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शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2020

कोविड-19 महामारी के साये में विश्व खाद्य दिवस-2020

                                                  डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा,महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

भोजन एक बुनियादी और मौलिक मानव अधिकार हैआज विश्व खाद्य दिवस है और इस वर्ष इस खास दिवस को मनाने की प्रासंगिकता  और भी बढ़ गई है क्योंकि  विश्व की बहुत बड़ी आबादी कोरोना संकट से प्रभावित है और संकट के इस दौर में बहुत सारे लोग दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं । कोविड-19 की महामारी ने विश्व समुदाय के समक्ष खाद्य और पोषण सुरक्षा के लिए भयंकर संकट पैदा कर दिया हैलोगों की घटती आमदनी और वितीय संकट के चंगुल में फंसी दुनियां की एक बड़ी आबादी के सामने रोजी-रोटी का संकट आन पड़ा  है  ऐसे में आम आदमी के लिए पुष्टिकर आहार की जुगत लगाना मुश्किल हो गया है


हर व्यक्ति को भोजन मिले और कोई भूखा न रहे.......इसी उद्देश्य को सुनिश्चित करने के लिए दुनियाभर के देशों की सरकारें प्रतिबद्धता का दावा करती हैं और इसी उद्देश्य को सुनिश्चित करने के लिए वर्ष 1979 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (FAO) द्वारा प्रति वर्ष  16 अक्टूबर को दुनिया भर में विश्व खाद्य दिवस मनाया जाना सुनिश्चित किया धीरे-धीरे, यह  दिन एक वैश्विक घटना में बदल गया, जिससे दुनिया भर में भोजन की कमी और पुनर्जीवित खाद्य प्रणालियों के बारे में जागरूकता पैदा हुई। यह दिवस सभी के लिए खाद्य सुरक्षा और पौष्टिक आहार की आवश्यकता सुनिश्चित करने के लिए मनाया जाता है । अपनी स्थापना के 75वां वर्ष पूर्ण करने जा रहे  खाद्य और कृषि संगठन  ने इस वर्ष के विश्व खाद्य दिवस की थीम Grow,Nourish, Sustain.Together. Our Actions are our Future अर्थात टिकाऊ तरीके से वृद्धि एवं पोषण साथ-साथ-हमारे कार्यवाही ही हमारा भविष्य है, रखी है । भारत में प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने खाद्य और कृषि संगठन की 75वीं वर्षगांठ  को यादगार बनाने-सही पोषण-देश रोशन के नारे पर सरकार के फोकस को इंगित करे वाला 75 रूपये का  एक स्मारक सिक्का लॉन्च किया है ।

कृषि एवं खाध्य संगठन की 75वी वर्ष गांठ के अवसर पर
भारत शासन द्वारा 75 रूपये का सिक्का लांच 
संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में वर्णित दूसरे नम्बर के लक्ष्य का मुख्य उद्देश्य वर्ष 2030 तक भुखमरी मिटाना और सभी लोगों को विशेषकर गरीब बंचित लोगों को वर्ष भर पौष्टिक व पर्याप्त आहार सुलभ कराने की व्यवस्था के साथ-साथ टिकाऊ खेती को प्रोत्साहित करना भी है। विडम्बना है कि विश्व में सभी का पेट भरने लायक खाद्यान्न की उपलब्धतता होने के बावजूद, प्रत्येक नौ में से एक व्यक्ति आज भी भूखा रह जाता है और ऐसे लाचार लोगों में अमूमन 2/3 एशियाई देशों में निवासरत है। हमारे देश में तो भूख की स्थिति कोरोना वायरस संक्रमण के पहले से ही गंभीर है। गत वर्ष ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत कुल 117 देशों की सूची में 102वें पायदान पर पहुँच गया जो हम सब के लिए चिंता और चिंतन का विषय है। संयुक्त राष्ट्र विश्व खाध्य कार्यक्रम के मुख्य अर्थशास्त्री बताते है कि पहले से ही 135 मिलियन लोग भोजन की कमीं का सामना कर रहे है, किन्तु अब कोविड-19 महामारी के कारण उपजे वर्तमान सामाजिक और आर्थिक संकट के मद्देनजर वर्ष 2020 के अन्त तक 265 मिलियन लोग भुखमरी की समस्या का सामना कर सकते है।


कोरोना काल में भूख और गरीबी से लड़ने एकजुटता का आव्हान

कोविड-19 महामारी से त्रस्त विश्व समुदाय के लिए सयुंक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने विश्व खाध्य दिवस-2020 हेतु ऐसी एकजुटता का आह्वान किया है, जिससे सबसे कमजोर लोगों की उचित सहायता की जा सके और साथ ही खाद्य-प्रणालियों को अधिक टिकाऊ और मजबूत बनाकर संभावित खतरों से बचा जा सकें। कोरोना महामारी के इस नाजुक दौर में, खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जनसमुदाय के लिए अतिमहत्वपूर्ण सन्देश भी दिए गए है, जो संकट की इस घड़ी में मददगार साबित हो सकते है,जैसे सामर्थ्य के अनुसार अपने भोजन में से कुछ अंश अन्य जरुरतमंदों के साथ भी साझा करना, भोजन-बैंक की स्थापना करना, निःशुल्क आहार वितरण करने वाले सामाजिक-धार्मिक संगठनों को आर्थिक प्रोत्साहन देना आदि कार्य, ताकि एक-दूसरे के परस्पर सहयोग से इस जोखिम भरे समय में मानवता की रक्षा की जा सकें ।

भारत विविध संस्कृति और परंपरा का एक विशाल देश है। देश के प्रत्येक राज्य में विभिन्न त्यौहारों को अलग-अलग शैलियों में मनाया जाता है लेकिन हर उत्सव में भोजन आम तत्व होता है। विवाह भारतीयों के लिए सबसे महत्वपूर्ण अवसरों में से एक है जहाँ विभिन्न खाद्य पदार्थ तैयार कर सैकड़ों लोगों को परोसा जाता है । इन अवसर पर बहुत सारा  खाना व्यर्थ हो जाता है। हमें अतिरिक्त भोजन सुरक्षित रखना चाहिए और गरीबों और जरूरतमंद लोगों में इसे वितरित करना चाहिए। यह कदम बहुत अंतर उत्पन्न कर देगा क्योंकि  इससे भूखे और जरूरतमंद को खाना मिल जायेगा और भोजन भी व्यर्थ नहीं रहेगा। निजी कंपनियां और सरकारी संगठन के कर्मचारियों को  वेतन से कुछ प्रतिशत स्वैच्छिक रूप से खाद्य बैंक के लिए दान करना चाहिए  ताकि प्राकृतिक आपदाओं, विपत्तियों के समय में इस इकट्ठा किए गए धन का उपयोग किया जा सकेगा।

देश के अन्नदाता और कोरोना योद्धाओं का आभार

आज कोविड-19 महामारी के चलते हमारे खाद्य नायकों-किसानों एवं श्रमिकों को खाध्य प्रणाली में भरपूर समर्थन देने की परम आवश्यकता है देश को भुखमरी से आजादी दिलाने में किसानों के साथ-साथ कृषि वैज्ञानिकों और नीत निर्माताओं के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है । कोरोना काल में भी हमारे अन्नदाता किसान अपने खेत-खलिहान के कार्यों का संपादन करते रहे तभी तो हमें खाद्यान्न, फल-फूल सब्जी आदि उपलब्ध हो रही है। इसके लिए हमें अपने किसानों के साथ-साथ पूरी खाद्यान्न श्रंखला जैसे परिवहन, वितरण एवं बाजार व्यवस्था में लगे जन साधारण का भी आभार व्यक्त करना नहीं भूलना चाहिए की उन्होंने समय पर खाद्यान्न और खाद्य सामग्री की आपूर्ति बनाएं रखने में अपना अमूल्य सहयोग दिया। यही नहीं प्रवासी श्रमिकों को भोजन उपलब्ध कराने तमाम सामाजिक-धार्मिक संगठनों के अलावा सरकारी प्रतिष्ठानों के अधिकारी-कर्मचारी तथा सक्षम लोगों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है. इसके अलावा कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ रहे और मानवता की खुशहाली में लगे चिकित्सक, सुरक्षा, सफाई और मीडिया क्षेत्र के योद्धाओं के योगदान को सदैव याद रखा जायेगा कि संकट की इस घड़ी में वे पूरे जोश और जज्बे के साथ कोरोना पीड़ित मानवता की सेवा में समर्पित भाव से अपने कर्तव्य का निर्बहन करते आ रहे है  पूरा देश इन योद्धाओं को नमन करता है आभार प्रगट करता है 

पारिवारिक खेती का दशक

         दुनिया में खद्यान्न उत्पादन में  किसानों का अहम योगदान है परन्तु वैश्विक करोना महामारी के चलते उनकी आजीविका पर विपरीत प्रभाव पड़ा है क्षेत्रीय खाद्य सुरक्षा में इन किसानों की महती भूमिका को रेखांकित करने के उद्देश्य से सयुंक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन ने एक मुहिम शुरू की है.वैश्विक खाद्य सुरक्षा में पारिवारिक खेती के महत्त्व के प्रति जागरूकता फ़ैलाने के प्रयास के फलस्वरूप वर्ष 2019-2028 को पारिवारिक खेती का यू एन दशक' घोषित किया है. कोविड-19 महामारी के दौर में भी किसान खेती-किसानी की गतिविधियों को निर्बाध तरीके से संपन्न कर रहे है और जन-मानस को भोजन उपलब्ध करा रहे है. कृषि को समोन्नत करने और किसानों को सशक्त करने के लिए यू एन एजेंसी ने पारिवारिक खेती के लिए ज्ञान मंच बनाया है जिसमें खाद्य-प्रणालियों पर कोविड-19 के असर के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध करवाई है.

केंद्र और राज्य सरकारों का सराहनीय प्रयास

हमारे देश में खाद्य सुरक्षा कानून लागू है जिसके तहत देश के हर नागरिक तक पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न की पहुँच और उपलब्धतता के लिए सरकार कार्य कर रही है। इस वर्ष कोविड-19 महामारी के चलते देश में 25 मार्च 2020 को लॉकडाउन के अगले ही दिन 26 मार्च को केंद्र सरकार द्वारा 1.75 लाख करोड़ के विशेष गरीब पैकेज की घोषणा कर 81 करोड़ गरीबों को आठ महीने 40 किलो मुफ्त अनाज व प्रति परिवार 8 किलो दाल अथवा चना उपलब्ध कराने का भगीरथ प्रयास किया गया तदुपरांत,50 हजार करोड़ रुपयों के ‘गरीब कल्याण रोजगार अभियान’ के माध्यम से 6 राज्यों के 116 जिलों में प्रवासी मजदूरों को उनके घर के निकट ही रोजगार उपलब्ध कराने की योजना भी प्रारम्भ की है खाद्य गरीब परिवारों को रसोई-गैस सिलिंडर मुफ्त में देने के साथ-साथ दिव्यांग-जनों, गरीब-बुजुर्गों एवं माताओं-बहनों को 1000 रूपये की सहायता राशी भी उनके खतों में स्थानांतरित किये गए खाद्य प्रवासी मजदूरों को उनके घर तक पहुँचाने हेतु निःशुल्क परिवहन व्यवस्था और उनके गाँव में ही मनरेगा के तहत रोजगार उपलब्ध कराया गया केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों ने भी इन विकत परिस्थितयों से निबटने के लिए अनेक महत्वाकान्छी योजनायें संचालित की है। इसके बावजूद भी कृषि और किसानों तथा गरीबों के लिए बहुत कुछ किया जाना बांकी है

भोजन जीवन का सार है और हमारे समुदाय एवं संस्कृतियों का आधार भी है ऐसे में हमें दुनिया के हर व्यक्ति खासतौर से गरीबों एवं कमजोर समुदाय के लोगों के तक सुरक्षित और पौष्टिक भोजन की पहुंच को सुनिश्चित करना होगा । इसके लिए हमें खाद्य-प्रणाली को टिकाऊ बनाते हुए प्रकृति के साथ संतुलन बनाने की आवश्यकता है. इसलिए इस वर्ष खाद्य दिवस पर बढती आबादी, विशेषरूप से कमजोर वर्ग को भूख और कुपोषण से उबारने के लिए वर्तमान खाद्य-प्रणाली को अधिक लचीला एवं मजबूत बनाने के प्रयास करने के लिए वैश्विक एकजुटता का आह्ववान किया गया है 

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

डॉलर चने की फसल लगाएं स्वास्थ्य और समृद्धि घर लाएं

                                               डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर

प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा,महासमुंद (छत्तीसगढ़)

चना  भारत की सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। चने को दालों का राजा कहा जाता है। भारत में चना को दो प्रजातियों यथा देशी (कत्थई से हल्का काला) तथा काबुली (सफेद दाना) की खेती की जाती है देशी चने के दाने छोटे,कोणीय,गहरे भूरे रंग के खुरदुरे होते है.इसके पौधे छोटे अधिक शाखाओं वाले तथा फूल गुलाबी रंग के होते है  काबुली चने के दाने बड़े,सफेद क्रीम रंग के होते है  इसके पौधे लम्बे तथा फूल सफेद रंग के होते है काबुली चने को डॉलर और छोला चना भी कहा जाता है। देशी चने की तुलना में काबुली चने की उपज कम आती है   पोषक मान की दृष्टि से काबुली चने 24.63 % अपरिष्कृत प्रोटीन, 6.49 % अपरिष्कृत रेशा, 8.43 % घुलनशील शर्करा, 7 % वसा, 40 % कार्बोहाइड्रेट के अलावा  कैल्सियम, फॉस्फोरस,लोहा, मैग्नेशियम, जिंक,पोटाशियम तथा विटामिन बी-6, विटामिन-सी,विटामिन-ई प्रचुर मात्रा में पाए जाते है । देशी चने की अपेक्षा काबुली चना अधिक पौष्टिक व स्वास्थ्यवर्धक  होता है । देशी चने को पीसकर बेसन तैयार किया जाता है,जिससे विविध व्यंजन बनाये जातेहैं। काबुली चने का इस्तेमाल सब्जी के साथ-साथ छोले, चाट के रूप में तथा उबालकर-भूनकर खाने में किया जाता है । चने की हरी पत्तियाँ साग बनाने, हरा तथा सूखा दाना सब्जी व दाल बनाने में  प्रयुक्त होता है।  दलहनी फसल होने के कारण यह जड़ों में वायुमण्डलीय नत्रजन स्थिर करती है,जिससे खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। स्वाद और पोषण में बेजोड़ तथा विविध उपयोग के कारण बाजार में काबुली चने की खाशी मांग रहने के कारण इससे किसानों को बेहतर दाम मिल जाते है ।  इस प्रकार से काबुली या डॉलर चने की खेती करने से किसानों को अच्छा मुनाफा होता है साथ ही खेत की  उर्वरता में भी बढ़ोत्तरी होती है जिसके फलस्वरूप  आगामी फसल की उपज में भी इजाफा होता है।  

दुनिया में चना उत्पादन में भारत सबसे बड़ा देश है और देश में चने के क्षेत्रफल और उत्पादन में मध्य प्रदेश का प्रथम स्थान है। भारत में वर्ष 2017-18 के दौरान चने की खेती  10.66 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में की गई, जिससे 1063 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के औसत मान से 11.23 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त हुआ । चने के अंतर्गत  कुल क्षेत्रफल के 85 % हिस्से में देशी चना तथा 15 % भाग में काबुली चने की खेती होती है  काबुली  चने की खेती मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान,कर्नाटक,आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में की जाती है । देशी चने की अधिक उपज के कारण ज्यादातर किसान  इसी चने की  खेती अधिक करते है, परन्तु डॉलर चने की खेती अधिक फायदेमंद सिद्ध हो रही है  डॉलर चने की खेती से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के  लिए नवीन सस्य तकनीक अग्र  प्रस्तुत है ।
उपयुक्त जलवायु 
           काबुली चना शुष्क एवं ठण्डे जलवायु की फसल है जिसे शरद ऋतु में उगाया जाता है.चने की वृद्धि एवं विकास के लिए बुवाई से लेकर कटाई तक 24 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त रहता है. फलियों में दाना भरते समय बहुत कम अथवा 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक का तापमान होने से दानों का विकास अवरुद्ध हो जाता है. चने की फसल के लिए लम्बी अवधि की चमकीली धुप आवश्यक है.   

भूमि का चुनाव एवं खेत की तैयारी

                काबुली चने की खेती के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट से लेकर दोमट तथा मटियार मिट्टी सर्वोत्तम रहती है। मृदा का पी-एच मान 6-7.5 उपयुक्त रहता है। चने की फसल के लिए अधिक उपजाऊ भूमियाँ उपयुक्त नहीं होती,क्योंकि उनमें पौधों की वानस्पतिक बढ़वार अधिक होती है जिससे  फूल एवं फलियाँ कम बनती हैं। चना की खेती के  लिए मिट्टी का बारीक होना आवश्यक नहीं है, बल्कि ढेलेदार खेतों में भी भरपूर पैदावार ली जा सकती है । जड़ों की समुचित वृद्धि के लिए खेत की गहरी जुताई करना लाभदायक होता है इसके लिए खरीफ फसल काटने के बाद एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए. इसके बाद दो जुताइयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से करने के उपरान्त पाटा चलाकर खेत समतल कर लेना चाहिए ।  दीमक प्रभावित खेतों में क्लोरपायरीफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण 20 किलो प्रति हेक्टर के हिसाब से जुताई के दौरान मिट्टी में मिला देना  चाहिए। इससे कटुआ कीट पर भी नियंत्रण होता है।

उन्नत किस्मों का चयन 

                    देशी चने का रंग पीले से गहरा कत्थई या काले तथा दाने का आकार छोटा होता है। काबुली चने का रंग प्रायः सफेद होता है। इसका पौधा देशी चने से लम्बा होता है। दाना बड़ा तथा उपज देशी चने की अपेक्षा कम होती है। काबुली या डॉलर  चने की प्रमुख उन्नत किस्मों की  विशेषताएँ सारणी में  प्रस्तुत है:

सारणी:डॉलर चने की प्रमुख उन्नत किस्में एवं उनकी विशेषताएं  .

किस्म का नाम

अवधि (दिन)

उपज (क्विंटल/हे.)

अन्य विशेषताएं

जे.जी.के.-1

110-115

15-18

क्रीम सफेद रंग का बड़ा दाना, उकठा सहिष्णु ।

जे.जी.के.-2

95-110

15-18

सफेद क्रीम रंग का बड़ा दाना,बहुरोग रोधी,100 दानों का भार 33-36 ग्राम 

जे.जी.के.-3

95-110

15-18

बोल्ड चिकना दाना,100 दानों का भर 44 ग्राम 

पूसा-5023

120-130

22-25

अत्यधिक मोटा दाना, 100 दानों का वजन 50 ग्राम.उकठा निरोधी

काक-2

120-125

15-20

दाने सामान्य मोटाई और हल्के गुलाबी,उकठा निरोधक

चमत्कार(वी.जी.1053)

135-145

25-30

बड़ा दाना मोटा गोलाकार, उकठा रोधी

पूसा-2024

135-145

25-28

दाना बड़ा, सूखा व उकठा रोधी

श्वेता(आईसीसीव्ही-2 )

85-90

18-20

दाना मध्यम आकर, आकर्षक,असिंचित व् सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त

मेक्सिकन बोल्ड

90-95

25-30

दाना बोल्ड, सफेद,चमकदार,स्वादिष्ट, कीट रोग निरोधक

काबुली चने की उपरोक्त किस्मों के अलावा 110-115 दिन में तैयार होने वाली फुले जी-0517 (100 दानों का भार 60 ग्राम), 130-135 दिन में तैयार होने वाली एल-550 (उपज 20-25 क्विंटल/हे.) तथा देर से बुवाई हेतु 100-105 दिन में तैयार होने वाली आर.वी.जी.-202 (उपज 18-20 क्विंटल/हे.) उपयुक्त रहती है

बोआई करें सही समय पर 

         चने की बुआई समय पर करने से फसल की वृद्धि अच्छी होती है साथ ही कीट एवं रोगों से फसल की सुरक्षा होती है, फलस्वरूप उपज अधिक मिलती है । असिंचित अवस्था में काबुली चने की बुवाई का उचित समय 20 से 30 अक्टूबर है।सिंचित अवस्था में काबुली चने की बुवाई नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में संपन्न कर लेना चाहिए । बुवाई में अधिक विलम्ब करने पर उत्पादन में कमीं हो जाती है, साथ ही काबुली चना में फली भेदक कीट का प्रकोप होने की सम्भावना रहती है ।

उपयुक्त बीज दर

           काबुली चने की अधिक पैदावार के लिए बीज की उचित मात्रा का होना अति आवश्यक है. समय पर बोआई तथा छोटे दानों की प्रजातियों के लिए 79-75 कि.ग्रा. तथा बड़े दानों की प्रजातियों के लिए 80-90 किग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज का प्रयोग करना चाहिए।  बिलम्ब से बुवाई की अवस्था में सामान्य बीज दर से 20-25 प्रतिशत अधिक बीज प्रयोग करना चाहिए ।

निरोगी फसल के लिए बीजोपचार

         अच्छे अंकुरण एवं फसल की रोगों से सुरक्षा के लिए बीज शोधन अति आवश्यक है। उकठा एवं जड़ सड़न रोग से फसल की सुरक्षा हेतु बीज को 1.5 ग्राम थाइरम व 0.5  ग्राम कार्बेन्डाजिम के मिश्रण  अथवा ट्राइकोडर्मा 4 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। कीट नियंत्रण हेतु थायोमेथोक्साम 70 डब्ल्यू पी 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें। इसके बाद शोधित बीज को जीवाणु संवर्धन अर्थात राइजोबियम एवं पी.एस.बी प्रत्येक की 5 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। इसके लिए एक पैकेट (250 ग्राम) राइजोबियम कल्चर  प्रति 10 कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करना उचित रहता है। आधा लीटर पानी में 50 ग्राम गुड़ या शक्कर घोलकर उबाला जाता है। ठंडा होने पर इस घोल में एक पैकेट राइजोबियम कल्चर मिलाकर बीज में  अच्छी तरह मिलाकर छाया में सुखाकर शाम को या सुबह के समय बोनी की जाती है। पी.एस.बी. (फॉस्फ़ोरस घोलक जीवाणु) कल्चर  से बीज का उपचार राइजोबियम कल्चर की भांति करें । ध्यान रहे की बीज का उचार फफूंदनाशक-कीटनाशक- राइजोबियम कल्चर (FIR) के क्रम में ही करें।

पंक्तियों में करें बोआई

                  आमतौर पर चने की बोआई छिटकवाँ विधि से की जाती है जो कि लाभप्रद नहीं है। फसल की बुआई हमेशा पँक्तियों में सीड ड्रिल द्वारा करनी चाहिए ताकि पंक्ति एवं बीज की उचित दूरी बनी रहे एवं फसल का उचित प्रबंधन किया जा सके । बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमीं का होना आवश्यक होता है  काबुली चना की अच्छी उपज के लिए खेत में पौधों की समुचित संख्या होना आवश्यक है सामान्यतौर पर पौधों की संख्या 25 से 30 प्रति वर्गमीटर रखी जाती है. असिंचित अथवा पछेती बुवाई की स्थिति में पंक्तियों के बीच की दूरी 30  से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में बोआई कतारों में 30-45 से.मी. की दूरी पर करना चाहिए।  सामान्य रूप से असिंचित चने की बोआई 5 - 7 से.मी. की गहराई पर उपयुक्त मानी जाती है। खेत मे पर्याप्त नमीं होने पर चने को 4 से 5 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिए।

एक-दो सिंचाई से बढ़ें उपज

             अधिकांश इलाकों  में चने की खेती असिंचित-बारानी अवस्था में की जाती है। खेत में नमीं  होने पर बोआई के चार सप्ताह तक सिंचाई नहीं करनी चाहिए। चने में जल उपलब्धता के आधार पर दो सिंचाईयाँ, पहली फूल आने के पूर्व अर्थात बोने के 45-60 दिनों बाद शाखाएं बनते समय तथा दूसरी सिंचाई आवश्यकतानुसार फलियों में  दाना बनते समय की जानी चाहिए । यदि एक सिंचाई हेतु पानी है तो फूल आने के पूर्व (बोने के 45 दिन बाद) सिंचाई करें। चने में फूल आते समय सिंचाई करना वर्जित है,अन्यथा वानस्पतिक वृद्धि अधिक तथा फलियाँ कम लगती है । खेत में जल निकासी का उचित प्रबन्ध होना आवश्यक है।

फसल को दें सही खुराक-खाद एवं उर्वरक

                  दलहनी फसल होने के  कारण काबुली चने को नत्रजनीय उर्वरक की कम आवश्यकता पड़ती है। मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही पोषक तत्वों की उचित मात्रा का निर्धारण करना चाहिए । सामान्य उर्वरा भूमियों  (सिंचित) में बोआई के समय नत्रजन 20 कि.ग्रा. स्फुर 60 कि.ग्रा.,पोटाश 20 कि.ग्रा. तथा गंधक 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से कूड़ में देना चाहिए । असिंचत अवस्था में  उक्त उर्वरकों की आधी मात्रा का प्रयोग बोआई के समय करना चाहिए। फॉस्फोरस को सिंगल सुपर फॉस्फेट के रूप में देने से स्फुर व गंधक की पूर्ति हो जाती है। असिंचित या देर से बोई गई अथवा उतेरा की फसल में 2% यूरिया या डायअमोनियम फॉस्फेट (डी.ए.पी.) उर्वरक के दो छिड़काव पहला फूल आने की अवस्था तथा इसके 10 दिन बाद पुनः छिड़काव करने से काबुली चने की पैदावार में वृद्धि होती है।

खरपतवार नियंत्रण

                  खरपतवारों के प्रकोप से काबुली चने की पैदावार में 40-50 प्रतिशत तक कमीं हो सकती है।काबुली चने की बोआई  के 30 - 60 दिनों तक खरपतवार फसल को अधिक हानि पहुँचाते हैं। खेत में खरपतवार नष्ट करने के लिए बुवाई के 30-35 दिन बाद पहली निराई-गुड़ाई करना चाहिए । रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालीन 30 ईसी (स्टाम्प) 750 मिली-1000 मि.ली. सक्रिय तत्व (दवा की मात्रा  2.5-3 लीटर) प्रति हेक्टेयर को  700– 800 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के तुरंत बाद फ्लेट फेन नोजल युक्त पम्प से छिड़काव करना चाहिए । छिडकाव के समय खेत में नमीं होने पर खरपतवारनाशी रसायन अधिक प्रभावशील होता है । सँकरी पत्ती वाले  खरपतवार जैसे सांवा, दूबघास, मौथा आदि के नियंत्रण हेतु क्युजोलफ़ोप 40-50 ग्राम सक्रिय तत्व अर्थात 800-1000 मि.ली. दवा प्रति हेक्टेयर का छिड़काव बौनी के 15-20 दिन बाद करना चाहिए।

अंतरवर्ती फसल

काबुली चने  के साथ हर 10 कतार के बाद धनियां,सरसों या अलसी की 1-2 कतारें लगाने से चने में इल्ली कीट का प्रकोप कम होने के साथ-साथ अंतरवर्ती फसल से अतिरिक्त लाभ प्राप्त होता है। इसके आलावा चना फसल के चरों ओर पीला गेंदा फूल लगाने से भी चने की इल्ली का प्रकोप कम किया जा सकता है।

शीर्ष शाखायें तोडना (खुटाई)

काबुली चने की फसल में प्रायः फूल लगने के पहले पौधों के ऊपरी नर्म शिरे तोड़ दिये जाते है जिसे शीर्ष शाखायें तोड़ना कहते है । चने में शीर्ष शाखायें तोड़ने से पौधों की वानस्पतिक वृद्धि रूकती है। जब पौधे 20-25  से.मी. की ऊँचाई के हो जाएँ अर्थात पौधों में फूल आने से पहले की अवस्था हो, तब शाखाओं के ऊपरी भाग तोड़ देना चाहिए। ऐसा करने से पौधों में अधिक शाखायें निकलती हैं। फलस्वरूप प्रति पौधा फूल व फलियों की संख्या अधिक होने से काबुली चने की उपज में वृद्धि होती है। चने की शाखाओं/पत्तियों को भाजी के रूप मे उपयोग किया जा सकता अथवा बाजार में बेचकर अतरिक्त लाभ कमाया जा सकता है। शीर्ष शाखायें तोड़ने की प्रक्रिया असिंचित क्षेत्रों में नहीं की जाती है, क्योंकि अत्यधिक शाखाओं और पत्तियों के होने से वाष्पीकरण बढ़ जाता है, जिससे भूमि में नमीं की कमीं हो जाती है तथा फसल को सूखे का सामना करना पड़ता है जिसके फलस्वरूप उत्पादन में कमीं आ जाती है.

कटाई-गहाई

चने की फसल किस्म के अनुसार 120 - 150 दिन में पकती है। इसकी कटाई फरवरी से अप्रैल तक होती है । पकने के पहले हरी दशा में पौधे  उखाड़कर हरे चने  (बूट) के रूप में ही  बाजार में बेच कर अच्छा लाभ कमाया जा सकता है । पत्तियों  के पीली पड़कर झड़ने तथा पौधों  के सूख जाने पर ही फसल पकी समझनी चाहिए । देश के कुछ भागो  में पौधों को उखाड़कर साफ़ स्थान पर एकत्रित कर लिया जाता है । फसल अधिक सूख जाने पर फल्लियाँ झड़ने  लगती हैं। इसलिए फसल की कटाई उचित समय पर करें एवं खलिहान में अच्छी तरह सुखाकर गहाई और  ओसाई कर ली जाती है ।

उपज एवं आमदनी

           काबुली चने की किस्मों और सस्य प्रबंधन के आधार पर प्रति हेक्टेयर 15-20  क्विंटल  दाना उपज प्राप्त होती है । दानों  के भार का लगभग आधा या तीन-चौथाई भाग भूसा प्राप्त होता है। काबुली चने की पैदावार देशी चने की अपेक्षा थोड़ी कम होती है। बाजार में काबुली चना 6000 से 7000 रूपये प्रति क्विंटल के हिसाब से आसानी से बिक जाता है। इस हिसाब से 20 क्विंटल उपज प्राप्त होने पर 1 लाख 20 हजार रूपये प्राप्त होते है जिसमें से 20 हजार रूपये लागत खर्च घटाने पर प्रति हेक्टेयर एक लाख रूपये की शुद्ध आमदनी प्राप्त हो सकती है। इसके अलावा चने की भाजी और भूषा बेचकर अतिरिक्त मुनाफा अर्जित किया जा सकता है  दानों  को अच्छी तरह सुखाकर जब उनमें  10- 12 प्रतिशत नमीं रह जाय, तब उचित स्थान पर भंडारित करें अथवा अच्छा भाव मिलने पर बाजार में बेच देना चाहिए।

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रविवार, 11 अक्तूबर 2020

रबी के राजा गेंहूँ से अधिकतम उत्पादन हेतु आठ सूत्र

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,

प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी) इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

भारत के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर इस वर्ष मानसून की स्थिति सामान्य मानी जा सकती है । इस वर्ष सितम्बर माह में हुई वर्षा से खरीफ और रबी फसल दोनों को लाभ मिलने की उम्मीद है। रबी की प्रमुख फसलें गेंहू,चना,सरसों आदि पर विशेष ध्यान देकर अधिक से अधिक क्षेत्र में इन फसलों को लगाकर तथा उनका यथोचित प्रबंध करके लक्षित उत्पादन हासिल किया जा सकता है।  बीते वर्ष 2019-20 में 29 करोड़ 66 लाख 50 हजार टन रिकार्ड खाद्यान्न उत्पादन प्राप्त हुआ। इसके लिए देश के अन्नदाता किसान, कृषि वैज्ञानिक और कृषि नीति निर्माता बधाई के पात्र है। अच्छे मानसून और खरीफ के तहत अधिक रकबे को देखते हुए इस वर्ष 2020-21 के लिए 30.1 करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इसमें से गेंहू उत्पादन के लिए 10 करोड़ 80 लाख टन का लक्ष्य निर्धारित किया गया है,जबकि पिछले वर्ष 10.76 करोड़ टन गेंहू उत्पादन प्राप्त हुआ था।  रबी का राजा गेंहूँ भारत की प्रमुख खाद्यान्न फसल है। बीते कुछ वर्षो में गेंहूँ उत्पादन एवं उत्पादकता में अभूतपूर्व वृद्धि के चलते हमारा देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है। परन्तु बदलते परिवेश में निरंतर बढती हुई आबादी के उदर पोषण के लिए गेंहू उत्पादन में सतत वृद्धि समय की मांग है।


वर्तमान में देश में 29.58 मिलियन हेक्टेयर में गेंहू की खेती प्रचलित है जिससे 99.70 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त हुआ। हमारे देश में गेंहू की औसत उपज 3371 किग्रा. प्रति हेक्टेयर है जो गेंहू उत्पादक प्रमुख देशों यथा जर्मनी (7641 किग्रा.),चीन (5396 किग्रा.) और फ़्रांस (5304 किग्रा.) से बहुत कम है भारत की तेजी से बढती जनसँख्या के भरण पोषण हेतु वर्ष 2050 तक 140 मिलियन टन उत्पादन करना होगा जिसके लिए गेंहू की वर्तमान औसत उपज 33.71 क्विंटल को बढाकर 47 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के स्तर तक पहुँचाना  पड़ेगी । गेंहूँ उत्पादन की विभिन्न परिस्थितयों में  सस्य विधियों के आठ सूत्रों को अपना कर लक्षित उत्पादन और भरपूर लाभ प्राप्त किया जा सकता है.

1.बुवाई की परिस्थितयों के अनुसार खेती: हमारे देश में गेंहू तीन-चार परिस्थितयों में  बोया जाता है। पहली खरीफ पडती वाले खेतों को तैयार करके उसमें गेंहू की बुआई की जाती है। दूसरी स्थिति में खरीफ फसल काटने के उपरान्त पलेवा (सिंचाई) देकर खेत तैयार करके बुवाई की जाती है । इसमें भी दो स्थितियां होती है-सीमित सिंचाई और भरपूर सिंचाई। तीसरी अवस्था धान कटाई के बाद खेतों की बिना जुताई के जीरो टिलेज तकनीक से बुवाई की जायें और चौथी अवस्था में धान की देर से पकने वाली किस्मों की कटाई के बाद गेंहूँ की बुवाई अर्थात गेंहू की बिलम्बित बुवाई। इस प्रकार खेती की हर एक स्थिति में बुवाई हेतु उन्नत तकनीक का सहारा लिया जाए तो बिपुल उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

2.समय पर बुवाई: पौधों की अधिकतम वृद्धि एवं अच्छी उत्पादकता हेतु समय पर बुवाई सबसे महत्वपूर्ण है। असिंचित अवस्था में गेंहू की बुवाई 30 अक्टूबर तक और सीमित पानी की स्थिति में बुवाई 15 नवम्बर तक पूरी कर ले जाए। पर्याप्त पानी उपलब्ध होने पर 30 नवम्बर तक बुवाई संपन्न कर लेना हितकर होता है । किसी कारणवश समय पर बुवाई न होने पर 15-20 दिसंबर तक बुवाई अवश्य कर लेनी चाहिए। सामान्यतौर पर बुवाई के लिए औसत तापमान 21-250 सेल्सियस उत्तम रहता है। विलम्ब से बुवाई करने पर प्रतिदिन की देरी के हिसाब से उत्पादन में निरंतर कमीं आती जाएगी । ज्ञात हो कि गेंहू फसल की वृद्धि एवं विकास के लिए कम से कम 90 दिन ठंडे दिनों की आवश्यकता होती है और देरी से बोये गए गेंहू के लिए 90 ठन्डे दिनों में कमीं आना स्वाभाविक है।

3.उन्नत किस्मों का इस्तेमाल: गेंहू की अनुमोदित उन्नत किस्मों को बुवाई के समय और उत्पादन परिस्थिति के अनुसार लगाना चाहिए. अनुसंधानों से यह सिद्ध हो चुका है कि उन्नत किस्म का बीज उपयोग करने मात्र से ही 25-30 प्रतिशत तक उत्पादन में वृद्धि हो जाती है। कम सिंचाई एवं असिंचित क्षेत्रों के लिए गेंहूँ की उन्नत किस्मों में एच आई-8627, एच आई-1531, एम पी-3288 आदि उपयुक्त रहती है. समय पर बुवाई कर 1-2 सिंचाई देने पर इन किस्मों से 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त हो जाती है। समय पर बुवाई एवं सिंचित क्षेत्रों के लिए राज-4037, एच आई-1544, राज-4120, एम पी ओ-1215, राज-4083, एच आई-8713 आदि किस्में उपयुक्त रहती है। उत्तम सस्य प्रबंधन करने से इन किस्मों से औसतन 50-60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त हो जाती है।

4.बीज दर एवं बीज उपचार: वर्षा आधारित क्षेत्रों में समय पर बुवाई के लिए 125 किग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है। सिंचित क्षेत्र,समय पर बुवाई (नवम्बर के प्रथम सप्ताह से नवम्बर के अंतिम सप्ताह तक) के लिए 100 किग्रा. प्रति हेक्टेयर, सिंचित क्षेत्र देर से बुवाई (15 दिसंबर तक) हेतु 125 किग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज पर्याप्त होता है । बुवाई पूर्व बीज को उचित कवकनाशी एवं पी एस बी कल्चर से उपचारित अवश्य कर लेवें। बीज उपचार से बहुत ही कम लागत में लाभ अधिक होता है। बीज जनित रोगों से बचाव के हेतुकार्बोक्सिन (वीटावेक्स 75 डब्ल्यू पी) 2.5 ग्राम या कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन 50 डब्ल्यू पी) 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीज उपचारित करें। दीमक की समस्या वाले क्षेत्रों में 600 मिली. क्लोरोपायरीफ़ॉस 20 ईसी को आवश्यकतानुसार पानी में घोलकर बीजों पर समान रूप से छिड़ककर उपचारित करें एवं छाया में सुखाने के बाद दो घंटे के अन्दर बुवाई करें।

5.बुवाई ऐसे करें: सामान्यतः किसान पारंपरिक विधि से बीज को छिटककर गेंहू की बुवाई करते है जो की गैर वैज्ञानिक तरीका है। इसी करण निराई-गुड़ाई एवं अन्य सस्य क्रियाओं में बाधा आती है तथा पैदावार भी कम आती है. सीड ड्रिल या सीड कम फर्टीड्रिल द्वारा बुवाई करना एक सर्वोत्तम तरीका है. इसमें बीज को बीज पेटी (बॉक्स) में एवं उर्वरक को उर्वरक पेटी में डालकर दोनों कार्य (बेज बुवाई एवं उर्वरक प्रयोग) एक साथ संपन्न होता है. पंक्ति में बुवाई करने से पौधों की संख्या उचित एवं एक समान रहती है जिससे लगत में कमीं एवं पैदावार में वृद्धि होती है. उपयुक्त नमींयुक्त भुरभरी मिट्टी वाले खेत में बुवाई करते समय पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20-23 से.मी. एवं गहराई 5-6 से.मी. रखनी चाहिए। यदि किसान भाई देशी हल से बुवाई कर रहे है तो दो नली सीड ड्रिल (पोरा विधि) का प्रयोग करें। जो नली मिट्टी में गहरी खुले उसमें उर्वरक एवं थोडा ऊपर खुलने वाली नली से बीज को ऊरे ताकि बीज के नीचे उर्वरक गिरे। पछेती बुवाई की दशा में पंक्तियों  की दूरी घटाकर 16-18 से.मी. रखें । धान-गेंहू फसल चक्र में शून्य कर्षण (जीरो टिलेज) विधि से बुवाई करने से समय, श्रम और धन तीनों की बचत के साथ-साथ अधिक उत्पादन भी प्राप्त होता है।इस विधि में बुवाई हेतु विशेष रूप से तैयार की गई बीज संग उर्वरक डालने वाली मशीन अर्थात जीरो टिल कम फर्टीड्रिल का प्रयोग किया जाता है। इस विधि से गेंहू की बुवाई लगभग 10 दिन पहले की जा सकती है तथा 3-4 हजार रूपये प्रति हेक्टेयर की बचत होती है। सीमित पानी वाले क्षेत्रों में उठी हुई शैय्या (रेज्ड बेड) पर बुवाई करने से पानी की 25 प्रतिशत बचत होती है।

6.समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन: अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन अति आवश्यक है. जैविक खाद 8-10 टन प्रति हेक्टेयर, जीवाणु खाद (एजोटोबेक्टर व पी एस बी) तथा रासायनिक उर्वरकों का समन्वित प्रयोग करना बेहतर होता है। मिट्टी परिक्षण के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग करने से कम लागत में अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है। समय से बुवाई की जाने वाली किस्मों के लिए प्रति हेक्टेयर 120 किग्रा.नत्रजन,60 किग्रा. फॉस्फोरस तथा 40 किग्रा पोटाश का उपयोग करना चाहिए। असिंचित क्षेत्रों में इन उर्वरकों की आधी मात्रा पर्याप्त होती है। जैविक अथवा जीवाणु खाद का प्रयोग या दलहनी फसल के पश्चात गेंहू की बुवाई करने पर नत्रजन की मात्रा में 25 प्रतिशत तक की कमीं की जा सकती है। असिंचित क्षेत्रों में उर्वरकों की सम्पूर्ण मात्रा व सिंचित क्षेत्रों में आधी नत्रजन एवं पूर्ण फॉस्फोरस एवं पोटाश की मात्रा बुवाई के समय ऊर कर देना चाहिए।नत्रजन के शेष आधी मात्रा को दो हिस्सों में बराबर बांटकर प्रथम और द्वितीय सिंचाई के समय देनी चाहिए. वर्तमान में कुछ गेंहू उत्पादक क्षेत्रों में गंधक एवं जस्ते की कमीं के लक्षण फसल में देखे जा रहे है। अतः इस समस्या से निजात पाने के लिए मिट्टी की जांच के आधार पर या 250 किग्रा प्रति हेक्टेयर जिप्सम व 25-30 किग्रा जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करना चाहिए।

7.सिंचाई से भरपूर उपज: सामान्यतः गेंहू की फसल को फसल की स्थित तथा भूमि में नमीं की उपलब्धतता को देखते हुए भारी मिट्टी में 4-6 सिंचाइयों और हल्की मिट्टी में 6-8 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। प्रथम सिंचाई फसल बोने के 20-25 दिन पर शीर्ष जड़े निकलने के समय करें। आगे की सिंचाइयाँ मुख्यतः कल्ले निकलते समय, बालियाँ निकलते समय और दानों की दूधिया अवस्था में अवश्य करें। सिंचाई हेतु खेत में आवश्यकतानुसार मेड़ें बना लेना चाहिए ताकि पानी का अपव्यय कम से कम हो सकते।

8.खरपतवार मुक्त खेत: खरपतवार गेंहूँ फसल के साथ प्रतियोगिता कर उपज को घटा देते है. अतः बुवाई के 35-40 दिनों तक खेत को खरपतवार मुक्त रखने का प्रयास करें। प्रथम सिंचाई के 10-12 दिन के अन्दर कम से कम एक बार निराई-गुड़ाई कर खरपतवार अवश्य निकाल दें। चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नष्ट करने के लिए बुवाई के 30 से 35 दिन बाद 1250 ग्राम 2,4-डी (वीडमार) रसायन प्रति हेक्टेयर की दर से 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें। संकरी एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण हेतु गेंहू की बुवाई के 30-35 दिन बाद पेंडीमेथालिन (स्टॉम्प) 2-3 लीटर या  सल्फो सल्फ्यूरान+ मेट सल्फ्यूरान (टोटल) 40 ग्राम पाउडर का 300 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें।

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