Powered By Blogger

बुधवार, 6 जून 2018

बेहतर फसलोत्पादन हेतु जल सरंक्षण एवं सिंचाई की नवोदित पद्धतियाँ


डॉ गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (ससिविज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

            भारत की अधिकांश आबादी की जीविका-आजीविका का मुख्य आधार कृषि है जो शुरू से ही मानसून की वर्षा पर निर्भर रही है।  वर्षाकाल के बाद रबी फसलों की सिंचाई के लिए देश के सभी भागों में वर्षा जल संग्रहण की विविध प्रकार की परम्पराएँ प्राचीन काल से प्रचलन में रही है।  भारत के अनेक राज्यों में वर्षा जल सरंक्षण हेतु तालाब, पोखर, डबरियों की समृद्ध परम्परा रही है।  प्राचीनकाल से ही इन तालाबो का इस्तेमाल  फसलों की सिंचाई, मछली पालन, पशुओं के लिए पेयजल आदि कार्यो में किया जा रहा है।  वर्तमान में आबादी के बढ़ते दबाव के कारण तालाबों पर भी अवैध कब्जे होते जा रहे है।  इनके रख रखाव की कमी के कारण अधिकांश तालाब कचरे/खरपतवारों से अटे पड़े है जिससे उनकी जल संघ्रहण क्षमता कम हो गई है और उनमें संग्रहित जल की गुणवत्ता भी खराब हो चुकी है।  कुदरत ने हमें सदानीरा नदियाँ और झरनों के असंख्य स्त्रोत दिए है, साथ ही इनके प्रबंधन की परंपरागत तकनीकें और ज्ञान-विज्ञान भी हमारे पास है, लेकिन प्रकृति प्रदत्त जल स्त्रोतों का हमने अत्याधिक और असंतुलित दोहन किया है।  दरअसल  भूजल सदियों से भारत की जीवन रेखा रही है और आने वाले समय में भी रहेगी।  शहर हो या गाँव, कृषि हो या फिर उद्योग सभी की जरूरतें मुख्यतः भू-जल से ही पूरी हो रही है।  दुनिया में भूजल का सबसे ज्यादा दोहन भारत में हो रहा है।  देश के अधिकांश स्थानों पर भूजल का असंतुलित तरीके से अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है जिससे  भू-जल स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है और अनेक क्षेत्रों में भूजल स्त्रोत समाप्त होते जा रहे है जो आने वाले समय में भयंकर जल संकट की स्थिति आने का संकेत दे रहे है।  सेन्ट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के आंकलन के अनुसार वर्ष 2007 से 2017 के दरम्यान देश में 61% भूमि गत जल स्तर में गिरावट दर्ज की गई थी. वर्षा जल ही भूजल का मुख्य स्त्रोत है. हमारी नदियाँ, आद्र क्षेत्र, स्थानीय जल स्त्रोत जैसे तालाब, कुएं, वन क्षेत्र आदि भूजल का पुनर्भरण (रिचार्ज) का कार्य करते है।  आज हमारी नदियाँ, तालाब आदि गाद से भरी पड़ी है जिससे उनकी  जल संग्रहण क्षमता कम हो गई है।  हमें नदियों और तालाबों में जमीं गाद (बालू,मिटटी/कचड़ा) निकालकर साफ़ सफाई की व्यवस्था करें ताकि उनमे वर्षा जल की अधिक मात्रा में संग्रहित हो सके. देश के अधिकांश राज्यों में भूजल पुनर्भरण (रिचार्ज) से अधिक जल खर्च हो रहा है, मसलन राजस्थान और दिल्ली में 137%, उत्तर प्रदेश में 74%, गुजरात में 67%,मध्य प्रदेश में 57% और छत्तीसगढ़ में 35% जल रिचार्ज से अधिक खर्च हो रहा है। 

                          कृषि क्षेत्र के लिए आवश्यक है जल सरंक्षण 

          भारत में लगभग 80 % जल कृषि में सिंचाई हेतु प्रयोग किया जाता है परन्तु जल की उपलब्धता में लगातार कमीं  के कारण कृषि क्षेत्र के लिए जल की उपलब्धतता पर दबाव अधिक बढ़ रहा है, और यह सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि, वर्ष 2025  तक कुल शुद्ध जल का केवल 63 % भाग ही कृषि उपयोग के लिए उपलब्ध हो पायेगा।  भारत में जहाँ 1951  में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 5177  घन मीटर थी वहीँ 2011  में यह घटकर 1545  घन मीटर पहुँच गई है।  इस प्रकार बीते 60  वर्षों में जल उपलब्धता में लगभग 70  प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई।  पानी की मांग उद्योग एवं घरेलू उपयोग में बढ़ने के कारण, सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता पर दबाव बढ़ता जा रहा है।  भारत में उपयोग किये जाने वाला भूमिगत जल स्त्रोत सीमित है।  भूमिगत जल के अंधाधुंध दोहन से जल स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। वर्ष प्रति वर्ष घटती बारिश और गिरते भूजल की वजह से आसन्न जल संकट को ध्यान में रखते हुए भारत के प्रधान मंत्री ने प्रति बूँद अधिक फसल (मोर क्रॉप पर ड्राप) का नारा दिया है साथ ही सरकार ने प्रधान मंत्री सिचाई परियोजना प्रारम्भ की है।  अधिकांश किसानों द्वारा अपनाई जा रही  पारंपरिक सिंचाई प्रणाली की जल उपयोग दक्षता बहुत ही कम (35-40 %) है।  प्रति इकाई जल से अधिकतम फसल उत्पादन  हेतु विशेषकर  नकदी फसलों/सब्जियों/फलों के लिए ड्रिप सिंचाई, फव्वारा सिंचाई, पलवार का प्रयोग, उठी क्यारियों में कूंड  द्वारा सिंचाई, सीमित जल नियंत्रित सिंचाई आदि तकनीके बहुत ही कारगर सिद्ध हो रही है जिनके प्रयोग से नकदी फसलों/सब्जियों से सर्वाधिक पैदावार के साथ साथ अधिकतम जल उपयोग क्षमता भी  हासिल की जा सकती है।
जल सरंक्षण और सिंचाई की उन्नत तकनीके
1. ड्रिप या टपक सिंचाई
           भविष्य में जल कमी की भयावता को देखते हुए कृषि क्षेत्र में प्रकृति प्रदत्त जल के सही/कुशल उपयोग की आवश्यकता है।  कृषि में सिंचाई हेतु टपक सिंचाई जैसी विधि को अपनाकर हम जल को संरक्षित कर संपोषित विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। टपक सिंचाई, सिंचाई की वह विधि है जिसमें जल को मंद गति से बूँद-बूँद के रूप में फसलों के जड़ क्षेत्र में एक छोटी व्यास की प्लास्टिक पाइप से प्रदान किया जाता है। इस सिंचाई विधि में उर्वरकों को घोल के रूप में भी प्रदान किया जाता है।
 टपक सिंचाई या बूँद बूँद सिंचाई पानी की कमी वाले क्षेत्रों के लिए वरदान साबित हो रही है. भारत में लगभग 20 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में सब्जियों एवं फलों की सिंचाई ड्रिप के माध्यम से होती है, जबकि पूरे देश में इसकी क्षमता 60 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में सब्जी फसलों की सिंचाई करने की है।  सिंचाई की इस नवोदित  पद्धति में पानी की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है एवं पानी के अधिकतम उपयोग क्षमता को इस विधि से प्राप्त किया जा सकता है।  इसमें बूँद-बूँद करके पानी प्रत्येक पौधे की जड़ों के पास ड्रिपर के माध्यम से दिया जाता है।  इस विधि में पानी कम अंतराल पर लेकिन कम मात्रा में दिया जाता है। मृदा जल नमीं हमेशा लगभग क्षेत्र क्षमता पर बरक़रार रखा जाता है जो कि सब्जी उत्पादन के लिए सबसे उपयुक्त नमी स्तर होता है। 
          टपक सिंचाई से लगभग 25 -70  प्रतिशत पानी बचाया जा सकता है जो मृदा, जलवायु, फसल आदि पर निर्भर करता है।  ड्रिप सिंचाई पद्धति से 85-90  % तक जल उपयोग दक्षता हासिल की जा सकती है जबकि पारम्परिक सिंचाई प्रणाली में जल उपयोग दक्षता लगभग 50 ¬प्रतिशत तक ही होती है। भारतीय सब्जी अनुसन्धान संस्थान, वाराणसी में किये गए प्रयोगों में टमाटर, खीरा, भिन्डी एवं ब्रोकली में ड्रिप सिंचाई के प्रयोग से क्रमशः 55 -62  %, 34  %,31 % एवं 38 % तक जल की बचत दर्ज की गई है।  टपक सिंचाई के साथ प्लास्टिक पलवार का प्रयोग करने से 15 -35  % तक अतिरिक्त जल की बचत के साथ जल प्रयोग की दक्षता में काफी सुधर हुआ।  सिंचाई की यह विधि शुष्क  एवं अर्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिए अत्यन्त ही उपयुक्त होती है जहाँ इसका उपयोग नकदी फसलें/सब्जियों/फलों की सिंचाई हेतु किया जाता है।
2.छिडकाव या फौव्वारे द्वारा सिंचाई
          सिंचाई की फव्वारा या बौछारी विधि में पानी फव्वारे  के रूप में वर्षा जल की तरह भूमि पर गिराया जाता है।  पानी सूक्ष्म छिद्र या नोज़ल के माध्यम से उपयुक्त दबाव देकर फौव्वारे के रूप में गिराया जाता है।  इस विधि का प्रयोग मुख्यतः सभी फसलों एवं सभी प्रकार की मृदा के लिए किया जा सकता है परन्तु यह विधि बलुई, बलुई दोमट के साथ साथ  असमान  भौगोलिक क्षेत्र के लिए  भी लाभदायक पाई गई  है।  भारी मिट्टियाँ  जिनकी जल  अन्तःशरण दर 4 मिमी/घंटा से कम हो, के लिए यह विधि लाभकारी नहीं होती है।  यह विधि उथली जड़वाली एवं जल के प्रति सहिष्णु फसलें जैसे मटर, पालक एवं सब्जियों की पौधशाला के लिए बहुत लाभकारी होती है. छिडकाव विधि से सिंचाई करके शरद ऋतु में आलू, मटर आदि को पाले के प्रभाव से बचाया जा सकता है।  छिडकाव द्वारा सिंचाई में घुलनशील उर्वरकों, कीटनाशकों, फफूंद नाशको एवं खरपतवारनाशी आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है।  इस विधि का प्रयोग हवा चलने की दशा में सीमित हो जाता है, क्योंकि इससे पानी का एक समान वितरण सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। 
3. ऊंची उठी हुई क्यारियों में फसलों/सब्जियों को लगाना
         ऊंची उठी क्यारी विधि में सब्जियों/फसलों को ऊंची उठी हुई चौड़ी क्यारियों (75 -100 से.मी.) में दोनों किनारों पर लगाया जाता है और पानी क्यारी के दोनों तरफ कूंड के माध्यम से दिया जाता है. चूँकि सिंचाई सिर्फ कूंड के द्वारा की जाती है इसलिए लगभग 50  % क्षेत्र  हमेशा सूखा बना रहता है. इस विधि से सब्जियों में सिंचाई करने से निम्न लाभ होते है:
v  इस विधि से लगभग 25-35  % जल वचत की जा सकती है। 
v  जड़ क्षेत्र में उचित वायु एवं जल का अनुपात बना रहता है, जो की जड़ों के विकास के लिए उपयुक्त होता है। 
v  अंतः सस्य क्रियाओं एवं दवाओं आदि के प्रयोग में सुगमता होती है। 
v  खेत में जलभराव की समस्या नहीं होती है। 
v  फसल पर कीड़ो एवं रोगों का प्रकोप कम होता है। 
v  समतल क्यारियों की अपेक्षा 15-25 % अधिक उत्पादन एवं उत्तम फसल गुणवत्ता। 
v  यह विधि कतारों में बोई जाने वाली फसलें जैसे सब्जियों और अंतः फसली तथा मल्च आदि प्रयोग के लिए बहुत उपयुक्त होती है। 
v  क्यारियों में लगाई सब्जियों में यदि मल्च (पलवार) भी लगा दिया जय तो लगभग ५०% पानी की बचत के साथ साथ उत्पादन एवं गुणवत्ता में भी बढोत्तरी देखि गयी है। 
4.एकांतर सिंचाई पद्धति
एकांतर सिंचाई विधि को आशिंक जड़ क्षेत्र में सिंचाई विधि भी कहा जाता है जिसमे नियंत्रित तरीके से सिंचाई की जाती है।  इससे उपज में कमीं आये बिना सीमित  जल से सिंचाई  की जाती है।  इसमें सिंचाई दो प्रकार से की जा सकती है : (अ) स्थिर एकांतर कूंड सिंचाई एवं (ब) चक्रीय एकांतर कूंड सिंचाई।  भारतीय सब्जी अनुसन्धान संसथान में किये गए अनुसन्धान में ज्ञात हुआ है कि चक्रीय एकांतर कूंड सिंचाई से प्राप्त टमाटर की उपज कूंड द्वारा सिंचित टमाटर की उपज के समतुल्य पाई गई साथ ही इस तकनीक से 27 % तक जल की बचत हुई। इसमें काली प्लास्टिक के पलवार का प्रयोग करने जल प्रयोग की दक्षता अधिकतम (16.5  क्विंटल उपज प्रति मिमी जल) हुई एवं जल की वचत  54 % हुई, जबकि एकांतर कूंड सिंचाई मात्र से ही दोनों तरफ कूंड द्वारा सिंचाई की तुलना में लगभग ३९% पानी की बचत अंकित की गई। 
5. पलवार (मल्च) का इस्तेमाल
जल सरंक्षण की विभिन्न विधियों के अलावा पलवार (मल्च) का प्रयोग भी  नकदी फसलों और सब्जियों के लिए बहुत लाभप्रद है।  मृदा के ऊपरी सतह से वाष्पीकरण द्वारा होने वाली नमीं का ह्रास रोकने तथा सतह अपवाह (रन-ऑफ़ वाटर) को कम करने में पलवार प्रयोग प्रभावकारी साबित हुआ है। इसके अलावा पलवार से मृदा में जल धारण क्षमता बढती है एवं मृदा नमीं अधिक समय तक सरंक्षित रहती है।  पलवार के इस्तेमाल से पौधों में पोषक तत्व ग्रहण करने की क्षमता बढती है. पलवार मृदा तापमान को नियंत्रित करता है जिससे जड़ों का विकास अच्छा होता है।  पलवार मृदा से जल वाष्पीकरण की दर को 15 -50  प्रतिशत तक कम कर देता है।  नकदी फसलो एवं सब्जियों की सफल खेती में कार्बनिक और प्लास्टिक मल्च का प्रयोग प्रभावशाली पाया गया है. गीष्मकालीन फसलों का उत्पादन बढ़ाने एवं जल की बचत करने के लिहाज से कार्बनिक मल्च जैसे फसलों के अवशेष (ठूठ, भूषा आदि), सूखे खरपतवार आदि का प्रयोग लाभकारी रहता है। इसी प्रकार टमाटर, फूलगोभी, पत्तागोभी, मिर्च तथा कद्दुवर्गीय सब्जियों में प्लास्टिक मल्च विशेषकर कलि पॉलिथीन का प्रयोग फायदेमंद रहता है।  इन पल्वारों के प्रयोग से सब्जियों में 30 -50 % तक पानी की बचत की जा सकती है।  पॉलिथीन मल्च का प्रयोग ड्रिप सिंचाई पद्धति के साथ ज्यादा प्रभावकारी एवं  लाभकारी पाया गया है। सब्जी उत्पादन हेतु अधिकांशतः काली एवं पारदर्शी प्लास्टिक शीट का प्रयोग किया जाता है।  प्लास्टिक मल्च की मोटाई 0.012  से 0.031  मिमी या 25  से 40  माइक्रान तक होती है। टमाटर पर किये गये प्रयोग के अनुसार काली एवं पारदर्शी प्लास्टिक मल्च से लगभग 11 -15  % तक जल की बचत हुई परन्तु जब काली मल्च का इस्तेमाल ऊंची उठी क्यारियों एवं ड्रिप सिंचाई हेतु किया गया तब परम्परागत सिंचाई की तुलना में 50 -66  % तक जल की बचत दर्ज की गई।  कार्बनिक पलवार जैसे पौधों के अवशेष, सूखी घास/खरपतवार, धान की पुआल आदि ग्रीष्मकालीन फसलों के लिए काफी प्रभावकारी साबित हुई है। बसंत-ग्रीष्म ऋतु में भिन्डी में मटर के पुआल का पलवार 10  टन प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से लगभग 30 % तक जल की बचत हुई. इसी प्रकार टमाटर में धान के पुआल का पलवार अकेले (7.5 टन/हे) या कूंड सिंचित उठी क्यारियों में प्रयोग करने से समतल क्यारियों में पौध रोपण की तुलना में क्रमशः 15  एवं 49 % तक जल की बचत हुई। 
इस प्रकार उपरोक्त बातों/तथ्यों से हम इस नतीजे पर पहुंचते है कि जलवायु परिवर्तन और धरती पर कम हो रही हरियाली के कारण मानसूनी वर्षा में निरंतर कमीं परिलक्षित हो रही है। जल की सबसे अधिक खपत करने वाले कृषि क्षेत्र के समक्ष भारी संकट उत्पन्न हो सकता है। भारत की 60 % से अधिक खेती किसानी वर्षा की मेहरवानी पर टिकी है। ऐसे में हमें प्रधानमंत्री के 'प्रति बूँद अधिक फसल'  की अवधारणा पर खेती करने हेतु आवश्यक उपाय करने होंगे। उपलब्ध वर्षा जल के अधिकतम सरंक्षण हेतु पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ जमीन पर कार्य करना होगा। उपलब्ध जल स्त्रोतों के संतुलित दोहन और पानी की बर्वादी रोकने के लिए सख्त कानूनों को अमलीजामा पहनाना होगा।  कृषि क्षेत्र में भी बाढ़ विधि से सिंचाई विधि पर अंकुश लगाते हुए सिंचाई की नवोदित टपक और फव्वारा सिंचाई पद्धतियों के अंतर्गत क्षेत्र विस्तार करना होगा तभी कृषि क्षेत्र से बढ़ती आबादी के लिए पर्याप्त अन्नोत्पादन की उम्मीद की जा सकती है। 
नोट: कृपया  लेखक की अनुमति के बिना इस आलेख की कॉपी कर  अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है, तो  ब्लॉगर/लेखक  से अनुमति लेकर /सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें। 

कोई टिप्पणी नहीं: