डाँ.जी.एस.तोमर
कृषि महाविद्यालय, इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (
सब्जी ही नहीं संतुलित आहार है आलू
अमीरों का महल हो या गरीब की झोपड़ी, ढाबा हो या फिर पंच सितारा होटल सभी जगह भोजन की थालियो में आलू का जयका अवश्य रहता है । तमाम गुणों से परिपूर्ण सब्जियों के सम्राट के रूप में प्रतिस्थापित आलू एक सब्जी ही नहीं वरन सम्पूर्ण आहार है । भारत में शायद ही कोई ऐसा रसोई घर होगा जहाँ पर आलू ना दिखे । इसकी मसालेदार तरकारी, पकौड़ी, चॉट, पापड चिप्स जैसे स्वादिष्ट पकवानो के अलावा अंकल चिप्स, भुजिया और कुरकुरे भी हर जवां के मन को भा रहे हैं। प्रोटीन, स्टार्च, विटामिन सी और के अलावा आलू में अमीनो अम्ल जैसे ट्रिप्टोफेन, ल्यूसीन, आइसोल्यूसीन आदि काफी मात्रा में पाये जाते है जो शरीर के विकास के लिए आवश्यक है।
भारत में आलू की खेती 1810.8 हजार हेक्टेयर में की जाती है जिससे 28580.2 हजार टन उत्पादन प्राप्त ह¨ता है । हमारे देश में आलू की औसत उपज 158 क्विंटल प्रति हेक्टर के आस-पास है, जो कि विश्व ओसत उपज (178 क्विंटल प्रति हैक्टर) से कम है । छत्तीसगढ़ में 32.1 हजार हेक्टेयर से 358.5 हजार टन आलू पैदा किया जा रहा है परन्तु ओसत उपज (111.7 क्विंटल प्रति हैक्टर) के मामले में हम देश के अन्य राज्यो से फिस्सड्डी बने हुए है । जबकि केरल, गुजरात तथा पंजाब के किसान तकरीबन 250 क्विंटल प्रति हैक्टर की उपज ले रहे है। छत्तीसगढ के सरगुजा जिले के मैनपाट एवं सामरी पाट (पहाड़ी क्षेत्र ) में आलू की खेती वर्षा ऋतु में की जाती है जबकि जशपुर , कोरिया, सरगुजा, रायपुर, बिलासपुर, बस्तर एवं रायगढ़ में आलू की खे ती प्रायः रबी ऋतू में की जाती है । छत्तीसगढ़ में आलू की खेती की व्यापक संभावनाओ को देखते हुए राज्य सरकार के सहयोग से इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय ने अंबिकापुर के मैनपाट में आलू अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की है जिसके तहत आलू फसल पर गहन शोध कर उन्नत सस्य विधिया विकसित की जाएँगी जिसके फलस्वरूप आलू फसल के अंतर्गत क्षेत्र विस्तार तथा उत्पादकता बढ़ने के सुनहरे आसार है ।
आलू की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
आलू की उत्तम फसल के लिए ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है। मैदानी क्षेत्रो में बहुधा शीतकाल (रबी) में आलू की खेती प्रचलित है । आलू की वृद्धि एवं विकास के लिए इष्टतम तापक्रम 15- 25 डि से के मध्य होना चाहिए। इसके अंकुरण के लिए लगभग 25 डि से. वानस्पतिक संवर्धन के लिए 20 डि से. और कन्द विकास के लिए 17 से 19 डि से. तापक्रम की आवश्यकता होती है, उच्चतर तापक्रम (30 डि से.) होने पर आलू विकास की प्रक्रिया प्रभावित होती है । कन्द बनने के लिए आदर्श तापमान अक्टूबर से मार्च तक, लम्बी रात्रि तथा चमकीले छोटे दिन आलू बनने और बढ़ने के लिए अच्छे होते है। बदली भरे दिन, वर्षा तथा उच्च आर्द्रता का मौसम आलू की फसल में फफूँद व बैक्टीरिया जनित रोगों को फैलाने के लिए अनुकूल दशायें हैं।
भूमि का चयन और खेत की तैयारी
आलू की फसल विभिन्न प्रकार की मिट्टियो में उगाई जाती है परन्तु इसके लिये उपजाऊ, रन्ध्रमय, भुरभुरी, जीवांशयुक्त और चौरस भूमि जिसमें जल निकासी अच्छी हो , सर्वोत्तम मानी जाती है। मध्यम श्रेणी से लेकर हल्की दोमट भूमि भी आलू की खेती के लिए अच्छी रहती है। जल भराव वाली मिट्टीयों में आकंद विकृत और अविकसित रह जाते हैं एवं पैदावार कम होती है। इसकी खेती के लिए भूमी का पीएच मान 5.2 से 6.5 उवयुक्त रहता है। आलू बोई जाने वाली मृदाओ में पर्याप्त नमीं होनी चाहिये जिससे अँखुए सुगमता से उग सकें ।
भूमिगत फसल होने के कारण खेत की गहरी जुताई आवश्यक है। खेत की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। उसके उपरांत 3-4 जुताई देशी हल से या ट्रेक्टर से अगर जुताई करना है तो डिस्क हैरो से करें। आलू जमीन के अंदर आने वाली फसल होने के कारण खेत को भुरभुरा (पोला) करना आवश्यक रहता है। काली मिट्टी में बखर का प्रयोग किया जाता है । कूँड़े हल या रिजर से बनाई जाती है प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य चलायें । आखिरी जुताई के पहले 10 से 12 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में फैला कर अच्छी तरह मिला देना चाहिए।
भूमिगत फसल होने के कारण खेत की गहरी जुताई आवश्यक है। खेत की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। उसके उपरांत 3-4 जुताई देशी हल से या ट्रेक्टर से अगर जुताई करना है तो डिस्क हैरो से करें। आलू जमीन के अंदर आने वाली फसल होने के कारण खेत को भुरभुरा (पोला) करना आवश्यक रहता है। काली मिट्टी में बखर का प्रयोग किया जाता है । कूँड़े हल या रिजर से बनाई जाती है प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य चलायें । आखिरी जुताई के पहले 10 से 12 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में फैला कर अच्छी तरह मिला देना चाहिए।
उन्नत किस्में
आलू की बेहतर उपज के लिए अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्मो के स्वस्थ बीज का चयन करना आवश्यक है ।छतीसगढ़ के लिए सब्जी हेतु कुफरी अश¨का कुफरी पुखराज, कुफरी पुष्कर, कुफरी जवाहर, कुफरी ख्याति तथा प्रसंसकरण हेतु कुफरी चिप्स¨ना-1, कु.चिप्स¨ना-2, कु. चिप्स¨ना-3, कुफरी स¨ना आदि किस्मो की सिफारिस की गई है ।
छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त आलू की प्रमुख उन्नत किस्मो की विशेषताएंकिस्म का नाम अवधि (दिन) उपज (क्विंटल ./हे.) प्रमुख विशेषताएँ
कुफरी अशोका 70 - 90 200 - 250 सफेद व बड़े कंद।
कुफरी जवाहर 75 - 90 220 - 280 कंन्द मध्यम, ग¨ल, सफेद, गूदा पीला।
कुफरी पुखराज 75 - 100 350 - 370 सफेद, मध्यम, अण्डाकार, गूदा पीला।
कुफरी पुष्कर 100 - 120 240 - 260 कन्द मध्यम, अण्डाकार ।
कुफरी ख्याति 75 - 90 280 - 340 कन्द अण्डाकार, चपटे, गूदा सफेद ।
कुफरी चिप्स¨ना-2 90 - 110 170 - 230 मध्यम ग¨ल कन्द, प्रसंस्करण हेतु ।
कुफरी चिप्स¨ना-3 90 - 100 200 - 220 सफेद, मध्यम ग¨ल चपटे, प्रसंस्करण हेतु कुफरी सूर्या 90 - 100 230 - 275 मध्यम बड़े कन्द, चिप्स व फ्रैंच फ्रॉय हेतु
छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त आलू की प्रमुख उन्नत किस्मो की विशेषताएंकिस्म का नाम अवधि (दिन) उपज (क्विंटल ./हे.) प्रमुख विशेषताएँ
कुफरी अशोका 70 - 90 200 - 250 सफेद व बड़े कंद।
कुफरी जवाहर 75 - 90 220 - 280 कंन्द मध्यम, ग¨ल, सफेद, गूदा पीला।
कुफरी पुखराज 75 - 100 350 - 370 सफेद, मध्यम, अण्डाकार, गूदा पीला।
कुफरी पुष्कर 100 - 120 240 - 260 कन्द मध्यम, अण्डाकार ।
कुफरी ख्याति 75 - 90 280 - 340 कन्द अण्डाकार, चपटे, गूदा सफेद ।
कुफरी चिप्स¨ना-2 90 - 110 170 - 230 मध्यम ग¨ल कन्द, प्रसंस्करण हेतु ।
कुफरी चिप्स¨ना-3 90 - 100 200 - 220 सफेद, मध्यम ग¨ल चपटे, प्रसंस्करण हेतु कुफरी सूर्या 90 - 100 230 - 275 मध्यम बड़े कन्द, चिप्स व फ्रैंच फ्रॉय हेतु
बुआई सही समय पर
आलू की फसल शीघ्र तैयार ह¨ जाती है । कुछ किस्में तो 90 दिन में ही तैयार हो जाती है । अतः फसल विविधिकरण के लिए यह एक आदर्श नकदी फसल है । मक्का-आलू-गेहूँ, मक्का-आलू-मक्का, भिन्डी-आलू-प्याज, लो बिया-आलू-भिन्डी आदि फसल प्रणाली को विभिन्न राज्यो में अपनाया जा रहा है ।
आलू की बुआई का समय उसकी किस्म तथा जलवायु पर निर्भर करता है। वर्ष भर में आलू की तीन फसलें ली जा सकती है। आलू की अगेती फसल (सितम्बर के तीसरे सप्ताह से अक्टूबर प्रथम सप्ताह तक), मुख्य फसल (अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर के द्वितीय सप्ताह तक) तथा बसंतकालीन फसल (25 दिसम्बर से 10 जनवरी तक ) ली जा सकती है। जल्दी तैयार हो ने वाले आलू जब सितम्बर-अक्टूबर में बोये जाते है तब आलू बिना काटे ही बोये जाने चाहिए क्योकि काटकर बोने से ये गर्मी के कारण सड़ जाते है जिससे फसल उपज को भारी हांनि होती है । अल्पकालिक आलू सितम्बर में ब¨कर नवम्बर में काटा जा सकता है । साठा तथा अन्य उन्नत आलू इस श्रेणी में आते है ।
आलू की बुआई का समय उसकी किस्म तथा जलवायु पर निर्भर करता है। वर्ष भर में आलू की तीन फसलें ली जा सकती है। आलू की अगेती फसल (सितम्बर के तीसरे सप्ताह से अक्टूबर प्रथम सप्ताह तक), मुख्य फसल (अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर के द्वितीय सप्ताह तक) तथा बसंतकालीन फसल (25 दिसम्बर से 10 जनवरी तक ) ली जा सकती है। जल्दी तैयार हो ने वाले आलू जब सितम्बर-अक्टूबर में बोये जाते है तब आलू बिना काटे ही बोये जाने चाहिए क्योकि काटकर बोने से ये गर्मी के कारण सड़ जाते है जिससे फसल उपज को भारी हांनि होती है । अल्पकालिक आलू सितम्बर में ब¨कर नवम्बर में काटा जा सकता है । साठा तथा अन्य उन्नत आलू इस श्रेणी में आते है ।
बीज का चुनाव सावधानी से
आलू की खेती में बीज का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि आलू उत्पादन में कुल लागत का 40 से 50 प्रतिशत खर्च बीज पर आता हैं। अतः आलू का बीज ही उत्पादन का मूल आधार है। शुद्ध किस्म का शक्तिशाली, उपजाऊँ, कीट-रोग मुक्त, कटा, हरा या सड़ा न हो। स्वस्थ्य और सुडोल बीज ही प्रयोग में लाना चाहिए। आलू के बीज की मात्रा आलू की किस्म, आकार, बोने की दूरी और भूमि की उर्वरा शक्ति पर निर्भर करती है। अगेती फसल में पूरा आलू बोते हैं, टुकड़े नहीं काटे जाते, क्योंकि उस समय भूमि में नमी अधिक होती है और कटे टुकड़ों के सड़ने की सम्भावना रहती है। बड़े आलू को टुकड़ों में काट लेते हैं। एक टुकड़ें में कम-से-कम 2-3 आँखें रहनी चाहिये। कटे हुए टुकड़े देर से बोई जाने वाली फसल में प्रयोग करते हैं क्योंकि उस समय इनके सड़ने की सम्भावना नहीं रहती है। इसके अलावा काटने से आलुओं की सृषुप्तावस्था समाप्त हो जाती है और अंकुरण शीघ्र होने लगता है।
अंकुरण एवं रोग से सुरक्षा हेतु बीज उपचार
शीतगृह से तुरन्त निकाले गये आलू को बोने से अंकुरण देर से एवं एकसार नहीं होता है। अतः बीज वाले आलू को शीत गृह से बुआई के 10-15 दिन पहलले निकाल कर ठंडी एवं छायादार जगह पर फैला देना चाहिए जिससे आलू में अंकुर फूट जाते हैं एवं फसल अंकुरण अच्छा तथा एक समान होगा। आलू के टुकड़ों या साबुत आलू को बुआई से पहले 0.25 प्रतिशत अगलाल 3 ग्राम या डायथ्¨न एम-45 दवा 2-2.5 ग्राम या बाविस्टीन 1-1.5 ग्राम को पानी में घोलकर 10-20 मिनिट डुबोने के बाद बोना चाहिए। इससे कन्दों को स्कर्फ व सड़न रोग से बचाया जा सकता है। अगेती बुआई में यदि कटे हुए कन्द बोना है तो टुकड़ों को 0.20 प्रतिशत मेन्कोजेब के घोल में 10 मिनट तक डुबोकर बीज को उपचारित कर बोना चाहिए।
कन्दो की सुषुप्ता अवस्था तोड़ने के लिए कन्दों को 1 प्रतिशत थायोयूरिया (1 किग्रा. थायोयूरिया 100 लीटर पानी के साथ) और 1 पीपीएम जिबे्रलिक अम्ल (1 मिग्रा. जिब्रेलिक अम्ल 1 लीटर पानी के साथ) के घोल में प्रति 10 क्विंटल कन्दों के हिसाब से 1 घंटा तक उपचारित करना चाहिए। इसके बाद 3 प्रतिशत इथीलीन क्लोरोहाइड्रीन घोल से उपचारित कर कन्दों को तीन दिन के लिए बन्द कमरे में रखना चाहिए।
कन्दो की सुषुप्ता अवस्था तोड़ने के लिए कन्दों को 1 प्रतिशत थायोयूरिया (1 किग्रा. थायोयूरिया 100 लीटर पानी के साथ) और 1 पीपीएम जिबे्रलिक अम्ल (1 मिग्रा. जिब्रेलिक अम्ल 1 लीटर पानी के साथ) के घोल में प्रति 10 क्विंटल कन्दों के हिसाब से 1 घंटा तक उपचारित करना चाहिए। इसके बाद 3 प्रतिशत इथीलीन क्लोरोहाइड्रीन घोल से उपचारित कर कन्दों को तीन दिन के लिए बन्द कमरे में रखना चाहिए।
बीज का आकार एवं लगाने की दूरी
आलू के स्वस्थ बीज 25 ग्राम से 125 ग्राम वजन के होना चाहिए । इनकी मोटाई 25 से 65 मिमी. हो सकती है ।इससे कम या अधिक आकार या भार का बीज आर्थिक दृष्टिकोण से लाभप्रद नहीं है क्योंकि अधिक बड़े टुकड़े बोने से अधिक व्यय होता है तथा कम आकार या भार के टुकड़े बोने से उपज में कमी आती है। कन्द वजन के अनुसार र¨पण दूरी एवं बीज दर निम्नानुसार रखी जानी चाहिए ।
बीज कंद का भार (ग्रा.) कतार से कतार दूरी (सेमी.) बीज से बीज दूरी (सेमी. बीज दर (क्विंटल प्रति हे.)
25-30 60 10-20 19-23
30-50 60 20 25-41
50-60 60 30 27-33
60-100 60 40 25-42
उर्वरा भूमि में छोटे बीजो को पास-पास बोना अच्छा रहता है । कमजोर भूमि में मोटा बीज बोने में अधिक अन्तर रखाना लाभकारी होता है ।आलू बोने की गहराई बीज के आकार, भूमि की किस्म और जलवायु पर निर्भर करती है। बलुई भूमि में गहराई 10-15 सेमी. और दोमट भूमि में 8-10 सेमी. गहराई पर बोनी करनी चाहिए। कम गहराई पर बोने से आलू सूख जाते हैं और अधिक गहराई पर नमी की अधिकता से बीज सड़ सकता है।
बीज कंद का भार (ग्रा.) कतार से कतार दूरी (सेमी.) बीज से बीज दूरी (सेमी. बीज दर (क्विंटल प्रति हे.)
25-30 60 10-20 19-23
30-50 60 20 25-41
50-60 60 30 27-33
60-100 60 40 25-42
उर्वरा भूमि में छोटे बीजो को पास-पास बोना अच्छा रहता है । कमजोर भूमि में मोटा बीज बोने में अधिक अन्तर रखाना लाभकारी होता है ।आलू बोने की गहराई बीज के आकार, भूमि की किस्म और जलवायु पर निर्भर करती है। बलुई भूमि में गहराई 10-15 सेमी. और दोमट भूमि में 8-10 सेमी. गहराई पर बोनी करनी चाहिए। कम गहराई पर बोने से आलू सूख जाते हैं और अधिक गहराई पर नमी की अधिकता से बीज सड़ सकता है।
बोआई की विधियाँ
आलू की बोआई की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं जो कि भूमि की किस्म, नमी की मात्रा, यंत्रों की उपलब्धता, क्षेत्रफल आदि कारकों पर निर्भर करती है। आलू लगाते समय खेत में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है। लगाने के तुरन्त बाद सिंचाई करना उचित नहीं रहता हैं। आलू बोने की निम्न विधियाँ हैं-
1. समतल भूमि में आलू बोना: हल्की दोमट मृदाओं के लिए यह सर्वोत्तम विधि है। रस्सी की सहायता से अभीष्ट दूरी पर कतारे बनाकर देशी हल या कल्टीवेटर या प्लान्टर से कूँड़ बना ली जाती है। इन्हीं कूँडों में अभीष्ट दूरी पर आलू बो दिये जाते हैं। बोने के पश्चात् आलुओं को पाटा चलाकर मिट्टी से ढँक दिया जाता है।
2. समतल भूमि में आलू बोकर मिट्टी चढ़ानाः इस विधि में खेत में 60 सेमी. की दूरी पर कतार बना ली जाती है। इन कतारों में 15-25 सेमी. की दूरी पर आलू के बीज रख दिये जाते हैं। इसके बाद फावड़े से बीजों पर दोनों ओर से मिट्टी चढ़ा दी जाती है। हल्की भूमि में बनी हुई कतारों पर 5 सेमी. गहरी कूँड़ें बनाकर आलू के बीज बो दिये जाते हैं और पुनः मिट्टी चढ़ा दी जाती है।
3. मेंड़ों पर आलू की बुआई: इस विधि में मेंड बानने वाले यंत्रों की सहायता से अभीष्ट दूरी पर मेंड़ें बना ली जाती हैं मेंड़ों की ऊँचाई प्रारम्भ में 15 सेमी. रखी जाती है। तत्पश्चात् 15-25 सेमी. की दूरी पर 8-10 सेमी. की गहराई पर आलू के बीजों को खुरपी की सहायता से मेंड़ों पर गाड़ देते हैं। अधिक नम व भारी भूमि के लिए यह विधि उपयुक्त रहती है क्योंकि मेंड़ों पर बोने से नमी कम हो जाती है।
4. पोटैटो प्लाण्टर से बुआईः पोटैटो प्लांटर से मेंड व कूँड़ बनाते चलते हैं। पहली मेंड पर आलू बो दिये जाते हैं। जब प्लांटर पहली कूँड़ के पास से दूसरी कूँड़ में गुजरता है तो पहली मेंड पर बोये हुए कन्दों को हल्की मिट्टी से ढँकता हुआ चला जाता है और अगली मेंड और कूँड तैयार हो जाते हैं।
5. दोहरा कूँड़ विधि: इस विधि में आलू की दो पंक्तियाँ एकान्तर विधि से बोई जाती हैं। दो पंक्तियों के मध्य 75 सेमी. की दूरी रखते हैं। यदि बुआई मेंड़ियों पर करनी है, तब इनकी चैड़ाई 75 सेमी. रखते हैं और आलू की दो पंक्तियाँ इसी मेंड़ी पर बनाकर बोआई करते हैं। इस विधि से अंकुरण और आलू का विकास अच्छा होता है। यह विधि पंजाब में प्रचलित है ।
1. समतल भूमि में आलू बोना: हल्की दोमट मृदाओं के लिए यह सर्वोत्तम विधि है। रस्सी की सहायता से अभीष्ट दूरी पर कतारे बनाकर देशी हल या कल्टीवेटर या प्लान्टर से कूँड़ बना ली जाती है। इन्हीं कूँडों में अभीष्ट दूरी पर आलू बो दिये जाते हैं। बोने के पश्चात् आलुओं को पाटा चलाकर मिट्टी से ढँक दिया जाता है।
2. समतल भूमि में आलू बोकर मिट्टी चढ़ानाः इस विधि में खेत में 60 सेमी. की दूरी पर कतार बना ली जाती है। इन कतारों में 15-25 सेमी. की दूरी पर आलू के बीज रख दिये जाते हैं। इसके बाद फावड़े से बीजों पर दोनों ओर से मिट्टी चढ़ा दी जाती है। हल्की भूमि में बनी हुई कतारों पर 5 सेमी. गहरी कूँड़ें बनाकर आलू के बीज बो दिये जाते हैं और पुनः मिट्टी चढ़ा दी जाती है।
3. मेंड़ों पर आलू की बुआई: इस विधि में मेंड बानने वाले यंत्रों की सहायता से अभीष्ट दूरी पर मेंड़ें बना ली जाती हैं मेंड़ों की ऊँचाई प्रारम्भ में 15 सेमी. रखी जाती है। तत्पश्चात् 15-25 सेमी. की दूरी पर 8-10 सेमी. की गहराई पर आलू के बीजों को खुरपी की सहायता से मेंड़ों पर गाड़ देते हैं। अधिक नम व भारी भूमि के लिए यह विधि उपयुक्त रहती है क्योंकि मेंड़ों पर बोने से नमी कम हो जाती है।
4. पोटैटो प्लाण्टर से बुआईः पोटैटो प्लांटर से मेंड व कूँड़ बनाते चलते हैं। पहली मेंड पर आलू बो दिये जाते हैं। जब प्लांटर पहली कूँड़ के पास से दूसरी कूँड़ में गुजरता है तो पहली मेंड पर बोये हुए कन्दों को हल्की मिट्टी से ढँकता हुआ चला जाता है और अगली मेंड और कूँड तैयार हो जाते हैं।
5. दोहरा कूँड़ विधि: इस विधि में आलू की दो पंक्तियाँ एकान्तर विधि से बोई जाती हैं। दो पंक्तियों के मध्य 75 सेमी. की दूरी रखते हैं। यदि बुआई मेंड़ियों पर करनी है, तब इनकी चैड़ाई 75 सेमी. रखते हैं और आलू की दो पंक्तियाँ इसी मेंड़ी पर बनाकर बोआई करते हैं। इस विधि से अंकुरण और आलू का विकास अच्छा होता है। यह विधि पंजाब में प्रचलित है ।
पर्याप्त और संतुलित पोषण
आलू की अच्छी उपज के लिए खाद एवं उर्वरकों की प्रचुर मात्रा प्रदान करना आवश्यक है। फसल को पोषक तत्वों की पूर्ति जैविक खाद एवं उर्वरकों के माध्यम से करना लाभप्रद रहता है। गोबर की खाद 5-10 टन प्रति हैक्टर के प्रयोग से उपज में 15-20 प्रतिशत की बढ¨त्तरी देखी गई है । इसी प्रकार से 50 क्विंटल प्रति हैक्टर मुर्गी की खाद से भी उपज में 25-30 प्रतिशत का इजाफा संभावित है । इन खादों को बोने के 15-20 दिन पूर्व खेत जोतकर अच्छी प्रकार से मिलाना चाहिए। इससे भूमि की भौतिक, रासायनिक और जैविक दशाओं में सुधार होता है जो कन्द की वृद्धि के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने में सहायक होता है। इसके अलावा मृदा परीक्षण के आधार पर संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग आवश्यक रहता है। आलू की वानस्पतिक वृद्धि के लिए नत्रजन अति आवश्यक है। कंदों की वृद्धि एवं विकास में नत्रजन के साथ-साथ फास्फोरस तथा पोटाश की भी आवश्यकता होती है। इनके प्रयोग से कंदों का आकार बढ़ता है, कंदों का निर्माण होता है तथा सूखा सहन करने की शक्ति और रोग रोधिता बढ़ती है। आलू की अगेती फसल के लिये 100 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. स्फुर एवं 100 किग्रा., पोटाश की आवश्यकता होती है। शीतकालीन या मुख्य फसल में 120 किग्रा. नत्रजन, 80 किग्रा., स्फुर एवं 125 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रयोग करनी चाहिये। बसन्त कालीन या पछेती फसल के लिए 100 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. स्फुर एवं 100 किग्रा. पोटाश की आवश्यकता होती है। आलू की बुआई करते समय 25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से जिंक सल्फेट का प्रयोग करने से कन्द की उपज बढ़ती है।
स्फुर एवं पोटाश की संपूर्ण मात्रा एवं नत्रजन की 75 प्रतिशत मात्रा आलू के कंदों को लगाते समय दो मेंड़ों के बीच की नालियों में देना चाहिए, ताकि मिट्टी चढ़ाते समय उर्वरक मिट्टी में मिल जाये और उर्वरक एवं मिट्टी का मिश्रण मेंड़ों पर जमा हो जाये। नत्रजन की शेष 25 प्रतिशत मात्रा टापड्रेसिंग के रूप में बुआई के 35-40 दिन बाद मिट्टी चढ़ाते समय दी जानी चाहिये। नाइट्रोजन की तरह पोटाश को भी दो बराबर भागों में बाँटकर दिया जा सकता है जिससे आलू के कंद की गुणवत्ता एवं भंडारण क्षमता में वृद्धि देखी गयी हैं।
स्फुर एवं पोटाश की संपूर्ण मात्रा एवं नत्रजन की 75 प्रतिशत मात्रा आलू के कंदों को लगाते समय दो मेंड़ों के बीच की नालियों में देना चाहिए, ताकि मिट्टी चढ़ाते समय उर्वरक मिट्टी में मिल जाये और उर्वरक एवं मिट्टी का मिश्रण मेंड़ों पर जमा हो जाये। नत्रजन की शेष 25 प्रतिशत मात्रा टापड्रेसिंग के रूप में बुआई के 35-40 दिन बाद मिट्टी चढ़ाते समय दी जानी चाहिये। नाइट्रोजन की तरह पोटाश को भी दो बराबर भागों में बाँटकर दिया जा सकता है जिससे आलू के कंद की गुणवत्ता एवं भंडारण क्षमता में वृद्धि देखी गयी हैं।
फसल वढ़वार और कंद विकास के लिए करें सिंचाई
आलू उथली जड़ वाली फसल है अतः इसे बार-बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। सिंचाई की संख्या एवं अंतर भूमि की किस्म और मौसम पर निर्भर करता है। औसतन आलू की फसल की जल माँग 60-65 सेमी. होती है। बुआई के 3-5 दिन बाद पहली सिंचाई हल्की करनी चाहिए। अधिक उपज के लिए यह आवश्यक है कि मृदा सदैव नम रहे। जलवायु और मृदा की किस्म के अनुसार आलू में 5-10 सिंचाइयाँ देने की आवश्यकता पड़ती है। भारी मृदाओं में कम और हल्की मृदाओं में अधिक पानी की आवश्यकता होती है। नाली का केवल आधा भाग ही पानी से भरना अच्छा होता हैं। सिंचाई सदैव 50 प्रतिशत उपलब्ध मृदा जल पर कर देनी चाहिए। सिंचाई की सीमित व्यवस्था होने पर सिंचाई के कूड़ों की लंबाई कम कर देनी चाहिए। मृदा में नमी की हानि रोकने के लिए नालियों में पलवार बिछा देनी चाहिए। आलू की फसल में देहांकुर बनते समय, मिट्टी चढ़ाने के बाद और कंदों की वृद्धि के समय सिंचाई करना आवश्यक रहता है। सिंचाई की इन क्रांतिक अवस्थाओं के समय खेत में नमी की कमी से उपज में बहुत गिरावट हो जाती है।
आलू की सिंचाई करते समय नालियों में पानी का बहाव तेज नहीं होना चाहिए। इससे मेड़ियाँ कट जाती है जिससे कंद खुल जाते हैं। सूर्य के प्रकाश से ये कन्द हरे हो जाते हैं। खेत में जल निकास का उचित प्रबन्ध होना चाहिए। जल भराव की स्थिति में कन्द सड़ जाते हैं। आलू की खुदाई के पूर्व सिंचाई बन्द कर देनी चाहिये।
आलू की सिंचाई करते समय नालियों में पानी का बहाव तेज नहीं होना चाहिए। इससे मेड़ियाँ कट जाती है जिससे कंद खुल जाते हैं। सूर्य के प्रकाश से ये कन्द हरे हो जाते हैं। खेत में जल निकास का उचित प्रबन्ध होना चाहिए। जल भराव की स्थिति में कन्द सड़ जाते हैं। आलू की खुदाई के पूर्व सिंचाई बन्द कर देनी चाहिये।
खेत रखे खरपतवार मुक्त
आलू की फसल के साथ उगे खरपतवार को नष्ट करने हेतु आलू की फसल में एक बार ही निंदाई गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है, जिसे बुआई के 25-30 दिन बाद कर देना चाहिये। गुड़ाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि भूमि के भीतर के तने बाहर न आ जायँ नहीं तो वे सूर्य की रोशनी से हरे हो जाते है । रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण आर्थिक रूप से लाभप्रद रहता है। इसके लिए मैट्रीब्यूजिन (सेंकर) 1 किग्रा. या आक्सीफ्लोरफैन (गोल) प्रति हेक्टेयर, 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बुआई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्व छिड़कना चाहिए। खड़ी फसल में एलाक्लोर 2 किलोग्राम को 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
पौधों पर मिट्टी चढ़ाएं
आलू की भरपूर और गुणवत्ता युक्त उपज लेने के लिए पौधों पर मिट्टी चढ़ाना आवश्यक रहता है। इससे कन्दों का विकास अच्छा होता है। मिट्टी न चढ़ाने से पौधों का आलू बनाने वाला भाग भूमि की ऊपरी सतह पर आकर हरे कन्द पैदा करने लगता है। खुले आलू के कन्दों में, सूर्य का प्रकाश या धूप पड़ने पर एन्थोसायनीन और क्लोरोफिल के संश्लेषण से, सोलेनिन नामक एल्केलाइड बनने लगता है। इससे आलू हरे रंग के होने लगते हैं, जो कि स्वाद में कसैले और स्वास्थ के लिए हांनिकारक होते है। इस प्रकार के आलुओं की गुणवत्ता खराब हो जाती है। अतः जब आलू के पौधे 10-15 सेमी. ऊँचे हो जाएँ, तब उन पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य (बोआई के 25-30 दिन) पहली सिंचाई के बाद करना चाहिए। यदि आलू की बुआई मशीन (प्लांटर) से की गई है, तब मिट्टी चढ़ाने की आवश्यकता नहीं होती है।
खुदाई एवं उपज
आलू की खुदाई उसकी किस्म और उगाये जाने के उद्देश्य पर निर्भर करती है। आलू की फसल उस समय पूरी तरह तैयार ह¨ जाती है, जब पौधे सूख जाँय, पत्ते पीले पड़ जाँय और खोदने पर आलू के छिलके न उतरें । यदि आलू के कंदो को खुदाई पश्चात् सीधे बाजार मे बिक्री हेतु भेजना हो तो क्यूरिंग की आवश्यकता नहीं होती है। संग्रहण से पूर्व आलुओं को हवादार व ठंडे स्थानों पर रखा जाता है जहाँ प्रकाश न आता हो। खुदाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि आकन्द पर किसी भी प्रकार का आघात न ह¨, नहीं त¨ उनके जल्द सड़ने का भय रहता है । उपलब्धता के अनुसार, आलू के कंदो की खुदाई यांत्रिक रूप से करने के लिए पोटेटो डिगर या मूँगफली हारवेस्टर का उपयोग किया जा सकता है। खुदाई के बाद आलुओ का ढेर बनाकर बोरी आदि से लगभग 3 दिन तक ढंक देना चाहिए जिससे उन पर धूप न लगे । ऐसा करने से कंदों पर लगी मिट्टी भी अलग ह¨ जाती है ।
अब लें भरपूर उपज
आलू की उपज, भूमि के प्रकार, खाद एवं उर्वरक, किस्म व फसल की देखभाल आदि कारकों पर निर्भर करती है। सामान्य रूप से आलू से 250 से 500 क्ंिवटल प्रति हैक्टर तक उपज ली जा सकती है । आलू की अगेती किस्मों से औसतन 250 से 320 क्ंिवटल एवं पिछेती किस्मों से 300 से 600 क्ंिवटल उपज प्राप्त की जा सकती है।
2 टिप्पणियां:
aap copy karne par lock system kar sakte hai
aapki jaankaari ko logo ke jankari ke liye mai apni wapsite me dal raha hu, jisme aapka naam jarur rahega, aapki jaankariya logo ke hit me hai so mujhe nahi lagta ki aapko koi problem honi chahiye agar koi problem ho to hume +919584336765 pe suchit kare
Pushpraj mishra
एक टिप्पणी भेजें