 
v  कार्बनिक और अकार्बनिक उर्वरकों तथा अन्य कृषि रासायनिकों का उचित मात्रा, सही समय तथा प्रभावी विधि से इस्तेमाल करना जिससे मृदा स्वास्थ्य, पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य को किसी भी प्रकार से नुकसान न हो। 
2. कुशल जल प्रबंधन
मात्रात्मक और गुणात्मक दृष्टि से जल संसाधनों के बेहतर प्रबंधन में कृषि क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. कुशल सिंचाई पद्दति, सही जल निकासी तथा लवणता द्वारा होने वाली हानि को कम करना आवश्यक है। 
v  सतही एवं मृदा जल के उचित प्रबंधन हेतु मृदा सरंक्षण की समस्त क्रियाओं को अपनाना। 
v  फसलवार उचित सिंचाई पद्धतियों का चयन और समयबद्ध फसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई करना। 
v  खेत में अनावश्यक जल की निकासी का प्रबंधन करना। 
v  मृदा में जैविक पदार्थो की उचित मात्रा बनाएं रखते हुए जल उपयोग दक्षता को बढ़ाना
v  पानी की बचत अथवा सीमित जल का उचित प्रबंधन हेतु सिंचाई की उचित विधियों जैसे बूँद-बूँद सिंचाई, फव्वारा सिंचाई को अपनाना।
v  पशुओं के लिए पर्याप्त चारा-पानी की व्यवस्था करना।  
3.उत्कृष्ट फसल उत्पादन प्रबंधन
उत्कृष्ट फसल उत्पादन हेतु वार्षिक और बारहमासी फसलों एवं उन्नत किस्मों का चयन स्थानीय उपभोक्ता तथा बाजार की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। 
v  उपयुक्त फसल और फसल की उन्नत किस्म का चुनाव क्षेत्र विशेष की जलवायु एवं स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार करना चाहिए। 
v  ग्रीष्मकाल में खेतों की गहरी जुताई करें जिससे खरपतवार, कीट-रोगों का प्रकोप कम हो.
v  समय पर उन्नत/प्रमाणित किस्मों के बीज की बुआई संपन्न करें। 
v  क्षेत्र और जलवायु के अनुसार अनुसंशित अगेती/पक्षेती फसलें/किस्मों का चयन करें जिससे विषम जलवायुविक परिस्थितियों में भी उत्पादन और आमदनी बढ़ सकें। 
v  बीज जनित रोगों की रोकथाम हेतु उचित फफूंदनाशक से बीजोपचार करें। 
v  फसल की बुआई में उचित बीज दर का प्रयोग करें. बुआई कतार विधि से करें. कतार से कतार तथा पौधे से पौधे के बीच समुचित दूरी रखे. प्रति इकाई क्षेत्र में इष्टतम पौध संख्या स्थापित करें। 
v  खेत की जुताई और बुआई ढलान के विपरीत करें जिससे वर्षा जल का अधिकतम सरंक्षण हो सकें.
v  फसल चक्र अपनाये जिससे मृदा की उर्वरता बरकार रहने के साथ साथ कीट-रोगों के प्रकोप में कमी आएगी . फसल चक्र में दलहनी फसलों को अवश्य सम्मलित करें.
v  दलहनी/तिलहनी फसलों में जिप्सम का प्रयोग अवश्य करें.
v  अन्तर्वर्ती फसल पद्धति को अपनावे जिससे प्रति इकाई क्षेत्र से अधिकतम उत्पादन लिया जा सके. यह पद्धति में वर्षाधीन क्षेत्रो के लिए बहुत लाभकारी है.
v  मृदा परीक्षण के आधार पर फसल की आवश्यकतानुसार संतुलित मात्रा में पोषक तत्वों का इस्तेमाल करें
v  फसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर उचित विधि से सिंचाई करें तथा वर्षाकालीन फसलों में जल निकास का प्रावधान अवश्य करें.
v  जैविक खेती अपनाएं. जरुरत पड़ने पर फसल में समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन करें.
v  खरपतवार प्रकोप से फसल की सुरक्षा हेतु एकीकृत खरपतवार प्रबंधन को अपनाया जाये.
v  आवश्यकतानुसार फसल सरंक्षण उपाय अपनाना चाहिए. कीट-रोग नियंत्रण हेतु सस्य वैज्ञानिक/जैविक विधियों का इस्तेमाल करना चाहिए.
v  फसल की कटाई सही समय पर संपन्न करें.
4.उत्तम पौध सरंक्षण पद्धतियाँ
खेती में फसलों की उत्पादकता बढाने के साथ साथ उत्पाद की गुणवत्ता बनाये रखने के लिए कीट रोगों से फसल की सुरक्षा करना अति आवश्यक है. इसके लिए समन्वित कीट-रोग प्रबंधन के सिद्धांतो को ध्यान में रखते हुए कीट-रोग प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करना, समय पर फसलों की बुआई, सही फसल चक्र अपनाना,ट्रेप फसल उगाना तथा रासायनिक विधि के माध्यम से कीट-रोग-खरपतवार नियंत्रित करना आवश्यक होता है.
v  कीट-रोग प्रतिरोधी/सहनशील किस्मों का चयन कर बुआई करना तथा फसल चक्र और कर्षण क्रियाओं द्वारा कीट-रोगों से फसल का बचाव किया जा सकता है.
v  जैविक विधियों द्वारा भी कीट-रोगों पर प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है.
v  फसल सुरक्षा की दृष्टि से हानिकारक और लाभदायक कीट-पतंगों के बीच संतुलित बनाना आवश्यक रहता है.
v  आवश्यकता होने पर न्यायसंगत तथा सुरक्षित कीटनाशकों/फफून्द्नाश्कों का फसल पर छिडकाव किया जा सकता है. परन्तु कीटों की संख्या आर्थिक क्षति स्तर से अधिक होने पर ही कीटनाशकों का इस्तेमाल करना चाहिए.
v  किसी भी कीटनाशक का उपयोग दुबारा न करें बल्कि फसल चक्र की भाँती कीटनाशी चक्र का उपयोग करना चाहिए। 
v  कीटनाशक/रोगनाशक के छिडकाव/भुरकाव हेतु सही उपकरण और नोजल का उपयोग करें। 
v  कीट/रोग ग्रसित फसल अवशेष जैसे धान/गेंहू/गन्ना के ठूठ, टमाटर, बैगन, गोभी आदि के बेकार फल, टहनियां, डंठल आदि को इकठ्ठा कर कम्पोस्ट खाद बना लेवे या नष्ट करे देवें। 
v  परभच्ची चिड़ियाँ, मैना. गौरईया,उल्लू, मोर आदि के बैठने के लिए खेत में लकड़ी के स्टेंड बनाये तथा इन पक्षियों को खेत में आकर्षित करने हेतु एक दो दिन चुग्गा (दाना) डालें। 
v  कृषि रसायनों का भण्डारण/उपयोग निर्धारित मापदंडो और निर्देशों के अनुसार ही करें। 
v  मित्र कीटों का सरंक्षण करें, प्रकाश प्रपंच एवं फेरोमेन ट्रेप का उपयोग करें। 
v  समन्वित कीट प्रबंधन, समन्वित रोग प्रबंधन और समन्वित खरपतवार प्रबंधन को बढ़ावा देवें।
5.फसल कटाई एवं भण्डारण
फसल की कटाई, उत्पाद की गुणवत्ता और भण्डारण हेतु स्वीकार्य तकनीक के क्रियान्वयन पर निर्भर करती है। 
v  सब्जी/फल फसलों में उत्पाद की कटाई कीटनाशी/रोगनाशी रसायनों के छिडकाव के बाद प्रतीक्षा अवधी समाप्त होने के बाद ही करना चाहिए। 
v  फसल की कटाई उचित समय पर उन्नत यंत्रों की सहायता से करें। 
v  अनाज को अच्छी प्रकार से साफ़ कर, सुखाकर (८-१० % नमीं स्तर) भंडारित करें.
v  फसल उत्पाद का भण्डारण वैज्ञानिक तरीके से उचित स्थान,तापमान,नमीं को ध्यान में रखकर करना चाहिए। 
इस प्रकार कृषक भाई उत्तम कृषि पद्धतियाँ अपनाते है तो उन्हें फसलों से सतत गुणवत्तायुक्त उत्पादन प्राप्त होता रहेगा. इसके अलावा इन सस्य क्रियाओ के अपनाने से पर्यावरण सरंक्षण के साथ साथ किसानों को सीमित लागत में अधिकतम उत्पादन और आमदनी प्राप्त हो सकती है। 

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