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रविवार, 21 अप्रैल 2013

एक चमत्कारिक फसल- सोयाबीन का सस्यविज्ञान

           डॉ . गजेन्द्र सिंह तोमर 
                  प्रमुख वैज्ञानिक, सस्य विज्ञानं बिभाग 
                      इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)      

सोयाबीन: विविध उपयोग 

            सोयाबीन अर्थात ग्लाइसिन मैक्स  दलहनी कुल की तिलहनी फसल है। इसे एक चमत्कारी फसल की संज्ञा दी गई है क्योकि   इसके दाने में 40-42 प्रतिशत उच्च गुणवत्ता वाली प्रोटीन और 18-20 प्रतिशत तेल के अलावा 20.9 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 0.24 प्रतिशत कैल्शियम, 11.5 प्रतिशत फास्फोरस व 11.5 प्रतिशत लोहा पाया जाता है। सोयाबीन में 5 प्रतिशत लाइसिन नामक अमीनो अम्ल पाया जाता है, जबकि अधिकतर धान्य फसलों में इसकी कमी पायी जाती है। प्रचुर मात्रा  में विटामिन पाये जाने के कारण एन्टीबाइटिक दवा बनाने के लिए यह विशेष उपयुक्त है । प्रोटीन व तेल की अधिकता के कारण इसका उपयोग घरेलू एंव औद्योगिक स्तर पर किया जाता है। सोयाबीन ऐसा खाद्य पदार्थ है जो  लगभग गाय के दूध के समान पूर्ण आहार माना जाता है । इससे दूध, दही तथा अन्य खाद्य साम्रगी तैयार की जाती है। बीज में स्टार्च की कम मात्रा तथा प्रोटीन की अधिकता होने के कारण मधुमेह रोगियों के लिए यह अत्यंत लाभप्रद खाद्य पदार्थ हैं। इसके अलावा वनस्पति तेल-घी, साबुन, छपाई की स्याही, प्रसाधन सामग्री, ग्लिसरीन, औषधियाँ आदि बनाई जाती हैं। सोयाबीन की खली और भूसा मूर्गियों एंव जानवरों के लिए सर्वोत्तम भोजन है। दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ों में ग्रंथियाँ  पाई जाती हैं जो  जिनमे वायुमंडलीय नत्रजन संस्थापित करने की  क्षमता होती हैं जिससे भूमि की उर्वरता बढ़ती है। सोयाबीन का विविध प्रयोग एवं अनेक विशेषताएँ होने के कारण इसे मिरेकल क्राप और  चमत्कारी फली  कहा जाता हैं।सोयाबीन की दाल की उपयोगिता अधिक है । इससे तरह-तरह के व्यंजन बनते है । परन्तु अभी भी भारतीय घरो  में सोयाबीन के उत्पाद अधिक प्रचलित नहीं हुए है । 
मूँगफली एवं सोयाबीन के पोषक तत्वो  का तुलनात्मक विवरण
विवरण                सोयाबीन (प्रतिशत)        मूँगफली (प्रतिशत)
जल                              8.1                                7.9
प्रोटीन                         43.2                               2.7
वसा                           19.5                                40.1
कार्बोहाइड्रेट                20.9                               20.3
खनिज                         4.6                                 1.9
फॉस्फ़ोरस                   0.69                               0.39
कैल्शियम                   0.24                               0.05
लोह (मिग्रा)                 11.5                                1.6
कैलोरी भेल्यू               451                                  549       

         सम्पूर्ण भारत के कुल उत्पादन का 59.06 प्रतिशत सोयाबीन उत्पादन कर मध्यप्रदेश प्रथम स्थान पर है , इसलिए  इसे सोयाबीन राज्य के नाम से जाना जाता है। प्रदेश में वर्ष 2008-09 में स¨यबीन 5.12 मिलियन हैक्टर क्ष्¨त्र्ा में उगाया गया जिससे 5.85 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त किया गया । प्रदेश में स¨याबीन की अ©सत उपज 1142 किग्रा, प्रति हैक्टर रही ।  छत्तीसगढ़ राज्य में 133.06 हजार हेक्टेयर में सोयाबीन  की खेती होती है  जिससे 1114 किग्रा. प्रति हेक्टेयर औसत उपज प्राप्त होती है ।

 उपयुक्त जलवायु
    साधारण शीत से लेकर साधारण उष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में सोयाबीन की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। सोयाबीन के बीजो  का अंकुरण 20-32 डि से  तापक्रम पर 3-4 दिन में हो जाता है। फसल वृद्धि के लिए 24-28 डि से तापमान उचित रहता है। बहुत कम (10 डि से  से कम) या अधिक होने पर सोयाबीन की वृद्धि, विकास एंव बीज की गुणता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सोयाबीन एक अल्प प्रकाशापेक्षी पौधा   है जिससे इसकी अधिकांश किस्मों में दिन छोटे व रातें लम्बी होने पर ही फूल आता है। इसकी अधिकांश किस्मों में दिन की अवधि 14 घंटे से कम होने पर ही फूल आता है। भारत में खरीफ में उगाई जाने वाली किस्में प्रकाशावधि के लिए अधिक संवेदनशील होती हैं। अच्छी फसल के लिए 62-75 सेमी. वार्षिक वर्षा होना आवश्यक हैं। शाखाएँ व फूल बनते समय खेत में नमी रहना आवश्यक है । पुष्पीय कलियो  के विकसित होने के 2-4 सप्ताह पूर्व पानी की कमी होने से पौधो की शाकीय वृद्धि घट जाती है जिसके फलस्वरूप अधिक संख्या में फूल व फलियाँ गिर जाती है । फल्लियाँ पकते समय वर्षा  होने से फलियो  पर अनेक रोग लग जाते है जिससे वे सड़ जाती है साथ ही बीज गुणता में भी कमी आ जाती है । यदि कुछ समय तक पौधे सूखे की अवस्था में रहे और इसके बाद अचानक बहुत वर्षा हो जाए या सिंचाई कर दी जाए, तो फल्लियाँ गिर जाती है।
भूमि का चयन 
             सोयाबीन की खेती के लिए उचित जल निकास वाली हल्की मृदायें  अच्छी रहती हैं। दोमट, मटियार दोमट  व अधिक उर्वरता वाली कपास की काली मिट्टियों  में सोयाबीन फसल का उत्पादन सफलतापूर्वक किया जा सकता है। भूमि का पी. एच. मान 6.5 से 7.5 सर्वोत्तम पाया गया है। छत्तीसगढ़ की डोरसा एंव कन्हार जमीन सोयाबीन की खेती के लिए अच्छी होती है। अम्लीय मृदाओं   में चूना तथा क्षारीय मृदाओंमें जिप्सम मिलाकर खेती करने से इसकी जड़ों में गाँठों का विकास अच्छे से होता है।
खेत की तैयारी
          खेत की मिट्टी महीन, भुरभुरी तथा ढेले रहित होनी चाहिए। पिछली फसल की कटाई के तुरंत बाद खेत में गहरी जुताई करने से भूमि में वायु संचार और  जल सग्रहण क्षमता  बढ़ती है और विभिन्न खरपतवार, रोगाणु व कीट आदि धूप से नष्ट हो जाते हैं। इसके बाद दो या तीन बार देशी हल से खेत की जुताई कर पाटा चलाकर खेत को समतल व भुरभुरा कर लेना चाहिए। खेत में हल्का ढलान देकर जल निकास  का समुचित प्रबंध भी कर लेना चाहिए। समयानुसार वर्षा न होने की स्थिति में सिंचाई उपलब्ध हो तो पलेवा  देकर बुवाई की जा सकती है। ऐसा करने पर अंकुरण अच्छा होता है।
उन्नत किस्में
    सोयाबीन की सफल खेती, साथ ही साथ अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने का प्रमुख आधार, उपयुक्त किस्म का चयन व उत्तम बीज का चुनाव ही है। उत्तम किस्म का सोयाबीन का स्वस्थ बीज बोने से उपज में लगभग  20-25 प्रतिशत की वृद्धि की जा सकती है। उन्नत किस्म का बीज राज्य कृषि विश्वविद्यालय, कृषि विभाग या अन्य विश्वसनीय प्रतिष्ठानो से क्रय किया जाना चाहिए।
सोयाबीन की प्रमुख उन्नत किस्मो  की विशेषताएँ
1.जेएस. 93-05: सोयाबीन की यह शीघ्र पकने (90-95 दिन) वाली किस्म है । इसके फूल बैंगनी रंग के ह¨ते है तथा फली में चार दाने होते है । इस किस्म की उपज क्षमता 200-2500 किग्रा.प्रति हैक्टर आंकी गई है ।
2.जेएस. 72-44: सोयबीन की यह भी अगेती (95-105 दिन) किस्म है । इसका पौधा सीधा, 70 सेमी. लम्बा। होता है । इसकी उपज क्षमता     2500-3000 किग्रा. प्रति हैक्टर है ।
3.जे. एस.-335: यह 115-120 दिन में पकने वाली किस्म है जिसका दाना पीला तथा फल्लियाँ चटकने वाली होती है । इसकी ओसत उपज 2000-2200 किग्रा. प्रति हैक्टर होती है ।
4.जेएस. 90-41: स¨याबीन की यह किस्म 90-100 दिन में तैयार होती है । इसके फूल बैंगनी रंग के ह¨ते है तथा प्रति फली 4 दाने पाये जाते है । इसकी अ©सत उपज क्षमता 2500-3000 किग्रा. प्रति हैक्टर मानी जाती है ।
5.समृद्धि: यह शीघ्र तैयार ह¨ने (93-100 दिन) वाली किस्म है । इसके फूल बैगनी, दाना पीला दाना और  नाभि काल ह¨ती है । ओसत उपज क्षमता 2000-2500 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है ।
6.अहिल्या-3: यह किस्म 90-99 दिन में पककर तैयार ह¨ती है तथा ओसतन 2500-3500 किग्रा. उपज क्षमता रखती है । इसके फूल बैगनी तथा दाने पीले ¨ रंग के होते है । विभिन्न कीट-रोग प्रतिरोधी किस्म है ।
7.अहिल्या-4: यह किस्म 99-105 दिन में पककर तैयार होती है । इसके फूल सफेद तथा दाना पीला और नाभि भूरी होती है । इसकी उपज क्षमता 2000-2500 किग्रा. प्रति हैक्टर होती है ।
8.पीके-472: यह किस्म 100-105 दिन में तैयार होती है । इसके फूल सफेद तथा पीला दाना होता है । ओसत उपज क्षमता 3000-3500 किग्रा. प्रति हैक्टर होती है ।
9.जेएस. 75-46:  बोआई से 115-120 दिन में तैयार होने वाली इस किस्म के फूल गहरे बैंगनी रंग तथा दाना पीला होता है । ओसतन 2000-2200 किग्रा. उपज देने में सक्षम पाई गई है ।
10.जेएस 72-280(दुर्गा): सोयाबीन की यह किस्म 102-105     दिन में पकती है । सफेद फूल, पीला दाना तथा काली नाभि वाली यह किस्म 2000-2200 किग्रा. उपज देने में सक्षम पाई गी है ।
11.एमएसीएस-58: शीघ्र तैयार (90-95 दिन) होने वाली इस किस्म के फूल बैंगनी, पीला दाना और  भूरी नाभि पाई जाती है । ओसत उपज क्षमता 2500-4000 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है ।
12.जेएस. 76-205(श्यामा): यह किस्म 105-110 दिन में तैयार ह¨ती है । इसके फूल बैगनी तथा  दाना काल्¨ रंग का होता है । ओसतन 2000-2500 किग्रा. उपज क्षमता पाई गई है ।       
13. इंदिरा सोया-9: यह किस्म 110-115 दिन में पकती है । इसके फूल बैंगनी तथा दाना पीले  रंग का होता है । ओसत उपज क्षमता 2200-2500 किग्रा. प्रति हैक्टर पाई गई है ।
14. परभनी सोनाः सोयबीन की यह शीघ्र तैयार होने वाली (85-90 दिन) बहु-रोग प्रतिरोधी किस्म है ।इसके 100 दानो  का भार 11-12 ग्राम तथा उपज क्षमता 2500-3000 किग्रा. दर्ज की गई है ।
15.प्रतीक्षा (एमएयूएस-61-2): यह मध्यम अवधि में तैयार ह¨ने वाली किस्म है जो  जेएस-335 से 10 प्रतिशत अधिक उपज देती है । मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश (बुन्देलखण्ड) तथा महाराष्ट्र राज्य में खेती हेतु संस्तुत की गई है
बोआई का समय
           सोयाबीन की अतिशीघ्र बोआई  से पौधों की वृद्धि अधिक होकर उपज सीमित हो जाती है, जबकि देर से बोने पर तापमान कम हो जाने के कारण पौधों की वृद्धि कम हो जाती है और उपज कम आती है। अतः उपयुक्त समय पर बोआई करना चाहिए। इसका बुवाई का समय इस प्रकार निश्चित करना चाहिए कि पौधों को वानस्पतिक बढ़वार के लिए उचित प्रकाशवधि   मिले। खरीफ में बुवाई के लिये जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के द्वितीय सप्ताह तक का समय उपयुक्त पाया गया है। रबी , बसन्त और गर्मी के मौसम में भी कुछ क्षेत्रों मे सोयाबीन उगाई जा सकती है।
बीज दर एंव पौध  अन्तरण
    बीज का आकार, किस्म, बीज की  अंकुरण क्षमता, बोने की विधि व समय के आधार पर बीज  की मात्रा  निर्भर करती है। सोयाबीन बीज जिसकी अंकुरण क्षमता 85 प्रतिशत हो और 1000 दानों का वजन 125-140 ग्राम हो, चयन करना चाहिए। बुवाई से पूर्व बीज अंकुरण क्षमता ज्ञात कर लें और 60-70 प्रतिशत अंकुरण क्षमता हो तो बीज दर सवा गुना कर बोयें।
    सामान्य तौर पर बड़े दाने वाली सोयाबीन की किस्मो  के लिए 80-90 कि.ग्रा., मध्यम दाने वाली किस्मो  के लिए 70-75 किग्रा. तथा छोटे दानो  वाली किस्मो  हेतु  55-60 किग्रा, बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई करना चाहिए। उत्तम उपज के लिए  खेत में वांछित पौध संख्या (3-4 लाख पौधे/हे. ) कायम रखना आवश्यक पाया गया  है । खरीफ में  सोयाबीन 30-45 सेमी. पंक्ति से पंक्ति के फासले पर तथा बसंन्तकालीन फसल में 30 सेमी. की दूरी पर बोना चाहिए। पौधे से पौधे का अन्तर 5 से 8 से. मी. रखना उचित होता है। बसंत ऋतु में 100 किग्रा. प्रति हे. बीज की आवश्यकता होती है। सोयाबीन की खेती में बीज बोने की गहराई का भी विशेष महत्व है। बीज बोने की गहराई मृदा की किस्म व उसमें नमी की मात्रा और बीज के आकार पर निर्भर करती है। सोयाबीन बीज की बुवाई हल्की मिटटी  में 3-5 से.मी. तथा चिकनी व इष्टतम नमी युक्त  चिकनी व भारी मिट्टी में 2-3 सेमी. की गहराई पर ही करनी चाहिए अन्यथा बीज को चींटियाँ   क्षति पहुंचा सकते हैं। बोने के बाद बीज को लगभग 8-10 दिन तक पक्षियों से बचाए रखें ताकि नवजात पौधों को क्षति न पहुँचे।
बीजोपचार
           प्रारंभिक अवस्था में पौधों को फफूँदजनक रोगोंसे बचाने के लिए 1.5 ग्राम थायरम व 1.5 ग्राम कार्बेन्डाजिम (बाविस्टिन) प्रति कि.ग्रा. बीज से बीजोपचार करें। बीजोपचार के समय हाथों में दस्ताने  पहनें और मुँह पर कपड़ा लपेटें या फेसमास्क लगाएँ। वायुमंडल की नाइट्रोजन पौधे को उपलब्ध होती रहे व भूमि की उर्वरा शक्ति भी अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ाने के लिए उपरोक्त उपचारित बीज को  पुनः सोयाबीन के राइजोबियम कल्चर  25 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। बीज के साथ कल्चर को  अच्छी प्रकार से मिलाने के लिए 10 प्रतिशत गुड़ का घोल (100 ग्राम गुड़ एक लीटर पानी) बनाकर 15 मिनट उबालकर, कमरे के तापक्रम पर ठण्डा कर लेते हैं। इसमें कल्चर का एक पैकेट (250 ग्राम) डालकर  अच्छी तरह से मिलाते हैं। कल्चर के इस मिश्रण को  10 किग्रा. बीज पर डालकर एक समान मात्रा में मिलाकर छाया में सुखाया जाता है। जिस ख्¨त में पहली बार स¨याबीन ली जा रही है उसमें कल्चर की दुगनी या तीन गुनी मात्रा  का प्रयोग करना चाहिए । कल्चर को  अधिक गर्म या ठंडे स्थानो  पर रखने से इसके जीवाणु मर जाते है तथा यह प्रभावी नहीं रह पाता है । राइजोबियम कल्चर से बीजोपचार करने से पौधों की जड़ों में ग्रंथियाँ  अधिक संख्या में बनती हैं, जिनसे वायुमंडली नाइट्रोजन पौधे को प्राप्त होती है। ध्यान रखें कि फफूँदनाशक दवा एंव राइजोबियम कल्चर को एक साथ मिलाकर कभी भी बीजोपचार नहीं करना चाहिए। उपचारित बीज को ठंडे व छायादार जगह पर रखें तथा यथाशीघ्र बुवाई करना चाहिए। राइजोबियम कल्चर न मिलने पर किसी भी खेत  की मिट्टी, (जहां पूर्व में 2-3 वर्ष से सोयाबीन लगाई जा रही ह¨) 15 सेमी. की गहराई से खोदकर  10-12 क्विंटल  की दर से मिटटी में मिलाना चाहिए ।
बोआई विधियाँ
            सोयाबीन की बुवाई छिंटकवां विधि, सीड ड्रिल से या देशी हल के पीछे कूँड़ो  में की जाती है । आमतौर पर सोयाबीन छिटकवाँ विधि से बोया जाता है। यह वैज्ञानिक विधि नहीं हैं क्योंकि इस विधि में पौधे असमान दूरी पर स्थापित होते हैं, बीज अधिक लगता है और फसल की निराई-गुडाई व कटाई में असुविधा होती है। देशी हल के पीछे अथवा सीड ड्रिल से कतार में बोआई  करने पर बीज कम लगता है और पौधे समान दूरी पर स्थापित होते है। हल के पीछे कूडो़ में सोयाबीन की बुआई करने पर देशी हल से संस्तुत दूरी पर कूँड बना लिये जाते हैं जिनमें बीज को डालकर हल्की मिट्टी से ढँक दिया जाता है। अधिक क्षेत्र में बोनी हेतु ट्रैक्टर या पशु चलित बुवाई मशीन (सीड ड्रिल) का प्रयोग किया जाता है। फसल बोने के एक सप्ताह बाद यदि कूँड़ में किसी स्थान पर अंकुरण न हुआ हो  तथा मृदा में नमी हो तो   खुरपी की सहायता से रिक्त स्थानो  में बीज की बुवाई कर देने से अच्छी  उपज हेतु  खेत में बांछित पौध संख्या स्थापित हो जाती है।
खाद एंव उर्वरक
    सोयाबीन के पौधों को अच्छी वृद्धि, समुचित विकास, भरपूर उपज और बढ़िया गुणों के लिए समुचित पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। मृदा परीक्षण के बाद पोषक तत्वों की आपूर्ति जैविक खाद और रासायनिक उर्वरक देकर करनी चाहिए। सोयाबीन की 30 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज देने वाली फसल की कायिक वृद्धि  और बीज निमार्ण के लिए लगभग 325 किग्रा. नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है।  परन्तु दलहनी फसल होने के कारण अपनी जड़ ग्रंथिकाओं द्वारा वायुमंडल से नाइड्रोजन ग्रहण करके पौधों को उपलब्ध कराती है। पौधों में ये ग्रंथिकाएँ अधिक हों और वे प्रभावकारी ढ़ग से कार्य करें, तो फसल के लिए आवश्यक नाइट्रोजन संस्थापित हो जाती हैं। इसके लिए राइजोबियम कल्चर से बीज निवेशन  करना आवश्यक है। राइजोबियम कल्चर उपलब्घ न होने पर नाइट्रोजन धारी खाद अधिक मात्रा में उपयोग करना चाहिए। नाइट्रोजन युक्त खाद अधिक मात्रा में देने की अपेक्षा जीवाणु संवर्ध  देना अधिक उत्तम रहता है। फसल की प्रारंभिक बढ़वार के लिए नाइट्रोजन देना लाभकारी रहता है। प्रति हेक्टेयर 10-12 टन गोबर की खाद के साथ 20 किग्रा. नत्रजन बोआई के समय देने से उपज में वृद्धि होती है, साथ ही भूमि की उर्वरता भी बनी रहती है। फूल आने से तुरन्त पहले की अवस्था सोयाबीन के लिए नाइट्रोजन आवश्यकता का क्रान्तिक समय है। जहाँ जीवाणु संवर्ध का प्रयोग नहीं किया गया है, वहाँ फसल की कायिक वृद्धि और अधिक उपज के लिए 120-150 किग्रा. नाइट्रोजन देना चाहिए।
    पौधों की वृद्धि व जड़ों के विकास के लिए फास्फोरस भी उपयोगी तत्व है। फास्फोरस 60-70 किग्रा./हे. देने से उपज व दानों के भार में वृद्धि होती है। इस खाद का 5-25 प्रतिशत भाग ही प्रथम वर्ष में पौधों को प्राप्त हो पाता है। जड़ ग्रंथियों व फल्लियों का विकास, दाने भरने तथा फसल की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए पोटाश का उपयोग करना आवयक है। सामान्य तौर पर भारतीय मृदाओं में पोटाश की आवयकता नहीं होती है। मृदा परीक्षण के आधार पर पोटाश की कमी वाली मृदाओं में पोटाश देना आवश्यक होता है। मृदा परीक्षण की सुविधा न हो , तो 30-40 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर डालना चाहिए। तीनों उर्वरकों को बोआई के समय कूँड में बीच के नीचे प्रयोग करना चाहिए। फास्फोरस को सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में डालने से सल्फर और कैल्सियम तत्वों की आपूर्ति भी हो जाती है।जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में बुआई के समय 25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर जिंक सल्फेट देना लाभकारी पाया गया है। खडी फसल में 5 किग्रा. जिंक सल्फेट तथा 2.5 किग्रा. बुझा हुआ चूना 1000 लीटर पानी में घोलकर एक हेक्टेयर में छिड़काव करने से उपज में वृद्धि होती है।
खरपतवार प्रबन्धन
    सोयाबीन के उत्पादन में खरपतवार प्रकोप की विशेष समस्या आती है और खेत में उपलब्ध नमी एंव पोषक तत्वों का अधिकांश भाग ये खरपतवार ही ग्रहण कर लेते हैं।फलस्वरूप उपज में 50-60 प्रतिशत तक हांनि हो सकती है। सोयाबीन फसल के प्रारंभिक 45 दिन तक खरपतवार नियंत्रण पर ध्यान देना आवश्यक है ताकि उपज पर विपरीत प्रभाव न पड़े। खरपतवार नियंत्रण निम्नानुसार किया जा सकता है-
1. यांत्रिक विधि: सोयाबीन फसल की दो बार निराई-गुड़ाई (पहली 15-20 दिन के अन्दर व दूसरी 30-35 दिन पर) करने की सिफारिश की जाती है। यह कार्य खुरपी, हैण्ड हो, डोरा आदि यंत्रों से किया जाता सकता है ।
2. रासायनिक विधि: खरीफ में प्रायः वर्षा के कारण समय पर प्रभावशाली ढंग से निराई या गुडा़ई कर पाना संभव नहीं हो पाता है । अतः ऐसी परिस्थितियों में नींदानाशक रसायन का प्रयोग सुविधाजनक व लाभप्रद होता है।फसल बोने से पूर्व फ्लूक्लोरालिन 45 ई.सी.(बासालिन) या ट्राइफलूरालिन 48 ईसी (तुफान, त्रिनेम) की 2.5 लीटर मात्रा को 500-600 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हे. छिड़काव करके कल्टीवेटर या हल आदि से मिट्टी में मिला देना चाहिए। बुआई पूर्व क्लोरिम्यूरान इथाइल 25 डब्लूपी (क्लोबेन) 40 ग्राम प्रति हे. को 500 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से भी खरपतवार नियंत्रित हो जाते है। बोने के तुरंत बाद एलाक्लोर 50 ईसी. (लासो) सोयाबीन बोने के तुरंत बाद 2 कि.ग्रा. दवा 800 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हे. छिड़काव करें । फसल अंकुरण पश्चात् खरपतवार नियंत्रण हेतु फयूजीफाप 25 ई.सी. (फयूजीलेड) 0.25 कि.ग्रा. प्रति हे. की दर से प्रयोग करते है। आजकल घास कुल के खरपतवारो  पर नियंत्रण  पाने के लिए अंकुरण पश्चात क्वीजालफॉप-इथाइल 50 ग्राम प्रति हैक्टर क¨ 750-800 लीटर पानी में घ¨लकर ब¨ने के 25 दिन बाद छिड़काव करने की सलाह दी जाती है ।
सिंचाई
    सोयाबीन साधारणतः वर्षाधारित फसल है परन्तु लम्बे समय तक वर्षा न हो, तो सिंचाई करना आवश्यक हो जाता है। सोयाबीन की अच्छी फसल को 45-50 सेमी. पानी की आवश्यकता होती है। सोयाबीन में फूलने, फलने, दाना बनने तथा दानों के विकास का समय पानी के लिए बहुत ही क्रांतिक  होता है। इन अवस्थाओं  में पानी की कमी होने से फूल गिर जाते हैं, फल्लियाँ   कम लगती हैं, दाने का आकार छोटा हो जाता है, फलस्वरूप उपज घट जाती है। लम्बे समय तक सूखे की अवस्था में एक सिंचाई फल्लियों में दाना भरते समय अवश्य देना चाहिए। बलुई मृदा में भारी मिट्टियो  की अपेक्षा सिंचाई अधिक बार करनी पड़ती है। फसल की प्रारम्भिक अवस्था में अधिक सिंचाई से पौधों की वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है जिससे  पौधे जमीन पर गिर जाते हैं जिससे उपज कम हो जाती है। लगातार या भारी वर्षा होने पर ख्¨त में जल निकास की उचित व्यवस्था करना आवश्यक रहता है।
कटाई एंव गहाई
    सोयाबीन फसल तैयार होने में किस्म के अनुसार 90-140 दिन लगते है। पकने पर पत्तियाँ पीली होकर गिरने लगती है। जब फल्लियाँ (90 से 95 प्रतिशत) भूरे या गाढ़े भूरे रंग की हो  जाये तब कटाई करनी चाहिए। इस समय बीज में 15-18 प्रतिशत नमी होती है। देर से कटाई करने पर फल्लियाँ चटकने  लगती हैं व उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। फसल की कटाई हँसिया या कम्बाइन हारवेस्टर द्वारा की जाती हैं। कटी हुई फसल को खलियान में रखकर 8-10 दिन तक सुखाया जाता है। इसके पश्चात् डंडो से पीटकर या बैलों से दाय चलाकर या ट्रैक्टर  से मड़ाई करते  हैं।मड़ाई सावधानी से करें जिससे बीजो  को क्षति न पहुँचे क्योंकि सोयाबीन के बीज मुलायम होते है। सोयाबीन के दाने में हरापन क्लोरोफिल तथा पीलापन एन्थोसायनिन पिगमेंट के कारण होता है।
उपज एंव भंडारण
    सोयाबीन की फसल पर जलवायु तथा मृदा कारकों का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। साधारण दशा में इसकी उपज 20-25 क्विंटल  प्रति हे. तक ली जा सकती है। सोयाबीन का भूसा पशुओं के लिए पौष्टिक चारा है। बीज को साफ कर, अच्छी तरह सुखाना चाहिए और जब बीज में नमी का अंश 10 प्रतिशत या इससे कम हो जाए तभी हवादार स्थान में भंडारण करना चाहिए। सोयाबीन के बीज को एक साल से अधिक भण्डारित नही करना चाहिए। क्योंकि इसमें तेल की मात्रा अधिक होने के कारण खटास उत्पन्न हो जाती है।

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

सदा बहार तिलहनी फसल- सूरजमुखी


                                                                           डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                                   प्रमुख वैज्ञानिक, सस्य विज्ञानं बिभाग 
                                                         इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

 सूरजमुखी का महत्व 

                       सूरजमूखी पुष्पन अवस्था में यह फसल खेती के अधीन आने वाले सारे क्षेत्र को सुन्दर व दर्शनीय बना देती है और पकने पर यह हमें उच्च कोटि का खाद्य तेल प्रदान करती है। प्राकश व ताप असंवेदी  होने के कारण इस फसल पर प्रकाश व तापक्रम का प्रभाव नहीं पड़ता है, अतः वर्ष में किसी भी समय इसे उगाया जा सकता है। इसलिए इस फसल को  सभी मोसमो  की फसल की संज्ञा दी गई है । कम अवधि (90 - 100 दिन) में तैयार होने के कारण बहु फसली खेती के लिए यह एक उत्तम फसल है। सूर्यमुखी से कम बीज दर  में थोड़े समय में अधिक बीज उत्पादन  किया जा सकता है।
    सूर्यमुखी के बीज में 40 - 50 प्रतिशत तेल व 20 - 25 प्रतिशत तक प्रोटीन होती है। सूर्यमुखी का तेल स्वादिष्ट एवं विटामिन ए, डी और ई से परिपूर्ण होता है। इसका तेल हल्के पीले  रंग, स्निग्ध गंध, उच्च धूम बिन्दु वाला होता है जिसमें  बहु - असतृप्त वसा अम्ल विशेष रूप से लिनोलीइक अम्ल की अधिकता (64 प्रतिशत) होती है, जो कि रूधिर कोलेस्टेराल की वृद्धि को रोकने  के अलावा उस पर अपचायक प्रभाव  भी डालता है । इसलिए ह्रदय रोगियों के लिए इसका तेल लाभप्रद पाया गया है। पोषण महत्व की दृष्टि से लिनोलीइक अम्ल अत्यावश्यक वसा अम्ल है, जिसकी आपूर्ति आहार
 द्वारा होती है। इसलिए सूर्यमुखी का तेल अधिकांश वनस्पति तेलो की अपेक्षा बेहतर और कुसुम के तेल के समकक्ष माना जाता है। इसके तेल का उपयोग वनस्पति घी (डालडा) तैैयार करने में भी किया जाता है। इसकी गिरी  काफी स्वादिष्ट होती है। इसे कच्चा या भूनकर मूँगफली की भाँति खाया जाता है। गिरी का प्रयोग चिरौंजी या खरबूजे की गिरी के स्थान पर किया जाता है। तेल निकालने के पश्चात् प्राप्त खली पशुओं को खिलाने के लिए उपयोगी है जिसमें 40 - 44 प्रतिशत प्रोटीन होती है। सूरजमुखी की उपज बाजार में अच्छे मूल्य पर आसानी से बेची जा सकती है। सूरजमुखी की फसल के साथ मधुमक्खी पालन भी किया जा सकता है।
    सूर्यमुखी (हेलिऐन्थस ऐनुअस एल) के वंश नाम की उत्पत्ति ग्रीक शब्दों हेलिआस जिसका अर्थ है सूर्य एवं ऐन्थस (फूल) से हुई है। इसका फ्रैंच नाम टूर्नेसाल है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - सूर्य के साथ घूमना। सूर्यमुखी का जन्म स्थान दक्षिण पश्चिमी अमेरिका एवं मेक्सिको माना जाता है। मेक्सिको से स्पेन होते हुए यह यूरोप पहुँची जहाँ पर अलंकारित पौधों  के रूप मे सूर्यमुखी उगाई जाने लगी तथा पूर्वी यूरोप तिलहन फसल के रूप में इसकी खेती प्रारम्भ हुई।  दुनियां में सूर्यमुखी की ख्¨ती 21.48 मिलियन हैक्टर क्षेत्र फल में की गई जिससे 1227.4 किग्रा. प्रति हैक्ट की दर से 26.366 मिलियन टन उत्पादन दर्ज किया गया । सर्वाधिक रकबे  में सूर्यमुखी उगाने वाले  प्रथम तीन देशो  में रूस, यूक्रेन व भारत देश आते है जबकि उत्पादन में रूस, अर्जेन्टिना एवं यूक्रेन आते है । प्रति हैक्टर औसत उपज के मामले  में फ्रांस प्रथम (2373.5 किग्रा), चीन द्वितिय (1785.7 किग्रा) एवं और अर्जेन्टिना तृतीय (1701.4 किग्रा.) स्थान पर स्थापित रहे है । भारत में सूर्यमुखी को लगभग 1.81 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में लगाया जाता हे  जिससे  लगभग 1.16 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त होता है  तथा 639 किग्रा. प्रति हैक्टर  हे  औशत उपज आती हे  । सबसे अधिक क्षेत्र फल में सूर्यमुखी उगाने तथा अधिकतम उत्पादन देने वाले  प्रथम तीन राज्यो  में कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश एवं महाराष्ट्र राज्य है जबकि औसत उपज के मामले  में उत्तर प्रदेश प्रथम (1889 किग्रा. प्रति हैक्टर), हरियाना द्वितिय (1650 किग्रा. प्रति हैक्टर) एवं बिहार तृतीय (1388 किग्रा) स्थान पर रहे है । छत्तीसगढ़ में सुर्यमुखी की खेती सभी जिलो  में कुछ न कुछ  में की जा  रही है । रायगढ़, राजनांदगांव, दुर्ग, महासमुन्द एवं बिलासपुर जिलो  में सूर्यमुखी बड़े पैमाने पर उगाया जा रहा है । सवसे अधिक उत्पादन देने वाले  प्रथम तीन जिलों  में रायगढ़, राजनांदगांव व दुर्ग जिले  आते है । ओसत उपज के मामले  में रायगढ़ जिले  का प्रथम स्थान (1410 किग्रा. प्रति हैक्टर) है, जिसके बाद धमतरी और  महासमुन्द जिलो   का स्थान आता है ।

उपयुक्त जलवायु

    सूरजमुखी प्रकाशकाल  के प्रति असंवेदनशील, कम अवधि तथा अधिक अनुकूलन के कारण सभी मौसमों की फसल कहलाती है। सुखाग्रस्त  अथवा बारानी क्षेत्रों में यह फसल देरी से (अगस्त में ) एवं अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसे रबी के मौसम (अक्टूबर - नवम्बर) मे उगाया जाता है। सिंचाई की सुविधा हो तो जायद(गर्मी) के मौसम में भी इसे उगाया जा सकता है। उन क्षेत्रों में जहाँ समान रूप से वितरित 500 - 700 मिमी. वार्षिक वर्षा होती है तथा फूल आने के पूर्व समाप्त हो जाती है, इसकी खेती के लिए उपयुक्त है। फुल और बीज बनते समय तेज वर्षा और हवा से फसल गिर जाती है। सूरजमुखी की वानस्पतिक वृद्धि  के समय गर्म एवं नम जलवायु की आवश्यकता होती है, परन्तु फल आने और परिपक्व होने  के समय चटक धूप वाले दिन आवश्यक है। बीज अंकुरण एवं पौध बढ़वार के समय ठण्डी जलवायु की आवश्यकता होती है। बीज अंकुरण के समय 25-30 डि.से.तापक्रम अच्छा रहता है तथा 15 डि.से.  से कम तापक्रम पर अंकुरण प्रभावित होता है। इसकी फसल क¨ 20-25 डि.से.    तापक्रम की आवश्यकता होती है। गर्म दिन और ठण्डी रातें फसल के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। सामान्यतौर पर फुल आते समय  से अधिक तापक्रम होने पर बीज की उपज और तेल की मात्रा मे गिरावट होती है। इसी प्रकार  16 डि.से.   से कम तापमान होने पर बीज निर्माण व तेल प्रतिशत मे कमी आती है। आतपौध्भिद होते हुए भी सूरजमुखी मक्का व आलू की तुलना में छाया को अधिक अच्छी तरह सहन कर सकती है। इसके पौधे का आतपानुवर्ती संचलन मुख्यतया धूप के फलस्वरूप विभेदी आक्सिन सांद्रणों के कारण तने के मुड़ने से होता है। आक्सिन के अंतर्जात उद्दीपन के कारण होने वाले इस प्रकार के संचलन को हैबिट कहते है। शीत ऋतु में कम तापमान होने के कारण फसल देर से परिपक्व (लगभग 130 दिन में) ह¨ती है, जबकि खरीफ के मोसम में उच्च तापमान ह¨ने के कारण यह शीघ्र पकती (80 दिन) है ।
 भूमि का चयन 
    सूर्यमुखी की खेती सिंचित बलुई मृदाओं से लेकर उच्च जल धारण क्षमता वाली मटियार मृदाओ तक तथा 6.5 से 8.0 पीएच मान वाली विविध प्रकार की भूमियो मे की जा सकती है। अच्छी उपज के लिए गहरी, उर्वरा, जैवांश युक्त तथा उदासीन अभिक्रिया वाली बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम है। खरीफ की फसल हल्की, रेतीली और पानी के उत्तम निकास वाली भूमि मे ली जा सकती है। यह फसल अस्थाई सूखे का मुकाबला कर सकती है और इसलिए इसे कम वर्षा होने वाले क्षेत्रो मे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। रबी फसल के लिए दोमट - कपास की काली मिट्टी  जो काफी दिनों तक नमी संरक्षित रख सके, इसके लिए उपयुक्त होती है।

भूमि की तैयारी

    सूरजमुखी के लिए ख्¨त की मृदा हल्की एवं भुरभुरी  होनी चाहिए । पिछली फसल काटने के पश्चात् खेत मे एक या दो बार हल या कल्टीवेटर चलाकर खरपतवार नष्ट करते हुए मिट्टी भुरभुरी एवं समतल कर लेनी चाहिए। अंतिम जुताई करने से पूर्व 25 किलो क्लोरपायरीफास प्रति हेक्टेयर बुरक देना चाहिए। रबी की फसल के लिए भूमि की तैयारी अन्य रबी फसलों के समान ही करना चाहिए। वर्षा निर्भर क्षेत्रों मे नमी संरक्षण हेतु उपाय करना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में खरीफ की फसल काटने के तुरंत बाद, जमीन की परिस्थिति के अनुसार जुताई करनी चाहिए। दो या तीन बार कल्टीवेटर चलाकर मिट्टी को भुरभुरा कर पाटा द्वारा भूमि को समतल  करना चाहिए। सूर्यमुखी के बीज का छिलका मोटा होने के कारण नमी को  धीमी गति से सोखते है । इसलिए बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी का रहना आवश्यक पाया गया है । जलभराव की स्थिति क¨ यह फसल सहन नही कर सकती है । अतः खेत मे जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था करना भी आवश्यक है।

उन्नत किस्में

    सूर्यमुखी की संकुल किस्मों (माडर्न तथा रशियन किस्में) से कम तथा संकर किस्मो से अधिक उपज प्राप्त होती है।रशियन किस्में  में विन्मिक, पेरिडविक, अर्माविसर्कज ,अर्माविरेक आदि है ।
सूरजमुखी की संकर व उन्नत किस्मो  की विशेषताएं
किस्म का नाम                     अवधि (दिन)        उपज (क्विंटल /हे.)        तेल (%)
मार्डन                                     80 - 85                           7 - 8            38 - 39
विनियमन                             115 - 120                    15 - 25            41 - 43
ज्वालामुखी (संकर)                 95 - 115                     25 - 28            39 - 40
दिव्यमुखी (संकर)                    85 - 90                      25 - 28            41 - 42
एमएसएफएच.-8(संकर)          90 - 95                      25 - 28            42 - 44
एमएसएफएच-17(संकर)       100 - 105                   10 - 15            42 - 44
केबीएसएच-1(संकर)                 90 - 95                    18 - 20            41 - 42
केबीएसएच-44(संकर)            105 - 110                   20 - 25            42 - 44

सूर्यमुखी की अन्य संकर व उन्नत किस्मो  के गुणधर्म

1. जेएसएल-1 (जवाहर सूर्यमुखी): इसका दाना मध्यम आकार का ठोस व काले रंग का चमटा होता है। यह किस्म जल्दी अर्थात् 120 से 125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है । तेल की मात्रा 50 प्रतिशत तथा औसत पैदावार 15 से 20 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। यह किस्म मध्यप्रदेश के सभी क्षेत्रों मे खरीफ एवं रबी मौसमों के लिये उपयुक्त है।
2. अर्माविस्किज (ई. सी. 68415): इसका दाना मध्यम आकार का ठोस, हल्के काले रंग का तथा कुछ छोटा रहता है। यह किस्म 125से 130 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। उपज क्षमता 9-10 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है। यह खरी मौसम के लिए मध्यप्रदेश के सभी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह रसियन किस्म है।
3. पैरिडोविक (ई. सी. 68414): इस किस्म का दाना ई. सी. 64415 के समान ही होता है, लेकिन रंग का गहरा काल होता है। यह देरी से (130 से 135 दिनों में) पकती है तथा इसके बीज में तेल की मात्रा 42 प्रतिशत होती है। औसत पैदावार 10 से 12 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। खरीफ एवं रबी दोनों मौसमों मे मालवा एवं निमाड़ क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह भी रसियन किस्म है।
4. डीआरएसएफ-108: यह 90 - 95 दिन मे तैयार होने वाली सूखा सहनशील किस्म है। औसतन 22-25 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। बीज में 40 प्रतिशत तेल होता है। असिंचित क्षेत्रों में खरीफ ऋतु के लिए उपयुक्त किस्म है।
5. एमएलएसएफएच-82: यह 85-100 दिन में तैयार होने वाली सूखा सहनशील किस्म है। औसतन 22-25 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। बीज में 35 प्रतिशत तेल ह¨ता है। मध्य प्रदेश एवं छत्तिससगढ़ के लिए उपयुक्त संकर किस्म है।

बीज दर एवं बीज उपचार

    सूरजमुखी का  प्रमाणित बीज ही उपयोग में लाना चाहिए। सूरजमुखी के बीज भार में हलके (5.6 से 7.5 ग्राम प्रति 100 बीज) ह¨ते है । सूरजमुखी की संकुल किस्मों के लिए 8-10 किग्रा. तथा संकर किस्मो के लिए 6-7 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता है।बुआई के पूर्व बीज को 24 घंटे पानी में भिगोकर बोने से अंकुरण प्रतिशत बढ़ता है। बोनी के पूर्व बीज को कैप्टान या थाइरम नामक फफूँदनाशक दवा (3 ग्राम दवा प्रति किलो बीज) से उपचारित करना आवश्यक है। इससे फफूँदी रोग नहीं हो पाता ।
बोआई का समय
    बहुत सी फसलो की तरह सूर्यमुखी दिन की अवधि तथा ऋतु विशेष से प्रभावित नहीं होती है और इसलिए इसकी ब¨आई किसी भी समय की जा सकती है । अत्यधिक ठण्डे मौसम को छोड़कर वर्ष के प्रायः सभी महीनो में सूर्यमुखी की बुआई की जा सकती है। खरीफ की फसल विशेषकर बारानी क्षेत्रों में अगस्त के दूसरे या तीसरे सप्ताह मे इसकी बोनी करनी चाहिये। जून व जुलाई माह में बोनी करने से उपज प्रायः कम होती है। क्योंकि परागण क्रिया करने वाले कीड़े बहुत कम आते है जिससे बीज का निर्माण ही नहीं होता या सभी बीज पोचे रह जाते है। अतः विभिन्न क्षेत्रों में बोनी का समय इस तरह निर्धारित करना चाहिए जिससे फसल मे फूल बनते समय अधिक व लगातार वर्षा न हो। सूखग्रस्त क्षेत्रों में अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक ब¨नी की जा सकती है। वसन्तकालिक फसल की बोआई 15 जनवरी से 2 0 फरवरी तक करना उचित रहता है ।

बोआई की विधियाँ

    सूर्यमुखी की बुआई कतार या डिबलिंग विधि से करनी चाहिए। संकुल किस्मों में पंक्तियों का फासला 45 सेमी. कतार  से कतार तथा 15 से 20 सेमी. पौध  से पौध अंतर रखना चाहिए। संकर किस्मों की बोनी 60 - 75 सेमी. दूर कतारों में तथा पौध  से  पौध के बीच की दूरी 20 से 25 सेमी. रखना चाहिए। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 60 - 70 हजार पौधे प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहते है। बीज क¨ 2-4 सेमी. की गहराई पर ब¨ना उचित पाया गया है । गर्मी के समय उच्च तापमान ह¨ने के कारण मृदा की ऊपरी परत से नमी शीघ्र सूख जाती है, अतः ब¨आई 4 सेमी. की गहराई पर करना लाभकारी पाया गया है । सूरजमूखी के दानों का अंकुरण धान्यों की अपेक्षा अधिक देर से होता है, क्योकि इसके बीज का छिलका मोटा ह¨ने के कारण उनमें जल अवश¨षण  धीमी गति से ह¨ता है साथ ही इसका अंकुरण भी उपरिभूमिक  होता है। इसके अलावा मृदा की पपड़ी (क्रस्ट) अंकुरण की गति को और  अधिक मंद कर सकती है । उचित नमी एवं तापमान पर सूर्यमुखी के बीज का जमाव  प्रायः 8-10 दिन में हो जाता है।

खाद एवं उर्वरक

    पौधों की बढ़वार के लिए नाइट्रोजन, स्फुर एवं पोटाश आवश्यक तत्व है। नत्रजन तत्व की कमी से पौधो  की बढ़वार मंद पड़ जाती है । जड़ो  का विकास, बीज का आकार, उचित दाना भराव  व तेल में  बढ़ोत्र री के लिए फास्फोरस आवश्यक पोषक तत्व माना गया है। दाना भराव व रोग रोधित के लिए पोटाश एक उपयोगी तत्व है। पोटेशियम की अत्याधिक कमी ह¨ने से बीज खाली रह जाते है । दो या तीन वर्ष में एक बार 25 से 30 गाड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट प्रति हेक्टेयर देना चाहिये। वर्षा निर्भर क्षेत्रों में 30 किग्रा. नत्र्ाजन, 30 किग्रा. स्फुर तथा 20 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बोनी के साथ देना चाहिए। सिंचितक्षेत्र   मे 60-8 0  किग्रा. नत्रजन , 60 किग्रा. स्फुर तथा 40 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर देना चाहिए । सिंचित क्षेत्रों में बोनी के समय स्फुर पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा देनी चाहिये। शेष आधी नत्रजन की मात्रा फसल बोने के लगभग एक महीने के बाद सिंचाई के पहले देना चाहिये। लगातार सघन कृषि पद्धतियों से जस्ते व गंधक की भूमि में कमी देखी जा रही है। तिलहनी फसल होने के कारण सूर्यमुखी को सल्फर तत्व की आवश्यकता पड़ती है। बुआई के समय 20-25 किग्रा. जिंक सल्फेट देना लाभप्रद रहता है। यदि फास्फोरस को सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में दिया जाता है, तो अलग से सल्फर देने की आवश्यकता नहीं होती है। बुआई के समय सुपर फॉस्फेट या जिंक सल्फेट नहीं दिया गया है तो फसल में फूल आने की अवस्था में जिंक सल्फेट  2.5 किग्रा. और चूना 1.25 किग्रा. को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना भी लाभकारी पाया गया है।

सिंचाई

    खरीफ ऋतु में लगाई गई सूर्यमुखी की फसल क¨ सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है । अवर्षा अथवा सूख्¨ की स्थिति में 1-2 सिंचाई देने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है । भारी वर्षा होने पर खेत से जल निकासी आवश्यक है । रबी एवं जायद की सूर्यमुखी मे तीन सिंचाईयाँ प्रथम बोआई के 40 दिन बाद, द्वितिय बोआई के 75 दिन बाद (पुष्पन अवस्था) तथा तृतीय बोआई के 100 दिन बाद (दाना भरते समय) देना लाभ कारी रहता है । पुष्पन एवं दानो  के विकास की अवस्था पर नमी की कमी का फसल पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । शीतकालीन या बसन्तकालीन सूर्यमुखी की बोआई एक हलकी सिंचाई करने के बाद करना लाभप्रद होता है ।

खरपतवार नियंत्रण

    अंकुरण के 10 - 12 दिन बाद पौधों - से - पौधों का अंतर 20 सेमी. रखने के लिये अनावश्यक पौधों को उखाड़ देना चाहिये तथा एक स्थान पर केवल एक ही पौधा रखना चाहिए। खरपतवार नियंत्रण हेतु कतारों के बीच में एक-दो बार गुड़ाई (बुआई के 25-30 से दिन व 40-50 दिन) करना चाहिये। सूरजमुखी का फूल भारी और बड़ा होता है जिसके कारण आँधी-पानी से पौधे गिर सकते हैं। अतः दूसरी गुड़ाई के समय पौधों पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए। खरपतार नियंत्रण हेतु 1 किग्रा. फ्लूक्लोरैलिन (बासालिन 45 ईसी) या पेन्डीमिथिलीन (स्टाम्प 30 ईसी) 3 लीटर प्रति हेक्टेयर का 600 - 800 लीटर पानी में मिलाकर अंकुरण से पूर्व छिड़काव करना चाहिये।

परसेचन क्रिया

    सूरजमुखी सामान्यतः परपागित फसल है। अतः अच्छे बीज पड़ने एवं उनके भराव  हेतु परसेचन क्रिया नितान्त आवश्यक है मधुमक्खियों की उपुक्त संख्या होने पर ही परागण अच्छा होता है सूरजमुखी में फूल आते समय प्रति हेक्टेयर के हिसाब से मधुमक्खियों के 2-3 छत्तों को एक माह तक रख कर मुण्डकों  में पर परागण की क्रिया को बढ़ाया जा सकता है। मधुमक्खियों की सुरक्षा हेतु कीटनाशकों का प्रयोग कम-से -कम करना चाहिये। ग्रीष्म ऋतु में मक्खियों की संख्या में कमी आ जाती है। अतः कृत्रिम परसेचन करना आवश्यक हो जाता है। इसके लिए पौधों में अच्छी तरह फल के मुंडक पर चारों ओर धीरे-धीरे घुमा देना चाहिये, जिससे परागकण आसानी से पूरे मुंडक में पहुँचकर परसेचन क्रिया में सहायक हो जाये। यह क्रिया प्रातः काल 7 बजे से 10 बजे के मध्य, एक दिन के अन्तराल से 3-4 बार करनी चाहिए। 
पक्षियों से फसल की रखवाली
    सूरजमुखी में दाना बनते समय फसल की पक्षियों से रक्षा करना चाहिए। फसल को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाने   वाला पक्षी तोता होता है। इससे बचाव के लिए पक्षियो को उड़ाने वाले कुछ साधनों जैसे बिजूखा लगाना, पटाखा चलाना या ढोल बजाने की संस्तुति की गयी है।

फसल पद्धति

    सूरजमुखी दिन की लम्बाई के प्रति अपनी अभिक्रिया में प्रकाश उदासीन   होने के कारण इसे प्रायः सभी प्रकार के फसल चक्रों में सम्मिलित किया जा सकता है। उत्तरी भारत में यह मक्का-तोरिया/राई-सूरजमुखी, धान-सूरजमुखी, मक्का-मटर-सूरजमुखी, मक्का-आलू-सूरजमुखी आदि फसल चक्रों  में उगाई जा सकती है। अन्तः फसली खेती  के अन्तर्गत सूरजमुखी + मूँगफली (2.4), अरहर + सूरजमुखी (1.2), सूरजमुखी + सोयाबीन (3.3), सूरजमुखी + उड़द (1.1), मूँगफली +सूरजमुखी (6.2 कतार अनुपात) में उगाना चाहिए।

कटाई एवं गहाई

    सूरजमुखी की फसल खरीफ में 80-90 दिन, रबी में 105-130 दिन तथा जायद में 100-110 दिन में तैयार हो जाती है। शीत ऋतु मे कम तापमान के कारण फसल अधिक समय में परिपक्व होती है। जब पौधों की पत्तियाँ पीली पड़ने लगें, पुष्प आधार की पिछली सतह पीली पड़ जाए और ब्रेक्ट भूरे पड़ने लगे तो उस समय फसल को काटना उपयुक्त रहता है। यह अवस्था  सामान्यतया परागण  के लगभग 45 दिन बाद आती है। इस समय मुंडक सूखे नहीं दिखते है,परन्तु बीज पक जाते हैं। बीजों में इस समय लगभग 18 प्रतिशत नमी होती है। कटाई हँसिया से या हाथ से उखाड़  कर करते हैं तथा मुंडक को अलग कर लेते हैं। कटाई पश्चात सूरजमुखी के मुंडकों  को 5-6 दिन तक सुखाने के बाद डंडों से पीटकर बीज को अलग कर लिया जाता है। अधिक क्षेत्रफल में उगाई गई फसल की गहाई थ्रेसर से भी की जा सकती है। बीजों को साफ करने के बाद धूप में सुखा लेना चाहिए।

उपज एवं भंडारण

    सूरजमुखी की संकुल किस्मों से 15 - 20  एवं संकर क्विंटल किस्मों  से 20 - 30  क्विंटल  प्रति हे. उपज प्राप्त होती है। खरीफं ऋतु की अपेक्षा रबी एवं बसंत में सूर्यमुखी की उपज अधिक प्राप्त होती है। बीज को भंडारित करने के पूर्व 2-3 दिन तक अच्छी प्रकार से सुखाना आवश्यक है। जब बीजों में नमी की मात्रा 10 प्रतिशत या इससे कम हो जाय तब उनको उचित स्थान पर संग्रहित  करना चाहिए। सूर्यमुखी के बीजों में सुसुप्तावस्था   लगभग 45 - 50 दिन की होती है।

कैसे बढे भारत में दलहन उत्पादन ?

                                                                
                                                              डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर
                                                   प्रमुख वैज्ञानिक, सस्य विज्ञानं बिभाग
                                        इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

पोषण में दालो का महत्व 

     भारत दुनिया में दालो  का सबसे बड़ा उत्पादक व उपभोक्ता देश है । संसार की 90 प्रतिशत अरहर, 75 प्रतिशत चना अ©र 37 प्रतिशत मसूर भारत में पैदा की जाती है ।  दालें हमारे दैनिक आहार की प्रमुख खाद्य वस्तु है और मानव शरीर के लिए आवश्यक भी है क्योंकि इनमें प्रोटीन की मात्रा सबसे अधिक होती है। प्रोटीन प्राप्ति का दूसरा स्त्रोत मांस है जिसे शाकाहारी खा नहीं सकते हैं। इस प्रकार से भारतीयो  के लिए दाल प्रोटीन का सबसे प्रमुख तत्व  है ।हमारे भोजन का मुख्य अंग कार्बोहाइड्रेट है, जो हमें चावल, गेहूँ इत्यादि अन्नों से स्टार्च के रूप में तथा फलों से शर्करा के रूप में प्राप्त होता है। कार्बोहाइड्रेट का पाचन सरलता से होता है और इससे ऊर्जा प्राप्त होती है, किंतु मांसपेशी बनने, शरीर की वृद्धि तथा पुराने ऊतकों का नवजीवन प्रदान करने में कार्बोहाइड्रेट से कोई सहायता नहीं मिलती है। इन कार्यों के लिए प्रोटीन की आवश्यकता पड़ती है। मांसाहारी जीवों को मांस से तथा शाकाहारियों को वनस्पतियों से प्रोटीन प्राप्त होता है। दालें शाकाहारियों के लिए प्रोटीन का प्रमुख स्रोत हैं।
            भारतीय कृषि पद्धति में दालों की खेती का महत्वपूर्ण स्थान है। दलहनी फसलें भूमि को आच्छाद  प्रदान करती है जिससे भूमि का कटाव  कम होता है। दलहनों में नत्रजन स्थिरिकरण का नैसर्गिक गुण होने के कारण वायुमण्डलीय नत्रजन को  अपनी जड़ो में सिथर करके मृदा उर्वरता को भी बढ़ाती है। इनकी जड़ प्रणाली मूसला होने के कारण कम वर्षा वाले शुष्क क्षेत्रों में भी इनकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है। इन फसलों के दानों के छिलकों में प्रोटीन के अलावा फास्फोरस अन्य खनिज लवण काफी मात्रा में  पाये जाते है जिससे पशुओं और मुर्गियों के महत्वपूर्ण रातब  के रूप में इनका प्रयोग किया जाता है। दलहनी फसलें हरी खाद के रूप में प्रयोग की जाती है जिससे भूमि में जीवांश पदार्थ  तथा नत्रजन की मात्रा में बढ़ोत्तरी होती है। दालो के अलावा इनका प्रयोग मिठाइयाँ, नमकीन आदि व्यंजन बनाने मे किया जाता है। इन फसलों की खेती सीमान्त और कम उपजाऊ भूमियों मे की जा सकती है। कम अवधि की फसलें होने के कारण बहुफसली प्रणाली  मे इनका महत्वपूर्ण योगदान है जिससे अन्न उत्पादन बढ़ाने में दलहनी फसलें सहायक सिद्ध हो रही है। भारत की प्रमुख दलहनी फसलों मे चना, मसूर, खेसरी, मटर, राजमा की खेती रबी ऋतु मे की जाती है।

दलहन उत्पादन: एक परिद्रश्य 

    संसार में दालो  की खेती 70.6 मिलियन हैक्टर क्षेत्र  में की जाती है जिससे 61.5 मिलियन टन उत्पादन ह¨ता है । दलहनो  की विश्व  ओसत उपज 871 किग्रा. प्रति हैक्टर है । भारत में दालों का उत्पादन मांग की तुलना में नहीं बढ़ रहा है। इससे बढ़ती जनसंख्या के कारण दलहनों की प्रति व्यक्ति खपत कम होती जा रही है। वर्ष 2005-06 के दौरान देश में दलहनों का कुल उत्पादन 134 लाख टन था जो 2006-07 में बढ़ कर 142 लाख टन और 2007-08 में बढ़कर 148 लाख टन हो गया।
             दलहनो  का उत्पादन बढ़ने की वजाय वर्ष 2008-09 में यह 145.7 लाख टन तथा वर्ष 2009-10 में 147 लाख टन रह गया । देश में दालों की कमी कोई नई बात नहीं है क्योंकि उत्पादन की तुलना में खपत अधिक होती है। एक अनुमान के अनुसार देश में दालों की वार्षिक खपत लगभग 180 लाख टन है जबकि उत्पादन 130 से 148 लाख टन के बीच घूम रहा है। इस प्रकार देश में 30-40 लाख टन दालो  की कमी पड़ती है । अपनी खपत को पूरा करने के लिए भारत को  प्रतिवर्ष 25-30 लाख टन दालों का आयात करना पड़ता है। वर्तमान में दालो  की कीमतें आसमान छू रही है । इससे देश में दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता भी कम होती जा रही है। वर्श 1951 में प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्धता 60 ग्राम थी जो वर्ष 2010 में घट कर 34 ग्राम के आसपास आ गई जबकि अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार यह मात्रा 80 ग्राम होनी चाहिए।विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा विश्व खाद्य और कृषि संगठन  के अनुसार प्रति व्यक्ति प्रति दिन 104 ग्राम दालों की सस्तुति की गई है। दालो  की उपलब्धता बढाने और  इनके दामो  पर अंकुष लगाने के लिए भारत सरकार ने दालों के निर्यात पर 2006 से लगी पाबंदी को  बढ़ा दिया है।
              भारत में दलहनी फसलो की पैदावार विकसित देशो की अपेक्षा काफी कम आती है।  वर्ष 1971-2010 तक भारत में दलहनी फसलो  के अन्तर्गत सिर्फ 10 प्रतिशत क्षेत्र  में बढ़ोत्तरी हुई है । विगत 20 वर्षो से  दलहनो  की ओसत उपज अमूमन स्थिर (1990 में 580 किग्रा. प्रति हैक्टर से वर्ष 2010 में लगभग 607 किग्रा. प्रति हैक्टर) भारत में सबसे ज्यादा (77 प्रतिशत) दलहन उत्पादन करने वाले प्रमुख  राज्यो  में मध्य प्रदेश (24 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश(16 %), महाराष्ट्र(14%), राजस्थान(6%), आन्ध्र प्रदेश (10%) और  कर्नाटक (7 प्रतिशत) राज्य है । शेष 23 प्रतिशत उत्पादन में गुजरात, छत्तीसगढ़, बिहार, उड़ीसा और  झारखण्ड राज्यो  की हिस्सेदारी है ।भारत में प्रति व्यक्ति कम से कम दालो  की न्यूनतमतम उपलब्धता 50 ग्राम प्रति दिन तथा बीज आदि के लिए 10 प्रतिशत दलहने उपलब्ध कराने के उद्देश्य से वर्ष 2030 तक  32 मिलियन टन दलहन उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है जिसके लिए हमें वार्षिक उत्पादन में 4.2 प्रतिवर्ष की बढ़ोत्तरी प्राप्त करनी होगी । इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है की दलहनी फसलो की खेती भी अच्छी भूमिओ में बेहतर सस्य प्रबंधन के आधार पर की जाए।

दलहन उत्पादन के प्रमुख कारक

           सुनिश्चित मूल्य और सुनिश्चित बाजार के कारण ही चार प्रमुख फसलों, गेहूं, चावल, गन्ना और कपास की पैदावार बढ़ी है। केवल इन चार फसलों पर ही बाजार टिका है । मुख्यतः इसी कारण दालों का उत्पादन नहीं बढ़ पाया है। यद्यपि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य तो घोषित कर रही है, किंतु पैदावार की सरकारी खरीद का कोई  कारगर प्रणाली नही है। सुनिश्चित खरीद न होने के कारण किसानों को बाजार में सस्ते दामों में उपज बेचनी पड़ती है। इसलिए किसानों का दालों की खेती से रुझान कम हो रहा है। देशमें ऐसे क्षेत्रों को चिह्निंत किया जाए, जहां दलहन की खेती को प्रोत्साहन देने की आवष्यकता है। और इसके बाद धान-गेहूँ की तरह मंडियों का जाल बिछाया जाए। न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी के साथ-साथ सरकार को यह भी सुनिष्चित करना चाहिए कि दलहन की पूरी उपज की सरकारी खरीद की जाएगी। दालों की पैदावार के लिए बहुत उपजाऊ जमीन और अधिक पानी की आवश्यकता नहीं पड़ती। साथ ही यह मिट्टी में नाइट्रोजन का स्तर भी बढ़ाती हैं। दालों की खेती को बढ़ावा देने से देश टिकाऊ खेती की दिशा में बढ़ेगा और किसान भी गरीबी के चक्रव्यूह से निकल पाएंगे। दलहन उत्पादन से संबंधित रणनीत बनाने से पूर्व  देश में दलहनों की औसत पैदावार कम होने के कारणो  की व्याख्या करना आवश्यक है । दलहन उत्पादन के प्रमुख कारको  का विवरण यहां प्रस्तुत है -
1. जलवायु सम्बन्धी कारक 
       दलहनी फसलें जलवायु के प्रति अति संवेदनशील होती है। सूखा, पाला, निम्न और उच्च तापमान, जल मग्नता का दलहनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भारत में 87 प्रतिशत क्षेत्र में दहलनों की खेती वर्षा पर निर्भर करती है। उत्तरी भारत में पाले के प्रकोप से दहलनों विशेषकर अरहर, चना, मसूर, मटर आदि की उत्पादकता कम हो जाती है। तराई क्षेत्र मे मृदा आद्रता अधिक होने के कारण उकठा रोग से दलहनों को क्षति होती है। राजस्थान, छत्तीसगढ़  और मध्य प्रदेश में सूखे के प्रकोप से दलहन उत्पादन कम होता है।
2. उच्च उपज वाली किस्मो का अभाव
         दहलनें प्रचीन काल से ही सीमान्त क्षेत्रों में उगाई जाती रही है तथा आज भी व्यसायिक फसलों की श्रेणी में न आने के कारण, इन फसलों पर शोध कार्य सीमित हुआ है जिसके फलस्वरूप उच्च गुणवत्ता वाली लागत संवेदी किस्में उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं। दलहनी फसलों की कीट-रोग और सूखा रोधी का अभाव है।
3. अवैज्ञानिक सस्य प्रबन्ध
        दलहनों की खेती बहुधा किसान अवैज्ञानिक ढंग से करते है जिसके कारण वांछित उपज नहीं मिलती है। प्रमुख सस्य प्रबन्ध कारण निम्न हैं-
(अ) खराब प्रबन्ध स्तर: शुष्क और सीमान्त क्षेत्रों के किसानों की आर्थिक दशा अच्छी नहीं होती है जिससे वे उन्नत किस्म के बीज, उर्वरक आदि का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। इसके अलावा फसलो में जल प्रबन्ध, खरपतवारों, कीट - रोगो का  प्रबन्धन भी नहीं हो पाता है जिसके कारण उत्पादकता कम आती है।
(ब) राइजोबियम जीवाणुओं के संवर्ध  की अनुपलब्धता: दलहनी फसलों के लिए अलग-अलग जीवाणु संवर्ध की आवश्यकता होती है, परन्तु सभी दलहनों के जीवाणु संवर्ध अभी तक उपलब्ध नहीं है। इसके अलावा राइजोबियम जीवाणुओं के लिए उचित तापक्रम नियंत्रक न होने के कारण, ज्यादातर संवर्धन (ब्नसजनतम) प्रभावहीन हो जाते हैं जिससे वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हो पाते हैं।
(स) समय पर बुआई न होना : सिंचाई सुविधा न होने के कारण प्रायः दलहनी फसलो की अगेती बोआई की जाती है जिसके कारण दलहनो की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है तथा उत्पादन कम हो पाता है।
(द) दोषयुक्त बुआई विधि : आमतौर पर दलहनी फसलों की बुआई छिटकवाँ विधि से की जाती हैं जिसके कारण बीज अंकुरण एक सार नहीं हो पाता है और प्रति इकाई ईष्टतम पौध संख्या स्थापित नहीं हो पाती है। निंदाई-गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण भी ठीक से नहीं हो पाता हैं, जिससे फसल उत्पादन कम प्राप्त होता है।
(इ) अक्षम कीट व रोग नियंत्रण : दलहनी फसल में प्रोटीन पदार्थ अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक होने से वे सरस होते हैं जिसके कारण कीट रोग अधिक लगता है। सीमान्त क्षेत्रों के किसान आर्थिक तंगी और अज्ञानता के कारण पौध संरक्षण उपायों को नहीं अपनाते हैं, जिससे उपज में भारी कमी आती है।
4. जैविक कारण
(अ) असीमित पौध वृद्धि: दलहनी पौधों की प्रकृति असीमित वृद्धि वाली होती है जिसके कारण पौधे के अग्र भाग की वृद्धि सतत् रूप से चलती है तथा पत्तियों के कक्ष में फूल और फलियों का निर्माण भी होता रहता है। इससे नीचे वाली फलियों के पकने के समय ऊपर वाली फलियाँ अपरिपक्व रहती हैं तथा ऊपर वाली फलियों के पकने तक नीचे वाली फलियों के दाने झड़ने लगते हैं। इस प्रकार से उपज में भारी कमी आती है।
(ब) प्रकाश एवं ताप के प्रति संवेदनशीलता: दलहनी फसलें प्रकाश व ताप के प्रति अति संवेदनशील होती हैं अर्थात् इनमें पुष्पन की क्रिया मौसम एवं जलवायु पर आधारित होती है। वर्षा पोषित क्षेत्रों में संचित नमी का उपयोग करने प्रायः बोआई जल्दी कर दी जाती है, जिससे फसल की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है। पौधे प्रकाश संवेदी  होने के कारण उनमें पुश्पन तभी होता है जब उन्हें उचित प्रकाश व ताप उपलब्ध होता है। इसके विपरीत देर से बोआई करने पर फसल की वानस्पतिक वृद्धि काफी कम हो पाती है, क्योंकि जैसे ही पौधों को उपयुक्त मौसम प्राप्त होता है, उनमें पुष्पन  हो जाता है। इस प्रकार से दोनों ही परिस्थितियों में उपज प्रभावित होती हैं।
(स) धान्य फसलें स्टार्च की पूर्ति के लिए उगाई जाती है, जबकि दलहनी फसलें प्रोटीन से भरपूर बीजों के लिए उगाई जाती है। प्रोटीन के निर्माण में फसल को ज्यादा ऊर्जा व्यय करनी पड़ती है और फोटोसिंथेट की अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है, जबकि स्टार्च उत्पादन में इसकी कम आवश्यकता पड़ती है इसलिए दलहनी फसलों की उत्पादकता तथा कटाई सूचकांक  धान्य फसलों की अपेक्षा कम होता है।
(द) दलहनी फसलों में फूलों का झड़ना  एवं फलियों के चटकने  जैसी पैतृक बाधांये विद्यमान होती हैं, जो निश्चय ही इनकी उत्पादकता कम करती हैं। दलहनी फसलो में कीट-व्याधियों का प्रकोप भी अधिक होता है।
5. संस्थागत कारण : दहलनों की क्षेत्रवार उत्पादन तकनीक तथा उपलब्ध तकनीक का प्रसार न होने के काररण किसान परंपरागत विधि से ही इनकी खेती करते आ रहे है। उन्नत किस्म के कृषि यत्रो (बोआई एवं गहाई यंत्र) का अभाव है। भंडारण की उचित व्यवस्था का अभाव बना हुआ है। दलहनों मे प्रोटीन की अधिकता होने के कारण भंडारण के समय भी इनमे कीट - रोग का प्रकोप अधिक होता है। भंडारण की उचित व्यवस्था न होने तथा दाल मिलों की कमी  होने के कारण कटाई के बाद भी दलहनो को कीट - व्याधियो से क्षति पहुँचती है जिससे दालो की उपलब्धता घटती है।
6. सामाजिक बाधायें:  सीमान्त क्षेत्रो के किसानों मे यह आम धारणा रहती है कि दलहनों की खेती लाभकारी नहीं है। इसलिए इनकी खेती अनुपजाऊ भूमियो में बगैर खाद - उर्वरक के की जाती है। इसके अलावा दलहनों को ज्यादातर क्षेत्रों में मिश्रित फसल के रूप में उगाया जाता है। इससे इनकी उपज कम प्राप्त होती है।

दलहन उत्पादन बढ़ाने की संभावनायें

           खाद्यन्न उत्पादन के मामले में भारत ने न केवल आत्मनिर्भरता हासिल कर ली है, अपितु खाद्यान्न के सुरक्षित भण्डार की व्यवस्था भी कर ली है । दलहन व तिलहनी फसलों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी करने के उद्देश्य से अब फसल विविधीकरण पर किसानो का ध्यान आकर्षित किया जा रहा है। राज्योदय के बाद से छत्तीगढ़ में भी फसल विविधीकरण योजना के तहत उच्चहन भूमि पर दलहन तिहलन फसलें लगाने किसानों कोे प्रेरित किया जा रहा है, जिसके उत्साहजनक परिणाम सामने आ रहे है। उपलब्ध नवीन तकनीक के माध्यम से छोटे किसान भी शत - प्रतिशत उत्पादन बढ़ा सकते है। दलहन उत्पादन बढ़ाने की दिशा में निम्न उपाय सार्थक हो सकते हैं -
(1) प्राचीन काल से ही उन्नत बीज कृषि का महत्वपूर्ण अंग रहा है।  उर्वरा भूमि के बाद कृषि के लिए ऋषि ने उन्नत बीज को ही महत्व दिया है। उन्नत बीज केवल शुद्ध किस्मो से प्राप्त होता है और स्वस्थ बीज से ही उत्तम फसल मिलसकती है। देशी किस्मों की तुलना मे उन्नत किस्मों से उपज को दोगुना किया जा सकता है।  वर्तमान में नये बीजों द्वारा पुराने बीजों का विस्थापन मात्र 7 प्रतिशत ही है, जो कम से कम 15 - 20 प्रतिशत होना चाहिए। अतः दलहनों का उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्नत किस्मो के प्रमाणित  बीजों की समय पर उपलब्धता सुनिश्चित करना आवश्यक है।
(2) प्रकाश एवं ताप असंवेदी किस्मो के विकास की आवश्यकता है जिससे  फसल की परिपक्वता एक साथ होने से कटाई एक साथ हो  सके ।
(3)किसानो को  समय पर आवश्यक गुणवत्ता परक आदान  जैसे उर्वरक, राइजोबियम कल्चर, बीज, उपकरण आदि उचित दर पर उपलब्ध कराना चाहिए ।
(4) दलहनी फसलों की बोआई छिंटकवाँ विधि से न करके कतारो में की जानी चाहिए तथा आवश्यकतानुसार खरपतवार, कीट और रोग नियंत्रण उपाय अपनाये जाने चाहिए।
(5) वर्तमान मे प्रति इकाई दलहनों की पैदावार काफी कम है। उन्नत विधि से खेती करके उपज में प्रति हेक्टेयर 2 से 4 क्विंटल  की बढ़त की जा सकती है जिससे राष्ट्रीय उपज व प्रति व्यक्ति उपलब्धता में बढ़ोत्तरी हो सकती है। क्योंकि अनुसंधानों में ही नहीं बल्कि किसानों के खेतों पर डाले गये प्रदर्शनों में अरहर से 58 व मूंग की उपज में 55 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है।
(6) धान्य फसलो के साथ दलहनों की बहुफसली पद्धति व अंतः फसली खेती करके अतिरिक्त लाभ कमाया जा सकता है।
(7) धान उत्पादक क्षेत्रों में धान  के खेतों की मेड़ पर  2 से 4 कतारे अरहर (तुअर) की लगाकर बोनस उपज का लाभ लिया जा सकता है।
(8) खरीफ और रबी फसलों के बीच सिंचित क्षेत्रों में मूंग, उड़द, लोबिया आदि की खेती आसानी से की जा सकती है ।
(9) दलहनी फसलो  में 1-2 सिंचाई देने से उपज में अच्छी बढ़¨त्तरी की जा सकती है ।
(10) खरीफ ऋतु में लगाई जाने वाली दलहनी फसलो  के लिए खेत में जल निकास की व्यवस्था करने से उपज में निश्चित बढ़ोत्तरी होती है । अधिक वर्षा या जल भरावसे फसल को  नुकसान होता है ।
(11) दलहनी फसलो  में कीट-रोगो  का प्रकोप अधिक होता है जिससे उपज में भारी क्षति हो  जाती  है । समय पर  पौध  संरक्षण के उपाय उप्नाने  से उपज को  बढाया जा सकता है ।
(12) दलहनों की समर्थन मूल्य पर खरीदी करने की व्यापक व्यवस्था ह¨नी चाहिए तथा दलहनो  के प्रसंस्करण की सुविधा एवं भंडारण की उचित व्यवस्था करने से दलहनों की खेती को बढ़ावा मिल सकता है।

भारत के अदभुत एवं अलौकिक अनाज

                                                                            डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर  

                                                                       प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं बिभाग
                                                       इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                                             खाद्यान्न और पोषण  सुरक्षा के लिए अलौकिक अनाज 

             धान, गेँहू के अलावा घांस कुल में मोटे अनाज वाली फसले जैसे जुआर, बाजरा तथा लघु धन्य जैसे कोदो, कुटी और रागी आती है। परम्पगत खाद्य श्रृंखला में इन फसलों का विशेष महत्व होता था और इसी बजह से पहले हमारी खाद्य सुरक्षा के साथ साथ पोषण सुरक्षा का भी पुख्ता इंतजाम था। अब इन फसलों का  अस्तित्व खतरे में नज़र आ रहा है। एक तरफ  हरित क्रांति के कारण  धान और गेंहू की खेती के रकबे में भारी इजाफा हुआ और तदनुसार उत्पादन में भी आशातीत बढोत्तरी हुई। परन्तु मोटे (पोषक) अनाज वाली फसलो का रकबा निरंतर कम होता जा रहा है । दूसरी तरफ  देश की सार्वजानिक वितरण प्रणाली में गेंहू और चावल को ही  सर्वोपर्य स्थान मिला हुआ है।  प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक में भी पोषण सुरक्षा मुहैया कराने वाले  हमारे पारंपरिक अलौकिक  अनाजो यथा मक्का, जुआर,बाजरा तथा लघु धन्य जैसे रागी, कोदो, कुटकी आदि को शामिल नहीं किया जाना भारत की भावी पीडी के लिए सुभ संकेत नहीं है।  भूली बिसरी इन फसलो को सरकार के समर्थन मूल्य का सहारा नहीं मिल पा  रहा है। इन्ही कारणों से इन फसलो का रकबा दिनों दिन कम होता जा रहा है। भारत में 1410 लाख हैक्टेयर कुल कृषिगत क्षेत्रफल में से, लगभग 177 जिलो  में, 850 लाख हैक्टेयर क्षेत्र सिंचाई के  लिए मानसून वर्षा पर निर्भर है । यह देश के  कुल कृषि क्षेत्र का लगभग 60 प्रतिशत क्षेत्र आता है । वर्षा निर्भर कृषि से देश में 44 प्रतिशत अनाज, 75 प्रतिशत दालें और  90 प्रतिशत से अधिक मात्रा में ज्वार, मूंगफली पैदा होती है । हालांकि आजादी के  50 सालो  में वर्षा आधारित क्षेत्रो  पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है, फिर भी यह क्षेत्र देश के  अमूमन आधे ग्रामीण मजदूरो के  लिए रोजगार और  60 प्रतिशत मवेशिय के  लिए पोषण सुरक्षा भी उपलब्ध करा रहे है । मोटे अनाजो  की खेती न केवल उत्पादन देती है वरन यह एक ऐसी विचारधारा है जिसके  माध्यम से कृषक जैव विविधता, पारिस्थितिकीय उपज प्रणालियो तथा  खाद्यान्न प्रधानता जैसे सिद्धातो को  वास्तविकता में बदल देते है । वास्तव में यह एक  अदभुत खाद्यान्न प्रणाली है जो  भारत में खाद्यान्न व पोषण सुरक्षा के साथ- साथ हमारी परम्परागत  कृषि के  भविष्य को  सुरक्षित रख  सकती है । क्योकि गेंहू और चावल का मौजूदा उत्पादन तथा उपलब्ध अन्न भंडार 
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अनुरूप देश भर की जनता की खाद्यान्न आवश्यकता की पूर्ती नहीं कर पायेगा।  ऐसे में मोटे अनाजो को भी इसमें शामिल करना अनेक कारणों से बेहतर  होगा। जुआर , बाजरा, रागी,कोदो, कुटकी, जौ, जई आदि भले ही गुणवत्ता में गेंहू और चावल के समान न हो लेकिन पोषण स्टार के मामले में वे उनसे बीस ही साबित होते है।
भरपूर पोषण देती है ये फसले 

                     पोषण के लगभग सभी  मापदंडो  से, यह अनाज चावल या गेंहू से आगे है । गेंहू व चावल के  मुकाबले उनके  अंदर खनिज पदार्थ की  मात्रा काफी ज्यादा है । इनमें से प्रत्येक अनाज में चावल व गेंहू के  मुकाबले ज्यादा रेशा रहता है । किसी-किसी अनाज में  तो  चावल से 50 गुणा ज्यादा । रागी में चावल के मुकाबले 30 गुणा ज्यादा कैल्शियम होता है और  बाकी अनाज की किस्मो  में कम से कम दुगुना कैल्शियम रहता है । लौह  तत्व में, काकुन और  कुटकी इतने ज्यादा परिपूर्ण है कि चावल उनके  मुकाबले कहीं नहीं ठहरता है । जहां हम बीटा कैटी न नामक सूक्ष्म-पुष्टिकारक दवाओ व गोलिओ  में ढूंढते रहते है, अनाज की यह किस्में इससे भी परिपूर्ण है । यहां तक कि चावल जैसे लोकप्रिय खाद्य में यह महत्वपूर्ण सूक्ष्म-पुष्टिकारक है ही नही है । इसी प्रकार एक-एक पुष्टिकारक को  देखें, तो  अनाजो की हर किस्म चावल व गेंहू से कहीं ज्यादा उत्तम है और  यही कारण है कि वे कुपोषण, जिससे भारत में काफी जन संख्या त्रस्त है, के  लिए उत्तम उपाय है । तो क्यों ना हम इन अनाजो को मोटे अनाज की जगह पोषक अनाज के नाम से संबोधित करे।
 अदभुत अनाजो  में पुष्टिकारक तत्वो  की मात्रा
फसल/पुष्टिकारक    प्रोटीन (ग्रा.)    रेशा (ग्रा.)    खनिज (ग्रा.)    लौह  तत्व (मिग्रा.)    कैल्शियम (मिग्रा.)
बाजरा                      10.6               1.3              2.3                 16.9                          38
रागी                         7.3                  3.6             2.7                   3.9                          344
काकुम                    12.3                 8                3.3                   2.8                           31
चीना                       12.5                 2.2             1.9                   0.8                           14
कोदो                       8.3                   9                2.6                  0.5                            27
कुटकी                      7.7                7.6              1.5                   9.3                            17
सांवा                       11.2               10.1             4.4                 15.2                           11
चावल                      6.8                 0.2              0.6                  0.7                            10
गेंहू                         11.8                1.2              1.5                   5.3                            41

 
                इन अदभुत अनाजो के उत्पादन के  लिए बहुत कम खाद- पानी की आवश्यकता पड़ती है । सिंचित और  नगदी फसलें जिन्हे हमारी वर्तमान नीतियो  में बढ़ावा दिया जा रहा है, के  मुकाबले अनाज की इन प्रजातियो के  सिंचाई की कोई आवश्यकता नहीं होती है । गन्ने तथा केले जैसी फसलो के  मुकाबले इन फसलो को  केवल 25 प्रतिशत वर्षा की ही आवश्यकता पड़ती है ।
                इन अनाजो  की फसल को बहुत ही कम पानी की आवश्यकता होती है । ज्वार, बाजरा और  रागी के  लिए गन्ने और  केले  के  मुकाबले 25 प्रतिशत कम और  धान के  मुकाबले 30 प्रतिशत कम बारिश की जरूरत ह¨ती है । हम 1 किलो धान पैदा करने के लिए 4000 लीटर पानी का उपयोग करते है, जबकि इन सभी अनाजो  की फसलें बिना सिंचाई के  ही पैदा हो  जाती है । ऐसे समय में जब पानी और  खाद्यान्न की भारी कमी संभावित है, वहां अनाज की यह फसलें हमारे लिए खाद्यान्न सुरक्षा का साधन बन सकती है ।
विभिन्न फसलो  की वर्षा की जरूरत (मिमी में)
फसल                                  वर्षा की आवश्यकता
गन्ना                                       2000-2200
क¢ला                                      2000-2200
धान                                        1200-1300
कपास                                       600-650
मक्का                                       500-550
मूंगफली                                    450-500
मिर्च                                             600
ज्वार                                         400-500
बाजरा                                       350-400
रागी                                          350-400
दालें                                          300-350
तिल                                          300-350

         उपरोक्त बातो के अलावा मोटे अनाज की  फसलें सभी प्रकार की भूमि-जलवायु में आसानी से उगाई जा सकती है साथ ही  विभिन्न प्रकार के  मौसमी उतार-चढ़ाव तथा परिस्थितिकीय संकट और कीट रोग व्याधियो  को  झेलने में सक्षम होती है।

                                                                           ज्वार

              ज्वार विश्व की एक मोटे अनाज वाली महत्वपूर्ण फसल है । पारंपरिक रूप से खाद्य तथा चारा की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु इसकी खेती की जाती है, लेकिन अब यह संभावित जैव-ऊर्जा फसल के रूप में भी उभर रही है । खाद्यान्न फसलों में क्षेत्रफल की दृष्टि से ज्वार का  भारत में तृतीय स्थान है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में ज्वार सबसे लोकप्रिय फसल हैं। एक ओर जहाँ ज्वार सूखे का सक्षमता से सामना कर सकती है, वहीं कुछ समय के लिये भूमि में जलमग्नता को भी सहन कर सकती है। ज्वार का पौधा अन्य अनाज वाली फसलों की अपेक्षा कम प्रकाष संष्लेषण एवं प्रति इकाई समय में अधिक शुष्क पदार्थ का निर्माण करता है। ज्वार की पानी उपयोग करने की क्षमता भी अन्य अनाज वाली फसलों की तुलना में अधिक है। ज्वार की खेती उत्तरी भारत में खरीफ के मौसम में और दक्षिणी भारत में खरीफ एंव रबी दोनों मौसमों में की जाती है। ज्वार की खेती अनाज व चारे के लिये की जाती है। ज्वार को  आजकल औद्यौगिक फसल के रूप में देखा जा रहा है ।सफेद ज्वार के आटे से ब्रेड, बिस्किट एवं केक बनाये जा सकते हैं। ज्वार के आटे के स्वाभाविक रूप से मीठा होने के कारण चीनी की मात्रा कम रखकर मधुमेह रोगियों के लिए अच्छा स्नैक तैयार किया जा सकता है। ब्रेड बनाने के लिए ज्वार और गेहूँ के आटे की मात्रा 60 प्रतिशत व 40 प्रतिशत रखी जाती है।  सामान्य रूप से बीयर, जौ, मक्का अथवा धान से तैयार की जाती है, परन्तु ज्वार के अनाज से भी स्वादिश्ट एवं सुगंधित बियर बनाई जा सकती है, जो अन्य धान्य से बनाई बियर से सस्ती पड़ती है। ज्वार की विशेष किस्म से स्टार्च तैयार किया जाता है । अलकोहल उपलब्ध कराने का भी ज्वार एक उत्कृष्ट साधन है । इस प्रकार से ओद्योगिक  क्षेत्रों में ज्वार की मांग बढ़ने से ज्वार उत्पादक किसानो को अब  ज्वार की बेहतर कीमत प्राप्त हो  रही है।
                                                      बाजरा 
                     मोटे अनाज वाली फसलों में बाजरा (पेनीसीटम टाइफाइड) का महत्वपूर्ण स्थान है। बाजरा कम लागत तथा शुष्क क्षेत्रों में उगाई जाने वाली ज्वार से भी लोकप्रिय फसल है जिसे दाने व चारे के लिए उगाया जाता है। यह गरीबो  का मुख्य भोजन माना जाता  है । अमीर लोग  जाडे  में कभी-कभी इसे स्वाद बदलने के लिए खाते है । इसका प्रभाव गर्म प्रकृति का होता है, अतः गर्म ऋतु में यथासंभव इसे नहीं खाना चाहिए । बाजरे के दाने में 12.4 प्रतिशत नमी, 11.6 प्रतिशत प्रोटीन, 5.0 प्रतिशत वसा, 67.5 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 0.05 प्रतिशत कैल्शियम, 0.35 प्रतिशत फास्फोरस तथा 8.8 प्रतिशत लोहा पाया जाता है। इस प्रकार बाजरे का दाना ज्वार की अपेक्षा अधिक पौष्टिक होता है।बाजरे को खाने के काम में  लाने से पूर्व इसके दाने को कूटकर भूसी अलग कर लिया जाता है। दानों को पीसकर आटा तैयार करते हैं और माल्टेड आटा के रूप में प्रयोग करते हैं। उत्तरी भारत में जाड़े के दिनों में बाजरा रोटी (चपाती) के रूप में खाया जाता है। बाजरे की र¨टी और  दूध का भोजन चावल से भी अधिक पौष्टिक  माना गया है । कुछ स्थानों पर बाजरे के दानों को चावल की तरह पकाया और खाया जाता है। गांवो  में दाने की हरी बालियाँ भूनकर मक्के के भुट्टे की तरह खाई जाती हैं। दाने को भूनकर लाई भी बनाते हैं। इस प्रकार दाना भूनकर, उबालकर या आटा बनाकर प्रयोग में आता है ।बाजरा दुधारू पशुओं को दलिया एंव मुर्गियों को दाने के रूप में खिलाया जाता है।

                                                              लघु धान्य (मोटे अनाज)

                मोटे अनाज छोटे दाने वाली धान्य फसलों को कहा जाता है। मिलेट धान्य प्रजाति के भारत में विकसित पौधे हैं, जिसके अन्र्तगत छोटे-छोटे परन्तु पौष्टिक दानों वाली कई फसलें शामिल हैं। मोटे अनाजों को लघोन्न फसलें भी कहा जाता है। यहाँ पर इस शब्द का प्रथम अर्द्ध भाग अर्थात् ’लघु’ का अभिप्राय इन फसलों के दाने के आकार का और शेष अंतिम भाग ’अन्न’ इन्हें खाद्यान्नों की श्रेणी में रखने का द्योतक है। मोटे या लघु धान्य फसलों में कोदों,रागी , कुटकी, सावाँ, काकुन आदि सम्मलित किये जाते हैं। इन सभी फसलों के दानों का आकार इनके पौधों के आकार की अपेक्षा छोटा होता है। अतः इन्हें छोटे या मोटे या लघु धान्य के नाम से जाना जाता है। इन फसलों की खेती प्रायः शुष्क क्षेत्रों में की जाती है। इन खाद्यान्नों की खेती उन क्षेत्रों में की जाती है जहाँ की भूमि दूसरे उत्तम धान्य उगाने योग्य नहीं रहती है तथा अधिकांश क्षेत्र शुष्क खेती की परिधि में आते है। लघु धान्य फसलों की अवधि भी मुख्य फसलों  की अपेक्षा बहुत कम होती है। इन फसलों में सूखा एंव अकाल जैसी विषम परिस्थितियों को सहन करने की अद्भुत क्षमता होती है। इन फसलों पर कीट एंव रोगों का प्रकोप भी कम होता है। अतः इनको सूखाग्रस्त क्षेत्रों, सीमान्त भूमि और आदिवासी क्षेत्रों की आधारभूत फसलें माना जाता है।
    सभी लघु धान्य फसलें दानें के रूप में रोटी बनाकर या कुछ फसलें चावल की भाँति उबालकर खाने के काम में लाई जाती हैं। दाने के अलावा इन फसलों से पशुओ  के लिए चारा-भूसा भी प्राप्त होता है। देश के पहाड़ी-पठारी क्षेत्रों में अत्यधिक भौगौलिक विषमताओ  के कारण ऐसी फसलों की उपयोगिता बढ़ जाती है जो असिंचित व कम उपजाऊ भूमि में उगाई जा सके।

                                                                        रागी (मंडुआ)

                    भारत में उगाए जाने वाले लघु धान्यों  में रागी (मंडुवा) सबसे महत्वपूर्ण एंव जीविका प्रदान करने वाला अन्न है। प्रायः गरीब आदिवासी लोग ही इसके दाने का प्रयोग खाने में करते है । खाने में इसका स्वाद भले  ही अच्छा न लगें परन्तु रागी का दाना काफी पौष्टिक होता है जिसका आटा व दलिया बनाया जाता है। आटे से रोटी, पारिज, हलवा व पुडिंग तैयार किया जाता है। मधुमेय के रोगियो  के लिए यह विशेष रूप से उपयोगी है। मधुमेह पीड़ित व्यत्कियों के लिए चावल के स्थान पर मंडुवा का सेवन उत्तम बताया गया है।  कृषि महाविद्यालय, जगदलपुर के वैज्ञानिकों द्वारा रागी के प्रसंस्करण से आटा  तैयार किया गया है जो कि मधुमेय पीड़ित व्यक्तियों  के लिए वरदान सिद्ध हो रहा है। रागी के अंकुरित बीजों  से माल्ट भी बनाते हैं जो कि शिशु आहार तैयार करने में काम आता है। बहुत समय से इसके दानों से उत्तम गुणों वाली शराब भी तैयार की जाती है। बाबरनामा नामक पुस्तक में इसकी शराब का वर्णन मिलता है । इसके दाने की यह भी विशेषता है कि बिना खराब हुए  रागी को  अनेक वर्षो  तक संचित रखा जा सकता है ।

                                                                            कोदों

              कोदो  भारत का एक प्राचीन अन्न है जिसे ऋषि अन्न माना जाता था। यह एक जल्दी पकने वाली सबसे अधिक सूखा अवरोधी लघु धान्य फसल  है। इसका प्रयोग उबालकर चावल की तरह खाने में किया जाता है। प्रयोग करने से पूर्व इसके दाने के ऊपर उपस्थित  छिलके को  कूटकर हटाना आवश्यक रहता है ।  इसकी उपज को  लम्बे समय तक सहेज कर रखा जा सकता है तथा अकाल आदि की विषम परिस्थितियो   में खाद्यान्न के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है । इसके दाने में 8.3 प्रतिशत प्रोटीन, 1.4 प्रतिशत वसा, 65.9 कार्बोहाइड्रेट तथा 2.9 प्रतिशत राख पाई जाती है। यह गरीबों की फसल  मानी जाती है क्योकि इसकी खेती गैर-उपजाऊ भूमियों  में बगैर खाद-पानी के की जाती है। मधुमेह के रोगियों  के लिए चावल  व गेहूँ के स्थान पर कोदों  विशेष लाभकारी रहता है।

                                                                              कुटकी 

            कुटकी वर्षा ऋतु की तमाम फसलो  में सबसे पहले  तैयार होने  वाली धान्य प्रजाति की फसल है । संभवतः इसलिए इसे पिछड़े और  आदिवासी क्षेत्रो  में अधिक पसंद किया जाता है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रो में इसे  चिकमा नाम से भी जाना जाता है । इसे गरीबों की फसल  की संज्ञा दी गई है। कुटकी जल्दी पकने वाली सूखा और जल भराव जैसी विषम परिस्थितियों को सहन करने वाली  फसल है। यह एक पौष्टिक लघु धान्य हैं। इसके 100 ग्राम दाने में 8.7 ग्राम प्रोटीन, 75.7 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 5.3 ग्राम वसा, 8.6 ग्राम रेशा के अलावा खनिज तत्व, कैल्शियम एंव फास्फोरस प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।
                   उपरोक्त मोटे अलौकिक अनाजो को आज भले ही हमने खाद्य श्रृंखला से बाहर कर दिया हो परन्तु पशुओ एवं पछियो के भोजन तथा ओद्योगिक इस्तेमाल के कारण इनका  अस्तित्व अभी भी बचा है। इनके महत्व को देखते हुए आज चिकित्सक भी इन अनाजो को भोजन में शामिल करने का सुझाव दे रहे है। पारम्परिक पाक विधिओ में मोटे अनाजो का इस्तेमाल शिशु आहार बनाने वाले उद्योग तथा अन्य खाद्य पदार्थो के उत्पादन में किया जा रहा है। जुआर का उपयोग ग्लूकोस और अन्य पेय निर्माण उद्योग में किया जा रहाएन्हु   है  अब रागी और गेंहू  के  मिश्रण से निर्मित वर्मिसिल  बाजार में उपलब्ध है। सुपर मार्केट और माल में मल्टी-ग्रेन  आटा अब नव धनाड्य  वर्ग में लोकप्रिय होता जा रहा है।भारत में लागू ऐतहासिक खाद्यान्न सुरक्षा कानून का हम स्वागत करते है। वास्तव में हमें खाद्यान्न सुरक्षा के साथ-साथ पोषण सुरक्षा पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। देश में बड़ी संख्या में बच्चे व युवा कुपोषित और अल्प भारित है जिनके सुपोषण की वयवस्था भी हमें करना चाहिए। हमारी परम्परागत फसलों से ही लोगो को पोष्टिक खाद्यान प्राप्त हो सकता है। मोटे अनाज वाली फासले असिंचित अथवा सूखाग्रस्त क्षेत्रो में सीमित लगत में आसानी से उगाई जा सकती है।  अब तो इनका बाजार भाव भी अच्छा मिल रहा है।
              मोटे अनाजो के घटते उत्पादन और बढती मांग को देखते हुए इन फसलो की खेती को  प्रोत्साहित कर खेती में विविधिता लाने का हम सब को मिल कर प्रयास करना चाहिए जिससे देश में बहुसंख्यक आबादी को खाद्यान्न सुरक्षा के साथ पोषण सुरक्षा भी मुहैया हो सके।

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।


शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

ओद्योगिक तिलहन-अलसी की आधुनिक खेती

                                                अलसी: तेल और रेशे वाली फसल 

डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

       अलसी एक तिलहनी एवं रेशेदार फसल है। ठण्डे देशो  में अलसी के पौधो  के तने से एक प्रकार का रेशा भी निकाला जाता है, जिसे फ्लेक्स कहते है । भारत में अलसी की खेती मुख्यतः तेल के लिए ही की जाती है। इसके बीज में 33 से 44 प्रतिशत तेल और 20.3 प्रतिशत प्रोटीन तथा 4.8 प्रतिशत रेशा पाया जाता है। अलसी के तेल में 50-57 प्रतिशत लिनोलिक अम्ल पाया जाता है। अलसी का तेल शीघ्र सूखने वाला होता है। अतः तेल का उपयोग पेंट, वार्निश, साबुन, रंग, स्याही आदि बनाने में किया जाता है। अलसी के तेल क¨ खाद्य तेल के रूप में उपयोग करने  में लोगो  की रूचि बढ़ रही है क्योकि इसके तेल में ओमेगा-3 फैटी एसिड (लिनो ली निक अम्ल) बड़े पैमाने पर पाया जाता है जो  कि स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त लाभकारी बताया जाता है । इसकी खली में लगभग 30 प्रतिशत प्रोटीन, 7 प्रतिशत वसा, 42 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 10 प्रतिशत रेशा और  7 प्रतिशत खनिज पाया जाता है , जिससे यह पशुओ  के लिए सबसे उत्तम खली (केक) मानी जाती है ।  पौधों के तने से रेशे भी निकाले जाते हैं जिससे लिनेन फाइबर  तैयार किया जाता है। इनका प्रयोग दरी, कैनवास तथा मोटे कपड़े बनाने में किया जाता है। रेशे निकालने के बाद बचे हुए तने का कड़ा भाग सिगरेट में प्रयोग होने वाले कागज बनाने के काम में आता है।

उपयुक्त जलवायु

             अलसी की खेती बीज और तेल के उद्देश्य से अधो-उष्ण कटिबन्धीय  और शीतोष्ण कटिबन्धीय देशों में की जाती है। ठंडे देशों में इसे बहुधा रेशे  के लिए उगाया जाता है। अलसी की खेती के लिए साधारणतया ठण्डी और शुष्क जलवायु की आवश्कता होती है। अलसी की फसल रबी मौसम (शरद काल) में ली जाती हैं । सामान्यतः 80 - 100 सेमी. वार्षिक वर्षा अलसी की खेती के लिए उपयुक्त रहती है। इसकी अच्छी फसल के लिए 21-27 डि से तापक्रम उत्तम रहता है। जीवन काल के आरम्भ में अधिक तापमान होने से पौध  रोगी हो  जाते है । फसल वृद्धिकाल या फूल आने के समय पाले का पड़ना अत्यधिक हाँनिकारक होता है। रेशा उत्पादन करने वाली किस्मो  के लिए ठंडा और  आद्र वातावरण अच्छा माना जाता है ।फसल पकने के समय दाना एवं रेशा वाली दोनों  ही किस्मो को  अपेक्षाकृत अधिक तापक्रम तथा शुष्क वातावरण की आवश्यक होती है।

भूमि का चयन 

    अलसी की उत्तम खेती के लिए मध्यम उपजाऊ दोमट मृदा  सर्वोत्तम होती है। वर्षा ऋतु के बाद संचित नमी से ही ख्¨ती ह¨ने का कारण अलसी को  भारी मटियार या दोमट भूमि मे ही बोया जाता  है। मध्य प्रदेश में इसकी खेती कपास की काली मिट्टियों  में की जाती है।  यदि ऊपर की मिट्टी दोमट तथा नीचे की मटियार है  तो  फसल अच्छी ह¨ती है । उतेरा पद्धति (धान की खड़ी फसल मे बीज बोना) के लिए धान के भारी खेत, जिसमें नमी अधिक समय ते संचित रहती हैं, उपयुक्त रहती है। मृदा का पीएच मान उदासीन होना चाहिए। खेत में जलनिकास का उत्तम प्रबन्ध होना अनिवार्य है।

भूमि की तैयारी

    बीज के अंकुरण और उचित पौध  वृद्धि के लिए आवश्यक है कि बुआई से पूर्व भूमि को अच्छी प्रकार से तैयार कर लिया जाए। धान की फसल कटाई पश्चात् बतर आने पर खेत की  मिट्टी पलटने वाले हल से एक बार जोतने के पश्चात् 2-3 बार देशी 2-3 बार देशी या हैरो चलाकर भूमि तैयार की जाती है। जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए जिससे भूमि में नमी संचित हो सके। उतेरा बोनी हेतु धान के खेतों में समय-समय पर खरपतवार निकालकर खेतों को इनसे साफ रखना चाहिये।

बोआई का समय

    फसल का जल्दी बोना  अच्छी पैदावार के लिए लाभदायक पाया गया है। प्रायः ऐसा माना जाता है कि अच्छी प्रकार से तैयार की गई भूमि में उचित समय एवं सही तरीके से फसल को  बो  देने मात्र  से ही सफलता का आधा रास्ता तय हो  जाता है । सामान्यतौर पर अक्टूबर के प्रथम सप्ताह से लेकर मध्य नवम्बर तक बुआई की जाती है। असिंचित दशा  में अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े तक बुआई कर लेनी चाहिये। देर से फसल बोने पर गेरूआ , बुकनी रोग तथा अलसी की मक्खी द्वारा फसल को काफी नुकसान होता है। छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश में धान की खड़ी फसल में अलसी की बुआई (उतेरा) सामान्य समय से एक माह पूर्व ही कर दी जाती है। मिलवां खेती में अलसी मुख्य फसल के साथ ही बोई जाती है ।

उन्नत किस्में

           अलसी की देशी किस्मों की उपज क्षमता कम होती है क्योंकि इन पर कीट तथा रोगों का प्रकोप अधिक होता है। अतः अधिकतम उपज लेने के लिए देशी किस्मों के स्थान पर उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज का उपयोग करना चाहिए। क्षेत्र  विशेष के लिए जारी की गई किस्मो  को  उसी क्षेत्र में उगाया जाना चाहिए, अन्यथा जलवायु संबंधी अंतर होने के कारण भरपूर उपज नहीं मिल सकेगी । 
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित अलसी की नवीन उन्नत किस्मो  की विशेषताएं
1. दीपिका: इस किस्म की पकने की अवधि 112 - 115 दिन, औसत उपज 12 - 13 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा बीज में तेल का अंश 42 % होता है। अनुमोदित उर्वरक देने पर 20.44 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज देती है। इसके बीज मध्यम आकार (1000 दानों का भार 6.2 ग्राम) के होते हैं। यह अर्द्ध-सिंचित व उतेरा खेती के लिए उपयुक्त है। यह किस्म म्लानि (विल्ट) और रतुआ (रस्ट) रोगों के प्रति मध्यम प्रतिरोधक है।
2. इंदिरा अलसी- 32: यह 100 - 105 दिन में पकने वाली किस्म है जिससे 10 - 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। बीज हल्के कत्थई के मध्यम आकार (100 दानों का भार 6.5 ग्राम) के होते हैं। इसके बीज में तेल की अंश 39.3 % होता है। यह चूर्णिल आसिता रोग के प्रति मध्यम रोधी परन्तु म्लानि, आल्टरनेरिया झुलसा रोगों के प्रति सहिष्णु किस्म है। असिंचित दशा और उतेरा खेती के लिए उपयुक्त है।
3. कार्तिक (आरएलसी - 76): यह किस्म 98 - 104 दिन में तैयार हो जाती है तथा औसतन 12 - 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसके बीज हल्के कत्थई रंग तथा मध्यम आकार (100 दानों का भार 5.5 ग्राम) के होते हैं। बीज में तेल 43%  तेल पाया जाता है यह किस्म प्रमुख रोग व वड फ्लाई कीट के प्रति मध्यम रोधी है तथा सिंचित व अर्द्ध सिंचित दशा में खेती हेतु उपयुक्त है।
4. किरण: अलसी की यह किस्म 110 - 115 दिन में तैयार होती है। औसतन 12 - 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज क्षमता तथा बीज में 43 %  तेल पाया जाता है। बीज चमकीला कत्थई रंग का बड़ा (100 दानों का भाग 6.2 ग्राम) होता है। यह रतुआ, म्लानि व चूर्णिला आसिता रोग प्रतिरोधक किस्म है। मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ की सिंचित दशाओं में खेती के लिए उपयुक्त हैं।
5. आरएलसी - 92: यह किस्म 110 दिन में पक कर तैयार हो जाती है तथा औसतन 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसके बीज कत्थई रंग तथा बड़े (100 दानों का भाग 6.8 ग्राम) के होते हैं। बीज में तेल 42% तक पाया जाता है। यह चूर्णिल आसिता, म्लानि रोग प्रतिरोधी व वड फ्लाई कीट सहनशील है। देर से बोने व उतेरा खेती हेतु उपयुक्त किस्म है।
अलसी की अन्य उन्नत किस्मो  की विशेषताएं
1. जवाहर-17 (आर.17): इसका फूल नीला, बीज बड़ा  तथा बादामी रंग का होता है। इसमें फूल कम समय में एक साथ निकलते हैं और पौधे भी एक साथ पककर तैयार हो जाते हैं। अलसी की मक्खी से इसको कम नुकसान तथा गेरूआ रोग का भी असर नहीं होता है। यह जाति 115 - 123 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसमें तेल की मात्रा 46.3 प्रतिशत होती है। प्रति हेक्टेयर पैदावार 11.25 - 11.50 क्विंटल होती है। सम्पूर्ण म.प्र. के लिए उपयुक्त है।
2. जवाहर-23: इसके बीज मध्यम आकार के व भूरे होते हैं। यह चूर्णिल आसिता रोधी तथा म्लानि व रतुआ के प्रति भी पर्याप्त रोधिता है। यह जाति 115 - 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसमें तेल की मात्रा 43 प्रतिशत होती है। प्रति हेक्टेयर पैदावार 10- 11 क्विंटल होती है। सम्पूर्ण म.प्र. के लिए उपयुक्त है।
3.जवाहर-552: यह किस्म 115-120 दिन में पककर तैयार होती है जिसकी उपज क्षमता 9-10 क्विंटल प्रति हैक्टर आंकी गई है । इसके बीज में 44 प्रतिशत तेल पाया जाता है । म.प्र. व छत्तीसगढ़ की असिंचित पद्धति के लिए उपयोगी है ।
द्वि-उद्देश्य (दाना व रेशा) वाली उन्नत किस्में
1.जीवनः यह किस्म 177 दिन में तैयार होकर 10.90 क्विंटल बीज और 11.00 क्विंटल रेशा प्रति हेक्टेयर तक देती है।
2.गौरवः यह किस्म 137 दिन मे पक कर तैयार होती है। औसतन 10.50 क्विंटल बीज और 9.50 क्विंटल  रेशा प्रति हेक्टेयर देती है।

बीज एवं बुआई

    बीज की मात्रा  बोने की दूरी, बीज के भार और  अंकुरण शक्ति, भूमि, जलवायु आदि पर निर्भर करती है । सामान्यतौर पर अलसी की पंक्तियों में बुआई के लिए 25 - 30 किलो प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता पड़ती है।  बीज छोटा होने के कारण कहीं-कहीं इसे बारीक  गोबर की खाद, राख या मिट्टी के साथ मिलाकर बोते है, जिससे खेत में सम रूप से  बोआई हो  सके । बीज सदैव प्रमाणित तथा कवकनाशी रसायन जैसे थाइरम या कैप्टन 2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज के हिसाब से उपचारित करके बोना चाहिए। अलसी की ब¨आई हल के पीछे कूँड़ में , चोगे द्वारा कतार  में या बीज छिटक  कर की जाती है । परन्तु हल के पीछे कूँड़  विधि से बोआई सवर्¨त्तम मानी जाती है। बुआई सदैव पंक्तियों  में ही करना चाहिए। इससे सस्य क्रियाएँ करने में आसानी रहती है। बुआई हेतु पंक्ति-से-पंक्ति की दूरी 25 से 30 सेमी. रखनी चाहिए ध्यान रखें कि बीज 3 - 4 सेमी. से अधिक की गहराई पर न पड़े। पौधे-से-पौधे की दूरी 5-6 सेमी. रखते हैं जो कि अंकुरण पश्चात् निंदाई के समय पौध विरलन  से स्थापित की जाती है। बीज एवं रेशा दोनों एक साथ देने वाली किस्मों में बीज दर अपेक्षाकृत अधिक रखी जाती है। रेशा वाली किस्में कम दूरी पर बोयी जाती है । सिंचाई वाले क्षेत्रों  में बोआई  होते ही खेत को  क्यारियो  में काट लिया जाता है जिससे सिंचाई करने में सुविधा रहे ।

उतेरा पद्धति से अलसी की खेती

         अलसी की फसल को धान की खड़ी फसल में छिटककर बोने की विधि  को छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश में उतेरा तथा बिहार, उड़ीसा एवं उत्तर प्रदेश में पैरा विधि कहते हैं। धान के खेत की उपलब्ध नमी  का समुचित उपयोग करने के लिए यह एक अच्छी पद्धति है। भारत वर्ष में कुल अलसी क्षेत्रफल का लगभग 25 से 30 प्रतिशत क्षेत्रफल उतेरा के अनतर्गत आता है। सामान्यतौर पर इस पद्धति में अलसी की खेती असिंचित दशा, अपर्याप्त पोषण और बिना पौध संरक्षण के होती है, इसलिये इसकी उपज अत्यन्त कम (4-5 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर ) होती है। प्रस्तुत उन्नत विधि से खेती करने पर उतेरा पद्धति से भी अच्छी उपज ली जा सकती है।
    उतेरा के लिए अनुमोदित किस्मों (जवाहर-7, जवाहर-552 आदि) के बीज का प्रयोग करना चाहिए। उतेरा विधि भारी मृदाओं में जिनमें जल धारण करने की पर्याप्त क्षमता  हो अपनाना चाहिए। उतेरा लेने के लिए धान की फसल में गोबर की खाद या हरी खाद तथा फास्फेटिक उर्वरकों का समुचित उपयोग करना चाहिए। अलसी बोने से 3 दिन पहले धान की खड़ी फसल में 10 - 20 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से नाइट्रोजन उर्वरक का छिड़काव करना चाहिए। उतेरा के लिए प्रति हेक्टेयर 35 -40 किग्रा. बीज का उपयोग करना चाहिए। उतेरा बोने का समय तथा धान के पकने का समय में जितना कम समय हो उतना ही अधिक फायदा धान व उतेरा फसल को होता है। अच्छी फसल के लिये 15 अक्टूबर तक अर्थात् धान की दुग्धावस्था के समय उतेरा फसल को बोना (छिड़काव) चाहिये। ऐसे क्षेत्र जहाँ सिंचाई सुविधा धान की फसल के लिये उपलब्ध हो, उतेरा की फसल जमीन में दरार लाकर  लेना लाभदायक पाया गया है। इसके लिये धान के पोटराने  पर खेत से पानी निकाल देना चाहिए। जमीन में 2 से 5 से.मी. (1 से 2 इंच) गहरी दरार  आने पर खेत में पुनः पानी  भर दिया जाए। यह स्थिति खेत से पानी निकालने के 6 से 8 दिनों के अन्दर आ जाती है। खेत में 5 से 7 दिनों तक पानी भरे रखने के बाद उतेरा की फसल प्रचलित पद्धति द्वारा ली जाती है। इस विधि से उतेरा की सामान्य पद्धति की अपेक्षा 50 प्रतिशत से अधिक पैदावार प्राप्त होने के अलावा धान की पैदावार पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता तथा उतेरा फसल में खरपतवार समस्या भी काफी कम हो जाती है। बीज छिड़कते समय यह सावधानी आवश्यक है कि बीज खेत में समान रूप से फैल जाए। अलसी में 1 - 2 बार हाथ से निराई-गुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रित रहते हैं और उपज अधिक मिलती है। अधिक उपज के लिए आवश्यकतानुसार पौध संरक्षण उपाय भी अपनाना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक

          पौधों की अच्छी बढ़वार और उपज के लिए भूमि में पोषक तत्वों की उचित मात्रा प्रदाय करना आवश्यक है। जीवन चक्र में अलसी का पौधा केवल 45 दिनो  तक ही पोषक तत्व ग्रहण करता है, जो  शेष जीवन के लिए भी पर्याप्त माना जाता है । सामान्य पद्धति से असिंचित भूमि में अलसी की खेती के लिए 30 किलो नत्रजन और   15 किलो स्फुर प्रति हेक्टेयर बुआई के समय देना चाहिए। सिंचित भूमि के लिए 60 किलो नत्रजन, 30 किलो स्फुर प्रति हेक्टेयर देना लाभप्रद रहता है। खाद बीज के पास दो नली वाले नारी हल द्वारा बोने के समय देना चाहिये। सिंचित दशा में नत्रजन की 2/3 तथा फास्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा बोने के समय तथा शेष नत्रजन की 1/3 मात्रा पहली सिंचाई के समय देना चाहिये। नाइट्रोजन धारी उर्वरकों के प्रयोग से पौधों मे फूल और संपुट अधिक संख्या में बनते हैं, जिसके फलस्वरूप उपज में वृद्धि होती है। फास्फोरस प्रदान करने के लिए सिंगल सुपर फास्फेट का प्रयोग अधिक उपयोगी रहता है क्योंकि इससे फसल को फास्फोरस के अतिरिक्त सल्फर तत्व भी प्राप्त हो जाता है, जो  कि बीज में तेल की मात्रा बढ़ाने में सहायक रहता है।
    उतेरा पद्धति में 10 - 20 किलो नत्रजन प्रति हेक्टेयर धान के फूलने के समय अथवा उतेरा बोते समय डालना चाहिये। यह धान के लिये इस समय डालने वाली नत्रजन की मात्रा के अतिरिक्त होगा।

सिंचाई

          अलसी की खेती मुख्यतः वर्षा निर्भर क्षेत्रों में की जाती है। भारी मटियार मिट्टी वाले क्षेत्रो  में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु दोमट या हल्की मिट्टी पर जाड़े की वर्षा   न ह¨ने पर 1-2 सिंचाई करनी पड़ती है । सामान्य पद्धति से बोई जाने वाली अलसी में सिंचाई देने पर पैदावार डेढ़ से दो गुना अधिक ली जा सकती है। फसल बोते समय आवश्यक होने पर सिंचाई देना चाहिये। पहली सिंचाई फसल बोने के 30 - 40 दिन बाद तथा दूसरी सिंचाई फसल में फूल आने के पहले करना चाहिए। सिंचाई दाना बनते  समय  बंद कर देना चाहिये। अच्छी उपज के लिए फसल में 2 से 3 सिंचाई पर्याप्त हैं। खेत में जल निकास आवश्यक है।

खरपतवार नियंत्रण

    अलसी की फसल बोने से 35 दिन तक खरपतवार रहित  रखनी चाहिए। इस समय खरपतवार नियंत्र्ाण के उपाय न करने से 25-40 प्रतिशत उपज में हांनि संभावित है । अलसी की सिंचित ख्¨ती करने पर कम से कम एक निंदाई गुड़ाई करना आवश्यक है। फसल धनी   होने पर पहली निकाई  के समय पँक्तियों में पौधों की छँटाई करके पौधों के बीच की दूरी 5-6 सेमी. कर लेते है। यह कार्य शीघ्र ही कर ल्¨ना चाहिए । अलसी में रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालिन 30 ईसी 3.3 लीटर प्रति हेक्टेयर बुआई के तुरन्त बाद 800 से 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये। फसल में शाखाएं बनने पर या जब प©ध्¨ 8-15 सेमी. ऊँचाई के हो , उस समय नीदानाशक एमसीपीबी 0.5 किग्रा. प्रति हैक्टर की दर से छिड़कने से चोड़ी पत्ती वाले खरपतवारो  पर नियंत्रण पाया जा सकता है ।छत्तीसगढ़ तथा कुछ अन्य राज्यों में अमरबेल  नामक पौध परजीवी का प्रकोप अलसी की फसल में पाया जाता है। इसकी रोकथाम के लिए इसकी परजीवी लताओं  को खेत से तथा अमरबेल के बीजों को अलसी के बीजों से छाँटकर अलग कर बुआई करना चाहिए। खड़ी फसल  (2-3 सप्ताह की अवस्था में ) में प्रोनोमाइड 1.5 किग्रा. प्रति हैक्टर का छिड़काव करने से अमरबेल पर नियंत्रण पाया जा सकता है । इसके अलावा फसल-चक्र अपनाने से इस परजीवी के  प्रसार को  रोका जा सकता है ।
फसल चक्र
           खरीफ फसलें जैसे- धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, सोयाबीन आदि के बाद रबी में अलसी की फसल ली जाती है। अलसी की मिलवा खेती भी प्रचलित है। अलसी को चने या मसूर के साथ (2-3: 1 कतार अनुपात), गेहूँ के साथ (3:1 या 4:1) या कुसुम के साथ भी अन्तः फसली के रूप मे बोया जा सकता है। छत्तीसगढ़ में अलसी को प्रमुखतया उतेरा फसल के रूप में लिया जाता है। धान की खड़ी फसल में अलसी की मिलवां खेती चना, खेसारी, मसूर, मटर आदि के साथ सफलतापूर्वक की जा सकती है। शरदकालीन गन्ने की दो पंक्तियों के मध्य अलसी की दो कतारें भी उगाई जा सकती हैं।

कटाई एवं गहाई

              सामान्यतौर  पर अलसी की फसल 130-150 दिन में तैयार हो  जाती है ।  फूल लगने के 5-8 दिन बाद गूलर दिखलाई पड़ते है जो  फरवरी के अन्त से लेकर मार्च के मध्य तक पकते है । आमतौर  पर अलसी की फसल मार्च के अंतिम सप्ताह से लेकर अप्रैल के द्वितीय सप्ताह तक तैयार हो जाती है। फसल पकने पर तने पीले पड़ जाते हैं, संपुट सूखने लगते हैं और पत्तियाँ सूख कर झड़ने लगती है। संपुट  के पकते ही फसल काट लेना चाहिए, क्योकि ये फट जाते है जिससे दानो  के बिखर जाने से उपज की हांनि होती है । फसल की कटाई हँसिया से भूमि की सतह पर से की जाती है अथवा पौधों को हाथ से उखाड़ लिया जाता है। काटने के बाद फसल को खलिहान में सुखाकर डंडों से पीटकर बीज अलग (मड़ाई) कर लेते हैं। हवा के द्वारा भूसा अलग कर बीज को साफ कर लेते हैं।

उपज एवं भंडारण

            अलसी की उपज बोई गई किस्म, बोआई के समय और  फसल प्रबन्ध पर निर्भर करती है जो  कि विभिन्न क्षेत्रो  में अलग -अलग आती है । सामान्यतौर  पर अलसी की उन्नत किस्मों से 10 से 18 क्विंटल  तथा मिश्रित फसल से 4 - 5क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। भूसी  जानवरो  के खिलाने के काम नहीं आती । अलसी के हरे पौधो को  पशुओ को  खिलाने से भी हांनि होती है और  वे मर भी सकते है । अलसी के बीज से लगभग 33 प्रतिशत तेल और  67 प्रतिशत खली प्राप्त होती है । छोटे दाने वाली अलसी से 33% तथा बड़े दाने वाली अलसी से  34-36% तेल प्राप्त होता है। देशी या घरेलू घानी से 25 से 30 प्रतिशत तेल निकलता है। अलसी की खली जानवरो  का बहुत ही प्रिय भोजन है । इसका उपयोग सीमित रूप में खाद के लिए भी होता है ।
              अलसी से रेशा प्राप्त करने के लिए पौधों को बण्डलों के रूप में बाँधकर पानी में दबाया जाता है। तापक्रम की अवस्थाओं के अनुसार पोधे 3 - 5 दिन में सड़ जाते हैं और रेशा अलग करने योग्य हो जाता है। अलसी के रेशे को फ्लैक्स कहते हैं। बीज को अच्छी प्रकार से धूप में सुखाकर जब उनमें 10 से 12 प्रतिशत तक नमी रह जाय तो बोरियों में भरकर सूखे भंडार गृह में रखना चाहिए। बीज में नमी का अंश अधिक होने पर उनकी अंकुरण क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसके बीजों को 5 डिग्री से. तापक्रम पर अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।