डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर, प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)
2.कौआ केना भाजी (कोमेलिना
बेंघालेंसिस)
कौआ केना या कनकउआ वार्षिक चौड़ी पत्ती श्रेणी की लता है, जो वर्षा और शरद ऋतु में खरपतवार की भांति खेतों और सड़क
के किनारे उगता है ।
इसके पौधे में नीले रंग के
फूल लगते हैं। इसकी कोमल
पत्तियों और तने को भाजी के रूप में प्रयुक्त किया जाता है.इसकी भाजी आमतौर पर
सितम्बर से जनवरी माह तक उपलब्ध रहती है। इसकी 100 ग्राम खाने योग्य पत्तियों में 92.2 ग्राम जल, 2. 1 ग्राम प्रोटीन, 0.4 ग्राम वसा,0 .8 ग्राम रेशा, 2.5 ग्राम कार्बोहाईड्रेटस, 22 की.कैलोरी ऊर्जा, 100 मिग्रा. कैल्शियम एवं 50 मिग्रा. फॉस्फोरस पाया जाता है ।केना के पौधे में बहुत से औषधीय गुण भी मौजूद होते है। इसके पौधे मूत्रवर्धक,रेचक होते है। त्वचा की सूजन और कुष्ठ रोग को ठीक करने में भी यह लाभदायक होती है। शरीर के जले स्थान को ठीक करने में भी इसका उपयोग किया जाता है।
इसे वाटर स्पिनाच कहते है जो कि
कनवोल्वलेसी कुल का एक बेल बाला अर्ध-जलिय प्रकृति का द्विवर्षीय या बहु वर्षीय पौधा है। छत्तीसगढ़ में यह कलमी साग अथवा करमत्ता भाजी के रूप
में लोकप्रिय है। इस भाजी को अनेक देशों में खाया जाता है। यह पौधा धान के खेत अथवा जल भराव वाले क्षेत्रों में उगता है। वर्षा ऋतु में जब अन्य पत्ती वाली सब्जियां अधिक वर्षा के
कारण खराब हो जाती है, उस समय करमत्ता भाजी उपलब्ध रहती है। ग्रामीण क्षेत्रों में
इसे गरीब की भाजी कहा जाता है। यह भाजी अमूमन वर्ष पर्यंत उपलब्ध उपलब्ध रहती है। कलमी साग के मुलायम पत्ते एवं तने भाजी एवं सलाद के रूप में प्रयोग किये जाते है । इसकी पत्तियों में खनिज तत्व एवं विटामिन्स की प्रचुरता और उत्तम पचनीयता का गुण होने के कारण इसकी भाजी महिलाओं और बच्चों के लिए विशेषरूप
से लाभकारी मानी जाती है। इसमें पाए जाने वाले कैरोटीन में मुख्य रूप से बीटा
कैरोटीन, जैन्थोफिल तथा अल्प मात्रा में टेराजैन्थिन होता है। इसकी 100 ग्राम पत्तियों में 90.3 ग्राम जल, प्रोटीन 2.9 ग्राम, वसा 0.4 ग्राम, रेशा 1.2 ग्राम, कार्बोहाड्रेट 3.1 ग्राम, ऊर्जा 28 कि. कैलोरी,कैल्शियम 110 मि.ग्रा., फॉस्फोरस
46 मि.ग्रा.,
आयरन 3.9 मि.ग्रा.,के अलावा
पर्याप्त मात्रा में कैरोटिन 1980 माइक्रोग्राम, विटामिन 'सी' 37 मि.ग्रा। एवं राइबोफ्लेविन 0.13 मी.ग्रा. पाया
जाता है। करमत्ता भाजी में अनेक औषधीय गुण पाए जाते है जो प्रमुख रूप से रक्त चाप को नियंत्रित करने में लाभदायक होते है। इसकी भाजी कुष्ठ रोग, पीलिया,आँख के रोगों एवं कब्ज रोग के निदान में उपयोगी पाई गई है। यह भाजी दांतों-हड्डियों को मजबूत करती
है। शरीर में खून की मात्रा बढाती है और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सहायक
होती है।
तिनपतिया या
तिनपनिया अथवा अम्बोती भाजी भूमि पर रेंग
कर (लता) बढने वाला खरपतवार है,जो कि गीले और नम छायादार स्थानों पर उगती है। इसकी कुछ प्रजातियों के पत्ते हरे तथा
कुछ गुलाबी रंग के होते है जिनमे छोटे
छोटे सफ़ेद तथा गुलाबी रंग के फूल वाली
होती है। यह भाजी वर्षा एवं शरद ऋतु में
उपलब्ध रहता है। इसकी कोमल पत्तियों को भाजी के रूप में पकाया जाता है। इसकी भाजी अगस्त से दिसम्बर तक उपलब्ध होती है।
इसकी पत्तियों में औसतन 8.7 % रेशा, 0.8 % लिपिड, 2.3 % प्रोटीन, 75.69 % कार्बोहायड्रेट, 365 पी.पी.एम. आयरन और 100 ग्राम भाग में 371 किलो कैलोरी उर्जा पाई जाती है। पत्तियों में खट्टापन ऑक्ज़ेलिक एसिड के कारण होता है। इसका
प्रयोग मधु मक्खी और कीड़े मकौड़ों के काटने में कारगर होता है। काटी हुई जगह पर इसकी पत्तियों को रगड़ने
से दर्द और जलन जाती रहती है. इसका स्वाभाव ठंडा है। प्यास को शांत करती है। लू
लगजाने पर इसकी चटनी बनाकर खाने से आराम मिलता है।
यह
विटेसी कुल की लता है जो खरपतवार के रूप में जंगल/वन क्षेत्र में उगता है। इसे हठजोड़ के नाम से भी जाना जाता है, जो औषधीय गुणों से परिपूर्ण वनस्पति है। इसकी मुलायम पत्तियों एवं कोमल तने से भाजी पकाई जाती है। इसकी सब्जी और बड़ियाँ भी बनाई जाती है।इसमें 3.43 % रेशा,
12.16 % प्रोटीन, 3.97 %
लिपिड, 65.51 % कार्बोहायड्रेट, 532 पी.पी.एम. आयरन और 100 ग्राम भाग में 369 किलो कैलोरी उर्जा पाई जाती है। वैसे तो हठ जोड़ का प्रयोग टूटी हड्डियों को जोड़ने हेतु किया जाता है परन्तु इसे अन्य रोगों के निवारण के लिए भी उपयोगी माना जाता है। ऑस्टियोपोरोसिस रोग से बचाव तथा उच्च रक्तचाप के नियंत्रण में यह वनस्पति लाभकारी होती है। शरीर में कोलेस्ट्राल बढ़ने से रोकती है तथा मधुमेह के नियंत्रण के लिए कारगर पाई गई है। स्वास्थ लाभ के लिए हठजोड़ को उबालकर काढ़ा बनाकर इस्तेमाल किया जा सकता है।
खपरा भाजी को पुनर्नवा अथवा गदहपूरना (हॉगवीड) भी कहते है जो एक औषधीय
महत्त्व का पौधा है। यह खेतों या पड़ती जमीनों में खरपतवार के रूप में उगता है । बारिश के मौसम में इसके पत्ते निकलते हैं और गर्मी में सूख जाते हैं, फिर जब बारिश होती है तो ये अपनेआप हरे हो जाते है इसीलिए इसे पुनर्नवा कहते हैं। इसका पौधा लेटे हुए छत्ताकर बेल नुमा होता है। भारत में सफ़ेद और लाल रंग की किस्मे पाई जाती है. इसके पत्ते कोमल, मांसल गोल या अंडाकार रहते है जिनका निचला हिस्सा सफ़ेद होता है। सफ़ेद पुनर्नवा की मुलायम पत्तियों का साग बनाया जाता है, इसकी सब्ज़ी और काढ़ा भी बनाया जाता है। मूंग एवं चने की दाल मिलाकर इसकी बढ़िया
भाजी बनती है । जो अपने रक्तवर्धक एवं रसायन गुणों द्वारा सम्पूर्ण शरीर को अभिनव स्वरूप प्रदान करे, वह है 'पुनर्नवा' ।इसकी सब्जी शोथ (सूजन) की नाशक,
मूत्रल तथा स्वास्थ्यवर्धक है। इसके सभी भाग औषधीय के रूप में इस्तेमाल किये जाते है, परन्तु इसकी जड़ को अधिक फायदेमंद माना जाता है। इसकी जड़ 1-2 फीट लम्बी, ऊँगली जितनी मोटी और गूदेदार होती है। पुनर्नवा खाने में ठंडी और कफनाशक होती है। इसे पेट रोग, जोड़ों के दर्द, ह्रदय रोग, लिवर, पथरी, खासी, मधुमेह और आर्थराइटिस के लिए संजीवनी माना जाता है । यही नहीं यह बुढ़ापा रोकने में सक्षम तथा उच्च रक्तचाप नियंत्रित करने वाली औषधि माना जाता है पुनर्नवा की भाजी अथवा काढ़ा (अदरक या अजवायन या दालचीनी और कलि मिर्च) उपयोगी पाया गया है।
20.सिलियारी भाजी
(सिलोसिया अर्जेंटिया)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
रा.मो.देवी कृषि महाविद्यालय, अंबिकापुर
(छत्तीसगढ़)
छत्तीसगढ़ को भाजियों का प्रदेश कहें तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । क्योंकि राज्य में अलग-अलग मौसमों में 100 से अधिक प्रकार की
भाजियाँ उपलब्ध रहती है, जिनमे से 50 से अधिक भाजियां बिना
पैसे के यानि निःशुल्क घर की बाड़ी, घास भूमि,खेतों से, सड़क किनारे अथवा जंगल से
प्राप्त हो जाती है । पालक, मेथी, चौलाई,
सरसों ऐसे साग हैं जिन्हें हम अपनी बाड़ी में लगाते है अथवा बाजार से
खरीद कर खाते हैं। साग या हरे पत्ते ऐसे होते हैं जिनका इस्तेमाल किसी बीमारी से
निपटने या स्वास्थ्य अच्छा बनाए रखने में मदद करते हैं। छत्तीसगढ़ के अलावा इनमे से अनेक भाजियां देश के कुछ अन्य राज्यों में भी प्रचलित हैं। इन हरी पत्तेदार भाजियों
में अमूमन सभी प्रकार के पोषक तत्व जैसे प्रोटीन, विटामिन ‘ए’ ‘बी’ ‘सी’ आदि,
कार्बोहाइड्रेट्स, कैल्शियम, फॉस्फोरस,
आयरन इत्यादि प्रचुर मात्रा में पाए जाते है, जो मनुष्य को स्वस्थ्य रखते है तथा विभिन्न रोगों
से लड़ने की ताकत देते है। हरी पत्तीदार सब्जियां हड्डियों व दांतों को मजबूत करने, आँखों को
स्वस्थ रखने, शरीर में खून बढ़ाने और पांचन
शक्ति को बेहतर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। छत्तीसगढ़
में पाई जाने वाली अथवा खाने में इस्तेमाल की जाने वाली भाजियों को हम दो वर्गों
में बाँट सकते है:
(अ)प्राकृतिक
रूप से उगने वाली बिना पैसे (मुफ्त) की भाजियां: प्राकृति प्रदत्त भाजिया जो बाड़ियों,
बंजर-घास जमीनों, गाँव की तीर,सड़क किनारे और जंगलों में पाई जाती है. इन भाजियों
में मुख्यतः पोई भाजी,करमत्ता भाजी,कौआ केनी भाजी,कोलिआरी भाजी,बुहार भाजी,मुश्केनी
भाजी,चरोटा भाजी,बेंग भाजी,सुनसुनिया/ तिनपनिया/चुनचुनिया भाजी,नोनिया भाजी, भथुआ
भाजी,चनौटी/चनौरी भाजी, चिमटी भाजी,घोल भाजी, चौलाई भाजी, पथरी भाजी,गुमी भाजी,
इमली भाजी, आदि है।
(ब)बोई
जाने वाली अथवा खरीद कर खाई जाने वाली भाजियां: ग्रामीणों और किसानों द्वारा अपनी बाड़ी
अथवा खेतों में बोई जाने वाली अथवा पैसे देकर बाजार से खरीद कर खाई जाने वाली
भाजियों में मुख्यतः पालक भाजी, मेथी भाजी, सरसों भाजी, बर्रे/कुसुम भाजी,चना भाजी,खेडा भाजी, अमारी/अम्बाडी
भाजी,कोचई भाजी,तिवरा/लाखड़ी भाजी,कुम्हड़ा भाजी, बरबटी भाजी,करेला भाजी, उरदा भाजी,
बुहार भाजी,प्याज भाजी,आलू भाजी, करेला भाजी, आदि.
छत्तीसगढ़ राज्य में उगाई जाने वाली
अथवा बाजार से खरीद कर खाई जाने वाली सर्व प्रिय प्रमुख शाक-भाजियों के बारे में उपयोगी जानकारी हम दूसरे आलेख में प्रस्तुत कर चुके है जो हमारे इसी
कृषिका ब्लॉग पर आप पढ़ कर लाभ उठा सकते सकते है। इस आलेख में हम प्रदेश में प्राकृतिक रूप से उगने वाली तथा विभिन्न मौसमों
में बिना पैसे मुफ्त में सर्व सुलभ तथा
लोकप्रिय विविध भाजियों के बारे में महत्वपूर्ण
जानकारी प्रस्तुत कर रहे है।
यह ऐमेरेन्थस
कुल का वार्षिक छोटा शाकीय
पौधा है चौलाई कुल की 10-12 जातियां होती है जैसे एमेरेन्थस
विरडिस,
ए. स्पाइनोसस, ए. काँडेटस, ए. जेनेटिकस, ए. पेनीकुलेटस आदि। चौलाई की भाजियां कुछ नर्म,
कुछ कड़क, कुछ हरी, कुछ लाल पत्ती वाली और कुछ तनों पर कांटे वाली होती है। । आजकल इसकी कुछ उन्नत किस्मों की खेती भी की जाने लगी हैं। चौलाई की कुछ प्रजातियाँ खरपतवार के रूप में खेतों, बंजर भूमियों एवं सड़क किनारे उगती है। इसकी पत्तियों में 80.15% नमीं, 11.66 % रेशा, 9 % लिपिड, 7.95 %
प्रोटीन, 67.78 % कार्बोहायड्रेटस, 318 पी.पी.एम. आयरन और 100 ग्राम भाग में 336.6 किलो कैलोरी उर्जा पाई जाती है । पोषक मान की दृष्टि से चौलाई भाजी पालक से श्रेष्ठ मानी
जाती है । चौलाई भाजी विश्व के अनेको देशों में खाई जाती है ।
कौआ केना भाजी फोटो साभार गूगल |
3.कोइलारी भाजी (बुहिनिया परपुरिया)
इसे
कचनार के नाम से जाना जाता है, जो सीसलपिनेसी कुल का लोकप्रिय शोभाकारी वृक्ष है। इस पेड़ की कोमल पत्तियां और पुष्प कलियों को
ग्रीष्म ऋतु में भाजी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
कचनार के फूल सफ़ेद रंग से लेकर गुलाबी, लाल, नीले, पीले,
और दोरंगे भी होते हैं. कचनार की बंद कली की सब्जी, अचार, रायता बेहद
स्वादिष्ट बनता है। कोइलारी की पत्तियों में
20.16 % रेशा, 29 % लिपिड,
7.12 % प्रोटीन, 35.60 % कार्बोहायड्रेट, 147 पी.पी.एम. आयरन और 100 ग्राम भाग में 378 किलो कैलोरी उर्जा पाई जाती है । आयुर्वेदिक
औषधियों में ज्यादातर कचनार की छाल का ही उपयोग किया जाता है. इसका उपयोग शरीर के
किसी भी भाग में ग्रंथि (गांठ) को गलाने
के लिए किया जाता है। इसके अलावा रक्त विकार व त्वचा रोग जैसे- दाद, खाज-खुजली, एक्जीमा, फोड़े-फुंसी
आदि के लिए भी कचनार की छाल का उपयोग किया जाता है। इसके फूल और कलियां वात रोग,
जोड़ों के दर्द के लिए विशेष उपयोगी मानी गयी हैं।
चिनोपोडीएसी
कुल का बथुआ एक प्रकार का बहुपयोगी खरपतवार है, जो आमतौर पर गेंहू, चना एवं शीत ऋतु की अन्य फसलों के साथ
स्वतः उगता है। जाड़े की पत्ती दार सब्जियों में बथुआ का प्रमुख स्थान है।
प्रारंभिक अवस्था में इसके सम्पूर्ण पौधे एवं बाद में पत्तियों व मुलायम टहनियों
को साग के रूप में प्रयोग किया जाता है। इससे विविध प्रकार के व्यंजन जैसे बथुआ
पराठा एवं रोटी, बथुआ साग, रायता एवं पकोड़ी आदि तैयार किये जाते है। पोषकमान की
दृष्टि से बथुए में प्रोटीन और खनिज तत्व
पालक एवं पत्ता गोभी से भी अधिक मात्रा में पाए जाते है। इसकी प्रति 100 ग्राम खाने योग्य
पत्तियों में 89.6 ग्राम पानी,3.7 ग्राम प्रोटीन, 0.4 ग्राम वसा, कार्बोहाईड्रेटस
2.9 ग्राम, कैल्शियम 150 मिग्रा., फॉस्फोरस 80 मिग्रा., कैरोटीन 3660
माइक्रोग्राम, थाइमिन 0.03 मिग्रा. राइबोफ्लेविन 0.06 मिग्रा.नियासिन 0.2 मिग्रा. एवं विटामिन ‘सी’
12 मिग्रा. पाई जाती है । बथुआ के ताने वाले भाग में नाइट्रेट, नाइट्राईट
एवं ओक्जिलेट अधिक मात्रा में होता है,
जिसे सब्जी के रूप में प्रयोग करते समय अलग कर देना चाहिए। बथुआ की पत्तियों का
औषधीय महत्त्व अधिक है। यह रेचक,कृमि नाशी एवं ह्रदयवर्धक होती है। इसके सेवन से
पेट के गोल एवं हुक वर्म नष्ट हो जाते है । इसके साग को नियमित खाने से कई रोगों
को जड़ से समाप्त किया जा सकता है। पथरी, गैस, पेट में दर्द और कब्ज की समस्या को दूर करने की बथुआ रामबाण औसधि है। इसकी
पत्तियों का जूस जलने से उत्पन्न घाव को ठीक करता है। बथुआ का बीज भी गुणकारी होता
है और चावल जैसे उबाल कर दाल के साथ खाया जाता है । बथुआ का बीज कुट्टू (टाऊ) की
तुलना में अधिक पौष्टिक होता है।
5.करमत्ता भाजी (आइपोमिया
एक्वाटिका)
करमत्ता भाजी फोटो साभार गूगल |
चेंच
भाजी जिसे पत या पटुआ भी कहते है जो कि जूट (टिलीएसी) कुल का
झाड़ीदार पौधा है। इसे मुख्यतः रेशे के लिए उगाया जाता है परन्तु कई खेतों में तथा सड़क की किनारे यह खरपतवार की भांति भी उगता है। इसकी मुलायम एवं चिकनी पत्तियों तथा कोमल टहनियों को तोड़कर सब्जी भाजी के रूप में प्रयोग
किया जाता है। इसकी पत्तियों को सलाद, सूप
और अन्य सब्जियों के साथ मिलाकर भी बनाया जाता है । चेंच
भाजी जून से सितम्बर तक मिलती है । इसकी प्रति 100 ग्राम खाने योग्य पत्तियों में 81.4 ग्राम पानी,5.1 ग्राम प्रोटीन, 1.1 ग्राम वसा, खनिज
2.7 ग्राम, रेशा 1.6 ग्राम,
कार्बोहाईड्रेटस 8.1 ग्राम, कैल्शियम 241 मिग्रा. एवं फॉस्फोरस 83 मिग्रा. पाई जाती है
। इसकी पत्तियों में कडुआपन कारचोरिन ग्लुकोसाइड के कारण होता है ।छत्तीसगढ़ के अलावा ओडिशा, बिहार, झारखण्ड राज्य के
ग्रामीणों और आदिवासिओं के भोजन का अहम्
अंग है। इसकी भाजी जून से नवम्बर तक उपलब्ध रहती है। चेच भाजी का औषधीय महत्त्व भी
है और इसकी पत्तियां मूत्र वर्धक होती है तथा पेट साफ़ करने के लिए उपयोगी पाई गई है । इसकी पत्तियों का प्रयोग भूख और शक्ति बढ़ाने के लिए भी किया जाता है।
7.मसरिया भाजी (कारचरस एक्युटंगुलस)
चेंच भाजी की तरह मसरिया भाजी भी तिलिएसी कुल का शाक
है जो वर्षा ऋतु की फसलों के साथ खरपतवार
की तरह उगता है। इसे जंगली जुट या
कड़वापात भी कहते है । इसकी मुलायम पत्तियां
एवं कोमल टहनियों को तोड़कर भाजी के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। इसकी भाजी
जुलाई से नवम्बर तक उपलब्ध रहती है। सूजन कम करने इसकी
पत्तियों की पट्टी बाँधी जाती है ।
यह सिसलपिनेसी कुल का एक प्रकार का वर्षा ऋतु का खरपतवार है, जिसे चकोड़ा, चकवत तथा चरोटा के नाम से जाना
जाता है। छत्तीसगढ़,
गुजरात, ओडिशा, और मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचलों में चिरोटा की मुलायम पत्तियों का उपयोग भाजी के तौर पर किया जाता है.यह भाजी अत्यधिक
पौष्टिक होती है और इसे बरसात के मौसम में अवश्य रूप से आदिवासी रसोई में भाजी के
तौर पर पकाया और बड़े चाव से खाया जाता है। आमतौर पर चरोटा की भाजी प्याज,लहसुन और हरी मिर्ची
के साथ पकाई जाती है। जुलाई से अगस्त तक यह भाजी उपलब्ध रहती है। चरोटा भाजी में अनेक औषधीय गुण पाए जाते है । अस्थमा रोग के निदान में इसके फूलों को
पकाकर सब्जी के रूप में खाने की जन जातियों में
प्रथा है। आदिवासियों का मानना है कि चरोटा भाजी
गर्म प्रकृति की होती है । अतः इस भाजी को कम मात्रा में ही खाना चाहिए। चरोटा
की पत्तियों और बीजों का उपयोग अनेक रोगों जैसे दाद-खाज, खुजली, कोढ,
पेट में मरोड़ और दर्द आदि के निवारण के लिये किया जाता है। रेशा 15.26%, लिपिड
6.3 %, प्रोटीन 5.57 %, आयरन 565 पीपीएम, कार्बोहायड्रेट 64.83 % तथा प्रति 100
ग्राम भाग में 363 किलो कैलोरी उर्जा पाई जाती है ।
पोई बैसेलेसी
कुल की एक बहुवर्षीय सदाबहार बेल है जिसका एक नाम
भारतीय पालक भी है । वैसे तो यह प्राकृतिक रूप से पैदा हो जाती है, परन्तु अब इसे क्यारियों तथा गमलों में
उगाया जाने लगा है ।
पोई भाजी को अन्य देशों में भी खाया जाता है। पोई की दो प्रजातियाँ-एक
हरे पत्ते वाली और दूसरी हरे जामुनी पत्तों
वाली होती हैं । पोई का तना एवं पत्तियां गूदेदार तथा मुलायम होती है । इसकी कोमल पत्तियों एवं मुलायत टहनियों की भाजी
बनाई जाती है । भारत में इसे गरीबों का साग
भी कहते हैं, क्योकि यह
मुफ्त में उपलब्ध हो जाता है । पोषक मान की दृष्टि से पोई पालक से श्रेष्ठ होती है । इसकी प्रति 100 ग्राम खाने योग्य पत्तियों
में 90.8 ग्राम पानी,2.8 ग्राम प्रोटीन, 0.4 ग्राम वसा,4.2 ग्राम कार्बोहाईड्रेट,
260 मिग्रा. कैल्शियम, 35 ग्राम फॉस्फोरस, 7440 माइक्रोग्राम कैरोटीन, 0.03
मिग्रा.थाइमिन,0.16 मिग्रा. राइबोफ्लेविन, 0.5 मिग्रा.नियासिन एवं 11
मिग्रा.विटामिन ‘सी’ पाई जाती है.इसके पत्तियां
हलकी तीखी, मीठी, उत्तेजक, दस्तावर,क्षुधावर्द्धक, गर्मी शांत करने वाला,
पित्त रोग, कुष्ठ आदि में उपयोगी पाया गया है। पोई भाजी हड्डियों-दांतों को मजबूत
बनाने के साथ-साथ पेट को स्वस्थ्य रखती है. शरीर में खून बढाती है और रोगों से
लड़ने की ताकत देती है ।
बेम या बेंग भाजी को मण्डूकपर्णी भी कहते है जो एपिएसी कुल का शाक है। यह वनस्पति नम
भूमियों और धान के खेतों में खरपतवार के रूप में उगती है। बेंग एक बंगाली शब्द है
जिसका तात्पर्य मेढक से है। जब मेढक टर्र-टर्र
करने लगे तो वर्षा आगमन का संकेत मिलता है और इसी समय यह भाजी भी खेतों और सड़क
किनारे उगने लगती है। इसे मंडूकी तथा बेम साग के नाम से भी जाना जाता
है। अमूमन वर्ष भर इसकी हरी भाजी उपलब्ध रहती
है। इसकी कोमल पत्तियों और टहनियों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर पकाया जाता है। अन्य
देशों में इस भाजी का खाने में उपयोग किया जाता है । औषधीय
महत्व के इस पौधे की पत्तियों में हलकी चिरपराहट होती है और स्वाद में थोडा मैंथी जैसा लगता है। इसकी
पत्तियों में लोहा और रेशा बहुतायत में पाया जाता है. इसमें 21.78 % रेशा, 28.2 % लिपिड, 7.2 % प्रोटीन, 27.1 % कार्बोहायड्रेट, 838 पी.पी.एम. आयरन और 100 ग्राम भाग में 324 किलो कैलोरी उर्जा पाई जाती है ।
सुनसुनिया या सुसनी साग मार्सिलिएसी कुल का एक शाकीय पौधा है जो खरपतवार के रूप में
तालाब, पानी की नालियों, धान के खेतों और नम स्थानों में उगता है । दिखने में
ये कुछ - कुछ तिनपतिया खरपतवार की तरह लगता है लेकिन
ये एक छोटा फर्न होता है। इसके डंठल एवं पत्तियों से पत्तों से छत्तीसगढ़,पश्चिमी बंगाल, ओडिशा,
बिहार व झारखंड में सूखी भाजी और चटनी बनाई जाती
है। इसकी भाजी नवम्बर से
मार्च तक उपलब्ध रहती है
। इसकी
भाजी नवम्बर से मार्च तक उपलब्ध रहती है. इसकी पत्तियों के प्रति 100 ग्राम खाने
योग्य भाग में जल 86.9 ग्राम, प्रोटीन 3.7 ग्राम, वसा 1.4 ग्राम, खनिज 2.1 ग्राम, रेशा 1.3 ग्राम, कार्बोहाड्रेट 4.6 ग्राम, ऊर्जा
46 कि.कैलोरी, कैल्शियम 53 मि.ग्रा., एवं फॉस्फोरस
91 मि.ग्रा. पाया जाता है। यह
वनस्पति अनेक रोगों जैसे अस्थमा, डाईरिया, चर्म रोग,बुखार आदि के उपचार हेतु इस्तेमाल की जाती है।
12.तिनपतिया भाजी
(ऑक्सालिस कोर्नीकुलाटा)
तिनपतिया भाजी फोटो साभार गूगल |
कुल्फा को पर्सलेन,गोल
या नोनिया साग भी कहते हैं, जो की पार्चुलेसी कुल का सीधे बढ़ने वाला शाकीय खरपतवार है। इसकी पत्तियां गोल, मोटी, हल्की खट्टी,
नमकीन एवं पकाकर खाने में पाचक एवं प्रकृति में
शीतल होती है। कुलफा की मुलायम टहनियों एवं पत्तियों का शर्दी एवं गर्मियों में साग/कढ़ी बनाई जाती है। पत्तियों में अच्छी सुगंध होने के कारण इसका प्रयोग सलाद के लिए भी किया जाता
है। अन्य भाजियों की भांति गोल भाजी भी प्रोटीन, खनिज तत्वों एवं विटामिन में काफी
धनी होती होती है। कुलफा की
प्रति 100 ग्राम खाने योग्य पत्तियों में 90.5
ग्राम जल, प्रोटीन 2.4 ग्राम, वसा 0.6
ग्राम,रेशा 1.3 ग्राम, कार्बोहाड्रेट 2.9 ग्राम, कैल्शियम 111 मि.ग्रा.,
फॉस्फोरस 45 मि.ग्रा. और आयरन 14.8 मि.ग्रा. पाया जाता है ।इसके अलावा कैरोटीन 2292 माइक्रोग्राम, राइबोफ्लेविन 0.22
मिग्रा., नियासिन 0.7 मिग्रा. एवं विटामिन सी 99 मिग्रा. के अलावा इसकी पत्तियां
पोटेशियम एवं अन्य खनिज तत्वों की भी अच्छी स्त्रोत है। इसमें 27 कि
कैलोरी उर्जा पाई जाती है
। कुल्फा
को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा महत्वपूर्ण औषधि पौधे के रूप में नामांकित किया गया
है,जिसे अन्य देशों में भी खाया जाता है । कुलफा में 25% स्वतंत्र वसा अम्ल होते है। इसमें पाए जाने वाले ओमेगा-3 बहु
असंतृप्त वसा अम्ल की अधिक मात्रा के कारण इसका बहुत अधिक औषधि महत्त्व है । यह मूत्र
रोगों, हड्डी के जोड़ों और अन्य स्त्री रोगों में लाभकारी है। इसे ह्रदयवर्धक के रूप में प्रयोग किया जाता
है और इसका सेवन पेचिस तथा बुखार में लाभदायक होती है। इसकी पत्तियों का लेप चर्म रोगों जैसे एक्जिमा आदि में लाभकारी होता है।
14.मुनगा भाजी (मोरिंगा
ओलेइफेरा)
अगर पौधों में भी सुपरहीरो होते तो मुनगा यानि सहजन का वृक्ष ज़रूर इनमें से एक होता। इसके पत्ते और नए फल
खाने के तौर पर व बीज, फूल और जड़ औषधि के रूप में इस्तेमाल किये जाते है । सहजन के पत्ते, फूल और फल पोषक तत्वों विशेषकर आयरन से भरपूर होते हैं। सहजन के मुलायम पत्तों को ताजा और सुखाकर भाजी या चटनी के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसकी पत्तियों में प्रोटीन, सभी आवश्यक अमीनो एसिड, एंटीऑक्सीडेंट्स, विटामिन और खनिज प्रचुर
मात्रा में विद्यमान रहते हैं। इसकी 100 ग्राम
पत्तियों में 76 ग्राम जल, प्रोटीन 7 ग्राम, वसा 2 ग्राम, रेशा 1 ग्राम,
कार्बोहाड्रेट 19 ग्राम, कैल्शियम 440 मि.ग्रा., फॉस्फोरस 70 मि.ग्रा. और आयरन 1 मि.ग्रा. पाया जाता है। इसमें 92 कि.
कैलोरी उर्जा पाई जाती है। इसकी 100 ग्राम पत्तियों में 5 गिलास दूध के बराबर कैल्शियम और एक नीबू की तुलना में 5 गुना विटामिन 'सी' पाया जाता है। इसके अलावा पत्तियों में पोटैशियम, मैग्नीशियम और विटामिन 'बी' भी प्रचुर मात्रा में पाई जाती है. सहजन की पत्तियों के इस्तेमाल से शरीर में खून की मात्रा बढती है और पेट के कृमियों का नाश होता है। मुनगा भाजी आँखों
और त्वचा को स्वस्थ्य रखती है. हैजा,दस्त,पेचिस और पीलिया रोग में सहजन की पत्तियों का रस लाभकारी पाया गया है।
15.सिनगारी भाजी (सिसस
कुआड्रानगुलेरिस)
सिंगारी भाजी फोटो साभार गूगल |
16.इमली भाजी (तामरिन्डस इंडिका)
आमतौर पर इमली के फलों का उपयोग सब्जी को खट्टा अथवा चटनी के रूप में किया जाता है। इमली की नई कोमल पत्तियों को पकाकर भाजी के रूप में भी खाया जाता है। दक्षिणी भारत के कई गाँवों में करी,
चटनी और रसम बनाने में इमली के पत्तों का इस्तेमाल किया जाता है। स्वाद में खट्टे इमली के पत्तों में विटामिन सी प्रचुर
मात्रा में पाया जाता है।
इसकी 100 ग्राम पत्तियों में 70 ग्राम
जल, प्रोटीन 6 ग्राम, वसा 2 ग्राम, रेशा 2 ग्राम, कार्बोहाड्रेट 18 ग्राम,
कैल्शियम 101 मि.ग्रा., फॉस्फोरस एवं 140
मि.ग्रा. पाया जाता है। पत्तियों में 43
कि कैलोरी उर्जा विद्यमान रहती है ।इसके पत्ते शरीर को शीतलता प्रदान करते है और पेट के कीड़ों को नष्ट करने में मदद करते है. पीलिया के इलाज में भी इसके पत्ते उपयोग में लाये जाते है । इमली की कोमल पत्तियां जलने से उत्पन्न घाव के इलाज में लाभकारी पाई गई है।
सभी भाजियो में बोहार भाजी को सरताज माना जाता है क्योंकि यह बहुत ही स्वादिष्ट और जायकेदार भाजी है जो बड़ी मुश्किल से ऊंचे दामों पर कुछ समय के लिए (वर्ष में एक बार) उपलब्ध हो पाती है । लसोड़ा या
लभेरा (बहुवार) के वृक्ष के पुष्प-कलिओं के गुच्छे ही बोहार
भाजी के रूप में छत्तीसगढ़ और
ओडिशा में लोकप्रिय है । लसोड़ा एक
बहुवर्षीय वृक्ष है जो जंगल और बगीचों में पाया जाता है। इसके कच्चे फलों की सब्जी और आचार भी बनाया जाता है. पके फलों के अन्दर गोंद की तरह चिकना और मीठा रस होता है. स्वाद और पौष्टिकता में बेजोड़ बोहार भाजी बाजार में सबसे
महंगी बिकती है । बोहार भाजी को
दही या मही और साथ मे चना/मूंग दाल के साथ जब पकाया जाता है तो
उसका स्वाद अच्छे अच्छे पकवानों को
मात दे-देता है।
फरवरी का अंत और मार्च की शुरुआत (वसंत ऋतु) में बोहार पेड़ पर फूल लगने शुरू होते है । यदि सही
समय पर इस वृक्ष के पुष्प-कलियों (गुच्छे)
नही तोड़े गए, तो वह छोटे-छोटे हरे फलों में बदल जाते है और उसके बाद एक आँवले जैसी
आकृति का फल (पीला-भुरा रंग) बन जाता है । बोहार के कोमल पत्ते पीसकर खाने से पतले दस्त (अतिसार) लगना बंद होकर पाचन तंत्र में सुधार होता है। इसके फल का काढ़ा बनाकर पिने से छाती में जमा हुआ सुखा कफ पिघलकर खांसी के साथ बाहर निकल जाता है। इसका फल मधुर-कसैला, शीतल, विषनाशक, कृमि नाशक, पाचक, मूत्राल और सभी प्रकार के दर्द दूर करने वाला होता है।
18.खपरा भाजी
(बोरहाबिया डिफ्यूजा)
पुनर्नवा भाजी फोटो साभार गूगल |
इसे जंगली पालक, अम्बावाह, अमरूल के नाम से भी जाना जाता है जो पोलिगोनेसीए
कुल का पौधा है। पालक जैसे दिखने वाले इस पौधे की पत्तियों को साग-भाजी के रूप में
प्रयोग में लाया जाता है. इसकी पत्तियों
में ऑक्सेलिक अम्ल होने के कारण इसका
स्वाद खट्टा और तीखा होता है. इसकी पत्तियों में कैल्शियम, बीटा कैरोटिन तथा विटामिन ‘सी’
पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है. इसकी 100 ग्राम खाने योग्य पत्तियों में 89.3%
जल, 3.5% प्रोटीन,0.7% रेशा,4.1% कार्बोहाईड्रेटस, 2% खनिज,611.5 मिग्रा.कैल्शियम,
53.8 मिग्रा.फॉस्फोरस, 3.4 मिग्रा. आयरन, 115 मिग्रा. विटामिन ‘सी’ तथा प्रचुर
मात्रा में विटामिन ‘ए’ पाया जाता है। अधिक मात्रा में इस
भाजी को खाने
से विपरीत प्रभाव
भी हो सकता हैं।
सिलियारी भाजी फोटो साभार गूगल |
यह एमेरेंथेसी
कुल का पौधा है जो खरपतवार के रूप में
वर्षा एवं शीत ऋतु में खेतों और सड़क किनारे स्वतः उगता है। इसे पिटुना, मुर्गकेश, सिलोसिया और ग्रामीण क्षेत्रों में
सिलियारी तथा फूल भाजी भी कहा
जाता है। इसके मुलायम
पौधों/पत्तियों की भाजी बनाई जाती है। आमतौर पर इसकी भाजी
अगस्त से जनवरी तक उपलब्ध रहती है। इसकी पत्तियां पोषण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है.
सिलियारी की 100 ग्राम खाने योग्य पत्तियों में 85.7 ग्राम जल, 3.3 ग्राम प्रोटीन,
0.8 ग्राम वसा, 2.7 ग्राम खनिज,1 ग्राम रेशा, 7.5 ग्राम कार्बोहाईड्रेटस, 50 कि.कैलोरी
ऊर्जा, 322 मिग्रा.कैल्शियम एवं 16.8 ग्राम आयरन पाया जाता है. इसके अलावा इसकी
पत्तियां विटामिन ‘बी-1’ एवं विटामिन ‘बी-6’ में भी धनी होती है। सिलिआरी का औषधीय
महत्त्व भी बहुत अधिक है। इसका लेप बिच्छू के डंक मारने पर प्रभावी पाया गया है।
इसके पौधे के अर्क का सेवन यूरिनरी स्टोन को दूर करता है और इसके बनने को रोकता
है. इसका फूल खुनी दस्त एवं थूंक के साथ
रक्त आने वाले विकार मिनौरैजिया में लाभप्रद होता है। इसके बीज को रक्त सम्बन्धी
रोगों, ट्यूमर, मुहं के छालों एवं नेत्र रोग में लाभकारी माना जाता है।
21.चिमटी साग (पोलीगोनम
प्लेबेजम)
चिमटी साग को हिंदी में मचेची, संस्कृत में सर्पाक्षी तथा अंग्रेजी में नॉटवीड कहते है। पोलीगोनेसी कुल की यह वनस्पति जलमग्न भूमियों, नालियों और धान
के खेतों में खरपतवार के रूप में उगती है । इसके हरे ताजा पौधों का बेहतरीन
साग बनाया जाता है। आदिवासी महिलाएं एवं बच्चे इस भाजी को धान के सूखे खेत और आस पास के सूखे
तालाबों से तोड़कर लाते है। इसकी पत्तियों में सोम्य
खुशबु होने के कारण इसकी भाजी काफी पसंद की जाती है। इसकी पत्तियों की भाजी दस्त में एवं पत्ती पाउडर न्युमोनिया में लाभ कारी
लाभकारी औषधि के रूप में प्रयुक्त की जाती है।
22. गुमा भाजी (ल्यूकस सेफलोटस)
गुमा भाजी को धुपी साग और द्रोणपुष्पी भी कहते है। यह
लेमियेसी कुल का वार्षिक पौधा है,
जो वर्षा और शीत ऋतु में खरपतवार के रूप में
खेतों में और सड़क किनारे उगता है। इसके कोमल पौधों को
फूल आने के पहले तोड़कर भाजी बनाई जाती है।
गुमा की अक अन्य प्रजाति ल्यूकस अस्पेरा होती है जिसे हल्कुषा
भाजी के रूप में जाना जाता है. इसके भी मुलायम पत्तियों से भाजी बनाई जाती है और अन्य सब्जियों में खुसबू बढ़ाने के लिए
भी इसका प्रयोग किया जाता है। दोनों ही प्रजातियों में औषधीय गुण पाए जाते है।जुलाई से जनवरी तक इसकी भाजी उपलब्ध रहती है। यह औषधीय महत्त्व का पौधा है। इस पौधे का औषधीय महत्व भी है । कफ-पित्त नाशक, चरम रोग, जोड़ो के दर्द, बुखार, शिर दर्द
आदि में लाभदायक पाया गया है। कुछ ग्रामीण सर्प और बिच्छू के काटने पर औषधीय के रूप में इनका
प्रयोग करते है।
23. ब्राम्ही साग (बकोपा मोंनिएरी)
ब्राह्मी एक औषधीय महत्त्व का पौधा है
जो नम और दल-दल जमीनों में फैलकर बढ़ता है, जिसकी गांठो से जड़, पत्तियां, फूल और बाद में फल भी लगते है। इसकी पत्तियाँ मुलामय, गूदेदार और स्वाद में कुछ कड़वी होती है। ब्राह्मी के फूल छोटे,
सफेद, नीले और गुलाबी रंग के होते है। इसके कोमल तने और पत्तियों की
प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में भाजी भी बनाई जाती है । अप्रैल
से दिसम्बर तक इसकी भाजी उपलब्ध रहती है। ब्राह्मी का उपयोग अनेक रोगों के उपचार में किया जाता है । ब्राह्मी से बहुपयोगी नर्व टॉनिक तैयार किया जाता है जो मस्तिष्क को शक्ति प्रदान करता है तथा स्मरण शक्ति को बढ़ाता है। यह एक बल वर्धक और कब्ज को दूर करने वाली वनस्पति है। । ब्राह्मी में रक्त शुद्ध करने के गुण भी
पाये जाते है। इसे हृदय रोगों के लिये भी गुणकारी होती है। बच्चों में दस्त रोकने में इसकी पत्तियां लाभकारी होती है। त्वचा सम्बन्धी विकारों जैसे एक्जिमा और फोड़े फुंसियों पर पत्तियों का लेप फायदेमंद पाया गया है। अधिक मात्रा में ब्राह्मी का सेवन हानिप्रद हो सकता है ।
24. जिल्लो भाजी (विसिया सटीवा)
इसे हिंदी में
अंकरी/चटरी-मटरी भी कहते है जो अमूमन मटर के पौधों जैसी दिखती है। यह एक प्रकार की दलहनी कुल की एक वर्षीय वनस्पति है, जो धान काटने के बाद धान के खेत एवं अन्य रबी फसलों के खेत में खरपतवार के रूप में उगती है । इसकी कोमल पत्तियों एवं टहनियों से स्वादिष्ट भाजी बनाई
जाती है। इसकी हरी फलियों से सब्जी बनाई जाती है। इसके दाने पौष्टिक होते है परन्तु अधिक मात्रा में इनका सेवन हानिकारक हो सकता है।
25.सरन्ती साग
(एल्टरनैन्थेरा सेसिलिस)
सरन्ती साग को गुदरी भाजी,गुरण्डी
साग और संस्कृत में मत्स्याक्षी के नाम भी जाना जाता है जो कि एमेरेंथेसी कुल का एक प्रकार का जलीय पौधा है। यह वनस्पति नम
स्थानों,तालाबों एवं धान के खेत में खरपतवार के रूप में उगती है। इसकी मुलायम पत्तियों एवं डंठल को साग के रूप में प्रयोग
किया जाता है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में इसकी पत्तियों, पुष्पों एवं मुलायम तनों से सब्जी बनाई जाती है। इसकी पत्तियों में कैरोटीन,कैल्शियम तथा अन्य खनिज तत्व
प्रचुर मात्रा में पाए जाते है. पोषक मान की दृष्टी से इसकी 100 ग्राम खाने योग्य
पत्तियों में 77.4 ग्राम नमीं, 5 ग्राम प्रोटीन, 2.8 ग्राम रेशा,11.6 ग्राम
कार्बोहाईड्रेट, 510 मिग्रा. कैल्शियम, 60 मिग्रा.फॉस्फोरस,1.63 मिग्रा.आयरन के अलावा
1926 माइक्रोग्राम कैरोटीन एवं 0.14 मिग्रा.राइबोफ्लेविन पाया जाता है।इसके पौधे शीतल प्रकृति के रेचक और मूत्रल गुणों वाले होते है। पौधे
की पत्तियां आँख के रोग, खुनी उलटी, पेशाब
में जलन के उपचार, मधुमेह के नियंत्रण तथा याददाश्त बढाने में लाभदायक मानी जाती है ।
26.कमल भाजी(निलम्बों
न्युसीफेरा)
यह
निलम्बोंनेसी कुल का जलीय पौधा है और कमल हमारे देश का राष्ट्रिय पुष्प है।इसकी मुलायम पत्तियां,डंठल एवं पुष्प को भाजी के रूप में
इस्तेमाल किया जाता है। इसके ताजे कंदों
(राइजोम) की भी जायकेदार सब्जी बनती है। कंद (कमल ककड़ी) बाजार में ऊंची दर पर बिकते है। कमल के फूल हिन्दू देवी लक्ष्मी की पूजा के लिए विशेष रूप
से पसंद किया जाता है।औषधीय प्रयोजन में भी कमल के पत्ते, पुष्प और जड़ का इस्तेमाल किया जाता है।
27.मकोय भाजी (सोलेनम
नाइग्रम)
मकोय आलू (सोलेनेसी)
कुल एक शाकीय खरपतवार है, जो आमतौर पर नम एवं छायादार स्थानों पर उगता है. इसकी
कोमल टहनियों एवं पत्तियों का भाजी के रूप में प्रयोग किया जाता है. मकोय की
पत्तियों में प्रति 100 ग्राम खाने योग्य
भाग में 82.1 ग्राम नमीं, 5.9 ग्राम
प्रोटीन, 1 ग्राम वसा, 2.1 ग्राम खनिज तथा 8.9 ग्राम कार्बोहाईड्रेटस पाए जाते है।
इसकी पत्तियां राइबोफ्लेविन का अच्छा स्त्रोत मानी जाती है । मकोय की पत्तियों का
काढ़ा तंत्रिका वर्धक के रूप में प्रयोग किया जाता है ।यह उच्च रक्त दबाव को कम
करता है । पत्तियों में रेचक गुण होने के कारण इसका काढ़ा गैस और अपच को दूर करता
है । इसकी पत्तियों का ताजा सत्त यकृत विसंगतियों को दूर करता है। इसके फल वर्धक
(टोनिक) के रूप में ह्रदय रोगों में लाभकारी होते है। घरेलु स्तर पर इसके फलों का
प्रयोग ज्वर, डाईरिया, अल्सर एवं नेत्र रोगों के निदान हेतु औषधि के रूप में किया
जाता है। इसके बीजों के सेवन से मधुमेह रोग नियंत्रित होता है। इसकी पत्तियों की भाजी खाने से किडनी रोग में राहत मिलती है।
28.दूधिया भाजी
(ट्रिबुलस टेरेस्टिरस)
यह जायगोफाइलेसी कुल
का पौधा है जो बरसात के मौसम में खरपतवार के रूप में सड़क के किनारे, खेतों, बंजर
जमीनों पर उगता है। इसे गोखुरू भी कहते है। इसकी मुलायम पत्तियां एवं कोमल टहनियां कुछ ग्रामीण अंचलों में
भाजी के रूप में प्रयोग में लाई जाती है।इसकी पत्तियों में प्रोटीन और कैल्शियम
बहुतायत में पाया जाता है। गोखुरू की प्रति 100 ग्राम खाने योग्य पत्तियों
में 79.1 ग्राम जल, प्रोटीन 7.2 ग्राम, वसा 0.5 ग्राम, खनिज 4.6 ग्राम, कार्बोहाड्रेटस 8.6
ग्राम, ऊर्जा 68 कि.कैलोरी, कैल्शियम 1550 मि.ग्रा., फॉस्फोरस 82 मि.ग्रा., आयरन 9.2 मि.ग्रा. एवं विटामिन ‘सी’ 41 मिग्रा. पाई
जाती है। इसकी पत्तियां औषधीय महत्त्व की होती है। इसके पत्तियों के सेवन से पेट
की बहुत से बीमारियों जैसे पथरी आदि में लाभ होता है।
29.मुस्केनी भाजी (मेर्रेनिया एमर्जिनाटा)
मुस्केनी
भाजी को चुहाकन्नी भी कहते है जो कनवोल्वुलेसी कुल की लता है। यह जमीन पर रेंग कर बढ़ती है । दल-दल स्थानों और नम भूमियों और धान के खेत में यह खरपतवार के रूप में उगती है। इसकी मुलायम पत्तियों और कोमल शखाओं को तोड़ कर भाजी पकाई जाती है
। जुलाई से लेकर अगस्त माह
तक इसकी भाजी खाने योग्य रहती है। यह भाजी किडनी के
लिये फायदेमंद होती है ।
इसे लटजीरा,
चिरचिरा और अपामार्ग भी कहते है ।इसके पौधे बरसात
में खरपतवार के रूप में उगते है। इसकी एक
लंबी शाखा पर बीज लगते हैं, जिनमे कांटे लगे होते है इसके
संपर्क में आने से कांटे चिपक जाते हैं। चिड़चिड़ा
एक बहु उपयोगी पौधा है। छत्तीसगढ़ में कुछ ग्रामीण और बनवासी इसकी पत्तियों की भाजी
बनाकर खाते है। इसकी सब्जी को पौष्टिकता से भरपूर माना जाता है।
इसकी पत्तियों में औसतन 8.54% नमीं, 4.37 % प्रोटीन, 8.22 %
लिपिड, 8.32% रेशा,58.84% कार्बोहाइड्रेट्स, 374 पीपीएम आयरन एवं 337.5 कि.कैलोरी
उर्जा पाई जाती है। चिरचिरा की
पत्तियों, बीज और जड़ का इस्तेमाल अनेक रोगों के उपचार में किया जाता है । सर्दी जुकाम होने पर इसकी
पत्तियों का सेवन करना बहुत लाभकारी पाया गया है। इसके बीजों को
पीसकर दाद खाज खुजली होने वाली जगह पर लगाने से आराम मिलता है। इसकी पत्तियों और बीज का काढ़ा बनाकर पीने से पीलिया रोग में लाभ मिलता है। इसके भुने बीजों का चूर्ण सेवन करने से भूख कम लगती है और
मोटापा कम होता है। इसके बीजों का प्रयोग बवासीर के उपचार में किया जाता है। चिड़चिड़े की जड़ से दातून
करने से दांत की जड़े मजबूत और दांत मोती की तरह चमकते है।
31.पुत्कल भाजी
यह
मोरेसी कुल का वृक्ष है। इस वृक्ष की कोमल पत्तियों एवं कलिओं का साग बनाया जाता है। मार्च-अप्रैल तक इसकी हरी
ताजा पत्तियां उपलब्ध रहती है।
32.पटवा भाजी (हिबिस्कस कैनबिनस)
मालवेसी कुल का यह शाक खरपतवार के रूप में रोड किनारे और
बंजर जमीनों पर वर्षा ऋतु में उगता है ।यह मेस्टा की प्रजाति है। इसकी कोमल पत्तियों को तोड़कर भाजी बनाई जाती है। इसकी पत्तियों से आचार, सांभर,
रायता बनाया जाता है और इसे अन्य सब्जियों के साथ मिलकर भी पकाया जाता है। इसकी
पत्तियों में 83.98% जल,9.15 % रेशा, 19.36
% लिपिड, 3.18 % प्रोटीन, 71.01 %
कार्बोहायड्रेटस, 306 पी.पी.एम. आयरन और
100 ग्राम भाग में 348 किलो कैलोरी उर्जा
पाई जाती है। जुलाई से मार्च
तक इसकी भाजी उपलब्ध रहती है। इसकी पत्तियों
को गुर्दे की पथरी,
मूत्राशय में पथरी की औषधि के रूप में देखा जाता है। इस वनस्पति को उच्च रक्तचाप को कम करने वाला,
शोथ रोधी, हाईपरटेंशन की संभावनाओं को कम करने
वाला, जीवाणु रोधी, रोग प्रतोरोधकता
में सुधार करने वाला, ट्यूमररोधी, कब्ज
से बचाव करने वाला, ल्यूकीमियारोधी, भूख
बढ़ाने वाला माना गया है। इसे शोथ, रक्त, पेट और गले संबंधी बीमारियों, कैंसर, पित्त-दोष, यकृत का बढ़ना, पेचिश
के इलाज़ में भी लाभकारी माना गया है। इसे एनीमिया के इलाज में उपयोगी माना गया है।
शरीर में कोलेस्टेरॉल के स्तर को सामान्य रखने में भी यह सहायक होती है। इसे मधुमेहरोधी और यकृत को सुरक्षा प्रदान करने वाली उपयोगी
वनस्पति मन जाता हैं।
एस्टरेसी
कुल का यह एक वर्षीय खरपतवार के रूप में उगता है। इसे हिंदी में भृंगराज, संस्कृत में जयंती वेद और अंग्रेजी में कोट बटन कहते है। इसके पौधे में रोये पाए जाते
है. इसकी मुलायम पत्तियां एवं कोमल टहनियों को तोड़कर भाजी के रूप में पकाया जाता
है। इसकी भाजी वर्ष पर्यंत उपलब्ध रहती है। भृंगराज न केवल काले घने बाल करने वाली औषधि है वरन इसे कई रोगों के निवारण हेतु महत्वपूर्ण औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इसके पौधों का इस्तेमाल एसिडिटी, बवासीर, मसूढ़ों के दर्द, सर दर्द, कान में मवाद की रोकथाम में उपयोगी समझा जाता है। इसके अलावा यह सर्दी, जुकाम और सांस से सम्बंधित बिमारियों के उपचार में भी फायदेमंद है।
34.पुरोनी भाजी (ट्राईअन्थेमा पोर्टुलाकास्ट्रम )
इसे
सालसा भाजी भी कहते है जो की वर्षा एवं शीत ऋतु की फसलों के खेतों में खरपतवार के रूप में
उगता है। यह कुछ-कुछ कुलफा (नोनिया) से मिलता-जुलता शाक है। इसकी पत्तियां छोटी,भूरी एवं मांसल होती है। इसकी कोमल पत्तियों एवं शाखाओं को तोड़कर भाजी पकाई जाती है। इसकी भाजी
जुलाई से लेकर दिसंबर तक उपलब्ध रहती है। इसकी पुरानी पातियों को खाने में प्रयोग करने से पेट ख़राब होने का अंदेशा रहता है। इसके पौधों में औषधीय गुण भी विद्यमान होते है। इनका प्रयोग दांतों के पायरिया, सांस-अस्थमा, पीलिया, गले की खराबी के उपचार हेतु प्रयोग में लाया जाता है।
35.कोझियारी
भाजी
कोंझियारी भाजी अर्थात जंगल में उगने वाला सफ़ेद मूसली का
पत्ता। सफेद मूसली एक शक्विर्धक औषधि है। इसके पत्तों की पौष्टिक और स्वादिष्ट भाजी बनाई जाती है। बस्तर के बनवासियों का मानना है । इस भाजी
को साल में एक बार जरूर खाना चाहिए। इसे खाने से बीमारी नहीं होती है।
36. पत्थरी भाजी
36. पत्थरी भाजी
इसे खपरखुटी भाजी के नाम से
भी जाना जाता है। यह शाक बंजर भूमि या घास जमीनों में बरसात के समय उगती है. इसके
कोमल पत्तियों और टहनियों की भाजी पकाई जाती है. इसका भाजी वर्षा ऋतु में
उपलब्ध रहती है। यह एक औषधीय महत्त्व की
वनस्पति है । सूजन को कम करने में पत्तियों का इस्तेमाल किया जाता है । आंखों
के संक्रमण का इलाज करने के लिए इसके पत्तों का रस लगाया जाता है।
37. हुरहुरिया भाजी (सिलोम विस्कोसा)
37. हुरहुरिया भाजी (सिलोम विस्कोसा)
सिलोमेसी कुल की यह
वनस्पति एक प्रकार का खरपतवार है जो बंजर भूमि, सड़क किनारे और खेतों में अपने आप
उगता है। यह तीक्ष्ण गंध वाला चिपचिपा कटु शाकीय पौधा है जो रोमों से आवृत होता है। इसकी दो प्रजातियाँ पाई जाती है-पीला और सफ़ेद हुर हुर। इस पौधे का मुलायम तना एवं पत्तियां भाजी के रूप में पकाई
जाती है। इसकी भाजी मई से अक्टूबर तक
उपलब्ध रहती है । इस भाजी में अनेक औषधीय गुण पाए जाते है । सिरदर्द, सूजन, मलेरिया और फोड़े, घाव, अल्सर, कान दर्द
आदि के उपचार में इस पौधे का इस्तेमाल किया जाता है ।हुर-हुर श्वास, कफ में भी लाभदायक पाया गया है।
कृपया ध्यान देवें : प्राकृतिक रूप से उगने वाली तथा बाड़ी/खेतों में
उगाई जाने वाली तमाम भाजियों के बारे में जानकारी लेखक ने अपने ज्ञान और अनुभव के
अलावा विषय से सम्बंधित विभिन्न शोध पत्रों/पुस्तकों से संकलित की गई है। इनके औषधीय गुणों के बारे में अथवा किसी भी रोग के उपचार में
इनके प्रयोग के पूर्व अपने चिकित्सक से परामर्श अवश्य कर लेवें। किसी
भी नई शाक-भाजी को अपने भोजन मे शामिल करने से पहले या भोज्य पदार्थ को
नियमित भोजन का हिस्सा बनाने से पहले अपने
डाइटीशियन और डॉक्टर से सलाह जरूर लें।
नोट:- इस आलेख को बगैर लेखक की अनुमति के अन्यंत्र प्रकाशित न किया जावें । प्रकाशन हेतु अनुमति लेने के उपरांत लेख में लेखक का नाम और पता अंकित करना अनिवार्य होगा तथा प्रकाशन की एक प्रति लेखक को प्रेषित करना भी आवश्यक है.
5 टिप्पणियां:
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यह तो भाजीयों पर एक लघु ग्रंथ हो गया, अत्यंत रोचक और ज्ञानवर्धक वास्तव में कितने प्रकार की भाइयों के नाम तो मैंने भी नहीं सुना था जबकि मैंने अपना 25 साल का जीवन आदिवासी ग्रामीण क्षेत्रों में बिता दिया।
इस लेख के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।।
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