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रविवार, 23 अप्रैल 2017

भारत में भू-सम्पदा का क्षरण: समझें कारण और करें निवारण

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहनी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, 
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)  

भारत की अधिकांश भू-सम्पदा में भू-क्षरण के निरंतर स्पष्ट लक्षण परिलक्षित हो रहे है जिसके कारण देश में खाद्यान्न उत्पादन और गरीबी उन्मूलन  क्षमताओं पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगा है। यह हम सब के लिए सबसे बुरी और भयावह खबर है। देश में स्थित बारानी भूमि (65%) के उत्पादन लगातार गिरावट आ रही है। सिंचित क्षेत्रों में  खाद्यान्न उत्पादन टिकाऊ बनाये रखने में  भी भू-क्षरण बहुत बड़ी बाधा है। भू-रक्षण  से प्रतिवर्ष हमारे देश की हजारों हेक्टर भूमि नष्ट होती जा रही है । अनुमान है की भारत में लगभग 146.8 मिलियन भूमि विभिन कारणों (मृदा अपरदन, क्षारीयता, लवणीयता, जल भराव आदि) से प्रभावित है।  इस ब्लॉग में हम जल और वायु से होने वाले मृदा क्षरण पर चर्चा कर रहे है। भारत की भू-सम्पदा सबसे अधिक  मृदा कटाव से प्रभावित है जो हमारी उर्वरा और उपजाऊ मिट्टीओं के लिए सबसे भयानक खतरा है ।जब प्राकृतिक वनस्पति अधिक होती है तो वे हवा एवं जल के वेग को कम कर देती है जिससे मिट्टी कटाव की क्रिया धीमी पड़ जाती है और  मिट्टी के नव-निर्माण तथा क्षति में सामंजस्य स्थापित हो जाता है।  इस अवस्था में होने वाली भू-क्षरण को सामान्य या प्राकृतिक अपरदन कहते हैं । जब  भूमि की सतह पर प्राकृतिक वनस्पति नहीं रहती है या मनुष्य प्राकृतिक वनस्पति को काटकर  कृषि कार्य करने लगता है तब मिट्टी के कटाव की गति बहुत अधिक बढ़ जाती है । गतिशील जल या वायु अबाद रूप से मिट्टी को पृथक करके स्थानान्तरित करते हैं । इस क्रिया को त्वरित अपरदन  या अपरदन कहते हैं । मिट्टी के ऊपर सतह का कटाव मुख्यतः दो प्रकार से होता है :
1. वायु अपरदन:  वायु अपरदन में खेतों के बारीक मृदा कण हवा के साथ उड़ जाते है और पीछे घटिया मिट्टी ही बचती है। उडी हुई मिट्टी जिन स्थानों पर जाकर बैठती है वहां की उपजाऊ मिट्टी रेतीले कणों से पट जाती है जिससे  भूमि कम उपजाऊ हो जाती है ।  भारत के  शुष्क और अर्द्धशुष्क क्षेत्रों  में  मृदा क्षरण का  मुख्य कारण वायु अपरदन ही है। वायु अपरदन से पेड़ पौधे ढँक जाते है और उनका उत्पादन घट जाता है, साथ ही अनेकों नागरिक सुविधाएं भी बाधित होती है। वायु अपरदन से देश की लगभग 9.5 मिलियन हेक्टेयर भूमि प्रभावित है। 
2. जल अपरदन: मिट्टी पर जोर से पड़ने वाली वर्षा की बूँदें तथा तेज बहने वाला पानी भूमि की ऊपरी उपजाऊ परत को अपने साथ बहाकर ले जाते हैं । इसे जल अपरदन कहते है।  भू-क्षरण प्रक्रियाओं में जल अपरदन प्रमुख है। ऊपरी मृदा के ह्रास अथवा भू-विरूपण के कारण भूमि की उत्पादन क्षमता घटती है। अनुमान है की जल अपरदन से सर्वाधिक 93.7 मिलियन हेक्टेयर भूमि प्रभावित है। 

मृदा अपरदन के प्रकार

(अ)जल द्वारा भूमि कटाव

        जल के द्वारा सबसे अधिक भू-क्षरण होता है । जल द्वारा निम्नलिखित सात प्रकार का भू-कटाव होता है -
(i)छींट कटाव: जब वर्षा की बूँदें भूमि की सतह पर गिरती हैं तो मिट्टी के कण मिट्टी समूह  से अलग होकर दूर चले जाते हैं।
(ii)परत दार भू-क्षरण: किसी भूमि से मिट्टी की पतली परतों के समान रूप से हटने को ‘‘परतदार भू-कटाव’’ कहते हैं । परतदार अपरदन के कारण भूमि की ऊपरी सतह से उपजाऊ मिट्टी बहकर निकल जाती है तथा कम उर्वर मिट्टी आ जाती है ।
(iii)नालीदार भू-कटाव: भू-पृष्ठ पर प्रभावित होने वाले जल की कटाव शक्ति बढ़ जाने से भूमि की सतह पर पतली नलिकाएँ बनने लगती हैं जिसे ‘‘नालीदार कटाव’’ कहते हैं । परतदार कटाव के बाद अधिक वर्षा होने से नालीदार कटाव शुरू होती है । यह भू-कटाव ढालदार भूमि तथा परती भूमि में अधिक होता है ।
(iv)नालेदार कटाव: जब एक ही स्थान पर नलिकाओं में अपवाह जल  तेजी से बहने लगते हैं तो गहरे नाले बन जाते हैं इस प्रकार के कटाव को ‘‘नालेदार कटाव’’ कहते हैं । इस कटाव में भूमि इतनी गहराई एवं चैड़ाई में जाती है कि उसको सुधारकर कृषियोग्य भूमि में परवर्तित  करने के लिए अधिक श्रम, समय तथा धन व्यय करना पड़ता है ।मध्यप्रदेशराजस्थान तथा उत्तरप्रदेश के राज्यों में यमुना तथा चम्बल नदियों के किनारे 3 फीट से 50 फीट गहराई की खाईया/गड्ढे   देखने को मिलते है जो की नालेदार कटाव के उदाहरण हैं ।
(v)सरकन कटाव: पर्वतीय क्षेत्रों में भू-स्खलन के द्वारा मिट्टी के बढ़े ढेले अथवा चट्टानें खिसककर नीचे गिर जाती हैं । इस प्रकार के कटाव को ‘‘सरकन कटाव’’ कहते हैं । भू-कटाव भूकम्प  के कारण भी होता है ।
(vi)नदी-नालों के किनारे होनेवाला भू-क्षरण: नदियों तथा नालों में पानी की मात्रा अधिक बढ़ जाने पर पानी अपना रास्ता बदल लेता है । बाढ़ के समय इस प्रकार की क्षति और अधिक हो जाती है । पानी तेज धारा के साथ मिट्टी चट्टानों के टुकड़े, कंकड़ इत्यादि बहकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुॅच जाते है । बिहार राज्य में कोशी नदी ने 100 वर्ष में पश्चिम दिशा में 65 मील का रास्ता बदल लिया है ।
(vii)समुद्रतटीय भू-क्षरण: समुद्री जल की जहरें किनारे की मिट्टी को काटते रहते हैं । इस प्रकार भू-क्षरण हवा तथा जल के संयुक्त क्रिया द्वारा होता है । तामिलनाडू तथा केरल राज्यों में इस प्रकार का अपरदन मिलता है ।

(ब)वायु द्वारा भू-क्षरण

               तेज वायु द्वारा मिट्टी के महीन कण, बालू इत्यादि उड़कर दूर चले जाते हैं । जहा धरती वनस्पति रहित होती है तथा जलवायु शुष्क होता है । वहा पवनीय अपरदन अधिक होता है । जब घासों को हटाकर भूमि की जुताई-गुड़ाई करके खेती योग्य बनाते हैं तब कार्बनिक पदार्थ की मात्रा काफी कम हो जाती है । जड़ों की बन्धन-सामथ्र्य कम हो जाती है तथा मृदा कणों को बाधकर रखने वाली शक्ति भी घट जाती है । शुष्क मौसम रहने पर मृदा एक सूखे पाउडर के चूर्ण समान हो जाती हैं जिसे तेज बहने वाली हवा उड़ाकर दूर ले जाती है । वायु द्वारा मृदा कटाव में निम्नलिखित क्रियायें शामिल हैं:
(i)सतह विसर्पण: इस क्रिया में कण जिनका आकार 0.5 से 1.5 मि.मि. तक होता है हवा के झोकों से भूमि की सतह पर रेंग कर एक स्थान से दूसरे स्थान को स्थानान्तरित हो जाते है ।
(ii)उत्परिवर्तन: इस क्रिया में मुख्यतः 0.05 से 0.5 मि.मि. आकार वाले कण प्रभावित होते हैं । जब हवा का सीधा दबाव मृदा कणों पर पड़ता है तो मृदा कण अपने से ऊपर की ओर छिटकने लगते हैं तथा दूसरे जगह गिर जाते हैं । जिस स्थान पर मृदा कण गिरते हैं वहाँ के कणों को छिटका देते हैं ।
(iii)निलम्बन: इस क्रिया में मृदा कण जो आकार में बहुत छोटे होते हैं, वायु के द्वारा वातावरण में लटकते रहते हैं और सैकड़ों किलोमीटर तक स्थानान्तरित हो सकते हैं ।
भूमि-क्षरण के कारण
1.प्राकृतिक वनस्पति का सफाया: मनुष्य अपनी आवश्यकता के लिए वनों को काटता है तथा चारागाहों में उसकी क्षमता से अधिक पशुओं को चराने से वनस्पति नष्ट हो जाती है । इस प्रकार, वर्षा-जल भूमि के सीधे सम्पर्क में आता है और उसकी जल अवशोषण क्षमता कम हो जाती है । पानी तेजी के साथ खाली भूमि पर बहने लगता है जिस कारण भू-क्षरण तेजी से होता है ।
2.दोषयुक्त कृषि क्रियायें: अवैज्ञानिक ढंग से खेती जैसे, ढाल की दिशा में जुताई-गुड़ाई करना, अपरदन को बढ़ावा देनेवाली फसलों (धान,ज्वार, बाजरा, गेंहू, गन्ना, कपास आदि) की लगातार खेती, गलत ढंग से सिंचाई  (बाढ़ विधि)  आदि  कृषि कार्यों से  भू-क्षरण को बढ़ावा मिलता है ।
3.चलती - फिरती खेती: इस प्रकार की खेती में वनों को काटकर खाली की गयी भूमि पर खेती की जाती है । यह उपजाऊ भूमि दो-चार साल में अनुपजाऊ हो जाती है । ऐसी दशा में बाध्य होकर उस भूमि को छोड़कर दूसरे वनों को काटकर साफ किया गया जाता है और उस पर खेती की जाती है । इस प्रकार की खेती के कारण भू-क्षरण अधिक होता है ।

भू-क्षरण से हानियाँ

1. मिट्टी की हानि: भू-क्षरण के द्वारा मिट्टी की हानि सबसे अधिक होती है। ज्ञात हो कि एक से.मी. मृदा-परत के निर्माण में प्रकृति को सैकड़ों वर्ष का समय लग जाता है ।  मृदा-प्रबन्ध में असावधानी/लापरवाही बरतने से 15 से.मी. मृदा की ऊपरी परत  कुछ ही वर्षो में नष्ट हो सकती  है  परिणामस्वरूप फसलोत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।  
2.अपवाह के रूप में जल की हांनि:भू-क्षरण वाले क्षेत्रों में पानी की गति तीव्र हो जाती है और भूमि उसे अवशोषित नहीं कर पाती है। इस प्रकार, जल की बर्बादी होती है । एक अनुमान के अनुसार भू-क्षरण वाले क्षेत्र में वर्षा जल का 45 से 80 प्रतिशत भाग नष्ट हो जाता है ।
3.पोषक तत्वों की क्षति: मृदा सतह  जिसमें पोषक तत्व और कार्बनिक पदार्थ तथा  ह्यूमस होता हैं, भू-क्षरण के कारण नष्ट हो जाते हैं । परीक्षणों से पता चलता है कि प्रति हेक्टर 125  किलो नाइट्रोजन, 130 किलो फॉस्फोरस तथा 120  किलो पोटाश प्रति वर्ष की क्षति भू-क्षरण के कारण होती है ।
4.फसल की उपज पर प्रभाव: भू-क्षरण के कारण भूमि की उपजाऊ मिट्टी नष्ट हो  जाने के कारण फसल की पैदावार कम हो जाती है ।
5.कृषि योग्य भूमि पर बालू, बजरी आदि का संचित होना: भू-क्षरण के द्वारा दूसरे स्थान की बालू, बजरी आदि आकर  कृषि योग्य उपजाऊ भूमि के ऊपर जमा हो जाती है जिससे कृषि  भूमि खेती के योग्य नहीं रह जाती है ।
6.कृषि क्रियाओं में बाधा: भू-अपरदन के कारण भूमि की सतह पर नालियाँ बन जाती हैं । जिससे जुताई, निराई, गुड़ाई और फसलों की कटाई आदि कार्यों में मशीनों तथा कृषि उपकरणों  का इस्तेमाल  करना कठिन हो जाता है ।
7.जलाश, जल-मार्ग, झील तथा बन्दरगाहों में सिल्ट का जमा होना: पानी द्वारा बहाकर लायी गयी मिट्टी के कण प्राकृतिक जल निकासों में भर जाते हैं जिससे पानी का निकास ठीक प्रकार से नहीं होने से जल भराव की स्थिति पैदा हो जाती है । इसके अलावा नदियों, नालों, जलाशयों इत्यादि में मिट्टी के कण जमा हो जाते हैं । जिससे नदियां  उथली हो जाती हैं तथा वे अपना रास्ता बदल देती हैं । वर्षा ऋतु में बाढ़ और बाकी दिनों में सूखे के आसार बढ़ जाते है। 
8.याताया पर प्रभाव: जल अपने मार्ग में आनेवाली रेल की पटरियों तथा सड़कों को भी नष्ट कर देता  है । भू-कटाव द्वारा नदी-नालों में बालू, सिल्ट इत्यादि धीरे-धीरे संचित होने से बाढ़ आ जाती है जिससे नाव चलाना तथा बन्दरगाह में जहाज का आना-जाना असम्भव हो जाता है ।
9.आर्थिक स्थिति पर प्रभाव: भू-क्षरण के द्वारा कृषि योग्य भूमि बंजर भूमि में तब्दील हो जाती है और शेष प्रभाति भूमिओं में फसलों की पैदावार घट जाती है । भू-क्षरण से प्रभावित भूमि का मूल्य भी गिर जाता है । अतः कृषकों की आर्थिक  दशा बिगड़ जाती है जिसका सीधा  प्रभाव समाज के अन्य वर्गों और राष्ट्रिय अर्थव्यवस्था पर पड़ता है ।

भू-संरक्षण के आधुनिक उपाय

भारत की तेजी से बढ़ती जनसँख्या के भरण पोषण के लिए भू-सम्पदा को बचाने और उसे सरंक्षित करने के लिए विशेष उपाय किये जाने की महती आवश्यकता है। भू-सम्पदा बचाने के लिए एक तरफ तो मृदा क्षरण रोकने के उपाय करने होंगे तो दूसरी तरफ मिट्टी की उपजाऊ क्षमता को बरक़रार रखने की भी अहम् आवश्यकता है। स्वस्थ और उर्वर भूमि से ही मानव मात्र का कल्याण हो सकता है। आंकड़ों पर गौर करें तो विश्व की कुल भूमि का अमूमन 2.5 फीसदी हिस्सा भारत के पास है जिस पर दुनियाँ की 17 फीसदी आबादी के भरण पोषण के जिम्मेदारी है।  देश की जनसँख्या वर्ष 2050 तक तकरीबन 61 करोड़ 38 लाख से अधिक होने का अनुमान है जिसके भरण पोषण के लिए अतिरिक्त कृषि भूमि लाये जाने की कोई सम्भावना नहीं है।  अतः मौजदा कृषि भूमि की उत्पादकता बढाए जाने तथा उर्वर कृषि भूमि के क्षरण को रोकने के आवश्यक कदम उठाये जाने की जरूरत है। भू-क्षरण अथवा मृदा क्षरण  को रोकने को ही मृदा यानि भूमि संरक्षण कहते हैं । भू-क्षरण की रोकथाम के उपायों को प्रमुख दो भागों अर्थात  जैविक एवं यांत्रिक विधियों  में विभाजित किया गया  है, जिनका विवरण अग्र प्रस्तुत है। 
(अ)जैविक विधियाँ :  इस विधि को दो उपवर्गो  यथा सस्य संबंधी विधियाँ  और वनरोपण तथा घास रोपण विधियाँ में विभाजित किया गया है  जिनका विवरण यहाँ प्रस्तुत है। 
(क)सस्य संबंधी विधियाँ
 1.समोच्च कृषि :  कृषि की सभी क्रियाएं  जैसे जुताई, निराई-गुड़ाई, सिंचाई के लिए नालियाँ बनाना, बोआई आदि ढाल के आड़े, तिरछे कण्टूर रेखाओं (अपवाह जल के साथ समकोण बनाने वाली रेखाओं) पर किया जाना ही समोच्च कृषि कहलाता है । इस प्रकार की खेती से लम्बी ढाल बहुत-सी समतल पट्टियों में विभाजित हो जाती  है । जुताई से ढाल के विपरीत में अनेक कूंड तथा मेंड़  बन जातें, जो छोटे-छोटे बंधान का कार्य करते हैं, जो की पानी की गति को कम करते हैं जिससे भूमि में जल अधिक मात्रा में अवशोषित होता है तथा अपवाह जल  की हांनि  कम होती है ।
 2.आवरण फसलें: मृदा आवरण को ढंकने  वाली फसलें जैसे-मॅूग, उड़द, लोविया, मूँगफली, गुआर फली सोयाबीन आदि भूमि कटाव को रोकती है और भूमि की उर्वरा शक्ति को बढाती है । इस प्रकार की फसलें वर्षा की बूँन्दों को मृदा पर सीधे नहीं पड़ने देती हैं जिससे मिट्टी के कण भूमि से टूटकर अलग नहीं होते हैं । ये फसले अपवाह जल (वर्षा जल) के बहाव को कम करती है तथा पोषक तत्वों को निक्षालित  होने से रोकती हैं । ढकाव वाली फसलें भूमि में कार्बनिक पदार्थो तथा जैविक पदार्थो को बढ़ाती है तथा मृदा-संरचना को सुधारती है जिससे भूमि की रक्षा होती है ।
3. पट्टीदार खेती: इस प्रकार की खेती में फसलें कन्टूर लाईन पर ढाल के विपरीत दिशा में उगायी जाती हैं । भूमि का ढकाव करने वाली फसलें और कटाव में सहायता करने वाली फसलें  एक के बाद दूसरी पट्टियों  में लगाई जाती हैं । कटाव रोकने वाली आवरण-फसलों को अंतिम पट्टी में अवश्य रखा जाता है । आवरण फसलें ऊपर की पट्टी से आयी मिट्टी को रोकती हैं तथा जल के वेग को भी कम करती है ।
 4. भू-परिष्करण क्रियायें:शुष्क क्षेत्रों तथा ढालू भूमियों में उथली जुताई करने से मृदा क्षरण को काफी हद तक कम किया जा सकता है । भू-परिष्करण की क्रियाएँ कम से कम होनी चाहिये । जुताई ,निराई-गुड़ाई आदि कार्य  समोच्चय रेखाओं पर ही करनी चाहिये । ढाल की दिशा में जुताई करने से भू-कटाव की गति बहुत अधिक बढ़ जाती है, पोषक तत्वों का ह्रास अधिक होता है जिसके फलस्वरूप उत्पादन कम होता है। 
5. कार्बनिक पदार्थ: भूमि में  जैविक खाद के प्रयोग से फसल के लिए आवश्यक कार्बनिक पदार्थ  मात्रा में बढ़ोत्तरी के साथ साथ  भू-क्षरण कम होता है । हल्की मिट्टी में पर्याप्त कार्बनिक पदार्थ होने  से मिट्टी के कण आपस में बँधे रहते हैं तथा भारी मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ अधिक होने  से भूमि की जल-अवशोषण क्षमता बढ़ता है । अतः जैविक खाद के इस्तेमाल से भूमि में कार्बनिक पदार्थ बढ़ाना नितांत आवश्यक है। 
6. पलवार कृषि:  फसल और पेड़ पौधों के अवशेष जैसे पत्तियां, पुआल, भूसा आदि का प्रयोग भूमि ढकने के लिए किया जाता है जिसे मल्चींग  कहते हैं । इससे भूमि की वर्षा की सीधी चोट, तेज वायु तथा धूप से सुरक्षा होती है साथ ही भूमि से पानी का वाष्पीकरण कम हो जाता है । पलवार कृषि से सिंचाई की जरुरत कम होती है, खरपतवार प्रकोप तथा मृदा अपरदन रूकता है ।
7. फसल चक्र: उचित फसल चक्र के उपयोग से भूमि के कटाव में कमी आती है तथा मृदा की भी सुरक्षा हो जाती है । फसल-चक्र में मूँग, उड़द, मूँगफली, अरहर इत्यादि फसलों को लेना आवश्यक होता है ।
8. शुष्क कृषि अथवा असिंचित खेती: भू-कटाव से ग्रसित क्षेत्रों में भूमि समतल नहीं रहने के कारण सिंचाई की समस्या होती है । सूखे क्षेत्रों में उचित ढंग से खेती करने से भूमि की उर्वरता शक्ति बनी रहती है और भूमि में नमी संचित रहती है तथा भू-क्षरण कम होता है ।
(ख)वनरोपण तथा घासरोपण विधियाँ
          पेड़-पौधे वर्षा के बूँदों को भूमि पर सीधे नहीं पड़ने देते हैं तथा पेड़ों की जड़ें मिट्टी के कणों को जकड़े रहती हैं, जिससे भूमि का कटाव कम होता है । पत्तियों तथ जड़ों का गलन सड़न से भूमि में कार्बनिक पदार्थ की वृद्धि होती है । जिससे भूमि में जल अवशोषण की क्षमता बढ़ती है । पेड़-पौधे हवा की गति में भी रूकावट डालते हैं जिससे हवा द्वारा भू-क्षरण कम होता है । नदी के तट पर, पशुओं के बाड़े में चारगाहों के किराने, सड़क युक्त बंजर भूमि आदि में बहुतायत से वृक्ष लगाना चाहिये । भूमि-कटाव रोकने में घास का निम्नलिखित फायदे होते है:
-घासें अपवाह जल की गति को कम करती  है तथा जलीय अपरदन को रोकती  है जैसे, दूब घास, रोसा घास आदि  बहुत अच्छा आवरण बनाती है ।
-कुछ घासें जैसे खस, कांस,दूब घासकुडजू लत्ती  आदि  गली-कटाव  का नियंत्रण करती है  ।
-कुछ घासें जैसे, कांस  नदी-नालों के किनारे होनेवाले भू-क्षरण को रोकता है ।
- नेपियर घास, नीबू घास, कांस दूब आदि  घासें मेंड़ों तथा अपवाह जल के निकास-मार्ग की रक्षा करती है 
भूमि कटाव रोकने में वायु रोधक एवं वायुरोधी पट्टियों का व्यवहार:  वायुरोधक का व्यवहार फार्म प्रतिष्ठानों की रक्षा के लिए किया जाता है, जबकि वायु अपरदन से खेतों के बचाव के लिए वायुरोधी पट्टियों का व्यवहार किया जाता है । ये वायुरोधी वृक्ष एवं झाड़ियाँ वायुवेग को सीमित करती हैं, उनके मार्ग को बदल देती हैं, गर्म हवाओं के तापमान को घटाती हैं एवं हवाओं के बुरे प्रभावों को कम करती हैं । इस उपाय के द्वारा मिट्टी अपरदन कम होता है । वायुरोधी पट्टियों को खेत के उस किनारे पर रखते हैं, जिस तरफ से हवा सामान्यतः बहती है। वृक्षों में  बबूल, शीशम, सिरिस , नीम आदि तथा झाड़ियों में कैशिया, ग्लाइरिसिड़ा, कांस आदि  वायु की गति कम करने के लिए उपयुक्त पाई गई हैं। 

(ब)यांत्रिका विधियाँ

1. मेंड़ बन्दी: ढाल के विपरीत दिशा में समोच्च रेखाओं पर मेंड़ बनायी जाती है । जहाँ ढाल 2 प्रतिशत से कम होती है वहाँ इस प्रकार की मेंड़ बन्दी लाभदायक होती हैं । मेड़ेंज ल को रोकर अन्तः स्यंदन होने में मदद करती हैं, जिससे भूमि-क्षरण रूकता है ।
2. भूमि को समतल करना: भूमि को समतल कर देने स ेजल पूरे खेत में पूर्णरूप से वितरित हो जाता है और उसका अवशोषण भूमि में अधिक होता है जिससे अपरदन कम होता है ।
3. कठोर संस्तरों को तोड़ना: अनियोजित और ख़राब भूमि भूमि प्रबंधन से जमीं के भीतर एक कठोर परत बन जाती है जिससे भूमि के अंदर पानी प्रवेश कम होता और पेड़-पौधों की जड़ो का विकास भी अवरुद्ध हो जाता है। जमीं के अंदर कठोर संस्तर बनने  कारण मृदा का उपजाऊ परत का क्षरण भी होने लगता है।  पैन ब्रेकर यंत्र से जमीन के भीतर स्थित कठोर संस्तर को तोड़कर उसकी अन्तःस्यंदनता तथा पारगम्यता बढ़ायी जा सकती है, जिससे जमींन के अंदर अधिक से अधिक जल भरण हो सकें। 
4. अवभूमि की गहरी जुताई: सब-स्वायलर  यंत्र से अवभूमि की जुताई की जाती है जिससे भूमि की पारगम्यता बढ़ जाती है । भूमि में पृष्ठीय तथा नालीदार क्षरण के बाद अवमृदा कड़ी हो जाती है जिस कारण अन्तःस्यंदन रूक जाता है ।
 5. नालेदार कटाव : गली की वृद्धि एवं विकास भी रोकने के लिए गली क्षेत्र का घेरा बन्दी आवश्यक है, जिससे क्षेत्र का पशुओं का आना जाना रूक सके और प्राकृतिक वनस्पति पनप और बढ़ सके । इनके बाद गली क्षेत्र में बहने वाली वर्षा जल को क्षेत्र के बाहर से बाहर निकास के लिए चारो तरफ बाँध  का निर्माण करना होता है । इसके बाद विभिन्न प्रकार की सामग्री जैसे मिट्टी, बोरा में भरा बालू, पत्थर आदि  से गली  द्वार को बन्द दिया जाता है । छोटी गली को खेती योग्य  बनाने के लिए जेसीबी  से गली सतह को समतल कर लिया जाता है । इस क्षेत्र में कुछ-कुछ दूरी पर जलरोधी बाँध बनाते हैं ताकि पानी के बहाव को रोका जा सके । बड़ी गली के सुधार हेतु उस क्षेत्र के लिए उपयुक्त घास एवं वृक्ष का चुनाव कर लगाया जाता है ।
6. चबूतरा बनाना: जब ढालू पर खेती की जाती है तो ढाल के विपरीत दिशा (समोच्चय रेखाओं) पर बाँध या मेंड़बन्दी करके भूमि को चबूतरे (टैरेस) की भाँति बनाया जाता है । टैंरेस भूमि की जल अवशोषण क्षमता में वृद्धि करता है तथा भू-कटाव को रोकता है । टैंरेस के द्वारा अतिरिक्त जल(अपवाह जल) का निकास नियंत्रित ढंग से होता है ।
7. थाला बनाना: इस विधि में कन्टूर रेखओं पर छोटे-छोटे थालों  का निर्माण बेसिन लिस्टर यंत्र के द्वारा किया जाता है । बेसनि लिस्टिंग  जल को रोक कर उसके बहाव की गति कम कर देता है ।
8. जल संग्रह:  हमें "खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में" की तर्ज पर जल सरंक्षण के आवश्यक उपाय अपनाने होंगे जिससे तात्कालिक जलापूर्ति और भविष्य के लिए भू-जल भरण हो सकें। वर्षा के जल को एकत्रित करने के लिए उचित स्थानों पर छोटे-छोटे तालाबों का निर्माण किया जा सकता है  । यह सरंक्षित जल फसल सरंक्षक  सिंचाई तथा पशुओं के उपयोग में आता है । 
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

धरती की रक्षा से ही खाद्य, पोषण और पर्यावरण की सुरक्षा

विश्व पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल 2017 पर विशेष आलेख

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहनी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, 
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

            प्रकृति द्वारा प्रदान किये गए उपहारों में भूमि  मनुष्य-जीवन तथा मानव सभ्यता के विकास के लिए सर्वोपरि है। आज भी कृषि मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण व्यवसाय है और मृदा पर ही कृषि की सफलता निर्भर करती है। भूमि पर संसार की विभिन्न उत्पादन क्रियाएं निर्भर हैं। भूमि संसाधनों से उपलब्ध उत्पादों के आधार पर ही किसी देश की अर्थव्यवस्था का विकास होता है। अतः किसी देश के आर्थिक विकास में भूमि सम्पदा का महत्वपूर्ण स्थान है। मानव के अधिकांश कार्य भूमि पर तथा भूमि के माध्यम से ही संचालित होते हैं। भूमि संसाधनों का उपयोग विविध प्रकार से मानव की विभिन्न आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के लिए किया जाता है। मनुष्य की आवास, भोजन, आवागमन हेतु संचार साधनों, ईंधन, फल, फूल, सब्जी इत्यादि अनेक आवश्यकताओं की परिपूर्ति भूमिगत संसाधनों पर ही निर्भर करती है। आंकड़ों पर गौर करें तो विश्व की कुल भूमि का 2.5  हिस्सा भारत के पास है। दुनिया की 17  प्रतिशत जनसंख्या का भार भारत वहन कर रहा है। सिकुड़ते भूमि संसाधन आज भारत जैसे विकासशील देश के लिए सबसे बड़ी समस्या है। देश में मनुष्य भूमि अनुपात मुश्किल से 0.48 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है जो दुनिया के न्यूनतम् अनुपातों में से एक है। वर्तमान में प्रति व्यक्ति कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता मात्र 0.15 हेक्टेयर है और ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है की वर्ष 2075 में एक व्यक्ति के हिस्से में कृषि योग्य भूमि मात्र 0.09 हेक्टेयर रह जायेगी जिसमें  रोटी,कपडा और मकान की व्यवस्था करना एक प्रकार से  दिवास्वप्न  ही साबित होगा।
 
                 प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी हम सब मिलकर 22 अप्रैल 2017 को विश्व पृथ्वी दिवस मनाने की रस्म अदायगी कर लेंगे। इस वर्ष  विश्व पृथ्वी दिवस का मुख्य विषय "पर्यावरण और जलवायु साक्षरता" रखा गया है। इस गंभीर विषय पर हम सब को एक दिन नहीं अपितु रोजाना  चिंतन करने की आवश्यकता है और देश के अन्य नागरिकों को भी इस विषय में शिक्षित कर धरती माता की बगड़ती सेहत को सुधारने के लिए जन आंदोलन प्रारम्भ करने के साथ स्वयं धरती को सुन्दर और हरा-भरा बनाने का संकल्प लेना होगा। सैकड़ों वर्ष पूर्व महाकवि कबीरदास जी ने कहा था-'माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे  मोय।  एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय'।। अर्थात मिट्टी कुम्हार से कहती है की आज तो तू मुझे पैरों के नीचे रोंद रहा है, पर एक दिन ऐसा आएगा जब तू में रे नीचे होगा और मई तेरे ऊपर होउंगी। इसमें कोई दो मत नहीं की जीवन की उत्पति मिट्टी से ही हुई है और एक दिन हमें  मिट्टी में ही मिल जाना है परन्तु अपने वर्तमान और भावी पीढ़ी के सुखमय  भविष्य के लिए पृथ्वी को सुन्दर, स्वच्छ और हरा भरा बनाने की आज पुरजोर आवश्यकता है।यह निर्विवाद रूप से सत्य है की धरती माता की रक्षा से ही हम खाद्यान्न, पोषण और पर्यावरण सुरक्षा की मजबूत नींव स्थापित कर सकते हैं।  इस लेख में हम भूमि क्षरण के विभिन्न कारण और उसके निराकरण पर सारगर्भित चर्चा करते है। 

 उपजाऊ माटी-कही ढूंढते न रह जाएं 

               मिट्टी खेती की जान है, हमारी आन-बान और शान है  लेकिन  कृषि प्रधान भारत की आधी से ज्यादा मिट्टी बेजान हो चुकी है।  लगभग 170 लाख हेक्टेयर मिट्टी किसी न किसी समस्या से पीड़ित है। कहीं पानी के ऊपर आने से लवण भी ऊपर आ गए है जिसके परिणाम स्वरूप मिट्टी नोनिया और रेहीली हो गई है।  इस तरह कहीं मिट्टी में क्षारीयता बढ़ी है, तो कहीं अम्लीयता अपने पाँव पसार रही है। कृषि भूमि का एक बड़ा हिस्सा जल भराव से ग्रस्त है तो दूसरी तरफ 60 फीसदी से अधिक कृषि भूमि सूखा ग्रस्त है।   सघन खेती के माध्यम से हमने  मिट्टी से जितने पोषक तत्व और जल  खींचा, उतना उसे  कभी लौटाया नहीं गया। इस कारण मिट्टी में मुख्य पोषक तत्वों के साथ साथ द्वितीयक तत्व और सूक्ष्म मात्रिक पोषक तत्वों खासतौर से गंधक (सल्फर),जस्ता (जिंक), बोरान, तांबा (कॉपर), मॉलिब्डेनम की भी कमीं महसूस होने लगी है।  भारत के कुल भोगोलिक क्षेत्र 328.7 मिलियन हेक्टेयर में से 264.5 मिलियन हेक्टेयर कृषि, वन, चारागाह और अन्य बायोमास उत्पादन के अन्तर्गत आता है।  हर जगह की मिट्टी की अपनी कुछ खूबियां होती है। आपने कभी सोचा है की नागपुरी संतरे, इलाहाबादी अमरुद, मलीहाबाद के दशहरी आम, मुज्जफरपुर की लीचिया, नगरी (छत्तीसगढ़) का दुबराज चावल, बीना-खुरई (मध्य प्रदेश) का शरबती गेंहू आदि क्यों मशहूर है ? इन स्थानों की मिट्टी की वजह से और ये मिट्टियाँ कोई आज या कल में नहीं बनी है। इनके बनने की प्रक्रिया  हजारों-लाखो साल से चलती आ रही है।  मिट्टी की कोई ढाई सेमी. मोटी ऊपरी परत बनने में 500 से 1000 साल लग जाते है  और जब हरियाली नहीं होती, तो तेज मूसलाधार वर्षा की धारा इस बेशकीमती उपजाऊ परत को आनन-फानन में बहा ले जाती है और उपजाऊ कृषि भूमि को बंजर भूमि में तब्दील कर देती है।  इसी गति से भू-क्षरण होता रहा तो एक दिन हम सब के लिए भोजन और पानी के लाले पड़ने वाले है।  

आखिर क्यों होता है भूमि क्षरण 

                  भारत में भूमि क्षरण की समस्या को गंभीरता से नहीं लिया जाना एक दिन बहुत भारी पड़ने वाला है।  नेशनल ब्यूरो ऑफ़ साइल सर्वे एंड लैंड यूज़ प्लानिंग के अनुसार भारत में लगभग 146.8 मिलियन हेक्टेयर भूमि क्षरित हो चुकी है।  देश में जल अपरदन सबसे गंभीर समस्या है जिसके चलते हमारी भुमिओं की ऊपरी उर्वरा और उपजाऊ परत नष्ट होती जा रही है जिससे भविष्य में फसलोत्पादन के लिए बड़ा संकट खड़ा हो सकता है।  एक विश्लेषण के अनुसार औसतन 16.4 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष मृदा अपरदन हुआ जिससे देश भर में 5.3 बिलियन टन मृदा का ह्रास हुआ. कुल अपरदित मृदा का 29 फीसदी मृदा स्थाई रूप से समुन्द्र की भेंट चढ़ गई,  61 % एक स्थान से दुसरे स्थान स्थानांतरित हो चुकी थी तथा शेष 10 % जलाशयों में समाहित हो चुकी थी. भारत के सिंचित और असिंचित दोनों ही क्षेत्रों में मृदा क्षरण की समस्या गंभीर होती जा रही है . मृदा क्षरण के चलते भारत की फसल उत्पादकता में कमीं, फसल पद्धति में बदलाव और आदानों के बड़ते इस्तेमाल से भारी आर्थिक क्षति हो रही है।  एक अनुमान के अनुसार  अकेले जल अपरदन के कारण प्रति वर्ष 13.4 मिलियन टन अनाज, दलहन और तिलहन उत्पादन की हांनि हो जाती है। 
1.जंगलों की कटाई, अति चराई और अकुशल वन प्रबंधन: जंगलो की अंधाधुंध कटाई और जानवरों द्वारा बेखौफ चराई की वजह से अनेक राज्यों में भू-क्षरण होने के कारण वहां की 20% से अधिक  भूमि बंजर हो चुकी है।  पशुओं के लिए चारे, जलाऊ और इमारती लकड़ी के लिए वनों का अत्यंत शोषण, कृषि कार्यो के लिए जंगलों पर अतिक्रमण, आग और अवैध चराई के कारण दिन प्रति दिन भू-क्षरण की समस्या गंभीर होती जा रही है।  भूमि क्षरण को रोकने में  चारागाहों की महत्वपूर्ण भूमिका है, परन्तु चारागाहो में उसकी क्षमता से अधिक पशुओं को चराने से वनस्पतियाँ नष्ट होती  जा रही है। चरागाहों की आदर्श चराई क्षमता 5 पशु/हेक्टेयर मानी जाती है परन्तु हमारे यहा 11  मिलियन हेक्टेयर चारागाहों पर 467 मिलियन पशु अर्थात 42 पशु/हेक्टेयर चराई करते है।  मरुस्थलीय और सूखा ग्रस्त क्षेत्रों में  पशु संख्या अधिक होने से चारागाहों और घांस भूमि में अतिशय  चराई होती है जिसके फलस्वरूप वहां की  मिट्टी में जल सोखने की क्षमता कम हो जाती है जिससे पानी तेजी के साथ खली भूमि पर बहने लगता है जिस कारण भू-क्षरण अधिक होता है। वनों और चरागाहों के अति दोहन से ही जल और वायु अपरदन की समस्या बढती जा रही है।  भारत में प्रति व्यक्ति वन भूमि की उपलब्धता मात्र 0.08 हेक्टेयर है जबकि मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए 0.47 हेक्टेयर/व्यक्ति वन होना चाहिए और यही वजह है हमारे वनों का शोषण तेजी से किया जा रहा है। 
2.शहरीकरण, ओद्योगिकरण  और खनन के कारण भू क्षरण : भारत में तेजी से बढ़ते शहरीकरण,  ओद्योगिकरण और ढांचागत विकास के चलते  कृषि, वन और चारागाह वाली जमीनों  का क्षेत्रफल निरंतर घटते जा रहा है।  विकास की अंधी दौड़ में मिट्टी, बालू, खनिज आदि का बेतरतीब दोहन किया जा रहा है जिससे उपजाऊ मिट्टी और  वनस्पतियों का तेजी से ह्रास हो रहा है जिसके फलस्वरूप भूमिगत जल का स्तर गिरता जा रहा है और पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। 
3.भू क्षरण के प्राकृतिक और सामाजिक कारण : भू क्षरण के प्राकृतिक कारणों में से ज्वालामुखी, सुनामी, सूखा,बाढ़,भूस्खलन, जंगल में आग आदि प्रमुख है।  जमीन  की कमीं और प्रति व्यक्ति कम भूमि उपलब्धता  होने के कारण भूमि पर सामाजिक और आर्थिक दबाव बढ़ने से  लगातार भू क्षरण हो रहा है। 
4.भूमि की कमीं,  विखंडित जोत  और कमजोर  अर्थव्यवस्था: भारतीय कृषि में 80 % किसानों के पास  छोटी जोत (2 हे से कम) है जो 50 % कृषि उत्पाद पैदा करते है।  प्रति व्यक्ति औसत कृषि भूमि की उपलब्धता 0.32 हेक्टेयर से भी कम होने के कारण कृषि योग्य भूमि पर जनसँख्या दबाव बढ़ रहा है . कम जोत होने के कारण किसान खेती किसानी के आधुनिक तौर तरीके तथा भूमि और जल प्रबंधन के आवश्यक उपायों को नहीं अपना पा रहे है जिसकी वजह से उपलब्ध कृषि भूमि भी भूक्षरण की चपेट में आती जा रही है। 
5.जनसँख्या का दबाव: भारत में विश्व का 2.5% क्षेत्र है जिस पर  विश्व की 17 % जनसँख्या और 20% पशु संख्या के भरण पोषण का उत्तर दायित्व है. विस्फोटक गति से बढती मानव और पशु संख्या के कारण सीमित प्राकृतिक संसाधनों  यथा भूमि और जल पर दबाव बढ़ता जा रहा है क्योंकि जनसँख्या के अनुरूप मकान, बाजार, सड़क, शिक्षा के लिए  तमाम साधन जुटाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और शोषण होना सुनिश्चित है .
6.कृषिगत कार्यो से भू क्षरण : भारत में कृषि योग्य भूमि पर शादियों से खेती की जा रही है. हरित क्रांति की सफलता के लिए अधिक उपज देने वाली फसलों और प्रजातियों से अधिकतम उत्पादन लेने की होड़ में हमने भारी मात्रा में रासायनिक उर्वरक, पौध सरंक्षण दवाओं और सिंचाई जल का भरपूर प्रयोग किया जिसके चलते प्रकृति प्रदत्त भूमि और जल संसाधनों का क्षरण होता गया. देश के अनेक क्षेत्रों में अब फसल उत्पादन या तो कम होने लगा है या फिर उत्पादकता में एक ठहराव की स्थिति उत्पन्न हो गई है।  तमाम कृषि क्रियाए जैसे ढलानू जमीनों पर खेती, जल एवं वायु अपरदन, जल भराव, मृदा प्रदुषण, वायु प्रदुषण अत्यधिक जुताई, सिंचाई के लिए भूमिगत जल के अतिशय दोहन आदि से भू क्षरण को बढ़ावा मिल रहा है। प्रमुख कृषिगत कार्यो से होने वाले भूमि क्षरण से सम्बंधित चर्चा करते है।  
(i) असंतुलित उर्वरक उपयोग : गेंहू, धान, गन्ना, मक्का आदि फसलों  की सघन खेती के कारण कृषि भूमि की उर्वरता और उत्पादकता में लगातार ह्रास हो रहा है क्योंकि ये फसलें उपलब्ध पोषक तत्वों और नमीं का अत्यधिक मात्रा में अवशोषण करती है।  संतुलित उर्वरक प्रयोग में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश का अनुपात 4:2:1 होना चाहिए परन्तु वर्तमान में 5:2:1 के अनुपात में इनका उपयोग किया जा रहा है।  खाद्यान्न उत्पादन बढ़ने के साथ साथ भूमि में जहाँ 1950 में एक पोषक तत्व (नाइट्रोजन) की कमी हुआ करती थी जो अब बढ़ कर नौ पोषक तत्वों यथा नाइट्रोजन, फॉस्फोरस,पोटाश, सल्फर,बोरोन,कॉपर, आयरन,मेगनीज और जिंक की कमीं के लक्षण दिखने लगे है।  यधपि उर्वकों की कृषि में खपत बढ़ी है परन्तु औसत उर्वरक उपयोग अभी भी कम और असंतुलित है। प्रति वर्ष फसलों द्वारा लगभग 20 मिलियन टन मुख्य पोषक तत्व (नाइट्रोजन,फॉस्फोरस और पोटाश) भूमि से अवशोषित कर लिए जाते है परन्तु खाद और उर्वरकों के माध्यम से इन पोषक तत्वों की पूर्ति इससे कम मात्रा में हो रही है।  एक अध्ययन के अनुसार पिछले 50 वर्षो में पोषक तत्वों के निष्काशन और  प्रदाय में 8-10 मिलियन टन  नत्रजन,फॉस्फोरस और पोटाश प्रति वर्ष का अंतर बना हुआ है।   इसके अलावा भू-क्षरण के माध्यम से पोषक तत्वों की हानि से भी मृदा उर्वरता और उत्पादकता में गिरावट आती जा रही है। प्रति वर्ष 5.3 मिलियन टन मिट्टी के साथ 8 मिलियन टन पोषक तत्व नष्ट हो रहे है जिसके फलस्वरूप मृदा की सेहत खराब होने से फसलोत्पादन  में गिरावट/स्थिरता परिलक्षित हो रही है। 
(ii)अतिशय भूमि कर्षण और भरी मशीनों का प्रयोग: कृषि भूमि की अधिक जुताई के साथ साथ फसलों की बुआई और कटाई में भारी-भरकम मशीनों के प्रयोग से मृदा की भौतिक और जैविक  गुणों में तेजी से ह्रास होता जा रहा है।  भूमि की ऊपरी परत शख्त हो जाने से उसकी जल धारण क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है  साथ ही भूमि पर जल भराव की समस्या भी उत्पन्न हो जाती है .धान-गेंहू की सघन खेती में जल और उर्वरकों के अधिक प्रयोग से पर्यावरण प्रदुषण होने के अलावा भूमि गत जल का स्तर नीचे चला जा रहा है। 
(iii)फसल अवशेष जलाना और अपर्याप्त जीवांश पदार्थ : भारत की भूमियों में मिट्टियो की जान-जीवांश पदार्थ की निरंतर कमीं होती जा रही है. देश की लगभग 3.7 मिलियन हेक्टेयर कृषि भूमि में जीवांश पदार्थ और पोषक तत्वों की भारी कमीं परिलक्षित हो रही है।  भारत में प्रति वर्ष लगभग 500 मिलियन टन फसल अवशेष पैदा होता है जिसमे से 125 मिलियन टन फसल अवशेषों को बेरहमी से जला दिया जाता है. भारत में सबसे अधिक फसल अवशेष उत्तर प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र में उत्पन्न होते है। विभिन्न फसलों में अन्न वाली फसलों से सर्वाधिक फसल अवशेष ( 352 मिलियन टन) पैदा होते है।  इसके बाद रेशेदार फसलें, तिलहन, दलहन और गन्ना का क्रम आता है। भारत की प्रमुख फसलों में  धान (34%) और गेंहू (22%) से सर्वाधिक मात्रा में फसल अवशेष पैदा किये जाते है जिसका कुछ हिस्सा  जानवरों के चारे के रूप में  प्रयुक्त होता है और शेष को खेतों में ही जला दिया जाता है। 
(iv)घटिया जल प्रबंधन: भारत में दोषपूर्ण सिंचाई प्रणाली और गलत जल प्रबंधन के कारण कई प्रदेशो के नहरी क्षेत्रों में भू-जल स्तर ऊपर आने से मृदा की सेहत बिगडती जा रही है।  यहाँ की जमीनों में जल भराव और क्षारीयता की समस्या उत्पन्न हो गई है  जिससे बहुत सी भूमि बंजर होने के कगार पर है। भारत के  अनेक राज्यों में भूजल के अतिशय दोहन से भूजल स्तर नीचे चले जाने से सूखा-अकाल की स्थिति निर्मित हो रही है। 
(v)दोषपूर्ण फसल चक्र: अनियोजित फसल चक्र और मृदा तथा जल सरंक्षण के सामयिक उपाय ना अपनाने के कारण भू क्षरण की समस्या विकराल होती जा रही है। धान-गेंहू, गन्ना, कपास आदि फसल चक्रों में दलहनी-तिलहनी फसलों और मृदा आवरण को ढकने वाली फसलों के अभाव से मृदा अपरदन बढ़ता है और मृदा की उपजाऊ शक्ति कम होती है। 

धरती हमारी धरोहर: इसे बचाना है


               उपजाऊ मिट्टी हमारी सबसे कीमती धरोहर है।  इसे हमें हर हाल में बचाना और पोषित करना होगा।  हर साल कोई 600 करोड़ टन उपजाऊ मिट्टी बाढ़ के साथ बहकर समुद्र की भेंट चढ़ जाती है। लगभग 15 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में मिट्टी का कटाव जारी है। भूमि क्षरण का यही क्रम जारी रहा तो एक दिन हम कृषि के लिए उपजाऊ मिट्टी ढूंढते ही रह जाएंगे।  अगर हमने मिट्टी के ऊपर हवा-पानी की मार से बचाने वाली हरियाली की चादर फिर से नहीं डाली, तो कहीं ऐसी नौबत ना आ जाए की हमें अपनी फसलें उगाने के लिए चंद्रलोक की मिट्टी लानी पड़े।  यह महज एक दिवास्वप्न है जिसके फलीभूत होने की कोई सम्भावना नहीं दिखती है। हमारे लिए तो यही अच्छा होगा की चंद्र-धुल की प्रतीक्षा न करके अपने देश की माटी का मोल समझें और इसे ज्यादा ख़राब होने से बचाएं और ख़राब हो चुकी मिट्टियों  की सेहत को ठीक  करने के जतन करें।  भूमि पर्यावरण सरंक्षण और हमारे जीवन  तथा मानव विकास की आधारशिला है। हमें ही धरती माता की हरियाली और मानव की खुशहाली के लिए यथोचित उपाय करने होंगे। इस सदर्भ में महाकवि सुमित्रानंदन पंत की प्रसिद्ध रचना 'आ: धरती किता देती है'  की चंद पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ- 
रत्न प्रसविनि है वसुधा, अब समझ सका हूँ। 
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है। 
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने है। 
इसमें मानव ममता के दाने बोने है। 
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें,
मानवता की जीवन क्षम्य से हँसे दिशाएं। 
हम जैसे बोएँगे वैसा ही पाएंगे।।
कविवर की इसी भावना के साथ हम सब को मिलकर जीवन दायिनी धरती की रक्षा करने का संकल्प लेना होगा और  भू-क्षरण के बढ़ते खतरे से भावी खाद्यान्न सुरक्षा एवं देश की समृद्धता पर पड़ने वाले दूरगामी प्रभाव को पहचानते हुए भूमि सरंक्षण हेतु आवश्यक उपाय करने के लिए स्वयं पहल करनी होगी तथा जन समुदाय में भी जन जागरूकता पैदा करने  अहम भूमिका ऐडा करना होगी।  
भूमि क्षरण के प्रकार और भूमि क्षरण रोकने के संभावित उपाय पर चर्चा इस  ब्लॉग के अगले लेख में प्रस्तुत कर रहे है।
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