विश्व खाद्य दिवस-2022
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि
महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)
आज हम इस वर्ष के विश्व खाद्य दिवस को ऐसे माहौल में मना
रहे है जब पूरा विश्व समुदाय कोविड-19 महामारी से त्रस्त है। जलवायु परिवर्तन की
वजह से बढ़ते तापमान, रूस-युक्रेन युद्ध, अंतराष्ट्रीय तनाव के कारण रोजमर्रा की
वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों से हैरान-परेशान है। इसका असर वैश्विक खाद्य सुरक्षा
पर भी पड़ रहा है। इसलिए हर किसी को और हर
जगह पर्याप्त पौष्टिक भोजन की नियमित पहुँच के लिए यथोचित स्थायी समाधान पूरे विश्व की पहली प्राथमिकता बन गई है।
विश्व में कृषि उत्पादकता बढ़ाने, पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्धतता सुनिश्चित के साथ-साथ ग्रामीण आबादी
के जीवन निर्वाह में सुधार करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 16 अक्टूबर, 1945 को रोम में खाद्य और कृषि संघठन
(FAO) की स्थापना की गई। इस विशेषज्ञता प्राप्त संगठन ने पूरी दुनिया में भुखमरी एवं कुपोषण की समस्या एवं इसके
समाधान हेतु जनजागरूकता फ़ैलाने के
उद्देश्य से 16 अक्टूबर 1980 से मनाने की शुरुआत की थी। तब से अमूमन
विश्व के सभी देश हर वर्ष एक नई थीम के साथ विश्व खाद्य दिवस मना रहे है।
इस वर्ष के विश्व खाद्य दिवस का मुख्य विषय यानी थीम ‘लीव नो वन बिहाइन्ड’ यानी कोई पीछे न छूट जाए’ अर्थात पोषण युक्त भोजन हर जगह प्रत्येक इंसान को मिलना चाहिए। परन्तु विश्व खाद्य दिवस हम पिछले 42 वर्ष से अनवरत रूप से मनाते आ रहे है लेकिन भुखमरी एवं कुपोषण की समस्या घटने की बजाय बढती ही जा रही है। अक अनुमान के अनुसार पूरे विश्व में लगभग 10% (करीब 3 अरब) लोग कुपोषण से ग्रस्त है, जिसमें से बड़ी संख्या में लोग जान गंवाते जा रहे है। भारत की लगभग एक थोथाई आबादी भूख और कुपोषण से जूझ रही है।
जीवन के लिए सबसे जरूरी चीज है भोजन, और दुनिया इस समय इसके
अभूतपूर्व संकट से गुजर रही है। भारत में तो खाद्यान्नों का अभाव नहीं, लेकिन अनेक देशों में स्थिति विकट है। वर्ल्ड फूड प्रोग्राम (WFP) के अनुसार कोविड-19 महामारी से पहले 2019 में दुनिया में 13.5 करोड़ लोग भीषण खाद्य संकट से
जूझ रहे थे और आज 82 देशों में 34.5 करोड़
लोग भीषण खाद्य संकट का सामना कर रहे हैं। इतना ही नहीं बीते वर्ष पांच लाख लोगों की तो
भूख से मौत हो गई।
भारत ने बीते 70 वर्षों में खाद्यान्न उत्पादन छह गुना से
ज्यादा बढ़ा कर पहले ही आत्मनिर्भरता हालिल कर ली है । 1950-51 में जहां देश में सिर्फ 5.08
करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादन हुआ था, जो वर्तमान में 31.57 करोड़
टन से अधिक हो गया। इसके अलावा हमारा देश दलहन, गन्ना, फल-सब्जी, दूध आदि के
उत्पादन में भी श्रेष्ठ प्रदर्शन कर रहे है। आज हमारा देश खाद्यान्न सहित बहुत सी
कृषि जिंसों का निर्यात कर रहा है बल्कि जरूरतमंद देशों को मानवीय आधार पर भी मदद
कर रहे हैं।
भारत में खाद्य सुरक्षा की नहीं, बल्कि खाद्यान्न वितरण एवं
पौष्टिक अनाज की अपर्याप्त उपलब्धता एक बड़ी समस्या है। वर्ल्ड फूड प्रोग्राम (WFP)
के अनुसार अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर होने के बावजूद दुनिया के एक
चौथाई अल्पपोषित और कुपोषित भारत में ही हैं। खाद्य और कृषि संघठन के अनुसार वर्ष 2018-20
के दौरान दुनिया में 68.39 करोड़ अल्पपोषित आबादी
में से 20.86 करोड़ भारत में निवासरत थी।
कुपोषण मुक्त विश्व: भारत की पहल
मोटे अनाज (मिलेट्स)
पोषण सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। गेंहू और चावल की अपेक्षा मोटे
अनाज की खेती आसान होने के साथ-साथ इनमें प्रोटीन, फाइबर, विटामिन, खनिज तत्व
प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। आयरन की उच्च मात्रा होने ये अनाज शिशुओं और
महिलाओं में रक्त अल्पता (एनीमिया) रोकने में सक्षम है। यही नहीं मोटे अनाज
मधुमेह, ह्रदय रोग एवं मोटापे से पीड़ित लोगों के लिए वरदान साबित हो रहे है। इसलिए
आजकल मोटे अनाजों को सुपर फ़ूड का दर्जा दिया जा रहा है। मोटे अनाजों के महत्व को
पुनः प्रतिपादित करने एवं लोगों में जनजागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से वर्ष
2018 को राष्ट्रिय मिलेट दिवस के रूप में मनाया गया और भारत सरकार ने इन फसलों के
न्यूनतम समर्थन मूल्य बढाने के साथ ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली में इन फसलों को भी
शामिल किया है।
बीते कुछ
वर्षों में खाद्य उपभोग के पैटर्न में बदलाव आया है जहाँ पहले खाद्य उपभोग में
विविधता के लिये पारंपरिक अनाज (ज्वार, जौ, जई,बाजरा, रागी, कोदो,
कुटकी आदि) उपयोग में लाया जाता था और तब लोग स्वस्थ रहते थे. वर्तमान में इनका
उपभोग कम हो गया है, जिससे देश के बड़ी
आबादी को कुपोषण एवं स्वास्थ्यजनक अन्य समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। पारंपरिक
अनाज, फल और अन्य सब्जियों के उत्पादन में कमीं की वजह से भी इनकी खपत में कमीं हुई जिससे
खाद्य और पोषण सुरक्षा प्रभावित हुई।
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