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शनिवार, 25 अगस्त 2018

आश्चर्यजनक विदेशी फल-‘ड्रेगन फ्रूट’: स्वास्थ्य रक्षा और धन वर्षा

                                            डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर(सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)


 ड्रेगन फल (हायलोसिरस अनडेटस) कैक्टस प्रजाति का उष्णकटिबंधीय फल है जिसे अद्वितीय पौष्टिक गुण  और स्वाद के कारण सुपर फ़ूड की उपाधि प्राप्त है।  आकर्षक रूप- रंग, लाजबाव स्वाद, पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्द्धक गुणों के कारण मध्य अमेरिका में जन्मे  ड्रेगन फ्रूट ने भारतीय बाजार में  धमाकेदार प्रवेश किया है।  इस अनोखे फल की बढती मांग एवं लोकप्रियता के कारण भारतीय किसानों को भी  इस विदेशी फल की खेती फायदे का सौदा साबित हो रही है।   मध्य अमेरिका से चलकर  इज़रायल, वियतनाम, ताइवान,  निकारागुआ,ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया, थाईलेंड का लम्बा सफ़र करते हुए अब यह फल  धीरे धीरे भारत के खेतों में  भी दस्तक दे रहा है।  भारत के अनेक राज्यों के किसान इस विदेशी फल की  खेती कर अच्छा खासा  मुनाफा कमा रहे है।  छत्तीसगढ़ में इस फल की खेती 8-9 वर्ष से की जा रही है और वर्तमान में  छत्तीसगढ़ के किसानों द्वारा उच्च गुणवत्ता के ड्रेगन फलों को पैदा किया जा रहा है. इसके फलों की घरेलू खपत के साथ साथ देश के अन्य  राज्यों  में भी ऊंची कीमत (200-400 रूपये प्रति किलो) पर बेचा जा रहा है और विदेशों में निर्यात भी किया जा रहा है।   

                                                    ड्रेगन फ्रूट एक परिचय

ड्रेगन फ्रूट-के पौधे (साभार-गूगल)
ड्रेगन फ्रूट कैक्टस (नागफनी) कुल का  लम्बे दिन वाला पौधा है।  रात्रि में खिलने वाले इसके फूल बहुत ही आकर्षक और सुन्दर होते हैजिसके कारण यह फल 'नोबल वूमेन' और  'क्वीन ऑफ़ द नाईट' के नाम से प्रसिद्ध है।  इसे स्ट्राबेरी पियर, पिताया आदि नामों से भी जाना जाता है।  इसका फल दिखने बहुत ही अजीब सा होता है और इसका बाहरी हिस्सा काफी उबड़ खाबड़ होता है परन्तु इसके अन्दर का भाग (गूदा) काफी मुलायम और बहुत स्वादिष्ट  होता है।  अभी ड्रेगन फ्रूट  की मुख्यतः तीन प्रजातियों  की पहचानी हुई है जिनमे सफेद गूदा और गुलाबी लाल छिलका (हायलोसिरस अनडेटस), लाल गूदा और गुलाबी लाल छिलका (हायलोसिरस कोस्टारीसेंसिस) तथा  सफेद गूदा और पीला छिलका (हायलोसिरस मेगालनथस) ड्रैगन फ्रूट की सभी प्रजातियों के गूदे के साथ अनगिनत काले रंग के बीज गुथे होते हैं, जिसे गूदे के साथ ही खाया जाता है। ड्रैगन फ्रूट का स्वाद हल्का मीठा होता है। आमतौर पर लाल गूदे वाले फल को अधिक पसंद किया जाता है।
बहुपयोगी है ड्रेगन फ्रूट
ड्रेगन फ्रूट का गूदा सफ़ेद और लाल रंग का स्वाद में हल्का मीठा होता है जिसमें असंख्य  छोटे-छोटे काले रंग के बीज पाए जाते है। इसके ताजे फलों को काटकर, इसका गूदा (बीज सहित) चाव से खाया जाता  हैं। इसके फल का स्वाद हल्का मीठा तथा कुछ-कुछ कीवी और नाशपाती से मिलता जुलता  है।  इसके फल से जैम, जेली,आइस क्रीम, कैंडी, चॉक्लेट,पेस्ट्रीज,योगर्ट, शीतल पेय पदार्थ आदि तैयार किये  जाते है।  इसके गूदे को पिज़्ज़ा में भी मिलाया जाता है।  मलेशिया में ड्रेगन फल की मदिरा  (वाइन) लोकप्रिय  हैं। इसके  पुष्प कलियों और फलों से जायकेदार सूप और सलाद तैयार कर तीन और पंच सितारा होटलों में गर्व से परोसा  जाता है।  इसके फूल का इस्तेमाल चाय बनाने में फ्लेवर के लिए किया जाता है।  इसके मांसल तने के गूदे का इस्तेमाल सौंदर्य प्रसाधन सामग्री बनाने में  किया जाता है। ड्रैगन फ्रूट को सजावटी पौधे के तौर पर भी घरों में लगाया जाता है।

पौष्टिकता और स्वास्थ्य के लिए अद्भुत फल

ड्रेगन फ्रूट-लाल  छिलका सफ़ेद गूदा (साभार-गूगल)
ड्रेगन फ्रूट स्वादिष्ट होने के साथ साथ अमूमन सभी प्रकार के पोषक तत्वों से भरपूर होते है। यह विटामिन सी और आयरन का मुख्य स्त्रोत भी है। देश विदेश में प्रकाशित शोध पत्रों के अनुसार  ड्रेगन फल के 100 ग्राम गूदे (लुगदी) में जल: 87 ग्राम, प्रोटीन: 1.1 ग्रा., फैट: 0.4  ग्राम, कार्बोहाईड्रेट: 11 ग्राम, क्रूड फाइबर: 3 ग्राम, कैल्शियम: 8.5 मिग्रा.,फॉस्फोरस: 22.5  मिग्रा.,आयरन: 1.9  मिग्रा., विटामिन बी-1 (थायमिन): 0.04 मिग्रा., विटामिन बी-2(राइबोफ्लेविन):0.05 मिग्रा., विटामिन बी-3 (नियासिन): 0.16 मिग्रा. एवं विटामिन सी (एस्कोर्बिक एसिड): 20.5 मिग्रा. के अलावा बहुत से एंटी ओक्सिदेंट्स  जाते है।  इसके गूदे की ब्रिक्स वैल्यू 11-19 तथा पी एच मान 4.7-5.1 होता है।  इतने सारे पौष्टिक तत्वों से भरपूर होने के कारण  ड्रेगन फल को 'स्वर्ग का फल' कहा जाता है.  
ड्रेगन फ्रूट-पीला   छिलका सफ़ेद गूदा (साभार-गूगल)
ड्रेगन फ्रूट स्वाद में उम्दा होने के साथ साथ मानव स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद होता है। इसमें पर्याप्त मात्रा में उच्च कोटि का फाइबर उपस्थित होने के कारण मधुमेह एवं ह्रदय रोगियों के लिए उपयोगी फल है।  इसके नियमित सेवन से ब्लड शुगर संतुलित रहती है, रक्तचाप नियंत्रित रहता है, आंखों की रोशनी बढती है  और पाचन तंत्र भी ठीक रहता है।  इसमें अनेक प्रकार के एंटी ऑक्‍सीडेंट्स   एवं प्रचुर मात्रा में विटामिन सी पाई जाती है,जो मिलकर शरीर में रक्त परिसंचरण बनाये रखते है तथा  शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाने में मदद करते है । इसे खाने से  शरीर में कोलेजन का उत्पादन होता है जो दांतों को स्वस्थ और त्वचा को सुंदर व स्वस्थ बनाता है। इसमें कैलोरी कम होती है।  अतः अधिक चर्बी वाले लोग भी इसका सेवन करके मोटापा कम कर सकते हैं। इसके बीजों में पॉली अनसेचुरेटेड फेट ओमेगा-3 और ओमेगा-6 फेटी एसिड पाए जाते हैं। इसलिए इसे आसानी से चबाकर खाया जा सकता है। इसमें मौजूद कैल्शियम दांतों और हड्डियों को मजबूती प्रदान करता  है। प्रचुर मात्रा में आयरन विद्यमान होने के कारण, इसके सेवन से शरीर में खून की मात्रा बढती है और मांसपेशियाँ स्वस्थ और मजबूत रहती है।  वैज्ञानिक शोध के अनुसार, ड्रैगन फ्रूट में पॉलीफीनॉल और फ्लावोनोइड पाया जाता है जो कई प्रकार के कैंसर की कोशिका को बनने और बढ़ने से रोकने में कारगर है। 
प्रतिकूल प्रभाव: ड्रैगन फ्रूट खाने से  शरीर और स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल  प्रभाव नहीं पड़ता है, परन्तु  कुछ लोगों को ड्रैगन फ्रूट खाने से एलर्जी की शिकायत हो सकती है।

क्यों लाभकारी है ड्रेगन फ्रूट की खेती  

वैज्ञानिक तरीके से ड्रेगन फल की खेती करने से भारत के लघु और सीमान्त किसानों एवं उधमियों की आर्थिक स्थिति मजबूत हो सकती है।  पौष्टिक गुणों से भरपूर तथा  स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी होने के कारण देश विदेश में इस फल की भरी मांग को देखते हुए ड्रेगन फ्रूट की खेती लम्बे समय तक मुनाफा दे सकती है.  हमारे देश में अभी इस अद्भुत फल की खेती  महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक,आंध्रप्रदेश, तमिलनाडू, राजस्थान सहित छत्तीसगढ़ के कुछ किसानों द्वारा की जा रही है।  इसकी खेती में एक बार निवेश करने पर 4-5 वर्ष तक खासा मुनाफा लिया जा सकता है।  अंतरवर्ती फसल अथवा कृषि वानिकी के साथ सह फसल के रूप में इसकी खेती से कई गुना मुनाफा कमाया जा सकता है।  ड्रेगन फल यानि पिताया के पौधों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नानुसार है:
  •  स्वादिष्ट, पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक बहुपयोगी फल है ।
  •  एक बार लगाने से 20  वर्ष तक लगातार उत्पादन और सुनिश्चित आमदनी। 
  •  भारत की उष्ण और उपोष्ण  कटिबंधीय जलवायु के लिए उपयुक्त।
  •  भारत की उचित जल निकासयुक्त सभी प्रकार की मिट्टियो में खेती संभव।
  • गमलों/प्लास्टिक के पात्रों और घर की छत पर भी ड्रेगन फ्रूट आसानी से पैदा किये जा सकते है। 
  • कृषि वानिकी के साथ अंतर्वर्ती फसल के रूप में और पेड़ों की छाया में भी खेती की जा सकती है।  
  •  सूखा प्रतिरोधी एवं पानी की न्यूनतम आवश्यकता।
  •  फसल रखरखाव की न्यूनतम आवश्यकता होती है।
  •  फसल कीट-रोग प्रतिरोधी अतः पौध सरंक्षण पर न्यूनतम खर्च। 
  • फलों को 7-8 दिन तक छाया-हवादार स्थानों पर सुरक्षित रखा जा सकता है।
  •  दो से तीन  वर्ष में निवेश वापसी और लाभप्रदतासुनिश्चित। 
  •  आसान प्रवर्धन/प्रसारण और  पुनर्विक्रय के लिए कटिगों का उपयोग किया जा सकता है
  •  फलों की स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में भारी मांग रहती है.
  • फलों के मूल्य संवर्धित उत्पादों की  प्रीमियम दरों पर विक्रय सुनिश्चित।

                                                कैसे करे ड्रेगन फ्रूट की खेती 

               भारत की मिटटी एवं जलवायु ड्रेगन फल की खेती के लिए अनुकूल पाई गई है।  इसकी खेती में प्रारंभिक लागत अधिक आती है, परन्तु वैज्ञानिक ढंग से इसकी खेती और पौध प्रबंधन किया जाये तो दूसरे-तीसरे वर्ष से किसानों को अच्छा खासा मुनाफा प्राप्त हो सकता है। भारत और अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित विभिन्न  शोध पत्र,आलेख तथा अनुभव के आधार पर भारतीय परिस्थियों में ड्रेगन फल की उत्पादन प्रोद्योगिकी अग्र प्रस्तुत है:

उपयुक्त जलवायु एवं मिट्टियाँ

ड्रैगन फल उष्णकटिबंधीय जलवायु के लिए अनुकूल पौधा है जिसकी खेती समुद्र तल से 1700 मीटर की ऊँचाई वाले क्षेत्रों में आसानी से की जा सकती है।  इसके पौधे मौसम परिवर्तन और तापमान के उतर चढ़ाव को आसानी से सहन कर लेते है इसकी खेती  500-1500  मि.मी. वार्षिक  वर्षा  वाले क्षेत्रों में आसानी से की जा सकती है परन्तु लगातार वर्षा इसकी फसल के लिए नुकसानदायक होती है।  पौधों की बढ़वार और विकास के लिए  20  से 35  डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त माना जाता है। परन्तु इसके पौधे 40 डिग्री सेल्सियस तक का  तापमान भी सहन कर लेते है।  अधिक ठण्ड में पौधों की वृद्धि और विकास अवरुद्ध हो जाता है.  फलों के विकास एवं पकाव के समय गर्म एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है।  आद्र जलवायु में फलों की गुणवत्ता ख़राब हो जाती है।
            ड्रेगन फ्रूट की खेती उचित जल निकास वाली अमूमन भारत की सभी प्रकार की मिट्टियों में सुगमता से की जा सकती है।  खेतों में जल भराव  इस फसल के लिए हानिकारक होता है।  बेहतर उपज के लिए पर्याप्त कार्बनिक पदार्थ युक्त  दोमुट बलुई  मिट्टी सर्वोत्तम रहती है।  हल्की अम्लीय भूमि में भी ड्रेगन फ्रूट सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है। खेत की मिट्टी का पीएच मान 5.5 से 7 तक उपयुक्त माना जाता है।

कैसे होता है ड्रेगन फ्रूट के पौधों का प्रसारण

ड्रेगन फ्रूट-पौध तैयार करना (साभार-गूगल)
ड्रेगन फ्रूट  का प्रसारण/प्रवर्धन बीज  और वानस्पतिक विधि द्वारा किया जा सकता है।  बीज द्वारा पौधे देर से तैयार होते है तथा बीजू पौधे धीमी गति से बढ़ते है और उत्पादन भी 3-4 वर्ष में प्राप्त होता है।  अतः व्यवसायिक खेती के लिए वानस्पतिक प्रवर्धन (टनों/टहनियों की कलम)  ही सबसे सरल और उत्तम विधि है।  इस विधि से लगाये गए पौधों में दुसरे वर्ष से फलन प्रारंभ हो जाता है।  वर्ष भर कभी भी कटिंग/पौध  तैयार की जा सकती है, परन्तु पौधों से फल तोड़ने पश्चात ही  सुबह के समय कलम काटना उचित रहता है।  रोपण हेतु 15-60 सेमी की कलमे (शाखाएं/टहनियां) अच्छी मानी जाती है।  लम्बी कलमों की वानस्पतिक वृद्धि तेजी से होती है।  कलमों को तेज धार  वाले चाकू से तिरछा काटना चाहिए।  इसके पश्चात कलमों को फफूंद नाशक दावा से उपचारित करने के बाद  5-7 दिन तक सूखे-ठन्डे स्थान पर रखना चाहिए।  इन कलमों को सीधे मुख्य खेत में रोपा जा सकता है परन्तु नर्सरी अथवा पोलिबेग में इनकी पौध तैयार करना उचित रहता है।
ऐसे करें पौधशाला की तैयारी : मानसून आगमन से 2-3 माह पूर्व मुख्य खेत के पास पौधशाला तैयार कर कलम रोपण का कार्य संपन्न कर लेना चाहिए।  कलमों से त्वरित जड़ों के प्रस्फुटन हेतु जड़ों के कटे हुए शिरों को पानी से गीला करने के पश्चात उन्हें  पादप हार्मोन जैसे आईबीए 10 ग्राम प्रति लीटर जल में 10 सेकंड तक डुबोना चाहिए।  इस हार्मोन के स्थान पर बाजार में उपलब्ध कोई भी रूटेक्स का इस्तेमाल किया जा सकता है। सामान्यरूप से कलमों में जड़ विकसित होने में 40-50 दिन का समय लगता है परन्तु पादप हार्मोन (रूटेक्स) के उपचार से 10-15 दिन में जड़े प्रस्फुटित  होने लगती है और पौधों का तेजी से विकास होता है।  पादप वृद्धि  इसके बाद कलमों को अच्छी प्रकार से तैयार पौधशाला में लगाना चाहिए।  एक 10 x 10 मीटर की पौधशाला में 1100 पौधे तैयार किये जा सकते है। आवश्यकतानुसार पौधशाला का आकर बढ़ाया या कम किया जा सकता है।   पौधशाला में नियमित रूप से झारे से हलकी सिंचाई करते रहे।  पौधशाला में जल भराव नहीं होना चाहिए।
ड्रेगन फ्रूट के पौधों को पोल पर चढ़ाना (साभार-गूगल)

पौध रोपने का तरीका

ड्रेगन फ्रूट के पौधों की वृद्धि और विकास के लिए सूर्य का प्रकाश आवश्यक है।  अतः खुले क्षेत्र में रोपाई करना चाहिए. खेत की भली भांति सफाई एवं जुताई कर लेना चाहिए।  खेत में जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था करना आवश्यक है।  इसके लिए खेत में जल निकास नालियां बना लेना चाहिए।  ड्रेगन फ्रूट के पौधे आरोही बेल प्रकृति की होते है। अतः इनके चढने-बढ़ने के लिए  3 x 3 मीटर (कतार से कतार एवं पोल से पोल) की दूरी पर सीमेंट कंक्रीट के पोल (100-150  मिमी व्यास के 2 मीटर लम्बे) लगाये जाते  है।  प्रत्येक पोल के ऊपर 2.5 फीट व्यास की रिंग (अथवा कंक्रीट का चौकोर ढांचा) लगाई जाती है, जिसमें चारों ओर एक-एक छेद होना चाहिए।  बेलों को सहारा देने अथवा चढाने के लिए लोहे या स्टील के तार का उपयोग कदाचित न करे क्योंकि तारों से पौधे कट जाते है।  वर्षा आगमन से पूर्व मुख्य खेत में 3 x 3 मीटर (कतार से कतार x  पोल से पोल) की दूरी पर 60  सेमी. गहरा एवं 60   सेमी. चौड़ा गड्डा खोदकर छोड़ देना चाहिए।  ध्यान रहे बेल को सहारा देने वाले खम्बे (पोल) इसी गड्ढे के बीचों-बीच गाड़कर चारो तरफ से कंक्रीट बिछाकर पक्का कर देना चाहिए।  वर्षा प्रारंभ  होने के बाद जून- जुलाई में प्रत्येक पोल (खम्बे) के चारों  तरफ 4  पौधे रोपना चाहिए।  मिटटी,बालू + गोबर खाद का  1:1 :2 के अनुपात में मिश्रण बनाकर उसमे 100 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट मिलकर गड्ढो में भरते हुए पौध रोपण का कार्य सम्पन्न करें।  गोबर की खाद या वर्मी कम्पोस्ट की मात्रा  8-10 किग्रा. प्रति  गड्ढा रखना चाहिए।  खेत में 3  x 3 मीटर की दूरी पर गड्ढे करने से एक एकड़ ज़मीन में 449  पोल स्थापित होंगे तथा  प्रति पोल 4 पौधे लगाने से प्रति एकड़ 1796  पौधे लगाना चाहिए।   सामान्य तौर पर ड्रेगन फल के पौधे जून-जुलाई  अथवा फरवरी मार्च में रोपे जाने चाहिए।  अधिक वर्षा या अधिक सर्दी वाले क्षेत्रों में इसे सितम्बर अथवा  फरबरी-मार्च  में लगाया जा सकता है।

आवश्यक है पौधों का रख-रखाव  

ड्रेगन फ्रूट के पौधे तेजी से बढ़कर शीघ्र ही पोल के ऊपर पहुँच जाते है, ऐसे में कुछ बेलें जमीन पर गिरकर ख़राब हो सकती है।  अतः बेलों को मुलायम रस्सी से बांधते रहना चाहिए।  जब बेल ऊपर की ओर चढ़ने लगे  तो बाहरी मुख्य शाखाओं को छोड़कर  पार्श्व शाखाओं को काटते रहना चाहिए। बेल के पोल के ऊपर पहुँचने के बाद सभी शाखाओं को स्वतंत्र रूप से बढ़ने देना चाहिए।  मुख्य तने के ऊपरी शिरे को तोड़ देने से पार्श्व शाखाओं की संख्या बढती है।  अच्छी प्रकार से बढ़वार होने पर प्रथम वर्ष में एक पौधे से 25-30 शाखाएं बनती है जो चौथे वर्ष तक बढ़कर 110-125 तक हो सकती है।   कमजोर/कटी-फटी और रोग ग्रसित शाखाओं को निकालते रहना चाहिए।  इसके अलावा तृतीयक शाखाओं को भी काट कर उनकी पौध तैयार की जा सकती है।

पौधों को दे संतुलित खुराक

ड्रेगन फल से अधिकतम उत्पादन लेने के लिए पर्याप्त और संतुलित मात्रा में खाद एवं उर्वरक देना नितांत आवश्यक है।   पौध रोपण के समय प्रति पोल  10 से 15 किलो गोबर की खाद या कम्पोस्ट देना चाहिए।  जैविक खाद् की मात्रा प्रति दो वर्ष में बढ़ाते रहना चाहिए।  पौधों के  समुचित विकास और उत्तम फलन  के लिए समय समय पर रासायनिक खाद् भी देना चाहिये रोपण के समय जैविक खाद के साथ  म्यूरेट ऑफ़ पोटाश + सिंगल सुपर फास्फेट +यूरिया को क्रमशः 30:70:50  ग्राम प्रति पौधा देना चाहिए. फूल आने से पहले और फल आने के समय प्रति पौधा  40  ग्राम यूरिया 40  ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट और 80  ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश देना चाहिए।  तीसरे वर्ष से 300:500:600 ग्राम क्रमशः यूरिया: सिंगल सुपर फॉस्फेट और म्यूरेट ऑफ़ पोटाश  प्रति पौधा प्रति वर्ष देना चाहिए। इन उर्वरकों को चार  किस्तों में देना लाभकारी होता है। प्रथम क़िस्त  फलों की तुड़ाई पश्चात (सम्पूर्ण जैविक खाद +  40 % नत्रजन एवं 30-30 % फॉस्फोरस और पोटाश), दूसरी क़िस्त दो माह बाद (30 % नत्रजन+ 20 % फॉस्फोरस और 15 % पोटाश), तीसरी खुराक पुष्पन अवस्था से पूर्व (10%:40 %: 40 %) और शेष उर्वरकों की सम्पूर्ण मात्रा फल विकसित होने की अवस्था में देना लाभकारी रहता है।

जमीन में कायम रहे नमीं   


यद्यपि ड्रेगन फ्रूट नागफनी कुल का कम पानी चाहने वाला पौधा है, फिर भी वानस्पतिक वृद्धि एवं बेहतर उत्पादन के लिए  भूमि में लगातार नमीं बनाये रखना आवश्यक है।  चूँकि  इसकी रेसेदार जड़ें  भूमि में 15-30  सेमी की गहराई में वितरित रहती है, जिसके कारण मृदा को नम बनाये रखना जरुरी रहता है।  अनावश्यक या अधिक सिंचाई हानिकारक होती है।  लम्बे समय तक सिंचाई न करने पर अथवा शुष्क भूमि में बेलों की बढ़वार प्रभावित होती है तथा फलों का आकार भी छोटा रह जाता है।  पुष्पन  से पूर्व फसल में पानी नहीं देना चाहिए परन्तु पुष्पन प्रारंभ होने से फल विकसित होने तक भूमि में नमीं रहना आवश्यक है।  इस दौरान खेत में नमीं  और फिर  सूखे की स्थिति निर्मित नहीं होना चाहिए अन्यथा फल फटने की शिकायत आ सकती है।  ड्रेगन फ्रूट से अधिकतम उपज प्राप्त करने हेतु ड्रिप सिंचाई प्रणाली सबसे उपयुक्त पाई गई है।  पौधों के चारों तरफ धान के पैरा अथवा प्लाटिक मल्च बिछा देने से मृदा से नमीं का ह्रास कम होता है।  

खरपतवारों से करें फसल की सुरक्षा  

ड्रेगन फ्रूट के पौधों और खम्बों के बीच ज्यादा अंतरण होने के कारण खेत में खरपतवारों का प्रकोप अधिक होता है।  खरपतवारों को निंदाई गुड़ाई करके अथवा नीदानाशक दवाओं के माध्यम से नियंत्रित करना आवश्यक है।  ध्यान रखे बेल वाले खरपतवार पोल पर न चढ़ने पाए अन्यथा ड्रेगन फल  के पौधों को भारी नुकसान हो सकता है।  ड्रेगन फ्रूट के साथ अन्य दलहनी फसलें जैसे मूंग/उर्द अथवा सब्जी वाली फसलों  को अंतरवर्ती फसल के रूप में उगाकर अतिरिक्त लाभ ले सकते है और ऐसा करने से खरपतवार भी नियंत्रित रहते है।  पोल के चारों तरफ प्लास्टिक मल्च अथवा धान का पैर बिछा देने से भी खरपतवार प्रकोप कम होता है साथ ही नमी सरंक्षण भी होता है। ड्रेगन फ्रूट के पौधों में सामान्य तौर पर किसी भी प्रकार के कीट-रोगों का प्रकोप नहीं होता है। अतः पौध सरंक्षण के उपाय अपनाने की आवश्यकता नहीं है।  सिर्फ पौधों को जमीन पर गिरने से बचाना है।
ड्रेगन फ्रूट पौधा- सुन्दर पुष्प (साभार-गूगल)

पुष्पन एवं फलन का समय

ड्रेगन फल के  पौधे एक साल में ही फल देने के लायक हो जाते है।  अनुकूल परिस्थियों में  इसके पौधों में मई-जून महीने में फूल लगते है और अगस्त से दिसम्बर तक फल आते रहते है। यह एक पर परागित फसल है।  इसके फूलों में परागण की क्रिया तितलियों, मधुमक्खियों द्वारा संपन्न होती है।  यह कार्य सुबह के समय हाँथ से भी किया जा सकता है. कुछ पुष्पों को खोलकर उनमे से फलालेन के कपङे में पराग कण एकत्रित कर अन्य पुष्पों पर फैला देने से फलों का विकास अधिक होता है। आमतौर पर 40 से 45 दिनों में पुष्पों से फल तैयार हो जाते  है ।  एक ऋतु में  इसके पौधों में प्रायः 3-4 बार फलन होता है।   कच्चे फलों का रंग गहरा हरा तथा पकने पर फलों का रंग गुलाबी लाल हो जाता है.  फलो का रंग 70  % लाल-गुलाबी या पीला  हो जाने पर तुडाई कर लेना चाहिए।

आकर्षक है उपज और लाभ का गणित

मेहनत के फल-ड्रेगन फ्रूट विक्रय हेतु (फोटो-साभार-गूगल)
शुरूआती दौर में  ड्रेगन फल के एक पौधे पर 10-12  तक फल लगते हैं, बाद में इसकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ जाती है। एक पोल पर 40 से 100 फल तक लग सकते है।  एक फल का औसत भर 200-300 ग्राम संभावित है।  एक एकड़ में अनुमानित 449 पोल स्थापित किये जाते  है।  प्रथम वर्ष  में एक पोल से यदि 40 फल भी  प्राप्त होते है,   तो 200 ग्राम प्रति फल भार के हिसाब से कुल   3592  किग्रा फल प्रति एकड़ प्राप्त हो सकते है।  बाजार भाव कम से कम 125 रूपये प्रति किलो  मान लिया जाये तो  प्रथम वर्ष 4,4900 की आमदनी होती है, जिसमे से तीन लाख की उत्पादन लागत  घटाकर 1  लाख 49  हजार रूपये प्रति एकड़  का शुद्ध मुनाफा प्राप्त हो सकता है जो आगे के वर्षो में दो से चार गुना बढ़ जाता है।  फलों की तुड़ाई बाद किसान भाई  पौधों की कटाई छटाई करते समय अतरिक्त शाखाओं/टहनियों से पौध/कलम तैयार कर बेच कर अतिरिक्त मुनाफा अर्जित किया जा सकता है।  यही नहीं ड्रेगन फ्रूट के साथ दो कतारों के मध्य अंतरवर्ती फसल के रूप में शीघ्र तैयार होने वाली दलहन अथवा सब्जिओं की फसल लेकर बोनस लाभ भी कमाया जा सकता है। इस प्रकार भारतीय जन मानस की स्वास्थ्य रक्षा और देश के लघु एवं सीमान्त किसानों के लिए ड्रेगन फल की खेती आर्थिक दृष्टि  से वरदान सिद्ध हो सकती है। ध्यान रहे की फलों की संख्या, बजन पुर्णतः मौसम एवं जलवायु तथा सस्य प्रबंधन पर निर्भर करता है।  बाजार में मांग एवं पूर्ति के अनुसार इसकी खेती से लाभांश में उतार चढाव हो सकता है।

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गुरुवार, 23 अगस्त 2018

सीमांत एवं लघु कृषकों की आर्थिक समृद्धि हेतु समन्वित कृषि प्रणाली

                               डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर

                 भारत में बढ़ते  औद्योगिकीकरण, शहरीकरण तथा जनसँख्या दबाव के कारण प्रति व्यक्ति भूमि जोत की उपलब्धता निरंतर घटती जा रही है।  भारत में कृषि के मौजदा परिदृश्य पर गौर करे तो  ज्ञात होता है की देश में 90  प्रतिशत से अधिक किसान छोटे एवं सीमान्त वर्ग में आते है।  एक आंकलन के अनुसार 70  फीसदी सीमान्त और 16  फीसदी किसान परिवारों के पास एक हेक्टेयर से भी कम भूमि है।  राष्ट्रिय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार 36 फीसदी किसान भूमिहीन है।  भविष्य में छोटे और भूमिहीन किसानों की संख्या बढ़ना सुनिश्चित है।  इस प्रकार सिकुड़ती कृषि भूमि, घटते संसाधन और बढती जनसँख्या को दृष्टिगत रखते हुए फसल प्रणाली आधारित कृषि विकास की बजाय सम्पूर्ण कृषि-प्रणाली आधारित विकास को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है, क्योंकि कोई भी अकेला कृषि व्यवसाय छोटे एवं सीमान्त किसानों के जीविकोपार्जन हेतु पर्याप्त खाद्यान्न एवं आमदनी प्रदान नहीं कर सकता है।  आज के प्रतिस्पर्धी युग में सीमित एवं महंगे संसाधनों का कुशल उपयोग कर, फसलोत्पादन के साथ अन्य कृषि उद्यमों का समावेश करना समय की मांग है।  लघु एवं सीमान्त किसानों के लिए समन्वित कृषि प्रणाली वरदान सिद्ध हो रही है, क्योंकि यह न केवल नियमित आय एवं रोजगार का माध्यम है, बल्कि यह किसान परिवार को खाध्य एवं पोषण सुरक्षा के साथ-साथ परिवार के सदस्यों की खेती के प्रति रूचि बढाने और सम्मान से जीविकोपार्जन चलाने में भी सहायक है।
कृषि को अधिक लाभकारी एवं भरोसेमंद बनाने के लिए फसलोत्पादन के साथ कृषि के सहायक उद्यम जैसे फसल, बागवानी, डेयरी, मछली पालन, मुर्गी पालन, मधुमक्खी पालन, सस्य वानिकी आदि को समन्वित करने की रणनीत अपनानी पड़ेगी ताकि इन किसानों के सीमित संसाधनों का समुचित उपयोग कर इनके आय एवं आर्थिक विकास की निरंतरता को कायम रखा जा सके।   यह प्रणाली किसानों को अतिरिक्त रोजगार एवं आय के अवसर मुहैया कराने के साथ साथ  प्राकृतिक संसाधनों एवं पर्यावरण को सरंक्षित रखने में भी सहायक सिद्ध होगी ताकि आगे आने वाली पीढ़ी अपने विकास हेतु इनका समुचित उपयोग कर सके।  केंद्रीय कृषिमंत्री श्री  राधा मोहन सिंह ने कहा है कि वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का  लक्ष्य हासिल करने के लिए केन्द्रित एकीकृत कृषि प्रणाली (आईएफएस) को बढ़ावा देने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि एकीकृत कृषि प्रणाली पुनर्चक्रण, पारिवारिक पोषण, पारिस्थितिकी सुरक्षा और रोजगार सृजन के माध्यम से उत्पादन बढ़ाने, मुनाफे और लागत में कमी करने में सहायक है।
क्यों आवश्यक है समन्वित कृषि प्रणाली ? 
भारत में बढती आबादी, बेरोजगारी, दिन प्रति दिन सिकुड़ते संसाधनों, जलवायु परिवर्तन और बढती मंहगाई को ध्यान में रखते हुए  लघु और सीमान्त कृषकों को समन्वित कृषि प्रणाली को अपनाना होगा क्योंकि:
  • लघु एवं सीमान्त कृषकों की आजीविका एवं आर्थिक सुरक्षा हेतु ।
  • प्रति इकाई कृषि उत्पादकता एवं लाभप्रदता में  सुनिश्चित वृद्धि के लिए।
  • कृषि अवशेषों के पुनर्चक्रण से मृदा उर्वरता में वृद्धि एवं पर्यावरण सरंक्षण।
  • कृषको को वर्ष पर्यन्त आमदनी हेतु कृषि के विविध आयाम उपलब्ध कराने बावत। 
  • भोजन हेतु जलाऊ लकड़ी और पशुओं के लिए पौष्टिक हरा चारा उपलब्ध करवाने हेतु।
  • कृषक परिवार एवं ग्राम्य नौजवानों को सतत रोजगार मुहैया करवाने हेतु।
  • गाँव में कृषि उद्यम स्थापित करने हेतु आवश्यक उत्पाद उपलब्ध कराने हेतु।
  •  कृषकों की आर्थिक स्थिति एवं रहन-सहन में सुधार लेन हेतु आवश्यक है।
समन्वित कृषि प्रणाली के प्रमुख उद्देश्य एवं लाभ
समन्वित कृषि प्रणाली का मुख्य उद्देश्य भूमि, श्रम,पूँजी, समय एवं अन्य संसाधनों का बुद्धिमत्ता पूर्वक उपयोग करना है, ताकि किसान परिवार को पूरे वर्ष रोजगार एवं आमदनी प्राप्त होती रहे जिससे उनके  विकास की निरंतरता को कायम रखा जा सके. समन्वित कृषि प्रणाली के प्रमुख उद्देश्य एवं इस अपनाने के प्रमुख लाभ अग्र प्रस्तुत है:
1.   समन्वित कृषि प्रणाली का मुख्य उद्देश्य कृषक परिवार की सभी आवश्यकताओं यथा  खाद्यान्न, सब्जी, फल-फूल, दूध, चारे, मांस, ईंधन आदि की  पूर्ति उस मॉडल के माध्यम से  सुनिश्चित करना है , जिससे बाजार पर किसान की निर्भरता को कम किया जा सके। 
2.   कृषक परिवार की अन्य मूलभूत आवश्यकताओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्भहन हेतु अतिरिक्त आमदनी भी प्राप्त हो सके।
3.   इस प्रणाली के जरिये कृषक स्वरोजगार के अवसर पैदा कर सकते है जिससे न केवल अपने  परिवार के सदस्यों को बल्कि दुसरे किसान भाइयों को भी रोजगार उपलब्ध करा सकते है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की काफी कमी रहती है।  हमारे ज्यादातर ग्रामीण युवा बेरोजगार घूम रहे है।  समन्वित कृषि प्रणाली में प्रति इकाई समय प्रति इकाई क्षेत्र में अधिक कृषि क्रियाओ के जुड़ने से अधिक कृषि मजदूरों की आवश्यकता पड़ने से ग्रामीण युवाओं की बेरोजगारी को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
4.   कृषक परिवार हेतु पौष्टिक आहार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये खेतों से ही पर्याप्त मात्रा में अनाज, दलहनों, तिलहनों, सब्जियों, फलों, दूध और मछली का उत्पादन  करना  तथा पशुओं को पूरे साल पर्याप्त मात्रा में हरे चारे की उपलब्धता सुनिश्चित करना समन्वित कृषि प्रणाली का उद्देश्य है।  इस प्रणाली को अपनाने से परिवार को पौष्टिकता से परिपूर्ण ताज़ी सब्जी एवं फल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते रहते है।
5.   अपशिष्ट पदार्थों का पुनर्चक्रण समन्वित कृषि प्रणाली का अभिन्न अंग है। यह खेती से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों के टिकाऊ निपटान का सबसे उपयोगी तरीका है।  कृषि अपशिष्ट पदार्थों में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम के साथ-साथ बहुत से सूक्ष्म पोषक तत्व भी खेतों में ही पुनर्चक्रण के माध्यम से पौधों को उपलब्ध हो जाते हैं।
6.   समन्वित कृषि प्रणाली का यह भी उद्देश्य है की किसानों के पास उपलब्ध  भूमि का विवेकपूर्ण ढंग से सदुपयोग हो जिससे उन्हें प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन प्राप्त हो सकें।  इसके अलावा जल और प्रकाश  जैसे प्राकृतिक संसाधनों का  विवेकपूर्ण और कुशल  उपयोग  संभव है। प्रति बूँद अधिकतम उत्पादन सुनिश्चित हो।
7.   समन्वित कृषि प्रणाली दृष्टिकोण अपनाने से खेती में प्राकृतिक जोखिमों (सूखा व बाढ़) तथा कीट-रोग व्याधियो से होने वाले आर्थिक नुकसान को कम करने के अलावा  बाजार में मंदी  के जोखिमों से भी बचाव होता है।
8.   भारत के लघु एवं सीमान्त किसानों की आर्थिक दशा काफी दयनीय है. खेती बाड़ी एवं पारिवारिक प्रयोजन से उन पर  कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है. समन्वित कृषि प्रणाली के माध्यम से किसानों के पास उपलब्ध सीमित संसाधनों का सदुपयोग करके उनकी आर्थिक दशा को काफी हद तक सुधरा जा सकता है। 
समन्वित कृषि प्रणाली मॉडल ( फोटो -साभार -गूगल )

समन्वित कृषि प्रणाली के प्रमुख घटक
1.   फसल उत्पादन :- यह महत्वपूर्ण घटक है जिसके मध्यम से मनुष्य को भोजन, मीठाकारक और कपड़ों के लिए रेशा तथा जानवरों के लिए चारा प्राप्त होता है।  इसके अलावा किसान परिवार के दीगर खर्चों के लिए पूँजी भी उपलब्ध हो जाती है।  इस घटक में प्राकृतिक संसाधनों के कुशल उपयोग हेतु विभिन्न प्रकार की फसल पद्धतियाँ विकसित की गई है जिनके इस्तेमाल से किसान यथोचित लाभ अर्जित कर सकते है।
2.   पशुपालन :- अनादि कल से किसान फसलोत्पादन के साथ साथ पशुपालन को भी अपनाते आ रहे है। वास्तव में फसल उत्पादन और पशुपालन एक दुसरे के पूरक है क्योंकि पशुओं से प्राप्त गोबर खाद फसलोत्पादन में प्रयुक्त होता है और कृषि से प्राप्त फसल अवशेष/ भूषा से पशुओं का जीवन निर्वाह होता है।  पशुपालन मूल रूप से दूध, मांस, ऊन उत्पादन, खेतों की जुताई और आवागमन के साधन  के लिए किया जाता है।  इसमें गाय,बैल, भैस, बकरी, भेड़, ऊँट, घोडा, सूअर आदि का पालन पोषण किया जाता है। 
3.   कुक्कुट एवं बतख पालन :- भारत में मुर्गी और बतख पालन पुस्तैनी व्यवसाय नहीं रहा  है परन्तु कुछ दशकों से यह तेजी से उभरते कृषि उद्यम का रूप लेता जा रहा है।  प्रारंभ में कुछ किसान परिवार अपने घर के पिछवाड़े में मुर्गी पालन किया करते थे।  अब अंडा और मांस उत्पादन के लिए मुर्गी और बतख पालन एक अत्यंत लाभकारी व्यवसाय के रूप में उभर रहा है।  खेतों से प्राप्त अनाज विशेषकर मक्का दाना, धान की भूषि, दालों के छिलके आदि  मुर्गियों  को खिलाया जाता है और मुर्गी खाद का उपयोग खेती में किया जाता है।
4.   मछली पालन :- वर्षा वाहुल्य क्षेत्रों के गाँव और खेतों में तालाब बहुतायत में पाए जाते है जिनके माध्यम से खेतों की सिंचाई और घरेलु कार्य हेतु जल की आपूर्ति होती है. इन्ही तालाबों में मछली पालन का कार्य भी किया जाता है, जिससे किसानों को अतिरिक्त आमदनी प्राप्त होती है।  धान की भूषि एवं अन्य फसलों से अवशेष तथा तिलहन की खली मछलियों के भोजन के लिए तालाब में डाल दिए जाते है।  इसके अतिरिक्त पशुपालन और मुर्गीपालन से प्राप्त जैविक खाद भी तालाब में डाले जाते है जिससे तालाब में जलीय खरपतवार उग आते है है जिन्हें  मछलियों द्वारा भोजन के रूप में उपयोग किया जाता है। 
5.   कृषि वानिकी :-  इस कृषि प्रणाली के तहत फसलोत्पादन के साथ साथ फल, चारा। ईंधन और लकड़ी प्राप्त करने हेतु बहुउद्देशीय पेड़ों का रोपण किया जात है।  कृषि वानिकी न केवल मनुष्य और पशुओं की दैनिक जरूरतों को पूरा करती है वल्कि पर्यावरण सरंक्षण के लिए भी उपयोगी है।  इसके अलावा यह पद्धति मृदा उर्वरकता को कायम रखने, जल जमाव, मृदा क्षरण  और मृदा लवणता को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।  कृषि वानिकी, कृषि-उद्यान-वानिकी कृषक परिवार को अतिरिक्त आमदनी प्रदान करने में प्रभावी भूमिका अदा कर रही है जिसके कारण यह देश की विभिन्न कृषि प्रणालियों में  महत्वपूर्ण घटक के रूप में सम्मलित की जा रही रही है।
6.   मधुमक्खी पालन :- मधुमक्खियाँ बहुमूल्य शहद (मधु रस) पैदा करने के साथ साथ ये विभिन्न  फसलों में परागण की क्रिया संपन्न करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जिससे फसलोत्पादन में वृद्धि होती है।  इसके अलावा मधुमक्खी पालन से मोम भी प्राप्त होता है जिसकी बाजार में अच्छी मांग होती है. सीमित स्थान और कम लागत में मधुमक्खी पालन को व्यवसायिक रूप से अपनाये जाने से छोटे और मझोले कृषको को अतिरिक्त आमदनी प्रपात होती है।
7.   मशरूम उत्पादन :- मशरूम एक खाध्य फफूंद है जिसे सब्जी के रूप में चाव से खाया जाता है। इसमें उच्च गुणवत्ता वाले पोषक तत्व पाए जाते है।  इसे  साफ़ सुथरे कमरों/झोपड़ियों में  कम खर्चे में आसानी से उगाया कर अतिरिक्त आमदनी अर्जित की जा सकती है।  हमारे देश में प्रमुख रूप से बटन और ढींगरी मशरूम पैदा किया जाता है।  इसकी खेती में फसल उत्पादन के उप-उत्पाद जैसे, धान का पुआल, गेंहू का भूषा का उपयोग किया जाता है।  मशरूम फसल काटने के बाद बचे हुए कम्पोस्ट को खेतों में खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है।
8.   बायोगैस उत्पादन :-  बायोगैस वैकल्पिक उर्जा का सस्ता और टिकाऊ स्त्रोत है जिसे खाना पकाने, रौशनी करने अथवा कृषि पम्प चलाने में उपयोग किया जाता है।  पशुपालन से प्राप्त गोबर और फसल अवशेष आदि से बायो गैस उत्पादन किया जाता है तथा बायोगैस उत्पादन के बाद बचे हुए उप-उत्पादन को स्लरी कहते हैजिसे खेतों में जैविक खाद के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।  बायोगैस स्लरी को मछली के तालाबों में भी डाला जा सकता है. आमतौर पर 3-4 जानवरों वाली पशु इकाई से 1.5 किलोवाट की बायो गैस यूनिट की स्थापना करके एक परिवार की खाना बनाने लायक गैस, प्रकाश हेतु 2-3  बल्ब जलाने की सुविधा तथा यूनिट से प्राप्त गोबर स्लरी से अधिक पोषकता वाली गोबर खाद प्राप्त होती है।  बायोगैस इकाई की स्थापना हेतु सरकार की  50 % से अधिक अनुदान योजना का लाभ उठाया जा सकता है।

आदर्श कृषि प्रणाली मॉडल

             एक अच्छा कृषि मॉडल वह होता है, जिसमें किसान अपनी जोत के अनुसार विभिन्न इन्टरप्राइजेज को शामिल करके तथा उपलब्ध संसाधनों एवं समय का भरपूर उपयोग करके अधिक कृषि उत्पाद प्राप्त कर सके एवं अपने उत्पाद को बाजार में उचित दर पर बेच कर आर्थिक लाभ प्राप्त कर सके   इसके अलावा प्रक्षेत्र अपशिष्ट (फॉर्म वेस्ट) एवं फसल उत्पाद अवशेषों (क्रॉप रेसिड्यू) के पुनः चक्रण द्वारा टिकाऊ फसलोत्पादन  प्राप्त करना भी एक अच्छे कृषि प्रणाली मॉडल की विशेषता होती है।  
समन्वित  कृषि प्रणाली अनुसंधान परियोजना निदेशालय, मोदीपुरम द्वारा  विकसित समन्वित कृषि प्रणाली के विभिन्न मॉडलों  से प्राप्त जानकारी एवं अनुभवों के आधार पर कृषि प्रणाली के कुछ प्रादर्श (मॉडल) अग्र प्रस्तुत है :
लघु एवं मध्यम कृषकों (पांच एकड़ भूमि) हेतु मॉडल :- इस कृषि प्रणाली के अंतर्गत फसल उत्पादन + पशुपालन+बागवानी (फल एवं सब्जी उत्पादन)+ मुर्गीपालन +मधुमक्खी पालन + वर्मी कम्पोस्टिंग एवं गोबर गैस प्लांट को अपनाया जाता है और वैज्ञानिक विधि से सही समय पर समस्त सस्य क्रियाओं को सम्पादित किया जाता है तो इस मॉडल से किसान भाई 6.5 लाख से अधिक का शुद्ध मुनाफा अर्जित किया जा सकता है।  यह मॉडल सिंचित क्षेत्र के छोटे और मध्यम वर्ग के किसानों के लिए उपयुक्त पाया गया है।  
लघु कृषकों (तीन एकड़ भूमि)  हेतु मॉडल :- इसके अंतर्गत फसल + पशुपालन (2 भैंस एवं  1 गाय) + बागवानी (फल एवं सब्जी) + मछली पालन + मधुमक्खी पालन + मशरूम उत्पादन को सम्मिलित किया जाता है।  इसमें सभी कृषि घटकों का बेहतर प्रबंधन किया जाता  है, तो प्रति वर्ष 4 लाख से अधिक   रुपए का शुद्ध लाभ  प्राप्त हो सकता है। यह मॉडल सिंचित छोटे किसानों के लिए अधिक उपयुक्त है।  
 लघु कृषकों (ढाई एकड़ भूमि) हेतु मॉडल  :- इस मॉडल के अनुसार ढाई एकड़  जमीन पर  किसान भाई यदि फसल + पशुपालन (1 भैंस एवं  1 गाय) + बागवानी (फल एवं सब्जी) + मधुमक्खी पालन एवं मशरूम की खेती करते है तो उन्हें इससे प्रतिवर्ष   3 लाख से अधिक  रुपये की शुद्ध आमदनी  प्राप्त हो सकती है। यह मॉडल सिंचित क्षेत्र के छोटे कृषको  के लिए अधिक उपयुक्त है। 
सीमांत कृषकों (एक एकड़ भूमि) हेतु  मॉडल :- इस मॉडल के अन्तर्गत वैज्ञानिक विधि से फसल + पशुपालन (1 गाय)  मधुमक्खी पालन एवं मशरूम खेती को अपनाकर किसान कृषि कार्य करें तो प्रति वर्ष  1.5 लाख रु. की शुद्ध आय  प्राप्त हो सकती है। यह मॉडल विशेषकर सिंचित क्षेत्र के सीमांत कृषकों के लिए अधिक उपयुक्त है।
समन्वित कृषि प्रणाली के उपरोक्त सभी मॉडलों में उपलब्ध संसाधनों के अनुसार किसान स्थानीय परिस्थिति और सुविधानुसार घटकों में परिवर्तन कर सकते हैं। मॉडलों में दर्शाया गया शुद्ध लाभ कृषि एवं उद्यम प्रबंधन पर निर्भर करता है। 

समन्वित कृषि प्रणाली की सफलता हेतु आवश्यक बातें

1.कृषक अपने परिवार की खाद्यान्न आवश्यकता, पशुओं हेतु चारा एवं अन्य दैनिक जरुरत के अनुसार अलग अलग उद्यमों के लिए कृषि भूमि का निर्धारण करें. फसल चुनाव के समय घर की आवश्यकता के साथ साथ मृदा एवं जलवायु को ध्यान में रखकर फसलों का चयन करें.
2.फल-सब्जी, पेड़-पौधे ऐसे लगाने चाहियें जो लगातार घरेलू आवश्यकता की पूर्ती करते हो तथा निरंतर  आमदनी देते हों, जैसे केला, पपीता,  धनियाँ, टमाटर,हरी मिर्च, सहजन, कटहल, आम, नीबू  एवं अमरूद इत्यादि।
3. पारिवारिक श्रम और समय का सदुपयोग करने हेतु  कृषि कार्यों की समय सारणी बना लें, जिससे समसामयिक कृषि  कार्य संपन्न करने में सुविधा होगी।
4. कृषि प्रक्षेत्र पर उपलब्ध सभी उत्पाद (अनाज,फल, फूल, सब्जी, दूध आदि) तथा उप उत्पाद (सब्जिओं के पत्ते, डंठल, छिलके, गोबर, गोमूत्र, भूषा, खरपतवार आदि) व्यर्थ न जाने दें। सभी उत्पादों का उपयोग करना सुनिश्चित करें। व्यर्थ के समझे जाने वाले पदार्थो से वर्मी कम्पोस्ट या अन्य जैविक खाद तैयार कर खेती में उपयोग कर रासायनिक खादों पर निर्भरता कम की जा सकती है।
5.कृषि पक्षेत्र पर खली स्थानों या अनुपयोगी स्थानों जैसे बाहरी मेड़ों आदि पर बहुउपयोगी बृक्षों का रोपण अवश्य  करें।  खेत की बाहरी मेड़ों पर करोंदा, बेर,नीबू, सहजन,बांस आदि के बृक्ष लगाये जा सकते है।
6.कृषि और प्राकृतिक संसाधनों का बहुउद्देशीय उपयोग सुनिश्चित करें।
7.कृषि प्रणाली के सभी घटकों के आय-व्यय का नियमित लेखा-जोखा रखें।
8.बाजार की मांग एवं सामाजिक-आर्थिक पहलुओं को ध्यान में रखकर ही कृषि प्रणाली के घटकों का चयन किया जाना चाहिए। 
              इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है की भारत की कृषि और किसानों की दशा और दिशा सुधारने के लिए समन्वित कृषि प्रणाली को पूरी निष्ठा के साथ अंगीकार करना होगा तभी हमारे देश के बहुसंख्यक लघु और सीमान्त कृषि परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार हो सकता है।  भारत के प्रधानमंत्री ने आगामी वर्ष 2022  तक किसानों की आमदनी दो गुना होने का जो सपना देखा है, उसे साकार देखने के लिए समन्वित कृषि प्रणाली वरदान सिद्ध हो सकती है।  सही मायने में उपलब्ध संसाधनों का वैज्ञानिक ढंग से प्रबंधन और आधुनिक सस्य विधियों को अपनाकर समन्वित कृषि प्रणाली से फसलोत्पादन 2-3  गुना बढाया जा सकता है, 40-60 प्रतिशत संसाधनों की वचत के अलावा किसानों को अतिरिक्त रोजगार और कृषक परिवार की खाद्ध्यान्न और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है। 

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