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रविवार, 16 अक्तूबर 2022

हर किसी को हर जगह पर्याप्त पौष्टिक खाद्यान्न की उपलब्धता एक बड़ी चुनौती

 विश्व खाद्य दिवस-2022  

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

आज हम इस वर्ष के विश्व खाद्य दिवस को ऐसे माहौल में मना रहे है जब पूरा विश्व समुदाय कोविड-19 महामारी से त्रस्त है। जलवायु परिवर्तन की वजह से बढ़ते तापमान, रूस-युक्रेन युद्ध, अंतराष्ट्रीय तनाव के कारण रोजमर्रा की वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों से हैरान-परेशान है। इसका असर वैश्विक खाद्य सुरक्षा पर भी पड़ रहा है। इसलिए  हर किसी को और हर जगह पर्याप्त पौष्टिक भोजन की नियमित पहुँच के लिए यथोचित स्थायी समाधान  पूरे विश्व की पहली प्राथमिकता बन गई है।

विश्व में कृषि उत्पादकता बढ़ाने, पर्याप्त खाद्यान्न  उपलब्धतता सुनिश्चित के साथ-साथ ग्रामीण आबादी के जीवन निर्वाह में सुधार करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 16  अक्टूबर, 1945 को रोम में खाद्य और कृषि संघठन (FAO) की स्थापना की गई। इस विशेषज्ञता प्राप्त संगठन ने पूरी दुनिया में  भुखमरी एवं कुपोषण की समस्या एवं इसके समाधान  हेतु जनजागरूकता फ़ैलाने के उद्देश्य से 16 अक्टूबर 1980 से मनाने की शुरुआत की थी। तब से अमूमन विश्व के सभी देश हर वर्ष एक नई थीम के साथ विश्व खाद्य दिवस मना रहे है।


इस वर्ष के विश्व खाद्य दिवस  का मुख्य विषय यानी थीम लीव नो वन बिहाइन्डयानी कोई पीछे न छूट जाए’ अर्थात पोषण युक्त भोजन हर जगह प्रत्येक इंसान  को मिलना चाहिए। परन्तु विश्व खाद्य दिवस हम पिछले 42 वर्ष से अनवरत रूप से मनाते आ रहे है लेकिन भुखमरी एवं कुपोषण की समस्या घटने की बजाय बढती ही जा रही है। अक अनुमान के अनुसार पूरे विश्व में लगभग 10% (करीब 3 अरब) लोग कुपोषण से ग्रस्त है, जिसमें से बड़ी संख्या में लोग जान गंवाते जा रहे है। भारत की  लगभग एक थोथाई आबादी भूख और कुपोषण से जूझ रही है।

जीवन के लिए सबसे जरूरी चीज है भोजन, और दुनिया इस समय इसके अभूतपूर्व संकट से गुजर रही है। भारत में तो खाद्यान्नों का अभाव नहीं, लेकिन अनेक देशों में स्थिति विकट है। वर्ल्ड फूड प्रोग्राम (WFP) के अनुसार कोविड-19 महामारी से पहले 2019 में दुनिया में 13.5 करोड़ लोग भीषण खाद्य संकट से जूझ रहे थे और आज 82 देशों में 34.5 करोड़ लोग भीषण खाद्य संकट का सामना कर रहे हैं।  इतना ही नहीं बीते वर्ष पांच लाख लोगों की तो भूख से मौत हो गई।

भारत ने बीते 70 वर्षों में खाद्यान्न उत्पादन छह गुना से ज्यादा बढ़ा कर पहले ही आत्मनिर्भरता हालिल कर ली है । 1950-51 में  जहां देश में सिर्फ 5.08 करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादन हुआ था, जो  वर्तमान में 31.57 करोड़ टन से अधिक हो गया। इसके अलावा हमारा देश दलहन, गन्ना, फल-सब्जी, दूध आदि के उत्पादन में भी श्रेष्ठ प्रदर्शन कर रहे है। आज हमारा देश खाद्यान्न सहित बहुत सी कृषि जिंसों का निर्यात कर रहा है बल्कि जरूरतमंद देशों को मानवीय आधार पर भी मदद कर रहे हैं।

भारत में खाद्य सुरक्षा की नहीं, बल्कि खाद्यान्न वितरण एवं पौष्टिक अनाज की अपर्याप्त उपलब्धता एक बड़ी समस्या है। वर्ल्ड फूड प्रोग्राम (WFP) के अनुसार अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर होने के बावजूद दुनिया के एक चौथाई अल्पपोषित और कुपोषित भारत में ही हैं। खाद्य और कृषि संघठन के अनुसार वर्ष 2018-20 के दौरान दुनिया में 68.39 करोड़ अल्पपोषित आबादी में से 20.86 करोड़  भारत में निवासरत थी।

कुपोषण मुक्त विश्व: भारत की पहल

मोटे अनाज (मिलेट्स) पोषण सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। गेंहू और चावल की अपेक्षा मोटे अनाज की खेती आसान होने के साथ-साथ इनमें प्रोटीन, फाइबर, विटामिन, खनिज तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। आयरन की उच्च मात्रा होने ये अनाज शिशुओं और महिलाओं में रक्त अल्पता (एनीमिया) रोकने में सक्षम है। यही नहीं मोटे अनाज मधुमेह, ह्रदय रोग एवं मोटापे से पीड़ित लोगों के लिए वरदान साबित हो रहे है। इसलिए आजकल मोटे अनाजों को सुपर फ़ूड का दर्जा दिया जा रहा है। मोटे अनाजों के महत्व को पुनः प्रतिपादित करने एवं लोगों में जनजागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से वर्ष 2018 को राष्ट्रिय मिलेट दिवस के रूप में मनाया गया और भारत सरकार ने इन फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य बढाने के साथ ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली में इन फसलों को भी शामिल किया है।

बीते कुछ वर्षों में खाद्य उपभोग के पैटर्न में बदलाव आया है जहाँ पहले खाद्य उपभोग में विविधता के लिये पारंपरिक अनाज (ज्वार, जौ, जई,बाजरा, रागी, कोदो, कुटकी आदि) उपयोग में लाया जाता था और तब लोग स्वस्थ रहते थे. वर्तमान में इनका उपभोग कम हो गया है, जिससे  देश के बड़ी आबादी को कुपोषण एवं स्वास्थ्यजनक अन्य समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। पारंपरिक अनाज, फल और अन्य सब्जियों के उत्पादन में कमीं  की वजह से भी इनकी खपत में कमीं हुई जिससे खाद्य और पोषण सुरक्षा प्रभावित हुई।

भारत मिलेट्स का सबसे बड़ा उत्पादक है। पौष्टिक तत्वों की अधिक मात्रा होने के कारण मिलेट को चमत्कारी अनाज भी कहा जाता है। आयुर्वेद और विज्ञान में मिलेट का नियमित सेवन स्वास्थ्य के लिए उत्तम माना गया है। इसलिए  राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत मिलेट का रकबा और उत्पादकता बढ़ाने के प्रयास हो रहे हैं। भारत की पहल पर संयुक्त राष्ट्र ने 2023 को मिलेट वर्ष घोषित किया है। इससे मोटे अनाजों के उपभोग एवं इनकी खेती करने किसानों में उत्साह पैदा होगा. इससे पोषण युक्त खाद्य पदार्थों के उत्पादन एवं उपभोग में वृद्धि होगी और इसकी खेती करने वाले छोटे-मझोले  किसानों  की आमदनी  में इजाफा  होने के साथ-साथ ग्रामीण  क्षेत्रों में मोटे अनाज की खपत बढ़ने से कुपोषण की समस्या समाप्त होगी । उल्लेखनीय है कि  मोटे अनाज सूखा प्रतिरोधी फसले है और इनका वृद्धि काल 70 से 100 दिन का होता है. इना फसलों को चावल व गेंहू की तुलना में बहुत कम जल एव उर्वरक की जरुरत पड़ती है. कीट एवं रोगों से कम प्रभावित होने के अलावा जलवायु परिवर्तन का प्रभाव इन फसलों पर कम पड़ता है. इनकी खेती में लागत कम आने और बाजार में इनकी मांग बढ़ने  के कारण  छोटे एवं मध्यम किसानों के लिए मोटे अनाज लाभकारी फसले सिद्ध हो रही है ।  इन फसलों का उपयोग एवं उपभोग बढ़ने से किसानों को इनका बेहतर मूल्य मिलेगा जिससे उनके जोवन स्तर में सुधार होगा ।

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2022

विश्व कपास दिवस-2022: कपास के लिए बेहतर भविष्य की आस

 आज हमने अन्य राष्ट्रिय और अंतराष्ट्रीय दिवसों की भाँती विश्व कपास दिवस (World Cotton Day) मनाने की औपचारिकता पूरी कर ली है. इस वर्ष  विश्व कपास दिवस 2022 का मुख्य विषय  'वीविंग अ बेटर फ्यूचर फॉर कॉटन या "कपास के लिए एक बेहतर भविष्य बुनना" रखा गया है, जो हमें आने वाले समय में कपास की उपज और गुणवत्ता को टिकाऊ बनाये रखने का आव्हान करता है.  


संसार में सबसे अधिक कपास पैदा करने वाले देशों में भारत का नाम दर्ज है और कपास निर्यातक देशों में भी हम तीसरे स्थान पर है. भा
रत में अनुमानित 60 लाख कपास किसान हैं और 40-50 मिलियन लोगों की रोजी रोटी कपास प्रसंस्करण और व्यापार संबंधित गतिविधियों में लगे हुए हैं।  विश्व  प्रसिद्ध ब्रांड के जींस, डेनिम, लेवी आदि कपास का उपयोग करते है. अमेरिका सहित अधिकांश राष्ट्र बैंक नोट बनाने में 75 % कपास और 25 % लिनन के मिश्रण का उपयोग करते है. कपास  एक बहुउद्देशीय व्यवसायिक फसल है जिससे कपड़ा  उद्योग को कच्चा माल, पशुपालन के लिए बिनौला, चिकित्सा, गद्दे, तकिये आदि   हेतु रुई, खाध्य तेल  आदि उपलब्ध  कराने में भी महत्वपूर्ण योगदान देता है. इसका अर्थ हुआ की देश की अर्थव्यवस्था में कपास का महत्वपूर्ण स्थान है. हमारे देश में कपास की प्रति इकाई उपज अन्य विकसित देशों से कम है. कपास की उपज बढ़ने से किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी और इसके लिए सरकार के सम्बंधित विभागों को कपास की उन्नत किस्म के बीज, खाद एवं दवाएं समय पर उपलब्ध कराने के साथ-साथ कपाज उपज खरीदने के पुफ्ता इनजाम करने होंगे. किसानों को कपास उत्पादन की आधुनिक विधाओं से परिचित करना होगा, उन्हें शिक्षित प्रिशिक्षित करना होगा. किसानों की समृद्धि पर ही राष्ट्र की तरक्की निर्भर करती है. विश्व कपास दिवस पर देश के सभी किसानो, कृषि वैज्ञानिकों एवं कपड़ा उद्योग से जुड़े सभी नागरिकों एवं उपभोक्ताओं को हार्दिक भधाई प्रेषित करता हूँ.

बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

भूले-बिसरे पेड़-कैथा एक बहुपयोगी फल

                                                     डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर, प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, कृषि महाविद्यालय,  कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़) 

 

कैथ को  संस्कृत में कपित्थ व गंध फल, अंग्रेजी में  वुड ऐप्पल व मंकी फ्रूट और वनस्पति शास्त्र में लिमोनिया एसिडिसिमाके नाम से भी जाना जाता है। बेल के पेड़ जैसा दिखने वाला कैथा  एक पर्णपाती वृक्ष हैं जो जंगलों और बीहड़  में बहुतायत में पाए जाते हैं। इसकी शाखाओं पर नुकीले कांटे पाई जाते है इसकी पत्तियों को मसलने से नीबू जैसी महक आती है कैथा में हरे-पीले लाल रंग के पुष्प गुच्छो में आते है. कैंथा फल बेल फल जैसा दिखता है इसका कच्चा फल सफेद मिश्रित हरे रंग का और पका फल भूरे रंग का होता है। पके फलों का गूदा खट्टा-हल्का मीठा होता है जिसके अन्दर अनेक बीज पाए जाते है  

कैंथ के फूल-फल (फोटो साभार गूगल 
कैंथा फल में  प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन बी, विटामिन सी, थियामिन और राइबोफ्लेविन  के साथ-साथ   खनिज लवण (आयरन, कैल्शियम, फॉस्फोरस और ज़िंक) प्रचुर मात्रा में  पाए जाते है इसलिए यह फल स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है. कैंथा की छाल, पत्ती एवं जड़ का उपयोग विभिन्न प्रकार के रोगों के उपचार में प्रयुक्त किये जाते है इसके फल शरीर में ठंडक पहुचाने के साथ साथ कोलेस्ट्राल व ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करने में मदद करता है. रक्त विकार और कब्ज की समस्या दूर करने में सहायक होता है.इसकी पत्तियों का काढ़ा कोलेस्ट्रॉल के स्‍तर को कम करने में सहायक माना जाता है इसकी पत्तियों से निकाले गए तेल का प्रयोग खाज-खुजली एवं अन्य रोगों के उपचार में लाभकारी माना जाता है। इसकी  जड़ से बना काढ़ा ह्रदय रोग के लिए लाभकारी माना जाता है. कैंथ से विभिन्न प्रकार  के खाद्य पदार्थ जैसे  जैम, जेली, अमावट, शर्बत, चॉकलेट और चटनी तैयार की जाती है कैंथा के पेड़ के तने और शाखाओं में फेरोनी नामक गोंद पाया जाता है जिसके सेवन से शरीर में शर्करा लेवल नियंत्रित करने में मदद मिलती है. ग्रीष्मकाल में कैंथ फल का सेवन शरीर में ऊर्जा एवं स्फूर्ति बनाये रखने में मदद करता है आयुर्वेद में कैंथ को पेट रोगों का विशेषज्ञ मन गया है  कैंथ का शरबत  स्फूर्तिदायक एवं स्वास्थ्यवर्धक होता है। इसके फल की चटनी एवं सुखाकर बनाया गया चूर्ण भी लाभदायक माना जाता है  कैंथ की  लकड़ी हल्की भूरी, कठोर और टिकाऊ होती है। कैंथ के पेड़ों में सूखा सहने की अद्भुत क्षमता होती है खेत की मेंड़ों और बंजर भूमि में कैंथ का रोपण कर आर्थिक लाभ उठाया जा सकता है

जंगलों के विनाश एवं पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण बहुपयोगी कैंथ वृक्ष आज विलुप्ति के कगार पर है। अतः  किसान भाइयों एवं प्रकृति प्रेमियों को कैंथ के वृक्ष रोपण एवं उनके पालन पोषण में अग्रणी भूमिका निभाने की आवश्यकता है ताकि प्रकृति की अमूल्य धरोहर कैंथ के पेड़ों का विस्तार हो सके

नोट: कृपया बगैर लेखक/ब्लोगर कि अनुमति से इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित न करे

एक पेड़ दो मसाले-जायफल एवं जावित्री: स्वाद और सेहत के लिए प्रसिद्ध

 डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर, प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, कृषि महाविद्यालय,  कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

जायफल को संस्कृत में मालतीफल, अंग्रेजी में Nutmeg तथा वनस्पति विज्ञान में मिरिस्टिका फ्रेग्रेंस Myristica fragrans के नाम से जाना जाता है, जो Myristicaceae परिवार का वृक्ष है. इसका वृक्ष सदाबहार और 15-20 मीटर ऊंचा होता है. इसके फूल  छोटे-छोटे, सुगंधित और पीले-सफेद रंग के होते हैं। इसका फल छोटा, गोल या अण्डाकार हल्के लाल या पीले रंग का  गूदेदार होता है। फल पकने पर दो खण्डों में फट जाता है, जिसके अन्दर लाल सिंदूरी रंग की जावित्री (बीज के ऊपर मांसल कवच) दिखाई देती है। फल  सूखने पर जावित्री अलग हो जाती है। इसी जावित्री (Mace)के अन्दर एक गुठली होती है जिसे जायफल कहते है।



जायफल  अण्डाकार, गोल और बाहर से शमायला रंग का सिकुड़ा हुआ, और तीव्र गन्धयुक्त होता है। सर्दी- जुकाम से निजात देने में भी जावित्री काफी मदद करती है. इसमें एंटी-माइक्रोबियल (जीवाणुरोधी), एंटी-इंफ्लेमेटरी (सूजन कम करने वाले), एंटी-कैंसर और एंटीडायबिटिक गुण पाए जाते हैं।  इसे तंत्रिका तंत्र और लिवर  के लिए लाभकारी होने के साथ-साथ शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में कारगर मानी जाती है. जायफल के बीज से प्राप्त तेल का उपयोग इत्र और औषधी बनाने में किया जाता है। इसे  दस्त, मतली, पेट रोग और दर्द,  कैंसर, गठिया, गुर्दे की बीमारी और अनिद्रा के उपचार में कारगर माना जाता है। इस तेल का उपयोग माँसपेशियों के दर्द से राहत देने के लिए भी किया जाता है। जायफल की जेम, जेली, वाइन, कैंडी एवं अचार बनाया जाता है.

थार का कल्पवृक्ष है शमी (खेजड़ी) वृक्ष

 डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर 

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)

कृषि महाविद्यालय, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

थार के कल्प वृक्ष अर्थात खेजड़ी (शमी) को राजस्थान  एवं तेलंगाना का राज्य वृक्ष  एवं संयुक्त अरब  अमीरात (UAE)  के  राष्ट्रिय वृक्ष होने का गौरवशाली स्थान मिला हुआ है. भारत में प्राचीन काल से शमी वृक्ष को पवित्र एवं पूज्यनीय माना जाता है.

शमी को खेजड़ी, छोंकर तथा संस्कृत में शिवा,केशहत्री कहते है जिसका वानस्पतिक नाम प्रोसोपिस सिनेरेरीया है,  जो मीमोसेसी कुल का  वहुवर्षीय वृक्ष है। इसका वृक्ष मध्यम आकार (10-20   मीटर ऊंचा), सदाहरित एवं कांटेदार होता है. शाखाएं पतली, झुकी हुई भूरे रंग की होती है. इसकी छाल खुरदरी भूरे रंग की होती है. शमी के पुष्प छोटे पीले-क्रीमी  रंग के 5 से 12 सेमी  लम्बे होते है. शमीं की जड़े 20 मीटर से अधिक गहराई तक जाती है. इसलिए इसमें सूखा सहन करने की अद्भुत क्षमता होती है. जलवायु के अनुसार इसमें मार्च  से मई तक पुष्प  आते है. .

इसके हरे-पीले फूलों को मींझर कहलाते है और फली सांगरी कहलाती है. फलियाँ 15-20 सेमी लम्बी  हरे रंग की होती है, जो पकने पर हल्के भूरे रंग की हो जाती है. हरी फलियों एवं सूखी फलियों की सब्जी बनाई जाती है. इसके सूखे फलों को खोखा कहते है, जिसे सूखा मेवा माना जाता है. इसकी सूखी फलियों से बने आटे का प्रयोग खाने में किया जाता है.राजस्थान की  पंचकूट नामक प्रसिद्ध सब्जी में सांगरी, गुंदा (लसोड़ा के फल), केर के फल, कूमटा के बीज एवं काचरी का उपयोग किया जाता है. सांगरी की फली बहुत स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होती है. शुभ अवसरों पर शकुन के तौर पर सांगरी की सब्जी खायी जाती है. पकी हुई सांगरी (फली) में 8-15 % प्रोटीन, 40-50 % कार्बोहाइड्रेट, 8-15% शर्करा, 8-12 % रेशा (फाइबर), 2-3 % वसा, 0.4-0.5% कैल्शियम, 0.2-0.3 % आयरन पाया जाता है, जो इसे स्वास्थ्यवर्धक एवं गुणकारी बनाते है. भीषण गर्मी में छाया देने के साथ-साथ  ग्रीष्मकाल में इस वृक्ष से  जानवरों को हरा  चारा प्राप्त होता है. इन्हीं सब  खूबियों के कारण  अरबी की एक कहावत मशहूर है कि रेगिस्तान में भयंकर अकाल में अगर मनुष्य के पास एक ऊँट, एक बकरी और एक घाफ (शमी) का पेड़ हो टो जीवन को बचाया जा सकता है. इसलिए  शमी को रेगिस्तान (थार) का कल्पवृक्ष माना जाता है.

शमी को सनातन धर्म में बहुत ही पवित्र वृक्ष माना जाता है.  शमी का पेड़ तेजस्विता एवं दृडता का प्रतीक माना जाता है. इसमें प्राकृतिक तौर पर अग्नितत्व की प्रचुरता होती है और इसलिए इसे यज्ञ में अग्नि को प्रज्जुव्लित करने के लिए उपयोग में लाया जाता है. इसकी  लकड़ी से विवाह का मंडप बनाया जाता है और इसकी सूखी टहनियों का उपयोग हवन सामग्री के रूप में किया जाता है. ऐसी मान्यता है कि शमी भगवान राम का प्रिय वृक्ष था और लंका पर आक्रमण से पहले उन्होंने शमी वृक्ष की पूजा कर उससे विजयी होने का आशीर्वाद प्राप्त किया था.  महाभारत में भी शमी वृक्ष का उल्लेख मिलता है. अपने 12 वर्ष के अज्ञातवास के समय  पांडवों ने अपने अस्त्र शस्त्र  इसी वृक्ष पर छुपाये थे, जिसमें अर्जुन का गांडीव धनुष भी था.  कुरुक्षेत्र में कौरवों के साथ युद्ध के लिए जाने से पूर्व भी पांडवों ने शमी वृक्ष की पूजा कर उससे शक्ति और विजय की कामना की थी. तभी से धारणा बन गई कि जो भी शमी वृक्ष की पूजा अर्चना करता है, उसे शक्ति और विजय प्राप्त होती है.इसलिए दशहरे के दिन शमी वृक्ष की पूर्जा की जाती है. यही नहीं शमी का पौधा घर में लगाने एवं नियमित रूप से जल चढ़ाने एवं पूजा करने से शनि देव एवं भगवान शिव की कृपा बनी रहती है. भगवान्ध शिव पर शमी का फूल चढाने से  वे प्रशन्न होते  है. शमी की पूजा करने से  शनि देव भी  प्रशन्न  होते है. घर में शमी का पौधा पूर्व दिशा या ईशान कोण में लगाना अथवा रखना शुभ माना जाता है.   शमी के सभी भाग अर्थात जड़, लकड़ी, छाल, पत्तियां, फूल एवं फल उपयोगी है और औषधिय गुणों से परिपूर्ण माने जाते है.

शमी का असली पेड़ ही फलदायी 

शमी से मिलते जुलते अनेक पेड़ होते है. ज्यादातर जगहों पर नर्सरी में नकली शमी के पौधे बेचे जा रहे है. जानकारी के आभाव में अधिकांश घरों में नकली शमी (वीर तरु का पेड़) देखने को मिलता है. शमी का पेड़ कांटेदार एवं छोटा होता है, शखाएं पतली एवं कांटे शंकुनुमा, सीधे होते है. शमी के पेड़ में फूल छोटे पीले रंग के मंजरियों में आते है. फलियाँ 12 से 25 सेमी लम्बी एवं पतली होती है., जो पकने पर हल्की भूरे रंग की हो जाती है. स्वाद में  पकी फलियाँ मीठी होती है.


नकली शमी के रूप में बेचा जाने वाला पेड़ वीर तरु का है जिसे खेरी, कुणाली, महाकपित्थ तथा अंग्रेजी में सिकल बुश कहते है. इसका वानस्पतिक नाम Dichrostachys cinerea है जो मिमोसी परिवार का सदस्य है.इस पेड़ पर द्विरंगी (आधा गुलाबी एवं आधा पीला) फूल लगते है. इसमें कांटे लंबे एकान्तर क्रम में पत्तियों की अक्ष में लगते है. इसकी शाखाओं के अग्र भाग में लंबे एवं पैने कांटे होते है. फलियाँ मुड़ी हुई हंसिया नुमा होती है. फलियाँ खाने योग्य नहीं होती है. वीरतरु के पेड़ में जुलाई-अगस्त में पुष्प आते है. इसके पेड़ पूजा में प्रयुक्त नहीं होते है परन्तु वीर तरु वृक्ष में औषधिय गुण पाए जाते है.