Powered By Blogger

गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

खरपतवारों को बनाएं रोजगार और समृद्धि का आधार-1


डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
                                                 अंबिकापुर (छत्तीसगढ़) 
हमारे देश में प्रचलित औषधीय पादपों की कुल अवास्श्य्कता का केवल 25 प्रतिशत का उत्पादन किया जाता है एवं शेष वनस्पतियों को वनों, बागानों, खेतों, बंजर भूमियों, सड़क एवं रेल पथों के किनारे से एकत्रित किया जाता है।  खरपतवार के रूप में उगने वाली इन वनस्पतियों को वैद्य विशारद और आयुर्वेद दवाइयों के निर्माता अनेक वर्षो से एकत्रित करवाते आ रहे है।  इनके विविध औषधीय गुणों से अनभिज्ञ किसानों और ग्रामीण भाइयों को इन बहुमूल्य पौधों  को एकत्रित करने के एवज में थोड़ी से मजदूरी से ही संतोष करना पड़ता है।   बहुत सी बहुपयोगी वनस्पतियाँ बिना बोये फसल के साथ स्वमेव उग आती है, उन्हें हम खरपतवार समझ कर या तो उखाड़ फेंकते है या फिर  शाकनाशी दवाओं का छिडकाव कर नष्ट कर देते है।  जनसँख्या दबाव,सघन खेती, वनों के अंधाधुंध कटान, जलवायु परिवर्तन और रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से आज बहुत सी उपयोगी वनस्पतीयां विलुप्त होने की कगार पर है।  आज आवश्यकता है की हम औषधीय उपयोग की जैव सम्पदा का सरंक्षण और प्रवर्धन करने किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागृति पैदा करें ताकि  अपनी परम्परागत घरेलू चिकित्सा (आयुर्वेदिक) पद्धति में प्रयोग की जाने वाली वनस्पतियों को विलुप्त होने से बचाया जा सकें। विभिन्न रोगों के निदान में वनस्पतियों/जड़ी-बूटियों के उत्पादों के बढ़ते उपयोग और बाजार में इन पौधों की बढती मांग को देखते हुए अब आवश्यक हो गया है की हमारे किसान भाई और ग्रामीण क्षेत्रों के बेरोजगार नौजवान प्रकृति प्रदत्त औषधीय वनस्पतियों को पहचाने और रोग निवारण में उनकी उपादेयता के बारे में समझें।  खेत, बाड़ी, सड़क किनारे अथवा बंजर भूमियों में प्राकृतिक रूप से उगने वाली इन वनस्पतियों को पहचान कर उनके  शाक, बीज और जड़ों को एकत्रित कर आयुर्वेदिक/देशी दवा विक्रेताओं को बेच कर किसान भाई और ग्रामीण जन अच्छा मुनाफा अर्जित कर सकते है।  हमारें ग्राम, खेत खलिहान और आस-पास उगने वाली  वनस्पतियों की पहचान एवं उनके औषधीय उपयोग इस ब्लॉग में प्रस्तुत  है।   परन्तु बगैर चिकत्सकीय परामर्श/आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह लिए आप किसी भी रोग निवारण के लिए इनका  प्रयोग न करें। भारत के विभिन्न प्रदेशोंकी मृदा एवं जलवायुविक परिस्थितियों में उगने वाले कुछ खरपतवार/वनस्पतियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है।

1.अबुटिलांन इन्डिकम (कंघी) कुल- मालवेसी

कंघी फोटो साभार गूगल
इस खरपतवार को अंग्रेजी में इंडियन मेलो तथा हिंदी में कंघी/ककई/अफरा के नाम से जानते है। यह खरीफ में बंजर भूमियों, सड़क एवं रेलपथ के किनारे, बगीचों में उगने वाला मालवेसी कुल का काष्ठीय झाड़ीनुमा खरपतवार है। सम्पूर्ण भारत में फसलों के साथ और बंजर भूमियों में बीज से उगता है। इसकी शाखाओं के अग्र भाग पर जुलाई से दिसम्बर तक पीले रंग के एकल पुष्प शाम के समय खिलते है। सम्पूर्ण पौधा उपयोगी विशेषकर पत्तियां और जड़. इसके तने,जड़ एवं पत्तियों में एस्परेजिन नामक क्षाराभ एवं श्लेश्मक पाया जाता है. इसकी पत्तियां शीतल प्रकृति की होती है।  इसका काढ़ा आंवयुक्त दस्त, स्वांस रोग, मुत्र्नाली शोथ, बुखार में लाभदायक होती है. दांत एवं मसूड़ों के दर्द में इससे कुल्ला करने पर आराम मिलता है। इसकी पत्तियों का साग पकाकर खाने से खुनी बवासीर में फायदा होता है। इसकी जड़ों का पाउडर कफ, मधुमेह, बुखार, ल्यूकोडर्मा एवं लेप्रोसी के निदान में लाभदायक होता है।

2.अमरैन्थस स्पाइनोसस (कंटीली चौलाई), कुल- अमरेन्थेसी

काँटा चौलाई फोटो साभार गूगल
इस पौधे को अंग्रेजी में स्पाइनी अमरेंथ तथा हिंदी में कंटीली चौलाई कहते है। यह वर्षा एवं शरद ऋतु का प्रमुख खरपतवार है जो फसलों के साथ तथा खाली पड़ी बंजर भूमि में बीज से उगता है। इसकी पौधे एवं पत्तियों के डंठल के आधार पर कांटे होते है।  इसकी मुलायम पत्तियों एवं कोमल टहनियों की भाजी पकाई जाती है।  इसकी पत्ती के अक्ष से अगस्त से जनवरी तक मंजरी निकलती है जिन पर सफ़ेद रंग के छोटे पुष्प लगते है। फलों में काले चमकीले बीज बड़ी मात्रा में बनते है।  इसकी पत्तियों में ऑक्जेलिक अम्ल तथा ल्यूटिन पाया जाता है। चौलाई भाजी क्षुदावर्धक, कफ नाशक, मृदुरेचक तथा मूत्रवर्धक गुणों से परिपूर्ण होता है। इसकी भाजी स्वास्थ के लिए विशेषकर गर्भवती माताओं के लिए बहुत फायदेमंद होती है। प्रदर रोग, अनियमित मासिक स्त्राव, अतिसार,उदरशूल आदि में पूरे पौधे का काढ़ा लाभप्रद होता है। स्त्रियों में रक्ताल्पता, योनी विकार आदि में इसका रस बहुत लाभकारी होता है. चर्म रोगों, अस्थमा, लैप्रोसी आदि में पत्तियों का ताजा रस लाभप्रद होता है।  सर्पदंश, जलने एवं कटने पर इसकी जड़ों का प्रलेप लगाने से लाभ होता है।


3.एनासाइक्लस पाइरेथ्रम (अकरकरा), कुल- कम्पोजिटी
अकरकरा फोटो कृषि फार्म अंबिकापुर


इस पौधे को अंग्रेजी में पेलिटरी रूट तथा हिंदी में अकरकरा के नाम से जाना जाता है जो एक बहुपयोगी बहुवर्षीय शाक है। वर्षा ऋतु प्रारंभ होते ही उपजाऊ पड़ती भूमि, सडक एवं रेल पथ किनारे यह खरपतवार के रूप में पनपता है। इसका तना रोएंदार और ग्रंथियुक्त होता है। इसकी जड़ और छाल का स्वाद चरपरा और मुंह में चबाने से गर्मी महसूस होती है। इसके पौधों में छोटे छोटे स्वेत बैगनी एवं पीले रंग के पुष्प मुंडक आकर में लगते है। इसके फूलों एवं पत्तियों का स्वाद भी तिक्त चरपरा होता है। इसका सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों से परिपूर्ण होता है। आयुर्वेद के अनुसार अकरकरा रस में कटु एवं गुण में उष्ण प्रकृति का,बलकारक और कफ-वात का शमन करने वाला होता है। इसके अलावा यह रक्तशोधक, मुख दुगंधनाशक, दन्त रोग, ह्रदय की दुर्बलता, तुतलाहट, हकलाहट, रक्त संचार बढ़ाने में गुणकारी है। अकरकरा सिर दर्द,कंठशूल, ज्वर,उदर रोग,पक्षाघात एवं दन्त रोगों के उपचार में भी इस्तेमाल किया जाता है। इसकी जड़ को पीसकर माथे पर हल्का गर्म लेप करने से सिर दर्द समाप्त होता है। इसकी जड़ एवं फूल चबाने से अथवा काढ़े से कुल्ला करने से दांतों का दर्द एवं मुंह के छाले समाप्त होते है।  अधिक मात्रा में इसका सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी हो सकता है।

4.एण्ड्रोग्रेफिस पैनिकुलेटा (कालमेघ), कुल- अकेन्थेसी

इस पौधे के अंग्रेजी में किंग ऑफ़ बिटर,द क्रेट तथा हिंदी में कालमेघ, किरायत के नाम से पहचाना जाता है। यह एक सीधा बढ़ने वाला शाकीय खरपतवार है, जो ग्रामीण क्षेत्रों, पड़ती भूमियों एवं वनों में पेड़ों के नीचे बहुतायत में उगता है। यह सीधा बढ़ने वाला मिर्च के पौधे जैसा 1-3 फीट ऊँचा पौधा होता है। बागानों में बाढ़ के रूप में भी इसे लगाया जाता है। इसके पत्ते दोनों किनारे पर नुकीले होते है।  इसके पौधे के पुष्पक्रम पर सितम्बर से लेकर नवम्बर तक सफ़ेद रंग के पुष्प खिलते है। कालमेघ के बीज छोटे पीले व भूरे रंग के होते है. इसका सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों से परिपूर्ण होता है जिसमे कालमेगिन एवं एण्द्रोग्राफ़ोलाइड नामक कटु क्षाराभ पाया जाता है. इसकी पत्तियां कडवी होती है। इसका पौधा ज्वरनाशी, कृमिनाशी, क्षुदावर्धक होता है। यकृत विकार,भूख की कमी, पेट में गैस बनने, पेचिस, अतिसार, रक्त विकार,मलेरिया, ज्वर आदि में पत्तियों का रस अथवा चूर्ण सेवन करने से लाभ होता है। इसका रस देने से पेट के कीड़े बाहर निकल जाते है।  चर्म रोग,घमोरियों तथा कीड़ों के काटने पर पत्तियों का लेप फायदेमंद होता है।  मलेरिया बुखार, पेचिस तथा कमजोरी होने पर पत्तियों का काढ़ा पीने से लाभ मिलता है।


5.अकेलिफा इण्डिका (कुप्पी), कुल- यूफोर्बियेसी

कुप्पी फोटो साभार गूगल
इस पौधे को अंग्रेजी में इंडियन एकेलिफा तथा हिंदी में हरित कुप्पी, खोकली के नाम से जाना जाता है,जो युफ़ोर्बिएसी कुल का सीधे बढ़ने वाला वार्षिक शाक है। यह पौधा वर्षा ऋतु में फसलों के साथ, बंजर भूमि, सड़क एवं रेल पथ के किनारे विशेषकर छायादार स्थानों पर खरपतवार के रूप में बीज से उगता है। पत्तियां एकांतर,अंडाकार तीन शिराओं युक्त किनारों पर दांतेदार होती है।  पुष्प व फल-जून से सितम्बर तक होता है. पुष्पन के समय सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों से परिपूर्ण होता है। इसमें एकेलिफिन क्षाराभ एवं सायनो जेनेटिक ग्लूकोसाइड प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। इसका सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों से परिपूर्ण होता है.यह कफनाशक, मूत्र वर्धक होता है। ब्रोंकाइटिस, दमा, गठियावात में इसका चूर्ण लाभकारी होता है। इसका प्रलेप लगाने से सर्पदंश और कीड़ों का विष प्रभाव कम हो जाता है। पुराने घाव एवं अल्सर में पत्तियों का पेस्ट लगाने से आराम मिलता है।  पत्तियों के रस को तेल में मिलाकर लगाने से आर्थराइटिस में लाभ मिलता है। पत्तियों का रस कान दर्द में भी प्रयोग किया जाता है।


6.एकाइरेन्थस एस्पेरा (अपामार्ग), कुल- अमरेन्थेसी

अपामार्ग फोटो साभार गूगल
इस खरपतवार को अंग्रेजी में प्रिकली चैफ फ्लावर, रफ शैफ, हिंदी में चिरचिटा,उल्टेकाँटा, लटजीरा तथा संस्कृत में अपामार्ग के जाना जाता है। अपागार्ग अर्थात चिरचिटा एक झाड़ीनुमा पौधा होता है जो समूर्ण भारत में बारानी क्षेत्र, बंजर भूमि, सड़क एवं रेलपथ के किनारे, जंगलों में वृक्षों के नीचे एवं खेतों की मेड़ों पर वर्षा ऋतु के समय खरपतवार के रूप में उगता है। यह एक वर्षीय पौधा है जिसकी उंचाई 50 सेमी से लेकर एक मीटर के आस-पास होती है। इसका तना धारीदार हल्का हरा अथवा गुलाबी रंग का रोयेदार होता है. पत्तियां लम्बाई लिए हुए अंडाकार, नोकदार एवं चिकनी होती है। इसके लम्बे पुष्पक्रम पर डंठल रहित छोटे सफ़ेद नुकीले फूल होते है. इसमें सितम्बर से दिसंबर तक पुष्पन एवं फलन होता है.इसके पौधों से सटकर चलने से पुष्प/फल कपड़ों से चिपक जाते है। इसके सम्पूर्ण पौधे एवं जड़ में औषधीय गुण विद्यमान है। इसका पौधा मूत्रवर्धक, पाचक एवं विषहारी होता है। इसकी जड़ एवं पत्तियों का काढ़ा एवं अर्क उदर विकार, चर्म रोग, पेचिस, गठिया वात आदि में उपयोगी रहता है। इसकी जड़ को पानी में घोलकर पिलाने से पथरी रोग में लाभ होता है। चोट, रक्त स्त्राव अथवा घाव से रक्त बहने पर पत्तियों को पीसकर लगाने से खून बहना बंद हो जाता है तथा दर्द में आराम मिलता है. बर्र,ततैया,बिच्छू तथा सर्प के काटने पर इसकी ताज़ी जड़ को पीसकर डंक लगने वाले स्थान पर लगाने से जहर का असर कम हो जाता है। पौधे की राख शहद के साथ लेने से अस्थमा, पेट दर्द एवं खांसी में लाभदायक होती है। इसकी मोटी जड़ एवं टहनियों से दातून करने से दाँतों की सडन, दांतों का हिलना, मसूड़ों की कमजोरी एवं मुंह की दुर्गन्ध एवं पायरिया की शिकायत दूर होती है। अपामार्ग के बीजों की खीर मष्तिष्क रोगियों के लिए गुणकारी औषधि मानी जाती है। इसके सम्पूर्ण पौधे को जड़ सहित फल आने से पूर्व उखाड़कर एकत्रित कर लें एवं छाया में सुखा लेवें। बीज एकत्रित करने के लिए पौधे परिपक्व होने पर उखाड़ना चाहिए। इसके बाद पौधो को सुखाकर बीज अलग कर साफ़ कर बाजार में बेच सकते है. इसके पौधे एवं बीज बाजार में 15-20 रूपये प्रति किलो की दर से विक्रय हो जाते है।

7.अकंथोस्पर्मम हिसपिडम (छोटा धतूरा), कुल- एस्टेरेसी

छोटा धतूरा फोटो साभार गूगल
इस पौधे को अंग्रेजी में ब्रिस्ली स्टारबर एवं गोट हैड तथा हिंदी में छोटा धतूरा एवं गोखुरू कहते है। यह पौधा हल्की भूमियों में अधिक पनपता है परन्तु भारी भूमियों में भी फसलों के साथ वार्षिक खरपतवार के रूप में उगता है। ऊपरी उपजाऊ जमीनों के अलावा यह पौधा सड़क किनारे, रेल पथ एवं बंजर भूमियों में पनपता है। इसके तने पर रेशे पाए जाते है। इसमें जुलाई से नवम्बर तक पुष्पन एवं फलन होता है। पुष्प पीले रंग के होते है। इसके फल चपटे एवं त्रिकोड आकर के कांटे दार रोयें से ढंका होता है। इसके फल कपड़ों एवं जानवरों के शरीर में चिपक जाते है। इसकी पत्तियों में औषधीय गुण पाए जाते है। इसकी पत्तियां कफ, अस्थमा, सिर दर्द, पेट दर्द, मधुमेह,चर्म रोग, बुखार, पीलिया, पेट के कीड़े मारने आदि के उपचार में प्रयुक्त की जाती है। इसका काढ़ा शरीर में रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है। पत्तियों के तेल में जीवाणु नाशक एवं एंटी फंगल गुण पाए जाते है।

8.अनागेलिस अर्वेन्सिस (कृष्ण नील), कुल-प्रिमुलेसी
इस पौधे को अंग्रेजी में कॉमन पिम्परनेल तथा हिंदी में कृष्णनील और जोंकमारी के नाम से जाना जाता है। यह शीत ऋतु में फसलों के साथ, बाग-बगीचों एवं पड़ती भूमियों में पनपता है। इसके पौधे नम भूमियों में तेजी से जमीन पर फैलकर अथवा सीधे बढ़ते है। कृष्णनील का तना मुलायम तथा बिन्दुदार ग्रंथियों युक्त होता है। इसके पौधों में अक्टूबर से मार्च तक फूल और फल लगते है. इसकी दो प्रजातियाँ होती है जिन्मेस से एक में नीले और दूसरी प्रजाति में नारंगी लाल रंग के पुष्प लगते है। इसके बीज त्रिकोडीय एवं भूरे रंग के होते है। कृष्णनील के सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण होते है। इसका पौधा ग्रंथिवात, लेप्रोसी, मिरगी, पागलपन एवं सर्पदंश में उपयोगी है। पागल कुत्ते के काटने से होने वाले रोग, मिरगी की दौरे, लैप्रोसी एवं गठिया वात होने पर पौधे का ताजा रस सेवन करने से लाभ होता है। कुष्ठ रोग, ग्रंथिवात एवं सर्पदंश में जड़ का प्रलेप लगाने से आराम मिलता है।

9.अल्टरेंथेरा सेसिलिस (गरुंडी साग), कुल- अमरेंथेसी
           
गरुंडी फोटो साभार गूगल
इस खरपतवार को अंग्रेजी में सेस्सिल जॉय वीड तथा हिंदी में गरुंडी साग, कांटेवाली संथी एवं फुलनी के नाम से जाना जाता है। इसके पौधे नम एवं उर्वरा भूमियों में अधिक पनपते है। धान के खेतों की मेंड़ों, चारागाह,नहरों, नालियों के किनारे तथा फसलों के साथ खरपतवार के रूप में जमीन में फैलकर अथवा अन्य पौधों के सहारे सीधे से बढ़ते है।  इसके पौधे बहुशाखीय होते है जिनमे वर्ष भर छोटे सफ़ेद फूल आते रहते है। नीचे की शाखाओं में जड़े फूटती है। फुलनी की मुलायम पत्तियों एवं कोमल टहनियों की भाजी बनाई जाती है। इसके पौधे में प्रोटीन,रेशा एवं खनिज तत्व पर्याप्त मात्रा में पाए जाते है।  इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है। इसके पौधे मूत्रवर्धक. शीतल टॉनिक और रेचक गुण वाले होते है। इसकी पत्तियों का ताजा रस अथवा काढ़ा अस्थमा, कफ, बुखार,आँखों के रोगों और रतौंधी रोग के उपचार में लाभकरी होता है। इसके 3-4 ताजे फूल सुबह चबाने से आँखों की रौशनी बढती है एवं रतौंधी की रोकथाम होती है। खुनी उल्टी होने पर जड़ों के काढ़े में नमक मिलाकर देने से लाभ होता है।  इसके पौधों का एक चम्मच काढ़ा प्रति दिन खाली पेट लेने से बवासीर एवं पीलिया रोग में आराम मिलता है. इसकी पत्तियों के रस को गाय के दूध में मिलाकर पीने से शरीर में उर्जा एवं स्फूर्ति आती है। इसके अलावा औषधीय केश तेल और काजल बनाने में पत्तियां एक घटक के रूप में इस्तेमाल की जाती है।  जानवरों को इसका चारा खिलाने से दूध उत्पादन बढ़ता है।
10.एटीलोसिया स्कारबायोइड्स (जंगली तुअर), कुल            
इस पौधे को अंग्रेजी में वाइल्ड पिजन पी तथा हिंदी में वनतुअर/जंगली अरहर कहते है। यह समस्त भारत में पड़ती भूमियों एवं खेतों की मेड़ों पर खरपतवार के रूप में उगने वाली वार्षिक/बहुवर्षीय शाक है. इसके बीज छोटे एवं काले होते है।  पौधों में सितम्बर से दिसंबर तक फूल और फल बनते रहते है।  इसके सम्पूर्ण पौधे का औषधि रूप में प्रयोग किया जाता है।  इसके पौधे का इस्तेमाल पैरो के दर्द, बुखार, जलने पर, घाव, चेचक, दस्त एवं सर्पदंश के उपचार में किया जाता है. जानवरों में पोकनी रोग होने पर इसके पौधों को पीसकर उन्हें खिलाया जाता है।
11.अल्हागी कैमेलोरम (जवासा), कुल-
             इस पौधे को अंग्रेजी में केमल्स थार्न तथा हिंदी में जवासा एवं दुर्लभा कहते है।  यह शीत एवं ग्रीष्म ऋतु में भूमिगत प्रकंदों एवं जड़ों से उगने वाला बहुवर्षीय खरपतवार है। उर्वर भूमियों एवं बंजर रेतीली भूमियों में यह पौधा अधिक उगता है। इसके पौधे में कठोर कांटे होते है। इसके कांटो के अक्ष से लाल रंग के पुष्प फरबरी से अप्रैल तक निकलते है। इसका पौधा मूत्रवर्धक एवं रेचक गुणों से युक्त होता है। मुत्रअवरोध में इसका ताजा रस देना लाभकारी होता है। पत्तियों एवं फूल का प्रलेप शिर दर्द, बवासीर में उपयोगी होता है। इसका काढ़ा खांसी में लाभप्रद है. इसकी पत्तियों एवं तना से निकलने वाले स्त्राव को मूत्रवर्धक एवं मलभेदक माना जाता है।

12.एबेलमोसस मोस्कैटस (मुश्कदाना), कुल मालवेसी
               इस पौधे को अंग्रेजी में मुश्क मेलो तथा हिंदी में मुश्क दाना एवं कस्तूरी भिन्डी के नाम सी जाना जाता है। मुश्क दाना का पौधा एक वर्षीय/बहुवर्षीय क्षुप है जो बंजर भूमि, बाग़-बगीचों तथा कभी कभी फसलो के साथ वर्षा ऋतु में उगता है। इसके पौधे भिन्डी के पौधे जैसे दिखते है। पौधों में पुष्पन एवं फलन अक्टूबर-नवम्बर से फरवरी तक होता रहता है। इसके पुष्प पीले तथा मध्य में बैगनी-लाल रंग के होते है जो एकल पुष्पक्रम में लगते है। इसमें भिन्डी के समान परन्तु कम लम्बे एवं मोटे होते है. इसके दानों में सुगन्धित तेल पाया जाता है जिसकी सुगंध कस्तूरी मृग की नाभि में पाए जाने वाली कस्तूरी की सुगंध से मिलती जुलती है. इसके सम्पूर्ण पौधे एवं बीज में औषधीय गुण पाए जाते है। मुश्कदाना के बीज के छिलके में बहुमूल्य उड़नशील तेल पाया जाता है जिसका उपयोग बहुत से खाने वाले पदार्थो (पान मशाले, बेकरी, आइसक्रीम, पेय पदार्थ आदि) को सुगन्धित बनाने में किया जाता है। औषधि की रूप में यह ह्रदय रोग के लिए कारगर माना जाता है। इसके बीज उत्तेजक, उदर शूल नाशक, शक्ति वर्धक, टॉनिक, कफ वात नाशक, प्यास को शांत करने वाला होता है। बीजों का प्रयोग आंत्र की गड़बड़ी,मूत्र विसर्जन तंत्रिका तंत्र एवं चर्म रोगों के उपचार में किया जाता है। बीज का काढ़ा गठिया वात, बुखार, सर्पदंश एवं दमा रोग में लाभदायक माना गया है।  मुश्कदाना की जड़ों का चूर्ण सूजन कम करने के लिए पुल्टिस के रूप में प्रयोग करते है. मुश्कदाना के पौधों को कुचलकर गुड़ बनाते समय उसे साफ़ करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। 
13.एकोरस कैलमस (बच), कुल
                 इस पौधे को अंग्रेजी में स्वीट फ्लैग रूट तथा हिंदी में घोड़ा बच, सफ़ेद बच के नाम से भी जाना जाता है जो एक सगंधीय और औषधिय महत्त्व का झाड़ीनुमा पौधा है। घोडा बच के पौधे अधिक ऊंचे (2-4 फीट) यह नम एवं दलदली भूमि, तालाबों,नदी-नालों के किनारे, धान के खेतों में प्राकृतिक रूप से उगता है, परन्तु आयुर्वेद में इसकी महत्ता को देखते हुए आज कल बच की खेती भी की जाने लगी है। इसके राइजोम भूमिगत, लम्बे, सफ़ेद एवं तीव्र गंध वाले होते है। बच की पत्तियां हल्के हरे रंग की चपटी, लम्बी, मोटी, रेखाकार एवं मध्य शिरायुक्त सुगन्धित होती है। इसके पौधों के पुष्पक्रम (बाली) में हल्के पीले रंग के पुष्प लगते है। इसके फल गोल आकार एवं लाल रंग के होते है। बच की पत्तियों, कंद एवं मूल से बहुपयोगी उड़नशील तेल प्राप्त होता है.विभिन्न प्रकार की औषधि निर्माण में बच (तेल) का इस्तेमाल किया जाता है।  बच अधिक गंधयुक्त, चटपटा-तीखा, शक्तिवर्धक है। यह मूत्र विकारों, वात रोग, कफ, दर्द नाशक, मिरगी एवं अफरा को दूर करने वाली औषधि है। विभिन्न प्रकार के द्रव्यों को सुवासित करने में इसके तेल का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी कन्दो के सूखे चूर्ण का इस्तेमाल पेट के कीड़े मारने एवं स्वांस -दमा रोग के उपचार में किया जाता है।

14.अजरेटम कोनीज़ोइड्स (महकुआ), कुल-एस्टेरेसी
इस खरपतवार को अंग्रेजी में गोटवीड तथा हिंदी में मह्कुआ,सरहन्द और अजगंध के नाम से जाना जाता है, जो एस्टेरेसी कुल का सीधे बढ़ने वाला वार्षिक पौधा है। यह पौधा खरीफ फसलों के साथ, खाली पड़ी बंजर भूमियों, सड़क एवं रेल पथ के किनारों विशेषकर शुष्क क्षेत्रों में बीज से पनपता है।  इसकी शाखाओं में छोटे एवं मुलायम रोयें पाए जाते है। इसके पौधों में अगस्त से मार्च तक हल्के नीले या सफ़ेद रंग के पुष्प बनते है। इसके पौधे एवं फूलों में तीक्ष्ण दुर्गन्ध होती है। मह्कुआ की जड़ों, पत्तियों, फूल एवं बीज में औषधीय गुण पाए जाते है।  इसकी पत्तियों एवं टहनियों का गर्म प्रलेप खाज-खुजली, खुष्ठ रोग एवं अन्य चर्म रोगों में लाभदायक होता है। शरीर पर खरोंच एवं घाव होने पर पत्तियों का लेप लगाने से खून बहना रुकता है एवं घाव शीघ्र भरता है। इसके पौधे का काढ़ा अतिसार एवं उदरशूल में उपयोगी होता है।  इसके अर्क का उपयोग मूत्राशय एवं किडनी आदि की पथरी रोग में उपयोगी है। आदवासी एवं वनवासी इस पौधे से अनेक रोगों जैसे सफेद दाग, शरीर में सुजन, बवासीर, मूत्र विकार, चर्म रोग एवं सर्पदंश के उपचार में करते है।

15.आर्जीमोन मेक्सिकाना (सत्यानाशी), कुल-
             इस खरपतवार को अंग्रेजी में प्रिकली पॉपी, मैक्सिकन पॉपी तथा हिंदी में सत्यानाशी, कटेली, पीलाधतुरा के नाम से जाना जाता है। यह शीत ऋतु की फसलों का प्रमुख एक वर्षीय खरपतवार है। शुष्क क्षेत्रों की उपजाऊ भूमियों, सड़क एवं रेल पथ के किनारे भी यह पौधा उगता है। इसमें डंठल रहित हल्की नीली पत्तियां तने से चिपकती हुई बहार की ओर बढती है। पत्तियों के किनारे पर असमान कटाव एवं नुकीले कांटे पाए जाते है. इसके पौधे को तोड़ने पर पीले रंग का रस निकलता है। पोधों में पीले रंग के पुष्प शाखाओं के सीमाक्ष पर निकलते है। पौधों में पुष्पन एवं फलन जनवरी से जून तक होता है। इसके बीज सरसों के बीज जैसे काले-भूरे या पीले रंग के होते है। सत्यानाशी में बरबेरिन तथा प्रोटोपाइन नामक क्षाराभ पाया जाता है। इसका तेल जहरीला होता है. इसके पौधे का पीला अर्क मूत्रवर्धक तथा पुनर्नवीकरण गुण वाला माना जाता है जो चर्म रोग एवं सुजाक में उपयोगी होता है. अल्सर, वात दर्द और घमोरी में इसका प्रलेप लाभकारी होता है. इसका काढ़ा मूत्र रोग, पथरी रोग एवं चर्म रोग में फायदेमंद होता है. कफ, खांसी, अस्थमा एवं फेफड़ों से सम्बंधित समस्याओं में नियंत्रित मात्रा में बीज का चूर्ण लेने से आराम मिलता है। इसके तेल अथवा सरसों के तेल में इसकी मिलावट वाले तेल के सेवन से ड्रापसी रोग हो जाता है. इसके तेल के प्रलेप से खुजली एवं अन्य चर्म रोगों में लाभ मिलता है।
15.एरिस्टोलोचिया ब्रैक्टोलटा (कीड़ामार), कुल- एरिस्टोलोचियेसी
             इस पौधे को अंग्रेजी में वर्मकिलर, संस्कृत में धूमपत्र एवं हिंदी में कीड़ामार के नाम से जाना जाता है। यह बहुवर्षीय लता युक्त शाकीय खरपतवार है। यह पौधा बाग़-बगीचों और खेत की मेंड़ो, सडक और रेल पथ किनारों पर भूमि के सहारे फैलती है। इसकी पत्तियां ह्र्द्यकार, नीचे से चौड़ी एवं ऊपर नुकीली होती है। इसके पौधों में गोल सहपत्र वाले बैगनी रंग के एकल पुष्प पत्तियों के कक्ष से निकलते है. इसमें फल सम्पुटिका लम्बी एवं छः कोष्ठीय धारीदार होती है। बीज पतले एवं ह्र्द्यकार होते है। इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण विद्यमान होते है। इसका पौधा ज्वर नाशक एवं मृदुरेचक होता है। चर्म रोग में पत्तियों को पीसकर अरंडी के तेल में मिलकर लगाने से आराम मिलता है। कीड़ों के काटने से उत्पन्न घाव में पत्तियों का अर्क लगाने से लाभ होता है। ज्वर, गर्मी एवं सुजाक में पत्तियों का अर्क दूध के साथ लेने से फायदा होता है। बदहजमी एवं पेट दर्द में पत्तियों के चबाने से आराम मिलता है। पेट से गोलकृमि नष्ट करने के लिए इसकी जड़ को कारगर औषधि माना गया है. वात विकार, सुजाक एवं दमा में इसके फलों को दूध के साथ उबालकर खाने से राहत मिलती है।
16.अस्परेगस रेसिमोसस (सतावर), कुल-अस्परगेसी

इस पौधे को अंग्रेजी में अस्परेगस, संस्कृत में शतमूली एवं हिंदी में सतावर के नाम से जाना जाता है। यह बहुवर्षीय आरोही लतानुमा पौधा है जो बाग़-बगीचों एवं छायादार स्थानों में खरपतवार के रूप में उगता है। घर की बगियाँ में भी इसे अलंकृत लता के रूप में लगाया जाता है। इसकी लता लम्बी एवं कोमल, तना काष्ठीय एवं कांटेदार होता है। इसकी शाखाएं भूमि के सामानांतर निकलती है जिनमे अनेक उपशाखायें निकलती है. सतावर में पत्तियां नहीं होती है बल्कि हरी पत्तियों के समान कोमल गोल धागेनुमा सरंचनाये विकसित होती रहती है। इसमें जड़े प्रकन्द की भांति होती है जो जमीन के अन्दर समानांतर लम्बी बढती है। पुष्प छोटे सफ़ेद रंग के सुगन्धित होते है जो गुच्छों में आते है। फल छोटे हरे तथा पकने पर लाल रंग के (रसभरी जैसे) हो जाते है। सतावर की मांसल जड़ों में औषधीय गुण पाए जाते है। इसके प्रकन्द/जड़े शांतिप्रदायक, दाहनाशक,मुत्र्वर्धक, क्षुदावर्धक, बल वर्धक, कफनिस्सारक एवं नेत्रों के लिए हितकारी होती है। इसकी जड़ों का काढ़ा अतिसार, क्षय रोग, व्रणशोथ, मन्दाग्नि,लेप्रोसी,रतौंधी, वृक्क एवं पित्त विकारों में लाभदायक है। इसकी जड़ का चूर्ण दूध और शक्कर के साथ नियमित रूप से पीने से बल और बुद्धि का विकास तेज होता है। इसके मूल से सिद्ध तेल का बाह्य प्रयोग चर्म रोग, वात रोग, दौर्बल्य एवं शिरा रोग में गुणकारी माना जाता है।

17.बकोपा मोनिराई (ब्राह्मी), कुल- स्क्रोफुलैरिएसी          
इस पौधे को ब्राह्मी तथा सोम्यलता के नाम से जाना जाता है जो एक बहुवर्षीय शाक है। यह वनस्पति सम्पूर्ण भारत में नम एवं जल भराव वाले छायादार स्थानों, सिंचित क्षेत्रों, नदी, नालों एवं तालाबों के किनारे साल भर उगती है।  इसका पौधा मुलायम, चिकना एवं अत्यधिक शाखाओं युक्त होता है जो भूमि में रेंगकर बढ़ता है। इसकी पत्तियां पर्णवृन्त रहित, वृक्काकार होती है जिनकी निचली सतह बिन्दीदार होती है। इसके ताने की प्रत्येक पर्व से पतले धागे सदृश्य जड़े निकलती है। इसकी पत्तियों के अक्ष से छोटे नीले-श्वेत रंग के पुष्प बसन्त ऋतु में आते है। यह वनस्पति बुद्धिवर्धक, शीतल प्रकृति तथा तंत्रिकातंत्र के लिए बलवर्धक होती है। अनिद्रा, उच्चरक्तचाप, अस्थमा, मिरगी, गला बैठना तथा बुखार होने पर इसकी पत्तियों का रस पिने से आराम मिलता है.कफ, ब्रोंकाइटिस एवं वक्ष रोग होने पर पत्तियों का गर्म प्रलेप लाभकारी माना जाता है। गला बैठने पर इसकी पत्तियां चबाने से लाभ होता है। सूखी पत्तियों का चूर्ण अथवा काढ़ा खांसी, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस तथा कब्ज में लाभकारी होने के साथ-साथ मस्तिष्क टॉनिक के रूप में भी फायदेमंद होता है। इसकी पत्तियों का अर्क या काढ़ा प्रति दिन सेवन करने से बुद्धि एवं स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है।

18.बर्लेरिया प्रिआनिटिस (पिया बासा), कुल-अकैंथेसी             इस वनस्पति को अंग्रेजी में बर्लेरिया, हिंदी में कटसरैया एवं पियाबासा तथा संस्कृत में कुरन्टक, कहते है. यह बहुवर्षीय सीधे बढ़ने वाला झाड़ीनुमा शाक है बाग़-बगीचों, खेतों की मेंड़ो एवं सड़क किनारे उगते है. इसकी अनेक प्रजातियाँ यथा श्वेत, नीला या बैगनी एवं पीले पुष्प वाली होती है. इसे गमलों में शोभाकारी पौधा के रूप में भी लगाया जाता है।  इसके पौधे क्षुप कांटेदार होते है.इसमें अनेक शाखाएं जड़ से निकलती है.इसकी पत्तियों और शाखाओं के बीच से काँटे जोड़े से निकलते है।  पुष्प छोटे, घंटाकर लालिमा युक्त पीले रंग के होते है।  इसकी कलियाँ, फल एवं बीज भी कांटोंयुक्त होते है। औषधीय प्रयोजन में पीले पुष्प वाली कटसरैया उपयोगी है. इसका पौधा कफ एवं वित्त नाशक, मूत्रल, शोथहर एवं विष के प्रभाव को कम करने वाला होता है. इसकी पत्तियों को चबाने अथवा पत्तियों के साथ उबले पानी से गरारे करने से दांत मजबूत होते है एवं दर्द में राहत मिलती है। त्वचा रोग, घाव, सूजन, चेहरे पर कील-मुंहासे में पत्तियों का प्रलेप लाभकारी है।  इसकी पत्तियों का अर्क बुखार, पेट दर्द के लिए हितकारी है। साइटिका, हाथ-पैरों की जकडन में इसकी पुल्टिस बाँधने से लाभ होता है. कफ-खांसी में पत्तियों का काढ़ा सेवन करने से आराम मिलता है। 

19.ब्लूमिया लासेरा (कुकरौन्दा), कुल- एस्टरेसी
           इस खरपतवार को कुकरौंधा या कुकड़छिदि के नाम से जाना जाता हैं। ये पौधा बरसात के दिनों में बहुतायत से उगता है। इसके पत्ते कासनी के पौधे से मिलते जुलते होते हैं। इसके पत्ते रोएंदार होते हैं। पत्तों का रंग गहरा हरा होता है। इसमें एक बहुत तेज़ गंध आती है। इसमें पीले फूल खिलते हैं. फूलों के बाद बीज रूई के रेशों के आकर में हवा में उड़ते हैं।  यह पौधा बरसात में उगकर मार्च अप्रैल तक रहता है. यह बवासीर के बड़ी दवा है। इसके पौधे को कुचलकर रस निकाल कर उसमें रसौत भिगो दें। रसौत के घुल जाने पर इसे धीमी आंच पर पकाएं और गोलियां बनाकर रख लें। ये गोलियां बवासीर में लाभकारी हैं। बर्ड फ्लू में भी कुकरौंदा लाभकारी है. इसके पत्ते पीसकर गोलियां बनाकर खिलाने से पक्षी ठीक हो जाते हैं.घावों पर इसकी पत्तियों का रस लगाने से घाव जल्दी भर जाते हैं। यह एंटीसेप्टिक का कार्य करता है। इसके अलावा यह त्वचा रोग में लाभकारी है।

20.बोरहैविया डिफ्यूजा (पुनर्नवा), कुल- निक्टाजिनेसी
            इस वनस्पति को अंग्रेजी में हॉगवीड और पिगवीड तथा हिंदी में पुनर्नवा, गदहपर्णी कहते है। यह बीज से पनपने वाला भूमि के सहारे बढ़ने वाला वर्षा ऋतु का खरपतवार है। यह पौधा फसलों के साथ, खली पड़ी भूमियों, सडक एवं रेल पथ किनारे उगता है। भारत में इसकी चार प्रजातियाँ होती है जिनमे से सफ़ेद और लाल पुनर्नवा प्रमुख है। सफ़ेद पुनर्नवा के पत्ते,डंठल एवं फूल सफ़ेद होते है।  लाल पुनर्नवा की टहनियां एवं फूल गुलाबी-लाल रंग के होते है. पुष्प पत्ती के अक्ष से गुच्छे में निकलते है। औषधीय के रूप में लाल प्रजाति का प्रयोग किया जाता है जबकि सफेद पुनर्नवा को भाजी के रूप में खाया जाता है। इसका साग, सब्जी अथवा काढ़ा स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी होता है। पुनर्नवा के सम्पूर्ण पौधे को औषधीय रूप में इस्तेमाल किया जाता है. इसे नव जीवन प्रदान करने वाली औषधि माना जाता है. पुनर्नवा खाने में ठंडी, सूखी एवं हल्की होती है।  कफ, पेट के रोग, जोड़ों की सुजन, एनीमिया, ह्रदय रोग, लिवर, पथरी, खांसी, मधुमेह, शरीर दर्द निवारण एवं शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में कारगर औषधि माना जाता है। इसकी पत्तियों का प्रलेप फोड़ा-फुंसी में लगाने से दर्द और सुजन में आराम मिलता है. बच्चो में पीलिया होने एवं बलगम बनने पर इसकी पत्ती एवं जड़ का रस देने से लाभ मिलता है। इस वनस्पति की जड़ सूखी खांसी, अस्थमा,कब्ज, पीलिया, उदरशूल,ब्रोंकटाइटिस आदि के निदान में उपयोगी है।  उदर कृमि,पेचिस तथा शिथिलता में जड़ का काढ़ा देने से लाभ मिलता है।  सर्पदंश में जड़ का प्रलेप घाव में लगाने से विष का प्रभाव कम होता है।
 
शेष भाग अगले ब्लॉग पर.........

नोट : मानव शरीर को स्वस्थ्य रखने में खरपतवारों/वनस्पतियों के उपयोग एवं महत्त्व को हमने ग्रामीण क्षेत्रों के वैद्य/बैगा/ आयुर्वेदिक चिकित्स्कों के परामर्श तथा विभिन्न शोध पत्रों/ आयुर्वेदिक ग्रंथों एवं स्वयं के अनुभव से उपयोगी जानकारी उक्त वनस्पतियों के सरंक्षण एवं जनजागृति एवं किसान एवं ग्रामीण भाइयों के लिए आमदनी के अतिरिक्त साधन बनाने के उद्देश्य से प्रस्तुत की है। अतः किसी वनस्पति का रोग निवारण हेतु उपयोग करने से पूर्व प्रतिष्ठित आयुर्वेद चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेवें। किसी भी रोग निवारण हेतु हम इनकी अनुसंशा नहीं करते है। अन्य उपयोगी वनस्पतियों के बारे में उपयोगी जानकारी के लिए हमारा अगला ब्लॉग देख सकते है।

कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लोगर की पूर्व अनुमति के बिना इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि यह आलेख या ब्लॉग की सामग्री प्रकाशित करना चाहते है तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक/ब्लागर को भेजना सुनिशित करेंगे।

कोई टिप्पणी नहीं: