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गुरुवार, 10 जनवरी 2019

पौष्टिकता और आमदनी में श्रेष्ठ : कठिया गेंहू


                पौष्टिकता और आमदनी में श्रेष्ठ : कठिया गेंहू
                                      डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
     इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
                                                 अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
भारत में मुख्य रूप से दो प्रकार के गेहूं अर्थात साधारण गेहूं  (एस्टविम)  और कठिया गेहूं  (ड्यूरम) की खेती प्रचलित हैं । कठिया गेहूं के के दाने बड़े और लंबे होते हैं। भारत में अमूमन 300 लाख हेक्टेयर में गेंहू की खेती प्रचलित है, जिसमे से मात्र 4 प्रतिशत क्षेत्र में कठिया गेहूँ की खेती की जाती है। पौष्टिकता में सामान्य गेंहू से कठिया गेंहूँ बेहतर होने के कारण विश्व बाजार में इसकी खासी मांग है । पहले कठिया गेहूँ की खेती पारम्परिक तरीके से  असिंचित अवस्था में हुआ करती थी। काठियां गेंहूँ की कम उपज क्षमता एवं लम्बी अवधि की देशी किस्मों का इस्तेमाल किया जाता था।  इसलिए इस गेंहूँ की  पैदावार भी अनिश्चित रहती थी । अब कम पानी और संतुलित उवरर्क प्रबंधन में अधिक ऊपज देने वाली  कठिया गेहूं की उन्नत किस्में उपलब्ध है, जिनकी खेती कर किसान भाई अधिकतम उपज और आमदनी प्राप्त कर सकते है।  घरेलु तथा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कठिया गेहूं की मांग तेजी से बढ़ रही है और  साधारण गेहूं की अपेक्षा कठिया गेहूं की बाजार में  20-30 प्रतिशत अधिक कीमत मिलती है। मध्य भारत की मृदा-जलवायुविक परिस्थितियों में  कठिया गेहूँ उत्पादन की अपार क्षमता मौजूद है। मध्यप्रदेश का मालवा क्षेत्र तथा बुंदेलखंड में कठिया गेंहूँ की खेती प्रचलित है।  कठिया गेंहू की खेती के अंतर्गत भारत के अन्य गेंहू उत्पादक प्रदेशों में भी क्षेत्र विस्तार की आवश्यकता है।  इससे एक तरफ कृषि में विविधिकरण को बढ़ावा दिया जा सकता है तो दूसरी ओर हमारे किसानों  को बेहतर आमदनी मिलने के साथ-साथ  हमारा देश कठिया गेंहू के उत्पादन तथा निर्यात में अग्रणी राष्ट्र बन सकता है।  इसकी किसानों की आमदनी में भी इजाफा हो सकता है। 
सामान्य गेंहू से श्रेष्ठ है कठिया गेहूँ
  • कठिया गेंहू प्रशंस्करण एवं लघु कृषि आधारित उद्योगों के सर्वश्रेष्ठ माना जाता है. इससे बनने वाले सिमोलिना (सूजी, रबा) से नाना प्रकार के लोकप्रिय व्यंजन यथा पिज्जा, पास्ता, नूडल,वर्मिसेल, सिवैयां आदि तैयार किये जाते है।
  • कठिया गेहूँ की किस्में में सूखा प्रतिरोधी क्षमता अधिक होती है। असिंचित क्षेत्रों में भी इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है और सिंचाई की सुविधा होने पर  3 सिंचाई से 45-50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक  पैदावार हो जाती है।
  • शीघ्र पचनीय  पौष्टिक आहारों  में कठिया गेहूं बेहतर होता है। शरबती (एस्टिवम) की अपेक्षा कठिया गेहूँ  में प्रोटीन 1.5-2.0 प्रतिशत अधिक होने के साथ-साथ  विटामिन , बीटा कैरोटीन एवं ग्लूटीन पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है। कठिया गेंहू का दलिया एवं रोटी स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभकारी होता है।  शुगर रोगियों के लिए कठिया गेंहूँ का आहार बेहद फायदेमंद होता है।
  • कठिया गेहूँ में गेरूई या रतुआ जैसे रोग एवं कीड़ों का प्रकोप कम होता है। नवीन प्रजातियों का उगाकर इनका प्रकोप कम किया जा सकता है।
ऐसे करें कठिया गेंहू की खेती
          सामान्य गेंहूँ की भाति कठिया गेंहू की खेती की जाती है।  प्रस्तुत बिन्दुओं  को ध्यान में रखकर खेती करने से कठिया गेंहू से बेहतर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। 
बुआई का समय
असिंचित अवस्था  में कठिया गेहूँ की बुआई 25 अक्टूबर से  5 नवम्बर तक संपन्न कर लेना चाहिए।  सिंचित अवस्था में नवम्बर के अंतिम सप्ताह  तक बुआई कर भरपूर उत्पादन लिया जा सकता है ।
कठिया गेंहू की उन्नत किस्में
                उन्नत किस्मों की उपज क्षमता पुरानी किस्मों से अधिक होती है।  अतः अधिक उतपादन के लिए कठिया गेहूँ की उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज का प्रयोग करना चाहिए।  सिंचित एवं असिंचित परिस्थितियों के लिए काठियां गेंहूँ की प्रमुख उन्नत किस्मे अग्र प्रस्तुत है ।
सिंचित दशा हेतु - पी.डी.डब्लू. 34, पी.डी.डब्लू 215, पी.वी.डब्लू 233, राज 1555, डब्लू. एच. 896, एच.आई 8498 एच.आई. 8381, जी.डब्लू 190, जी.डब्लू 273, एम.पी.ओ. 1215, एचआई 8713, एच.आई.-8759 (पूसा तेजस) आदि.
असिंचित दशा हेतु : मेघदूत, मैक्स-9, जी.डब्लू 2, जे.यू.-12, एच.डी. 4672, सुजाता, एच.आई. 8627,एमपी 3336 आदि  किस्में उपयुक्त रहती  है.
संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन
संतुलित उर्वरक एवं खाद का उपयोग दानों के श्रेष्ठ गुण तथा अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए अति-आवश्यक है।  सिंचाई की व्यवस्था होने पर 80 कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. फास्फोरस  एवं 20 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर पर्याप्त है। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई के समय कूंडों में देना चाहिए।  नत्रजन की  आधी मात्रा  पहली सिंचाई के बाद टापड्रेसिंग के रूप में प्रयोग करना चाहिए। असिंचित दशा में 60:30:15 के अनुपात में नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश का प्रयोग बुवाई के समय कूंडों में  करना चाहिए।
बेहतर उपज के लिए सिंचाई
बुवाई के समय खेत में नमीं होना आवश्यक है.सिंचित दशा में कठिया गेहूँ  में तीन सिंचाई देने से भरपूर उत्पादन प्राप्त होता है । पहली सिंचाई बुआई के 20-25 दिन पर (ताजमूल अवस्था), दूसरी सिंचाई बुआई के 60-70 दिन पर (दुग्धावस्था) एवं तीसरी सिंचाई बुआई के 90-100 दिन पर अर्थात दाने पड़ते समय देना चाहिए।  फसल पकते समय खेत में नमीं कम रहने से दानों में चमक बढती है।       
कटाई, मड़ाई एवं उपज
             कठिया गेहूँ की कटाई विलंब से करने पर बालियाँ झड़ने की संभावना रहती है। अतः पक जाने पर शीघ्र कटाई तथा मड़ाई कर लेना चाहिए। उत्तम सस्य विधियाँ अपनाकर काठियां गेंहू की उन्नत किस्मों से 45-50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती है।

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मंगलवार, 8 जनवरी 2019

खरपतवारों को बनाएं स्वास्थ्य और संमृद्धि का आधार-IV

              खरपतवारों को बनाएं स्वास्थ्य और संमृद्धि का आधार
 डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
                                                 अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

ऐसा कोई अक्षर नहीं जिससे मन्त्र न बने और संसार में ऐसी कोई वनस्पति नहीं, जिसमे कोई औषधीय गुण न हो।  सृष्टि की प्रत्येक वनस्पति में औषधीय गुण विद्यमान होते है, जो किसी न किसी रोग में, किसी न किसी रूप में और किसी न किसी स्थिति में प्रयुक्त होती है।  बस जरुरत है इन्हें पहचानने की और इनके सरक्षण सवर्धन की।  हमारे देश में जलवायु, मौसम और भूमि के अनुसार अलग-अलग प्रदेशों में विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियाँ पाई जाती है।  वर्मान में हमारे देश में 500 से अधिक पादप प्रजातियों का औषध रूप में प्रयोग किया जा रहा है।  इनमे से बहुत सी बहुपयोगी वनस्पतियाँ बिना बोये फसल के साथ स्वमेव उग आती है, उन्हें हम खरपतवार समझ कर या तो उखाड़ फेंकते है या फिर  शाकनाशी दवाओं का छिडकाव कर नष्ट कर देते है।  जनसँख्या दबाव,सघन खेती, वनों के अंधाधुंध कटान, जलवायु परिवर्तन और रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से आज बहुत सी उपयोगी वनस्पतीयां विलुप्त होने की कगार पर है।  आज आवश्यकता है की हम औषधीय उपयोग की जैव सम्पदा का सरंक्षण और प्रवर्धन करने किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागृति पैदा करें ताकि हम अपनी परम्परागत घरेलू चिकित्सा (आयुर्वेदिक) पद्धति में प्रयोग की जाने वाली वनस्पतियों को विलुप्त होने से बचा सकें।  यहाँ हम कुछ उपयोगी खरपतवारों के नाम और उनके प्रयोग से संभावित रोग निवारण की संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत कर रहे है ताकि उन्हें पहचान कर सरंक्षित किया जा सके और उनका स्वास्थ्य लाभ हेतु उपयोग किया जा सकें। ग्रामीण क्षेत्रों, खेत, बाड़ी, सड़क किनारे अथवा बंजर भूमियों में प्राकृतिक रूप से उगने वाली इन वनस्पतियों के शाक, बीज और जड़ों को एकत्रित कर आयुर्वेदिक/देशी दवा विक्रेताओं को बेच कर किसान भाई/बेरोजगार युवा मुनाफा अर्जित कर सकते है।  फसलों के साथ उगी इन वनस्पतियों/खरपतवारों का जैविक अथवा सस्य विधियों के माध्यम से नियंत्रण किया जाना चाहिए।  शाकनाशियों के माध्यम से इन्हें नियंत्रित करने में ये उपयोगी वनस्पतियाँ विलुप्त हो सकती है।  इन वनस्पतियों के महत्त्व को दर्शाने बावत हमने कुछ औषधीय उपयोग बताये है परन्तु बगैर चिकत्सकीय परामर्श/आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह लिए आप किसी भी रोग निवारण के लिए इनका  प्रयोग न करें। भारत के विभिन्न प्रदेशोंकी मृदा एवं जलवायुविक परिस्थितियों में उगने वाले कुछ खरपतवार/वनस्पतियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है।
1.सोरेलिया कोरय्लीफ़ोलिया (बकूची), कुल- 
इस पौधे को अंग्रेजी में बाबची सीड्स तथा हिंदी में बकूची, बाबची कहते है जो पड़ती भूमियों, सडक एवं रेल पथ के किनारों पर एक वर्षीय एवं बहुवर्षीय  खरपतवार के रूप में उगता है।  इसकी पत्तियां गोल हल्की हरी होती है तथा डंठल में दोनों सतहों पर काले रंग की ग्रंथियां पाई जाती है जिनमे सुगन्धित तैलीय पदार्थ पाया जाता है।  पत्तियों के कक्ष से शीत ऋतु में पीताभ-बैगनी रंग के फूल गुच्छों में (मंजरियों) आते है।   ग्रीष्म ऋतु में  फली लगती है जिनमें  काले रंग के बीज  होते है।  इसके बीज में सुगंध होती है।  बाकुची मधुर,कड़वी,रुचिकारी, दस्तावर, ह्रदय के लिए लाभदायक होने के साथ साथ रक्तपित्त, श्वांस, प्रमेश, ज्वर तथा कृमि नाशक मानी जाती है।  इसके फल पित्त्वर्धक, चिर्पिरे, कफ,वात, स्वांस, खांसी तथा त्वचा रोग में लाभदायक माने जाते है।  इसकी पत्तियों का अर्क डायरिया एवं जड़ की दातून दांत-मसूड़ों के लिए लाभदायक होती है।  इसके बीजों का काढ़ा मूत्रवर्धक, कृमिहारी एवं मृदुरेचक होने के साथ साथ ल्यूकोडर्मा, लैप्रोसी तथा अन्य चर्म रोगों में फायदेमंद पाया गया है।  चर्म रोग एवं कुष्ठ की शिकायत होने पर बीजों को पीसकर प्रलेप लगाने से आराम मिलता है। इसके तेल में जीवाणुनाशक गुण होते है। 
2.पोर्टुलाका ओलेरासिया (बड़ी लूनिया), कुल-
इसे कॉमन पर्सलेन तथा हिंदी में कुल्फा, बड़ी लुनिया कहते है जो वर्षा एवं ग्रीष्म ऋतु में बीज एवं टनेस से उगने वाला बहु वर्षीय खरपतवार है।  इसका पौधा मांसल होता है एवं भूमि के सहारे तेजी से फैलता है।  इसकी दूसरी प्रजाति ( पी.क्वाड्रीफ़ोलिया)  (छोटा नुनिया) होती है।  दोनों ही प्रजातियाँ फसलों के साथ, बंजर भूमि एवं सड़क किनारे उगती है।  इनकी पत्तियों में खट्टापन होता है।  इसकी मुलायम पत्तियों एवं टहनियों की भाजी खाई जाती है।  नोनिया की मांसल शाखाएं लालाभ  बैगनी होती है जिन पर पर्ण वृंत रहित मांसल पत्तियां निकलती है।  इसमें पुष्प वृंत विहीन पीले रंग के फूल पत्तियों के अक्ष से एकल रूप में निकलते है और टहनी के अग्र भाग पर गुच्छे के रूप में लगते है।  कुलफा का पौधा विटामिन सी से भरपूर एवं आरोग्यकारी माना जाता है।  इसकी पत्तियां पौष्टिक, मूत्र वर्धक एवं दाह नाशक होती है।  यकृत विकार, मूत्र रोग, स्कर्वी रोग एवं  फेफड़ों  आदि के रोगों में यह बहुत लाभकारी होता है।  जले-कटे भाग एवं त्वचा रोग में इसका प्रलेप लगाने से आराम मिलता है।  इसके तने के अर्क से घमोरियों में लाभ होता है।  इसके बीज पौष्टिक,मूत्र वर्धक एवं शांतिप्रदायक होते है, जो दर्द भरी पेचिस एवं आंवयुक्त अतिसार में बहुत लाभदायक माने जाते है।
3.पुएरारिया टुबेरोस (बिलाई कन्द), कुल फाबेसी
इस पौधे को अंग्रेजी में  जायंट पोटैटो, इंडियन कुंड़जू तथा हिंदी में बिलाईकन्द, सिरल,भुई कोहड़ा, बिदारीकन्द एवं भू-कुष्मांडा कहते है जो नमीं वाले क्षेत्रों में बहुवर्षीय आरोही (लता) खरपतवार के रूप में उगता है।  यह भूमिगत प्रकंदों से प्रसारित होती है।   इसका तना मोटा और पत्तियां पलास की पत्तियों जैसी तीन पत्तों के समूह में लगती है। इसमें नीले गुलाबी रंग की पुष्पकलियाँ गुच्छों में लगती है।  इसकी  फलियाँ अन्डाभ, चिकनी एवं रोयेंदार होती है जिसमे काले-भूरे रंग के छोटे रोयेंदार बीज होते  है।   इस लता की प्रकन्दीय जड़ों में औषधीय गुण पाए जाते है।  इसके प्रकन्द बलवर्धक, क्षुदावर्धक, शांति प्रदायक, विरेचक एवं दस्तावर होते है।  यह पित्त, रक्त और वायु को शांत करने वाली उत्तम औषधि है।  इसकी जड़ (प्रकन्द) का प्रतिदिन सेवन करने से शरीर शक्तिशाली बनता है।  इसकी पत्तियों एवं जड़ का प्रयोग टी.बी. रोग के उपचार में प्रयुक्त की जाती है।  गर्भिणी माताओं के लिए इसकी जड़ का चूर्ण बहुत लाभदायक होता है।  इसकी सूखी जड़ों का पाउडर लिवर की समस्याओं एवं कमजोरी  के निदान में इसके पौधे से निकलने वाला दूध (रेजिन) दाद-खाज एवं अन्य चर्म रोगों में लाभदायक समझा जाता है।  इसके कंदों को च्यवनप्राश में एक घटक के रूप में मिलाया जाता है।  इसके पौधों को पशुओं को चारे के रूप में खिलाया जाता है।

4.सिडा कोरडिफ़ोलिया (बला), कुल-
बला पौधा फोटो साभार गूगल
इस वनस्पति को कन्ट्री मैलो तथा हिंदी में बरयार, खरैटी, बाला कहते है जो बंजर एवं पड़ती भूमियों एवं बनों में बीज से उगने वाला मालवेसी कुल का बहुवर्षीय झाड़ीनुमा खरपतवार है।  इसके पुरे पौधे पर छोटे-छोटे मुलायम रोयें पाए जाते है।  इसकी पत्तियां ह्र्दयाकार तथा किनारे दांतेदार होती है।  छोटे पुष्पवृंत युक्त पीले रंग के पुष्प एकल या गुच्छो में लगते है।  इसके बीज चिकने काले रंग के होते है।  इसका पूरा पौधा औषधीय गुणों वाला होता है।  पत्तियां श्लेष्मक होती है।  खुनी बवासीर एवं बुखार में इसका काढ़ा फायदेमंद होता है।  फोड़ा होने पर इनका प्रलेप बाँधने से आराम मिलता है।  इसके पौधे का काढ़ा गठिया वात, सुजाक एवं ज्वर संबंधी रोगों में लाभकारी होता है।  टहनियों को दूध के साथ पकाकर खाने से बवासीर में लाभ मिलता है।  इसकी जड़ शीतल प्रकृति, मूत्र वर्धक, ह्रदय एवं तंत्रिका बल्य एवं पुनर्नवीकारक होती है।  मूत्र विकार एवं तंत्रिका, रक्त प्रदर, खूनी बवासीर, पित्त विकार, बुखार, नसों में रक्त स्त्राव एवं मुखिय लकवा होने पर जड़ का पतला गर्म पानी लाभकारी होता है।  सिर दर्द के साथ कानों में शोर एवं गर्दन सख्त होने पर जड़ का अर्क हींग के साथ प्रयोग करने से आराम मिलता है।  जड़ की छाल का चूर्ण दूध एवं चीनी के साथ लेने से बार-बार पेशाब, पुरानी पेचिस, तंत्रिका विकार एवं महिलाओं में श्वेत प्रदर में लाभकारी होता है।  इसका काढ़ा गर्भवती माताओं में तनाव, बदन दर्द एवं गर्भपात रोकने में कारगर होता है।  फोड़ा एवं खरोंच में जड़ का ताजा अर्क लगाने से घाव शीघ्र भरता है।  इसका बीज पौरुष शक्ति वर्धक होता है।

5.सोलेनम सरात्तेंस (भटकटैया), कुल-
इस पौधे को अंग्रेजी में येलो बेरी नाईट शेड सोलेनम तथा हिंदी में छोटी भटकटैया, रिगनी, कटेरी कहते है .  यह वर्षा एवं शीत ऋतु का एक वर्षीय खरपतवार है जो बंजर भूमि, सड़क किनारे तथा खरीफ फसलों के खेत में बीज से पनपता है।  इसकी अन्य प्रजाति बड़ी कंटेरी (सोलेनम इनकेनम) के फल छोटे गोल अंडाकार होते है जो बैगन के समान दिखते है।  भटकटैया की पुराणी टहनियों तथा पत्तों के डंठल पर पीले रंग के मजबूत कांटे पाए जाते है।  इसमें बैगन के फूल जैसे बैगनी/नीले  रंग के फूल एकल या गुच्छे में निकलते है।  फल गोल, अंडाकार होते है जो कच्ची अवस्था में हरे तथा पकने पर  पीले रंग के हो जाते है जिन पर हरी-सफ़ेद धारियां लम्बवत होती है।  कटेरी का सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों से परिपूर्ण होता है।  इसका पौधा मूत्र वर्धक,ज्वर नाशक, कफ निवारक, दमाहारी, दर्द नाशक  तथा कृमि नाशक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।  इसके पौधे का प्रलेप एवं काढ़ा गठिया वात, जलोदर, सुजाक एवं कंठ सूजन में लाभकारी होता है।  जड़ का चूर्ण या काढ़ा दमा, कफ, बुखार, हिचकी आदि रोगों के लिए उपयुक्त दवा है। ज्वर तथा पेट में पथरी होने पर जड़ों का काढ़ा पीने से आराम मिलता है।  बच्चों में बुखार एवं कफ होने पर फलों का चूर्ण शहद के साथ देने से फायदा होता है।  पुष्प कलियों एवं पुष्प का अर्क कान दर्द, नकसीर तथा आँखों में पानी आने पर उपयोगी होता है।  फलों का काढ़ा गले में सूजन, ब्रोंकाइटिस, कान दर्द, छाती आदि के दर्द में लाभदायक रहता है। बीजों का चूर्ण श्वांस रोग,यकृत वृद्धि,हिचकी आदि में लाभदायक माना जाता है।  पूरा पौधा सुखाकर उसकी राख शहद के साथ चाटने से दमा एवं सीने का दर्द में राहत मिलती है।
6.सोलेनम नाइग्रम (मकोई), कुल- सोलेनेसी
मकोई फोटो बालाजी फार्म, दुर्ग
इसे अंग्रेजी में ब्लैक नाइट शेड तथा हिंदी में मकोई एवं काकमाची के नाम से जाना जाता है।  यह वर्षा ऋतु का एक वर्षीय खरपतवार है जो सम्पूर्ण भारत में  खरीफ फसलों के साथ-साथ बंजर नम भूमियों, बाग़-बगीचों एवं सड़क किनारे  बीज से उगता है।  इसका पौधा तथा टहनियां काफी नाजुक होती है। इसका पुष्पक्रम सीधा तथा पार्श्वशाखाओं एवं पत्तियों के अक्ष से निकलकर नीचे की ओर छत्रक की भांति लटकता है।  इसके ऊपरी छोर पर छोटे-सफ़ेद फूल गुच्छों में लम्बे पुष्प वृंत पर लगते है।  इसके फल गोल मटर के दानों के आकार के हल्के हरे तथा बाद में गहरे हरे-काले दिखते है जो पकने पर  काले रंग के  रसीले हो जाते है।  फल  स्वाद ने हल्के मीठे होते है।  इसका पौधा टॉनिक, मूत्रवर्धक, कफनाशक,कब्जनाशक एवं दर्द नाशक के रूप में उपयोगी होता है। पीलिया, बुखार,यकृत विकार, बवासीर, पेचिस, खांसी  आदि में  पौधों का काढ़ा लाभकारी होता है।  चर्म रोग, अल्सर एवं सोरिआसिस में नए प्ररोहों का शत लगाना लाभकारी होता है।  मकोई के फल एवं बीज बलवर्धक, क्षुदा वर्धक,मूत्र वर्धक, ज्वर नाशक एवं दस्तावर होते है।  इन्हें खाने से भूख बढती है एवं  प्यास कम लगती है।  फलों का अर्क बुखार,अस्थमा,चर्म रोग एवं मूत्र विकारों में लाभकारी है।  कच्चे फलों को मसलकर लगाने से दाद खाज खुजली में आराम मिलता है।
7.ट्राइबुलस टेरेस्ट्रिस (गोखुरू), कुल- जाइगोफिलेसी
इस पौधे को अंग्रेजी में पंक्चर वाइन, लेण्ड केलट्रॉप्स, संस्कृत में गोक्षुर  तथा हिंदी में गोखरू कहते है जो वर्ष पर्यंत पनपने वाला बहुवर्षीय खरपतवार है।  यह उपजाऊ भूमियों, खेत की मेंड़ो, शुष्क एवं बंजर भूमियों में सतह पर फैलकर बढ़ने वाला पौधा है।  यह एक धूसर रंग का रोयेंदार शाक है।   इसकी शाखाएं लम्बी जिनमे चने के समान पत्ते निकलते है।  पत्तियों के डंठल के विपरीत कोण पर पीले रंग के पुष्प एकल रूप में लगते है।  इसका फल  मटर के दाने के बराबर पंचकोणीय अनेक बीजों से युक्त होते है  जिन  पर कठोर पैने  कांटे पाए जाते है।  इसके कांटेदार फल पशुओं और इंसानों के पैरों में गड जाते है।  गोखरू छोटा और बड़ा दो प्रकार का होता है, परन्तु गुणों में दोनों एक समान होते है।गोखरू का सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों वाला माना जाता है।  यह मधुर, शांतिप्रदायक, बलवर्धक, वात-पित्त शामक मूत्राशय का शोधन करने वाला, पथरी गलाने वाला, वेदना नाशक, उदर के समस्त रोगों को दूर करने वाला, प्रमेश, श्वास, खांसी, बवासीर, गर्भाशय को शुद्ध करने वाला एवं ह्रदय रोग में गुणकारी होता है।  पुराने सुजाक, मूत्र रोग,पौरुष दुर्बलता एवं मूत्राशय में पथरी होने पर इसका चूर्ण या घोल पानी के साथ लेने से लाभ होता है।  पत्तियों के अर्क से घाव व फोड़े धोने से लाभ होता है।  इसके फूल एवं फल शीतल, मूत्रल होते है जिनका अर्क पौरुष कमजोरी, स्वप्न दोष, नपुंसकता तथा मूत्राशय विकारों में लाभदायक होता है।  इसके फलों का प्रलेप ग्रंथिवात, सुजाक तथा वृक्क विकारों में लाभकारी माना जाता है।
8.ट्राइएन्थिमा पार्टुलेकेस्ट्रम (बिषखपरा), कुल- एजोएसी
इसे अंग्रेजी में हॉर्स पर्सलेन  तथा हिंदी में बिषखपरा, सबुनी  के नाम से जाना जाता है जो की वर्षा ऋतु का एकवर्षीय खरपतवार है।  यह खरीफ फसलों  एवं गन्ने के खेतों, सड़क एवं रेल पथ किनारे, लॉन, बाग़-बगीचों एवं बंजर भूमियों में  जमीन के सहारे बढ़ता है।  इसकी शाखाएं एवं पत्तियां मांसल होती है।  इसकी दो प्रजातिया लाल रंग जिसमे तना एवं पत्तियों के शिरा एवं पुष्प लाल तथा दूसरी हरी जिसमे तना हरा एवं पुष्प सफेद रंग के होते है।  पुष्प अत्यंत छोटे पत्तियों के अक्ष में समायें रहते है। इसके फल छोटे होते है जिनमे काले रंग के अनेक बीज पाए जाते है।   इसके पौधों में अगस्त से दिसंबर तक पुष्पन एवं फलन होता है।  इस पौधे  के सम्पूर्ण भाग में औषधीय गुण पाए जाते है।  इसका पौधा मूत्र वर्धक एवं सूजनहारी होता है।  किडनी एवं लिवर की सूजन, ड्राप्सी, अस्थमा आदि रोगों में इसकी पत्तियों का काढ़ा उपयोगी होता है।  इसकी जड़ों का चूर्ण अथवा काढ़ा मूत्र रोग, ड्रोपसी, मासिक धर्म नियंत्रित करने एवं टेस्टीज की सूजन कम करने में कारगर है. इसके पौधे का काढ़ा देने से जहरीली शराब का असर कम हो जाता है।
9.स्फीरैन्थस इंडिकस (गोरखमुंडी), कुल-एस्टरेसी
इस वनस्पति को अंग्रेजी में ईस्ट इंडियन ग्लोब थिसल तथा  हिंदी में मुंडी, गोरख मुंडी  और श्रावणी के नाम सी जाना जाता है।  यह एकवर्षीय खरपतवार के रूप में खरीफ फसलों एवं नम भूमियों में उगता है।  इसका पौधा रोयेंदार और गंधयुक्त होता है।  इसमें पुष्पन एवं फलन जनवरी से मार्च तक होता रहता है।  इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है।  इसका पौधा कटुतिक्त, बलवर्धक,उष्ण,मूत्रजनक, वात एवं रक्त विकारों में उपयोगी माना जाता है।
10.टिफ्रोसिया परपुरिया (सरपोंखा), कुल- फैबेसी
वाइल्ड इन्डिगो  यह बहुवर्षीय पौधा है जो जंगल किनारे, सड़क एवं रेल पथ के किनारे तथा उपजाऊ भूमियों में उगता है।  इसमें अगस्त से दिसंबर तक पुष्पन एवं फलन होता है।  इसके पुष्प लाल या बैगनी रंग के होती है जो मंजरियों में निकलते है।  इसकी फली लम्बी चपटी रोमयुक्त होती है जिसमें चोंच जैसी नोक होती है।  इसकी जड़ों एवं फलियों में औषधीय गुण पाए जाते है।  यह कफ, वात नाशक, रक्तशोधक एवं मूत्रल होती है।  इसकी जड़ों का काढ़ा डायरिया, अस्थमा एवं मूत्र विकारों के उपचार में फायदेमंद रहता है।  दन्त रोग में इसकी जड़ को कूटकर दांत के नीचे रखने से लाभ होता है।  फलियों का काढ़ा उल्टी रोकने में कारगर है।  जड़ों का तजा रस अपेंडिक्स के उपचार में उपयोगी माना जाता है।
11.ट्रिडेक्स प्रोकम्बेंस (फुलनी), कुल-
कोट बटन, मेक्सिकन डेज़ी तथा हिंदी में फुलनी के नाम से जाना जाता है।  यह उपजाऊ भूमियों, बंजर भूमियों, नहर एवं नदीं किनारों, बाग़ बगीचों में वर्षा ऋतु में पनपने वाला बहुवर्षीय खरपतवार है।  इसके पौधों में वर्ष भर पुष्पन एवं फलन होता रहता है।  इसके तने एवं शाखाओं पर रोयें पाए जाते है।  इसमें लम्बे पर्ण वृंत पर गेंदे जैसा परन्तु छोटा पीला पुष्प लगता है।  इसकी पत्तियों में औषधीय गुण पाए जाते है। पत्तियां दस्त एवं डायरिया उपचार में लाभदायक होती है।  पत्तियों के रस का प्रयोग घाव,अल्सर  एवं कटने पर किया जाता है।  पत्तियां का उपयोग ब्रोन्कियल कैटर, पेचिश, और दस्त से किया जाता (बवासीर की सूजन कम करने और खून रोकने के लिये इसकी पत्तियों का अच्छा सा लेप बनाकर लगाया जाता है। पत्ती के रस में कीटनाशक और परजीवी गुण होते हैं। जलाने से निर्मित धुआं मच्छरों को पीछे हटाने के लिए उपयोग किया जाता है।
12.वर्नोनिया सिनेरा (सहदेवी), कुल-कम्पोजिटी
इस पौधे को अंग्रेजी में ऐश कलर्ड फ्लीबेन तथा हिंदी में सहदेवी एवं सदोदी कहते है।  यह वनस्पति सम्पूर्ण भारत में शुष्क एवं नम स्थानों में खरपतवार के रूप में पनपती है।  सहदेवी के पौधे के प्रत्येक भाग में औषधीय गुण पाए जाते है।  तंत्र विद्या में भी इस पौधे का इस्तेमाल किया जाता है।  यह उष्ण, कटु,कफ वात दोष नाशक,मधुमेह, बुखार, सिर दर्द, दांत दर्द एवं मसूड़ों की सूजन के उपचार में इसका प्रयोग किया जाता है।  पत्ती और तनों की लुगदी लगाने से घाव एवं सूजन में लाभ होता है. इसकी जड़ एवं पत्तियों का काढ़ा सेवन करने से रक्त शुद्ध होता है और चर्म रोग में लाभ मिलता है।  दस्त रोकने एवं पेट के कीड़ों के उपचार में जड़ का काढ़ा उपयोगी है।
13.विथानिया सोम्नीफेरा (अश्वगंधा), कुल-
इस पौधे को अंग्रेजी में इंडियन जिनसेंग एवं विंटर चेरी, संस्कृत में अश्वकंदिका एवं हिंदी में अश्वगंधा के नाम से जानते है।  भारत के सम्पूर्ण गर्म प्रदेशों में यह  पौधा बहुवर्षीय खरपतवार के रूप में उगता है।  इसके शाकीय झाड़ीनुमा पौधे बाग़-बगीचों, सड़क एवं रेल पथ किनारे बहुतायत में पाया जाता है। इसके तने एवं शाखायें हल्के हरे एवं सफेद रोमों से ढके रहते है।  इसकी जड़ मोटी एवं मूसलादार होती है।  इसकी पत्तियां अंडाकार एवं नुकीली होती है।  इसके फूल गोल पीताभ हरे रंग के पत्तियों के अक्ष से गुच्छों में निकलते है।  अश्वगंधा का सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों में परिपूर्ण होता है।  इसकी पत्तियों का काढ़ा पेट के कीड़े निकलने एवं बुखार से कारगर माने जाते है।  खाज-खुजली, फोड़ा, कान दर्द, अल्सर तथा हथेली एवं तलवों की सूजन में पत्तियों का अर्क लाभदायक है. गांठो एवं फेंफडों की सूजन तथा क्षय के उपचार में हरी पत्तियों का लेप कारगर माना जाता है. इसके फल एवं बीज मूत्रवर्धक एवं निद्राकारी होते है।  अश्वगंधा की जड़ शक्तिवर्धक, कामोत्तेजक,मदकारी एवं  मूत्रल होती है।  वात विकार, जोड़ो की सूजन एवं दर्द, पक्षाघात, अनियमित रक्तचाप, अपच,सामान्य एवं पौरुष दुर्बलता, खांसी तथा हिचकी आने पर इसकी जड़ का चूर्ण शहद के साथ लेने से लाभ होता है।  सूजन, ग्रंथिवात,अल्सर आदि के उपचार में जड़ के चूर्ण का प्रलेप लाभप्रद होता है।  गर्भिणी एवं प्रसूता महिलाओं में कमजोरी एवं बदन दर्द आदि में जड़ का चूर्ण शहद के साथ सेवन करना लाभकारी होता है।  अश्वगंधा चूर्ण के नियमित सेवन से मनुष्य में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढती है। 
14.जेन्थियम स्ट्रोमेरियम (संखाहुली), कुल- एस्टरेसी
शंखाहुली फोटो बालाजी फार्म, दुर्ग
इसे अंग्रेजी में कॉमन कॉकिलबर, संस्कृत में सर्पक्षी तथा हिंदी में संखाहुली,बनओकरा, छोटा धतूरा, आदासीसी  कहते है।  वर्षा ऋतु में खेतों की मेंड़ों, बंजर भूमियों, सड़क एवं रेल पथ के किनारे यह पौधा बहुवर्षीय खरपतवार के रूप में उगता है।  इसका तना खुरदुरा, पत्तियां ह्र्द्याकार, रोमिल तथा किनारे पर दांतेदार होती है। इसके पुष्प नलिकाकार एवं हल्के बैगनी रंग के होते है।  इसमें  अंडाकार फली सम्पुटकाये बनती है जो हुकनुमा काँटों से ढकी होती है।  फली (एकीन) के ऊपर दो चोंचनुमा कठोर सहपत्रों का आवरण होता है।  इसकी पत्तियों का कटु पौष्टिक टॉनिक मलेरिया बुखार में लाभदायक होता है।  महिलाओं में श्वेत प्रदर एवं अनियमित मासिक स्त्राव होने पर पत्तियों का काढ़ा फायदेमंद होता है।  फोड़े-फुंसी, दर्द भरी सुजन, घाव आदि में पत्ती एवं जड़ का प्रलेप लाभकारी होता है।  गठिया वात एवं  बच्चों में दुर्बलता होने पर जड़ों का काढ़ा लाभकारी है।  इसके फल मूत्रवर्धक, पौष्टिक एवं शीतल प्रकृति के होते है।


नोट : मानव शरीर को स्वस्थ्य रखने में खरपतवारों/वनस्पतियों के उपयोग एवं महत्त्व को हमने ग्रामीण क्षेत्रों के वैद्य/बैगा/ आयुर्वेदिक चिकित्स्कों के परामर्श तथा विभिन्न शोध पत्रों/ आयुर्वेदिक ग्रंथों एवं स्वयं के अनुभव से उपयोगी जानकारी उक्त वनस्पतियों के सरंक्षण एवं जनजागृति एवं किसान एवं ग्रामीण भाइयों के लिए आमदनी के अतिरिक्त साधन बनाने  के उद्देश्य से प्रस्तुत की है। अतः किसी वनस्पति का रोग निवारण हेतु उपयोग करने से पूर्व आयुर्वेद चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेवें। किसी भी रोग निवारण हेतु हम इनकी अनुसंशा नहीं करते है। अन्य उपयोगी वनस्पतियों के बारे में उपयोगी जानकारी के लिए हमारा अगला ब्लॉग देख सकते है। 
कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लोगर  की आज्ञा के बिना  इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में  ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।
   

सोमवार, 7 जनवरी 2019

प्रकृति का अनुपम उपहार: स्वास्थ के लिए उपयोगी खरपतवार-III


         प्रकृति का अनुपम उपहार: स्वास्थ के लिए उपयोगी खरपतवार


                                   डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
                                                 अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

वैदिक काल से ही भारत में औषधीय महत्त्व के पौधों, लताओं और वृक्षों को पहचान कर उनका इस्तेमाल विभिन्न रोगों के उपचार में किया जा रहा है। महर्षि चरक की 'चरक सहिंता' में पेड़-पौधों के औषधीय महत्त्व की गहन विवेचना की गई है। इसमें प्रत्येक पेड़-पौधे की जड़ से लेकर पुष्प, पत्ते एवं अन्य भागों के औषधीय गुणों और रोग उपचार की विधियाँ वर्णित है। आयुर्वेद के देवता धन्वंतरि ने जड़ी-बूटियों के अलौकिक संसार से जगत का साक्षात्कार कराया है। इन वनस्पतियों के चमत्कारिक प्रभाव को वैज्ञानिक धरातल पर भी जांचा-परखा जा चूका है।  एलोपैथिक दवाओं के दुष्प्रभाओं से घबराकर विश्व के जनमानस का झुकाव अब वैकल्पिक जड़ी-बूटी की परम्परागत दवाओं (आयुर्वेद) की तरफ बढ़ने लगा है। आयुर्वेदिक दवाओं और हर्बल उत्पादों की बाजार में बढती मांग को देखते हुए तमाम राष्ट्रिय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने जड़ी-बूटी, औषधीय पौधों, लताओं तथा वृक्षों से निर्मित दवाओं, केश निखार के शैम्पू, केश तेल, साबुन, त्वचा को चमकाने के लोशन, चेहरे के आभा लाने वाली क्रीम, पाउडर, टूथ पेस्ट, काजल, बाल रंगने वाले आदि उत्पादों को बाजार में पेश किया है।  इसलिए भारत से औषधीय महत्व के पौधों का निर्यात भी जोर पकड़ रहा है।  हमारे आस-पास, खेत और खलिहानों में बहुत से औषधीय महत्त्व के पेड़-पौधे जड़ी-बूटियाँ अपने आप स्वतः उगती है, जिन्हें हम खरपतवार समझ कर उखाड़ फेंकते है अथवा उन्हें शाकनाशी दवाइयों से नष्ट कर देते है।  जनसँख्या दबाव,सघन खेती, वनों के अंधाधुंध कटान, जलवायु परिवर्तन और रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से आज बहुत सी उपयोगी वनस्पतीयां विलुप्त होने की कगार पर है।  आज आवश्यकता है की हम औषधीय उपयोग की जैव सम्पदा का सरंक्षण और प्रवर्धन करने किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागृति पैदा करें ताकि हम अपनी परम्परागत घरेलू चिकित्सा (आयुर्वेदिक) पद्धति में प्रयोग की जाने वाली वनस्पतियों को विलुप्त होने से बचा सकें. यहाँ हम कुछ उपयोगी खरपतवारों के नाम और उनके प्रयोग से संभावित रोग निवारण की संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत कर रहे है ताकि उन्हें पहचान कर सरंक्षित किया जा सके और उनका स्वास्थ्य लाभ हेतु उपयोग किया जा सकें।  आप के खेत, बाड़ी, सड़क किनारे अथवा बंजर भूमियों में प्राकृतिक रूप से उगने वाली इन वनस्पतियों के शाक, बीज और जड़ों को एकत्रित कर आयुर्वेदिक/देशी दवा विक्रेताओं को बेच कर आप मुनाफा अर्जित कर सकते है।  फसलों के साथ उगी इन वनस्पतियों/खरपतवारों का जैविक अथवा सस्य विधियों के माध्यम से नियंत्रण किया जाना चाहिए। 
               इन वनस्पतियों के महत्त्व को दर्शाने बावत हमने इनके कुछ औषधीय उपयोग बताये है परन्तु  चिकत्सकीय परामर्श/आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह के उपरांत ही किसी भी रोग निवारण के लिए इनका  प्रयोग करें। भारत के विभिन्न प्रदेशोंकी मृदा एवं जलवायुविक परिस्थितियों में उगने वाले कुछ खरपतवार/वनस्पतियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है।
1.एलिफैन्टोपस स्केबर (जंगली गोभी), कुल- एस्टरेसी
        एलिफेंट फूट की जड़, पत्ती एवं फूल में औषधीय गुण होते है।   पत्ती एवं जड़ का काढ़ा बार-बार बुखार आने, डायरिया एवं अस्थमा में गुणकारी है. जड़ का काढ़ा ह्रदय रोग एवं  बवासीर में लाभकारी है।  इसके पुष्पों का प्रयोग यकृत रोग, नेत्र रोग, अस्थमा,कफ एवं सूजन के उपचार में किया जाता है।  सर्प दंश में जड़ का प्रलेप लगाने से फायदा होता है।  पत्तियों का अर्क सिर में लगाने से बाल झड़ना बंद होता है।
2.यूफॉर्बिया थाइमीफोलिया (छोटी दुधी), कुल- यूफोर्बियेसी
छोटी दूधी फोटो साभार गूगल
इस खरपतवार को अंग्रेजी में थाईम लीव्ड स्पर्ज, संस्कृत में लघु दुग्धिका, गोरक्षदुग्धी, ताम्रदुग्धी, क्षीरिका तथा हिंदी में छोटी दुधी के नाम से जाना जाता है।  इसके पौधे  ज़मीन पर फैलकर बरसात के दिनों में पनपते है, परन्तु इसके पौधे हर मौसम में मिल जाते है।  इसके तने या पत्तियों को तोड़ने से दूध निकलता है, इसी लिए इसे दुधि बूटी कहते हैं।  दुधी  पेचिश में काम आती है।  इसका पेस्ट बनकर पिलाने से आराम होता है।  ये एक आम तौर से पाया जाने वाला पौधा है. डायबिटीज के मरीजों के लिए छोटी दुधी बहुत कारगर मानी जाती है।  छोटी दुधी को जड़ से उखाड़कर छाया में सूखा लें।  सूखने पर इसका पाउडर बनाकर 3 से 5 ग्राम की मात्रा में सादे पानी के साथ  दिन में दो बार इस्तेमाल करने से डायबिटीज में बहुत लाभ होता है।  मुहांसों और दाद पर इसका दूध लगाने से आराम होता है।

3.यूफोर्बिया हिर्टा (बड़ी दुधी), कुल- यूफोर्बियेसी
बड़ी दूधी फोटो साभार गूगल
इस पौधे को अंग्रेजी में अस्थमा वीड तथा हिंदी में  बड़ी दुधी कहते है।  यह वर्षा ऋतु की फसलों के साथ, नम एवं शुष्क भूमियों, बाग़-बगीचों, बंजर भूमियों  में उगने वाली एक वर्षीय छोटी शाक है।  इसका मुलायम ताना लालिमा लिए हुए ताम्र रंग का होता है जो जमीन के सहारे बढ़ता है।  इसका तना तोड़ने से दूध जैसा सफ़ेद पदार्थ निकलता है. पत्तियों के अक्ष से छोटे ताम्र-लाल रंग के गोल पुष्प निकलते है।  पुष्प अवस्था में इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण विद्यमान होते है.इस समय इसके पौधों को सुखाकर विभिन्न रोगों के उपचार हेतु इस्तेमाल किया जाता है।  यह अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, कफ,खांसी, उदरशूल एवं ह्रदय स्पंदन में लाभकारी होता है।  पेट दर्द, खांसी, अस्थमा एवं बच्चों में उदर कृमि होने पर सम्पूर्ण पौधे का काढ़ा लाभकारी होता है।  इसका दूध दाद-खाज एवं अन्य चर्म रोगों में उपयोगी होता है।
4.यूफोर्बिया नेर्रीफ़ोलिया (थूहड़), कुल- यूफोर्बियेसी
थूहड़ फोटो साभार गूगल
इस पेड़ को कॉमन मिल्क हेज तथा हिंदी में सेंहुड़, थूहड़ के नाम से जाना जाता है।  इसके पौधों को बाग़ बगीचों की सुरक्षा हेतु  बाढ़ के रूप में अथवा शोभाकारी वृक्ष  के रूप में लगाया जाता है।  इसका तन बेलनाकार और पत्ते लम्बे, आगे से गोलाई लिए चमच के आकर के होते हैं।  ये कैक्टस के पौधों की वैराइटी का है. इसमें दूध या लैटेक्स पाया जाता है।  इसके पौधे कम पानी में भी ज़िंदा रह बने रहते है।  वर्षों से लोग इसके दूध को रेचक के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं।  दूध में कब्ज़ को दूर करने का गुण है।  इसका  दो से पांच बूँद दूध भुने चने के पाउडर में मिला कर गोली सी बना कर खाने से कब्ज़ दूर हो जाता है।  दूध का प्रयोग तेल में मिला कर और उस तेल को पाक कर और छान कर एक्ज़िमा त्वचा पर दाद, सोराइसिस पर लगाने में करते हैं।  इससे त्वचा के रोग ठीक हो जाते हैं। कान के दर्द में इसके पत्तों  को आग पर गर्म करके, जब पत्ते कुम्हला जाते हैं और मुलायम हो जाते हैं, उनका पानी या रस निचोड़ कर दो तीन बूँद कान में डालने से आराम होता है।  कच्चे फोड़ों को पकाने के लिए इसका पत्ता सरसों का तेल लगाकर, आग पर गर्म करके फोड़े पर बाँधने से फोड़े पाक कर फूट जाता है। जाड़ों में एड़ियां फट  जाने पर  जब उनमें क्रैक पड़ जाते हैं।  थूहड़ के गूदे /सैप को सरसों के तेल में पकाकर, और गूदे को तेल में अच्छी तरह मिक्स करके लगाने से लाभ होता है।  कभी भी इसका ताज़ा दूध सीधे ज़बान पर नहीं डालना चाहिए।  तेज़ स्वाभाव के कारण इसका दूध  दाने और छाले पैदा कर सकता है।  दूध त्वचा पर लग जाने से त्वचा पर घाव हो सकते हैं, लाल पड़ जाती है, दाने निकल आते हैं।

5.इवोल्वुलस अल्सिनोइड्स (शंखपुष्पी), कुल-कनवाल्वुलेसी 
शंखपुष्पी फोटो साभार गूगल
इस पौधे को  अंग्रेजी में  लिटल ग्लोरी तथा हिंदी में   शंखपुष्पी, श्यामक्रांत  एवं विष्णुक्रांत  के नाम से जाना जाता है।  यह वर्षा ऋतु एवं शीत ऋतु में खेतों, सडक एवं रेल पथ किनारों में उगने वाला लतानुमा  खरपतवार है।  हिरनखुरी की भांति यह भी जमीन के सहारे अथवा दूसरे पौधों से लिपटकर बढ़ता है।  पुष्प रंग के हिसाब से शंखपुष्पी की तीन प्रजातियाँ (श्वेत, लाल और नीलपुष्पी) होती है।  औषधीय दृष्टिकोण से  सफेद रंग की शंखपुष्पी को सर्वोत्तम माना जाता है। इसमें शंखनुमा बड़े सफ़ेद रंग के सुन्दर पुष्प आते है।  पुष्पन एवं फलन जुलाई से नवम्बर तक होता है. शंखपुष्पी के पूरे पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है।  इसका पौधा कटु, पौष्टिक, बलवर्धक, पाचक,ज्वर नाशक, कृमि नाशक होता है।  शंखपुष्पी के क्षाराभ (एल्केलाइड) में मानसिक उत्तेज़ना शामक अति महत्वपूर्ण गुण विद्यमान है।  उच्च रक्तचाप, मानसिक तनाव और अनिद्रा जैसी परिस्थितयों में शंखपुष्पी बहुत कारगर औषधि है।  इसका चूर्ण दिमागी ताकत और स्मरण शक्ति बढ़ाने में अत्यंत गुणकारी पाया गया है।  उदर कृमि, पुरानी पेचिस, शारीरिक कमजोरी एवं बुखार में पौधे का काढ़ा लाभदायक होता है।  इसकी पत्तियों को सिगरेट की भांति पीने से ब्रोंकाइटिस तथा अस्थमा में लाभ मिलता है।  शरीर में गर्मी बढ़ने से इसकी ताज़ी पत्तियों को पीसकर पीने से आराम मिलता है।  हड्डी टूटने पर इस पौधे के रस में मिश्री मिलाकर सेवन करने से आराम मिलता है. पत्तियों के रस को केश तेल में मिलाकर सिर में लगाने से बालों का विकास अच्छा होता है।  

6.गाइनेन्ड्रापसिस पेण्टाफिला (सफ़ेद हुल-हुल), कुल- कैपारेसी 

         इस पौधे को अंग्रेजी में वाइल्ड स्पाइडर फ्लावर तथा हिंदी मेंजखिया, सफ़ेद हुलहुल तथा संस्कृत में अजगंधा  के नाम से जाना जाता है।  यह एमरेंथेसी कुल का सदस्य है।  हुल-हुल वर्षा ऋतु में खेतों एवं पड़ती भूमियों में बीज से उगने वाला एक वर्षीय खरपतवार है।  पर्याप्त धुप युक्त उपजाऊ शुष्क भूमियों में इसके पौधों  की बढ़वार अधिक होती है। इसके पौधे चिपचिपे एवं  तीक्ष्ण गंध वाले होते है।  इसके पौधों में सफ़ेद या बैगनी रंग के पुष्प आते है।  इसकी फल्लियाँ (कैप्सूल) चिकनी एवं धारीदार होती है जिसमे भूरे या काले रंग के झुर्रीदार बीज होते है।  पौधों में जुलाई-अगस्त में पुष्पन एवं फलन होता है।  इसकी पत्तियों में कडवाहट होती है. इसकी पत्तियों, बीज एवं जड़ में औषधीय गुण पाए जाते है।  गठिया वात, पेशीय दर्द,गर्दन में सख्ती होने पर एवं सिर दर्द में इसकी पत्तियों की लेई से आराम मिलता है।  कान दर्द एवं कानों से मवाद आने पर इसकी पत्तियों का गर्म अर्क फायदेमंद होता है।  पत्तियों को हाथ से मसलकर सूंघने से सिर दर्द में लाभ होता है।  इसके बीजों का चूर्ण लेने से पेट के गोलकृमि बाहर निकल जाते है।  इसकी जड़ का काढ़ा ज्वरनाशक होता है।  बिच्छू दंश एवं सर्प दंश के उपचार में इसके पौधे का इस्तेमाल किया जाता है।  इसकी ताजा मुलायम पत्तियां एवं कोमल टहनियों को भाजी के रूप में पकाया जाता है। इसकी पत्तियों में विटामिन सी एवं खनिज तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते है, इसलिए स्वास्थ विशेषकर पेट से सम्बंधित विकारों  के लिए इसकी भाजी बहुत लाभकारी होती है।  हुल-हुल के बीज में 17% से अधिक उत्तम गुणवत्ता वाला खाने योग्य तेल पाया जाता है।  इसके तेल को सिर में लगाने से जुएं समाप्त हो जाते है।

7.हेमिडेस्मस इण्डिकस (अनंतमूल), कुल- एपोसाइनेसी
अनंतमूल फोटो साभार गूगल
अनन्तमूल को अंग्रेजी में इंडियन सारसपरीला तथा हिंदी में अनन्तमूल, मगराबू  एवं संस्कृत में सारिवा कहते है।   यह सफ़ेद और काली, दो प्रकार की होती है, जिसे गौरीसर और कालिसर  के नाम से जाना जाता है।  यह बहुवर्षीय पतले तने वाली लता है जो बाग़-बगीचों में जमीन के सहारे अथवा बृक्षों के सहारे बढती है।   इसकी शाखाएं रोमयुक्त होती है।  इसकी पत्तियां हरी चमकीली तथा सफ़ेद धब्बेदार होती है जिनकी निचली सतह रोयेंदार होती है।  पत्तों को तोड़ने पर दूध जैसा पदार्थ निकलता है।  इसके फूल छोटे सफ़ेद रंग के हरापन लिए होते है जो अन्दर की ओर बैगनी रंग युक्त, गंध रहित  मंजिरियों में शरद ऋतु में लगते है।  फूल लोंग के आकर के पांच पंखुड़ी वाले होते है।   इसकी बेल में अक्टूबर-नवम्बर में छोटी-छोटी अनेक फलियाँ लगती है जो पकने पर चटक जाती है। इसके काले रंग के छोटे बीजों में सफ़ेद रोमों का गुच्छा होता है।  इसकी जड़े भूमि में काफी गहरी जाती है, जिसका छोर ढूँढना मुश्किल होता है, इसलिए इसे अनन्तमूल कहते है।  जड़ की ऊपरी छल लाल रंग की कुछ भूरी सी होती है. इसकी ताज़ी जड़ों को तोड़ने से सफ़ेद दूध (लैटेक्स) निकलता है. इसकी जड़ से कपूर मिश्रित चन्दन जैसी सुगंध आती है।  सुगन्धित जड़े ही औषधीय कार्य के लिए उत्तम मानी जाती है. अनंतमूल मधुर, शीतल, तीखी सुगंधित, वीर्यवर्धक, त्रिदोषनाशक (वात, पित्त और कफ), रक्त शोधक, पौष्टिक, बलवर्धक एवं  मूत्र वर्धक होती है।    जड़ें चर्म रोग, वमन,प्रदर,भूख की कमीं एवं मूत्र विकार में लाभदायक होती है।  पुराना कफ एवं शरीर में गर्मीं तथा खून साफ़ करने में इसके काढ़े का सेवन  कारगर होता है। इसकी नई हरी-ताज़ी पत्तियों को चबाने से शरीर में ताजगी आती है।  इसका लेप गठियावात, फोड़े-फुंसी तथा अन्य चर्म विकारों में लाभकारी होता है. सर्पदंश एवं बिच्छू के काटने पर इसकी ताज़ी जड़ों का प्रलेप लाभप्रद होता है।

8.आइपोमिया एक्वेटिका (कलमी साग),कुल-कानवलवुलेसी
इसे अंग्रेजी में  स्वाम्प कैबेज/वाटर स्पिनाच  तथा हिंदी में कलमी साग और नरकुल  के नाम से जाना जाता है जो कन्वोल्वुलेसी कुल का सदस्य है।  वर्षा ऋतु में नम एवं जल भराव वाले क्षेत्रों में बीज से पनपने वाला यह एकवर्षीय सदाबहार खरपतवार है।  ग्रामीण क्षेत्रों में यह तालाबों के किनारे एवं पानी के गड्ढो एवं नालियों में भी उगता है।  इसकी मुलायम पत्तियों एवं टहनियों से भाजी बनाई जाती है।  इसका तना मुलायम-खोखला एवं मोटा होता है।  इसके तने के अग्र भाग से पत्तियों के अक्ष से लम्बे पुष्प वृंत युक्त कीप के आकार के बैगनी-सफ़ेद पुष्प निकलते है।  गीली मिट्टी के संपर्क में आने से इसके तने की प्रत्येक गाँठ से जड़े निकल आती है।  इसकी फलियों में काले रंग के अनेक चिकने बीज बनते है।  इसकी पत्तियों का अर्क वमनकारी एवं दस्तावर होता है।  महिलाओं में तंत्रिका एवं सामान्य कमजोरी होने पर सम्पूर्ण पौधे का काढ़ा देने से लाभ होता है।  इसके बीज विरेचक होते है।
9.ल्यूकस एस्पेरा (गुमा), कुल- लैमिनेसी
गुमा फोटो साभार गूगल
इसे गुम्मा एवं छोटा हल्कुसा एवं द्रौणपुष्पी के नाम से जाना जाता है।  यह एक वर्षीय खरपतवार है जो वर्षा ऋतु में उपजाऊ खेतों एवं बंजर भूमियों में बीज से उगता है।  इसकी पत्तियों से विशेष प्रकार की गंध आती है।  इसकी पत्तियां शाधारण, भालाकार एवं किनारे पर दांतेदार होती है।  इसकी लम्बी पुष्प मंजरिका में गुच्छे में सफ़ेद या धूसर सफ़ेद रंग के फूल निकलते है।  इसके बीज भूरे-काले रंग के होते है।  इसका पौधा ज्वर नाशक, उत्तेजक, स्वेदक तथा कीटनाशक होता है।  ज्वर, शर्दी-जुखाम में इसकी पत्तियों एवं पुष्पों का काढ़ा लाभप्रद होता है।  नाक में सूजन होने या खून आपने पर पत्तियों का अर्क डालने से आराम मिलता है।  खसरा, सोरिओसिस तथा त्वचा के चटकने पर पत्तियों का अर्क लगाने से लाभ होता है।  गठिया वात, सिर दर्द एवं सर्प दंश में पत्तियों का प्रलेप लगाने से फायदा होता है।  सांप के काटने पर पौधे का रस देने से जहर का असर कम हो जाता है।  इसके सूखे पौधे जलाकर धुआं करने से मच्छर भाग जाते है।
10.लेपिडियम सैटिवम (चंसूर), कुल ब्रेसीकेसी 
इस पौधे को अंग्रेजी में गार्डन क्रेस और हिंदी में हलीम, चंसूर,असारिया के नाम से जाना जाता है. यह सरसों कुल का शाकीय  वार्षिक पौधा है।  इसके पौधे सीधे बढ़ने वाले बहुशाखित होते है।  रबी फसलों के खेत, बंजर भूमियों, बाग़-बगीचों, सडक एवं रेल पथ के किनारे खरपतवार के रूप में उगता है।  इसके पौधे नमीं युक्त बलुई मिटटी में बहुत तेजी से बढ़ते है।  इसका पौधा सफ़ेद-भूरे रंग का, फूल सफ़ेद और बीज लाल रंग के सरसों जैसे बेलनाकार होते है।  बीज में खाने योग्य तेल पाया जाता है।  प्रारंभिक अवस्था में इसके छोटे पौधों से भाजी एवं सूप बनाया  जाता है, जो बहुत पौष्टिक एवं  स्वास्थ्य वर्धक होता है।  गाय एवं भैस के लिए यह उत्तम चारा है, जिसे खिलाने से दूध की मात्रा बढती है।  इसके सम्पूर्ण पौधे एवं बीज में औषधीय गुण होते है।  इसका पौधा अस्थमा निरोधक, खूनी बवासीर एवं सिफलिस के उपचार में कारगर है। यह विभिन्न स्त्री रोग, प्रसवोत्तर शारीरिक क्षति पूर्ति एवं प्रमेह निवृत हेतु उपयुक्त औषधि मानी जाती है। इसके बीज के चूर्ण/लेई को शहद के साथ लेने से दस्त में लाभ होता है।  इसके बीज को चबाने से गले का दर्द, कफ, अस्थमा एवं सिर दर्द में आराम मिलता है।  बीज के प्रलेप को लगाने से त्वचा सम्बंधित विकारों में लाभ होता है । इसके बीजों में प्रोटीन, खनिज, रेशा के अलावा विटामिन ‘ए’, ‘सी’, ‘ई’ एवं फोलिक एसिड प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।  बच्चों में बढ़वार एवं स्फूर्ति हेतु बीज बहुत लाभकारी है. चंसूर के बीजों का (पानी में फुलाकर)  सलाद के रूप में या पेय पदार्थ सेवन करने से शरीर का वजन कम या नियंत्रिन होता है और रोगप्रतिरोधक क्षमता बढती है।
11.मेलिलोटस इंडिकस (बनमेथी), कुल-
इंडियन स्वीट क्लोवर तथा हिंदी में  सेंजी एवं बनमेथी के नाम से जाना जाता है।  यह फाबेसी कुल का सदस्य है जो शीत ऋतु की फसलों में खरपतवार की तरह उगता है।  इसके पौधो में अक्टूबर से जनवरी तक पुष्पन एवं फलन होता है।  पुष्प पीले रंग के होते है।  इसके बीजों का औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।  पेट जनित समस्याओं के निवारण एवं डायरिया के उपचार में बीज फायदेमंद होते है।
12.मार्टिनिया एनुआ (बघनखी), कुल- मार्टीनियेसी
बघनखी फोटो साभार गूगल
अंग्रेजी भाषा में  डेविल्स क्ला, टाइगर क्ला  एवं हिंदी में उलट काँटा,बघनखी या बाघनखी तथा बिच्छू फल   के नाम से जाना जाता है।  इसके  बीज की शकल बाघ के मुड़े हुए नाखूनों जैसी होती है।  इसलिए इसे बघनखी या बाघनखी इसके पौधे वर्षा ऋतु में खेतों, बाग़-बगीचों, बंजर भूमियों, सडक किनारे उगते है और शीत ऋतु आगमन पर सूख जाते है।  इसके पत्ते बड़े और रोएंदार होते हैं।  इसके फल सूख कर चटक जाते हैं और उनमे से एक काले या भूरे रंग का बड़ा सा बीज निकलता है। बघनखी के सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है। यह बिच्छू दंश की अच्छी दवा है।  ये पौधा सूजन और दर्द को दूर करता है। इसमें रक्त शोधक गुण हैं।  सूजन और दर्द को दूर करने के गुणों के कारण  इसे गठिया रोग में इस्तेमाल किया जाता है।  इसके पत्तों को सरसों के तेल में पकाकर ये तेल जोड़ो के दर्द में मालिश करने से बहुत आराम मिलता है।  इसके सूखे फलों को कूटकर भी तेल में पका सकते हैं।  ये एक अच्छा दर्द निवारक तेल बन जाता है।  इसके फलो का तेल बालों में लगाने से बाल जल्दी सफ़ेद नहीं होते है।  इसकी जड़ का पाउडर एक से दो ग्राम की मात्रा में अश्वगंधा का पाउडर सामान मात्रा में मिलाकर शहद के साथ सुबह शाम इस्तेमाल करने से गठिया रोग में राहत मिलती है।
13.मिमोसा प्यूडिका (लाजवंती), कुल- फैबेसी
इसे अंग्रेजी में टच-मी-नॉट एवं सेंसिटिव प्लांट तथा हिंदी में लाजवंती, छुई-मुई के नाम से जाना जाता है।  यह बीज से उगने वाला बहुवर्षीय शाकीय खरपतवार है जो खेतों की मेंड़ों, सड़क एवं रेल पथ के किनारे एवं बंजर भूमियों में फैलकर तेजी से पनपता है।   इसके तने और शाखाओं में मजबूत एवं तेज कांटे पाए जाते है।  इसकी पत्तियां रात में ऊपर की ओर सिकुड़कर एक दुसरे से चिपक जाती है और सुबह होते ही यथावत खुल जाती है।  खुली हुई पत्तियों को छूने या छेड़ने से इसके पत्रक सिकुड़कर आपस में चिपक जाते है। पत्तियों के अक्ष से गुलाबी रंग के गोल रोयेदार पुष्प निकलते है।  इसकी फलियाँ रोयेंदार एवं चपटी एवं गुच्छे में बनती है जो पकने पर काली हो जाती है।  इसके पूरे पौधे में औषधीय गुण मौजूद होते है।  इसकी पत्तियों एवं टहनियों का काढ़ा मूत्राशय की पथरी, वृक्क विकार, बवासीर एवं पेचिस में उपयोगी है।  ग्रंथिशूल एवं  हाइड्रोसिल में पौधे का अर्क का प्रलेप लगाने से लाभ मिलता है। पेट में भारीपन, बदहजमी, दमा एवं कंठपीड़ा में पौधे का चूर्ण शहद के साथ सेवन करने से आराम मिलता है।  इसकी पत्तियों एवं फूलों की लेई बनाकर शरीर पर मलने से त्वचा मुलायम एवं कांतिमय होती है।  अधिक मात्रा में इसका सेवन करना हानिकारक होता है।
14.मुकुना प्रुरिटा (किवांच), कुल-
किवांच एक मौसमी लता है जो सेम की लता से मिलती जुलती है।  यह लता वर्षा ऋतु में जंगलों, खेतों की मेंड़ों एवं बाड़ में उगती है और अन्य पेड़ों के सहारे लिपटकर बढती है।  इसमें बैगनी रंग के पुष्प लगते है।  पुष्पन एवं फलन सितम्बर-दिसंबर तक होता है।  इसकी फली दोनों छोर पर मुड़ी हुई अंग्रेजी के एस आकार की दिखती है।  फलियों पर भूरे रंग के घने  रोम होते है जिन्हें छूने या संपर्क में आने पर खुजली उत्पन्न होती है।  इसके सम्पूर्ण पौधे एवं बीज में औषधीय गुण पाए जाते है।  किवांच के बीज शक्ति वर्धक, कामोत्तेजक एवं  बिच्छू दंश निवारक माने जाते है.फलियों के ऊपर के रोम आँतों के कीड़े निकालने में उपयोगी होते है।  पेशियों के दर्द निवारण में बीज से प्राप्त  एल्ड्रोपा रसायन का उपयोग होता है।  इसकी पत्तियां मुंह के छालों के निदान में उपयोगी है।  जड़े मूत्रल, दस्तावर, ज्वर नाशक, किडनी रोग एवं हांथीपांव में उपयोगी समझी जाती है।  जड़ो का काढ़ा सेवन करने से खुनी आंव में आराम मिलता है।

15.ओसिमम ग्रांटीसिमम (बन तुलसी), कुल-
इस वनस्पति को अंग्रेजी में वाइल्ड बेसिल तथा हिंदी में बन तुलसी, बुवई के नाम से जाना जाता है. यह वर्षा एवं शीत ऋतु का बीज से पनपने वाला एक वर्षीय झाड़ीनुमा शाकीय खरपतवार है।  इसकी अन्य प्रजाति राम तुलसी या काली तुलसी (ऑसिमम कैनम) भी खरपतवार के रूप में उगती है।  इसे बंजर भूमियों, सडक एवं रेल पथ के किनारों पर आसानी से देखा जा सकता है।  घरों में लगाई जाने वाली पूज्य तुलसी  (ऑसिमम सेन्कटम) की अपेक्षा वन तुलसी की महक कपूर की भांति तेज होती है।  इनकी शाखाओं एवं टहनियों की सीमाक्ष पर गुलाबी सफेद एवं हल्के बैगनी रंग के पुष्प लम्बी मंजरी में लगते है।  बीज काले रंग के होते है जिन्हें पानी में भिगोने पर  लसलसा पदार्थ (म्युसिलेज) बनता है।  इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है जो सुगन्धित, उत्तेजक, शीतल, तीक्ष्ण, अग्निप्रदीपक एवं पित्तकारक होता है।  यह कफ विकार, वात विकार, रक्त विकार, कृमि तथा खाज-खुजली को समाप्त करने वाला होता है।  इसकी पत्तियों का अर्क नाक से खून आने, खांसी, जुखाम, मुत्रावरोध, श्वासनाली शोथ, चर्म रोग निदान  में उपयोगी पाया गया है।  पुराने घाओं को धोने एवं मसूड़ों की सडन रोकने हेतु इसके काढ़े का प्रयोग करने से लाभ होता है।  बच्चों में उदर विकार एवं मलेरिया बुखार होने पर जड़ों का अर्क शहद के साथ देने से आराम मिलता है।  बच्चों में उदर कृमि, अतिसार तथा खांसी होने पर बीजों का चूर्ण शहद के साथ देने से लाभ होता है।  बीजों के लिसलिसे पदार्थ को आँखों में लगाने से रौशनी बढती है।  बवासीर, वृक्क विकार तथा कब्ज होने पर बीजों की चाय पीने से लाभ मिलता है।  फूल आने के बाद बन तुलसी का पौधा सुखाकर घर में टांगने से मच्छर प्रकोप कम होता है। 
16.ऑक्सालिस कॉर्निकुलाटा (तिनपतिया), कुल-  
इस वनस्पति को अंग्रेजी में इंडियन सोरेल तथा हिंदी में तिनपतिया कहा जाता है जो नम एवं छायादार भूमियों में भूस्तारी कन्दीय जड़ों से पनपने वाला बहुवर्षीय खरपतवार है।  यह भूमि के सहारे बढ़ने वाला शाक है  जिसकी एकांतर संयुक्त पत्ती में हल्के हरे रंग के तीन ह्र्द्याकार पत्रक होते है।  इसके प्रकन्द के केंद्र से  लंबे डंठल पर जनवरी-मार्च में गुलाबी-पीले रंग के कीप के आकार के छोटे-छोटे पुष्प निकलते है।   इसकी फली (कैप्सूल) बेलनाकार एवं हल्की धूसर भूरी होती है जिनमे अनेक छोटे-छोटे बीज रहते है।  इसकी मुलायम ताज़ी पत्तियों की भाजी बनाई जाती है।  इसकी पत्तियां शीतल, क्शुदावर्धक, पाचक एवं विटामिन सी से परिपूर्ण होती है. मलेरिया, ज्वर,अतिसार, उदरपित्त एवं स्कर्वी रोग में पत्तियों का काढ़ा लाभदायक होता है। त्वचा में रूखापन, लाल चकत्ते एवं चटखन होने पर पत्तियों का अर्क घी के साथ मलने से लाभ होता है।  फोड़ा-फुंसी एवं अन्य चर्म रोगों में प्रकन्द (जड़) का प्रलेप फायदेमंद होता है।
17.पेगनम हरमाला (हरमल), कुल-
इसे अंग्रेजी में वाइल्ड रियू, संस्कृत में गन्ध्या एवं हिंदी में हरमल, मरमरा  के नाम से जाना जाता है।  यह छोटा झाड़ीनुमा बहुवर्षीय जंगली पौधा है जो देश के शुष्क मैदानी क्षेत्रों में पाया जाता है।  इसकी पत्तियों के अक्ष से सफ़ेद रंग के एकल पुष्प निकलते है।  फल सम्पुटिका गोलाकार एवं गहरी धारियों वाली होती है।  इसके बीज भूरे रंग के होते है।  इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है।  इसका पौधा मोह्जनक मद्कारी, कामोत्तेजक,फीता कृमि नाशक होता है।  इसकी पत्तियों का काढ़ा गठिया वात के दर्द में लाभदायी है। इसके पुष्पों एवं तने की छल का प्रलेप ह्रदयोत्तेजना शांत करने में गुणकारी है।  इसके बीज भी औषधीय गुणों से परिपूर्ण होते है।  हरमल के बीज दर्दनाशक, मदकारी, निद्राकारी,कृमि नाशक,कामोत्तेजक,ज्वरनाशक एवं दुग्ध वर्धक होते है।  इसके बीजों का काढ़ा वात विकार, वृक्क एवं पित्ताशय की पथरी,पेट दर्द एवं ऐंठन, ज्वर,पीलिया, दमा, माहवारी में रूकावट एवं वातीय दर्द में लाभकारी पाया गया है।  इसके बीजों का चूर्ण लेने से फीताकृमि दस्त के साथ बाहर निकल जाते है।  इसके काढ़े से कुल्ला एवं गरारा करने से स्वर यंत्र विकार में लाभ मिलता है।  इसके बीजों का अधिक मात्रा में सेवन हानिकारक प्रभाव छोड़ता है।
18.फाइलैण्थस निरूराई (भू-आंवला), कुल- फाइलेन्थेसी
इसे अंग्रेजी में सीडअण्डर लीफ एवं ग्राइप वीड तथा हिंदी में हजारदाना, भुई आंवला एवं  भू-आंवला के नाम से पुकारा जाता है।  यह वर्षा ऋतु में बीज से उगने  एवं सीधा बढ़ने वाला एक वर्षीय शाकीय  वनस्पति है।  यह पौधा खरीफ की फसलों के साथ-साथ, जंगल, बाग़-बगीचों  एवं खाली पड़ी भूमियों में खरपतवार के रूप में उगता है तथा शीत ऋतु में भी देखा जाता है।   इसमें आंवले की भांति संयुक्त पत्तियां लम्बी सींक पर दो कतारों में लगी रहती है।  प्रत्येक छोटी पत्ती के पीछे तरफ अक्ष से हल्के सफ़ेद रंग के छोटे-छोटे पुष्प एकल रूप में बनते है जो बाद में हरे गोल छोटे फल के रूप में परिवर्तित हो जाते है।  एक पौधे से हजारों की संख्या में फल एवं बीज पैदा होते है. पौधों में पुष्पन एवं फलन अगस्त से अक्टूबर तक होता रहता है।  इसका पूरा पौधा मूत्र वर्धक, मृदुरेचक, पाचक, कटुपौष्टिक तथा अवरोधनाशक होता है।  इसकी जड़ एवं पत्तियों का ताजा  अर्क  पीलिया रोग की कारगर औषधि है।  पेट दर्द, कब्ज, अतिसार, सुजाक,पेचिस आदि रोगों में इसका काढ़ा पीने से लाभ होता है। जड़ का काढ़ा पीलिया एवं ज्वर नाशक, दुग्ध स्त्राव वर्धक एवं महिलाओं में अत्यधिक् मासिक स्त्राव रोकने वाला होता है।  पत्तियों का रस अथवा अर्क सेवन से हिपैटाइटिस बी जैसी घातक यकृत व्याधि के उपचार में सहायता मिलती है।चर्म रोग, अल्सर,घमोरी, खरोंच, जले-कटे भाग पर इसकी पत्तियों का प्रलेप लगाने से आराम मिलता है।  इसके फलों एवं बीजों का सफ़ेद दूध चर्म विकार एवं सूजन में लगाने से लाभ मिलता है।  इसके फल अल्सर, घाव भरने एवं दाद-खाज के उपचार में उपयोगी है।

19.फिजलिस मिनिमा (परपोटी), कुल- सोलानेसी
परपोटी पौधा फोटो बालाजी फार्म, दुर्ग
इस पौधे के अंग्रेजी में ग्राउंड चेरी एवं सन बेरी तथा हिंदी में पोपटी, चिरपोटी, रसभरी  एवं परपोटी के नाम से जाना जाता है।  यह पौधा सिंचित क्षेत्रों में सभी प्रकार की भूमियों में खरपतवार के रूप में उगता है।  इस पौधे में पीले रंग के पुष्प तथा बीज गोल आवरण में ढकें रहते है।  इसके फल गोल खाने में खट्टे-मीठे स्वादिष्ट  होते है।  इसमें अगस्त से जनवरी तक पुष्पन एवं फलन होता है।  इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण होते है।  इसके पौधे एवं फलों  का प्रयोग मूत्र सम्बंधित विकारों के उपचार में किया जाता है।  इसके फलों में एंटीओक्सिडेंट मौजूद होते है।  इसके सेवन से शरीर का वजन घटाने में फायदा होता है।  खांसी, हिचकी, श्वांस रोगों में इसके फल का चूर्ण लाभकारी पाया गया है।  इसके पौधे की पत्तियों का काढ़ा पाचन शक्ति बढ़ने, भूख बढ़ाने, लिवर को स्वस्थ रखने एवं शरीर के अन्दर की सूजन को कम करने में लाभकारी है।  चमड़ी के सफ़ेद दाग पर इसकी पत्तियों का लेप लगाने से फायदा होता है।  रसभरी का अर्क पेट के रोग एवं रक्त शोधन में भी उपयोगी होते है।  पत्तियों के रस को सरसों के तेल में मिलकर कान में डालने से कान दर्द में रहत मिलती है।
20.पेडालियम मुरेक्स (गोखुरू बड़ा),  कुल-पेडालियेसी
इस पौधे को अंग्रेजी में

नोट : मानव शरीर को स्वस्थ्य रखने में खरपतवारों/वनस्पतियों के उपयोग एवं महत्त्व को हमने ग्रामीण क्षेत्रों के वैद्य/बैगा/ आयुर्वेदिक चिकित्स्कों के परामर्श तथा विभिन्न शोध पत्रों/ आयुर्वेदिक ग्रंथों एवं स्वयं के अनुभव से उपयोगी जानकारी उक्त वनस्पतियों के सरंक्षण एवं जनजागृति एवं किसान एवं ग्रामीण भाइयों के लिए आमदनी के अतिरिक्त साधन बनाने  के उद्देश्य से प्रस्तुत की है। अतः किसी वनस्पति का रोग निवारण हेतु उपयोग करने से पूर्व आयुर्वेद चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेवें। किसी भी रोग निवारण हेतु हम इनकी अनुसंशा नहीं करते है। अन्य उपयोगी वनस्पतियों के बारे में उपयोगी जानकारी के लिए हमारा अगला ब्लॉग देख सकते है। 
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