ऐसे लें खरीफ में सोयाबीन की बम्पर पैदावार
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रमुख वैज्ञानिक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय
एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
सोयाबीन एक दलहनी फसल है परन्तु इसमें तेल की प्रचुरता के कारण यह विश्व की सबसे महत्वपूर्ण तिलहनी
नकद फसल के रूप में स्थापित हो गई है. इसके दानों में लगभग 40 प्रतिशत प्रोटीन एवं
20 प्रतिशत तेल पाया जाता है। इसके प्रोटीन में मानव शरीर के लिए आवश्यक सभी प्रकार के अमीनो अम्ल उपलब्ध है। इसके अलावा इसमें प्रचुर मात्रा में लवण एवं विटामिन होने के कारण यह भारतीय भोजन में समावेश किये उपयुक्त है। भारत की ग्रामीण जनता और गरीब वर्ग में व्याप्त कुपोषण की समस्या से निजात दिलाने में यह फसल अपना अमूल्य योगदान दे सकती है। सोयाबीन ने देश में खाध्य तेल की आवश्यकता की पूर्ति के साथ हर वर्ष सोया खली के निर्यात से प्राप्त विदेशी मुद्रा अर्जित कर देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की है। सोयाबीन से दूध, दही एवं पनीर बनाया जाने लगा है।
सब्जी के रूप में इसकी हरी फलियां और सोयाबड़ी लोकप्रिय है. इसके तेल में संतृप्त
वसा अम्ल कम होने के कारण ह्रदय रोगियों के लिए लाभदायक है। तेल निकालने के बाद
शेष खली में भी पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन एवं खनिज लवण विद्यमान होने के कारण
इसका इस्तेमाल पशुओं को खिलाने एवं खेत में खाद के रूप में किया जाता है।
सोयाबीन की विभिन्न किस्में 85 से 90 दिन में तैयार हो जाती है। इसलिए यह विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित फसल प्रणाली में आसानी से सम्मलित हो जाती है। दलहनी फसल होने के कारण सोयाबीन लगभग 60-100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से वायुमंडल की नत्रजन को भूमि में स्थिर करती है और फसल कटाई के बाद यह फसल लगभग 35-40 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर रबी मौसम में लगाई जाने वाली फसलों के लिए छोड़ जाती है. इस प्रकार से इसकी खेती उर्वरकों पर निर्भरता में कमीं लाती है। इसके अलावा अंतरवर्तीय फसल प्रणाली के लिए भी यह एक आदर्श फसल है क्योंकि यह सह-फसल के साथ वृद्धि कारकों के लिए कम प्रतिस्पर्धा करती है। अतः सोयाबीन को इक्कीसवीं सदी की चमत्कारिक फसल के रूप में जाना जाता है।
सोयाबीन की विभिन्न किस्में 85 से 90 दिन में तैयार हो जाती है। इसलिए यह विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित फसल प्रणाली में आसानी से सम्मलित हो जाती है। दलहनी फसल होने के कारण सोयाबीन लगभग 60-100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से वायुमंडल की नत्रजन को भूमि में स्थिर करती है और फसल कटाई के बाद यह फसल लगभग 35-40 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर रबी मौसम में लगाई जाने वाली फसलों के लिए छोड़ जाती है. इस प्रकार से इसकी खेती उर्वरकों पर निर्भरता में कमीं लाती है। इसके अलावा अंतरवर्तीय फसल प्रणाली के लिए भी यह एक आदर्श फसल है क्योंकि यह सह-फसल के साथ वृद्धि कारकों के लिए कम प्रतिस्पर्धा करती है। अतः सोयाबीन को इक्कीसवीं सदी की चमत्कारिक फसल के रूप में जाना जाता है।
विश्व
पटल पर क्षेत्रफल की दृष्टि से सोयाबीन की खेती में भारत का चौथा स्थान है। पहले
स्थान पर अमेरिका,
द्वितीय स्थान पर ब्राजील और तीसरे स्थान पर अर्जेंटीना आते हैं।
भारत का विश्व में सोयाबीन उत्पादन में पांचवां स्थान है लेकिन प्रति हेक्टेयर उत्पादन में
हम अभी विश्व में बहुत पीछे हैं। अभी भारत में लगभग 11.32 मिलियन हेक्टेयर में सोयाबीन की खेती प्रचलित है जिससे 1219 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 13.79 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त हुआ । छत्तीसगढ़ में सोयाबीन की औसत उपज मात्र 697 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर है। प्रति हेक्टेयर कम उत्पाकता के कारण बहुत से
हैं। इनमें से कुछ प्राकृतिक कारण है लेकिन निम्न उत्पादकता के लिए हमारी गलत कृषि
क्रियाएं ज्यादा जिम्मेदार हैं। आज हम आपको बताने जा रहे हैं सोयाबीन का बम्पर उत्पादन
लेने के लिए की जाने वाले कुछ महत्वपूर्ण कामप्रति हेक्टेयर उत्पादन के आधार पर अमेरिका प्रथम स्थान पर है और भारत आठवें स्थान
पर है।
भूमि
का चयन एवं खेत की तैयारी
उपयुक्त
भूमि में फसलों की खेती करने पर ही भरपूर उत्पादन लिया जा सकता है । सोयाबीन के
लिए अच्छे जल निकास वाली चिकनी भारी और दोमट मिटटी सर्वश्रेष्ठ होती है. अम्लीय, क्षारीय व रेतीली भूमि में सोयाबीन की सफल खेती नहीं होती है । बम्पर उत्पादन
के लिए भूमि में उचित जल निकास का प्रावधान होना आवश्यक है। ग्रीष्म ऋतु में खेत की गहरी जुताई करना चाहिए।
खेत में दो बार कल्टीवेटर से जुताई करने के बाद पाटा चलाकर भुरभुरा एवं एकसार कर
लेना चाहिए. अंतिम जुताई के समय भूमि में सड़ी हुए गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिला
देना चाहिए।
सही किस्म का चुनाव
गलत किस्मों के चुनाव के
कारण सोयाबीन का उत्पादन कम प्राप्त होता है क्योंकि सोयाबीन की प्रत्येक किस्म
हर जगह के लिए उपयुक्त नहीं होती है । अतः ऐसी किस्म का चुनाव करें जो आपके क्षेत्र के लिए उपयुक्त एवं संस्तुतित
की गई है।
जे.एस. 93-05: बैगनी फूलों वाली यह किस्म 90-95 दिन में पककर तैयार हो जाती है. इसका दाना मध्यम मोटा होता है तथा उपज
क्षमता 20-25 क्विंटल/हैक्टेयर है।
जे. एस. 95-60 : यह अगेती (80-85 दिन) किस्म है जिसकी पैदावार 18-20 क्विंटल/हैक्टेयर
है. इसके फूल सफ़ेद तथा बीज हल्के पीले रंग के भूरी नाभिका वाले होते है। इसकी फलियां चटकती नहीं है. यह गर्डल बीटल, सेमी लूपर
एवं तम्बाकू इल्ली के प्रति मध्यम प्रतिरोधी होने के साथ-साथ पीत विषाणु रोग, तना गलन एवं पत्ती धब्बा रोगों
के प्रति भी मध्यम प्रतिरोधी पाई गई है।
जे.एस. 97-52: यह किस्म 100-105 दिन में पककर 20-25 क्विंटल/हैक्टेयर
उपज देती है इसमें सफेद फूल एवं दाना पीला
जिसकी नाभि काली होती है। अधिक नमी वाले क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है. यह प्रमुख
रोगों जैसे पीला मोजेक, जड़ सडन तथा प्रमुख कीटों जैसे ताना छेदक एवं पत्ती भक्षक
के लिए प्रतिरोधी/सहनशील है। इसके बीजों में लम्बे समय तक भण्डारण के बाद भी
वांछनीय अंकुरण क्षमता है।
जे.एस. 20-29: मध्यम
अवधि (90-95
दिन) में पककर यह किस्म 25-30 क्विंटल/हैक्टेयर
पैदावार देती है. इसमें बैंगनी फूल बनते है और दाना पीला होता है. यह किस्म पीला विषाणुरोग, चारकोल राट,बेक्टेरिययल पश्चूल एवं कीट प्रतिरोधी
पाई गई है।
जे.एस. 20-34 : यह किस्म शीघ्र (87-88 दिन) तैयार होकर 22-25
क्विंटल/हैक्टेयर उपज देती है बैंगनी फूल वाली इस किस्म का दाना पीला होता है। यह किस्म चारकोल राट,बेक्टेरिययल पश्चूल,पत्ती धब्बा एवं कीट प्रतिरोधी
है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है।
जे.एस.-80-21: यह किस्म 105-110 दिन में पककर 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसके फूल बैगनी तथा दाना पीला होता है.
जे.एस.-80-21: यह किस्म 105-110 दिन में पककर 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसके फूल बैगनी तथा दाना पीला होता है.
एन.आर.सी-7: यह किस्म 90-99 दिन में तैयार होकर 25-35 क्विंटल/हैक्टेयर
उपज देती है। फलियां चटकती नहीं है। इसमें बैंगनी रंग के फूल आते है। यह गर्डलबीडल और तना-मक्खी के लिए सहनशील है।
एन.आर.सी-12 : मध्यम अवधि (96-99 दिन) में तैयार होने वाली यह
किस्म 25-30 क्विंटल/हैक्टेयर उपज देती है। इसके फूल बैंगनी होते
है। यह किस्म गर्डलबीटल और तना-मक्खीके लिए सहनशील एवं पीला मोजैक प्रतिरोधी है।
एन.आर.सी-86 : मध्यम समय (90-95 दिन) में तैयार होने वाली यह किस्म
20-25 क्विंटल/हैक्टेयर पैदावार देती है। इसके फूल सफ़ेद तथा
बीजों की नाभि भूरी होती है। यह किस्म गर्डल बीटल और तना-मक्खी के लिये प्रतिरोधी
तथा चारकोल रॉट एवं फली झुलसा रोग के लिये
मध्यम प्रतिरोधी पाई गई है।
पी.के.-472
:
यह किस्म 110-115 दिन में पककर 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार देती है.
इसके पौधे मध्यम ऊंचाई के सीधे, फूल सफ़ेद रंग तथा दाने मोटे पीले रंग के होते है।
यह किस्म पीला मोजेक, पर्ण धब्बा एवं बैक्टीरियल रोगों के लिए प्रतिरोधी होने के
अलावा कई प्रकार के कीट प्रतिरोधी है। इसमें फल्लियाँ चटकने की समस्या नहीं
है।
समय
पर बुवाई
बुवाई
के समय पर सोयाबीन की उपज निर्भर करती है, परन्तु बुवाई से पहले यह सुनिश्चित कर लेवें कि भूमि में पर्याप्त नमीं है। असिंचित क्षेत्रों में मानसून आगमन के पश्चात सोयाबीन की बुवाई
करना चाहिए। बम्पर उत्पादन के लिए जून के दुसरे पखवाड़े से जुलाई के प्रथम पखवाड़े
तक सोयाबीन की बुवाई संपन्न कर लेना
चाहिए। देर से बुवाई करने पर पैदावार में गिरावट होती है।
उत्तम बीज एवं बीज दर
सोयाबीन का बीज आनुवांशिक रूप से शुद्ध हो एवं उनकी अंकुरण क्षमता
70 प्रतिशत से अधिक होना चाहिए। बुवाई के पूर्व बीज की अंकुरण
क्षमता अवश्य ज्ञात करें । अंकुरण परिक्षण हेतु 1 गुणा 1 मीटर की क्यारी में सिंचाई कर चयनित किस्म के 100 बीज गिनकर बुवाई करे तथा अंकुरण के उपरान्त स्वस्थ पौधों को गिनें। यदि 100 में से 70 से अधिक पौधे अंकुरित हो तो बीज उत्तम गुणवत्ता का है। बुवाई
हेतु दानों के आकार के अनुसार बीज की मात्रा का निर्धारण करें । छोटे दाने वाली
प्रजातियों के लिये बीज की मात्रा 60-70 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें । बड़े दाने वाली
प्रजातियों के लिये बीज की मात्रा 80-90 कि.ग्रा. प्रति
हेक्टयर की दर से बुवाई करें ।
बीज
उपचार आवश्यक
बम्पर उत्पादन के लिए बुवाई
से पूर्व सोयाबीन के बीज का फफूंदनाशक दवाओं से उपचार जरूर करें। बीज उपचार न केवल
कई रोगों को आने से रोकता है बल्कि यह बेहतर अंकुरण और बीज जमाव में भी सहायक होता
है। चयनित बीज को थीरम एवं कार्बोंडाजिम को 2:1 अनुपात में मिलाकर 3 ग्राम प्रति किलो बीज अथवा ट्राईकोडर्मा (जैविक
फफूंदनाशक) 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर
से उपचारित करें। इसके लिए बीजों को घड़े अथवा ड्रम में डालकर
फफूंदनाशकों को अच्छी प्रकार से मिलाये ताकि बीजों पर दवा की एक परत बन जाये. इसके
पश्चात उक्त बीजों को जीवाणु कल्चर से
उपचारित करना भी जरुरी है। इसके लिए एक लीटर गर्म पानी में 250 ग्राम गुड का घोल
बनाएं एवं ठंडा करने के उपरान्त इसमें 500 ग्राम राइजोबियम कल्चर तथा 500 ग्राम
पी.एस.बी. कल्चर प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाये। अब कल्चरयुक्त घोल को बीजों में
हल्के हाथ से मिलाने के पश्चात बीजों को छाया में सुखाने के तुरंत बाद तैयार खेत में बुवाई करें ।
इस उपचार से नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस तत्वों की उपलब्धतता बढती है। ध्यान रखें कल्चर और कवकनाशियों को एक साथ मिलाकर कभी भी उपयोग में न लेवें। पीले मोजैक से प्रभावित क्षेत्रों में प्रत्येक वर्ष थायमिथाक्स 70 डव्ल्यु एस (3 ग्राम प्रति कि.ग्रा.बीज) से बीज उपचार कर बुवाई करें।
बुवाई का तरीका
किसी भी फसल की अच्छी उपज के लिए खेत में वांक्षित पौध संख्या होना आवश्यक होता है। पौध संख्या का निर्धारण फसल
या उसकी किस्म के पौधे के फैलाव के आधार पर किया जाता है। बुवाई सीड ड्रिल या हल के पीछे नाई बांधकर पंक्तियों
में करें। सोयाबीन की कम फैलने वाली किस्में के लिये कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा अधिक फैलने वाली किस्मों के लिए 45 से.मी.
की दूरी रखें । बीज बोने की गहराई 2.5 से
3 से.मी. रखें। अच्छी उपज के लिए खेत में पौध संख्या 4-4.5 लाख प्रति हेक्टेयर कायम करना आवश्यक है । मानसून की देरी के कारण देर से बुवाई की स्थिति में शीघ्र तैयार होने वाली किस्मों का इस्तेमाल करें। बीज दर बढाकर बुवाई करें तथा कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. रखें।
अधिक उपज के लिए मेंढ़ -नाली पद्धति
से बुवाई
मेढ़़-नाली (रिज़ एवं फरो) पद्धति
से सोयाबीन की बुवाई करने से वर्षा की अनिश्चितता से होने वाली हानि की संभावना को
कम किया जा सकता है। मेढऩाली पद्धति में बीजाई मेढ़ो पर की जाती है तथा दो मेढ़ों
के मध्य लगभग 15
से.मी. गहरी नाली बनाते हुए मिट्टी को फसल की कतारों की तरफ कर दिया
जाता है। साधारण सीडड्रिल में एक छोटी सी लोहे की पट्टी लगाकर बुबाई का कार्य किया
जा सकता है अथवा साधारण सीडड्रिल द्वारा समतल बुवाई करने के पश्चात कतारों के बीच
देशी हल चलाकर नाली का निर्माण किया जा सकता है। बुवाई पश्चात् एवं अंकुरण के बाद
नाली को अंत मे मिट्टी द्वारा बॉंध दिया जाता है जिससे वर्षा के पानी का भूमि में
अधिक से अधिक संरक्षण हो। बीज की बुवाई मेढ़
पर करने से अतिवृष्टि या तेज हवा के समय पौधों के गिरने की संभावना कम हो जाती है
तथा अतिरिक्त पानी का निकास हो जाता है। यदि फसल अवधि में लम्बे अंतराल तक वर्षा न होने की स्थिति में नमी की कमी नही हो पाती
है क्योंकि खेत की नालियो में नमी की
उपलब्धता लम्बे समय तक कायम रहती है।
खाद एवं उर्वरक प्रयोग
सोयाबीन के विपुल उत्पादन के लिए खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग मृदा परिक्षण के आधार पर करें ताकि फसल को संतुलित पोषण मिल सकें। सामान्यतौर पर गोबर खाद या कम्पोस्ट 10-12
टन प्रति हेक्टेयर खेत की अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए। इसके अलावा बुवाई के समय 20 किलो नत्रजन (44 किलो यूरिया), 60-80 किलो फॉस्फोरस (375-400 किलो सिंगल सुपर फ़ॉस्फेट) एवं
40-50 किलो पोटाश (67-83 किलो म्यूरेट ऑफ़ पोटाश) अथवा 130 किलो डी ए पी, 67-33 किलो म्यूरेट ऑफ़ पोटाश एवं 150-200 किलो जिप्सम
प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। सुपर फास्फेट उपयोग न कर पाने की दशा
में जिप्सम का उपयोग आवश्यक रहता है । संस्तुत मात्रा खेत
में अंतिम जुताई से पूर्व डालकर भलीभाँति मिट्टी में मिला देंवे। कल्चर उपचारित सोयाबीन
बीजों को डी.ए.पी. उर्वरक के साथ मिलाकर कभी न बोयें, इससे बीजों का अंकुरण
प्रभावित होता है। बीज उर्वरक के संपर्क में आकर खराब हो जाता है और उगता नहीं है।
इससे खेत में पौधे कम रह जाते हैं। इससे बचने के लिए बुवाई के लिए बीज-उर्वरक
ड्रिल मशीन का प्रयोग करें जिसमें उर्वरक और बीज अलग-अलग डालकर बुआई की जाती है ।
समय पर जरुरी है खरपतवारों की
रोकथाम
खरीफ की फसल होने के कारण
सोयाबीन में खरपतवारों का व्यापक प्रकोप होता है। अनियंत्रित खरपतवार फसल के साथ
पोषक तत्व, प्रकाश, नमीं आदि के लिए प्रतिस्पर्धा करते है जिससे पौधों में शाखाएं
एवं फलियाँ कम बनने के कारण उपज में 25-85 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है। खरपतवारों
के प्रभाव का क्रांतिक समय बुवाई के 15-35 दिन तक
है। इस समय फसल को खरपतवारों से मुक्त रखने से अधिक उपज प्राप्त होती
है। खरपतवारों से निजात पाने के लिए सोयाबीन की फसल में 15-20 तथा 30-40 दिनों की
अवस्था पर हाँथ या कृषि यंत्रों से निराई गुड़ाई अवश्य करें। इससे खरपतवार नियंत्रण
के साथ-साथ मृदा में वायु-संचार बढ़ने तथा नमीं सरंक्षित होने से सोयाबीन की अच्छी
वृद्धि एवं उपज में इजाफा होता है। लागातार वर्षा होने तथा समय पर मजदूर न मिलने के कारण कम समय में अधिक
क्षेत्र में हाथों से खरपतवार नियंत्रण कठिन हो जाता है तथा इसमें पैसा भी अधिक
खर्च होता है। ऐसी स्थिति में खरपतवारों का रासायनिक विधि से नियंत्रण कारगर एवं
लाभदायक साबित होता है। बुवाई के पूर्व खरपतवार नियंत्रण हेतु फ्ल्युक्लोरालिन 45
ईसी (बासालिन) 2.25 लीटर प्रति हेक्टेयर
की दर से छिडकने से खरपतवार कम उगते है। बाद में उगने वाले खरपतवारों के प्रभावी नींदा नियंत्रण हेतु अवश्यकता एवं समय
के अनुकूल खरपतवार नाशी दवाओं का चयन कर उपयोग करें।
सारिणी:
सोयाबीन की कड़ी फसल में रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण
खरपतवारनाशक का तकनीकी नाम
|
व्यापारिक नाम
|
प्रयुक्त सक्रिय तत्व/ हे.
|
प्रयुक्त मात्रा/ हे.
|
प्रयोग का समय
|
प्रति टंकी (15 ली.) की मात्रा
|
नियंत्रित होने वाले खरपतवार
|
इमाजाथाईपर तरल 10 ईसी
|
परस्यूट
|
75 ग्राम
|
750-1000 मि.ली.
|
बुवाई पश्चात 10-20 दिन बाद
|
32 मि.ली.
|
संकरी एवं चौड़ी पत्ती
|
क्युजालोफोप इथाइल तरल 5 ईसी
|
टर्गासुपर
|
50 ग्राम
|
1 लीटर
|
बुवाई पश्चात 12-20 दिन बाद
|
42 मि.ली.
|
संकरी पत्ती
|
क्लोरीम्यूराँन इथाइल पाउडर 25% डव्ल्यु
पी
|
क्लोबेन/ क्युरीन
|
9.37 ग्राम
|
37.5 ग्राम
|
बुवाई के 2 दिनों में
|
1.56 ग्राम
|
चौड़ी पत्ती
|
प्रोपाक्युजाफॉप तरल 10 % ईसी
|
एजिल
|
50 ग्राम
|
500 मि.ली.
|
बुवाई पश्चात 12-20 दिन बाद
|
21 मि.ली.
|
संकरी पत्ती (सावां आदि)
|
क्लोरीम्यूराँन इथाइल +
फेनोक्साप्रॉप-पी-ईथाइल पाउडर 25 % व्ल्यु पी + तरल 5 % ईसी
|
क्लोबेन क्युरीन + टर्गासुपर
|
6 ग्राम + 37.5 ग्राम
|
24 ग्राम + 750 मि.ली.
|
बुवाई पश्चात 12-20 दिन बाद
|
1 ग्राम + 32 मि.ली.
|
संकरी एवं चौड़ी पत्ती
|
खरपतवारनाशकों का छिडकाव करते समय या 2-3
घंटे बाद वर्षा होने पर दवा की काफी मात्रा पत्तियों से छिटक कर नीचे गिर जाती है
जिससे खरपतवारों का नियंत्रण नहीं हो पाता है। खरीफ मौसम में खरपतवारनाशक के साथ
चिपकाने/फ़ैलाने वाला पदार्थ सर्फेक्टेंट 0.5 % अर्थात 500 मि.ली. प्रति हेक्टेयर
की दर से मिलाकर छिडकाव करने से खरपतवारनाशक, खरपतवारों की समूर्ण पत्तियों पर
फैलकर चिपक जाते है जिससे वर्षा होने पर दवाई का नुकसान नहीं होता है। स्प्रेयर की
टंकी में पहले खरपतवारनाशक मिलाये तथा बाद में सर्फेक्टेंट को डाल कर छिडकाव करें। प्रभावी नियंत्रण के लिए खरपतवारनाशक का उचित समय पर सही मात्रा में प्रयोग करें
तथा फ्लेटफैन/फ्लड जेट नोज़ल लगाकर दवा का छिडकाव करें। ध्यान रखें वायु के विपरीत
दिशा में छिडकाव न करें ताकि रसायन शरीर पर न गिरे।
अतिरिक्त लाभ के लिए अंतरवर्ती
फसलें
सोयाबीन के
साथ अंतरवर्ती फसलों को लेने से अधिक मुनाफा अर्जित किया जा सकता है। अंतरवर्ती फसल
के रूप में सोयाबीन + मक्का (4 कतार: 2 कतार),
सोयाबीन+ अरहर (4 :2 कतार) अथवा
सोयाबीन+ ज्वार (4:2 कतार) ली जा सकती है। असिंचितक्षेत्रों में जहाँ रबी की फसल लेना संभव नहीं हो वहां सोयाबीन + अरहर की खेती करना चाहिए।
कीट प्रबंधन
फुदका/तेला (जैसिड): सोयाबीन की फसल में छोटे-छोटे फुदका कीट
पत्तियों का रस चूसते है जिससे पत्तियां सूख जाती है. ये कीट विषाणु रोग को फ़ैलाने
में भी सहायक होते है। इन कीटों का प्रकोप फसल उगने के 20 दिन से फलियाँ आने तक
अधिक होता है। इस कीट के नियंत्रण हेतु डायमिथोयेट 30 ईसी या फार्मोथिआन 400-600
मिली दवा प्रति हेक्टेयर की दर से 400-600 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें.
आवश्यकतानुसार 20 दिन बाद छिडकाव पुनः दोहराए।
गर्डल बीटल: यह सोयाबीन का सबसे खतरनाक कीट है। यह लाल काले रंग का कड़े पंख वाला कीट
है। वयस्क मादा तने अथवा टहनियों पर दो छल्ले बनाती है, जिसके
बीच मे पीले रंग के अण्डे देती है। अण्डे से निकली गिडार अन्दर – अन्दर खाती है। पौधा सूख जाता है। इस कीट की रोकथाम हेतु 35-40 दिन की फसल पर ट्राईजोफास
0.8 ली./हे. या इथोफेनप्राक्स 1 लीटर प्रति हेक्टेयर या थायोक्लोप्रीड 0.75 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 400-600 लीटर पानी
में घोलकर छिडकाव करना चाहिए. फसल पर 20 दिन बाद पुनः छिडकाव करना चाहिए।
तना व पत्ती छेदक:
यह एक प्रकार की छोटी मक्खी है जिसकी लटें
मुलायम शाखाओं के बीच का गूदा खाती है जिससे शाखाएं मुरझा जाती है. इसके नियंत्रण
हेतु फैन्थयांन या क्युनालफ़ॉस 500-700 मिली प्रति हेक्टेयर की दर से 500-700 लीटर
पानी में घोलकर छिडकाव करें. आवश्यकतानुसार 20 दिन बाद पुनः छिडकाव करें।
बालों वाली लट:
फसल में फली बनते समय काली, लाल व भूरे रंग के बालों वाली लट पत्तियों को खाकर
छलनी कर देती है. इस कीट की रोकथाम के लिए क्यूनालफास 25 ई.सी. 1.5 लीटर का 1000 लीटर
पानी में घोलकर प्रति हेक्टर 2 से 3 बार
आवश्यकतानुसार छिड़काव करें।
हरी अर्ध कुण्डलक (ग्रीन सेमीलूपर):
इस कीट की इल्लिय पत्तों को खाकर छलनी कर देती है. सूडियॉ शीघ्र पकने वाली
प्रजातियों में फूल निकलते समय उसकी कलियों को खा जाती हैं। प्रथम फूल को समाप्त
पर दुबारा पुष्प बनते हैं। जिनमें फलियॉ बनने पर उनमें दाने नहीं बनते। इस कीट के नियंत्रण हेतु ट्राईजोफ़ॉस 40 ईसी का
800 मिली दवा प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के 25 तथा 45 दिन बाद छिडकाव करें।
सोयाबीन का फली छेदक कीट :
इनकी सूंड़ी फलियों को खाकर नुकसान पहुंचाती हैं।इस कीट की रोकथाम के लिये क्लोरपाययरीफास (20 ई.सी.) 1.5 लीटर प्रति हेक्टर या क्यूनालफास (25
ई.सी.) 1.5 लीटर प्रति हेक्टर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
रोग प्रबंधन
पत्ती धब्बा रोग :
बुवाई के 30-40 दिन बाद पत्तियों पर हल्के भूरे से गहरे भूरे धब्बे फफूंद के
प्रकोप से आजाते है। इस रोग के नियंत्रण के लिए 1.25 किलो मैंकोजेब प्रति हेक्टेयर
की दर से छिडकें ।
जीवाणु रोग:
यह रोग फसल की 40 दिन की अवस्था में पनपता है। रोगग्रस्त पौधों की पत्तियां पीली होकर गिर जाती है। इसकी रोकथाम हेतु 2 ग्राम स्ट्रेपटोसाइक्लीन 20 लीटर पानी में घोलकर
छिडकाव करें। एक हेक्टेयर के लिए 50 ग्राम स्ट्रेपटोसाइक्लीन की आवश्यकता होती है।
जड़ व तना सडन रोग : इस रोग के प्रकोप से सोयाबीन के 15-20 दिन
के छोटे पौधे सूख कर मार जाते है। रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर
नष्ट कर देवें। फसल चक्र अपनाये। रोग के रासायनिक नियंत्रण हेत बुवाई पूर्व बीज को थायरम कार्बोक्सीन 2:1 में 3 ग्राम
या ट्रायकोडर्मा विर्डी 5 ग्राम /किलो बीज के मान से उपचारित
करें ।
पीला चित्रवर्ण (विषाणु) रोग: इस रोग के
कारण पौधों की बढ़वार रुक जाती है और पत्तियां सिकुड़ जाती है. रोकथाम हेतु प्रारंभ
में लक्षण दिखते ही रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देवे।यह रोग कीटों द्वारा
फैलता है. रोग रोधी किस्में लगाये. कीटों की रोकथाम हेतु डायमिथोयेट 30 ईसी 1 लीटर
या मिथाइल–ओ–डिमेटान (25 ई.सी.) 1
लीटर प्रति हेक्टर दवा को 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति
हेक्टेयर की दर से छिडकाव करें। आवश्यकता होने पर 15 दिन बाद पुनः छिडकाव करें।
माइकोप्लाज्मा :
इस रोग से ग्रसित पौधे छोटे रह जाते है और उनमें कलियाँ अधिक तथा फलियाँ कम बनती
है.यह रोग भी कीड़ों द्वारा फैलता है। कीट नियंत्रण हेतु मिथाइल डेमेटान 500 मिली
दवा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकें।
कटाई व गहाई
फसल की कटाई उपयुक्त समय पर
कर लेना चाहिए अन्यथा फलियों के चटकने से उपज में भारी गिरावट आने की संभावना रहती
है। सोयाबीन की फसल परिपक्व होने पर इसकी पत्तियां
पीली पड़कर झड़ने लगती है और फलियों का रंग हरे से भूरा होने लगता है। किस्मों के
अनुरूप इसकी 90-120 दिन में फसल पककर तैयार हो जाती है । कटाई के समय बीजों में
उपयुक्त नमी की मात्रा 14-16
प्रतिशत है । फसल को 2-3 दिन तक धूप में
सुखाकर बैलों की सहायता से अथवा थ्रेशर से धीमी गति (300-400 आर.पी.एम.) पर गहाई करनी चाहिए । गहाई के बाद बीज को 3 से 4 दिन तक धूप में अच्छी प्रकार (दानों में 9-10 % नमीं) सुखा कर नमीं रहित कमरों में भण्डारण करना चाहिए ।
कृपया ध्यान रखें: कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख करना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे। लेख प्रकाशित करने की सूचना लेखक के मेल profgstomar@gmail .com पर देने का कष्ट करेंगे।
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