डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर
(एग्रोनोमी), इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं
अनुसंधान केंद्र,
महासमुंद (छत्तीसगढ़)
भारत में विश्व की 3 प्रतिशत भूमि एवं 4 प्रतिशत जल राशी
किन्तु पूरे विश्व की 17 प्रतिशत आबादी है अर्थात हमारे देश में भूमि एवं जल
संसाधन कम परन्तु जनसंख्या घनत्व बहुत अधिक है। देश में कृषि योग्य भूमि 14.3 करोड़ हेक्टेयर
से अधिक बढ़ने की कोई संभावना नहीं है। ऐसे में बढती
आबादी,घटते संसाधन को देखते हुए जनसँख्या का भरण पोषण एक
चुनौती है। भारत में खेती
योग्य भूमि का क्षेत्रफल सीमित है और दिन प्रतिदिन शहरीकरण, उध्योगिकीकरण,
मकान बनते जाने के कारण कृषि योग्य भूमि कम होती जा रही है।
तेजी से बढती जनसँख्या की खाद्यान्न आवश्यकता की पूर्ति के लिए
प्रति इकाई क्षेत्रफल में भूमि की उत्पादकता बढ़ाने हेतु दो विकल्प मौजूद है। पहला
प्रतिवर्ष कृषि योग्य भूमि में दो या दो से अधिक फसलों को उगाया जाये परन्तु ऐसा
करने के लिए सिंचाई का साधन होना अति आवश्यक है। अभी
भी भारत में सिर्फ 35-40 प्रतिशत क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा है और इसलियें भारत
में फसल सघनता 137 प्रतिशत है अर्थात एक फसली क्षेत्रफल अधिक है। अब दूसरा विकल्प
बचता है कि एक साथ एक ही क्षेत्रफल पर कई फसलें उगाकर
बढ़ती हुई जनसंख्या के भोजन एवं खान-पान की अन्य वस्तुओं की पूर्ति की जा सकें।
दूसरे विकल्प को सफल बनाने के लिए बहुपयोगी वृक्ष एवं
खाद्यान्न और सब्जी फसलों में से चुनकर उन्हें इस
प्रकार से उगाया जाता है जिससे विभिन्न फसलों की उपज विभिन्न
ऊंचाइयों से प्राप्त की जा सकती है। इस प्रकार की
बहुउद्देशीय खेती को बहुमंजिला अथवा बहुस्तरीय कृषि कहा जाता है। हमारे देश में 80
प्रतिशत से अधिक किसान सीमान्त एवं लघु कृषकों की श्रेणी में आते है। ऐसे किसान बहुस्तरीय खेती अपनाकर अपने सीमित क्षेत्र से अधिकतम उत्पादन एवं
आमदनी अर्जित कर आत्मनिर्भर बन सकते है।
नारियल एवं पपीते के साथ बहुस्तरीय खेती फोटो साभार गूगल |
बहुमंजिला
खेती का मुख्य उद्देश्य
प्रति इकाई क्षेत्रफल एवं समय पर विविध
प्रकार की फसलों को इस प्रकार से उगाना है जिससे खेती के लिए आवश्यक प्राकृतिक
संसाधनों यथा प्रकाश, जल, भूमि,जल तथा पोषक तत्वों का कुशल उपयोग हो और सीमित क्षेत्रफल से अधिक से अधिक
पैदावार प्राप्त की जा सके। इसमें बहुपयोगी वृक्षों के साथ खाद्यान्न अथवा सब्जी
वाली फसलों को उगाया जाता है। एक वर्षीय फसलों
में बहुफसली खेती की अच्छी संभावनाएं है परन्तु बहुवर्षीय पौधों के साथ मिश्रित
खेती एक नई शुरुवात है। वर्तमान में इस प्रकार
की खेती दक्षिण भारतीय राज्यों यथा केरल, कर्नाटक, तमिलनाडू, महाराष्ट्र के कुछ भागों तथा
अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में अधिक प्रचलित है। लंबी अवधि तक वर्षा होने वाले इन
क्षेत्रों की प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र में पौधे बहुमंजिला तरीके से व्यवस्थित
होते हैं और अपनी प्रकृति के अनुसार अलग अलग ऊॅंचाई तक जाते हैं। इन पौधों के बीच
जैव अजैव संबंधों और उर्जा के आदान प्रदान से सभी के सह-अस्तित्व के लिये आवश्यक
प्राकृतिक संतुलन बनाने में मदद मिलती है। दक्षिण भारत के अलावा उत्तर एवं
मध्य भारत में भी बहुस्तरीय खेती सफलता पूर्वक की जाने लगी है। प्राकृतिक संसाधनों
के सरंक्षण, टिकाऊ खाद्यान्न उत्पादन और प्रति इकाई किसानों
की आमदनी बढ़ाने के लिए बहुस्तरीय कृषि को बढ़ावा देने की महती आवश्यकता है।
बहुमंजिल कृषि के सिद्धांत
बहुमंजिला
या बहु-स्तरीय खेती की सफलता इसके अंतर्गत उगाई जाने वाली फसलों का चुनाव एवं उनकी
अग्र-प्रस्तुत विशेषताओं पर निर्भर करती है।
1.
फसलों का चुनाव इस प्रकार से करना
चाहिए कि उनमें प्रकाश,पोषक तत्व और जल के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा कम से कम हो ताकि वह एक
दूसरे को प्रभावित किये बिना स्वतंत्र रूप से वृद्धि कर सकें।
2. पौधों का चयन इस प्रकार करें कि
घरेलू स्तर की आवश्यकताओं यथा अनाज, दाल, तिलहन, फल एवं सब्जियों आदि की पूर्ति हो सकें।
3.
सबसे ऊंचे स्तर के वृक्ष ऐसे होने
चाहिए जिनसे कम से कम छाया हो जिससे उनके नीचे उगाई जाने वाली फसलों को पर्याप्त
मात्रा में प्रकाश और हवा मिल सके।
4.
ऊपर से नीचे वाली मंजिल में उगाये जाने
वाले पौधों में कम प्रकाश में भी प्रकाश संश्लेषण करने की क्षमता होना चाहिए। दूसरी मंजिल के पौधों की पत्तियां अधिक चौड़ी, बड़ी एवं पतली होना
चाहिए।
5.
सबसे नीचे वाली मंजिल की फसलें
सीमित प्रकाश में अपना भोजन बनाने अर्थात प्रकाश संश्लेषण करने में सक्षम होना
चाहिए अर्थात इस प्रकार की फसलें छाया चाहने वाली हो। इन फसलों की पत्तियां हरी,चौड़ी, बड़ी एवं पतली होना चाहिए।
बहु-मंजिला कृषि के लिए प्रादर्श
लतायुक्त सब्जियों के साथ बहुस्तरीय कृषि फोटो साभार गूगल |
बहुमंजिला खेती सफल प्रादर्श
श्रीफल
अर्थात नारियल को फर्स्ट फ्लोर फसल कहा जाता है। नारियल
का पेड़ लगभग 70-80 साल तक उत्पादन देता रहता है. खेत में 6 x 6 मीटर की दूरी पर पोधे लगाये जाते है। दो
कतारों के बीच खली जगह (ग्राउंड फ्लोर) में सब्जी फसलें यथा आलू, फूल गोभी,टमाटर,प्याज व अन्य
भाजियां लगाई जा सकती है। इससे साल भर आमदनी प्राप्त
की जा सकती है। गर्मी के दिनों में कच्चे नारियल/पानी
वाले नारियल 25-30 रूपये प्रति नग बिकते है। बरसात में
इनकी कीमत कुछ कम हो जाती है. एक पेड़ में साल में 350-400 नारियल फल प्राप्त हो
जाते है। इसके पत्तों से झाड़ू और नारियल खोल से
कोकोपिट व अन्य उपयोगी सामग्री बनाई जाती है।
धान
उत्पादक राज्यों विशेषकर छत्तीगढ़ में धान की मेड़ें काफी चौड़ी होती है जिनपर
बहुस्तरीय कृषि कर किसानों की आमदनी में काफी इजाफा किया जा सकता है। कृषि विज्ञान केन्द्र अम्बिकापुर में खेतों की मेड़ों की बेकार पड़ी भूमि पर
लौकी, भिंडी, सेम, मटर, फूल गोभी, पत्ता
गोभी, स्ट्राबेरी आदि फसलों की बहुस्तरीय खेती पर सफल प्रयोग किया गया है । इस तकनीक में
धान खेत की मेडों पर एक साथ दो-तीन फसलों की खेती की गई। इसके लिए मेड़ पर पांच फीट बांस का मचान बनाकर उस पर
लौकी/सेम की बेलों को चढ़ाया गया और मंडप के नीचे मटर, फूल गोभी, पत्ता गोभी, फ्रेन्चबीन, स्ट्राबेरी आदि फसलों की
खेती कर बेहतर उत्पादन और आमदनी प्राप्त हुई । इस प्रणली के अंतर्गत मेडों पर भिंडी, गवारफल्ली, गेंदा, रजनीगंधा
लगाकर आकर्षक मुनाफा अर्जित किया गया है। इस प्रकार की बहु-स्तरीय कृषि क्षेत्र
एवं प्रदेश के छोटे-मझोले किसानों में लोकप्रिय होती जा
रही है।
लघु एवं सीमान्त किसान अपने खेत में बांस,बल्ली
की सहायता से एक मंडप तैयार कर कम लागत में बहुस्तरीय
खेती को अपना सकते है। मंडप
के ऊपर 20-25 से.मी. पर रस्सियाँ बुनकर उस पर घास-फूस की परत बिछा दी जाती है अथवा
टटिया बनाकर ऊपर रख देते है। ऐसा करने से बेल वाली फसलों को बढ़ने व् फलने-फूलने के
लिए सहारा तथा भरपूर प्रकाश उपलब्ध हो जाता है और
नीचे वाली फसलों की तेज धूप-गर्मी से सुरक्षा भी हो जाती है। इस मंडप के नीचे फरवरी-मार्च महीने में जमीन के नीचे अदरक, हल्दी, अरवी आदि फसलें लगाते हैं. इन फसलों की जड़ें 20-25 सेमी की गहराई पर स्थित होती है. अरवी, हल्दी आदि 60-70 दिन में अंकुरित होकर ऊपर बढ़ती है। इस दरम्यान कोई भी
साग भाजी जैसे-मेंथी, पालक, धनियां,चौलाई
आदि (इनकी जड़ें 5-10 सेमी की गहराई तक ) की बुवाई कर 30-35 दिन में उपज ली जा सकती है । इसके बाद पत्तेदार सब्जियों की कटाई पश्चात इनके स्थान पर शकरकंद की बुवाई (बेल कलमों) की जा सकती है। इसके बाद शकरकंद की खुदाई के उपरान्त खेत में बांस-बल्ली की सहायता से मंडप बनाकर बेल बाली सब्जियां यथा कुंदरू, लौकी, तोरई, करेला आदि की बुवाई कर इनकी बेलों को मंडप पर चढ़ाकर उत्पादन लिया जा सकता है । इन फसलों की
पत्तियां पतली और कटानयुक्त होती हैं जिससे नीचे की फसलों को पर्याप्त प्रकाश एवं हवा प्राप्त
होती रहती है। इसके साथ ही बीच-बीच में पपीता भी लगाया जा सकता हैं। इस प्रकार एक ही खेत से 4-5 प्रकार की फसलें आसानी से ली जा सकती है।
बहुमंजिला कृषि में आम (दशहरी, आम्रपाली आदि) के साथ अमरुद और लोबिआ; आम के साथ बाजरा और ग्वारफली; अरहर के साथ तिल और मूंगफली; मक्का के साथ मूंग और मूंगफली; सहजन के साथ लालभाजी, भिंडी और अरवी; पपीता के साथ पालक और प्याज या लहसुन; गन्ना के साथ आलू और सरसों युकलिप्टस के साथ पपीता और चारे के लिए बरसीम, चारे के लिए हाथी घास के साथ लोबिआ और रबी में बरसीम आदि को आसानी से अपनाया जा सकता है।
बहुमंजिला कृषि में आम (दशहरी, आम्रपाली आदि) के साथ अमरुद और लोबिआ; आम के साथ बाजरा और ग्वारफली; अरहर के साथ तिल और मूंगफली; मक्का के साथ मूंग और मूंगफली; सहजन के साथ लालभाजी, भिंडी और अरवी; पपीता के साथ पालक और प्याज या लहसुन; गन्ना के साथ आलू और सरसों युकलिप्टस के साथ पपीता और चारे के लिए बरसीम, चारे के लिए हाथी घास के साथ लोबिआ और रबी में बरसीम आदि को आसानी से अपनाया जा सकता है।
बहुमंजिला
खेती से लाभ
1.
बहुमंजिला खेती में प्रति इकाई भूमि में विविध प्रकार की फसलों को एक साथ उगाकर कृषि आदानों (पानी एवं पोषक तत्व) का
कुशल उपयोग करते हुए आकर्षक लाभ अर्जित किया जा सकता है।
2.
कृषि पारिस्थितकी तंत्र में समय के
साथ उत्पादन में गिरावट आती है, वहीँ बहुस्तरीय कृषि में समय के
साथ उत्पादन की मात्र और विविधता बढती है।
3.
इस प्रणाली के अनुशरण से वर्ष भर
कुछ न कुछ आमदनी प्राप्त होती रहती है जिससे परिवार की खाद्यान्न,सब्जी, मसाले,फल आदि की
आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है.
4.
बहुमंजिला खेती भूमि की उर्वरा
शक्ति कायम रखने,
जैव विविधितता एवं पर्यावरण सरंक्षण में सहायक होती है।
5. बहुमंजिला खेती से वर्ष पर्यन्त रोजगार के अवसर प्राप्त होने के अलावा जलवायु परिवर्तन के कारण फसल उत्पादन प्रभावित होने की संभावना कम रहती है।
6. फसलोत्पादन में कीट-रोग और खरपतवार प्रकोप कम होता है जिससे इनकी रोकथाम में लगने वाले रासायनिकों पर खर्चा बच जाता है।
5. बहुमंजिला खेती से वर्ष पर्यन्त रोजगार के अवसर प्राप्त होने के अलावा जलवायु परिवर्तन के कारण फसल उत्पादन प्रभावित होने की संभावना कम रहती है।
6. फसलोत्पादन में कीट-रोग और खरपतवार प्रकोप कम होता है जिससे इनकी रोकथाम में लगने वाले रासायनिकों पर खर्चा बच जाता है।
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