ग्रीष्मकाल
में पशुधन के लिए पौष्टिक हरा चारा उत्पादन
डॉ
गजेन्द्र सिंह तोमर,
इंदिरा
गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज
मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर
पशुपालन व्यवसाय की सफलता मुख्यतः हरे चारे पर निर्भर करती है। पशुधन के लिए उपयोगी एवं आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति के लिए हरा चारा
एक मात्र सस्ता स्त्रोत है। भारत में पशुधन के लिए 61 करोड़ हरे चारे एवं 86 करोड़
टन सूखे चारे की आवश्यकता है। जबकि इनकी उपलब्धतता क्रमशः महज 21 एवं 48 करोड़ टन है। सर्वविदित है
कि पौष्टिक हरा चारा उत्पादन से ही दुग्धोत्पादन पर व्यय को कम किया जा सकता है। ग्रीष्मकाल
में पशुधन के लिए हरे चारे की सर्वाधिक कमी रहती है जिसका दुधारू पशुओं के
स्वास्थ्य एवं दूध उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इस समस्या के समाधान हेतु पशुपालकों
को उपलब्ध सिंचित कृषि भूमि पर हरा चारा उत्पादन करना चाहिए जिससे पशुपालन में
दाना-खली के खर्चो में कटौती की जा सके और पशुधन के लिए पौष्टिक हरा चारा उपलब्ध
कराकर दुग्ध उत्पादन को बढाया जा सकें। ग्रीष्मकाल में ज्वार, बाजरा एवं मक्का को
चारा फसल के रूप में उगाकर हरा रसीला पौष्टिक हरा चारा आसानी से पैदा किया जा सकता
है। इन फसलों को वैज्ञानिक तरीके से उगाकर भरपूर पैदावार ली जा सकती है. ग्रीष्मकाल
में ज्वार, बाजरा एवं मक्का फसल से अधिकतम हरा चारा उत्पादन हेतु सस्य तकनीक अग्र
प्रस्तुत है।
ज्वार चारा फसल फोटो साभार गूगल |
ज्वार की खेती ऐसे करें
ज्वार
की खेती खाद्यान्न फसल के रूप में खरीफ में की जाती है। खरीफ फसलों द्वारा प्राप्त
कुल हरे चारे का 70-80 % चारा ज्वार से प्राप्त होता है। ज्वार के हरे चारे में
6-7 % प्रोटीन,, 30-32 % रेशा,49.5 % नत्रजन रहित निष्कर्ष, 1.8-2.3 % ईथर
निष्कर्ष, 0.32-0.50 % कैल्शियम तथा 0.22-0.24 % फॉस्फोरस पाया जाता है। ज्वार का
हरा चारा, कड़वी एवं साइलेज तीनों ही पशुधन के लिए उपयोगी तथा शक्तिवर्धक होता है। वर्षाकाल की अपेक्षा ग्रीष्मकाल में ज्वार से अधिक मात्रा में गुणवत्ता युक्त हरा चारा पैदा किया जा सकता है। ज्वार चारे की अधिकतम पैदावार के लिए सस्य तकनीक प्रस्तुत है।
उन्नत
किस्मों का चयन : खाद्यान्न उत्पादन के लिए उपयोगी सभी किस्मों
को चारे के लिए उगाया जा सकता है परन्तु उत्तम क़िस्म की पौष्टिक हरा चारा अधिक
मात्रा में पैदा करने के लिए कुछ ख़ास किस्मों की खेती करना लाभदायक होता है। पौष्टिक
हरे चारे के लिए ज्वार की प्रमुख किस्मों की विशेषताएं अग्र सारणी में प्रस्तुत
है।
प्रमुख
किस्में
|
हरा
चारा उपज (क्विंटल/हे.)
|
प्रमुख
विशेषताएं
|
विदिशा
60-1
|
400-450
|
बीज से
बीज की अवधि 140-160 दिन. चारा 95-105 दिन.ऊंचे पौधे, तने मोटे. बीज एवं चारे के
लिए उपयुक्त।
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पूसा चरी
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450-500
|
पतले एवं
रसीले तने, बीज से बीज अवधि 130-145 दिन।
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एस-136
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450-500
|
औसत समय
में तैयार होने एवं मीठे तने वाली।
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एम पी
चरी
|
400-450
|
शीघ्र
तैयार होने (70 दिन) एवं बहु कटाई के लिए उपयुक्त . बीज से बीज अवधि 110 दिन।
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मीठी
सूडान
|
600-650
|
बहु
कटाई, तने पतले, रसीले, पत्तीदार, ग्रीष्मकाल के लिए उपयुक्त, चारा 65 दिन में.विषाक्त
पदार्थ कम. बीज से बीज अवधि 90-95 दिन।
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जे-69
|
450-500
|
बहु कटाई
वाली एवं चारा शीघ्र तैयार।
|
उपयुक्त
जलवायु :
ज्वार के अंकुरण एवं समुचित वानस्पतिक वृद्धि के लिए 32-35 डिग्री सेल्सियस
त्तापमान आवश्यक होता है। बुवाई के समय वातावरण का तापमान 20-30 डिग्री सेल्सियस
के मध्य होना चाहिए।
भूमि का
चुनाव: ज्वार की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमियों में संभव है परन्तु अच्छे जल
निकास वाली दोमट,
बलुई दोमट भूमि तथा हल्की काली मिटटी इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम
रहती है। सफल खेती के लिए भूमि का पी एच
मान 6.5-7.5 उपयुक्त होता है।
खेत
की तैयारी : खेत में हल्की सिंचाई करके एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 1-2 जुताइयां देशी हल/कल्टीवेटर से
करना चाहिए। जुताई के बाद खेत में पाटा लगा कर मिटटी मुलायम व भुरभुरी कर
लेना चाहिए।
बुवाई
का समय :
सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में ज्वार
की वुवाई फरवरी से लेकर जून तक कभी भी की जा सकती है. ग्रीष्मकाल में हरे चारे
हेतु इसकी बुवाई फरवरी के दि्वतीय सप्ताह
से मार्च तक करना चाहिए। गर्मी में ज्वार की फसल को बोने के 50 दिन के बाद ही
पशुधन को खिलाना चाहिए।
बीज
दर
: चारे के लिए शुद्ध और प्रमाणित बीज का प्रयोग करना चाहिए। छोटे दाने वाली किस्मों (एम पी चरी, मीठी सूडान
आदि) के लिए बीज दर 30 कि.ग्रा. तथा बड़े दाने वाली किस्मों (पूसा चरी-1, एस-136, जे-9 आदि) के
लिए बीज दर 40 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए. बीज अंकुरण क्षमता 85 % से कम
होने पर बीज दर बढ़ा देना चाहिए।
बुवाई
की विधि :
अनाज और अन्य फसलों की भांति चारा वाली फसलों को भी कतार में बोना उत्तम रहता है ।
ज्वार की बुवाई हल के पीछे 25-30 से.मी. की दूरी पर लाइनों
में करना अच्छा होता है। पौध से पौध के बीच 10-12 से.मी. का अंतर रखें तथा बीजों
को 1.5-2.0 से.मी. गहराई पर बोना चाहिए।
उत्तम उपज के लिए पोषक तत्व प्रबंधन : खेत की मिटटी की किस्म एवं
उसकी उर्वरता के अनुसार मृदा परीक्षण के आधार पर खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग
लाभप्रद होता है । सामान्यतौर पर एकल कटाई वाली किस्मों के लिए 60 किलो नत्रजन, 30
किलो फॉस्फोरस एवं 20 किलो पोटाश देना चाहिए। बहु कटाई वाली किस्मों के लिए 60 किलो नत्रजन, 50 किलो फॉस्फोरस तथा 30 किलो पोटाश प्रति
हेक्टेयर की दर से बुवाई के समय तथा 25 किलो नत्रजन प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई
के उपरान्त प्रयोग करना चाहिए ।
खरपतवार
नियंत्रण : बोने के तुरन्त बाद 1 किग्रा. एट्राजीन 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति
हेक्टेयर छिड़काव करें। वरू घास की समस्या का निदान पाने हेतु फसल चक्र अपनाया
जायें।
आवश्यक
है समय पर सिंचाई : ज्वार फसल को
280-400 मि.मी. जल की आवश्यकता होती है। ग्रीष्मकाल में हल्की सिंचाई उपरान्त
बुवाई करना चाहिए। इसके बाद 10-12 दिन के अन्तराल से सिंचाई करने से फसल वृद्धि और
चारा उत्पादन अच्छा होता है।
समय
पर करें चारा कटाई: ज्वार की फसल
में प्रारंभिक अवस्था में एक प्रकार का विषाक्त पदार्थ (हाईड्रोसायनिक अम्ल) बनता
है। अतः ज्वार का हरा चारा अंकुरण से लेकर
50 दिन तक पशुधन को नहीं खिलाना चाहिए। खेत में सूखे की स्थिति निर्मित होने से
जहरीले पदार्थ की मात्रा अधिक हो जाती है। ज्वार की फसल 50 % फूल आने की अवस्था पर
चारा कटाई हेतु सर्वोत्तम होती है। बहु
कटाई वाली किस्मों में बुवाई के 50-60 दिन बाद हरे
चारे की पहली कटाई करना चाहिए। इसके बाद की कटाइयां 25-30 दिन के अंतराल से की
जा सकती है। फरवरी-मार्च में बोई गयी ज्वार से अगस्त के अन्त तक 4 कटाइयां ली
जा सकती हैं। देर से कटाई करने से फसल में प्रोटीन की मात्रा एवं रसीलापन कम हो
जाती है तथा रेशे की मात्रा बढ़ जाती है।
चारा
उपज: वैज्ञानिक तरीके से खेती करने पर ज्वार की एकल कटाई वाली किस्मों से हरे चारे
की उपज 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर
प्राप्त हो सकती है तथा बहु कटाई वाली किस्मों से 3-4 कटाइयों में 500-600 क्विंटल
हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है ।
मक्का से बेहतर हरा चारा उत्पादन
मक्का
का चारा अन्य एक दलीय चारों से अधिक मुलायम, पौष्टिक एवं स्वादिष्ट होता है, जिसे पशु चाव से खाते हैं। मक्का की
खेती अधिक ठंडी को छोड़कर वर्ष भर की जा सकती है। मक्का का हरा चारा पशुओं को फसल
की किसी भी अवस्था में खिलाया जा सकता है। ज्वार की भांति मक्का चारे में विषाक्त पदार्थ नहीं होता है। मक्का से हरा
चारा अधिक मात्रा में पैदा करने के लिए अग्र प्रस्तुत तकनीक से खेती करना चाहिए।
उन्नत
किस्में :
हरे चारे हेतु मक्के की मंजरी कोम्पोसिट (400-450 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर),
अफ्रीकन टाल (500-600 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर) एवं मकचरी इम्प्रूव्ड
(550-600 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर) उन्नत किस्मे है जिन्हें ग्रीष्मकाल में
सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।
उपयुक्त जलवायु : मक्का की सफल खेती के लिए गर्म एवं आद्र जलवायु की आवश्यकता होती है। मक्का की खेती के लिए न्यूनतम 10 एवं अधिकतम 45 डिग्री सेल्सियस तापमान होना चाहिए। पौधों की सामान्य बढ़वार के लिए 30-35 डिग्री सेल्सियस तापमान एवं वायुमंडल का आद्र होना लाभप्रद होता है।
भूमि
का चुनाव : मक्का की खेती के लिए उचित जल निकास वाली जीवांश युक्त दोमट, बलुई दोमट भूमि होती है।अम्लीय और क्षारीय भूमियों में मक्का की खेती अच्छी नहीं होती है।
खेत
की तैयारी : खेत में हल्की सिंचाई करने के उपरांत 1-2 जुताइयां देशी हल
अथवा कल्टीवेटर से करना चाहिए। जुताई के बाद पाटा लगा कर खेत को समतल कर लेना
चाहिए ।
उन्नत
किस्में :
चारे के लिए मक्का की अफ्रीकन टाल, जे-1006 एवं प्रताप चारा-6 प्रजाति सबसे अच्छी है। यदि इन
किस्मों का बीज न मिले तो संकर, गंगा-11 या कम्पोजिट मक्का, किसान, विजय
भी बो सकते हैं। संकर मक्का के दि्वतीय पीढ़ी के बीज को भी चारे के लिए बोया जा
सकता है।
बीज
दर : मक्का की उन्नत किस्मों का प्रमाणित बीज का प्रयोग करना चाहिए। मक्का की बुवाई कतारों में करने हेतु 50-60
कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। मक्का के साथ
लोबिया की सहफसली खेती करने पर मक्का 30 कि.ग्रा. तथा
लोबिया का 20 कि.ग्रा. बीज की आवश्यकता पड़ती है। इससे चारे
की पौष्टिकता बढ़ जाती है।
बुवाई
की विधि: जायद में मक्का की बुवाई फरवरी के दूसरे पखवारे
से प्रारम्भ की जाती है। बुवाई लाइनों में करते हैं जिससे लाइन की दूरी 20-30 से.मी. होनी चाहिए। सहफसली की दशा में मक्का की प्रत्येक तीन पंक्ति के बाद
एक पंक्ति लोबिया की उगाना उचित होगा
उर्वरक
: मक्का फसल से अधिक मात्रा में चारा पैदा करने के लिए संतुलित मात्रा में पोषक तत्वों की पूर्ति करना आवश्यक है। अच्छी उपज के लिए 80 कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. फास्फोरस एवं 20 कि.ग्रा.
पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए ।
नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय तथा शेष आधी नत्रजन
बुवाई के 30 दिन बाद खेत में डालना चाहिए।
खरपतवार
नियंत्रण : बुवाई के तुरन्त बाद 1 कि.ग्रा. एट्राजीन 600-700 लीटर पानी में घोलकर प्रति
हेक्टेयर छिड़काव करने से खरपतवार नियंत्रित रहते है ।
सिचाई:
आवश्यकतानुसार
10 से 12 दिन के अन्तर पर सिंचाई की जानी चाहिए। फसल को
कुल 4-6 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है।
चारा कटाई एवं उपज :
हरे
चारे के लिए उगाई गई मक्के की कटाई फसल में 50% जीरा (छोटे
भुट्टे) आने से पहले अर्थात बुवाई के लगभग
50-55 दिन पर करना चाहिए। मक्का से चारे के साथ-साथ शिशु मक्का (बेबी कॉर्न) भी
प्राप्त किया जा सकता है। देर से कटाई करने पर चारे में प्रोटीन की मात्रा में कमीं एवं रेशे की मात्रा में बढ़ोत्तरी हो जाने से चारे की पौष्टिकता एवं पाचनशीलता कम हो जाती है। हरे चारे की कुट्टी काटकर पशुओं को खिलाना अधिक लाभदायक होता है। उत्तम सस्य प्रबन्धन
से 400-450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है।
सर्वश्रेष्ठ हरे चारे के लिए बाजरा की खेती
बाजरा
शीघ्रता से बढने तथा कम अवधि में चारा पैदा करने वाली एक आदर्श फसल है। अधिक कल्ले
फूटने, सूखा एवं गर्मी बर्दाश्त करने की क्षमता, विविध मृदा-जलवायुविक
परिस्थितियों में उत्तम बढ़वार, चारे में प्रोटीन एवं रेशे की बहुलता जैसे गुणों के
कारण पशुधन के लिए श्रेष्ठ चारा फसल है। फसल में पुष्पन की अवस्था में बाजरा के
हरे चारे में 10-15 % प्रोटीन, 50-60 % चारे की पाचनशीलता, 96.6 % राख,2.24 % ईथर
निष्कर्ष के अलावा 0.39 % फॉस्फोरस पाया जाता है। बीज की अवस्था में कटाई करने पर
चारे में पोषक तत्वों की मात्रा में गिरावट आ जाती है। बाजरा के चारे में हाईड्रोसायनिक
अम्ल (विषाक्त पदार्थ) की मात्रा बिल्कुल नहीं होती है । बाजरे को
अकेले अथवा लोबिया के साथ सहफसल के रूप में बोया जा सकता है ।
उपयुक्त
जलवायु :
बाजरा मुख्यतः खरीफ में खाद्यान्न फसल के रूप में उगाई जाती है. ग्रीष्मकाल में चारे
के लिए यह उत्तम फसल है. बाजरे की उचित बढ़वार के लिए 30-35 डिग्री सेल्सियस तापमान
अच्छा रहता है।
भूमि
का चुनाव : बाजरे की उत्तम फसल बढ़वार के लिए उचित जलनिकास वाली बलुई
दोमट अथवा हल्की भूमि उपयुक्त रहती है।
खेत
की तैयारी :खेत में हल्की सिंचाई करके 2-3 जुताईया देशी हल
से करके मिट्टी को भुरभूरी बना लेनी चाहिये। इसके बाद पाटा लगाकर खेतों को सममतल
कर लेना चाहियें।
उन्नत
किस्में :
हरे चारे के लिए बाजरे की द्वितीय पीढ़ी की एच बी-3 एवं एच बी-5 उपयुक्त है जिनसे
500-550 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा पैदा हो सकता है । बहु कटाई चारे हेतु
एस-530 किस्म उपयुक्त है जिससे 550-600 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हरा चारा
प्राप्त हो सकता है।
बुवाई
का समय: खरीफ में वर्षा प्रारंभ होने के पश्चात बाजरे की बुवाई की
जाती है. ग्रीष्मकाल में चारे हेतु फरवरी के
दितीय सप्ताह से अप्रैल के प्रथम पक्ष तक
की जा सकती है।
बीज
दर: बाजरे की कतार बोनी हेतु 10-12 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त
होता है। छिटका पद्धति से बुवाई करने के लिए 15-20 कि.ग्रा. बीज की आवश्यकता होती
है. अंतरवर्ती खेती में बाजरा तथा लोबिया 2:1 अनुपात (2
लाइन बाजरा तथा एक लाइन लोबिया) में बोना चाहिए इसके लिए 6-7
कि.ग्रा. बाजरा तथा 12-15 कि.ग्रा. लोबिया बीज
की आवश्यकता होती है।
बुवाई
की विधि : प्रायः इसकी बुवाई छिटकवां पद्धति से की जाती है
परन्तु बेहतर उत्पादन के लिए इसकी बुवाई
कतारों में 25-30
सेमी की दूरी पर करना श्रेयस्कर रहता है।
खाद
एवं उर्वरक : भरपूर चारा
पैदावार के लिए खाद एवं उर्वरकों की संतुलित मात्रा का प्रयोग करना आवश्यक होता
है. पोषक तत्वों की सही मात्रा का निर्धारण मृदा परिक्षण के आधार पर हो सकता है.
खेत की अंतिम जुताई के समय 8-10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर खाद खेत में मिला
देना चाहिए. पौधों की उचित बढ़वार के लिए 80 कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. फास्फोरस एवं 25 कि.ग्रा.
पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा बुवाई के समय
तथा शेष मात्रा को दो भागों में बांटकर बुवाई के 30-35 दिन बाद एवं प्रथम कटाई के तुरंत बाद देना
चाहिए।
खरपतवार
नियंत्रण : बाजरा बोने के तुरन्त बाद अंकुरण से पहले एट्राजीन
1 कि.ग्रा.प्रति
हेक्टेयर 600 लीटर
पानी में घोलकर छिड़काव करने से खरपतवार नियंत्रित रहते है । खड़ी फसल में चौड़ी
पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण हेतु 2,4-डी 1 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से
बुआई के 35 दिन बाद छिडकाव करना चाहिए।
सिंचाई
: ग्रीष्मकाल में फसल को 10-12 दिन के अन्तराल पर पानी देना चाहिए। फसल को कुल 3-4 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है।
चारा कटाई
: चारे के लिए बाजरे की फसल
बुवाई के लगभग 50-60 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाती है। फसल
में 50% बाली आने के बाद प्रोटीन की मात्रा में गिरावट होने लगती है और रेशे की मात्रा
बढ़ने लगती है। अतः उत्तम हरे चारे के लिए फसल में 50 % बाली निकलने की अवस्था पर काट लेना चाहिए। दूसरी कटाई प्रथम कटाई के 40-45
दिन बाद की जा सकती है।
चारा
उपज : बाजरे की उन्नत किस्मों के
बेहतर सस्य प्रबंधन से औसतन 400-500 कुन्तल तथा बहु कटाई वाली
किस्मों से 600-650 क्विंटल प्रति हेक्टेयर
हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है।
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