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मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

स्वास्थ्य, समृद्धि और बुद्धिमता का आधार पोषण वाटिका से करें घर का श्रंगार

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर, दिव्यशालिनी लकरा एवं याजवेन्द्र कटरे 
सस्यविज्ञान विभाग,
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
                खुद का घर हम सब का सपना होता है और घर चाहे छोटा हो  या फिर बड़ा उसमें सुन्दर बगियाँ हो तो  आशियाने का लुक बेहद आकर्षक हो  जाता है और  उसमें रहने का बरवस मन करने लगता है। हर घर में सुंदर सी बगियां का सपना हर किसी का होता है। अपने हाथों  लगाये गये पेड़-पौधों  को  बढ़ता और  फलता-फूलता देख मन मस्तिश्क प्रफुल्लित हो उठता है। बीज का अंकुरित होना, उसमें पहले दौर  की पत्तियों का आना, पौधों  का बढ़ना  और  फिर लंबे इंतजार के  बाद उसमें सुन्दर फूल और  फल आना-यकीन मानिए यह एक बेहद सुखद अनुभव है। अपने घर में उगाई गई सब्जियां, आपके  कठिन परिश्र म का ही  फल है जो  सभी हांनिकारक रसायनों  से मुक्त, शुद्ध और स्वादिष्ट होती है। वैसे तो  हम सब हर रोज भांति-भांति की सब्जियों का जायका लेते है लेकिन वे स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभकारी होती है, इस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है। दिन प्रति दिन सामने आ रही तमाम बीमारियों के पीछे एक कारण यह भी है कि आजकल इंसान को  शुद्ध और  ताजा फल-सब्जियाँ नसीब नहीं हो  पा रही है। बाजार में उपलब्ध फल एवं सब्जियाँ अत्यंत हांनिकारक पेस्टीसाइड (खरपतवार, कीट व रोगों के नियंत्रण एवं पौध  बढ़वार हेतु प्रयोग) व रासायनिक उर्वरकों  (अधिकतम उत्पादन हेतु) की मदद से उगाई जाती है । और तो और आज कल विक्रेता रसायन में संरक्षित कर रखी गई सब्जियां एवं फल बेचते है जिसे हम सब मंहगे दामों में खरीद कर अपने ही प्रियजनों को  परोसने में खुशी एवं गर्व महसूस करते है। मुनाफा  के  चक्कर में लौकी जैसी सब्जियों  का आकार बढ़ाने के वास्ते  मुनाफाखोर  सब्जी उत्पादक आॅक्सीटीसिन जैसा जहरीला इंजेक्शन लगा देते है तथा बहुतेरी सब्जियों विशेषकर परवल एवं खीरा में दुकानदार हाँनिकारक  हरा रंग चढ़ा देते है जो  कि स्वास्थ के  लिए बेहद खतरनाक होता है। इस कारण बहुत से जागरूक नागरिक अपने घर में ही जैविक विधि (रसायन रहित) से फल-फूल एवं सब्जियां उगा लेते है।  कुछ लोगों को बागवानी करने का शौक  भी होता है जिन्हे प्रकृति को  करीब से अनुभव करने में आनंद की अनूभूति भी  होती है । कुछ लोग ऐसे भी है जो  ऐसी सब्जियां जो बाजार में उपलब्ध नहीं है,उन्हे अपनी बगियां में उगाना चाहते है। खैर वजह चाहे जो  भी हो  लेकिन अगर आप घर पर फल एवं सब्जियाँ उगाने की सोच रहे हैं तो  इसे काम मत समझिएगा बल्कि इसमें आनंद का अनुभव करिएगा।  यदि आपके  पास थोड़ी  सी भी खुली जगह है जहां तेज धूप आती है और मनमें  कुछ मेहनत करने का जज्बा रखते  है तो  आइये अपनी पसंद की हरी-भरी सब्जियां-फल-फूल अपने घर पर उगाएं और  अपने परिवार को  जीवन भर की खुशियां देकर अपने आपको  गौरान्वित करें।
                    वस्तुतः सब्जियां हमारे पौष्टिक भोजन का महत्वपूर्ण अंश है । सब्जियाँ हमारे स्वास्थ का मूल आधार भी  है क्योकि इनसे हमें ऐसे बहुमूल्य पौष्टिक तत्व उपलब्ध होते है जिनसे शरीर सुचारू रूप से कार्य करता है। वास्तव में साग-सब्जियां बहु-पौष्टिक तत्व युक्त खाद्य पदार्थ है। इनमें पर्याप्त मात्रा में रेशा तो  पाया ही जाता है, साथ ही इनमें औषधीय गुण विद्यमान होने के  कारण कई बीमारियों से हमारी रक्षा करती है। ध्यान रहें हमें अपने आहार में ताजा सब्जियों  का इस्तेमाल करना चाहिए और  ऐसी सब्जियों  के  सेवन से बचना चाहिए जो  बहुत दिनों से   शीत ग्रह में संरक्षित कर रखी गई है। ताजा सब्जियाँ जहां खाने में स्वादिष्ट और सुपौष्टिक होती है वहीं उनमें विटामिन, कार्बोहाइड्रेट तथा  प्रोटीन जैसे पोषक तत्व भी प्रचुर मात्रा में पाये जाते है। प्रायः देखा गया हैं कि हमारे देश के अधिकतर परिवारों में जो भोजन ग्रहण किया जाता है वह पोषक तत्वों की दृष्टि से अपौष्टिक व असंतुलित होता हैं । थोड़ी सी जानकारी व मेहनत से हम अपने भोजन केा सुपौष्टिक एवं स्वादिष्ट बना सकते हैं । मौसमी साग-भाजी को  हम अपने घर-आंगन की बगियां में आसानी से उगा सकते है। पर्याप्त स्थान न होने पर वेल (लता) वाली सब्जियों  को गमले, बेकार खाली डिब्बो, घर की  छत-छप्पर पर  आसानी से लगाया जा सकता है जिससे परिवार को  कुछ तो पौष्टिक-ताजी हरी सब्जियाँ उपलब्ध हो  सकती है। थोड़ी सी समझ एवं मेहनत से आपके परिवार का स्वास्थ भी अच्छा रहेगा और  घर के  आस-पास का परिवेश यानी पर्यावरण भी हरा-भरा सौहार्द्रपूर्ण बना रहेगा।

गृह वाटिका क्या है?

           गृह वाटिका अर्थात  पोषण वाटिका अथवा रसोई-वाटिका उस वाटिका को कहा जाता है, जो घर के अगल बगल और  घर के आंगन में ऐसी खुली जगह पर होती हैं, जहाँ पारिवरिक श्रम से परिवार के इस्तेमाल हेतु विभिन्न ऋतुओं  में मौसमी फल तथा विभिन्न सब्जियाँ उगाई जाती है। पोषण वाटिका का मकसद रसोईघर के पानी व कूड़ा करकट का इस्तेमाल करके घर की फल व साग सब्जियों की दैनिक जरूरतों को पूरा करना है। गृह वाटिका के मुख्य तीन फायदे हैः
1.स्वास्थ्य: गृह वाटिका से परिवार एवं पड़ौसियों  कों तरोताजा हवा, प्रोटीन, खनिज एवं विटामिनों से युक्त फल, फूल व सब्जियां प्राप्त होती है । साथ ही बगिया में कार्य करने से शारीरिक व्यायाम भी होता है , जिससे परिवार के सदस्य स्वस्थ्य एवं प्रशन्न रहते है। 
2.समृद्धि: प्रत्येक परिवार में ओसतन 50 से 100 रूपए की सब्जी एवं फल प्रति दिन बाजार से ख़रीदे जाते है।  इस प्रकार प्रति माह हम 1500-3000 रूपए की बचत कर सकते है। इससे आप अपने परिवार का भोजन संबंधी बजट तैयार कर सकेंगे और आपकी आर्थिक बचत में भी सहायता मिलेगी ।
3.बुद्धिमत्ता: स्वंय की मेहनत एवं पसीने से उपजी हरी-भरी तरो-ताजा सब्जियों को देखकर आपका तन-मन प्रफुल्लित होगा । इसके अतिरिक्त सब्जियाॅं खरीदने के लिए बाजार में जाने का आपका बहुमूल्य समय एवं पैसा भी बच जाता है । वास्तव में मेहनत से पैदा की गई सब्जियों  का स्वाद और आनंद कुछ और ही होता है । इस प्रकार गृहवाटिका स्थापित करना परिवार के  स्वास्थ्य एवं समृद्धि के  लिए बुद्धिमत्तापूर्ण कदम साबित होगा। क्योंकि हरी सब्जियां में होता है पोषक तत्वों  का खजाना। विविध सब्जियों में बिद्यमान पोषक तत्वों का विवरण निम्नानुसार होता है-
1.    कार्बोहाइड्रेटः आलू, शकरकंद, अरबी, चुकन्दर आदि ।
2.    प्रोटीनःमटर, सेम, फेंचबीन, लोबिया, ग्वार, चैलाई, बांकला, आदि ।
3.    विटामिन-एः गाजर, पालक, शलजम, चैलाई, शकरकंद, कद्दू, पत्ता गोभी, मेंथी, टमाटर, धनियाँ आदि ।
4.    विटामिन-बी: मटर, सेम, लहसुन, अरबी आदि ।
5.    विटामिन-सीः टमाटर, शलजम, हरी मिर्च, फूलगोभी, गांठगोभी, करेला, मूली की पत्तियां, चैलाई आदि ।
6.    कैल्शियमः चुकन्दर, चैलाई मेथी, धनिया, कद्दू, प्याज, टमाटर आदि ।
7.    पोटैशियमः शकरकंद, आलू, करेला, मूली सेम आदि ।
8.    फाॅस्फोरस: लहसुन, मटर, करेला आदि ।
9.    लोहाः करेला, चैलाई, मेथी, पुदीना, पालक, मटर आदि ।

गृह वाटिका में कब और  क्या लगाएँ ?

           आदर्श गृह वाटिका ऐसी ह¨ जिससे परिवार की दैनिक आवश्यकता हेतु फल एवं सब्जियाँ तथा पूजा के  लिए पुष्प मिल जाएँ । गृह वाटिका को  सुसज्जित करते समय निम्न बातों  पर ध्यान देना चाहिए।
    क्यारियों  की मेंड़ों पर मूली, गाजर, शलजम, चुकन्दर, बाकला, धनिया, पोदीना, प्याज व हरे साग वगैरह लगाने चाहिए।
    बेल वाली सब्जियों जैसे लौकी, तुराई, चप्पनकद्दू, परवल, करेला सीताफल वगैरह को बाड़ के रूप में किनारों पर ही लगाना चाहिए।
    वाटिका में पपीता, अनार, नींबू, करौंदा, केला, अंगूर, अमरुद वगैरह के पौधों को सघन विधि से इस प्रकार किनारे की तरफ लगाएं, जिस से सब्जियों पर छाया न पड़े और पोषक तत्त्वों के लिए मुकाबले न हो।
    पोषण वाटिका को और अधिक आकर्षक बनाने के लिए उस में कुछ सजावटी पौधे भी लगाए जा सकते हैं
    गृह वाटिका में विभिन्न मौसमों में निम्नानुसार सब्जियां उगाई जा सकती हैं:
1. जाड़े या रबी का मौसम (अक्टूबर से फरवरी तक): आलू, फूलगोभी, पत्तागोभी, गांठ गोभी, ब्रोकोली, मूली, शलजम,सलाद, बैगन, टमाटर, शिमला मिर्च, गाजर, बीन्स, चुकन्दर, प्याज, लहसुन, मटर, पालक, मेथी, सरसों आदि ।
2. गर्मी का मौसम (मार्च से जून तक): भिन्डी, लोबिया, ग्वार फली, मिर्च, सेम, तोरई, कद्दू, लौकी, करेला,   खीरा, खरबूजा, तरबूज, परवल, चैलाई, अरबी, मूली (गर्मी की किस्मंे), पालक आदि ।
3. वर्षा या खरीफ का मौसम (जुलाई से अक्टूबर तक): भिन्डी, लोबिया, ग्वार फली, मिर्च, सेम, कद्दू, तोरई, करेला, खीरा, टिन्डा,कुंदरू, परवल, मूली, गाजर, पालक, अरबी, चैलाई, बैंगन, टमाटर, शकरकंद आदि ।

गृह-वाटिका का आकार

                एक वयस्क व्यक्ति को प्रतिदिन लगभग 350 ग्राम सब्जियां (200 ग्राम हरी तथा 150 ग्राम जड़दार सब्जी) खानी चाहिए । आहार में हरी सब्जियों  की मात्रा औसतन 250 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रति दिन तो होना ही चाहिए । अतः पाॅंच वयस्क सदस्यों वाले परिवार के लिए प्रतिदिन 250 ग्राम के हिसाब से 1.25 किग्रा. सब्जी की आवश्यकता पड़ेगी। इस प्रकार पूरे परिवार क¢ लिए वर्ष में 456 किग्रा सब्जी की आवश्यकता ह¨ती है । एक परिवार (5-6 सदस्य) के लिए सब्जियों की आवश्यकता पूरी करने के लिए 250 वर्गमीटर का क्षेत्र पर्याप्त रहेगा । इसमें 8-10 वर्गमीटर की सुविधानुसार क्यारियाँ निर्मित कर मनपसन्द सब्जियाँ लगाएं।

गृह-वाटिका में लगाएं फल-फूल एवं साग-सब्जियां

              आपके  घर-आंगन एवं आस-पास में खुली जमीन की उपलब्धता के  अनुसार विभिन्न प्रकार की साग-सब्जियों को उगाया जा सकता है।यदि घर के  पिछवाड़े में कम जमीन उपलब्ध हो तो फलों  में 1-2 पेड़ नारियल, सहजन (मुनगा), पपीता, केला के  अलावा सब्जियों  में बैगन, टमाटर, मिर्च, गोभी,भिण्डी, अदरक और  कुछ हिस्से  में पत्तीदार सब्जियां जैसे पालक, मैंथी,धनियां उगाई जा सकती है। अधिक जमीन उपलब्ध है तो  बड़े पैमाने पर यह कार्य किया जा सकता है। घर आंगन में अत्यंत सीमित खुली जगह होने पर पत्तीदार सब्जियां, बांस-बल्ली के  मचान (ढांचे) पर तथा घर की छत-छप्पर पर वेल (लता) वाली सब्जियां यथा सेम, तोरई, लौकी, कुम्हड़ा,चिचिन्डा,करेला तथा साग (पुदीना, पालक, चौलाई, मैथी,धनियां आदि) प्रमुख रूप से उगाए जा सकते है। घर के  बरामदे या अन्य बन्द स्थानों  में मशरूम भी ढांचे या मचान बनाकर लगाया जा सकता है।
छाया में उगाई जाने वाली फसल
        पेड़-वृक्षों  की दो कतार के बीच में फसल उगाना कृषि वानिकी कहलाता है। नव विकसित उद्यान के  साथ अमूमन सभी प्रकार की सब्जियां उगायी जा सकती है, परन्तु छायादार वृक्षों के नीचे  कुछ विशेष फसलों को   ही उगाया जा सकता है । छायादार जगह पर हल्दी, अदरक, घुइयां (अरबी) एवं जिमीकंद लगा सकते है।
हल्दी एवं अदरक
          इनका प्रयोग मसाले तथा औषधि के  रूप में किया जाता है। इनकी खेती हेतु लिए गर्म-नम जलवायु उपयुक्त होती है। बुवाई के  समय कम वर्षा, पौध-बढ़वार के  समय अधिक वर्षा एवं फसल पकने के  समय शुष्क वातावरण उत्तम होता है। इन फसलों के  लिए बलुई-दोमट मिट्टी तैयार कर 2-3 किग्रा.प्रति वर्गमीटर की दर से सड़ी गोबर की खाद, 25 ग्राम यूरिया, 50 ग्राम सिंगल सुपर फाॅस्फेट एवं 15 ग्राम म्यूरेट आॅफ पोटाश उर्वरक  मिलाएं ।कच्ची हल्दी एवं अदरक की 50 ग्राम वजन तथा 3 आँखों  वाली 8-10 पुत्तियां प्रति वर्गमीटर की दर से अप्रैल-मई तक बोई जाती है। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 40-45 सेमी. तथा पौध से पौध की दूरी 20 सेमी. रखना चाहिए।  कतार में इनकी बोआई कर मिट्टी से ढ़ककर पुआल, भूसा या सूखी पत्तियों  की तह लगाए। बुवाई के  15-20 दिन में अंकुरण हो जाता है। आवश्यकतानुसार निराई गुड़ाई कार्य करते रहें।बुवाई के  7-8 माह बाद जब पत्तियां पीली पड़कर झड़ने लगे तो  आवश्यकतानुसार इनकी खुदाई करते रहें। 
अरबी
               अरबी को  घुइयां या अरूई भी कहते है। इसके  कंदों  की स्वादिष्ट सब्जी बनाई जाती है। इसकी पत्तियों  से पकोड़े या सब्जी बनाई जाती है । इसकी बुवाई मई-जून में की जाती है तथा नवम्बर-दिसम्बर में फसल तैयार हो  जाती है। इसके  बीज-कंदों  को  धान के  पुआल या बोरे से 8-10 दिनों  तक ढ़ंक दिया जाता है । अंकुरित 20-25 ग्राम कंद प्रति वर्गमीटर की दर से कतार से कतार 30 सेमी. एवं बीज से बीज 30 सेमी. की दूरी पर लगाये  जाते है।
जिमीकंद (सूरन)
            यह एक बहुवर्षीय भूमिगत सब्जी है जिसे सूरन और ओल के नाम से भी जाना जाता है। यह एक स्वादिष्ट सब्जी ही नहीं वरन एक जड़ी बूटी भी है जिसके सेवन से हम निरोगी हो सकते है। इसके  कंदों  को  सब्जी, भुरता एवं अचार के  रूप में प्रयोग किया जाता है। इसे घर के  पिछवाड़े में उगाया जा सकता है। पहले मिट्टी तैयार कर गोबर की खाद एवं उर्वरक मिलाएं । इसके  बाद 50 ग्राम वाले सूरन की पुत्तियों  को  भूमि में 10 सेमी. की गहराई पर बोएं एवं मिट्टी से पूर्णतया ढंक दें। प्रति वर्गमीटर 4-5 पुत्तियां रोपी जा सकती है। जब पोधों  की पत्तियां पीली पड़ने लगे तो  कंदों को खोद कर निकाल लिया जाता है। लगभग 8-9 माह में 1.5-2 किग्रा. प्रति पौधा सूरन प्राप्त हो  जाता है। इसकी गजेन्द्रा नामक किस्म लगाना चाहिए जिसके  सेवन से गले में खरास-खुजलाहट नहीं होती।

खुले स्थान में उगाई जाने वाली सब्जियां

            घर-आंगन के  खुले स्थानों  पर उगाई जाने वाली सब्जियों में प्रमुख रूप से पत्तीदार सब्जियां (धनियां, मैथी, पालक,चौलाई, पुदीना), प्याज, लहसुन,मूली,गाजर, बैगन, टमाटर, मिर्च, गोभी, भिंडी आदि है। इनका चयन उपलब्ध स्थान एवं मौसम के  अनुसार करना चाहिए। परिवार के संतुलित पोषण के  लिए ये सभी सब्जियां महत्वपूर्ण है।
धनियां
                 सब्जियों  में  मनमोहक खुशबू एवं स्वाद बढ़ाने में धनियाँ की महत्वपूर्ण भूमिका है। यही नहीं  बगैर धनियां बीज के  मसालों  का जायका भी अधूरा रहता है। स्वास्थ की दृष्टि से भी यह श्वास, खांसी एवं कृमि रोग में लाभकारी है। प्रतिदिन वर्ष भर हमें धनियां की आवश्यकता पड़ती है। सबसे पहले क्यारी की मिट्टी को  भुरभुरी बनाएं तथा गोबर की खाद एवं उर्वरक मिलाएं। प्रति वर्गमीटर एक से डेढ़ ग्राम धनियां बीज की आवश्यकता होती है। शुद्ध धनियां बीज को  दल कर दो  फांकें  करें और  8-10 घंटे पानी में भिगोएं। अब बीज को  छाया में कुछ समय तक फैलाए । इसमें राख मिलाकर नम अवस्था में एक सूती कपड़े में  बांधकर बंद जगह में रखें। अंकुरण शुरू होने पर तैयार क्यारी में पंक्तियां बनाकर बुवाई करें। समय-समय पर निराई-गुड़ाई एवं सिंचाई करने से अच्छी फसल प्राप्त ह¨ती है। बुवाई के  एक माह बाद ताजा धनियां पत्ती खाने में उपयोग करने लायक हो  जाती है।
चौलाई
                   हरी सब्जियों में सर्व सुलभ चौलाई अनेक प्रकार की होती है, मसलन छोटी चौलाई, बड़ी चौलाई, राजगिरा एवं खेड़ा भाजी। राजगिरा या रामदाना के  बीजों से स्वादिष्ट लड्डू बनाएं जाते है। खेड़ा भाजी के  पत्तों  की भाजी एवं तने  से स्वादिष्ट सब्जी (मठा या दही के  साथ) बनाई जाती है। चौलाई एक बहुप्रचलित देशी साग है जो कि शीतल, सुपाच्य, मूत्रवर्धक, ज्वरनाशक, कफ, पित्त,रक्त विकार, ब्रोन्काइटिस,यकृत के  रोग आदि में उपयोगी है। चौलाई की हरी एवं रंगीन पत्तियों  में प्रोटीन, खनिज तत्व, विटामिन-ए, रेशा जैसे अनेकों  पौष्टिक तत्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते है। वैसे तो  इसे वर्ष भर उगाया जा सकता है, परन्तु गर्मियों  में उगाई गई चौलाई अधिक पौष्टिक होती है। ग्रीष्म ऋतु में इसे मार्च-अप्रैल में उगाया जाता है। इसक¢ लिए क्यारी की मिट्टी क¨ भुरभुरा बनाकर  गोबर या कम्पोस्ट खाद और  आवश्यकतानुसार उर्वरक मिलातेे है। अब चौ लाई के  बीज (0.5-1.0 ग्राम प्रति वर्गमीटर की दर से) को  राख या रेत के  साथ मिलाकर कतारों  में 20-25 सेमी. की दूरी पर बोकर भुरभुरीे मिट्टी से ढंक देते है। बुवाई के  4-5 दिन बाद सिंचाई करें। अंकुरण के  8-10 दिन पश्चात भाजी काटने योग्य हो  जाती है। पहली कटाई पश्चात थोड़ा सा उर्वरक देकर सिंचाई कर देते है। अब प्रत्येक सप्ताह एक बार कटाई कर चौलाई का ताजा एवं पौष्टिक साग प्राप्त कर सकते है।
पालक
                यह देश के प्रत्येक  भाग में उगाया जाने वाला सबसे अधिक प्रचलित एवं पौष्टिक साग है। इसकी बुवाई फरवरी-मार्च, सितम्बर-नवम्बर एवं जून-जुलाई में करते है। अन्य सब्जियों  की भांति क्यारी तैयार कर 2-3 ग्राम बीज प्रति वर्गमीटर की दर से बोया जाता है। शीघ्र बीज अंकुरण के  लिए बीज को  पानी में रात भर भिंगो कर 2-3 दिन तक कपड़े में बांधकर रखें तथा अंकुरित होने पर बुवाई करें। बुवाई कतारों  में 20 सेमी. की दूरी एवं  2-3 सेमी. की गहराई पर करें तथा बीज को भुरभुरी मिट्टी से हल्का ढंक दें। बुवाई के  एक माह बाद पालक  प्रथम कटाई योग्य हो  जाती है। फसल में आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई और  सिंचाई करते रहें । प्रत्येक कटाई पश्चात फसल में उर्वरक देकर सिंचाई करने से पौध बढ़वार बेहतर  होती है।
मेंथी
                   मेंथी का पौधा,पत्ता साग-भाजी एवं बीज मसाले के  रूप में बखूबी से प्रयुक्त  किया जाता है।औषधीय गुणों से परिपूर्ण मैथी स्वास्थवर्धक एवं शक्तिवर्धक होती है। इससे प्लीहा एवं यकृत की कार्यक्षमता बढ़ती है। इसकी पत्तियां प्रोटीन, विटामिन एवं खनिज पदार्थो  से भरपूर होती है। इसलिए घर की बगियां में इसे अवश्य लगाएं। इसकी बुवाई सितम्बर से मार्च तक की जा सकती है। क्यारी तैयार कर प्रति वर्गमीटर 2.5 से 3  ग्राम की दर से उन्नत किस्म के  मैथी बीज की बुवाई करें। बोने के  बाद बीज मिट्टी से ढंक दें। लगभग 5-7 दिन में बीज अंकुरित हो  जाते है और  20-25 दिन में मेंथी की भाजी प्रथम कटाई योग्य हो जाती है। फसल में निराई-गुड़ाई एवं सिंचाई आवश्यकतानुसार करते रहें। मैथी की कसूरी प्रजाति सबसे अधिक लोकप्रिय, सुगन्धित एवं स्वादिष्ट होती है।
राई-सरसों 
                  राई-सरसों  की अनेक किस्में प्रचलित  है, जिसमें राई सरसों, जापानी सरसों  के  पत्ते अधिक पौष्टिक एवं चाव से खाये जाते है। इसका साग प्रोटीन, खनिज एवं विटामिन से भरपूर होता है। इसकी बुवाई अक्टूबर-नवम्बर में की जाती है। प्रति वर्गमीटर 1 ग्राम बीज पंक्तियों  में 25 सेमी. की दूरी पर 2-3 सेमी. की गहराई पर लगाया जाता है। बोने के बाद बीज मिट्टी से ढंक दें। अंकुरण 5-6 दिन में हो  जाता है। बुवाई के  25-30 दिन पश्चात राई-सरसों के मुलायम तने  सहित पत्तों को  साग के  रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
सलाद
              सलाद गृह वाटिका की अनिवार्य सब्जी मानी जाती है। इसकी पत्तियों को  सलाद के  रूप में इस्तेमाल किया जाता है। पत्ति मेंयों खनिज एवं विटामिन पर्याप्त मात्रा में पाये जाते है। यह सुपाच्य, रक्त शोधक, क्षुधावर्धक, पित्तनाशक, ह्रदय एवं  उदर रोग में लाभदायक होती है। इसे अक्टूबर-नवम्बर में लगाया जाता है। अच्छी प्रकार से तैयार क्यारि में यों 2-2.5 ग्राम प्रति वर्गमीटर के  हिसाब से 45-60 सेमी. की दूरी पर कतारों  में लगाते है। समयानुसार गुड़ाई एवं सिंचाई करें। पत्तियों के पूर्ण रूप से विकसित हो  जाने पर कटाई की जाती है।
गाजर
        
प्रकृति प्रदत्त उत्तम टॉनिक का कार्य करने वाली गाजर सलाद व सब्जी के  रूप में प्रयोग  की जाती है । शर्दियों  में गाजर का हलुआ लोकप्रिय मिष्ठान के रूप में प्रयुक्त होता है। गाजर से मुरब्बा, जैम तथा अचार भी तैयार किया जाता है। इसका रस स्वास्थ के  लिए बहुत लाभकारी माना जाता है। गाजर में विटामिन-ए अधिक मात्रा में पाया जाता है, साथ ही इसमें कैल्शियम,फाॅस्फ़ोरस, विटामिन-बी समूह एवं  विटामिन ई भी पाया जाता है। यह क्षुधावर्धक, दस्तर रोधी, वातनाशक, पित्तनाशक, उत्तेजक एवं ह्रदय को शक्ति प्रदान करने वाली कंद है। इसका सेवन पीलिया में भी लाभदायक होता है। इसकी बुवाई अक्टूबर-नवम्बर में की जाती है। अच्छी प्रकार से तैयार क्यारियों में 1-2 किग्रा. गोबर की खाद 12-15 ग्राम यूरिया, 20-25 ग्राम सिंगल सुपर फाॅस्फ¢ट एवं 12-15 ग्राम म्यूरेट आॅफ पोटाश प्रति वर्ग मीटर की दर से मिलाएं। प्रति वर्ग मीटर 1-1.5 ग्राम बीज क¨ राख में मिलाकर कतारों  में 45 सेमी. की दूरी पर बुवाई करें। निराई-गुड़ाई, मिट्टी चढ़ाने का कार्य एवं सिंचाई आवश्यकतानुसार करें। गाजर 40-70 दिन में खाने योग्य हो  जाती है।

मूली
             मूली  अल्प समय में तैयार होने वाली बहुप्रचलित  सबसे प्राचीन सब्जी है। इसकी पत्तियों को भाजी एवं जड़ को  सलाद, सब्जी व आचार के  रूप में चाव से खाया जाता है। सलाद के रूप में मूली का प्रयोग साल भर बखूबी से किया जाता है  और इसके  बगैर सलाद का जायका अधूरा रहता है। इसकी फल्लिओ से भी स्वादिष्ट सब्जी और कड़ी बनाई जाती है।मूली में प्रोटीन, कैल्शियम, गन्धक, आयोडीन तथा लौह तत्व पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं। इसमें सोडियम, फॉस्फोरस, क्लोरीन तथा मैग्नीशियम भी होता है। मूली में विटामिन ए भी होता है। विटामिन बी और सी भी इससे प्राप्त होते हैं। इसे अकेले या अन्य सब्जियों के साथ या फिर क्यारी की मेंड़ पर लगाया जा सकता है। स्वास्थ की दृष्टि से मूली क्षुधावर्धक, दस्तकारक, बवासीर एवं यकृत रोगों  के लिए गुढ़कारी   माना जाता है। अतः घर की बाड़ी में मूली को  अवश्य ही  लगाएं। तैयार क्यारियों या फिर उनकी  मेंड़ पर 10-12 सेमी दूरी पर बीज की बुवाई करें तथा आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई एवं सिंचाई करते रहे। बुवाई के  20-25 दिन में इसे खाने के  लिए खोद कर निकाला जा सकता है। स्वास्थ्य तथा की दृष्टि से छोटी, पतली और चरपरी मूली अधिक  उपयोगी मानी जाती है ।
प्याज
                      भारतीय रसोई की शान प्याज ना केवल सलाद एवं सभी प्रकार की सब्जियों का तड़का लगाने व स्वाद बढ़ाने  में प्रयुक्त किया जाता है वरन यह किसी ओषधि से काम नहीं है। भारत में प्याज की कमी से  अनेक बार सरकार को  भी  मुसीबत में डाल दिया है। प्याज के  कंद में तीखापन उसमे उपस्थित एक वाष्पशील तेल एलाइल प्रोपाइल डाय सल्फाइड के  कारण होता है। इसकी पत्तियां एवं बल्बो  को  खाने में प्रयुक्त किया जाता है। वैसे तो  यह शीतकाल की फसल है परन्तु वातावरण अनुकूल हो तो  इसे ग्रीष्म एवं  वर्षा ऋतु में भी उगाया जा सकता है। इसका बीज सितम्बर-अक्टूबर में पौधशाला में बोया जाता है तथा नवम्बर-दिसम्बर में  क्यारिओं में पौध रोपी  जाती है। अच्छी प्रकार से तैयार क्यारी में खाद एवं उर्वरक मिलाएं। पौध ध की रोपाई 10-15 सेमी. की दूरी पर पंक्तियों में करते है। प्रति वर्गमीटर 1-2 ग्राम बीज बुवाई हेतु लगता है। समय-समय पर निराई-गुड़ाई एवं सिंचाई देते रहें। इसकी फसल फरवरी-मार्च में तैयार हो  जाती है।
लहसुन
                   इसका प्रयोग मसाले, चटनी एवं आचार के  रूप में किया जाता है। लहसुन के  कंद में भी तीखापन एलाइल प्रोपाइल डाय सल्फाइड की उपस्थिति के कारण होता है। इसमें तीखी गंध कंद में उपस्थित एलायसिन तत्व के  कारण होती है जिसकी बजह से लहसुन में औषधिय गुण होते है। स्वास्थ की दृष्टि से लहसुन बहुत ही फायदेमंद होता है। ह्रदय रोग, बुखार, ब्रोनकाइटिस, वात रोग, शरीर में जोड़ों  का दर्द आदि में लाभदायक है। इसके नियमित सेवन से रक्त में कोलेस्ट्राल की मात्रा कम होती है। इसकी पत्तियां एवं बल्बो को खाने में प्रयुक्त किया जाता है। इसकी बुवाई अक्टूबर से दिसम्बर तक की जा सकती है। दोमट, बलुई दोमट एवं मटियार दोमट मिट्टी को  भुरभुरी बनाकर  एवं उसमें गोबर की खाद एवं उर्वरक डालकर अच्छी प्रकार मिलाएं। बीज के  लिए लहसुन की कलियां उपयोग में लाई जाती है।लहसुन की प्रत्येक पुत्ती (कली) को  अलग-अलग करके  बोया जाता है ।   प्रति वर्गमीटर में 40-50 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है।  बुआई पंक्ति में 15 सेमी. की दूरी पर करते है तथा पौध से पौध के  मध्य 7.5 सेमी. का फासला रखा जाता है। क्यारिओं की मेड़ पर भी लहसुन लगाया जा सकता है। इसकी फसल फरवरी-मार्च में तैयार हो  जाती है।
फूलगोभी
                     
फूल गोभी जिसे हम सब्जी के  रूप में प्रयोग करते है, दरअसल अविकसित पुष्पक्रम है, जिसके  पुष्प छोटे तथा घने होकर एक ठोस रूप निर्मित करते है। शीतकालीन सब्जियों  में यह सर्वाधिक लोकप्रिया एवं स्वादिष्ट सब्जियो में शुमार है। इसमें प्रोटीन, कैल्सियम, फाॅस्फ़ोरस के  अलावा विटामिन-ए,सी तथा निकोटीनिक एसिड पाया जाता है। इनकी अगेती फसल मई-जून, मध्यवर्ती फसल जुलाई-अगस्त एवं पछेती फसल अक्टूबर-नवम्बर में लगायी जाती है। अच्छी उपज के  लिए कार्बन खाद युक्त बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है। क्यारी तैयार करते समय प्रति वर्ग मीटर 1.5-2 किग्रा. गोबर की खाद, 25-25 ग्राम यूरिया एवं सिंगल सुपर फाॅस्फेट तथा 12 ग्राम म्यूरेट आॅफ पोटाश का प्रयोग करें। क्यारी में रोपाई करने के  लिए 3-4 पत्तों  वाली पौध अच्छी रहती है। क्यारी में पंक्ति से पंक्ति एवं पौध से पौध की दूरी 40-45 सेमी. रखते हुए र¨पाई करें। इस प्रकार प्रति वर्गमीटर 4-5 पौधे रोपे जाते है। समय-समय पर निराई-गुड़ाई, सिंचाई एवं पौध संरक्षण उपाय करते रहे। पौध रोपण के  तीन माह में सब्जी योग्य ताजे  फूल तैयार हो  जाते है। गोभी के  फूल 700-800 ग्राम वजन के  हो  जाए तो  काटकर सब्जी या सलाद के  रूप में प्रयोग करें।
पत्तागोभी
                 पत्तागोभी पत्तियों  का समूह है, जिसे सब्जी व सलाद के  रूप में वर्ष भर उपयोग किया जाता है। इसमें विशेष मनम¨हक सुगंध सिनीग्रिन ग्लूकोसाइड के  कारण होती है। इसमें प्रचुर मात्रा में विटामिन-ए, सी एवं कैल्शियम, फाॅस्फ़ोरस तथा मध्यम मात्रा में विटामिन-बी समूह पाया जाता है। पत्तागोभी को  अगस्त से लेकर अक्टूबर तक फूलगोभी की भांति  लगाया जाता है। इसके  पत्ते ठोस रूप में बंध जाएं, तब सब्जी के  लिए काट लेना चाहिए।
टमाटर
              
हरी साग-सब्जियों  में टमाटर अत्यन्त लोकप्रिय तथा पोषक तत्वों  से युक्त फलदार सब्जी है। टमाटर के  बिना भोजन का स्वाद नहीं बनता है। घर में टमाटर सब्जी, सूप, साॅस, चटनी, आचार, सलाद आदि विभिन्न रूप में इस्तेमाल किया जाता है। यह अत्यन्त गुणकारी कच्चा और  पकाकर उपयोग किया जाता है। सेव, मौसम्मी, संतरे एवं अंगूर आदि फलों  की अपेक्षा टमाटर में खून उत्पन्न करने की क्षमता कई गुणा अधिक होती है। इसके  सेवन से त्वचा में निखार आता है। टमाटर में विटामिन ए,बी एवं सी प्रचुर मात्रा में पाये जाते है । इसके  अलावा पोटाश, लोहा, कैल्शियम, मैगनीज, फास्फेटतत्व  जैसे पोषक  तत्व भी प्रचुर  मात्रा में पाये जाते है । अनेक प्राकृतिक अम्लों  से परिपूर्ण होने के  कारण हमारे पाचन संस्थान के  लिए अत्यन्त ही लाभदायक है। सुस्त यकृत को  उत्तेजित कर पाचक रसों के  स्त्राव में यह सहायक होता है। टमाटर को  वर्ष में तीन बार (जुलाई-अगस्त, सितंबर-अक्टूबर और  नवंबर-अक्टूबर) लगाया जा सकता है। टमाटर उगाने के  लिए मटियार अथवा मटियार दोमट मिट्टी अच्छी होती है। क्यारी की मिट्टी को बारीक़ भुरभुरी बनाकर प्रति वर्गमीटर 2-3 किग्रा. गोबर की खाद, 25 ग्राम अमोनियम सल्फेट, 50 ग्राम सिंगल सुपर फाॅस्फेट एवं 15 ग्राम म्यूरेट आॅफ पोटाश अच्छी प्रकार से मिला देते है। टमाटर की पौध को  क्यारियों  में कतार से कतार 50 सेमी. व पौध  से पौध  30-40 सेमी. की दूरी पर लगाया जाता है। समय-समय पर निराई, गुड़ाई एवं सिंचाई करना आवश्यक है। फल लगने पर पौधों को लकड़ी का सहारा भी देना चाहिए। टमाटर की फसल अवधि 60-120 दिन की होती है। पौध रोपण के 50-60 दिनों  पश्चात फल  पक कर तैयार होने लगते है।
बैगन
                  गरीबो की सब्जी बैगन बारहमासी फसल है जिसका फल लंबा, गोल, छोटा और  बड़ा होता है। इसके सेवन का सही समय शीत ऋतु ही है, क्योंकि यह तासीर में गरम होता है। बैंगन दो रंगों में मिलता है, सफेद और बैंगनी। बैंगन में कार्बोहाइड्रेट, चर्बी, प्रोटीन, विटामन ‘ए’, बी-2, सी, लौह तत्व तथा कुछ क्षारों का समावेश होता है। इसके  डंठल में पौष्टिक तत्वों की अधिकता होती है। बगीचे के  खुले स्थान पर क्यारी बनाकर एक से डेढ़ माह की पौध (3-4 पत्तियों  वाली) को  दो  कतारों  60-70 सेमी. की दूरी पर  लगाया जाता है।
मिर्च
                हर घर में मिर्च का उपयोग प्रतिदिन किया जाता है। इसके  बिना भोजन का स्वाद बिगड़ जाता है। इसका उपयोग मसाला, अचार और  चटनी के  रूप में किया जाता है। इसके  फलों  में तीखापन केप्सेसिन तत्व के  कारण होता है। हरी मिर्च में प्रोटीन, विटामिन-ए एवं सी, फाॅस्फ़ोरस, पोटेशियम एवं अन्य खनिज तत्व पाये जाते है। 100 ग्राम हरी मिर्च में 111 मिग्रा. विटामिन सी पाया जाता है। यह बारह माह उपलब्ध होती है तथा घर की बगियां में इसकी पौध जुलाई (वर्षा ऋतु की फसल), सितम्बर (शरद ऋतु की फसल) एवं जनवरी (ग्रीष्म ऋतु की फसल) में लगाया जाता है। लगभग 20-25 दिन की पौध (6-10 सेमी.) को  क्यारियों  में इस प्रकार रोपा जाता है जिससे पंक्ति से पंक्ति एवं पौध से पौध के  बीच 40-50 सेमी. की दूरी स्थापित हो  जाए। फसल में आवश्यकतानुसार निराई, गुड़ाई एवं सिंचाई करते रहे ।पौध  लगाने के  लगभग एक माह बाद मिर्च की फसल मिलने लगती है ।
फ्रैंचबीन

                 फ्रैंचबीन गृह वाटिका की प्रमुख सब्जी है जिसके  पौधे झाड़ीनुमा तथा बेल वाले होते है। बीन्स की हरी गूदेदार फल्लियां तथा सूखे दानों  (राजमा) को  सब्जी के रूप में उपयोग में लाया जाता है। फ्रेंच बीन्स में मुख्यतः प्रोटीन, कुछ मात्रा में वसा तथा कैल्सियम, फास्फोरस, आयरन, कैरोटीन, थायमीन, राइबोफ्लेविन, नियासीन, विटामिन सी आदि विभिन्न प्रकार के खनिज और विटामिन मौजूद होते हैं। बीन्स घुलनशील फाइबर  का अच्छा स्रोत होते हैं और इस कारण ह्रदय रोगियों के लिए बहुत ही फायदेमंद हैं। बीन्स रोज खाने से रक्त में कोलेस्टेरोल की मात्रा काफी कम हो सकती है। बीन्स में सोडियम की मात्रा कम तथा पोटेशियम, कैल्सियम व मेग्नीशियम की मात्रा अधिक होती है और लवणों का इस प्रकार का समन्वय सेहत के लिए लाभदायक है। इससे रक्तचाप नहीं बढ़ता तथा ह्रदयाघात का खतरा टल सकता है।फ्रैंच बीन खुली जगह पर लगाई जाती है। बीन की बुवाई हेतु मिट्टी क¨ तैयार कर लेते है । तैयार क्यारी में 2-3 किग्रा. गोबर की खाद 10-12 ग्राम यूरिया, 25-30 ग्राम सिंगल सुपर फाॅस्फेट 10 ग्राम म्यूरेट आॅफ पोटाश उर्वरक मिट्टी में अच्छी प्रकार मिला देते है। इसके बीज को  सितम्बर-अक्टूबर में 30-35 सेमी. की दूरी पर बोते है। प्रति वर्गमीटर 2-3 ग्राम बीज लगता है । आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई एवं सिंचाई करते रहें।  बुवाई करने के  50-60 दिन बाद बीन की मुलायम फल्लियां खाने के  लिए तोड़ी जा सकती है।
ग्वारफली
               गरीबों  की सब्जी मानी जाने वाली ग्वारफली स्वास्थ के  लिए अत्यन्त लाभकारी होती है। आजकल ग्वारफली के  दानों  का उपयोग गोंद बनाने में बढ़े पैमाने पर किया जाने लगा है। इसकी फल्लियों  में प्रोटीन, लोहा, विटामिन-ए एवं बी प्रचुर मात्रा में पाये जाते है।इसे ग्रीष्म (फरवरी-मार्च) एवं वर्षा (जून-जुलाई) ऋतु में लागाया जाता है। प्रति वर्गमीटर भूमि में 1.2-2 ग्राम बीज की बुवाई कतारों  में 30-40 सेमी. की दूरी पर करें तथा दो  पौधों के मध्य 20-25 सेमी. का अंतर रखें। निराई-गुड़ाई एवं सिंचाई समय पर करते रहें। बर्ष ऋतु में भूमि से थोड़ी उठी हुई क्यारी बनाएं जिससे जलनिकास हो  सके । तैयार क्यारी में 1.5-2 किग्रा. गोबर की खाद 6-7 ग्राम यूरिया, 25-30 ग्राम सिंगल सुपर फाॅस्फेट 10 ग्राम म्यूरेट आॅफ पोटाश उर्वरक मिलाने के  बाद बुवाई करें।
बरबटी
                   बरबटी को  लोबिया भी कहा जाता है जो  कि फल्लीदार सब्जी है जिसका बीज एवं फल्ली दोनों ही सब्जी के  रूप में उपयोग किया जाता है।इसमें प्रोटीन के  अलावा कैल्शियम तथा विटामिन-ए पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। इसे वर्ष में दो  बार ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु में लगाया जा सकता है। बीज, खाद-उर्वरको  का प्रयोग ग्वारफली की भांति करें। इसकी बेल को लकड़ीओ का सहारा देने से उपज अच्छी मिलती है। बीज बोने से लगभग 45-50 दिन से फल्लियां प्राप्त होने लगती है। प्रत्येक 3-4 दिन के  अन्तराल पर सब्जी के लिए मुलायम  फल्लियों  की तुड़ाइ की जा सकती है।

मचान या छप्पर पर फैलने वाली सब्जियां

लौकी

                
लौकी  शीघ्र पाचक, रक्तवर्धक  तथा शीतलता प्रदान करने वाली सब्जी है। रोगियों लिए यह बेहद लाभप्रद होती है। इससे सब्जी,सूप एवं मिठाइयां बनाई जाती है। आयुर्वेद के  अनुसार यह पौष्टिक हो =ती है एवं कई रोगों  (कफ, पित्तजनक, कृमि,श्वास, खांसी एवं मूत्र  रोग) को  दूर रखती है। इसके  रस का सेवन करने से ह्रदय एवं मधुमेह के  रोगियों को  लाभ मिलता है। इसके  पके सूखे हुए फल से कई तरह के  वाद्य यंत्र जैसे इकतारा, तानपुरा, सितार आदि बनाये जाते है। इसके  महत्व को  देखते हुए घर की बगियां में 1-2 थालों  में लौकी की बुवाई अवश्य करें। लौकी को  ग्रीष्म ऋतु (जनवरी से मार्च) एवं वर्षा ऋतु (जून-जुलाई) में लगाया जा सकता है। यह लंबी अवधि तक फल देने वाली सब्जी है और बुवाई  के 60-70 दिन बाद  फल देने लगती है। इसे कतार से कतार 1.5 से 2 मीटर तथा पौध  से पौध  1.5 मीटर की दूरी पर थालों (घरुआ) में लगाते है। एक थाले में 2-3 बीज बोये जाने चाहिए। बेल को   बांस-बल्ली का मचान बनाकर, छप्पर या छत पर चढाने से उपज अच्छी प्राप्त होती है। पौधों  में 2-4 पत्तियां आने पर मैलिक हाइड्राजाइड या टीबा 50 पीपीएम का घोल बनाकर छिड़कने से फल अधिक बनते है।

तुरई

          भारत में उगाई जाने वाली वेल वाली सब्जियों  में तुरई (गिल्की) एक महत्वपूर्ण सब्जी है। इसके  फल मुलायम अवस्था में ही खाये जाते है। पूर्ण पके  फलों के सूखे रेशेदार (स्पंज) भाग का उपयोग बरतन धोने एवं कारखानों  में निस्पन्दक के  रूप में किया जाता  है। खरीफ में इसकी बुवाई जून माह के  अंत से लेकर मध्य जुलाई तक  करते है। बसंत या गर्मी के  मौसम में इसकी बुवाई फरवरी  से मध्य मार्च तक की जा सकती है। बुवाई के  60 दिनं बाद फल तुड़ाई के  लिए तैयार ह¨ जाते है।
करेला 
  
करेला जो स्वाद में कड़वा होता है लेकिन फिर भी पौष्टिकता एवं ओषधीय गुणों में बेजोड़ एवं लाभकारी होता है । एक चाइनीस कहावत है कि रोज के  खाने में कुछ कड़वा जरूर होना चाहिए।यह लोह  तत्व, कैल्शियम एवं विटामिनों  का अच्छा स्त्रोत  है। इसका उपयोग तलकर, उबालकर भरवां  सब्जी बनाने में किया जाता है। करेले को  घर पर उगाना बेहद आसान है। गर्मी, खरीफ व रबी मौसम की फसल के  लिए बीज की बुवाई क्रमशः जनवरी-फरवरी, मई-जून व सितम्बर-अक्टूबर में करनी चाहिए। आप करेले क¨ भूमि में या फिर बड़े 10-12 इंच के  गमले में भी उगा सकते है। बुवाई के दो  सप्ताह बाद लताओं को  बांस-बल्ली एवं रस्सी की सहायता से चढ़ाना चाहिए। इसके पौधों की बढ़वार एवं फलन के  लिए तेज धूप आवश्यक है।  वर्षा ऋतु को  छोड़कर गर्मी में एक एवं शरद में दो दिन के अन्तराल पर पानी  देना चाहिए।  बुवाई के लगभग 50-60 दिन  बाद  करेला के फल तैयार हो  जाते है।
              इस प्रकार से हम देखते है की घर की बगियाँ में परिवार के सदस्यों की थोड़ी सी महेनत और लगन से आपको पूरे साल ताजी, पौष्टिक एवं स्वास्थ्यवर्द्धक सब्जियां, फल और फूल मिल सकते है जिनके सेवन से आपके परिवार को अतुलित सुख व आनंद की अनभूति होगी । यही नहीं, गृह वाटिका से आपके आसपास का वातावरण भी प्रदुषण से बचेगा, परिवार का व्यायाम होेगा और आर्थिक लाभ भी होगा ।
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बुधवार, 12 अगस्त 2015

प्रतिकूल मौषम में रामतिल की खेती से अधिकतम प्रतिफल

                                                    डाॅ.गजेन्द्र सिंह तोमर एवं साक्षी तिवारी बजाज
                                                                      सस्य विज्ञान विभाग,
                                                       इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर

             भारत के  विभिन्न क्षेत्रों में जगनी और  जटांगी के  नाम से मसहूर रामतिल (गुइजोसिया एबीसीनिका) को  लघु तिलहनी फसल माना जाता है। इसके बीज में 32-40 प्रतिशत गुणवत्तायुक्त तेल तथा  18-24 प्रतिशत प्रोटीन विद्यमान होने की वजह से रामतिल को  महत्वपूर्ण तिलहनी फसल के  रूप में पहचान मिल रही है। रामतिल के तेल का उपयोग खाद्य तेल के रूप में होता है। इसका उपयोग जैतून तेल के  विकल्प के  रूप में भी  किया जा रहा है और  इसे सरसों ,अलसी, तिल आदि तेलों के साथ मिलाकर भी प्रयुक्त किया जाता है।  स्वास्थ्य की दृष्टि से इसका तेल लाभकारी माना जाता है क्योंकि इसमें 70 प्रतिशत से कम असंतृप्त वसा अम्ल पाये जाते है।  बीज से तेल निष्कर्षण पश्चात शेष खली (केक) पशुओं  के लिए पौष्टिक आहार है। बीज को  साबुत भूनकर भी खाया जाता है । अनेक देशों में इसके बीज को पक्षिओं के दाने के रूप में भी प्रयुक्त किया जाता है।  इसके तेल का उपयोग साबुन, पेन्ट, वार्निश, आदि बनाने में भी किया जाता है। रामतिल को  सदाबहार फसल कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा क्योंकि इसकी खेती सभी मौसमो में बखूबी से की जा सकती है।यही नहीं वातावरण की प्रतिकूल परिस्थितियों (सूखा एंव अधिक वर्षा), गैर उपजाऊ मिट्टियो में भी कम निवेश पर रामतिल की अच्छी उपज ली जा सकती हैं। बदलते मौसम एवं  कमजोर और अनिश्चित मानसून में भी रामतिल बेहतर उपज और आर्थिक लाभ देने में सक्षम है।  वर्तमान में रामतिल की खेती भारत के  विभिन्न राज्यों  में आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों  के  किसानों  द्वारा की जा रही है। अतः इसे आदिवासी प्रिय फसल माना जाता है।
                 रामतिल फसल का क्षेत्र, उत्पादन एवं निर्यात की दृष्टि से विश्व में भारत का प्रथम स्थान है। भारत में इसकी खेती लगभग 301 हजार हेक्टेयर क्षेत्र (वर्ष 2012-13) में प्रचलित है जिससे लगभग 98.9 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है। महत्वपूर्ण एवं बहुपयोनगी फसल होने के  बावजूद भी इसकी ओसत उपज अत्यन्त कम (329 किग्रा. प्रति है.) होने की वजह से भारत में इसके  रकबे में 1965-66 की तुलना में अब तक 42 प्रतिशत कमी दर्ज की गई है।  भारत में रामतिल की खेती म. प्र., ओडिसा, छत्तीसगढ़,महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, गुजरात, आसाम, झारखण्ड व पश्चिम बंगाल में प्रचलित है। छत्तीसगढ़ में इसे 64.2 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में लगाया जाता है जिससे बर्ष 2012-13 के दरमियान मात्र 178 किग्रा./हे. औसत उपज के मान से 11.4 हजार टन उत्पादन प्राप्त हुआ। प्रदेश के  जशपुर, बलरामपुर, जगदलपुर, सरगुजा, सूरजपुर, कोन्डागांव, कोरिया, रायगढ़ ,नारायणपुर, कांकेर, कोरबा आदि जिलों  में रामतिल की खेती बहुतायत में की जा रही है।
उपयुक्त जलवायु
                रामतिल खरीफ मौसम की फसल है जिसे वर्षा पोषित परिस्थितियों में उगाया जाता है। यह एक छोटे दिनों वाला प्रकाश संवेदी पौधा है जिसकी वृद्धि एंव विकास के लिए गर्मी की अधिक आवश्यकता पड़ती है। बीज अंकुरण हेतु 15-22 डिग्री से. तापमान उपयुक्त पाया गया है। बुवाई के  समय 10 डिग्री .से. से नीचे या 35 डिग्री से. से अधिक तापक्रम होने पर अंकुरण पर विपरीत असर पड़ता है। समुचित पौध वृद्धि और विकास के लिए फसल अवधि के  दौरान 20- 23 डिग्री  से. तापमान की आवश्यकता होती है। अधिक तापक्रम (30 डिग्री से. से ऊपर) पर पौध वृद्धि व या पुष्पन पर बिपरीत प्रभाव पड़ता है। इसकी खेती 1000-1300 मिमी. वर्षा वाले स्थानों में सफलतापूर्वक की जाती है परन्तु 800 मिमी से अधिक वर्षा फसल के लिए हांनिकारक होती है।
भूमि का प्रकार
          रामतिल की फसल को भूमि की अल्प उपजाऊ परिस्थितियों (कंकरीली, पथरीली व सम-सीमान्त भूमियों) में उगाया जा सकता है। परन्तु बहुत हल्की अथवा भारी मृदाएं इसकी खेती के  लिए उपयुक्त नहीं रहती क्योंकि हल्की भूमि में जल धारण क्षमता कम होती है और  भारी भूमियो  में जल भराव की समस्या रहती है। अच्छी पैदावार के लिये उत्तम जल-निकास वाली बलुई दोमट भूमि उपयुक्त मानी जाती है। उत्तम  फसल के लिए भूमि का पी.एच. मान 5.2 से 7.3 उपयुक्त पाया गया है।
खेत की तैयारी ऐसे करें

              रामतिल का बीज आकार में छोटा होता है, अतः सही बीजांकुरण के लिए ढीली एंव भुरभुरी मिट्टी का होना आवश्यक रहता है। तद्नुसार 1-2 बार खड़ी तथा आड़ी जुताई करने के पश्चात् पाटा चलाकर खेत समतल कर लेना चाहिए। गोबर खाद उपलब्ध होने पर 12-15 गाड़ी प्रति हे. के हिसाब से बुवाई के पहले खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिलावें। अंतिम जुताई के समय भूमि  में क्लोरपायरीफाॅस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 20-25 किलो प्रति हेक्टर की दर से मिला देने से फसल की दीमक तथा कटुवा कीट से सुरक्षा रहती है।
उन्नत किस्मों  का करें चयन
             परम्परागत बीज की अपेक्षा अधिक उपज देने वाली अखिल भारतीय समन्वित तिल-रामतिल अनुसंधान परियोजना  (आई.सी.ए.आर.), ज.ने.कृषि विश्वविद्यालय परिसर, जबलपुर द्वारा अनुशंषित रामतिल की उन्नत किस्मों  के बीज का उपयोग करना चाहिए । छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश की जलवायु के  अनुरूप उपयुक्त रामतिल की उन्नत किस्मों  का विवरण अग्र-सारिणी में प्रस्तुत है । इन किस्मों  में से मनपसंद किस्म के  बीज  नजदीकी कृषि विभाग, इं.गां.कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर,  रायपुर अथवा ज.ने.कृषि विश्वविद्यालय, अधारताल, जबलपुर से प्राप्त कर बुवाई करें।
                                        रामतिल की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ
किस्मों  के  नाम         अवधि (दिन)    उपज(क्विंटल/ है.)       तेल (%)           प्रमुख विशेषताएं
ऊटकमंड                         120-130            5.0-6.0                 40-42                      काला बीज
आई.जी.पी.-76(सह्यद्री)     100-105           5.0-5.5                 35-38        बीज काला, सम्पूर्ण भारत के लिए
जी.ए.-10                         115-120            6.0-6.5                 39-41        गहरा काला बीज
जे.एन.सी.-1                      90-100            6.5-7.0                 38-40        मध्यम बीज, सूखा सह किस्म
जे.एन.सी.-6                      95-100            6.5-7.0                 37-38        मध्यम  बीज, सूखा सह किस्म
जे.एन.एस.-9                    95-100            6.5-7.0                  38-40        काला बीज, सूखा अवरोधी किस्म
बिरसा नाइजर-1               95-100             5.5-6.0                 36-38       हल्का काला बीज
बिरसा नाइजर-2               95-100             6.0-6.5                 35-38       काला बीज, संम्पूर्ण भारत के  लिए
बी.एन.एस.-10 (पूजा-1)    95-100             6.5-7.0                 36-38       काला चमकीला बीज
गुजरात नाइजर-2               90-95             6.5-7.0                 35-38      काला बीज, संम्पूर्ण भारत के लिए 
बोआई करें उचित समय पर
               रामतिल की खेती मुख्यतः खरीफ में की जाती है परन्तु मध्य रबी या खरीफ में देर से भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। वास्तव में रामतिल शीत-प्रिय फसल है और  इसलिए सुरक्षित सिचाई की सुविधा होने पर मध्य रबी में बोई गई फसल से अधिक उपज देती है। वर्षा आश्रित फसल होने के  कारण मानसून आगमन पर इसकी बुवाई करना बेहतर  रहता है,परन्तु खरीफ में बोआई का  समय मध्य जुलाई से अगस्त के प्रथम सप्ताह एवं मध्य रबी फसल के  लिए सितम्बर माह उपयुक्त  पाया गया है। इससे पहले बोआई करने पर पौधों की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाने से उपज कम प्राप्त होती है। अधिक पैदावार के लिये उन्नत किस्म के उपचारित बीज को अगस्त के द्वितीय सप्ताह से अंतिम सप्ताह तक बोना चाहिए। देर से बोआई करने पर पुष्पावस्था व दाना बनते समय नमी की कमी के कारण उत्पादन कम मिलती है।
सही बीज दर  एंव बोआई करें कतार में 
               सामान्यतौर पर बीज दर बुवाई की विधि पर निर्भर करती है। रामतिल की शुद्ध फसल की बुआई कतारों में करने पर 5-8 कि.ग्रा. साफ एंव स्वस्थ बीज प्रति हैक्टर लगता है। छिड़काव पद्धतिसे बुवाई करने पर 7-8 कि.ग्रा. बीज का उपयोग करें। मिश्रित फसल में बीज की मात्रा मिश्रण के अनुपात पर निर्भर करती है। मृदा एवं बीज जनित रोगों  से मुक्त फसल के  लिए  बीज को फफूँदनाशक दवा कार्बेन्डाजिम 5 ग्राम या ट्राइक¨डरमा विरडी 10 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित कर ही ब¨ना चाहिए।
                 आमतौर पर रामतिल की बोआई छिट़कवाँ विधि से की जाती है। इस विधि से बुवाई करने से बीज अंकुरण एक सार नहीं होता है जिससे खेत में प्रति इकाई पौध संख्या अपर्याप्त रह जाती है। फलस्वरूप छिटकवां विधि से उपज कम प्राप्त ह¨ती है। अतः रामतिल की बुवाई निर्धारित दूरी पर कतारों में करने से अधिक उत्पादन मिलता है। बीज आकार छोटा होने के  कारण इसे  बालू  या गोबर की खाद के चूर्ण अथवा राख (1:20 के अनुपात) में मिला कर हल के पीछे या सीड ड्रिल की सहायता से  समान रूप से बोया जा सकता है। बोआई के समय जमीन में पर्याप्त नमी रहने से अंकुरण (3-5 दिन में) एंव पौध वृद्धि अच्छी होती है। कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा दो  पौधो के मध्य 10 से.मी. की दूरी स्थापित करना चाहिए। मिट्टी के  प्रकार एवं नमीं की मात्रा  के मुताबिक  बीज को  2-3 सेमी. की गहराई पर बोना उचित रहता है। ढलानयुक्त भूमियों  में ढलान के  विपरीत कतारो  में इसकी बुवाई करना चाहिए। बोआई के 10-15 दिन बाद या पौधों  की ऊँचाई 8-10 सेमी. होने पर सघन स्थानों से पौधों की छँटाई करके अथवा खाली स्थानों पर दूसरे पौधे प्रतिरोपित  करके, अपेक्षित संख्या (3.3 लाख पौधे प्रति हेक्टर) तक पौधों का घनत्व स्थापित कर लेने से अधिकतम उपज प्राप्त होती है।
फसल को चाहिए भरपूर  खुराक अर्थात संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन आवश्यक
             सामान्य तौर पर रामतिल फसल में खाद एंव उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता है। परन्तु संतुलित उर्वरक उपयोग से रामतिल की अच्छी उपज ली जा सकती है। मृदा परिक्षण के आधार पर पोषक तत्वों की सही मात्रा का निर्धारण किया जाना चाहिए। मृदा परिक्षण संभव नहीं हो तब बोआई के समय 20 कि.ग्रा. नत्रजन, 20 कि.ग्रा. स्फुर एवं 10 किग्रा. पोटाष प्रति हेक्टेयर  देना चाहिए। बोआई के 30 दिन बाद निंदाई के समय 20 किलो प्रति हेक्टर की दर से अतिरिक्त नत्रजन देना लाभकारी पाया गया है। उर्वरकों केा बीज की नीचे कतार में देना चाहिए। बीज क¨ पी.एस.बी. कल्चर 10 ग्राम प्रति किग्रा  बीज दर से उपचारित करके  बुवाई करने से उपज में इजाफा होता है। सल्फर युक्त उर्वरक जैसे सिंगल सुपर फाॅस्फेट  अथवा 20-30 किग्रा, सल्फर प्रति हेक्टर देने से दाना उपज एवं बीज में तेल की मात्रा में बढ़त होती है।
खरपतवारों को रखें काबू में
                   खरीफ की फसल होने के कारण खरपतवारों का प्रकोप अधिक होता है। रामतिल की अधिक उपज लेने के लिए 1-2 बार आवश्यकतानुसार निंदाई-गुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रित रहते हैं। बोने के 15-20 दिन पश्चात् पौध विरलन के समय प्रथम निंदाई-गुड़ाई करना चाहिए। कतारों के बीच में देशी हल चलाकर यह कार्य जल्दी व कम लागत में किया जा सकता है। आवश्यकता पड़ने पर 15 दिन पश्चात पुनः निदाई-गुड़ाई संपन्न करें। निराई-गुड़ाई संभव न हो  तो  रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है। इसके  लिए पेन्डीमेथालिन 1 किग्रा प्रति हैक्टेयर की दर से 500-600 लीटर पानी में घोलकर बौनी के  तुरन्त बाद परन्तु अंकुरण पूर्व छिड़काव करें। रामतिल में कहीं कहीं अमरबेल नामक घातक खरपतवार की समस्या देखने को मिलती है। इसके लिए बीज केा अच्छी तरह (1 मिमी. छिद्रयुक्त छलनी में) छान कर साफ करके बोआई करना चाहिए अथवा रामतिल बीज को  10 प्रतिशत नमक के  घोल में डुबाने से अमरबेल के  बीज ऊपर तैर जाते है जिन्हे निकालकर बीज को  2-3 बार साफ पानी में धोकर एवं छाया में सुखाकर बुवाई करें। खेत में कहीं-कहीं अमरबेल का प्रकोप होने पर उसे हाथ से उखाड़कर नष्ट कर दें। फसल चक्र अपनावें।
जीवन रक्षक सिंचाई से बढ़ेगी उपज
    सामान्यतौर पर रामतिल सूखा सहन  करने वाली फसल है। खरीफ मौसम की फसल होने के कारण रामतिल को सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। परन्तु फसल में फूल व दाना बनते समय खेत में  नमी के अभाव से उपज में कमी होती है। अतः लम्बे सूखे  की स्थिति में 1-2 जीवन रक्षक सिंचाई देने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है। अर्द्ध -रबी फसल में आवश्यकतानुसार 1-2 सिंचाई पुष्पावस्था व दाना भरते समय करने से उपज में आशातीत बड़ोत्तरी होती है।
फसल पद्धति हेतु  आदर्श फसल
               रामतिल को बहुधा खरीफ अथवा विलम्बित खरीफ फसल के  रूप में बोया जाता है। अनेक स्थानों  में रामतिल से पूर्व में शीघ्र तैयार होने वाली फसलें यथा लोबिया अथवा ग्वारफली इस प्रकार से लगाएं जिससे अगस्त तक रामतिल की बुवाई की जा सके । रामतिल को सोयाबीन, ज्वार, उड़द और मूँग के साथ अन्तर्वर्तीय फसल (2:2 अनुपात) के रूप में उगाने की अनुशंसा की गई है। छत्तीसगढ़ की हल्की भूमियों में इसे मूँगफली, रागी, कोदों या कुटकी के साथ (2:2 या 4:2 अनुपात)  अन्तर्वर्तीय फसल लाभकारी रहती है।
हाँनिकारक कीटों पर नियंत्रण
             इस फसल पर प्रमुख रूप से समतिल इल्ली, कटुआ, बिहारी बालदार इल्ली आदि कीटो  का प्रकेाप होता है। इन कीटों की रोकथाम के लिए क्लोररपाइरीफाॅस 20 ई.सी. 1.5 मि.ली. प्रति लीटर अथवा क्विनाॅलफाॅस 25 ईसी 1.5 मिली. प्रति लीटर जल के  हिसाब से छिड़काव करना प्रभावकारी पाया गया है। इस फसल के फूलों का मधुमक्खियां रसपान  करती है जिससे परागण की क्रिया संपन्न हो जाती है। अतः कीटनाशकों का उपयोग सीमित एंव सावधानीपूर्वक करना चाहिए तथा छिड़काव शाम के समय करना अच्छा रहता है।
रोग मुक्त रहे फसल
                 फसल में पत्ती धब्बा तथा चूर्णी फफूँद रोग मुख्यतः लगता है। चूर्णी फफूंद रोग  में पत्तियों पर सफेद चूर्ण जम जाता है। इसके उपचार के लिये रोग के  लक्षण दिखने पर  0.2 प्रतिशत घुलनशील सल्फर या बाविस्टीन (0.1 प्रतिशत) या केराथेन एक ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें। पत्ती धब्बा रोग के नियंत्रण हेतु बोआई पूर्व थाइरम 3 ग्राम प्रति किल¨ बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए। खड़ी फसल में धब्बा रोग  उपचार हेतु बाविस्टीन (0.1 प्रतिशत) तथा  डाइथेन एम-45 (0.25 प्रतिशत) का घोल बनाकर 15 दिन के  अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए।
समय पर करें कटाई एवं गहाई
                 रामतिल की फसल लगभग 95-105 दिन में पककर तैयार हो जाती है। जब फसल की पत्तियाँ पीली पड़कर सूखने लगे और मुंडक भूरे-काले पड़ने लगे, फसल की कटाई कर लेना चाहिए। कटाई में देर करने पर बीज झड़ने का डर रहता है। कटाई हँसिया से की जाती है। कटाई पश्चात् फसल के गट्ठे बनाकर खलिहान में 8-10 दिन सुखाने के  पश्चात फसल की गहाई डंडों से पीटकर या फिर बैलों की दाय चलाकर की जाती है।
उपज एंव उचित भण्डारण
                  गहाई के पश्चात् ओसाई  कर बीज साफ कर लिया जाता है। बीज को धूप में ( 8 प्रतिशत नमीं स्तर तक) सुखाकर बोरों में भरकर उचित उचित स्थान (नमी रहित) पर भण्डारण करना चाहिए। रामतिल की उपज खेती की विधियों पर निर्भर करती है। उपरोक्त सस्यविधियों  के  अनुशरण से अनुकूल मौसम में रामतिल की शुद्ध फसल से 5.5-6.5 क्विंटल तथा मिश्रित फसल  से 1.5-2.0 क्विंटल दाना उपज प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो सकती है।
अतरिक्त  लाभ के  लिए करें मधुमक्खी पालन
           रामतिल की फसल में 45-80 दिन तक बड़ी तायदाद में आकर्षित रंगीन पुष्प खिलते है जिससे वातावरण व मन प्रफुल्लित हो  जाता है। यही वजह है जिससे मधुमक्खी पालन के  लिए रामतिल एक आदर्श फसल समझी जाती है। मधुमक्खी फसल के  परागण में सहायक होती है जिससे 10-20 प्रतिशत उपज में बढ़ो त्तरी होने के  साथ-साथ मधुमक्खी पालन से लगभग 1500-2000 रूपये मूल्य का मधुरस अतिरिक्त लाभ के  रूप में प्राप्त होता है।
आर्थिक लाभ
              रामतिल की खेती से यदि 5 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर भी उपज प्राप्त होती है तो  बाजार कीमत 4,000 रूपये प्रति क्विंटल की दर से बेचने पर 20,000 रूपये प्रति हेक्टेयर सकल आय प्राप्त होगी। यदि इसकी खेती में 7,000 रूपये की लागत आती है तो  हमें 13000 रूपये रामतिल की उपज से एवं 1,500 रूपये मधुमक्खी पालन से अर्थात कुल मिलाकर 14,500 रूपये प्रति हेक्टेयर का शुद्ध  मुनाफा प्राप्त हो  सकता है।
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मंगलवार, 4 नवंबर 2014

उन्नत किस्म और बुआई की वैज्ञानिक विधि से बढ़ाएं गन्ने की उपज और आमदनी

                                                                डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
                                                 प्रमुख वैज्ञानिक,सस्यविज्ञान विभाग,
                                               इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर   

                 संसार को  मिठास देने वाली भारतीय मूल की गन्ना फसल को देश में  लगभग 4999  हजार हैक्टेयर  क्षेत्र में लगाया जाता है, जिससे 341200 हजार टन गन्ना उत्पादन प्राप्त होता है। दुनियां में ब्राजील के  बाद भारत दूसरा सबसे अधिक शक्कर पैदा (205 मिलियन टन) करने वाला राष्ट्र है। गन्ना भारत की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है । देश के  लगभग 50 लाख किसान और खेतिहर मजदूर गन्ने की खेती में संलग्न हैं। चीनी प्रसंस्करण देश का दूसरा सबसे बड़ा कृषि उद्योग है। वर्तमान में हमारे देश में 529 चीनी मिलें, 309 आसवन संयत्र, 180 ऊर्जा उत्पादन इकाईयों  के  अलावा बहुत से कुटीर उद्योग कार्यरत है जिनमें  ग्रामीण क्षेत्रों से 50 लाख से अधिक कुशल और अर्द्ध  कुशल श्रमिकों  को  रोजगार मिला हुआ है। हमारे देश में कुल गन्ना उत्पादन का 60 प्रतिशत चीनी के उत्पादन के लिए उपयोग होता है, 15-20 प्रतिशत गुड़ और खांडसारी उत्पादन के लिए और बाकी बीज सहित अन्य प्रयोजनों के लिए उपयोग किया जाता है।

          भारत में गन्ने की खेती उष्णकटिबंधीय (दक्षिण भारत) एवं उपोष्णकटिबंधीय (उत्तर भारत) जलवायुविक क्षेत्रों  में प्रचलित है। भारतवर्ष में कुल गन्ने के  क्षेत्रफल का लगभग 70 प्रतिशत उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्र यानी उत्तर भारत में है तथा  30 प्रतिशत उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में पाया जाता है, जबकि उत्पादन की दृष्टि से उपोष्ण क्षेत्रों  का योगदान महज 55 प्रतिशत ही बैठता है। इसका मुख्य कारण उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में औसत गन्ना उत्पादकता 54-56 टन प्रति हेक्टेयर और  उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में  80-82 टन प्रति हेक्टेयर होना है । मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ में तो  गन्ने की औसत उपज क्रमशः 44.4 टन एवं 27.42 टन प्रति हैक्टेयर है, जो कि भारत के  सभी गन्ना उत्पादक राज्यों  एवं राष्ट्रीय औसत उपज से काफी पीछे है। उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में गन्ने की औसत  पैदावार कम आने के  अनेक कारण हैं जैसे मौसम की चरम सीमा के कारण गन्ना विकास के लिए केवल 4-5 महीने उपलब्ध ह¨ पाना, नमी तनाव, अधिक कीटों और रोगों विशेष रूप से लाल सड़न, चोटी बेधक और पायरिला का प्रकोप, वर्षा ऋतु में जल भराव से फसल क्षति, गेहूं की फसल के बाद देर से बुवाई के  अलावा उत्तर भारत में लगभग 50 प्रतिशत गन्ना क्षेत्रफल पेड़ी गन्ने का है, लेकिन कुल गन्ना उत्पादन का लगभग 30 प्रतिशत ही पेड़ी से आता है। ऐसे में उत्तर भारत के राज्यों में औसत उपज बढ़ाने हेतु यहाँ के कृषकों को गन्ना उत्पादन की नवीन तकनीकों का अनुशरण करना चाहिए। 
        मौसम की तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद उपोष्णकटिबंधीय (उत्तर) क्षेत्रों के  अनेक किसान उन्नत सस्य तकनीक  के  माध्यम से गन्ने की 100 टन प्रति हैक्टर से भी अधिक उपज लेने में कामयाब है। विभिन्न शोध केन्द्रों  द्वारा तो  120-150 टन प्रति हैक्टेयर गन्ना उपज दर्ज की गई है। जाहिर है उत्तर भारत के  सभी राज्यों में गन्ने की औसत  उपज बढ़ाने की व्यापक संभावनाएं है। भारत में चीनी की खपत सर्वाधिक है। अभी प्रति व्यक्ति मीठे की खपत 23 किग्रा. प्रति वर्ष के  आस-पास है। आगामी कुछ वर्षों  मे शक्कर की खपत 35 किलो  प्रति वर्ष तक पहुँचने का अनुमान है । आगामी  वर्ष 2030 में भारत की जनसंख्या 1.5 बिलियन होने की संभावना है जिसके  लिए 33 मिलियन टन चीनी की आवश्यकता पड़ेगी। विश्व्व्यापारीकरण एवं उभरते विश्व परिद्रश्य के दौर में गन्ने का उपयोग ऊर्जा क्षेत्र में ईंधन मिश्रण (इथेनॉल) के रूप में किया जा सकता है, जिसके लिए 330 लाख टन अतिरिक्त गन्ने की आवश्यकता होगी। इस प्रकार सन 2030 में हमारे देश को 5200 लाख टन गन्ना उत्पादन की आवश्यकता होगी । चीनी उत्पादन में आत्मनिर्भरता बनाएं रखने के  लिए प्रति इकाई भूमि में गन्ना की उत्पादकता में गुणात्मक वृद्धि लाना ही होगी और  यह तभी संभव है जब कृषि शोध संस्थानों  में किसानों के पास उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप नवीन तकनीकी ज्ञान का सृजन हो और  इस ज्ञान का आम गन्ना उत्पादक कृषकों के  गाँव-खेत तक प्रभावी प्रचार-प्रसार हो । गन्ना लगाने की उन्नत पद्धति  और  अधिक उपज देने वाली किस्मों  के अनुशरण से गन्ने की वर्तमान  औसत  उपज को  दोगुना तक बढ़ाया जा सकता है। भारतीय गन्ना शोध संस्थान द्वारा विकसित गन्ना की नवीन उन्नत किस्में एवं गन्ना लगाने की आधुनिक विधियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है।
उपयुक्त उन्नत किस्मों  का चुनाव        
                  गन्ने की उपज क्षमता का पूर्ण रूप से दोहन करने के लिए उन्नत किस्मों  के स्वस्थ बीज का उपयोग क्षेत्र विशेष की आवश्यकता के अनुरूप करना आवश्यक है। रोग व कीट मुक्त बीज नई फसल (नौलख फसल) से लेना चाहिए। गन्ने की पेड़ी फसल को  बीज के रूप में प्रयुक्त नहीं करना चाहिए। परंपरागत किस्मों  की अपेक्षा गन्ने की नवीन उन्नत किस्मों  की खेती करने से 20-30 प्रतिशत अधिक उपज ली जा सकती है क्योंकि पुरानी किस्मों  में रोग-कीट का अधिक प्रकोप होता है तथा उपज भी कम आती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश के  किसानों  के  लिए नवीन किस्मों  की अनुशंषा की है जिनकी विशेषताएं सारिणी में प्रस्तुत है।
                    छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश के  लिए अनुशंसित उन्नत किस्मों  की विशेषताएँ 
क्र.    किस्म का नाम        अवधि            गन्ना उपज (टन/है.)    सुक्रो स (%)    अन्य विशेषताएँ
1    को .85004(प्रभा)       शीघ्र तैयार           90.5                          19.5       स्मट रोग रोधी, पेड़ी हेतु उपयुक्त
                                                                                                                 पेड़ी हेतु उपयुक्त
2    को.86032(नैना)        मध्य देर            102.0                         20.1      स्मट,रेड राॅट व सूखा रोधी,
                                                                                                               सूखा एवं जलभराव सहन शील  
3    को.87025(कल्यानी)    मध्य देर           98.2                         18.3       स्मट रोग रोधी
4    को.87044(उत्तरा)          मध्य देर          101.0                        18.3       स्मट रोग रोधी
5    को.8371 (भीम)            मध्य देर          117.7                        18.6       स्मट रोग रोधी, सूखा व 
                                                                                                                जलभराव    सहनशील।
6    को.एम.88121(कृष्ना)   मध्य देर           88.7                         18.6       स्मट रोग रोधी
7    को.91010(धनुष)          मध्य देर           116.0                       19.1        स्मट रोग रोधी
8    को.94008(श्यामा)          शीघ्र               119.8                        18.3          लाल सड़न स्मट रोग रोधी
9    को.99004                     मध्य देर          116.7                        18.8           लाल सड़न रोग रोधी
10  को.2001-13                 मध्य देर           108.6                       19.03         लाल सड़न,स्मट, विल्ट रोधी
11  को.2001-15                  मध्य देर          113.0                       19.37         लाल सड़न, स्मट रोग रोधी
12  को.0218                        मध्य देर          103.77                     20.79           लाल सड़न  रोग रोधी
13  को.0403                          शीघ्र              101.6                        18.16          लाल सड़न,स्मट रोग रोधी

1.गन्ना लगाने की नाली विधि (Trench Method)
               इस विधि में सबसे पहले तैयार खेत में 20 सेमी. गहरी और  40 सेमी. चौड़ी नालियां बनाई जाती है। एक नाली और  दूसरी समानान्तर नाली के  केन्द्र से केन्द्र की दूरी 90 सेमी. रखी जाती है। इन नालियों  में गोबर की खाद, कम्पोस्ट या प्रेस मड खाद डालकर मिट्टी में मिला देते है। गन्ने के  तीन आँख वाले टुकड़ों  की बुवाई इन नालियों  में की जाती है। इसके  पश्चात 4-5 सेमी. मिट्टी डालकर टुकड़ों को  ढंकने के  बाद एक हल्की सिंचाई नालियों  में करते है तथा ओट आने पर एक अन्धी गुड़ाई करने से अंकुरण अच्छा होता है। अंकुरण के  बाद फसल की बढ़वार के हिसाब से नालियों  में मिट्टी डालते जाते है। ऐसा करने से नाली के  स्थान पर मेड़ और  मेड़ के  स्थान पर नाली बन जाती है, जो  वर्षा ऋतु में जल निकास के  काम आती है। सिंचाई की कमीं वाले क्षेत्रों के लिए गन्ना लगाने की यह विधि उपयुक्त है।
2. अन्तरालित प्रतिरोपड़ तकनीक (Space Transplanting-STP)
            इस विधि में 20 क्विंटल  गन्ना बीज की 50 वर्गमीटर क्षेत्र में नर्सरी (अच्छी प्रकार से तैयार  खेत जिसमें गोबर खाद मिलाया हो ) तैयार की जाती है। नर्सरी की चौड़ाई एक मीटर रखते है। उन्नत किस्म के  स्वस्थ गन्ने के ऊपरी आधे भाग से एक आँख वाले टुकड़े तैयार कर नर्सरी में लगाये जाते है। कटे हुए टुकड़ों को मिट्टी में इस प्रकार दबाएं ताकि टुकड़े की आँख भूमि की सतह से ठीक ऊपर रहे। इसके  बाद पुआल या गन्ने की सूखी पत्तियोन  से ढंके  तथा 6-7 दिन के  अन्तराल पर हल्का पानी देते रहना चाहिए। मुख्य खेत में रोपाई योग्य पौध  एक माह में (3-4 पत्ती अवस्था) तैयार हो  जाती है। अच्छी प्रकार से तैयार खेत में 90 सेमी. दूरी पर रिजर द्वारा कूंड बना लिये जाते है। रोपाई से पहले इन कूँड़ों  में पानी भर देना चाहिए। नवोदित पौधों की  ऊपरी हरी पत्तियों के ऊपरी भाग को  रोपाई से पहले काट देना चाहिए। इन पौधों को  कूँड़ों में 60 सेमी.की दूरी पर रोपा जाना चाहिए। बुवाई में देरी होने पर यह दूरी 45 सेमी. रखना चाहिए। इस तरह कुल 29000 पौधों  की आवश्यकता होती है। रोपाई पश्चात यदि कुछ पौधे सूख जाए तो  उस स्थान पर नये पौधें  रोपना चाहिए। रोपाई के  बाद 7-8 दिन के  अन्तराल पर सिंचाई कर देना चाहिए जिससे पौधों  की जड़े भूमि में अच्छी प्रकार से स्थापित हो  जाए। इस विधि में प्रति हैक्टर 20 क्विंटल  उन्नत किस्म के बीज की आवश्यकता होती है।
3.पाली बैग पद्धति  (Polyculture Technique)
                     यह पद्धति अन्तरालित प्रतिरोपड़ तकनीक जैसी ही  है। गन्ने की बुवाई में विलम्ब की संभावना होने पर इस विधि से पौध  तैयार कर समय पर रोपाई की जा सकती है।  इस विधि में नर्सरी तैयार करने के  लिए सर्वप्रथम मिट्टी, रेत तथा ग¨बर की खाद क¨ बराबर-बराबर मात्रा में लेकर अच्छी तरह मिलाते है। अब 5 इंच लम्बी व 5 इंच चौड़ी पालीथिन बैग में यह मिट्टी भरते है। जल निकासी हेतु बैग में चारों  ओर तथा नीचे से कुछ छेद कर देते है,। नर्सरी तैयार करने के  लिए गन्ने के  ऊपरी दो  तिहाई भाग को  लेकर इसमें से एक आँख वाले टुकड़े काट लिये जाते है । इन कटे हुए टुकड़ों को 50 लीटर पानी में 100 ग्राम बाविस्टीन मिलाकर 15-20 मिनट तक डुबोकर रखा जाता है। उपचारित टुकड़ों को पालीथीन बैग में लम्बवत अवस्था में इस प्रकार रखते है कि आँख ऊपर की ओर रहे, तत्पश्चात इसके  ऊपर 2-3 सेमी. मिट्टी की तह विछाकर एक हल्की सिंचाई करते है। नर्सरी में 5-6 दिन के  अन्तराल से 2-3 बार पानी का छिड़काव करते है। लगभग 3-4 सप्ताह में पौधों  में 3-4 पत्तियां (12-15 सेमी. लम्बी) निकल आती है । रोपाई से पूर्व पौधों  की ऊपरी पत्तियों को  2-3 सेमी. काट देने से पौधों  द्वारा पानी का ह्रास कम होता है। रोपाई किये जाने वाले तैयार खेत में रिजर की सहायता से 90 सेमी. की दूरी पर कूंड़ बना लिये जाते है। इन कूड़ों  में 45 सेमी. दूरी पर पौधों  की रोपाई करना चाहिए। इस प्रकार एक हैक्टेयर में लगभग 23500 पौधें  स्थापित हो  जाते है। रोपाई के  तुरन्त पश्चात सिंचाई करनी चाहिए। रोपाई के  8-10 दिन बाद खेत का निरीक्षण करें, यदि किसी स्थान पर पौधें  सूख या मर गये हो तो उस स्थान पर फिर से नये पौधें  रोपित करना चाहिए। इस विधि से गन्ना लगाने हेतु प्रति हैक्टर 20 क्विंटल  बीज की आवश्यकता होती है।
4. एक नवीन तकनीक-गड्ढा बुआई विधि(Ring Pit Method)
        गन्ना लगाने की गडढा बुवाई विधि भरतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, द्वारा विकसित की गई हैं। दरअसल गन्ना बुवाई के  पश्चात प्राप्त गन्ने की फसल में मातृ गन्ने एवं कल्ले दोनों  बनते है । मातृ गन्ने बुवाई के  30-35 दिनों के  बाद निकलते हैं, जबकि कल्ले मातृ गन्ने निकलने के  45-60 दिनों  बाद निकलते है। इस कारण मातृ गन्नों  की अपेक्षा कल्ले कमजोर होते है तथा इनकी लंबाई, मोटाई और  वजन भी कम होता है । उत्तर भारत में गन्ने में  लगभग 33 प्रतिशत  अंकुरण हो  पाता है, जिससे मातृ गन्नों  की संख्या लगभग 33000 हो पाती है, शेष गन्ने कल्लों  से बनते है जो अपेक्षाकृत कम वजन के होते है। इसलिये यह आवश्यक है कि प्रति हैक्टेयर अधिक से अधिक मातृ गन्ने प्राप्त करने के  लिए प्रति इकाई अधिक से अधिक गन्ने के  टुकड़ों को बोया जाए। गोल  आकार के  गड्ढों  में गन्ना बुवाई करने की विधि को  गड्ढा बुवाई विधि कहते हैं। 


इस विधि को  कल्ले रहित तकनीक भी कहते हैं। इस विधि से गन्ना लगाने के  लिए सबसे पहले खेत के  चारों  तरफ 65 सेमी. जगह छोड़े तथा लंबाई व चौड़ाई में 105 सेमी. की दूरी पर पूरे खेत में रस्सी से पंक्तियों के निशान बना लें। इन पंक्तियों के कटान बिंदु पर  75 सेमी. व्यास व 30 सेमी. गहराई वाले 8951 गड्ढे तैयार कर लें।  अब संस्तुत स्वस्थ गन्ना किस्म के  ऊपरी आधे भाग से दो  आँख वाले टुकड़े सावधानी पूर्वक काट लें। इसके पश्चात 200 ग्राम बावस्टिन का 100 लीटर पानी में घोल बनाकर 10-15 मिनट तक डुबों  कर रखें। बुवाई पूर्व प्रत्येक गड्ढे में 3 किग्रा. गोबर की खाद 8 ग्राम यूरिया, 20 ग्राम डी.ए.पी., 16 ग्राम पोटाश, और  2 ग्राम जिंक सल्फेट डालकर मिट्टी में अच्छी प्रकार मिलाते है। अब प्रत्येक गड्ढे में साइकिल के  पहिये में लगे स्पोक की भांति, दो  आँख वाले उपचारित गन्ने के  20 टुकड़ों को गड्ढे में विछा दें। तत्पश्चात 5 लीटर क्लोरपायरीफास 20 ईसी को  1500-1600 लीटर पानी में घोल कर प्रति हैक्टेयर की दर से गन्ने के टुकड़ों के   ऊपर छिड़क दें । इसके  अलावा ट्राइकोडर्मा 20 किग्रा. को  200 किग्रा. गोबर की खाद के  साथ मिलाकर प्रति हैक्टेयर की दर से टुकड़ों के ऊपर डाल दें। प्रत्येक गड्ढे में सिंचाई करने के  लिए गड्ढों को एक दूसरे से पतली नाली बनाकर जोड़ दें । अब गड्ढो  में रखे गन्ने के  टुकड़ो  पर  2-3 सेमी. मिट्टी डालकर ढंक दें। यदि मिट्टी में नमी कम हो तो हल्की सिंचाई करें। खेत में उचित ओट आने पर हल्की गुड़ाई करें जिससे टुकड़ो  का अंकुरण अच्छा होता हैं। चार पत्ती की अवस्था आ जाने पर (बुवाई के  50-55 दिन बाद) प्रत्येक गड्ढे में 5-7 सेमी. मिट्टी भरें और  हल्की सिंचाई करें तथा ओट आने पर प्रत्येक गड्ढे में 16 ग्राम यूरिया खााद डालें। मिट्टी की नमी तथा मौसम की परिस्थितियों  के  अनुसार 20-25 दिनों  के  अन्तराल पर हल्की सिंचाई और  आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई भी करते रहें। जून के  तीसरे सप्ताह में प्रत्येक गड्ढे में 16 ग्राम यूरिया डालें। जून के  अंतिम सप्ताह तक  प्रत्येक गड्ढे को  मिट्टी से पूरी तरह भर दें। मानसून शुरू होने से पूर्व प्रत्येक थाल में मिट्टी चढ़ा दें। अगस्त माह के  प्रथम पखवाड़े में प्रत्येक गड्ढे के  गन्नों  को  एक साथ नीचे की सूखी पत्तियों  से बांध दें। सितम्बर माह में दो  पंक्तियों  के  आमने-सामने के  गन्ने के  थालों  को आपस में मिलाकर (केंचीनुमा आकार में )बांधे तथा गन्ने की निचली सूखी पत्तियों  को  निकाल दें। अच्छी पेड़ी के  लिए जमीन की सतह से कटाई करें। ऐसा करने से उपज में भी बढ़ोत्तरी होती हैं। सामान्य विधि की अपेक्षा इस विधि द्वारा डेढ से दो  गुना अधिक उपज प्राप्त होती है। केवल गड्ढों  में ही सिंचाई करने के  कारण 30-40 प्रतिशत तक सिंचाई जल की बचत ह¨ती है। मातृ गन्नों  में शर्करा की मात्रा कल्लों  से बने गन्ने की अपेक्षा अधिक होती है । इस विधि से लगाये गये गन्ने से 3-4 पेड़ी फसल आसानी से ली जा सकती हैं।
क्षेत्र विशेष के अनुसार उन्नत किस्म के गन्ने का चयन और बुआई की नवीनतम वैज्ञानिक विधि के अलावा गन्ना फसल की बुआई उपयुक्त समय पर (शरद्कालीन बुआई सर्वश्रेष्ठ ) करें तथा आवश्कतानुसार उर्वरकों एवं सिचाई का प्रयोग करें और पौध सरंक्षण उपाय भी अपनाएँ।   समस्त सस्य कार्य समय पर सम्पन्न करने पर गन्ने से 100 टन प्रति हेक्टेयर उपज लेकर भरपूर मुनाफा कमाने का मूलमन्त्र यही है।
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गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

सृष्टि की प्रथम फसल जौ की खेती : सीमित लागत अधिक मुनाफा

डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्यविज्ञान बिभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषकनगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
          
              भारत में जौ (बारले) की खेती प्राचीनकाल (9000 वर्ष पूर्व ) से होती आ रही है। भारत में धार्मिक रूप से जौ  का विशेष महत्व है । चैत्र प्रतिपदा से हिन्दू नववर्ष के प्रारंभ के साथ ही बड़े नवरात्र शुरू होते हैं। ये नौ दिन माता की आराधना के लिए महत्वपूर्ण माने जाते हैं। नवरात्रि में देवी की उपासना से जुड़ी अनेक मान्यताएं हैं और  उन्ही में से एक है नवरात्रि पर घर में जवारे या जौ लगाने की। नवरात्रि में जवारे इसलिए लगाते हैं क्योंकि माना जाता है कि जब शृष्टि की शुरूआत हुई थी तो पहली फसल जौ ही थी। इसलिए इसे पूर्ण फसल कहा जाता है। यह हवन में देवी-देवताओं को चढ़ाई जाती है । बसंत ऋतु  की पहली फसल  जौ ही होती है। जिसे हम माताजी को अर्पित करते है जिसके  पीछे मूल भावना  यही है कि माताजी के आर्शीवाद से पूरा घर वर्ष भर धनधान्य से परिपूर्ण बना रहे।

क्यों करें जौ की खेती
               भूली बिसरी प्राचीन फसलों में से एक जौ, के  महत्व को आज के आधुनिक युग में वो पहचान नहीं मिल रही है जिसकी वह असली हकदार है।   भारत की धान्य फसलों में  गेहूँ के बाद दूसरा स्थान जौ का आता है। प्राचीन काल से ही जौ का प्रयोग मनुष्यों के लिए भोजन तथा जानवरों के दाने के लिए किया जा रहा है। हमारे देश मे जौ का प्रयोग रोटी बनाने के लिए शुद्ध रूप मे और चने के साथ मिलाकर बेझर के रूप में किया जाता है। जौ और चना को भूनकर पीसकर सत्तू बनाये जाते है। सत्तू का सेवन ग्रीष्म ऋतू में  स्वस्थ्य के लिए लाभकारी होता है। इसके अलावा जौ का प्रयोग माल्ट बनाने में किया जाता है जिससे बीयर एवं व्हिस्की का निर्माण किया जाता है। आमतौर पर  जौ का प्रयोग जानवरों के चारे व दाने तथा मुर्गी पालन हेतु उत्तम दाने के लिए किया जाता है। जौ के दाने में 11.12 प्रतिशत प्रोटीन, 1.8 प्रतिशत फाॅस्फोरस, 0.08 प्रतिशत कैल्सियम  तथा 5 प्र्रतिशत रेशा पाया जाता है। जौ खाद्यान  में बीटा ग्लूकॉन की अधिकता और ग्लूटेन की न्यूनता जहाँ एक ओर मानव रक्त में कोलेस्ट्रॉल स्तर को कम करता है, वही दूसरी ओर सुपाच्यता व शीतलता प्रदान करता है। इसके सेवन से पेट सबंधी गड़वड़ी , वृक में पथरी बनना तथा आंतो की गड़वड़िया दूर होती है। आज जौ का सबसे ज्यादा उपयोग पर्ल बारले, माल्ट, बियर , हॉर्लिक्स , मालटोवा टॉनिक,दूध मिश्रित बेवरेज आदि बनाने में बखूबी से किया जा रहा है। मानव स्वस्थ्य के लिए बेहद उपयोगी इस खाद्यान्न फसल की सबसे बड़ी खूबी यह है की इसकी खेती कम पानी, सीमित खाद एवं उर्वरक एवं सभी तरह की भूमियों  में लहलहाती रहती है। वर्तमान जलवायु  परिवर्तन का इस फसल की बढ़वार एवं उत्पादन पर ख़ास फरक नहीं पड़ता है यानी कृषि जलवायु की कठिन परिस्थितियों में भी इसे सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है। गेंहू से पहले परिपक्वता, प्रमुख रोगों के प्रति अवरोधिता और समस्याग्रस्त भूमिओं में भी अच्छी उपज इस फसल की  विशेषताओं में चार चाँद लगा देते है। कम लागत में  फसल से पौष्टिक और अधिक उपज मिलें हर किसान की यही चाहत होती है और  जौ की खेती से यह चाहत पूरी हो सकती है। 
                   भारत में हरित क्रांति के फलस्वरूप प्राचीन फसलों का क्षेत्रफल निरंतर घटता जा रहा है। जो के स्थान पर अब गेंहू, सरसों और अन्य रबी फसलों ने ले लिया है।   भारत  में लगभग 616.5 हजार हैक्टर  में जौ  की खेती प्रचलित है जिससे 1958 किग्रा. प्रति हैक्टर की दर   से लगभग 1207.1 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है । उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक क्षेत्र  में जौ  की खेती  की जा रही है । इसके बाद राजस्थान और  मध्य प्रदेश का स्थान आता है । उत्पादन में राजस्थान के बाद उत्तर प्रदेश एवं  मध्य प्रदेश का क्रम आता है जबकि औसत उपज के मामले  में पंजाब प्रथम स्थान (3364 किग्रा. प्रति हैक्टर), हरियाणा द्वितिय (2680 किग्रा.) व राजस्थान तीसरे स्थान (2380 किग्रा.) पर रहा है । मध्य प्रदेश में जौ  की खेती लगभग 83.2 हजार हैक्टर में होती है जिससे 1251 किग्रा. प्रति हैक्टर के हिसाब से 104.1 हजार टन उत्पादन प्राप्त लिया जा रहा है । छत्तीसगढ़ में जौ  की खेती सिर्फ 3.8 हजार हैक्टर में होती है  जिससे 842 किग्रा. प्रति हैक्टर औसत  उपज के हिसाब से करीब 3.2 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है । इस प्रकार से जौ के उत्पादन में प्रादेशिक भिन्नता बहुत अधिक है, जिसकी वजह से इसकी औसत उपज काफी कम है। व्यसायिक क्षेत्रों में जौ की बढ़ती मांग को देखते हुए इसका प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाना नितांत आवश्यक है।  किसान भाई यदि जौ उत्पादन की वैज्ञानिक विधियों  का अनुसरण करें तो उन्हें भरपूर उतपादन और आमदनी हो सकती है।

जौ की उपज बढ़ाने की  नवीनतम उत्पादन तकनीक.
उपयुक्त जलवायु           
                जौ शीतोष्ण  जलवायु की फसल है लेकिन उपोष्ण  जलवायु में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है। गेहूँ की अपेक्षा जौ की फसल प्रतिकूल वातावरण  अधिक सहन  कर सकती है।  इसलिए  उत्तर प्रदेश के पूर्वी नम और  गर्म भागों  में जहाँ गेहूँ की पैदावार ठीक नहीं होती है, जौ की फसल अच्छी होती है । बोने के समय इसे नम, बढ़वार  के समय ठंडी और फसल पकने के समय सूखा  तथा  अधिक तापमय शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है । फसल वृद्धि के समय 12 से 15 डिग्री  सेंटीग्रेडे तापक्रम तथा पकने के समय 30 डिग्री  सेंटीग्रेडे तापक्रम की आवयकता पड़ती है। जौ की खेती 60 से 100 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। इसकी जलमाँग कम होने के कारण सूखा ग्रस्त  क्षेत्रों के लिए यह उपयुक्त फसल है। नमी अधिक होने पर (विशेषकर पकने से पहले¨) रोगों  का प्रकोप अधिक होता है । जौ  सूखे के प्रति गेहूँ से अधिक सहनशील है, जबकि पाले  का प्रभाव इस फसल पर अधिक होता है ।
खेती के लिए उपयुक्त मिट्टियाँ 
            जौ की खेती लगभग सभी   प्रकार की मिट्टियो  में आसानी से की जा सकती है परन्तु इसके लिए अच्छे जल निकास वाली  मध्यम दोमट मिट्टी जिसकी मृदा अभिक्रिया 6.5 से 8.5 के मध्य हो, सर्वोत्तम होती है। भारत में जौ की खेती अधिकतर रेतीली भूमि में कि जाती है। चूने की पर्याप्त  मात्रा वाली मृदाओं में जौ  की बढवार अच्छी होती है । इसमें क्षार सहन करने की शक्ति गेहूँ से अधिक होती है इसलिये इसे कुछ क्षारीय (ऊसर) भूमि में भी सफलता पूर्वक जा सकता है ।
भूमि की तैयारी
               जौ  के लिए गेहूँ की भाँति खेत  की तैयारी की आवश्यकता नहीं होती  है ।  खरीफ की फसल काटने के पश्चात् खेत में मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करने के बाद 3 - 4 बार देशी हल से जुताइयाँ करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए। इससे भूमि मे नमी संरक्षण भी होता है। भारी मृदाओ में बखर चलाकर भी खेत तैयार किया जाता है। भूमि की बारीक ज¨त ह¨ने पर फसल अच्छी आती है ।
उन्नत किस्में  का चयन   
भारत के बिभिन्न जौ  उत्पादक क्षेत्रों  के लिए जौ  की उन्नत  किस्मों  की संस्तुति निम्नानुसार की गई है ।
1. उत्तर पश्चिम मैदानी क्षेत्र(पंजाब, हरयाणा, राजस्थान, पश्चिम उत्तरप्रदेश) .:
(अ) सिंचित समय से बोआईः DWRUB-52, RD-2552, RD-2035,  DWR28, RD-2668, RD-2592, BH-393 और  PL-426
(ब) सिंचित देर से बोआईः RD-2508 और  DL-88 (माल्ट के लिए )
(स) असिंचित समय से बोआईः गीतांजली , RD-2508, RD-2624, RD-2660 और  PL-419
2. उत्तर पूर्वी मैदानी क्षेत्र (पूर्वी उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड, पूर्वी मध्य प्रदेश)
(अ) सिंचित समय से बोआईः K-508, K-551, DL-36  RD-2503, NDB-1173,  नरेंद्र बार्ली -2
(ब) सिंचित देर से बोआईः DL-36,K -329, RD-2508, NDB-209 और K-329
(स) असिंचित समय से बोआईः K-603, K-560 और  JB-58
3 . मध्य क्षेत्र (मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़):
(अ) सिंचित समय से बोआईः RD-57, PL-751, RD-2035, RD-2552 और  RD-2052

(ब) असिंचित समय से बोआईः JB-58
4. दक्षिण क्षेत्र (महाराष्ट्र, कर्नाटक ): सिंचित समय से बोआईः BCU-73, DL-88, M-130
5. उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र :(उत्तरांचल , हिमाचल प्रदेश, जम्मू -कश्मीर, आदि ): असिंचित : HBL-113, HBL276, BHS-352, VLB-1 and VLB-56
जौ की प्रमुख छिलकायुक्त किस्मों  की विशेषताएं
1. ज्योति: यह किस्म 13-135 दिन में पककर तैयार हो जाती है तथा पकने पर बालियाँ जमीन की ओर थोडी झुक जाती है। इसके पौधे सीधे ऊँचे होते हैं। दाने सुनहरे रंग के होती है जिनमें 14. 5ः प्रोटीन होती है। उपज क्षमता 35-40 क्विटल प्रति हेक्टेयर है।
2. विजया: यह किस्म 120-125 दिन मे पकने वाली किस्म सिचित व असिंचिंत क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। बाली में 60. 65 दाने होते हैं दानो मे लगभग 11-12.5 प्रतिशत प्रोटीन होती है। इसकी उपज क्षमता 25 - 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
3. आजाद: यह सिंचित व असिंचित क्षेत्रो के लिए उपयुक्त है। फसल अवधि 125 - 130 दिन व सिंचित क्षेत्रों मे 30 - 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्रप्त होती है। दाने का रंग भूरा होता है।
4. आर. एस. 6: यह 115 - 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है सिंचित व असिंचित क्षेत्रो के लिए उपयुक्त है। इसके दानें मे लगभग 8 प्रतिशत प्रोटीत होती है। अतः माल्ट बनाने के लिए उपयुक्त किस्म है। उपज क्षमता 35 - 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
5. रतना: यह किस्म 110 - 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसके पौधों ऊचे होते है। दाने सुनहरे रंग के होते है जिनमें 14 प्रतिशत प्रोटीन होती है। उपज क्षमता 25 - 30 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है। असिंचित शुष्क क्षेत्रों तथा क्षारीय ऊसर भूमि में उगाने के लिए उपयुक्त है।
6. रणजीत (डीएल-70): यह एक छः कतारी अर्ध बौनी किस्म है जो सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। फसल 120 - 125 दिन में पकती ह। दाने छोटे तथा आकार में समान होते है। इससे 30-35 क्विंटल  दाना प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।
7. डीएल-88: यह अर्द्ध बौनी किस्म देर से बुआई करने के लिए उत्तम है। उपन क्षमता 35 - 40 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है।
8. आरडी-57: यह छः पंक्तियों वाली अर्ध बौनी किस्म है। माल्ट बनाने के लिए उपयुक्त है। फसल 120 - 130 दिन में पकती है। इससे 30 - 35 क्विंटल  दाना प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।
9. आरडी-31: यह अर्ध बौनी किस्म है जो सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। इससे 30 - 32 क्विंटल  दाना प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।
जौ की प्रमुख छिलका रहित किस्मों  की विशेषताएं
1. करण-4: यह 100-110 दिन मे तैयार होने वाली छिलका रहित किस्म है। इसका पौधा अर्द्ध बौना तथा पत्तियाँ पतली होती है। दाना गेहूँ की तरह, छिलका रहित, सरबती तथा सख्त होता है। इसकी औसत उपज 40-45 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है।
2. करण-19: यह 130 दिन में तैयार होने वाली छिलका रहित किस्म है। इसका पौधा अर्द्ध बौना तथा पत्तियाँ पतली होती है। दान चमकदार, छिलका रहित, मोटा तथा कठोर होता है। इसकी औसत उपज 40 - 45 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है।
बोआई का समय
            जौ बोने का उचित समय मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक है। असिंचित क्षेत्रों में 15 - 30 नवम्बर तक बोआई कर देनी चाहिए। सिंचित अवस्था में पछेती बोआई 15 - 20 नवम्बर तक की जा सकती है। देरी से बोनी करने पर फसल पर गेरूई रोग का प्रकोप होता है जिससे उपज कम हो जीत है।
बीज दर एवं बोजोपचार
             स्वस्थ्य और  पुष्ट बीज ही बोने हेतु प्रयुक्त करना चाहिए । बीज की मात्रा बोने की विधि और  खेत  में नमी के स्तर पर निर्भर करती हैं। सिंचित अवस्था एवं समय से हल के पीछे पंक्तियों में बोआई करने पर 75 - 90 किग्रा. तथा असिंचित दशा में बोआई करने के लिए 80-100 किग्रा. बीज लगता है। सीड ड्रील से बोआई करने पर 80 - 90 तथा डिबलर से 25 - 30 किग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता पड़ती है। बोआई से पहले बीज को  वीटावैक्स या  बाविस्टीन 2.5 ग्रा. प्रति किग्रा. बीज की दर उपचारित करना आवश्यक है।
बोआई विधियाँ     
             परंपरागत रूप से किसान जौ  की बुआई छिटकवाँ बिधि से करते आ रहे है, जिससे प्रति इकाई अपर्याप्त पौध संख्या होने की वजह से उन्हें काफी कम उत्पादन मिल पाटा है।  अधिकतम उपज लेने हेतु जौ को सुविधानुसार  अग्र प्रस्तुत किसी एक विधि से बोया जाना चाहिए ।
1 .हल के पीछे कूंड़ मेंः इस विधि में हल से कूंड़ निकाले  जाते है और  उसमें हाथ से या हल में नाई बांधकर बीज डाला जाता है । इसमें बीज समान गहराई पर और  पंक्तियों  में पड़ता है । अतः बीज अंकुरण अच्छा ह¨ता है । आमतौर  पर जौ  और  गेहूँ की बोआई इसी विधि से की जाती है ।
2 .सीड ड्रिल द्वाराः यह पशु या ट्रेक्टर चलित एक मशीन है जिसका  बिभिन्न फसलों की कतार बुआई  हेतु प्रयोग किया जाता है । बोआई की यह सर्वोत्तम विधि है जिसमें बीज कतार में एक निश्चित दूरी तथा समान गहराई पर गिरते है । इसमें बीज दर भी आवश्यकतानुसार निश्चित की जा सकती है ।
3 .डिबलर द्वाराः यह एक ऐसा यन्त्र  है जिसमें नीचे की तरफ लगभग 7-10 सेमी. लम्बी खूटियाँ लगी होती है । जब इसे भूमि पर रखकर दबाते है  तो भूमि में समान दूरी पर छेद हो  जाते है, जिनमे बीज बो  दिया जाता है । यह विधि तभी उचित रहती है जब बीज की मात्रा काफी कम हो और बोआई सिमित  क्षेत्रफल  में करनी होती है । कम बीज को अधिक क्षेत्र  में बोने के लिए यह विधि अच्छी मानी जाती है । इस विधि में समय और  श्रम ज्यादा लगता है।  अतः जौ की बोआई करने के लिए यह विधि आर्थिक रूप से लाभकारी  नहीं है ।
पौध अन्तरण एवं बीज बोने की गहराई                  
                अच्छी  उपज के लिए प्रति इकाई पर्याप्त पौध संख्या स्थापित होना अनिवार्य है। इसके लिए पंक्ति से पंक्ति की सही दूरी पर बुआई करना जरूरी होता है। सामान्यतौर पर जौ  की दो  पंक्तियों  के बीच 22 - 25 सेमी. की दूरी  उपयुक्त रहती हैं। सिंचित परिस्थित और समय से बोआई के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20 - 22 सेमी. रखी जानी चाहिए । इससे अधिक दूरी रखने पर पौधों  की संख्या कम हो  जाती है तथा उपज घट जाती है । साथ ही इससे कम दूरी रखने पर पौधे  ज्यादा घने हो  जाते है, जिससे  उनमें बालियां  छोटी बनती है । बीज बोने की गहराई पर भूमि में उपलब्ध नमी की मात्रा का विशेष प्रभाव पड़ता है । यदि भूमि में नमी की मात्रा  काफी है तो  बीज 5 सेमी. की गहराई पर पड़ना चाहिए । परन्तु नमी की कमी होने पर बीज को  7.5 सेमी की गहराई तक भी डाला जा सकता है । इससे अधिक गहरा बोने पर बीज अंकुरण कम होता है क्योंकि बीज का प्रांकुरचोल  छोटा होने के कारण भूमि के अन्दर ही रह जाता है । दूसरी ओर, अधिक उथला  बोने पर बीज भूमि के सूखे क्षेत्र   में आ जाता है और  अंकुरित नहीं हो  पाता । अतः बीज का नम मिट्टी में गिरना आवश्यक है । सामान्यतौर  पर जौ  की बोआई खेत  में 5-7.5 सेमी की गहराई पर की जाती है ।
खाद एवं उर्वरक
                  जौ से अधिकतम उपज लेने के लिए बोआई की परिस्थिति के अनुसार खाद एवं उर्वरक का प्रयोग किया जाना चाहिए। सिंचित समय से बोआई हेतु 60 किग्रा. नत्रजन, 30 किग्रा. फाॅस्फोरस और 20 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। असिंचित (बारानी) दशा में 30 किग्रा. नत्रजन, 20 किग्रा. फाॅस्फोरस और 20 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर देना उचित रहता है। सिंचित दशा में नत्रजन की आधी मात्रा तथा फाॅस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय कूड़ में 8 - 10 सेमी. की गहराई पर बीज के नीचे देनी चाहिए। शेष आधी नत्रजन को दो बराबर भाग में बाँटकर पहली व दूसरी सिंचाई के समय देना लाभप्रद रहता है। असिंचित दशा में तीनों उर्वरकों को बोआई के समय कूड़ में दिया जाना चाहिए।
अधिक उपज के लिए सिंचाई                     
                 जौ   को  गेहूँ की अपेक्षा कम पानी की आवश्यकता होती है परन्तु  अच्छी उपज लेने के लिए 2 - 3 सिंचाइयाँ की जाती है। पहली सिंचाई फसल में कल्ले फूटते समय  (बोने के 30 - 35 दिन बाद), दूसरी बोने के 60 - 65 दिन बाद व तीसरी सिंचाई बालियों में दूध पड़ते समय  (बोने के 80 - 85 दिन बाद) की जानी चाहिए। दो सिंचाई का पानी उपलब्ध होने पर पहली सिंचाई कल्ले फूटते समय बोआई  के 30 - 35 दिन बाद व दूसरी पुष्पागम  के समय की जानी चाहिये। यदि सिर्फ एक ही सिंचाई का पानी उपलब्ध है तब कल्ले फूटते समय (बोआई के 30 - 35 दिन बाद) सिंचाई करना आवश्यक है। प्रति सिंचाई 5 - 6 सेमी. पानी लगाना चाहिए। दूध पड़ते समय सिंचाई शान्त मौसम में करनी चाहिए क्योंकि इस समय फसल के गिरने का भय रहता है। जौ के खेत में जल निकासी का भी उचित प्रबन्ध आवश्यक है।
खरपतवार नियंत्रण
               जौ में प्रायः निराई-गुड़ाई की आवश्यकता नहीं होती है। सिंचित दशा में खरपतवार नियंत्रण हेतु नीदनाशक दवा 2,4-डी सोडियम साल्ट (80%) या 2,4-डी एमाइन साल्ट (72%) 0.75 किग्रा. प्रति हेक्टेयर को 700-800 लीटर पानी में घोलकर बोआई के 30 - 35 दिन बाद कतार में छिड़काव करना चाहिए, इससे । इससे चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार नियंत्रित रहते हैं। मंडूसी और जंगली जई के नियंत्रण के लिए आइसोप्रोटुरान  75   डव्लू पी 1 किग्रा या पेंडीमेथालिन (स्टोम्प) 30 ई सी 1. 5 किग्रा प्रति हेक्टेयर को 600 - 800 ली. पानी मे घोलकर बोआई के 2 -3 दिन बाद  छिड़काव करना चाहिए।
फसल चक्र     
              आमतौर पर जौ  के लिए वे सभी फसल चक्र अच्छे रहते है, जो  गेहूँ के लिए  उपयुक्त होते है । सामान्यतौर  पर खरीफ की  सभी फसलें  यथा धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, मूंगफली, मूंग आदि के उपरांत जो  की फसल ली जा सकती है । रबी की सभी फसलें (गेहूँ, चना, मटर, सरसों  आदि ) के साथ जौ  की मिलवां या अंतरफसली खेती  की जा सकती है । असिंचित क्षेत्रों में जौ  को  प्रायः चना, मटर या मसूर के साथ ही मिलाकर ब¨या जाता है ।
कटाई एवं गहाई    
            गेहूँ फसल की अपेक्षा जौ की फसल जल्दी पकती है। नवम्बर के आरम्भ में बोई गई फसल मार्च के अन्तिम सप्ताह में पक कर तैयार हो जाती है। इस फसल की एक बार चारे के लिए काटने के बाद दाने बनने के लिए छोड़ देने पर भी अच्छी उपज प्राप्त हो जाती है।  पकने के बाद फसल की कटाई तुरन्त कर लेनी चाहिए अन्यथा दाने खेत में झड़ने लगते हैं  और दानों में 18  - 20  प्रतिशत नमी रहने पर कटाई करते हैं। कटाई हँसियाँ से या बड़े स्तर पर कम्बाइन हारवेस्टर से की जा सकती है। कटाई के बाद फसल को खलिहान में 4 - 5 दिन सुखाने के बाद बैलों की दाॅय चलाकर या शक्ति चालित थ्रेशर से मड़ाई कर लेनी चाहिए। इसके बाद ओसाई कर दाना साफ कर लेना चाहिए। थ्रेसर से मड़ाई व ओसाई एक साथ हो जाती है ।
उपज एवं भंडारण
                जौ की उन्नत किस्मों से सिंचित अवस्था  में 40 - 50  क्विंटल  तक दाना तथा 45 - 55  क्विंटल  प्रति हेक्टेयर तक भूसे की उपज प्राप्त की जा सकती है। असिंचित जौ की फसल से 7 - 10 क्विंटल  प्रति हेक्टयर दाने की उपज प्राप्त की जाती है। अब बाजार में किसान को जौ उपज का अच्छा लाभ  भी मिल जाता है। यदि उपज को बचा के रखना है तो अच्छी तरह सुखाने के बाद जब दानों में नमी का अंश 10-12 % रह जाये, उचित स्थान पर भंडारण करते है।   
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