डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), इंदिरा
गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान
केंद्र, कांपा, जिला महासमुंद (छत्तीसगढ़)
दलहन यानी दालें प्रदान करने वाली फसलें सदियों से कृषि और भारतीय खानपान का अभिन्न हिस्सा रही है। प्राचीन काल से ही दाल-भात (चावल) और दाल-रोटी हमारे देशवासियों का सबसे प्रचलित भोजन रहा है और आज भी है। दाल रोटी खाओ-प्रभु के गुन गाओ बहुत पुरानी कहावत है। वास्तव दाल-रोटी हो या दाल-भात, बिना दाल-तडके के हमारे भोजन का जायका नहीं बनता है. दरअसल चावल या गेंहू के प्रोटीन में जो कमीं होती है, उसकी भरपाई दालों के प्रोटीन से हो जाती है और इसलिए चावल या रोटी के साथ दाल खाने से संतुलित भोजन का एहसास होता है। दालों में उपलब्ध प्रोटीन, आवश्यक अमीनो अम्ल,विटामिन तथा मिनरल्स के कारण इन्हें प्रोटीन टेबलेट्स और प्रकृति का अनमोल उपहार आदि विश्लेषणों से अलंकृत किया जाता है। विश्व भर में दालें इंसानों के लिए शाकाहारी प्रोटीन एवं एमिनो एसिड के महत्वपूर्ण स्त्रोत है। साथ ही जानवरों के लिए चारे के रूप में पादप आधारित प्रोटीन का स्त्रोत भी है। दालें खाध्य सुरक्षा और पोषण सुरक्षा के साथ-साथ टिकाऊ फसल उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। लेग्यूम या फलीदार फसलें जिनके सूखे दानों को उपयोग किया जाता है, दलहनी फसलें कहलाती है। दलहनी फसलें जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को भी सहन कर लेती है।
दालें हमारे दैनिक आहार की
प्रमुख खाद्य वस्तु है और मानव शरीर के लिए आवश्यक भी है क्योंकि इनमें प्रोटीन की
मात्रा सबसे अधिक होती है। प्रोटीन प्राप्ति का दूसरा स्त्रोत मांस है जिसे
शाकाहारी खा नहीं सकते हैं। इस प्रकार से भारतीयों के लिए दाल प्रोटीन का सबसे प्रमुख स्त्रोत है ।
हमारे भोजन का मुख्य अंग कार्बोहाइड्रेट है, जो
हमें चावल, गेहूँ इत्यादि अन्नों से स्टार्च के रूप में तथा
फलों से शर्करा के रूप में प्राप्त होता है। कार्बोहाइड्रेट का पाचन सरलता से हो
जाता है और इससे ऊर्जा प्राप्त होती है, किंतु मांसपेशी बनने,
शरीर की वृद्धि तथा पुराने ऊतकों को नवजीवन प्रदान करने में
कार्बोहाइड्रेट से कोई सहायता नहीं मिलती है। इन कार्यों के लिए प्रोटीन की
आवश्यकता पड़ती है। मांसाहारी जीवों को मांस से तथा शाकाहारियों को वनस्पतियों से
प्रोटीन प्राप्त होता है। दालें शाकाहारियों के लिए प्रोटीन का प्रमुख स्रोत हैं।प्रोटीन
के किसी भी दूसरे माध्यम की तुलना में इसमें कम वसा (फैट) होता है. इसके साथ ही ये
खनिज, विटामिन, एंटी-ऑक्सीडेंट और पाचन
क्रिया में मददगार फाइबर्स से परिपूर्ण होती है.
विभिन्न दलहनों का पोषक मान (प्रति 100 ग्राम मात्रा में)
प्रमुख दालें |
ऊर्जा (किलो कैलोरी) |
प्रोटीन (ग्राम) |
वसा (ग्राम) |
खनिज (ग्राम) |
कार्बोहाइड्रेट (ग्राम) |
रेशा (ग्राम) |
कैल्शियम (ग्राम) |
फॉस्फोरस (ग्राम) |
आयरन (ग्राम) |
चना |
360 |
17 |
5 |
3 |
61 |
4 |
202 |
312 |
5 |
चना दाल |
372 |
21 |
6 |
3 |
60 |
1 |
56 |
331 |
5 |
भुना चना |
369 |
22 |
5 |
2 |
58 |
1 |
58 |
340 |
9 |
अरहर दाल |
335 |
22 |
2 |
3 |
58 |
1 |
73 |
304 |
2 |
साबुत मूंग |
334 |
24 |
1 |
3 |
57 |
4 |
124 |
326 |
4 |
मूंग दाल |
348 |
24 |
1 |
3 |
60 |
1 |
75 |
405 |
4 |
उड़द दाल |
347 |
24 |
1 |
3 |
60 |
1 |
154 |
385 |
4 |
मसूर |
343 |
25 |
1 |
2 |
59 |
1 |
69 |
293 |
7 |
कुल्थी |
321 |
22 |
0 |
3 |
57 |
5 |
287 |
311 |
7 |
मोठ दाल |
330 |
24 |
1 |
3 |
56 |
4 |
202 |
230 |
9 |
हरी मटर |
93 |
7 |
0 |
1 |
16 |
4 |
20 |
139 |
1 |
सूखी मटर |
315 |
20 |
1 |
2 |
56 |
4 |
75 |
298 |
7 |
राजमा |
346 |
23 |
1 |
3 |
61 |
5 |
260 |
410 |
5 |
लोबिया |
323 |
24 |
1 |
3 |
54 |
3 |
77 |
414 |
9 |
सोयाबीन |
432 |
43 |
20 |
5 |
21 |
4 |
240 |
690 |
10 |
भारत में दलहन उत्पादन की
स्थिति
भारत दुनिया का सबसे
बड़ा दलहन उत्पादक देश होने के साथ दालों की खपत में भी पहले स्थान पर है। मांग के
मुकाबले खपत कहीं अधिक होती है। खाद्यान्न के मामले में हमारा देश आत्मनिर्भर तो
हो गया लेकिन अनाज वाली फसलों को जबर्दस्त प्रोत्साहन के चलते दलहन की खेती बुरी
तरह नजरअंदाज हो गई जिसके फलस्वरूप दालों का उत्पादन 1.7 करोड़ टन के इर्द-गिर्द ही
टिका हुआ है। जबकि बढती आबादी और सुधरते जीवन-स्तर के चलते दाल की मांग 2.5 करोड़
टन तक पहुँच गई है। दरअसल हमारे देश में
पिछले चार दशक से दलहनी फसलों के अंतर्गत न तो क्षेत्रफल और न ही उत्पादन के मामले
में ज्यादा वृद्धि हुई है। इन फसलों की उत्पादकता में भी अपेक्षित सुधार नहीं हो
पाया है। वर्ष 1970 में दलहन की उत्पादकता 524 किलो प्रति
हेक्टेयर थी जो वर्ष 2015 में मामूली बढ़त के साथ
744 किग्रा. प्रति हैक्टर हो पाई है जो विश्व के औसत से भी कम है। इसके
विपरीत पड़ोसी देश चीन में दलहन फसलों की उत्पादकता 1596 किलो तक पहुँच गई है.
बांग्लादेश और म्यांमार जैसे देशों की उत्पादकता के मुकाबले में भी हम पीछे है। संसार में दालों की खेती 7.06 करोड़ हेक्टेयर
क्षेत्र में की जाती है जिससे 6.15 करोड़ टन उत्पादन होता है। दलहनों की विश्व औसत
उपज 871 किग्रा.प्रति हेक्टेयर है जिसमे फ़्रांस सबसे अधिक दलहन (4219 किग्रा/हे.)
उत्पादन करता है। उसके बाद क्रमशः कनाडा (1936 किग्रा/हे.),संयुक्त राष्ट्र
अमेरिका (1882 किग्रा.) रूस (1643 किग्रा/हे.) एवं चीन (1596 किग्रा./हे.) का
स्थान आता है।
भारत में दालों का उत्पादन मांग की तुलना में
नहीं बढ़ रहा है। इससे बढ़ती जनसंख्या के कारण दलहनों की प्रति व्यक्ति खपत कम होती
जा रही है। वर्ष 2015-16 में देश में दालों का उत्पादन 164 लाख टन हुआ था । एक अनुमान के अनुसार देश में
दालों की वार्षिक खपत लगभग 225 लाख टन है
। अपनी खपत को पूरा करने के लिए भारत ने 2015-16 के दौरान 57.90 लाख टन दालों का
आयात किया गया । मांग और आपूर्ति में इसी अंतर की वजह से देश में दालों की कीमतें
निरंतर बढती जा रही रही है । इससे देश में दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता भी कम
होती जा रही है। वर्ष 1951 में प्रति व्यक्ति दालों की
उपलब्धता 60 ग्राम थी जो वर्तमान में में घट कर 37 ग्राम के आसपास आ गई जबकि अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार यह मात्रा 80 ग्राम होनी चाहिए । विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा विश्व खाद्य और कृषि
संगठन के अनुसार प्रति व्यक्ति प्रति दिन 104 ग्राम दालों की सस्तुति की गई है। भारत में वर्ष 2013-14 के दौरान 252
लाख हेक्टेयर (खरीफ-101 तथा रबी 151 लाख हे.) में दालों की खेती की गई जिससे 193
लाख टन उत्पादन प्राप्त हुआ. कुल खाद्यान्न क्षेत्र एवं उत्पादन में दलहनों की
भागीदारी क्रमशः 20 व 7.3 प्रतिशत बैठती है।
भारत में दलहनों का उत्पादन खरीफ की तुलना में रबी में अधिक होता है। औसत
उपज की दृष्टि से भी खरीफ (578 किग्रा/हे.) की तुलना में रबी की उत्पादकता (790 किग्रा./हे.) अधिक आती है। भारत में सबसे
ज्यादा (77 %) दलहन उत्पादन करने वाले राज्यों में मध्य प्रदेश (24 %), उत्तर प्रदेश(16%),
महाराष्ट्र(14%), राजस्थान(6%), आन्ध्र प्रदेश (10%)
और कर्नाटक (7 %) राज्य है । शेष 23 प्रतिशत उत्पादन में गुजरात, छत्तीसगढ़, बिहार, उड़ीसा और झारखण्ड राज्यों की हिस्सेदारी है । भारत में मुख्य रूप से उगाई जाने वाली दलहनी फसलों
में चना (41%),अरहर (15%),उड़द (10%),मूंग (9%),लोबिया (7%),मसूर एवं मटर (5 %) है। इसके अलावा राजमा,कुल्थी,खेसारी,ग्वार आदि दलहनी
फसलों की भी खेती की जाती है। देश में प्रति
व्यक्ति कम से कम दालों की न्यूनतम उपलब्धतता 50 ग्राम प्रति दिन तथा बीज आदि के
लिए 10 % दलहनें उपलब्ध करने के उद्देश्य से वर्ष 2030 तक 3.2 करोड़ टन दलहन
उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है जिसके लिए हमें वार्षिक उत्पादन में 4.2 प्रतिशत
प्रतिवर्ष की बढ़ोत्तरी प्राप्त करनी होगी । इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है की दलहनी फसलों की
खेती भी अच्छी भूमि में बेहतर सस्य प्रबंधन के आधार पर करनी होगी।
क्यों जरुरी दलहनों की खेती ?
भारतीय कृषि पद्धति में दालों
की खेती का महत्वपूर्ण स्थान है। दालें हमारा ही नहीं मिट्टी का भी पोषण करती है। दलहनी
फसलें भूमि को आच्छाद (Cover)
प्रदान करती है जिससे भूमि का कटाव (Soil
erosion) कम होता है।
दलहनों में नत्रजन स्थिरिकरण (Nitrogen
fixation) का नैसर्गिक गुण होने
के कारण वायुमण्डलीय नत्रजन का अपनी जड़ो में सिथर करके मृदा उर्वरता को भी बढ़ाती
है। इनकी जड़ प्रणाली मूसला (tap root system) होने के
कारण कम वर्षा वाले शुष्क क्षेत्रों में भी इनकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है। इन
फसलों के दानों के छिलकों में प्रोटीन के अलावा फॉस्फोरस अन्य खनिज लवण काफी
मात्रा में पाये जाते है जिससे पशुओं और मुर्गियों के महत्वपूर्ण रातब (Concentrate)
के रूप में इनका प्रयोग किया जाता है। दलहनी फसलें हरी खाद के रूप में प्रयोग की
जाती है जिससे भूमि में जीवांश पदार्थ (Organic
matter) तथा नत्रजन की
मात्रा में बढ़ोत्तरी होती है। दालों के अलावा इनका प्रयोग मिठाइयाँ,
नमकीन आदि व्यंजन बनाने मे किया जाता है। इन फसलों की खेती सीमान्त
और कम उपजाऊ भूमियों मे की जा सकती है। कम अवधि की फसलें होने के कारण बहुफसली
प्रणाली (Multiple cropping)
मे इनका महत्वपूर्ण योगदान है जिससे अन्न
उत्पादन बढ़ाने में दलहनी फसलें सहायक सिद्ध हो रही है।
दलहन
उत्पादन बढाने में मुख्य बाधाएं
भारत में दालों का उत्पादन
बढ़ाने में मुख्य बाधाएं -प्रतिकूल मौसम, असामन्य भूमि, जैविक कारक, उन्नत किस्मों
व प्रमाणित बीज का अभाव, सस्य क्रियाओं को न अपनाना आदि है. दलहन उत्पादन के
प्रमुख कारकों या बाधाओं का विवरण यहां प्रस्तुत है:
1.जलवायु सम्बन्धी कारक ¼Climatic factors½
दलहनी फसलें जलवायु के प्रति
अति संवेदनशील होती है। सूखा, पाला, निम्न और उच्च तापमान, जल मग्नता का दलहनों पर
प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भारत में 87 प्रतिशत क्षेत्र में
दहलनों की खेती वर्षा पर निर्भर करती है। उत्तरी भारत में पाले के प्रकोप से
दहलनों विशेषकर अरहर, चना, मसूर,
मटर आदि की उत्पादकता कम हो जाती है। राजस्थान और मध्य प्रदेश में
सूखे के प्रकोप से दलहन उत्पादन कम होता है।परम्परागत रूप से दलहनों की खेती वर्षा
के भरोसे व कम उपजाऊ जमीनों में की जाती है जहां पर पानी का भी उचित प्रबंध नहीं होता
है।
2. उच्च उपज वाली किस्मों ¼HYV½ का अभाव
दहलनें प्रचीन काल से ही
सीमान्त क्षेत्रों में उगाई जाती रही है तथा आज भी व्यसायिक फसलों की श्रेणी में न
आने के कारण, इन फसलों पर शोध कार्य सीमित
हुआ है । खाद्यान्न फसलों की भांति अभी तक दलहनी फसलों की उन्नत फसलों का विकास
नहीं हुआ है। खाद्यान्न की अपेक्षा दलहनी फसलों पर कीट-व्याधियों का अधिक प्रकोप
होता है। कीट-रोग प्रतिरोधी उन्नत किस्में उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं। इसके अलावा
सूखा एवं पाला अवरोधी किस्मों का भी अभाव होने के कारण विषम जलवायु में दलहनों की
पैदावार कम प्राप्त होती है ।
3. अवैज्ञानिक सस्य प्रबन्ध¼Unscientfic agro-mangement½
दलहनों की खेती बहुधा किसान
अवैज्ञानिक ढंग से करते है जिसके कारण वांछित उपज नहीं मिलती है। प्रमुख सस्य
प्रबन्ध कारण निम्न हैं-
(अ) खराब प्रबन्ध स्तर: शुष्क और
सीमान्त क्षेत्रों के किसानों की आर्थिक दशा अच्छी नहीं होती है जिससे वे उन्नत
किस्म के बीज, उर्वरक आदि का प्रयोग नहीं कर
पाते हैं। इसके अलावा फसलो में जल प्रबन्ध, खरपतवारों,
कीट - रोगो का प्रबन्धन भी
नहीं हो पाता है जिसके कारण उत्पादकता कम आती है।
(ब) राइजोबियम जीवाणुओं के संवर्ध
की अनुपलब्धता ¼Rhizobium culture½:
दलहनी फसलों के लिए अलग-अलग जीवाणु संवर्ध की आवश्यकता होती है,
परन्तु सभी दलहनों के जीवाणु संवर्ध अभी तक उपलब्ध नहीं है। इसके
अलावा राइजोबियम जीवाणुओं के लिए उचित तापक्रम नियंत्रक न होने के कारण, ज्यादातर संवर्धन (culture) प्रभावहीन हो जाते हैं जिससे वांछित परिणाम
प्राप्त नहीं हो पाते हैं।
(स) असमय बुआई ¼Untimely sowing½:
सिंचाई सुविधा न होने के कारण प्रायः दलहनी फसलो की अगेती बोआई की जाती है जिसके
कारण दलहनो की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है तथा उत्पादन कम हो पाता है।
(द) दोषयुक्त बुआई विधि ¼Faulty method of sowing½:
आमतौर पर दलहनी फसलों की बुआई छिटकवाँ विधि से की जाती हैं जिसके कारण बीज अंकुरण
एक सार नहीं हो पाता है और प्रति इकाई ईष्टतम पौध संख्या स्थापित नहीं हो पाती है।
निंदाई-गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण भी ठीक से नहीं हो पाता हैं,
जिससे फसल उत्पादन कम प्राप्त होता है।
(इ) अक्षम कीट व रोग नियंत्रण (Plant protection):
दलहनी फसल में प्रोटीन पदार्थ अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक होने से वे सरस होते हैं
जिसके कारण कीट रोग अधिक लगता है। सीमान्त क्षेत्रों के किसान आर्थिक तंगी और
अज्ञानता के कारण पौध संरक्षण उपायों को नहीं अपनाते हैं,
जिससे उपज में भारी कमी आती है।
4. जैविक कारण ¼Biological factors½
(अ) दलहनी पौधों की प्रकृति
असीमित वृद्धि (Inditerminate
growth habit) वाली होती
है जिसके कारण पौधे के अग्र भाग की वृद्धि सतत् रूप से चलती है तथा पत्तियों के
कक्ष में फूल और फलियों का निर्माण भी होता रहता है। इससे नीचे वाली फलियों के पकने
के समय ऊपर वाली फलियाँ अपरिपक्व रहती हैं तथा ऊपर वाली फलियों के पकने तक नीचे
वाली फलियों के दाने झड़ने लगते हैं। इस प्रकार से उपज में भारी कमी आती है।
(ब) दलहनी फसलें प्रकाश व ताप के
प्रति अति संवेदनशील (photo-thermo
sensitive) होती हैं अर्थात् इनमें पुष्पन की
क्रिया मौसम एवं जलवायु पर आधारित होती है। वर्षा पोषित क्षेत्रों (rainfed area)
में संचित नमी का उपयोग करने प्रायः बोआई जल्दी कर दी जाती है,
जिससे फसल की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है। पौधे प्रकाश
संवेदी ¼Photosensitive½ होने के
कारण उनमें पुष्पन ¼Flowering½ तभी होता
है जब उन्हें उचित प्रकाश व ताप उपलब्ध होता है। इसके विपरीत देर से बोआई करने पर
फसल की वानस्पतिक वृद्धि काफी कम हो पाती है, क्योंकि
जैसे ही पौधों को उपयुक्त मौसम प्राप्त होता है, उनमें
पुष्पन हो जाता है। इस प्रकार से दोनों ही
परिस्थितियों में उपज प्रभावित होती हैं।
(स) धान्य फसलें स्टार्च की पूर्ति
के लिए उगाई जाती है, जबकि दलहनी फसलें
प्रोटीन से भरपूर बीजों के लिए उगाई जाती है। प्रोटीन के निर्माण में फसल को
ज्यादा ऊर्जा व्यय करनी पड़ती है और फोटोसिंथेट की अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है,
जबकि स्टार्च उत्पादन में इसकी कम आवश्यकता पड़ती है इसलिए दलहनी
फसलों की उत्पादकता तथा कटाई सूचकांक (harvest index)
धान्य फसलों की अपेक्षा कम होता है।
(द) दलहनी फसलों में फूलों का
झड़ना ¼Flower shading½
एवं फलियों के चटकने ¼Pod shattering½ जैसी पैतृक
बाधांये विद्यमान होती हैं, जो निश्चय ही इनकी
उत्पादकता कम करती हैं। दलहनी फसलो में कीट-व्याधियों का प्रकोप भी अधिक होता है।
5.
संस्थागत कारण: दहलनों की
क्षेत्रवार उत्पादन तकनीक तथा उपलब्ध तकनीक का प्रसार न होने के काररण किसान
परंपरागत विधि से ही इनकी खेती करते आ रहे है। उन्नत किस्म के कृषि यत्रो (बोआई
एवं गहाई यंत्र) का अभाव है। भंडारण की उचित व्यवस्था का अभाव बना हुआ है। दलहनों
मे प्रोटीन की अधिकता होने के कारण भंडारण के समय भी इनमे कीट - रोग का प्रकोप
अधिक होता है। भंडारण की उचित व्यवस्था न होने तथा दाल मिलों की कमीं होने के कारण कटाई के बाद भी दलहनो को कीट -
व्याधियो से क्षति पहुँचती है जिससे दालो की उपलब्धता घटती है।
6.
सामाजिक बाधायें: सीमान्त
क्षेत्रो के किसानों मे यह आम धारणा रहती है कि दलहनों की खेती लाभकारी नहीं है।
इसलिए इनकी खेती अनुपजाऊ भूमियो में बगैर खाद - उर्वरक के की जाती है। इसके अलावा
दलहनों को ज्यादातर क्षेत्रों में मिश्रित फसल के रूप में उगाया जाता है। इससे
इनकी उपज कम प्राप्त होती है।
दलहन उत्पादन बढ़ाने के आवश्यक उपाय
खाद्यान्न उत्पादन के
मामले में भारत ने न केवल आत्मनिर्भरता हासिल कर ली है, अपितु
खाद्यान्न के सुरक्षित भण्डार की व्यवस्था भी कर ली है । दलहन व तिलहनी फसलों के
उत्पादन में बढ़ोत्तरी करने के उद्देश्य से अब फसल विविधीकरण पर किसानो का ध्यान
आकर्षित किया जा रहा है। राज्योदय के बाद से छत्तीगढ़ में भी फसल विविधीकरण योजना
के तहत उच्चहन भूमि पर दलहन तिहलन फसलें लगाने किसानों कोे प्रेरित किया जा रहा है,
जिसके उत्साहजनक परिणाम सामने आ रहे है। उपलब्ध नवीन तकनीक के
माध्यम से छोटे किसान भी शत - प्रतिशत उत्पादन बढ़ा सकते है। दलहन उत्पादन बढ़ाने की
दिशा में निम्न उपाय सार्थक हो सकते हैं -
1.प्राचीन काल से ही उन्नत बीज कृषि का महत्वपूर्ण अंग रहा है। उर्वरा भूमि के बाद कृषि के लिए ऋषि ने उन्नत
बीज को ही महत्व दिया है। उन्नत बीज केवल शुद्ध किस्मो से प्राप्त होता है और
स्वस्थ बीज से ही उत्तम फसल मिलसकती है। देशी किस्मों की तुलना मे उन्नत किस्मों
से उपज को दोगुना किया जा सकता है।
वर्तमान में नये बीजों द्वारा पुराने बीजों का विस्थापन अनुपात (Seed replacement ratio) 7 प्रतिशत ही है, जो कम से कम 15 - 20 प्रतिशत होना चाहिए। अतः दलहनों का उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्नत बीजों की
समय पर उपलब्धता सुनिश्चित करना आवश्यक है।
2. प्रकाश एवं ताप असंवेदी किस्मो (photo-thermo insensitive
varieties) के विकास की आवश्यकता है जिनमें फसल
की परिपक्वता एक साथ हो सके ।
3. किसानों को सही समय पर आवश्यक
गुणवत्तायुक्त आदान जैसे उर्वरक, राइजोबियम कल्चर, बीज, उपकरण
आदि उचित दर पर उपलब्ध कराने से दलहनों के क्षेत्र विस्तार की सम्भावना है ।
4.दलहनी फसलों की बोआई छिंटकवाँ विधि से न करके कतारो में की जानी चाहिए
तथा आवश्यकतानुसार खरपतवार, कीट और रोग नियंत्रण के उपाय
अपनाये जाने चाहिए।
5. वर्तमान मे प्रति इकाई दलहनों की पैदावार काफी कम है। उन्नत विधि से
खेती करके उपज में प्रति हेक्टेयर 2 से 4 क्विंटल की बढ़त की जा सकती है जिससे राष्ट्रीय उपज व प्रति व्यक्ति
उपलब्धता में बढ़ोत्तरी हो सकती है। क्योंकि अनुसंधानों में ही नहीं बल्कि किसानों
के खेतों पर डाले गये प्रदर्शनों में अरहर में 58 व मूंग की उपज में 55 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है।
6. धान्य फसलो के साथ दलहनों की बहुफसली पद्धति व अंतः फसली खेती करके
अतिरिक्त लाभ कमाया जा सकता है।
7.धान के खेतों की मेड़ पर 2 से 4 कतारे अरहर (तुअर) की लगाकर बोनस उपज का लाभ लिया जा सकता है।
8. खरीफ और रबी फसलों के बीच सिंचित क्षेत्रों में मूंग, उड़द, लोबिया आदि की खेती करने से दलहन उत्पादन बढ़ने के साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति में भी
सुधार हो सकता है ।
9. दलहनी फसलों में 1-2 सिंचाई देने से अधिक उत्पादन
एवं लाभ प्राप्त किया जा सकता है ।
10.खरीफ ऋतु में लगाई जाने वाली दलहनी फसलों के लिए खेत में जल निकास की
उचित व्यवस्था करने से पौध वृद्धि एवं विकास अच्छा होने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है
। अधिक वर्षा या जल भरावसे दलहनी फसले
क्षतिग्रस्त हो जाती है. कीट रोग का प्रकोप भी अधिक होता है ।
11. दलहनी फसलें कीट-रोग प्रकोप के प्रति अधिक संवेदनशील होती है। इनके
प्रकोप से उपज में भारी गिरावट होती है । अतः समय पर पौध संरक्षण के आवश्यक उपाय
अपनाने से उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है ।
12.दलहनों की समर्थन मूल्य पर खरीदी करने की व्यापक व्यवस्था करने तथा दलहनों
के प्रसंस्करण की सुविधा एवं भंडारण की उचित व्यवस्था करने से दलहनों की खेती को
बढ़ावा मिल सकता है।
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