डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज
मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं
अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
दलहन हमारे देश की खाद्य
सामग्री में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जलवायु परिवर्तन के दौर में टिकाऊ खेती, मृदा की उर्वराशक्ति को कायम रखने और पोषण
सुरक्षा में दलहनी फसलों का अति
महत्वपूर्ण योगदान है। भारत की बहुसंख्यक शाकाहारी आबादी की प्रोटीन, खनिज एवं विटामिन्स
की प्रतिपूर्ति हेतु दैनिक भोजन में दालों का समावेश आवश्यक रहता है। विश्व में
सबसे ज्यादा क्षेत्र में दलहनी फसलों की खेती करते हुए सबसे बड़े उत्पादक देश (वैश्विक उत्पादन का 25%) होने पर हम हर्षित
भले ही हो सकते है परन्तु गर्वित बिल्कुल नहीं हो सकते क्योंकि कृषि प्रधान
देश होने के बावजूद हमें अपनी घरेलु
आवश्यकता की पूर्ति हेतु औसतन 40 लाख टन दालों का आयात विदेशों से करना पड़ता है।
भारत में प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्धता वर्ष 1951 में 60
ग्राम थी जो वर्तमान में
घटकर 41-42 ग्राम के आसपास आ गई है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह
मात्रा 80 ग्राम प्रति दिन प्रति व्यक्ति होनी चाहिए। दूसरी तरफ विश्व स्वास्थ्य संगठन
तथा विश्व खाद्य और कृषि संगठन ने प्रति व्यक्ति प्रति दिन 104 ग्राम दालों की संस्तुति की है।
चना फोटो साभार गूगल |
भारत
सरकार, कृषि विभाग और कृषि वैज्ञानिकों के तमाम प्रयासों के बावजूद भी दालों की खपत
(22-26 मिलियन टन) के विरुद्ध दलहनी फसलों का उत्पादन पिछले 10-12 वर्षो से 18-20
मिलियन टन पर टिका हुआ है जिसके परिणामस्वरूप घरेलू खपत की पूर्ति हेतु प्रति वर्ष
4-6 मिलियन टन दालें विदेशों से आयात करनी
पड़ती है। यधपि इंद्र देव की मेहरवानी से पिछले 2-3 वर्षो से मानसून अच्छा रहने एवं
सरकार द्वारा की गई विभिन्न नीतिगत पहलों के परिणामस्वरूप मौजूदा वर्ष 2017-18
के दौरान दलहनों का कुल उत्पादन रिकॉर्ड 23.95
मिलियन टन अनुमानित है, जो विगत वर्ष के दौरान प्राप्त 23.13 मिलियन टन
उत्पादन की तुलना में 0.82 मिलियन टन अधिक है । परन्तु अभी भी हम यह नहीं
कह सकते है कि दलहन उत्पादन के मामले में हमारा देश आत्म निर्भर हो गया है। भारतीय
दलहन शोध संस्थान के अनुसार वर्ष 2030 तक देश की जनसंख्या 1.6
बिलियन पँहुच जायेगी और उसे 32 मिलियन टन
दालों की आवश्यकता पडेगी । इस लक्ष्य के अनुसार देश को प्रतिवर्ष दलहन के उत्पादन
मे 4.2% बढोत्तरी करने की जरूरत है । भारत में खरीफ एवं रबी
में क्रमशः 143.41 एवं 149.36 लाख
हेक्टेयर क्षेत्र में दलहनों की खेती प्रचलित है जिनसे 636 एवं 889 किग्रा.प्रति हेक्टेयर
की दर से उत्पादन प्राप्त किया जाता है। रबी दलहनों में चना की खेती सर्वाधिक क्षेत्रफल 95.39 हजार लाख
हेक्टेयर में हुई जिससे 951 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से 90.75 लाख टन उत्पादन
हुआ. हमारे देश में चने की औसत उपज विश्व औसत (982 किग्रा. प्रति हेक्टेयर) से तो अधिक
है परन्तु चीन (3759 किग्रा.), इजराइल (3559 किग्रा.) एवं अन्य देश हमसे 4 गुना
अधिक उपज ले रहे है। रबी की दूसरी
महत्वपूर्ण दलहन मसूर है जिसकी खेती 12.76 हजार लाख हेक्टेयर में हो रही है
जिससे 765 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से 9.76 लाख टन
उत्पादन लिया जा रहा है। विश्व औसत उपज (1067 किग्रा./हेक्टेयर) की अपेक्षा हमारे देश में
मसूर की औसत उपज बहुत ही कम है। मसूर की औसत उपज के मामले में हम क्रोएशिया (2862
किग्रा.), न्यूजीलैंड (2469 किग्रा.) जैसे अनेक देशों से काफी पीछे है। रबी की तीसरी दलहनी फसल मटर है, जिसे 9.03 हजार
लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बोया जाता है तथा 821
किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से 7.42 लाख टन उत्पादन प्राप्त होता है । मटर की विश्व औसत उपज (1614 किग्रा. प्रति हेक्टेयर) की अपेक्षा हमारे देश के किसान आधी उपज ले पा रहे है। जबकि प्रति हेक्टेयर औसत उपज
के मामले में आयरलैंड (5000 किग्रा.), नीदरलैंड (4766 किग्रा.) एवं डेनमार्क (4048
किग्रा.) हमसे बहुत आगे है।
हमारे देश और दलहन उत्पादक प्रदेशों में औसत उपज कम
होने के मुख्य कारण है : (i) अधिक उपज देने वाली कीट रोग प्रतिरोधी किस्मों की
कमीं एवं उपलब्ध किस्मों का न्यूनतम प्रसार, (ii) सीमान्त और असिंचित भूमियों में
अवैज्ञानिक तरीके से खेती करना (iii) उर्वरकों एवं राईजोबियम कल्चर का प्रयोग नहीं
करना तथा (iv) पौध सरंक्षण यथा खरपतवार,कीट-रोग प्रबंधन पर ध्यान नहीं देना । छत्तीसगढ़ में चने की खेती 280.93 हजार हेक्टेयर में हो रही है जिससे 779 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से 218.85 हजार टन उत्पादन लिया जा रहा है। मटर के अंतर्गत 12.84 हजार हेक्टेयर क्षेत्र है जिससे 361 किग्रा.प्रति हेक्टेयर के औसत से 4.63
हजार टन उत्पादन लिया गया.
मसूर फसल की खेती 16.63 हजार
हेक्टेयर में की जा रही है जिससे 334 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से 5.55 हजार टन उत्पादन लिया जा रहा है। जाहिर है,
राष्ट्रिय औसत उपज की तुलना में प्रदेश के
किसान चना, मसूर और मटर की बहुत कम उपज ले पा रहे है, जिसके 2-3 गुना बढाने की
व्यापक संभावनाएं है। भारत में बढती आबादी की आवश्यकता को देखते हुए
एक तरफ हमें दलहनी फसलों की औसत उत्पदकता में वृद्धि करनी होगी और दूसरी तरफ धान
उत्पादक राज्यों विशेषकर छत्तीगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल आदि में धान के बाद पड़ती (फैलो) पड़ी भूमियों (करीब 12 मिलियन हेक्टेयर) में रबी दलहनों की
खेती को बढ़ावा देना होगा तभी हम देश को खाद्यान्न की भांति दलहनों के मामले में भी
आत्म निर्भर बना सकते है जिसके परिणामस्वरूप
देश की जनता को खद्यान्न और पोषण सुरक्षा मुहैया की जा सकती है. वर्तमान
में भारत के प्रमुख दलहन उत्पादक राज्यों की औसत उपज, किसानों के खेत की उपज और
वैज्ञानिकों द्वारा किसान के खेतों पर डाले गए प्रक्षेत्र प्रदर्शनों की उपज के
बीच बहुत बड़ी खाई (गैप) विद्यमान है, जिसे पाटना आवश्यक है। दलहनों का प्रति इकाई
उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों को उन्नत
किस्मों के प्रमाणित बीज की उपलब्धता,सामयिक बुआई के साथ पर्याप्त पौधों की संख्या, राइजोबियम कल्चर तथा कवकनाशियों से
बीजोपचार, खरपतवार प्रबन्धन तथा फसल सरंक्षण पर
आवश्यक ध्यान देना जरुरी है । इस ब्लॉग में रबी ऋतु की प्रमुख दलहन चना, मसूर और
मटर फसलों की उपज बढ़ाने हेतु कारगर तकनीक प्रस्तुत है :
मसूर फोटो साभार गूगल |
चना, मटर एवं मसूर की खेती अच्छे
जल निकास वाली बलुई दोमट से चिकनी दोमट भूमि में सफलता पूर्वक की जा सकती है।
खेत की मिटटी का पी.एच. मान 6.5 से 7.5 के
मध्य होना चाहिए। गेंहू की तरह इन फसलों को बहुत अच्छी प्रकार से तैयार किए गए
खेत की जरुरत नहीं होती है। एक गहरी जुताई
के बाद कल्टीवेटर से खड़ी-आड़ी जुताई कर पाटा लगाकर बुआई हेतु खेत तैयार हो जाता है। चने के खेत में छोटे-मोटे ढेले रहने से पौधो का विकास अच्छा होता है। इन फसलों की दीमक एवं कट वर्म से सुरक्षा हेतु
1.5% क्युनालफ़ॉस या पारथिऑन चूर्ण 25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से आखिरी जुताई
के साथ खेत में मिला देवें. दलहनी फसलों की उतेरा पद्धति से बुआई करने हेतु किसी भी प्रकार की कर्षण क्रिया की आवश्यकता नहीं
होती। जल के सरंक्षण एवं जल उपयोग की कुशलता में वृद्धि करने हेतु मेड़ एवं नाली
बनायें। जहाँ बहुत अधिक वर्षा होती है, उठी
हुई शैय्या बनाकर मेड़ एवं नाली बनाकर बोना एक आदर्श बुआई विधि है। धान- चना/मसूर
फसल प्रणाली में शून्य जुताई पद्धति से चना,मटर एवं मसूर की बुआई लाभकारी पाई गई
है ।
2. उन्नत
किस्में के बीज का प्रयोग
विभिन्न दलहनी फसलों की व्यापक क्षेत्रों के
अनुकूल उच्च उत्पादन क्षमता वाली प्रजातियों के इस्तेमाल से दलहनों की उत्पादकता में आशातीत बढ़ोत्तरी हो सकती
है । भारत में अभी भी 20-30 प्रतिशत किसान ही दलहनों की उन्नत किस्मों के बीज का
इस्तेमाल कर रहे है। अतः इन फसलों की उन्नत कीट रोग प्रतिरोधी किस्मों के बीज की
समय पर उपलब्धता एवं किसानों द्वारा उपयोग किया जाना बेहतर उपज के लिए निहायत
जरुरी है. मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के
लिए चना, मसूर एवं मटर की प्रमुख उन्नत
किस्मे है:
चना: देसी
किस्मों में जे.जी.-315, जे.जी.-16, गुजरात चना-1,
बी.जी.डी.-72, बी जी-391, विजय, पूसा-372, जे.जी.-14, जे.जी.-2, विशाल,जे.ए.के.आई.-9218, वैभव, इंदिरा
चना-1, दिग्विजय, जे.एस.सी.-55, जे.एस.सी.-56, जवाहर चना गुलाबी-1 तथा काबुली
चने की शुभ्रा, जे.जी.के.-2,
के.ए.के.-2, उज्ज्वल, फूले
जी.-0517, पी.के.वी. काबुली-4 उपयुक्त
किस्में है.
मसूर:लेन्स-4076,नूरी(आई.पी.एल.-81),जवाहर मसूर-3,शिवालिक(एल.-4076), जे.एल.-1, आई.पी.एल.-316,
आर.बीएल.-31, शेरी (डी.पी.एल.-62) आदि अधिक
उत्पादन देने वाली किस्मे है।
मटर: अम्बिका,
पारस, प्रकाश(आई.पी.एफ.डी.1-10), विकास (आई.पी.एफ.डी.99-13),आदर्श
(आई.पी.एफ. डी.99-25), के.पी.एम.आर.-400,
जे.पी.-885, आई.पी.एफ.डी. 10-12, सपना, शुभ्रा, इंदिरा मटर-1 आदि के इस्तेमाल से अधिकतम उत्पादन लिए जा सकता
है।
3. बीज सुरक्षा कवच हेतु जरुरी है बीजोपचार
कीट-रोग से रक्षा हेतु बुआई से
पूर्व बीज पर सुरक्षा कवर चढ़ाना आवश्यक रहता है जिसके लिए बीजों को कार्बेन्डाजिम+थीरम
(1+2 ग्राम/किग्रा. बीज) अथवा ट्राइकोडर्मा 4 ग्राम/किग्रा. बीज से उपचारित करें। बीजों की कीड़ो-मकोड़ों से
सुरक्षा हेतु क्लोरोपाइरीफ़ॉस 20 ई सी 6 मिली. प्रति किलो ग्राम बीज की दर से
उपचारित करें । दलहनी फसल के बीज का
राइजोबियम कल्चर से उपचार करने से इन
फसलों की जड़ों में नत्रजन स्थिरीकरण की क्षमता बढ़ जाती है जिससे भूमि की उर्वरा
शक्ति एवं उपज में बढ़ोत्तरी होती है। राइजोबियम कल्चर 200 ग्राम प्रति 5 पॉकेट प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है.
उपचार हेतु 100 ग्राम गुड़ को एक लीटर पानी में घोलकर हल्का गरम कर लेने के पश्चात
ठंडा होने पर इस घोल में पांच पॉकेट उक्त कल्चर के अच्छी प्रकार से मिलाये. इस घोल
में संस्तुत बीज दर (80 किग्रा.) को भली भांति मिला देवे जिससे बीज के ऊपर एक परत
बन जाये. इसके बाद उपचारित बीज को छाया में सुखाकर शीघ्र बुआई संपन्न करें।
फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ाने हेतु बीज को फास्फेट घुलनशील जीवाणु (15-20 ग्राम प्रति किग्रा. बीज) से उपचारित करना चाहिए
अथवा 4 किग्रा. पी.एस.बी. को 50 किग्रा. कम्पोस्ट में मिलकर खेत में बुआई पूर्व
इस्तेमाल किया जा सकता है। बीजोपचार हेतु फफूंदीनाशक-कीटनाशक एवं राइजोबियम कल्चर
के क्रम का पालन करना चाहिए।
4. अधिक उपज के लिए समय पर बुआई
रबी दलहनों से अधिकतम उपज लेने के लिए सही समय पर
इनकी बुआई करना आवश्यक होता है। अगेती बुआई से कीट रोगों का अधिक आक्रमण होता है
क्योंकि बुआई के समय तापमान अधिक रहने से पौधों की असाधारण वृद्धि हो जाती है जिससे
उपज में गिरावट हो जाती है. विलंब से बुआई करने पर दाना भरते समय तापक्रम बढ़ने से
उपज और गुणवत्ता में भारी कमी हो जाती है ।
अतः इन फसलों की उपयुक्त समय पर बुआई करना लाभकारी रहता है. असिंचित क्षेत्रों में
चना, मसूर और मटर की बुआई 15 अक्टूबर तक संपन्न कर लेना चाहियें । सिंचाई की
सुविधा वाले क्षेत्रों में इन फसलों की बुआई 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक संपन्न कर लेने से
अच्छा उत्पादन प्राप्त होता है। नमी की कमी होने की अवस्था में मध्य अक्टूबर बुआई
का उपयुक्त समय है। धान से खाली हुए
क्षेत्रों में उतेरा पद्धति में बुवाई हेतु बीज दर 15-20 % बढ़ा देनी चाहिए।
5. सही बीज-दर एवं उचित पौध संख्या
बुआई हेतु बीज शुद्ध,
रोग मुक्त तथा 90-95 % अंकुरण क्षमता वाला होना चाहिए। चने की छोटे दाने वाली किस्मों (12-15 ग्राम/100 दाने) हेतु 80 किग्रा.
प्रति हेक्टेयर तथा मध्यम व बड़े दानों
वाली किस्मों (25 ग्राम/100 दाने) हेतु
100 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई करना
करना चाहिए । मसूर की छोटे दानों वाली किस्मों
के लिए 40-45 किग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा बड़े दाने वाली किस्मों के लिए 55-60 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता है। मटर के छोटे दाने वाली
प्रजातियों के लिए बीज दर 50-60
कि.ग्रा./हे. तथा बड़े दाने वाली किस्मों के लिए 80-90 किग्रा. प्रति हेक्टेयर पर्याप्त है । इन
फसलों की मिश्रित फसल के रूप में बुआई के लिए अनुशंसित बीज की आधी मात्रा का
इस्तेमाल करें।
इन दलहनी फसलों की बुआई कतारों
में करने से निराई-गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण में सुविधा रहती है, बीज की मात्रा
कम लगती है तथा उपज अधिक प्राप्त होती है।
चने में बुआई की दूरी 30 सेमी. x 10 सेमी. रखें । बीज की बुआई 5-6 सेमी. से अधिक नहीं होनी चाहिए।
सिंचित क्षेत्रों में चने की कतारों के मध्य 45 सेमी. की दूरी रखना लाभकारी पाया
गया है। पौध संख्या चना में 33-40 पौधे/ वर्ग मी.,
मसूर में 80
पौधे/ वर्ग मी. तथा मटर की ऊँची प्रजातियों हेतु 20-22 पौधे/ वर्ग मी. तथा बौनी
प्रजातियों हेतु 33-40 पौधे/ वर्ग मी. संख्या उपयुक्त रहती है। धान के कटने के
बाद नो-टिल सीड ड्रिल की सहायता से चना/मसूर/मटर की बुआई करने और धान की पुआल की पलवार खेत में
छोड़ने पर मृदा में नमी का पर्याप्त सरंक्षण
होता है और चना की उपज में वृद्धि होती है।
6. संतुलित मात्रा में उर्वरक प्रयोग
दलहनी फसल होने के कारण चना,
मसूर और मटर को अधिक खाद-उर्वरक की आवश्यकता नहीं होती है । मृदा परीक्षण उपरान्त
खेत में पोषक तत्वों की उपलब्धता के आधार पर खाद एवं उर्वरकों की मात्रा का
निर्धारण करना लाभदायक होता है। सामान्य उर्वरा शक्ति वाले खेतों में नाइट्रोजन 20 किग्रा. (44 किग्रा. नीम लेपित यूरिया), फास्फोरस 40 किग्रा. (250 किग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट), पोटाश 25 किग्रा. (42 किग्रा. म्यूरेट
ऑफ़ पोटाश) प्रति हेक्टेयर का खेत की अंतिम जुताई के समय व्यवहार करें । फली बनते समय अथवा देर से बोई गई फसल में शाखाओं के बनते समय 2 % यूरिया अथवा डी.ए.पी. के घोल का छिड़काव करने से समुचित
पैदावार मिलती है। मृदा में विशिष्ट सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी होने पर 15-20 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट/हे. तथा 1-1.5 किग्रा. अमोनियम मौलिब्डेट के प्रयोग की संस्तुति की जाती है।
7. जीवन रक्षक सिंचाई
यदि बुआई के समय भूमि में पर्याप्त नमीं है तो
आरंभ में पानी नहीं देना चाहिए क्योंकि इससे एक तो जड़ों में गांठे बनने में रूकावट
आती है और दूसरा जड़ों को पर्याप्त ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं हो पाती है। हल्की मृदाओं
में इन फसलों में शाखाऐं निकलते समय तथा फली बनते समय 1-2 सिचाई देने से फसल उत्पादकता में आशातीत वृद्धि होती है।
फूल आने की अवस्था में सिचाई नहीं करनी चाहिए अन्यथा फूलों के गिरने तथा अतिरिक्त
वानस्पतिक वृद्धि होने की समस्या उत्पन्न हो सकती है। दलहनी फसलों में फव्वारा विधि से सिचाई करना सर्वोत्तम
है। इन फसलों के खेत में पानी नहीं भरना चाहिए अतः खेत में जल निकासी की उचित व्यवस्था करना आवश्यक है।
8. आवश्यक है खरपतवार प्रबन्धन
उत्पादकता में कमी को रोकने
हेतु फसलों को खरपतवारों से मुक्त रखना
आवश्यक है। चना फसल की बोआई के 30
- 60 दिनों तक खरपतवार फसल को अधिक हानि पहुँचाते हैं। ऐसा देखा गया
है कि समय पर खरपतवार नियंत्रण न करने पर 40 - 50 प्रतिशत तक
चना उत्पादन में कमी हो सकती है । खेत में खरपतवार
नष्ट करने के लिए एक निंदाई बोआई के 30 दिन बाद एवं दूसरी 60
दिन बाद करनी चाहिए। रासायनिक नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालीन 30
ईसी (स्टाम्प) 750 मिली-1000 मिली. सक्रिय तत्व (दवा की मात्रा 2.5-3 लीटर)
प्रति हेक्टेयर अंकुरण के पूर्व 500 - 600 लीटर पानी में घोल
बनाकर फ्लेट फेन नोजल युक्त पम्प से छिड़कना चाहिए। सँकरी पत्ती वाले खरपतवार जैसे सांवा, दूबघास, मौथा
आदि के नियंत्रण हेतु क्युजोलफ़ोप 40-50 ग्राम सक्रिय तत्व अर्थात
800-1000 मिली. दवा प्रति हेक्टेयर का छिड़काव बौनी के 15-20
दिन बाद करना चाहिए।
चने में शीर्ष शाखायें तोड़ने
से (खुटाई करने) पौधों की वानस्पतिक वृद्धि रूकती है। जब पौधे 15-20
सेमी. की ऊँचाई के हो जाएँ तब खुटाई का कार्य करना चाहिए। ऐसा करने
से शाखायें अधिक फूटती हैं। फलस्वरूप प्रति पौधा फूल व फलियों की संख्या बढ़ जाती
है।
9. फसल सुरक्षा उपाय अपनाएं
दलहनी फसलों में कीट-ब्याधियों
का प्रकोप अधिक होता है. सुरक्षात्मक एवं आकस्मिक उपायों का समग्र रूप से इस्तेमाल
कर फसल में कीट-रोग से संभावित क्षति को कम करते हुए उत्पादन में वृद्धि लायी जा
सकती है । बोआई के पूर्व रोग-रोधी उन्नत किस्मों का चयन करें। सूत्रकृमि ग्रसित
खेतों में गर्मी में गहरी जुताई तथा उचित समय पर बुआई करें। खड़ी फसल में फली भेदक कीट के नियंत्रण हेतु 4-5 यौन आकर्षण जाल प्रति हे. की दर से प्रयोग करें । चिड़ियों के बैठने के लिए T आकार
के डंडों का (35-40 प्रति हेक्टेयर) प्रावधान करें । चना
एवं मटर में यदि फली भेदक का प्रकोप आर्थिक क्षति स्तर (1-2 लार्वा/मीटर पंक्ति) तक पहुँच जाए तो कीटनाशी का छिड़काव करें. इसके लिए ट्राइजोफ़ॉस
40% ई.सी. 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 600-800 लीटर पानी में घोलकर आवश्यकतानुसार
छिड़काव करें। मसूर की खड़ी फसल में माहू का प्रकोप होने पर डाईमीथोएट (0.03 %) का छिड़काव करें। मटर एवं मसूर में रतुआ रोग के नियन्त्रण हेतु घुलनशील गंधक (0.2-0.3%)
अथवा मेन्कोजेब ;0.02 %) का छिड़काव करें। रोगग्रस्त पौधों
को उखाड़कर नष्ट कर दें। चूर्णिल आसिता के
नियन्त्रण हेतु कार्बेन्डाजिम (1 ग्राम/लीटर पानी) अथवा केराथेन
48 ई.सी. (0.5 मिली. प्रति लीटर पानी) का भी प्रयोग किया जा स कता
है। रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर दें।
10. समय पर करें कटाई एवं गहाई
चना, मटर एवं मसूर की फसल
कटाई हेतु किस्म के अनुसार फरवरी-मार्च में
तैयार हो जाती है । जब 70 -80 प्रतिशत फल्लियाँ भूरे रंग की हो जाएं और पौधे
पीले पड़ने लगे पक जायें तो फसल की कटाई करना चाहिए। देर से कटाई करने पर फलियों के चटकने से दाने खेत में बिखर जाते है। कटाई हँसिये द्वारा
सावधानीपूर्वक करना चाहिए जिससे फलियाँ चटकने न पायें। काटने के बाद फसल को एक
सप्ताह तक खलिहान में सुखाते हैं। इसके पश्चात् दाॅय चलाकर या थ्रेशर द्वारा दाने
अलग कर हवा में साफ कर लिये जाते हैं।
11.
भरपूर उपज
अनुकूल वातावरण होने तथा उपरोक्त सस्य तकनीकी अपनाने से चना, मसूर और मटर की शुद्ध फसल से क्रमशः 20-25 क्विंटल, 15-20 क्विंटल एवं 20-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर दाना उपज प्राप्त होती है । दानो के भार का
लगभग आधा या तीन-चौथाई भाग भूसा प्राप्त होता है। काबुली चने की पैदावार देशी चने
की अपेक्षा थोड़ी कम होती है। हरे मटर (फल्लियों) की पैदावार 100-125 क्विंटल प्रति
हेक्टेयर तक ली जा सकती है.चना, मसूर एवं मटर के बीज को अच्छी तरह सुखाकर जब उनमें
10- 12 प्रतिशत नमी रह, जाय तब उचित
स्थान पर भंडारित करें अथवा अच्छा भाव मिलने पर बाजार में बेच देना चाहिए।
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