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सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

कृषि शिक्षा में नवाचार विषय पर कृषि स्नातको, वैज्ञानिक, कृषि उद्यमियों एवं कृषको की प्रथम राज्य स्तरीय कार्यशाला

            कृषि स्नातको, वैज्ञानिक, कृषि उद्यमियों  एवं कृषको  की प्रथम राज्य स्तरीय कार्यशाला

                                                             प्रस्तुति डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर

                                                              कार्यक्रम अधिकारी , RAWE

 

ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव कार्यक्रम (रूरल एग्रीकल्चरल वर्क एक्सपीरियंस प्रोग्राम-रावे) के  माध्यम से कृषि शिक्षा में नवाचार विषय पर कृषि स्नातकों , वैज्ञानिक, कृषि उद्यमियों  एवं कृषको  की राज्य स्तरीय कार्यशाला का आयोजन दिनांक 21 जनवरी,2014 को  स्वामी विवेकानंद सभागार, कृषि महाविद्यालय, रायपुर  में किया गया  जिसमें प्रदेश के  समस्त कृषि महाविद्यालयो  में अध्ययनरत बी.एससी.(कृषि एवं उद्वानिकी) के  छात्र-छात्राएं, कृषि वैज्ञानिक, कृषि उद्यमी एवं किसानो को  आमंत्रित किआ गया था । पहली बार आयोजित इस राज्य स्तरीय कार्यशाला में शासकीय कृषि महाविद्यालय रायपुर सहित कृषि महाविद्यालय बिलासपुर,अंबिकापुर, कबीरधाम के छात्रो ने भाग लिया। निजी कृषि महाविद्यालयो में भारतीय कृषि महाविद्यालय, दुर्ग, छत्तीसगढ़ कृषि महाविद्यालय, भिलाई, श्रीराम कृषि महाविद्यालय, राजनांदगांव, कृषि महाविद्यालय, अम्बागढ़ चौकी(राजनांदगांव), महामाया कृषि महाविद्यालय, धमतरी, कृषि महाविद्यालय, रायगढ़, कृषि महाविद्यालय, दंतेवाड़ा के अलावा गायत्री उधानिकी महाविद्यालय, धमतरी, दंतेस्वरी उधानिकी महाविद्यालय, रायपुर, उधानिकी महाविद्यालय, पेंड्रारोड के विद्यार्थियो और सम्बधित शिक्षकों ने सक्रिय रूप से भाग लिया।  इस कार्यक्रम में बी.एससी.(कृषि) एवं एम.एससी.(कृषि) के  छात्र-छात्राओ ने किसानो के खेत औरगाँव  में प्रदर्शित कृषि तकनीकी पर आधारित रोचक  प्रदर्शनी सुसज्जित की गई  । इसमें प्रमुख रूप से समन्वित फसल प्रणाली (फसलोत्पादन के साथ साथ डेरी,मछली पालन, मुर्गी पालन, मशरूम कि खेती आदि), वर्षा जल संचयन और जल ग्रहण, पौध व किस्म विकास, कीट व रोगो की पहचान और सम्भावित निदान, गृह वाटिका, मृदा स्वास्थ परिक्षण आदि के जीवंत प्रादर्श और पोस्टर प्रदर्शित किए गए जिसे अतिथिओं और प्रतिभागिओं ने खाशा पसंद किया और भावी युवा कृषि वैज्ञानिको की नवीन कृषि अवधारणा को सराहा। कार्यक्रम का शुभारंभ  माननीय डाँ.एस.के .पाटील, कुलपति इं.गां.कृ.वि.ने  समस्त अधिष्ठाता, संचालक और  विभागाध्यक्ष तथा  की उपस्थिति में किया  ।
 कृषि महाविद्यालय रायपुर एवं निदेशालय विस्तार सेवाएं के  संयुक्त तत्वाधान में आयोजित इस कार्यशाला की आयोजन समिति के  अध्यक्ष डाँ.अ¨.पी.कष्यप अधिष्ठाता कृषि संकाय एवं प्राध्यापक डाँ.जी.एस.तोमर आयोजन सचिव थे ।
ज्ञात हो  कृषि शिक्षा को  व्यवहारिक एवं रोजगार मूलक बनाने के  उद्देश्य से भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली ने देश के  सभी राज्य कृषि विश्वविद्यालयो  के  स्नातक पाठ्यक्रम में ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव कार्यक्रम (रावे) को  अनिवार्य रूप से लागू करने दिशा निर्देश जारी किये है । इसी तारतम्य में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय ने स्नातक शिक्षा में यह योजना संलालित कर दी है । इस महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के  तहत बी.एससी.(कृषि व उद्यानिकी) और  बी.टेक.(कृषि अभियांत्रिकीय) में अध्ययनरत अंतिम वर्ष के  छात्र-छात्राओ  को  छःमाह के  लिए गांव में रहकर किसानो  के  साथ मिलकर कार्य करना होता है तथा कृषि शोध और तकनीकी पर आधारित किसानो  के  खेत पर जीवंत प्रदर्शन, कृषक प्रशिक्षण और  कृषि सूचना केन्द्र स्थापित करना होता है । इसके  अलावा छात्र-छात्राओ  को  कृषि आधारित उद्यम केन्द्रो, अनुसंधान प्रक्षेत्रों  ओर कृषि विज्ञान केन्द्रों  के  साथ भी संलग्न किया जाता है । सभी विद्यार्थियो  को  कार्यक्रम से सम्भतित एक प्रगति प्रतिवेदन तैयार  कर  व्यवहारिक परीक्षा में उत्तीर्ण होना होता है तभी उन्हे उपाधि प्रदान की जाती है । इससे छात्र-छात्राऑ में एक उत्तम वैज्ञानिक, शिक्षक, कृषि प्रशार कार्य कर्त्ता बनने के अलावा स्वंय का रोजगार स्थापित करने अथवा स्वंय की खेती को  समोन्नत करने आत्मविश्वास बढ़ता है  मार्गदर्शन प्राप्त होता है । वर्तमान परिवेश में कृषि क्षेत्र में नित नई चिनौतियां उभर रही है, यथा कृषि में धीमी वृद्धि दर, बढ़ती जनसंख्या व स्थिर फसल उत्पादन, जलवायु परिवर्तन आदि जिनका सामना करने  ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव कार्यक्रम को  और  अधिक प्रभावी बनाने की आवश्यकता है जिसके  लिए छात्रो , वैज्ञानिको  एवं उद्यमिओ  के  मध्य विचार  विमर्ष होना चाहिए । इसी उद्धेश्य से यह एक दिवसीय कार्यशाला आयोजित की गई जिसमे अपने उदगार व्यक्त करते हुए मुख्य अतिथि डाँ एस के पाटील ने कहा कि ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव विश्व्विद्यालय का एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम है जिसके माध्यम से छात्रो को कृषि की व्याहारिक ज्ञान के अलावा गाँव किसान की वास्तविक कठिनाईओं से रूबरू होने का अवसर प्राप्त होता है जिससे वे भविष्य में खेती किसानी कि समस्याओ का निराकरण आसानी से सकते है।  इस कार्यक्रम के तहत बिभिन्न महाविद्यलाओ द्वारा किए जा रहे कार्यो कि प्रशंशा की तथा छात्रो की समस्याओ को  ध्यान से  सुना और उनके निराकरण के लिए आवश्यक पहल करने का अस्वाशन दिया। आयोजन सचिव एवं कार्यक्रम अधिकारी डॉ जी एस तोमर ने कार्यक्रम के उद्देस्य एवं भविस्य में इस कार्यक्रम को और अधिक प्रभावी बनाने अपने विचार रखे।  कार्यक्रम कि अध्यछता करते हुए डॉ ओ पी कश्यप ने बताया कि वर्त्तमान में छात्रों को भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् 700 रूपए मासिक छात्रवृति देता है जो कि बहुत कम है जिसके कारण उन्हें गाओं में रहने ठहरने में काफी असुविधा होती है, इसे बढ़ाने की जरूरत है. इस पर कुलपति जी ने सहमति जताते हुए राज्य शासन की तरफ से अतरिक्त छात्रवृति प्रदान करवाने का आस्वाशन दिया जिस पर छात्रो ने प्रसन्ता जाहिर की। छात्र-किसान और वैज्ञानिक संगोस्टी में मूल रूप से

इस कार्यक्रम की अवधारणा और प्रभावी तरीके से उसे लागू  करने पर विमर्श हुआ जिसका प्रतिवेदन भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् और राज्य शासन को भेजा जा रहा है।  कार्यक्रम में 800 प्रतिभागी उपस्थित हुए जिन्हे प्रमाणपत्र और विश्वविद्यालय का कृषि पंचांग और अन्य साहित्य वितरित किया गया.प्रदेश के जाने माने कृषि उद्यमी श्री जीतेन्द्र चंद्राकर (महासमुंद), श्री  सुरेश चंद्रवंशी (कबीरधाम), श्री आनंद ताम्रकार (दुर्ग) तथा ग्राम जरौद के प्रगतिशील कृषक बी सरपंच श्री ईश कुमार साहू  के आलावा गडमान्य नागरिक उपस्थित थे।   विगत तीन वर्षो से ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव कार्यक्रम को सफलता पूर्वक संचालित करने के लिए डॉक्टर गजेन्द्र सिंह तोमर, प्राध्यापक सस्य विज्ञानं एवं कार्यक्रम अधिकारी, कृषि महाविद्यालय, रायपुर को  प्रसस्ति प्रमाण पत्र से सम्मानित किया गया।  वरिस्ठ प्राध्यापक डा एस के टांक ने आभार प्रस्ताव रखा.

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

सस्टेनबल सुगरकेन इनिसिएटिव(एस.एस.आई.): गन्ना उत्पादन की नवोन्वेषी तकनीक


डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

न्यूनतम लागत और अधिकतम लाभ :गन्ना उत्पादन की नवोन्वेषी तकनीक


                   ईख अर्थात गन्ना विश्व की सबसे महत्वपूर्ण औऱ  औधोयोगिक-नकदी  फसल है । भारत को  गन्ने का जन्म स्थान माना जाता है, जहां विश्व में गन्ने के  अन्तर्गत सर्वाधिक क्षेत्रफल पाया जाता है । विश्व में सर्वाधिक चीनी मिलें (660)  भारत में स्थापित है जिनसे 30 मिलियन टन चीनी उत्पादित (विश्व में दूसरा स्थान) होती है । देश में निर्मित सभी मीठाकारको  (चीनी,गुड़ व खाण्डसारी) के  लिए गन्ना ही मुख्य कच्चा माल है । गन्ना खेती की बढती लागत और  प्रति इकाई कम उत्पादन के  कारण किसानों  को बहुत सी समस्याओं  का सामना करना पड़ रहा है । भारत में गन्ने की  औसत उपज 70-85 टन प्रति हैक्टर के  इर्द-गिर्द ही आ पाती है जबकि ब्राजील  और थाइलेंड में 120 टन प्रति हैक्टर की अ©सत उपज ली जा रही है । मध्यप्रदेश और  छत्तीसगढ़ के  किसान  तो  गन्ने से औसतन 30-35 टन प्रति हैक्टर के  आस-पास उपज ले पा रहे है । गन्ने की खेती में लगने वाली आगतो (खाद,बीज,पानी और श्रम) की बढ़ती कीमते और  कम उपज ही गन्ना कृषको  की प्रमुख समस्या है। 
                   गन्ना फसल की भारी जल मांग, गिरते भूजल स्तर तथा रासायनिको के  बढ़ते उपयोग को  देखते हुए पारस्थितिक समस्यायें भी बढ़ रही है । अब समय आ गया है कि हमें प्रकृति मित्रवत खेती में कम लागत के  उन्नत तौर तरीके  अपनाने की आवश्यकता है जिससे प्राकृतिक संसाधनो का कुशल प्रबन्धन करते हुए गन्ना फसल से अधिकतम लाभ अर्जित किया जा सके । इस परिपेक्ष्य में धान का उत्पादन बढाने में हाल ही में अपनाई गई "श्री विधि" कारगर साबित हो  रही है। इसी तारतम्य में हैदराबाद स्थित इक्रीसेट व डब्लू.डब्लू.एफ. प्रोजेक्ट ने गन्ना उत्पादन की एस.एस.आई. तकनीक का विकास किया है, जिसके उत्साहजनक परिणाम प्राप्त हो रहे है।   एस.एस.आई.अर्थात सस्टेनेबल सुगरकेन इनीशियेटिव (दीर्धकालीन गन्ना उत्पादन तकनीक) गन्ना उत्पादन की वह विधि है जिसमें गन्ने से प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन लेने न्यूनतम बीज और  कम पानी में भूमि व उर्वरकों  का कुशल उपयोग किया जाता है । वास्तव में यह बीज, जल और  भूमि का गहन उपयोग करने वाली गन्ना उत्पादन की नवीन वैकल्पिक विधि है । दरअसल, पर्यावरण को  क्षति पहुँचाये बिना प्रति इकाई जल, जमीन और  श्रम से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने की यह नवीन अवधारणा है, जिसके  प्रमुख सूत्र इस प्रकार हैः
1.    गन्ने की एकल कलिका वाले टुकडो का प्रयोग करते हुए पौधशाला स्थापित करना
2.    कम आयु (25-35 दिन) की पौध रोपण
3.    मुख्य खेत में पौधों  के   मध्य उचित फासला( 5 x 2 फीट) रखना
4.    मृदा में आवश्यक नमीं कायम रखना तथा खेत में जलभराव रोकना
5.    जैविक माध्यम से पोषक तत्व प्रबंधन व कीट-रोग प्रबंधन
6.    भूमि और  अन्य संसाधनो  का  प्रभावकारी उपयोग हेतु अन्तर्वर्ती फसलें लगाना ।
गन्ना की अधिक उपज देने वाली  को-86032 किस्म
                    गन्ना लगाने की पारंपरिक विधि में रोपाई हेतु 2-3 आँख वाले टुकडॉ का उपयोग किया जाता है। एस.एस.आई. विधि में स्वस्थ गन्ने से सावधानी पूर्वक एक-एक कलिकाएं निकालकर पौधशाला (कोको पिथ से भरी ट्रे) में लगाया जाता है । मुख्य खेत में 25-35 दिन की पौध रोपी जाती है । पौधशाला में एक माह में पौधों  की वृद्धि बहुत अच्छी हो  जाती है। पारंपरिक विधि में एक एकड़ से 44000  गन्ना प्राप्त करने हेतु दो  कतारों के  मध्य 45 से 75 सेमी.(1.5-2.5 फीट) की दूरी रखी जाती है और  प्रति एकड़ तीन आँख वाले 16000 टुकड़े (48000 आँखे) सीधे खेत में  रोप दी जाती है । परन्तु अंत में सिर्फ 25000 पिराई योग्य गन्ना ही प्राप्त हो  पाता है । जबकि एस.एस.आई. विधि में अधिक फासलें (कतारों  के  मध्य 5 फीट और  पौधों  के  मध्य 2 फीट) में रो पाई करने से कंसे अधिक बनते है जिससे 45000 से 55000 पिराई योग्य गन्ना प्राप्त हो  सकता है । इस प्रकार से कतारों  व पौधों  के  मध्य चौड़ा फासला रखने से न केवल कम बीज ( तीन आँख वाले 16000 टुकड़¨ं की अपेक्षा एक आँख वाले 5000 टुकड़े) लगता है बल्कि इससे प्रत्येक पौधे को हवा व प्रकाश सुगमता से उपलब्ध होता रहता है जिससे उनका समुचित विकास ह¨ता है ।
               एस.एस.आई. विधि में जल प्रबंध पर विशेष ध्यान दिया जाता है । खेत में पर्याप्त नमीं बनाये रखना लाभकारी पाया गया है । बाढ. विधि से सिंचाई करने से पानी कि अधिक मात्रा तो लगती ही है, पौधों  की बढ़वार पर भी बिपरीत प्रभाव पड़ता है । पौधशाला में पौध तैयार करना, कूड़ या एकान्तर कूड़ विधि या टपक विधि से आवश्यकतानुसार सिंचाई करने से 40 प्रतिशत तक जल की वचत संभावित है । दीर्धकाल तक अधिक उत्पादन प्राप्त करने हेतु रासायनिक उर्वरको  और  कीटनाशको  पर निर्भरता कम करने की आवश्यकता है । इसके  लिए जैविक खाद व जैव उर्वरकों  का प्रयोग किया जाना आवश्यक है । समन्वित     पोषक तत्व प्रबंधन करना अधिक लाभकारी पाया गया है  । एस.एस.आई. विधि में गन्ने की दो  कतारों के  बीच गेंहू, चना, आलू, राजमा, बरवटी, तरबूज, बैगन आदि फसलों की अन्र्तवर्ती खेती को  प्रोत्साहित किया जाता है । इससे भूमि, जल आदि संसाधनों का कुशल उपयोग होने के साथ-साथ खरपतवार भी  नियंत्रित रहते है और  किसानो  को  अतिरिक्त आमदनी भी प्राप्त हो  जाती है ।

                                                   एस.एस.आई. तकनीक  के प्रमुख चरण

1.आँख (कलिका चयन)
                        एस.एस.आई. विधि में स्वस्थ मातृ गन्ने से एकल आँख वाले टुकङों को  पौधशाला में लगाया जाता है । इस विधि में गन्ने की कतारों एवं पौधों के मध्य काफी दूरी (कतारों  के  मध्य 5 फीट और  पौधों के मध्य 2 फीट) रखी जाती है जिससे प्रति एकड़ 5000 कलिकाओ  की आवश्यकता होती है । कलिका चयन हेतु स्वस्थ 7-9 माह पुराने एसे गन्नो को छांटे जिनके  इंटरनोड की लंबाई (17-20 सेमी.) और  मोटाई अच्छी हो  । कलिका चयन के  समय ध्यान में रखें की कलिकाएं न तो  अधिक ऊपर से और  न ही नीचे की 3-4 छोटी इंटरनो ड से लें । कीट-रोग संक्रमित गन्नो  का प्रयोग बीज हेतु न करें । बीज के  लिए चयनित गन्ने से कलिका निकालने हेतु बड चिपर (औजार) का प्रयोग करना चाहिए । इससे कम समय में अधिक आँखे (150 प्रति घण्टा) सुगमता से निकल आती है । इससे आँखे क्षतिग्रस्त भी नहीं ह¨ती है । अस्वस्थ, क्षतिग्रस्त अथवा अंकुरित कलियों को निकाल कर अलग कर दें । जितनी आवश्यक हो, उतनी ही कलिका तैयार करें । खेत से लाये गये बीजू गन्नो को  छाया में रखना चाहिए । एक एकड़ के  लिए 7-9 माह के  450 से 500 गन्नो  (प्रत्येक में 10-12 कलिका हो ) की आवश्यकता होती है । एक एकड़ हेतु पौधशाला बनाने 100 प्लास्टिक ट्रे (प्रत्येक में 50 कोन होते है) में 150 किग्रा. कोको पिथ (नारियल का जूट) डालकर 5000 कलिकाओ को लगाया जाना चाहिए ।

2. बीज (कलिका) शोधन

                   कीट-रोग संक्रमण से कलिकाओ  की सुरक्षा करने के  लिए उनका उपचार करना आवश्यक होता है ।कलिका उपचार हेतु सबसे पहले एल्युमिनियम या प्लास्टिक के पात्र में 10 लीटर पानी भर कर जैविक व रासायनिक दवाएं (मैलाथियान 20 मिली, कार्बेन्डाजिम 5 ग्राम, ट्राइकोडर्मा-500 ग्राम, गौमूत्र-1 से 2 लीटर और  बुझा चूना-100 ग्राम) घोल लेते है । बीजू टुकडो को जूट के  बोरे में रखकर उक्त घोल में 10-15 मिनट डुबा एं । इसके  पश्चात इन टुकडो को  निकालकर 2-3 घण्टे छाया में सुखाने के  बाद पौधशाला में लगाना चाहिए । इस प्रकार से कलिका शोधन करने से 90 प्रतिशत तक अंकुरण होता है ।

3.पौधशाला तैयार करना

                  गन्ने की पौध तैयार करने के  लिए छाया-जाली (शेड नेट) का उपयोग करना उत्तम रहता है । अच्छी प्रकार से सड़ा हुआ कोकोपिथ (नारियल की जटा) लेकर प्रत्येक प्लास्टिक ट्रे के  कोन को  आधा भर दें । अब कोन में एक टुकड़े को  समतल या हल्का तिरछा रखकर कोको पिथ से हल्का ढंक दें । ध्यान रखें कि आँख की स्थिति ऊपर की तरफ रहें । सभी ट्रे भरकर इसी प्रकार से टुकडो को लगाना चाहिए । अब ट्रे को  एक दूसरे के  ऊपर जमाकर रखें (चार सेट-प्रत्येक में 25 ट्रे) तथा सबसे ऊपर एक खाली ट्रे को  उलटा कर रखें तथा पोलीथिन से प्रत्येक सेट को  बांध कर 5-8 दिन के  लिए यथावत स्थिति में छोड़ दें । दीमक से बचाव हेतु ट्रे के  चारो  तरफ भूमि में क्लोरोपायरीफास 50 ईसी (5 मिली प्रति लीटर पानी) छिड़कना चाहिए । ध्यान रखें कि ट्रे को पो लीथिन में लपेटकर छाया-जाली या कमरे के  अन्दर रखें जिससे उसमें हवा, पानी व प्रकाश प्रवेश न कर पाये । मौसम ठण्डा होने पर कमरे में कृत्रिम ताप (बल्व) की व्यवस्था करना चाहिए । उपयुक्त दशा (गर्म जलवायु) में 3-4 दिन के  अन्दर पौध में सफेद जड़ें तथा 2-3 दिन बाद तना दिखने लगता है।
            जलवायुविक परिस्थितियों के  अनुसार 5-8 दिन में सभी अंकुरित ट्रे को  पालीथिन से अलग करें और  जमीन पर विधिवत जमाकर रखें जिससे उनमें पानी व अन्य प्रबंधन कार्य आसानी से किये जा सके  । ट्रे की कोको पिथ में नमीं की स्थिति देखकर पौधों में फब्बारे की सहायता से संध्या के  समय 15 दिन तक हल्का पानी देते रहना चाहिए । तने की बढ़वार होने लगती है तथा पत्तियाँ निकलने लगती है । दो  पत्ती अवस्था पर पानी की मात्रा बढ़ा देना चाहिए ।
        पौध की छठी पत्ती अवस्था (लगभग 20 दिन की पौध) पर एकसार लंबाई के  पौधों  को छांटकर अलग-अलग ट्रे में रखें । पौध छांटने के  एक दिन पूर्व पानी देना बंद कर दें जिससे ट्रे की कोको पिथ ढीली हो  जाए । क्षतिग्रस्त या मृत पौध अलग कर दें ।

4.मुख्य खेत की तैयारी

                      खेत से पिछली फसल के अवशेष व खरपतवारों  की सफाई कर एक-दो  बार जुताई कर एक सप्ताह के  लिए खुला छोड़ देना चाहिए । खेत में 25-30 सेमी. गहरी जुताई करने से हवा पानी का आवागमन अच्छा होता है । भूपरिष्करण का कार्य हैरो  या रोटावेटर की सहायता से इस प्रकार करे जिससे खेत में फसल अवशेष व ढेले न रहें । हल्का सा ढाल रखते हुए  पाटा चला कर खेत को समतल बनाए जिससे सिंचाई व जलनिकास सुगमता से हो  सके  ।

5.जैविक खाद का प्रयोग

                  गन्ना उत्पादन की इस विधि में जैविक खाद के  प्रयोग को  बढ़ावा दिया जाता है । जैविक अर्थात कार्बनिक खादों के  प्रयोग से भूमि में पोषक तत्वों  की उपलब्धता बढने के  साथ साथ, पर्यावरण संरक्षण और  रासायनिक उर्वरको  की  उपयोग क्षमता भी बढ़ती है । अंतिम जुताई के  समय प्रति एकड़ 8-10 टन गोबर की खाद या कंपोस्ट या शक्कर कारखाने से प्राप्त प्रेसमड मिट्टी में मिलाना चाहिए । जैविक खाद की मात्रा इस प्रकार से समायोजित करें जिससे फसल को  112 किग्रा. नत्रजन प्रति एकड़ प्राप्त हो  जाए । जैविक खाद में ट्राइकोडर्मा और  स्यूडोमोनास (प्रत्येक 1 किग्रा प्रति एकड़ की दर से) मिलाने से मृदा उर्वरता में सुधार होता है जिससे उपज में बढोत्तरी होती है। हरी खाद वाली फसलें जैसे सनहेम्प या ढ़ेंचा उगाकर भी अंतिम जुताई के  समय खेत में मिलाना लाभप्रद रहता है । खेत में नालियाँ (5 फिट के  अन्तर पर) बनाने से खाद एवं सिंचाई का उपयोग कुशलता से किया जा सकता है ।

6.पौ ध रोपड़

                       पौधशाला में तैयार पौधों को  25 से 35 दिन की अवस्था पर मुख्य खेत में  रोपण कर देना चाहिए । रोपण से एक दिन पहले पौधशाला में सिंचाई बंद कर दे जिससे कोन की कोकोपिथ ढीली हो  जाए तथा कोन से पौध आसानी से निकल सके । पौध रोपण से 1-2 दिन पूर्व खेत में सिंचाई करें । खेत में पौध को  2 फिट की दूरी पर जिगजैग (जेड आकार) विधि से लगाने से पौधों को स्थान व प्रकाश अधिक मिलनेे से कंसे अधिक फूटते है । अच्छा होगा यदि पौधों  का रोपण उत्तर-दक्षिण दिशा में किया जाये । पौध रोपण  के  पश्चात खेत में हल्की सिंचाई करें । पौध स्थापित हो जाने के  उपरांत मातृ तने को  भूमि से 1 इंच ऊपर से काट देने से कंसे एक समान और  अधिक मात्रा में बनते है जिससे पिराई योग्य गन्ने अधिक संख्या में प्राप्त होते है । इस कार्य को  थोड़े से क्षेत्र में प्रयोग करके  परखें तथा अच्छे परिणाम दिखने पर बड़े पैमाने पर प्रयोग करें । जलवायु की स्थिति तथा पौध बढ़वार के  अनुसार मातृ तनों को रोपाई के  3 से 30 दिन के  अन्दर काटा जा सकता है । फंफूद संक्रमण से पौध सुरक्षित रखने के  लिए मातृ तना काटने से पूर्व सिंचाई अवश्य करें ।

7.निंदाई-गुड़ाई

                 नमीं और पोषक तत्वों के प्रभावकारी अवशोषण हेतु खेत को  खरपतवार मुक्त रखना अनिवार्य हो ता है । इसके  लिए रोपण से पहले खेत की गहरी जुताई कर बहुवर्षीय खरपतवारो को निकाल देना चाहिए । रोपाई के  30, 60 व 90 दिन बाद यांत्रिक विधियों  (कोनोवीडर) से निदाई गुड़ाई संपन्न करें । खरपतवार नियंत्रण की अन्य वैकल्पिक विधि का  प्रयोग आवश्यकतानुसार करते रहें ।

8.पलवार का प्रयोग

            गन्ने की सूखी पत्तियों  या कचरा का उपयोग पलवार के  रूप में करने से खेत के खरपतवार कम उगते है, नमीं का सरंक्षण होता है और खेत में केचुआ भी अधिक पनपते है जिससे मृदा उर्वरता, जल धारण क्षमता व वातन में सुधार होता है । अतः गन्ने की कतारों  में 1.5 टन प्रति एकड़ की दर से रोपाई के 3 दिन के  अन्दर गन्ना अवशेष विछाना लाभकारी होता है ।

9.उर्वरक प्रयोग

                     दीर्धकालीन फसल होने के कारण गन्ने को अधिक मात्रा में पोषक तत्वों कि आवश्यकता होती है।  अतः फसल बढ़वार व विकास हेतु पोषक तत्व प्रबंधन  पर ध्यान देना आवश्यक होता है । पोषक तत्वो  की सही मात्रा का निर्धारण मृदा परीक्षण के  आधार पर किया जाना चाहिए । मृदा परीक्षण संभव न होने पर नत्रजन, स्फुर व पोटाष की क्रमशः 112, 25 व 48 किग्रा. मात्रा प्रति एकड़ की दर से दी जा सकती है । उक्त पोषक तत्वो  की पूर्ति यूरिया, सिंगल सुपर फास्फेट, म्यूरेट आफ पोटाष और  अमोनियम सल्फे ट के  माध्यम से की जा सकती है । उक्त उर्वरकोण को  2-3 किस्तों  में देना लाभप्रद रहता है । खेत की अंतिम तैयारी करते समय जैविक खादों  यथा गोबर की खाद (3-4 टन), मुर्गी खाद(1-2 टन) या प्रेसमड को मिटटी में अच्छी प्रकार मिलाना चाहिए । इसके  अलावा जैव उर्वरको  जैसे एजोस्परिलम एवं फास्फ़ो बैक्टीरिया (प्रत्येक 2 किग्रा.) को  200 किग्रा. गोबर की खाद के  साथ मिलाकर रोपाई के  30 व 60 दिन बाद मिट्टी चढ़ाते समय कतार में देने से पौधों  का विकास अच्छा होता है ।

10.जल प्रबंध

                गन्ने की फसल में बाढ़ विधि से अधिक पानी देने की अपेक्षा समय पर ईष्टतम मात्रा में पानी देना उपयुक्त रहता है । औसतन  100 टन पिराई  योग्य  गन्ना पैदा करने के  लिए वर्षा जल को  मिलाकर लगभग 1500 मिमी. जल (फसल अवधि के दौरान 60 लाख लीटर पानी प्रति एकड़) की आवश्यकता होती है । जबकि परंपरागत विधि के  अन्तर्गत बाढ़ विधि से 2000 मिमी. जल (80 लाख लीटर प्रति एकड़) सिचाई के  माध्यम से देना पड़ता है । बाढ विधि से सिंचाई करने पर पानी बर्वाद होने के  साथ-साथ फसल वृद्धि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।
                  गन्ने में सिंचाई की संख्या भूमि का प्रकार, जलवायु, वर्षा की मात्रा और  फसल की आयु पर निर्भर करती है । हल्की मृदा में अधिक तथा भारी मृदाओं  में कम सिंचाई देना पड़ती है । कल्ले बनने की अवस्था (36-100 दिन) के  समय 10 दिन के  अन्तराल, फसल की अधिकतम बढ़वार (101-270 दिन) के  समय 7 दिन तथा परिपक्वता अवधि (271 से कटाई तक) 15 दिन के  अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए । सिंचाई नाली अथवा कतार छोड़ विधि से करने से 50 प्रतिशत जल की वचत होती है । बूंद-बूंद (टपक) सिंचाई विधि से 90 प्रतिशत सिंचाई दक्षता मिलती है एवं 40-50 प्रतिशत जल की वचत होती है । एस.एस.आई. विधि से गन्ना लगाने से लगभग 4-5 सिंचाईयों  की बचत होती है क्योकि गन्ने की अंकुरण अवस्था (35 दिन तक) पौधशाला में व्यतीत हो  जाती है । सीधे खेत में गन्ना  रोपने से प्रारम्भिक एक माह तक अधिक सिचाई करना होता है।

11.मृदा दाब (मिट्टी चढ़ाना)

                    गन्ने के पौधों पर मिटटी चढ़ाना एक महत्वपूर्ण ही नहीं वल्कि आवश्यक सश्य क्रिया है, जिसमें  पौधों को  दृढ़ता प्रदान करने उसके  जड़ क्षेत्र पर मिट्टी चढ़ाई जाती है । फसल अवधि के दौरान दो  बार मिट्टी चढ़ाने (आंशिक व पूर्ण रूप से) का कार्य किया जाता है । पहली बार खड़ी फसल में उर्वरक देते समय आंशिक मिट्टी चढ़ाने (नाली के दोनों तरफ से मिट्टी लेकर) का कार्य किया जाता है जिससे नवोदित जडॉ  को  सहारा मिलने के  अलावा मृदा में उर्वरक भली भांति मिल जाता है । यह कार्य देशी हल की सहायता से भी किया जा सकता है । दूसरी बार खड़ी फसल में उर्वरक देने के  बाद (चरम कंशा निर्माण अवस्था) पूर्णरूप से मिट्टी चढ़ाने का कार्य किया जाता है । इसमें मेड़ की मिट्टी को  दोनों तरफ नालियों में डाला जाता है जिससे नालियों  की जगह मेंड़ और  मेंड़ के  स्थान पर नालियाँ बन जाती है । इस प्रकार से नवनिर्मित नालियाँ सिंचाई हेतु उपयोग में ली जाती है ।

12.डिट्रेसिंग

                 पौधों  से गैर उपयोगी और  अधिक पत्तियों को निकालने की क्रिया डिट्रेसिंग कहते है । गन्ने के  पौधों  में बहुत सी पत्तियाँ विकसित होती है । फसल बढ़वार की उत्तम परिस्थितियों  में सामान्य तने में 30-35 पत्तियाँ बनती है । परन्तु कारगर या प्रभावकारी प्रकाशसंश्लेषण हेतु ऊपर की 8-10 पत्तियाँ पर्याप्त होती है । पौधे की अधिकांश नीचे वाली पत्तियाँ प्रकाश संश्लेषण क्रिया में भाग नहीं लेती है और  अंततः सूख जाती है । परन्तु वे भूमि से पोषक  तत्व ग्रहण करने में प्रतिस्पर्धा करती है । अतः यह आवश्यक है कि पांचवे व सातवे माह में नीचे की  सूखी व हरी पत्तियों को निकाल कर दो  कतारों के  मध्य पलवार के  रूप में विछा देना चाहिए । डिट्रेसिंग करने से पौधो के बीच हवा व प्रकाश का समुचित आवागमन होता है । खेत में सफाई रहने से कीट-रोग का संक्रमण कम होता है । खेत में निंदाई-गुड़ाई जैसे सस्य कार्य सुगमता से संपन्न किये जा सकते है ।इस प्रकार गैर- ऊपयोगी व सूखी पत्तियों को  तनों से निकल कर  पलवार के  रूप में प्रयोग करने से न केवल पौधों में प्रकाश संश्लेषण और पोषक तत्वों का अवशोषण बढ़ता है वाकई मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में बढोत्तरी भी होती है ।

13.सहारा देना

               गन्नों  को  गिरने से बचाने के  लिए  उनके  तनों को  मिलाकर पत्तियों  की सहायता से बांध दिया जाता है जिसे सहारा देना कहते है । परंपरागत विधि में या तो  गन्नो  को  प्रत्येक कतार में बांधा जाता है अथवा दो  कतारॉ  के  गन्नो को  आपस में बांध दिया जाता है । एसएसआई विधि में खेत में  एक तरफ लकड़ी के  खंबे गाड़ दिये जाते है, जिनके  सहारे पौधों को  बांधा  जाता है । मुख्यरूप से मध्यम स्तर की सूखी या गैर उपयोगी पत्तियों को  मिलाकर तनों  को  आपस में बांध  दिया जाता है, जिससे उनके गिरने कि सम्भावना नही रहती है।

14.पौध संरक्षण

                 मीठा होने कि वजह से गन्ने की फसल में विभिन्न कीट-रोगों  का प्रकोप अधिक  होता  है । जैविक विधि से कीट व रोगों पर नियंत्रण पाया जाता है ।  कीट-रोग प्रतिरोधी किस्मों के  बीज का चयन करें तथा बीजोपचार कर बुवाई करें । फसल चक्र व सस्य विधियों  का अनुपालन करने से कीट-ब्याधियों  का प्रकोप कम होता  है ।

15.अंतरवर्ती खेती

                  गन्ने के  पौधें  काफी दूरी पर लगाये जाते है । अतः गन्ने की दो  कतारों  के  मध्य लोबिया, चना, आलू, मूंग, गेंहू, सरसॉ , ककड़ी, तरबूज आदि फसलें लगाई जा सकती है । अंतरवर्ती फसल से खरपतवार नियंत्रित रहते है, मृदा उर्वरता में सुधार होता है तथा अतिरिक्त आमदनी प्राप्त होती है ।

16.गन्ना कटाई

            गन्ने की कटाई सही समय पर आवश्यकतानुसार करें । एक वर्ष की फसल के पौधों में वांछित शुक्रोश  प्रतिशत 10वें माह में आने लगता है । इसके  दो  माह में गन्ना कटाई कार्य किया जा सकता है ।

नोट-कृपया इस लेख को लेखक की  बगैर अनुमति के कही भी अन्यंत्र न प्रकाशित किया जावे।

रविवार, 10 नवंबर 2013

राजनेताओं और उच्च पदस्थ अधिकारयों को भगवान श्रीराम के अनुशासन की नसीहत


                                                      सादर प्रस्तुति डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर
      भगवान श्री राम जब अयोध्या के  सिंहासन पर बैठे तो  वहां के  नागरिको  को  संबोधित करते हुए उन्होने अपने भाषण के  आरंभ में कहा-मित्रो ! मेरे राज्य की सच्ची प्रजा वह है जो  मेरा अनुशासन माने और  मेरा अनुशान मानकर मेरे अनुशासन में रहे । तो  प्रजा ने कहा “बताइये-अनुशासन का पालन हम लोग क्या करें ?  तो भगवान श्रीराघवेन्द्र कहते है-
                                                   सोई सेवक प्रियतम मम सोई । मम अनुशासन मानै जोई ।।
और मेरा अनुशासन क्या है । भगवान श्रीराम ने कहा-
                                                   जौ  अनीति कछु भाषौ भाई । तौ  मोहि बरजहु भय बिसराई ।।
             "अगर मेरे जीवन में, मेरी वाणी में, मेरे चरित्र में, कही नीति के  विरूद्ध आचरण हो  तो  आप लोग
भय छोड़ करके  मुझे रोक दीजियेगा" । भगवान श्रीराम की अनुशासन की परिभाषा कितनी अद्धभुत  है । अनुशासन में वे कहते है-"तुम बोलो ! अगर मुझमें कुछ दोष समझते हो  तो  तुम उसकी आलोचना करो ! तुम
मिर्भय हो  जाओ ! तुम्हारे अतःकरण का संचालन विवेक के  द्वारा हो, लोभ और भय के  द्वारा नहीं" !कितने सुंदर और प्रेणादायक वचन कहे है श्रीरामजी ने।
            आज हमारे देश में सभी जगह भ्रस्टाचार और कुशासन का बोलबाला है। भारत में उच्च पदों  पर सोभायमान राज नेता, अधिकारी, सचिव, कुलसचिव, कुलपति, विभाग प्रमुख इस प्रकार के  अनुशासन का थोड़ा सा भी अनु पालन करने लगें तो उनके मातहत अधिकारी-कर्मचारी पूरी ईमानदारी से राष्ट्र हित और लोकहित में अपनी  सेवाएँ देने में अपना सबकुछ अर्पण कर देंगे जिसके फलसवरूप भ्रष्टाचार पर भी लगाम कस सकता  है और तभी सही मायने में रामराज्य -स्वराज्य स्थापित हो पायेगा।  
               भगवान श्री राम से प्रार्थना  करता हूँ कि जिन के हाथो देश के बिभिन्न मंत्रालयों, बिभागो और संस्थानो की बागडोर है उन्हें इस तरह के अनुशाषन पालन की सदबुद्धि और कड़ी नशीहत प्रदान करेंगे जिससे भारत भूमि अपनी खोई हुई गरिमा पुनः प्राप्त कर सकें। 

                                                                         जय श्री राम !

शनिवार, 2 नवंबर 2013

दीपावली से जुड़े कुछ रोचक तथ्य

                                                  सभी मित्रों -शुभ चिंतकों को 

                                  दीपावली की अनंत ज्योति भरी शुभकामनाएँ 

 

                                         दीपावली से जुड़े कुछ रोचक तथ्य

    दीपावली के दिन भगवान श्री राम लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध करके तथा 14 वर्ष का वनवास पूर्णकर अयोध्या लौटे थे।
    द्वापुर युग में इसी दिन भगवान श्री कृष्ण की भार्या सत्यभामा ने अत्याचारी नरकासुर का वध किया था.    इसी दिन भगवान विष्णु ने श्रीनरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था.    इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए थे।
    जैन मतावलंबियों के अनुसार 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी इसी दिन है.    इसी दिन अमृतसर में १५७७ में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था। 
    इसी दिन सिक्ख छठवें गुरू श्री गुरू हरगोबिन्द साहिबजी जहांगीर शासक की जेल से मुक्त हुए थे ।
    सम्राट विक्रमादित्य का राज्याभिषेक दीपावली के दिन हुआ था।
    दिवाली के  ही दिन 12 वर्ष का वनवास पूर्ण कर पाण्डव हस्तिनापुर वापस लौटे थे ।
    खरीफ ऋतु की बिदाई एवं शीतऋतु (रबी फसलॉ  की बुवाई) का शूभारंभ काल ।
    दीवाली भारत का राष्ट्रीय पर्व है और  इसे त्रिनिदाद व टोबागो, मयनमार, नेपाल, श्रीलंका, मौरीसस, ग्याना, सुरनाम, सिंगापुर, मलेशिया और  फिजी देशो  में भी धूमधाम से मनाया जाता है ।
                           पुनः सभी इष्ट मित्र जनों को हार्दिक बधाई एवं नव वर्ष की मंगल कामनाऍ। 
                                                                                                              -डॉ. गजेन्द्र

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

क्विन्वा: खाद्यान्न और पोषण सुरक्षा हेतु भविष्य की अद्भुत फसल

                                                          

डॉ.ग़जेन्द्र सिंह तोमर

प्राध्यापक (सस्य विज्ञानं विभाग)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

   

                                                   अन्तराष्ट्रीय किन्वा वर्ष 2 0 1 3 के उपलक्ष्य में 


               अनियंत्रित जनसंख्या, बढ़ते शहरीकरण, ओद्योगिकीकरण, पर्यावरण प्रदूषण एवं जलवायु परिवर्तन के  कारण विश्व की जैव विविधता में अपूर्णनीय क्षति हुई है । विश्व में पाई जाने वाली आर्थिक महत्व की 80,000 पौध  प्रजातियो  मे से 30,000 प्रजातियाँ खाने योग्य है जिसमें से अभी तक 7000 प्रजातियाँ ही मनुष्य द्वरा उगाई गई है । इनमें से मात्र 158 पौध  प्रजातियाँ ही मानव समाज के  लिए खाद्यान्न के  रूप में प्रयोग में लाई जा रही है । वर्तमान में तीस फसलों से विश्व में 90 प्रतिशत खाद्यान्न उत्पादित होता है । विश्व के 75 प्रतिशत खाद्यान्न का मुख्य स्त्रोत  10 फसलें ही है, जिनमें से चावल, गेहूँ व मक्का की भागीदारी लगभग 60 प्रतिशत है । भारत में तो  अधिकांश जनता की खाद्यान्न की जरूरते महज चावल व गेंहू से पूरी होती है । जाहिर है कि मात्र कुछ फसलो  पर विश्व की खाद्यान्न आपूर्ति टिकी हुई है, जो  कि भविष्य के  लिए शुभ संकेत  नहीं है । हमारे पूर्वज विभिन्न ऋतुओ  के  हिसाब से अपने भोजन में विविध खाद्यान्नो  का इस्तेमाल करते थे  जिससे वे सदैव स्वस्थ व कार्य पर मुस्तैद रहते थे । वैसी विविधता तो अब कहानियो  में ही रह गई है । आज कुछ खास फसलो पर निर्भरता को  कम करते हुए अशिंचित  क्षेत्रों की पर्यावरण व पोषण  हितैषी फसलो  के महत्व को  पुनः स्थापित करने की महती आवश्यकता  है । तभी हम आसन्न जलवायु परिवर्तन, जनसंख्या विस्फोट और   कुपोषण जैसी महामारी से निजात पाने में सफल हो  सकते है । आज हमारी कृषि में लागत बढ़ रही है और  आगत सीमित होती जा रही है, जिससे खेती-किसानी से ग्रामीण युवाओ  का मोह  भंग होना भविष्य के  लिए गंभीर खतरा  है । धान-गेहूँ फसल पद्धति पर आधारित हमारी खेती पर खतरे के  बादल मंडराने लगे है । गिरते भूजल, बढते तापक्रम, घटती जमीनो  की उर्वराशक्ति आदि ऐसे कारक है जिनकी अनदेखी करना बहुत भारी पड़ सकता है । पुरातन काल में बहुत सी ऐसी फसलें उगाई जाती थी जिनसे कम पानी और  सीमित सस्य प्रबंधन  में भी बेहतर उत्पादन प्राप्त कर लिया जाता था । खाद्यान्न और  पोषण सुरक्षा को  दृष्टिगत रखते हुए अल्प-प्रयुक्त प्राचीन फसलों  को  विश्वस्तर पर संभावित वैकल्पिक खाद्यान्न फसलो  के  रूप में देखा जा रहा हैे । वास्तव में विलुप्त होती जा रही ये फसलें विपरीत परिस्थितियो एवं समस्याग्रस्त भूमियो पर भी अच्छी पैदावार देकर हमारी भोजन व पोषण की आवश्यकता की पूर्ति करती है ।यदि इन फसलो  की खेती को  यथोचित प्रोत्साहन  दिया जाय तो  यह छोटे व मझोले किसानो के  लिए वरदान साबित होगी । ऐसी ही एक अदभुत फसल जिसे किन्वा  के नाम से जाना जाता है । संयुक्त राष्ट्र संघ-कृषि एवं खाद्य संगठन  ने   वर्ष 2013  को  अन्तराष्ट्रीय किन्वा   वर्ष  घोषित किया है जिससे इस जीवनदायनी  फसल के  महत्व से जन साधारण परिचित हो सकें । आइए इस अद्भुत फसल के चमत्कारिक गुणों से आपको परिचित करवाते है:

क्विनवा क्या है ?

               दक्षिण अमेरिका की एन्डीज पहाड़ियो  पर आदिकाल से यह  एक वर्षीय पौधा उगाया जा रहा है । क्विनआ एक स्पेनिश शब्द है। यह  बथुआ कुल (Chenopodiaceae) का  सदस्य है  जिसका वानस्पतिक नाम  चिनोपोडियम किन्वा  (Chenopodium Quinoa) है। इसका बीज अनाज जैसे चावल, गेंहू आदि की भाँती  प्रयोग में लाया जाता  है। चूकि यह घास कुल (Graminae) का सदस्य नहीं है इसलिए इसे कूट  अनाज (Pseudocereal) की श्रेणी में रखा गया है जिसमे  वक व्हीट, चौलाई आदि को भी  रखा गया  है। खाद्यान्नो से अधिक पौष्टिक और खाद्यान्नो जैसा उपयोग, इसलिए इसे महाअनाज कहा जाना चाहिए।   । बथुआ, पालक व चुकंदर इसके सगे सम्बन्धी पौधे  है । बथुआ प्राचीन काल से ही हमारे देश में खाद्यान्न एवं हरे पत्तेदार सब्जी के  रूप में प्रयोग होता था  । बथुआ की चार प्रजातियो  की खेती की जाती है । ये प्रजातियाँ है-चीनोपोडियम एल्बम, चीनोपोडियम क्विनआ, चीनोपोडियम  नुट्टेलिएई और  चीनोपोडियम पेल्लिडिकली है । इनमें प्रथम प्रजाति भारतीय उपमहादीप में लो कप्रिय है। आजकल आधुनिकता की दौड़ में हमने इसे समस्यामूलक पौधा- खरपतवार मानकर इसे जडमूल से नष्ट करने में लगे है। गेंहू, चना, सरसों के खेतो में स्वतः उग आता है और यदा कदा कुछ समझदार इसे भाजी या भोज्य पदार्थ के रूप में इस्तेमाल कर लेते है। वास्तव में पोषण व स्वास्थ्य में  हरी पत्तेदार सब्जिओ में बथुआ का कोई मुकाबला नहीं हो सकता। बथुए की अन्य तीन प्रजातियो  की खेती मध्य व दक्षिणी अमरीका की एन्डीज पहाड़ियो -मेक्सिको , पेरू, चायल, इक्वाडोर और  बोल्वीया में अधिक प्रचलित है । तमाम खूबियो के कारण अब क्विनआ  एन्डीज की पहाड़ो  से निकलकर  उत्तरी अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, चीन, जापान और भारत में भी  सुपर बाजारों में उपस्थिति दर्ज करा चुकी  है और अमीर  लोगो  की पहली पसंद बनती जा रही है। अब इन देशो  में इसकी खेती को  विस्तारित करने प्रयोग हो  रहे है । पुरानी इन्कास सभ्यता में यह पवित्र अनाज कहा जाता था तथा वहा के  लोग  इसे मातृ-दाना (Mother-grain) मानते थे जिसके  खाने से लंबा व स्वस्थ जीवन मिलता था। वहां के  सम्राट सबसे पहले प्रति वर्ष इसके  दाने सोने के  फावड़े से बोया करते थे ।
          भारत में उगाये गये इसके  पौधे 1.5 मीटर की ऊचे, शाखायुक्त रंग विरंगे चोड़े पत्ते वाले होते है । बीज विविध रंग यथा सफेद, गुलाबी, हल्के  कत्थई आदि रंग के  होते है । इसकी जड़े काफी गहराई तक जाती है जिससे असिंचित-बारानी अवस्थाओ  में इसे सफलतापूर्वक उगाया जाता है ।

              संपूर्ण प्रोटीन में धनी क्विनवा  को  भविष्य का बेहतर अनाज (सुपर ग्रेन) माना जा रहा है । विश्व में इसकी खेती पेरू, बोल्वीया और  इक्वाडोर  देशो  में नकदी फसल के  रूप में प्रचलित है । खाद्य एवं कृषि संगठन के  अनुसार संसार में इसे 86,303 हैक्टर में उगाया जा रहा है जिससे 71,419 मेट्रिक टन पैदावार हो  रही है । अब इसके  क्षेत्रफल में तेजी से बढ़त हो  रही है ।

क्विनवा के  उपयोग

किंवा को  चावल की भांति उबाल कर खाया जा सकता है । दानो से आटा व दलिया बनाया जाता है । स्वादिष्ट नाश्ता, शूप, पूरी, खीर, लड्डू आदि विविध मीठे और  नमकीन व्यंजन बनाये जा सकते है । गेहूँ व मक्का के  आटे के  साथ क्विनवा का आटा मिलाकर ब्रेड, विस्किट, पास्ता आदि बनाये जाते है । पेरू और  बोल्वीया में किन्वा फ्लेक्स  व भुने दानो का व्यवसायिक उत्पादन किया जाता है । ग्लूटिन मुक्त यह इतना पौष्टिक खाद्यान्न है कि आन्तरिक्ष अभियान के  दौरान   आदर्श  खाद्य के  रूप में इसे इस्तेमाल किया जा सकता है । भारत में गेहूँ के  आटे की पौष्टिकता बढ़ाने में इसके दानो  का उपयोग किया जा सकता है जिससे कुपोषण की समस्या से निजात मिल सकती  है ।

पौष्टिकता का खजाना  है क्विनवा

               प्रकृति की अनुपम  देन क्विनवा  एक असाधारण परम अन्न है जिसके  सेवन से शरीर को  आवश्यक कार्बोहाइड्रेट,प्रोटीन, वसा, विटामिन, खनिज और  रेशा संतुलित मात्रा में प्राप्त हो  जाते है । इस अदभुत दाने की पोषक महत्ता अग्र प्रस्तुत है ।
1.प्रोटीन  से भरा दाना : वानस्पतिक प्रोटीन का सबसे बेहतर स्त्रोत  क्विनवा अनाज है जिसमें शरीर के लिए महत्वपूर्ण सभी दसों  आवश्यक अमीनो  अम्ल संतुलित अनुपात में पाये जाते है, जो  कि अन्य अनाज में नही पाए जाते  है । इसलिए यह शाकाहारियो  में लोकप्रिय खाद्य पदार्थ बन रहा है । क्विनवा  के  100 ग्राम दानो में 14-18 ग्राम उच्च  गुणवत्तायुक्त प्रोटीन (44-77 प्रतिशत एल्ब्यूमिन व ग्लोब्यूलिन) पाई जाती है । गेहूँ व चावल में प्रोटीन की मात्रा क्रमशः 14 व 7.5 प्रतिशत के  आसपास होती है । अधिकतर अनाजो  में लाइसीन प्रोटीन की कमी होती है, जबकि किंवा के  दानो में पर्याप्त मात्रा में लाइसीन पाया जाता है ।
2.रेशे (तन्तुओ ) में धनीः इसमें पर्याप्त मात्रा में घुलनशील व अघुलनशील रेशे (Fiber) पाए जाने के कारण यह खून के  कोलेस्ट्राल, खून की शर्करा व रक्तचाप को  नियंत्रित करने में सहायक होता है । अन्य  अनाजो  की तुलना में इसमें तन्तुओ  की मात्रा लगभग दो गुना अधिक होती है । इस कारण इसका  सेवन करनेे से पेट सबंन्धी विकार यथा कब्ज तथा बवासीर जैसी समस्याओ  से निजात मिलती है जो  कि प्रायः भोजन में तन्तुओ  की कमी से होती है । इसमें लगभग  4.1 प्रतिशत रेशा पाया जाता है जबकि गेहूँ में 2.7 प्रतिशत और  चावल में मात्र 0.4 प्रतिशत तन्तु होते है  ।
3.लोहे  की उच्च मात्राः हमारे शरीर के  लिए लोहा (iron) अत्यावश्यक तत्व है । शरीर में हीमोग्लोबिन के  निर्माण और  शरीर में आक्सीजन प्रवाह में लोह  तत्व सहायक होता है । शरीर के  तापमान को  नियंत्रित करने, दिमाग को  क्रियाशील बनाने तथा शरीर में इन्जाइम की क्रिया को  भी बढ़ानें में मदद करता है ।
4.कैल्शियम भरपूर: शरीर में स्वस्थ और  मजबूत हड्डियो  के  लिए कैल्शियम निहायत जरूरी पोषक तत्व है । सुंदर और  सुडौल  दांतो  के  लिए भी कैल्शियम आवश्यक है । क्विनवा  में गेहूँ से लगभग डेढ़  गुना अधिक  मात्रा में कैल्शियम पाया जाता  रहता है । अतः भोजन में क्विनआ  अनाज  सम्मलित करने से हमारी हड्डियाँ व दाँत स्वस्थ व मजबूत रह सकते है ।
5.सीमित वसा: इस अदभुत अनाज में वसा की मात्रा बहुत ही कम (100 ग्राम दानो  में 4.86 ग्राम) होती है । इसके  वसा में असंतृप्त वसा (लिलोलिक व लिओलिनिक अम्ल) उच्च गुणवत्ता वाली मानी गई है । अतः यह न्यून कैलोरी वाला खाद्य है जिसे मौटापा नियंत्रित करने में प्रयोग किया जा सकता है । इसके  100 ग्राम पके  दानो  से 120 कैलोरी मिलती है जबकि इतने ही गेहूँ आटे से 364 कैलौरी  प्राप्त होती है । क्विनवा  की 120 कैलौरी  में सिर्फ 2 प्रतिशत वसा, 7 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 8 प्रतिशत प्रोटीन व लोहा, 11 प्रतिशत रेसा, 16 प्रतिशत मैग्नेशियम तथा 4 प्रतिशत पोटेशियम मिलता है ।
6.विटामिनो  का स्त्रोत :  क्विनवा के  दानो  में बहुमूल्य बिटामिन्स-बी समूह-बीटा कैरोटिन व नियासिन(बी-3),राइबो फ्लेविन(बी-2), विटामिन-ई (अल्फा-टोको फिरोल) और  कैरोटिन गेहँ व चावल से अधिक मात्रा में पायी जाती है ।
7.ग्लूटिन मुक्त खाद्य : क्विनवा  का उपयोग अनाज की भांति किया जाता है।  न तो  यह अनाज और  न ही यह घास है । दरअसल यह पालक व चुकन्दर की भाँती बथुआ परिवार का सदस्य है । इसके  दानो  में ग्लूटिन (एक प्रकार का प्रोटीन) नहीं हो होता है जो  कि गेहँ में प्रमुखता से पाया जाता है । सेलियक  रोग से पीडित  व्यक्ति को  ग्लूटिनयुक्त भोजन नहीं करना चाहिए ।ऐसे  लोगो के लिए यह वरदान साबित हो सकता है।
8.निम्न ग्लाइसेमिक इंडेक्सः इसमें जटिल कार्बोज  होने के  बाबजूद इसका ग्लाइसेमिक इंडेक्स निम्न पाया गया है जिससे डायबेटिक मरीज के  लिए लाभदायक खाद्य  है ।
9.और  भी बहुत कुछः इसके  दानो में कैल्शियम और लोहे  जैसे महत्वर्पूँ खनिज तो  पाये ही जाते है साथ ही पोटेशियम, सो सो सोडियम, कापर, मैग्नीज, जिंक व मैग्नेशियम भी काफी मात्रा में पाये जाते है । कापर रक्त में लाल कणों  के  निर्माण में यो गदान देता है । मैग्नेशियम रक्त नलिकाओ  को  आराम देता है जिससे तनाव व शिर दर्द से निजात मिलती है । लोहा  लाल रक्त कोशिकाओ के  निर्माण में सहायक होता है तो  कापर और  मैग्नीज तमाम उपापचयी क्रियाओ  में मदद करता है । पोटेशियम शरीर में ह्रदय गति व रक्त दबाव को  नियंत्रित करता है ।
10.भाजी भी कम नहीं:  इसकी पत्तियो को  भाजी के  रूप में इस्तेमाल किया जाता है । पत्तियो में पर्याप्त मात्रा में राख (3.3 प्रतिशत), रेशा (1.9 प्रतिशत), विटामिन सी व ई पाया जाता है ।
किंनवा  के दानो की ऊपरी पर्त पर एक अपोषक तत्व-सपोनिन (कषैला पदार्थ) पाया जाता है । इसलिए प्रसंस्करण (छिलका उतारकर) करने के बाद इसका उपभोग किया जाता है । सपोनिन का उपयोग साबुन, शैम्पू, प्रसाधन सामग्री बनाने तथा दवा उद्योग  में उपयोग  किया जाता है ।

भारत में खेती की अच्छी संभावना

                 समस्त प्राकृतिक विविधताओ  से  ओत-प्रोत भारत की कृषि जलवायु एवं मिट्टियो  में सभी प्रकार की वनस्पतियाँ उगती है । चिनोपोडियम क्विनआ-कूट अनाज की खेती भारत के  हिमालयीन क्षेत्र से लेकर उत्तर भारत के  मैदानी भागो में सफलता पूर्वक की जा सकती है । आन्ध्र प्रदेश में इस पर प्रयोग प्रारंभ हो  गये है । भारत का बड़ा भू-भाग सूखाग्रस्त है तथा इन इलाको  में खेती किसानी वर्षा पर निर्भर है । इन क्षेत्रों  की अधिकांश जनसंख्या भूख, गरीबी  और  कुपोषण की शिकार है । सीमित पानी और  न्यूनतम खर्च में अधिकतम उत्पादन और  आमदनी देने वाली फसल प्राप्त हो  जाने पर यहाँ के लोगों  का सामाजिक-आर्थिक जीवन समोन्नत हो  सकता है । ऐसी ही अद्भुत  फसल है-क्वनवा , जिसे कूट अनाज कहा जाता है । अपार संभावनाओ  वाली इस फसल पर नेशनल बोटेनीकल रिसर्च इस्टीटयूट, लखनऊ में शोध व किस्म विकास का कार्य प्रारंभ हो  गया है ।
               सामान्यत: क्विनआ ग्रीष्मऋतु की फसल है । प्रायोगिक तौर  पर आन्ध्रप्रदेश अकादमी आफ रूरल डेव्हलपमेंट, हैदराबाद में इसे फरवरी-मार्च में लगाया गया । सीधे प्रकाश तथा तेज गर्मी होने पर भी पौधो की अच्छी बढ़वार तथा फूल-फल विकसित होना  शुभ संकेत देता है । देश के अनेक भागो में जून-जुलाई में  भी इसकी खेती विस्तारित की जा सकती  है । पौध  अवस्था से पकने तक  लगभग 150 दिन का समय लगता है  । बीज अंकुरण के  लिए 18-24 डि.से. तापक्रम उपयुक्त समझा जाता है । अच्छी बढ़वार के  लिए राते ठण्डी तथा दिन का अधिकतम तापक्रम 35 डि.से. तक उचित माना जाता है ।  क्विनआ की खेती जलनिकास युक्त विभिन्न प्रकार की मृदाओ  में  की जा सकती है । यह मृदा क्षारीयता, सूखा, पाला, कीट-रोग सहनशील फसल है । इसका बीज बहुत छोटा (चौलाई जैसे) होने के कारण खेत की ठीक से तैयारी  कर मिट्टी को  भुरभुरा करना आवश्यक है ।अंतिम जुताई के  समय खेत में 5-7 टन प्रति हैक्टर की दर से गोबर की खाद मिला देना चाहिए । बुवाई कतारो  में 45-60 सेमी. की दूरी पर करते है तथा अंकुरण के पश्चात पौधो  का विरलीकरण कर दो  पौधो के  मध्य 15-45 सेमी. की दूरी स्थापित कर लेना चाहिए । बीज को  1.5-2 सेमी. की गहराई पर लगाना चाहिए । एक मीटर जगह पर बुवाई करने हेतु 1 ग्राम बीज पर्याप्त होता है । उर्वरको की अधिक आवश्यकता नहीं होती है । सूखा सहन करने की बेहतर क्षमता तथा कम जलमांग के  कारण सिंचाई कम लगती है । वर्तमान में यह खाद्यान्न आयात किया जाता है । हैदराबाद के  सुपर-बाजारों  में 1500 रूपये प्रति किलो  की दर से इसे बेचा जा रहा है । भारत सहित अनेक राज्यो  में इसकी खेती और  बाजार की बेहतर संभावनाएं है । फसल का रकबा बढ़ने से किसानो  की आय में इजाफा होने के  साथ-साथ देश में खाद्यान्न व पोषण आहार सुरक्षा कायम  करने में हम सफल हो  सकेंगे । 

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

बुधवार, 18 सितंबर 2013

रबी की प्रमुख तिलहन-सरसों एवं राई की खेती से भरपूर मुनाफा

                                                       सरसों एवं राई-एक बहुपयोगी फसल

 

डॉ. जी.एस. तोमर, प्राध्यापक 

सस्य विज्ञान विभाग, कृषि महाविद्यालय, रायपुर

             शीत ऋतू की तिलहनी फसलों मे राई - सरसों का एक प्रमुख स्थान है।  सरसों के हरे पौधे से लेकर सूखे तने, शाखायें और बीज आदि सभी भाग उपयोग में आते है। सरसों की कोमल पत्तियाँ तथा कोमल शाखायें सब्जी के रूप में (सरसों का साग) प्रयोग की जाती है।सरसों  का साग और  मक्के दी  रोटी उत्तर भारत में चाव से खाई जाती है । सरसों राई के बीज में 37 - 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है। राई - सरसों के तेल में पाये जाने वाले असंतृप्त वसा अम्ल  लिनोलिक एवं लिनालेनिक अम्ल अत्यावश्यक वसा अम्ल है।  राई - सरसों का तेल खाने, सब्जी पकाने, शरीर तथा सिर मे लगाने के अलावा वनस्पति घी बनाने में भी लाया जाता है। अचार  बनाने, सब्जियाँ बनाने व दाल में तड़का लगानें मे सरसों के तेल का प्रयोग बखूबी से किया जाता है। सरसो और तोरिया के तेल का उपयोग साबुन, रबर तथा प्लास्टिक आदि के निर्माण में किया जाता है । इस्पात उद्योग में इस्पात प्लेटों में शीघ्र शीतलन और चमड़े को मुलायम करने में भी तेल का प्रयोग किया जाता ह। सरसों की खली के लगभग 25 - 30 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन, 5 प्रतिशत नाईट्रोजन, 1.8 - 2.0 प्रतिशत फाॅस्फोरस तथा 1 - 1.2 प्रतिशत पोटेशियम पाया जाता है। इसका प्रयोग पशुओ को खिलाने तथा खाद के रूप मे किया जाता है। सरसों - राई को भूमि संरक्षक फसल  के रूप में भी उगाया जाता है। सरसों के हरे पौधे, सूखी पत्तियों को जानवरो को चारे के रूप मे खिलाया जाता है।

     भारत में उगाई जाने वाली तिलहनी फसलों मे सरसों - राई का मूँगफली के बाद दूसरा स्थान है जो कि कुल तिलहन उत्पादन का 22.9 प्रतिशत  है तथा तिलहनी फसलो  के कुल क्षेत्रफल का 24.7 प्रतिशत क्षेत्रफल राई - सरसों के अन्तर्गत आता है। भारत मे राई - सरसों वर्ग के अन्तर्गत तोरिया, भूरी सरसों, तारामिरा, करन राई तथा काली सरसों का उत्पादन किया जाता है परन्तु राई - सरसों वर्ग की फसलों के कुल क्षेत्रफल का 85 से 90 प्रतिशत हिस्सा भूरी सरसों (राई या लाहा) के अन्तर्गत आता है, जिसका अधिकांश क्षेत्रफल राजस्थान, उ. प्र., पंजाब, हरियाणा, म. प्र., बिहार, पं. बंगाल, गुजरात तथा असम में है। राई-सरस¨ं के अन्तर्गत सर्वाधिक क्षेत्रफल वाल्¨ प्रथम तीन राज्य¨ं में राजस्थान,उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश जबकि उत्पादन में राजस्थान, उत्तर प्रदेश एवं हरियाना अग्रणीय राज्य है ।  इन फसल¨ं की अ©सत उपज में पहल्¨ स्थान पर हरियाना (1738 किग्रा. प्रति हैक्टर), दूसरे पर राजस्थान(1234 किग्रा.) एवं तीसरे स्थान पर गुजरात (1136 किग्रा.) कायम रहे । मध्य प्रदेश में सरसों - राई की खेती 0.71 मिलियन हेक्टेयर मे की गई जिससे 074 मिलियन टन उत्पादन दर्ज किया गया तथा औसत उपज 1034 किग्रा. प्रति हेक्टेयर रही है।  छत्तीसगढ़ में राई-सरसो  की खेती 160.03 हजार हैक्टर में की गई जिससे 525 किग्रा. अ©सत उपज प्राप्त हुई (वर्ष 2009-10)। प्रदेश के प्रमुख राई-सरसो  उगाने वाल्¨ जिलो  में सरगुजा, जगदलपुर, कोरिया, जशपुर, कांकेर, जांजगीर, धमतरी एवं दंतेबाड़ा जिले  आते है ।   सरसों की खेती प्रदेश में अगेती फसल के रूप में की जाती है। आदिवासी अंचल में सरसों की फसल बाड़ी में मक्का फसल लेने के बाद की जाती है। सिंचित दशा में धान के बाद भी सरसों की फसल ली जा रही है। जाडे की अवधि कम होने तथा सिंचाई के पर्याप्त साधन न होने के कारण प्रदेश मे सरसों की औसत उपज  कम ही आती है। इन फसलों की खेती शुद्ध एवं मिश्रित फसल के रूप मे होती है।   

उपयुक्त जलवायु

    राई तथा सरसों रबी मौसम  की फसल है जिसे शुष्क एवं ठण्डी जलवायु  तथा चटक धूप की आवश्यकता होती है। इसकी खेती 30 से 40 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र में सफलतापूर्वक की जा सकती है। बीज अंकुरण  बुआई के समय वातावरण का तापमान  तथा फसल बढ़वार के लिए  तापक्रम आदर्श माना गया है। वातावरण का तापक्रम से कम या 35 -40 डि सेग़्रे से अधिक होने पर फसल वृद्धि रूक जाती है। बीज में तेल की अधिकतम मात्रा के लिए 10-15 डि सेग़्रे तापक्रम उपयुक्त रहता है। पौधों में फूल आने और बीज पड़ने के समय बादल और कोहरे  से भरा मौसम हानिकारक होता है क्योंकि ऐसे मौसम में कीट और रोगों का प्रकोप की अधिक सम्भावना होती है। पौध वृद्धि व विकास के लिए कम से कम 10 घंटे की धूप आवश्यक है।

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

                  सभी प्रकार के सरसों के लिए दोमट जलोढ़ भूमि  सर्वोत्तम है। वैसे त¨ उत्तम जल निकास  एवं भू-प्रबन्ध के साथ सरसों एवं राई सभी प्रकार की जमीन में उगाई जा सकती है। परन्तु बुलई दोमट और दुमट मिट्टी अधिक उपयुक्त हैं।  उदासीन से हल्की क्षारीय भूमि (पीएच मान 7-8) इन फसल¨ं की ख्¨ती के लिए अच्छी मानी जाती है।
    शुद्ध फसल के लिये प्रायः एक जुताई मिट्टी पलट हल से करनी चाहिए तथा 3 - 4 जुताइयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए। पाटा चलाकर खेत की मिट्टी को महीन, भुरभुरी तथा समतल कर लेते हैं। इससे जमीन में आर्द्रता अधिक लम्बे समय तक के लिये संचित रहती है, जो कि सरसों व राई के उत्तम अंकुरण एवं पौध बढ़वार के लिये आवश्यक है। मिश्रित रूप में बोई जाने वाली सरसों  के खेत की तैयारी प्रधान फसल की आवश्यकतानुसार ही की जाती है।
उन्नत किस्में
    प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है कि अकेले उन्नत किस्मों के प्रयोग से पुरानी प्रचलित किस्मों की अपेक्षा 20-25 प्रतिशत अधिक उपज ली जा सकती है। छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त उन्नत किस्मो में  छत्तीसगढ़ सरसों, वरदान, रोहिनी, एनडीटी-8501, कृष्ना, जवाहर-1(जेएमडब्लूआर 93-39), माया, स्वर्ना, ज्योति, वशुंधरा, जवाहर मस्टर्ड, झुमका ।  भूरी सरसों में पूसा कल्यानी
राई-सरसों की प्रमुख उन्त किस्मो  की विशेषताएं
किस्म        अवधि (दिन)    उपज (क्विं/हे.)        प्रमुख विशेषताएँ
टायप-151    120 - 125            14 - 15            46% तेल, सिंचित क्षेत्र हेतु, पीली सरसों
क्रांति            125 - 135            25 - 28            सिंचित क्षेत्र हेतु, तेल 40 %।
वरदान          120 - 125           13 - 18            40 % तेल, देर बोने हेतु उपयुक्त।
वैभव             120 - 125           13 - 18            तेल की मात्रा 38 प्रतिशत
कृष्णा            125 - 130           25 - 30            सिंचित क्षेत्र हेतु, 40 प्रतिशत तेल।
आरएलएम-514  150 - 155     15 - 20            40%तेल, शुष्क दशा के लिए उपयुक्त।
आरएलएम-198    152 - 166    17 - 18            38% तेल, सिंचित दशा के लिए।
वरूणा (टी-59)        125 - 130    20 - 25            42% तेल, दाना बड़ा।
पूसा बोल्ड              130 - 140    18 - 26            सिंचित क्षेत्र हेतु, 40% तेल, दाना बड़ा   
वसुन्धरा                130 - 135    20 - 21            तेल 38 - 40 प्रतिशत
जेएम-1                 120 - 128    20 - 21            काला कत्थई बीज, सिंचित दशा हेतु।
जेएम-2                 135 - 138    15 - 20            बीज गोल कत्थई काला, तेल 40%   

    उपर्युक्त किस्मों की खेती दोनों राज्य म.प्र. एवं छत्तीसगढ़ में की जा सकती है। जेएम -1, जेएम - 2 व जेटी-1 किस्में जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्व विद्यालय द्वारा विकसित की गई है।
छत्तीसगढ़ सरसों: इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय द्वारा विकसित यह किस्म 99 - 115 दिन में पक कर तैयार होती है। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ की सिंचित व अर्द्ध सिंचित परिस्थितियों के लिए उपयुक्त किस्म है। इसके दाने कत्थई रंग व मध्यम आकर के होते हैं। उपज क्षमता औसतन 11.80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसमें सफेद किट्ट (रस्ट), चूर्णिल आसिता  आल्टरनेरिया झुलसा रोग तथा एफिड कीट का प्रकोप कम होता है।

बोआई उचित समय पर

       राई - सरसों की शुद्ध फसल खरीफ में खेत पड़ती  छोड़ने के बाद या खरीफ में ज्वार, बाजरा लेने के पश्चात् बोई जाती है। सरसों मुख्यतः गेहूँ, जौ, चना, मसूर व शरदकालीन गन्ना के साथ मिलाकर बोयी जाती है। आलू व सरसों की सह फसली खेती 3:1 अनुपात में की जाती है । शरदकालीन गन्ने  की दो पंक्तियों के मध्य एक पंक्ति सरसो की बोई जा सकती है। गेहूँ और  सरसों (9: 1), चना और  सरसों (3: 1), तथा तोरिया और मसूर (1: 1) की अन्तः फसली खेती भी लाभप्रद पाई गई है।
         समय पर बुआई करना खेती में सफलता की प्रथम सीढ़ी है। सरसों की बुआई का समय मुख्यतः तापक्रम पर निर्भर करता है। बुआई के समय वातावरण का तापमान 26 - 30 डि.से. होना आवश्यक है। सरसों और राई की बुआई अक्टूबर के प्रथम पखवारे में करना चाहिए। अधिक तापमान होने की दशा में बुआई में देरी कर देनी चाहिए। तोरिया की बोनी सितम्बर के दूसरे पखवारे में करना चाहिए। तोरिया की बुआई देरी से करने पर फसल पर एफिड कीट का प्रकोप अधिक होता है।

बीज की मात्रा एवं बीजोपचार 

    अच्छी उपज लेने के लिए यह आवश्यक है कि प्रति हेक्टेयर खेत में उचित पौध संख्या स्थापित हो। सरसों की शुद्ध फसल हेतु 5 - 6 किलो प्रति हेक्टेयर तथा मिश्रित फसल उगाने के लिए 1.5-2 किलो प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता पड़ती है। तोरिया की बीज दर 4 किग्रा. प्रति हे. रखना चाहिए। बोने के पूर्व सरसों के बीज को फफूंदीनाशक रसायन जैसे कार्बेन्डिजिम (वाविस्टिन) 2 ग्राम प्रति किग्रा. बीज या थीरम (2.5 ग्राम दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से) उचारित करना चाहिए जिससे फसल को मृदा जनित रोगों से बचाया जा सके।

बोआई की विधियाँ

    सरसों फसल की बुवाई पंक्तियों में 45 सेमी. और पौधों में 15 - 20 सेमी. के अन्तर से करना चाहिये। तोरिया की बुआई पंक्तियों में 30 सेमी. और पौधों में 10 - 15 सेमी. के अन्तर पर करना उचित रहता है। बुआई के समय यह ध्यान रखना चाहिये कि बीज उर्वरक के सम्पर्क में न आये अन्यथा अंकुरण प्रभावित होगा। अतः बीज 3 - 4 सेमी. गहरा तथा उर्वरक को 7 - 8 सेमी. गहराई पर देना चाहिए। अच्छे अंकुरण एवं उचित पौध संख्या के लिए बुआई से पूर्व बीजों को पानी में भिगोकर बोया जाना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक की सही खुराक 

    सरसों भारी मात्रा में और शीघ्रता से भूमि से पोषक तत्व ग्रहण  करती है। अतः खाद और उर्वरकों के माध्यम से फसल के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की प्रतिपूर्ति आवश्यक है। बुआई के 15 - 20 दिन पूर्व 10 - 15 टन सड़ी हुई गोबर की खाद  खेत मे मिलाने से प©ध वृद्धि और उपज में बढ़ोत्तरी  होती है। राई व सरसों की सिंचित फसल में 100 - 120 किग्रा. नत्रजन, 40 किग्रा. स्फुर व 40 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। असिंचित अवस्था में 40 किग्रा. नत्रजन, 30 किग्रा. स्फुर व 20 किग्रा. पोटाश प्रति हे. की दर से प्रयोग करना चाहिए। पोषक तत्वो की वास्तविक मात्रा का निर्धारण मृदा परीक्षण  के आधार पर किया जाता है। मृदा परीक्षण नहीं किया गया है तो तोरिया की सिंचित फसल के लिए 90 किग्रा. नत्रजन 30 किग्रा. स्फुर तथा 20 किग्रा. पोटाॅश प्रति हे. तथा असिंचित दशाओं में इसकी आधी मात्रा प्रयोग करनी चाहिए। सिंचित अवस्था में नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय  कूड़ो में बीज के नीचे देना चाहिए। शेष नत्रजन पहली सिंचाई के बाद देना चाहिए। भूमि मे जिंक की कमी होने पर 5 - 10 किग्रा. जिंक (जिंक सल्फेट के माध्यम से) बुआई के समय देना लाभप्रद पाया गया है। नत्रजन को अमोनियम सल्फेट तथा फास्फोरस सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में देने से फसल को आवश्यक सल्फर तत्व भी मिल जाता है जिससे उपज और बीज के तेल की मात्रा बढ़ती है।

सिंचाईसे बड़े पैदावार 

    सरसो  में सिंचाई देने से उपज मे वृद्धि होती है। अच्छे अंकुरण के लिए भूमि मे 10 - 12 प्रतिशत नमी होना आवश्यक रहता है। कम नमी होने पर एक हल्की सिंचाई देकर बुआई करना लाभप्रद रहता है। सरसों फसल में 2 - 3 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। इस फसल को औसतन 40 सेमी. जल की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई बुआई के 25 - 30 दिन बाद (4 - 6 पत्ती अवस्था) और दूसरी सिंचाई फूल आते समय (बुआई के 70 - 75 दिन बाद) करनी चाहिए। प्रथम सिंचाई देर से करने पर पौधों में शाखायें, फूल व कलियां अधिक बनती है। सरसों में पुष्पागम  और शिम्बी  लगने का समय सिंचाई की दृष्टि से क्रांतिक होता है। इन अवस्थाओं पर भूमि में नमी की कमी होने से दानें अस्वस्थ तथा उपज और दाने में तेल की मात्रा में कमी होती है।

खेत खरपतवार मुक्त रहे 

                राई एवं सरसों में खरपतवारों के कारण 20 - 30 प्रतिशत तक उपज मे कमी आ सकती है। फसल में बथुआ, चटरी - मटरी, सैंजी, सत्यानाशी, मौथा, हिरनखुरी आदि खरपतवारों का प्रकोप होता है। पौधों की संख्या इष्टतम होने से प्रत्येक पौधों का विकास अच्छा होता है, शाखायें अधिक निकलती है जिससे पौधों पर फलियाँ अधिक बनती है क्योंकि पौधो को उचित प्रकाश, जल और पोषक तत्व समान रूप से उपलब्ध होते है। बुआई के 15 - 20 दिन बाद एक निंदाई - गुड़ाई करें तथा पौधों - से - पौंधें की दूरी छँटाई करके 15 - 20 सेमी. कर देना चाहिए। पंक्ति में घने पौधो को उखाड़कर पौध  से पौध  की उचित दूरी रखने को  विरलन कहते है ।  जब फसल में पहली फूल की शाखा निकल आये तब ऊपरी हिस्सा तोड़ देने मे शाखाये, फूल व फलियाँ अधिक बनती है जिससे उपज मे वृद्धि होती है। पौधों के इस कोमल भाग को सब्जी के रूप में बाजार में बेचा जा सकता है या पशुओं को खिलाने के लिए प्रयोग मे लाना चाहिए। खरपतवारों के रासायनिक नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालिन (स्टाम्प) 0.5 - 1.5 किग्रा. या आइसोप्रोट्यूरान 1 - 1.3 किग्रा. प्रति हे. को 800 - 100 लीटर पानी में घोलकर अंकुरण से पहले छिड़काव करना चाहिए। यदि सरसों को चने क साथ लगाया गया है तब खरपतवार नियंत्रण के लिए फ्लूक्लोरालिन (बेसालिन) 0.75 - 1 किग्रा. प्रति हेक्टेयर को बुआई के पूर्व खेत मे छिड़कना चाहिए।

कटाई एवं गहाई पर भी ध्यान 

    तोरिया की फसल 90 - 100 दिन तथा राई की फसल 120 - 150 दिन में पककर तैयार हो जाती है। पकने पर पत्तियाँ पीली पड़ जाती है और बीजों का प्राकृतिक रंग आ जाता है। अपरिपक्व अवस्था में कटाई करने पर उपज में  कमीं आ जाती है और तेल की मात्रा भी घट जाती है। फलियों के अधिक पक जाने पर वे चटख जाती हैं और बीज झड़ने  लगते है। फल्लियों एवं पत्तियो के पील पड़ने के साथ ही फसल की कटाई हँसिये से या फिर पौधों को हाथ से उखाड़ लेना चाहिये। कटाई उपरान्त फसल को 2 - 3 सप्ताह तक खलिहाँन में सुखाया जाता है, फिर डंडो से पीटकर या बैलो  की दाय चलाकर या ट्रेक्टर से मड़ाई की जाती है। आज कल मड़ाई के लिए थ्रेसर का भी प्रयोग किया जाता है। मड़ाई के बाद बीजों को भूसे से अलग करने के लिए पंखे का प्रयोग करते है या हवा में ओसाई करते है।

उपज हो भरपूर 

    सरसों एवं तोरिया की मिश्रित फसल से 3 - 5 क्विंटल  तथा शुद्ध असिंचित फसल से 10 - 12  क्विंटल  तथा सिंचिंत  फसल से 12 - 15  क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। उन्नत सस्य  तकनीक अपनाकर असिंचित राई से 15 - 20 क्विंटल तथा सिंचित राई से 20 - 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती है। भूसा भी लगभग 15 - 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।बीज को अच्छी तरह धूप में  सूखाना चाहिए। सरसों के दानों में भण्डारण के समय नमी की मात्रा 7 - 10 प्रतिशत होना चाहिए। सरसों - राई के बीज में 38 - 40 प्रतिशत , तोरिया में 42 - 44 प्रतिशत तथा भूरी व पीली सरसो में 43 - 48 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

सब्जियों के सम्राट आलू की वैज्ञानिक खेती


डाँ.जी.एस.तोमर
कृषि महाविद्यालय, इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (

सब्जी ही नहीं संतुलित आहार है आलू

            अमीरों  का महल हो  या गरीब की झोपड़ी, ढाबा हो या फिर पंच सितारा  होटल सभी जगह  भोजन की थालियो में आलू का जयका अवश्य रहता है । तमाम गुणों  से परिपूर्ण सब्जियों के  सम्राट के रूप में प्रतिस्थापित आलू एक सब्जी ही नहीं वरन सम्पूर्ण आहार है । भारत में शायद ही कोई ऐसा रसोई घर होगा जहाँ पर आलू ना दिखे  । इसकी मसालेदार तरकारी, पकौड़ी,  चॉट, पापड चिप्स जैसे स्वादिष्ट पकवानो के अलावा अंकल चिप्स, भुजिया और कुरकुरे भी हर जवां के मन को भा रहे हैं।   प्रोटीन, स्टार्च, विटामिन सी और के  अलावा आलू में अमीनो अम्ल जैसे ट्रिप्टोफेन, ल्यूसीन, आइसोल्यूसीन आदि काफी मात्रा में पाये जाते है जो शरीर के विकास के लिए आवश्यक है।
                भारत में आलू की खेती 1810.8 हजार हेक्टेयर में की जाती है जिससे 28580.2 हजार टन उत्पादन प्राप्त ह¨ता है । हमारे देश में आलू की औसत उपज 158   क्विंटल प्रति हेक्टर  के आस-पास है, जो  कि विश्व ओसत उपज (178  क्विंटल प्रति हैक्टर) से कम है । छत्तीसगढ़ में 32.1 हजार हेक्टेयर से 358.5 हजार टन आलू पैदा किया जा रहा है परन्तु  ओसत उपज (111.7 क्विंटल  प्रति हैक्टर) के  मामले में हम देश के  अन्य राज्यो  से फिस्सड्डी बने हुए है । जबकि केरल, गुजरात तथा पंजाब के  किसान तकरीबन 250 क्विंटल प्रति हैक्टर की उपज  ले रहे है।  छत्तीसगढ के सरगुजा जिले  के मैनपाट एवं सामरी पाट (पहाड़ी क्षेत्र ) में आलू की खेती वर्षा ऋतु में की जाती है जबकि  जशपुर , कोरिया, सरगुजा, रायपुर, बिलासपुर, बस्तर एवं रायगढ़ में आलू की खे ती प्रायः रबी ऋतू में की जाती है । छत्तीसगढ़ में आलू की खेती  की व्यापक संभावनाओ को देखते हुए राज्य सरकार के सहयोग से  इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय ने अंबिकापुर के मैनपाट में आलू अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की है जिसके तहत आलू फसल पर गहन शोध कर उन्नत सस्य विधिया विकसित की जाएँगी  जिसके फलस्वरूप  आलू फसल के अंतर्गत क्षेत्र विस्तार तथा  उत्पादकता बढ़ने के सुनहरे आसार है ।

आलू की खेती के  लिए उपयुक्त जलवायु

                 आलू की उत्तम फसल के  लिए ठंडी जलवायु  की आवश्यकता होती है। मैदानी क्षेत्रो  में बहुधा शीतकाल (रबी) में आलू की खेती प्रचलित है । आलू की वृद्धि एवं विकास के लिए इष्टतम तापक्रम 15- 25 डि से  के मध्य होना चाहिए। इसके अंकुरण के लिए लगभग 25 डि से. वानस्पतिक संवर्धन के लिए 20 डि से. और कन्द विकास के लिए 17 से 19 डि से. तापक्रम की आवश्यकता होती है, उच्चतर तापक्रम (30 डि से.) होने पर आलू  विकास की प्रक्रिया प्रभावित होती है । कन्द बनने के लिए आदर्श तापमान  अक्टूबर से मार्च तक,  लम्बी रात्रि तथा चमकीले छोटे दिन आलू बनने और बढ़ने के लिए अच्छे होते है। बदली भरे दिन, वर्षा तथा उच्च आर्द्रता का मौसम आलू की फसल में फफूँद व बैक्टीरिया जनित रोगों को फैलाने के लिए अनुकूल दशायें हैं।

भूमि का चयन और  खेत की तैयारी

                   आलू की फसल विभिन्न प्रकार की मिट्टियो  में उगाई जाती है परन्तु इसके लिये उपजाऊ, रन्ध्रमय, भुरभुरी, जीवांशयुक्त और  चौरस भूमि जिसमें जल निकासी अच्छी हो , सर्वोत्तम मानी जाती है। मध्यम श्रेणी से लेकर हल्की दोमट भूमि भी आलू की खेती के लिए अच्छी रहती है। जल भराव वाली मिट्टीयों में आकंद विकृत और अविकसित रह जाते हैं एवं पैदावार कम होती है। इसकी खेती के लिए भूमी का पीएच मान 5.2 से 6.5 उवयुक्त रहता है। आलू बोई जाने वाली मृदाओ  में पर्याप्त नमीं होनी चाहिये जिससे अँखुए सुगमता से उग सकें ।
                 भूमिगत  फसल होने के कारण खेत की गहरी जुताई  आवश्यक है। खेत की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल  से करें। उसके उपरांत 3-4 जुताई देशी हल से या ट्रेक्टर से अगर जुताई करना है तो डिस्क हैरो से करें। आलू जमीन के अंदर आने वाली फसल होने के कारण खेत को भुरभुरा (पोला) करना आवश्यक  रहता है। काली मिट्टी में बखर का प्रयोग किया जाता है । कूँड़े हल या रिजर से बनाई जाती है प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य चलायें । आखिरी जुताई के पहले 10 से 12 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में फैला कर अच्छी तरह मिला देना चाहिए।

उन्नत किस्में

               आलू की बेहतर उपज के  लिए अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्मो  के  स्वस्थ बीज का चयन करना आवश्यक है ।छतीसगढ़ के लिए सब्जी हेतु कुफरी अश¨का कुफरी पुखराज, कुफरी पुष्कर, कुफरी जवाहर, कुफरी ख्याति तथा प्रसंसकरण हेतु कुफरी चिप्स¨ना-1, कु.चिप्स¨ना-2, कु. चिप्स¨ना-3, कुफरी स¨ना आदि किस्मो  की सिफारिस की गई है । 
छत्तीसगढ़ के  लिए उपयुक्त आलू की प्रमुख उन्नत किस्मो  की विशेषताएंकिस्म का नाम        अवधि (दिन)      उपज (क्विंटल ./हे.)    प्रमुख विशेषताएँ
कुफरी अशोका        70 - 90                      200 - 250          सफेद व बड़े कंद।
कुफरी जवाहर        75 - 90                       220 - 280          कंन्द मध्यम, ग¨ल, सफेद, गूदा पीला।
कुफरी पुखराज        75 - 100                    350 - 370           सफेद, मध्यम, अण्डाकार, गूदा पीला।   
कुफरी पुष्कर            100 - 120                 240 - 260           कन्द मध्यम, अण्डाकार ।
कुफरी ख्याति            75 - 90                    280 - 340           कन्द अण्डाकार, चपटे, गूदा सफेद ।
कुफरी चिप्स¨ना-2     90 - 110                    170 - 230         मध्यम ग¨ल कन्द, प्रसंस्करण हेतु ।
कुफरी चिप्स¨ना-3     90 - 100                     200 - 220          सफेद, मध्यम ग¨ल चपटे, प्रसंस्करण हेतु कुफरी सूर्या                90 - 100                    230 - 275          मध्यम बड़े कन्द, चिप्स व फ्रैंच फ्रॉय हेतु

बुआई सही समय पर

         आलू की फसल शीघ्र तैयार ह¨ जाती है । कुछ किस्में तो  90 दिन में ही तैयार हो  जाती है । अतः फसल विविधिकरण के लिए यह एक आदर्श  नकदी फसल है । मक्का-आलू-गेहूँ, मक्का-आलू-मक्का, भिन्डी-आलू-प्याज, लो बिया-आलू-भिन्डी आदि फसल प्रणाली  को विभिन्न राज्यो में अपनाया जा रहा है ।
    आलू की बुआई का समय उसकी किस्म तथा जलवायु पर निर्भर करता है। वर्ष भर में आलू की तीन फसलें ली जा सकती है। आलू की अगेती फसल (सितम्बर के तीसरे सप्ताह से अक्टूबर प्रथम सप्ताह तक), मुख्य फसल (अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर के द्वितीय सप्ताह तक) तथा बसंतकालीन फसल (25 दिसम्बर से 10 जनवरी तक ) ली जा सकती है। जल्दी तैयार हो ने वाले  आलू  जब सितम्बर-अक्टूबर में बोये जाते है तब  आलू बिना काटे ही बोये जाने चाहिए  क्योकि काटकर बोने से ये गर्मी के कारण सड़ जाते है जिससे फसल उपज को भारी हांनि होती है ।  अल्पकालिक आलू सितम्बर में ब¨कर नवम्बर में काटा जा सकता है । साठा तथा अन्य उन्नत आलू इस श्रेणी में आते है ।

बीज का चुनाव सावधानी से

    आलू की खेती में बीज का  बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि आलू उत्पादन में कुल लागत का 40 से 50 प्रतिशत खर्च बीज पर आता हैं। अतः आलू का बीज ही उत्पादन का मूल आधार है। शुद्ध किस्म का शक्तिशाली, उपजाऊँ, कीट-रोग मुक्त, कटा, हरा या सड़ा न हो।  स्वस्थ्य और सुडोल बीज ही प्रयोग में लाना चाहिए। आलू के बीज की मात्रा आलू की किस्म, आकार, बोने की दूरी और भूमि की उर्वरा शक्ति पर निर्भर करती है। अगेती फसल में पूरा आलू बोते हैं, टुकड़े नहीं काटे जाते, क्योंकि उस समय भूमि में नमी अधिक होती है और कटे टुकड़ों के सड़ने  की सम्भावना रहती है। बड़े आलू को टुकड़ों में काट लेते हैं। एक टुकड़ें में कम-से-कम 2-3 आँखें रहनी चाहिये। कटे हुए टुकड़े देर से बोई जाने वाली फसल में प्रयोग करते हैं क्योंकि उस समय इनके सड़ने की सम्भावना नहीं रहती है। इसके अलावा काटने से आलुओं की सृषुप्तावस्था  समाप्त हो जाती है और अंकुरण शीघ्र होने लगता है।

अंकुरण एवं रोग से सुरक्षा हेतु  बीज उपचार

    शीतगृह  से तुरन्त निकाले गये आलू को बोने से अंकुरण देर से एवं एकसार नहीं होता है। अतः बीज वाले आलू को शीत गृह से बुआई के 10-15 दिन पहलले निकाल कर ठंडी एवं छायादार जगह पर फैला देना चाहिए जिससे आलू में अंकुर फूट जाते हैं एवं फसल अंकुरण अच्छा तथा एक समान होगा। आलू के टुकड़ों या साबुत आलू को बुआई से पहले 0.25 प्रतिशत अगलाल 3 ग्राम या डायथ्¨न एम-45 दवा 2-2.5 ग्राम या बाविस्टीन 1-1.5 ग्राम को  पानी में घोलकर 10-20 मिनिट  डुबोने के बाद बोना चाहिए। इससे कन्दों को स्कर्फ व  सड़न रोग से बचाया जा सकता है। अगेती बुआई में यदि कटे हुए कन्द बोना है तो टुकड़ों को 0.20 प्रतिशत मेन्कोजेब के घोल में 10 मिनट तक डुबोकर बीज को उपचारित कर बोना चाहिए।
    कन्दो की सुषुप्ता अवस्था  तोड़ने के लिए कन्दों को 1 प्रतिशत थायोयूरिया (1 किग्रा. थायोयूरिया 100 लीटर पानी के साथ) और 1 पीपीएम जिबे्रलिक अम्ल (1 मिग्रा. जिब्रेलिक अम्ल 1 लीटर पानी के साथ) के घोल में प्रति 10 क्विंटल  कन्दों के हिसाब से 1 घंटा तक उपचारित करना चाहिए। इसके बाद 3 प्रतिशत इथीलीन क्लोरोहाइड्रीन घोल से उपचारित कर कन्दों को तीन दिन के लिए बन्द कमरे में रखना चाहिए।

बीज का आकार एवं लगाने की दूरी

    आलू के स्वस्थ बीज 25 ग्राम से 125 ग्राम वजन के होना चाहिए । इनकी मोटाई 25 से 65 मिमी. हो  सकती है ।इससे कम या अधिक आकार या भार का बीज आर्थिक दृष्टिकोण से लाभप्रद नहीं है क्योंकि अधिक बड़े टुकड़े बोने से अधिक व्यय होता है तथा कम आकार या भार के टुकड़े बोने से उपज में कमी आती है। कन्द वजन के अनुसार र¨पण दूरी एवं बीज दर निम्नानुसार रखी जानी चाहिए ।
बीज कंद का भार (ग्रा.)    कतार से कतार दूरी (सेमी.)    बीज से बीज दूरी (सेमी.    बीज दर (क्विंटल  प्रति हे.)
    25-30                                 60                                     10-20                                19-23
    30-50                                 60                                       20                                    25-41
    50-60                                 60                                       30                                    27-33
    60-100                              60                                       40                                     25-42
     उर्वरा भूमि में छोटे बीजो को पास-पास बोना अच्छा रहता है । कमजोर भूमि में मोटा बीज बोने में अधिक अन्तर रखाना लाभकारी होता है ।आलू बोने की गहराई बीज के आकार, भूमि की किस्म और जलवायु पर निर्भर करती है। बलुई भूमि में गहराई 10-15 सेमी. और दोमट भूमि में 8-10 सेमी. गहराई पर बोनी करनी चाहिए। कम गहराई पर बोने से आलू सूख जाते हैं और अधिक गहराई पर नमी की अधिकता से बीज सड़ सकता है।

बोआई की विधियाँ

    आलू की बोआई की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं जो कि भूमि की किस्म, नमी की मात्रा, यंत्रों की उपलब्धता, क्षेत्रफल आदि कारकों पर निर्भर करती है। आलू लगाते समय खेत में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है। लगाने के तुरन्त बाद सिंचाई करना उचित नहीं रहता हैं। आलू बोने की निम्न विधियाँ हैं-
1. समतल भूमि में आलू बोना: हल्की दोमट मृदाओं के लिए यह सर्वोत्तम विधि है। रस्सी की सहायता से अभीष्ट  दूरी पर कतारे बनाकर देशी हल या कल्टीवेटर या प्लान्टर से कूँड़ बना ली जाती है। इन्हीं कूँडों में अभीष्ट दूरी पर आलू बो दिये जाते हैं। बोने के पश्चात् आलुओं को पाटा चलाकर मिट्टी से ढँक दिया जाता है।
2. समतल भूमि में आलू बोकर मिट्टी चढ़ानाः इस विधि में खेत में 60 सेमी. की दूरी पर कतार बना ली जाती है। इन कतारों में 15-25 सेमी. की दूरी पर आलू के बीज रख दिये जाते हैं। इसके बाद फावड़े से बीजों पर दोनों ओर से मिट्टी चढ़ा दी जाती है। हल्की भूमि में बनी हुई कतारों पर 5 सेमी. गहरी कूँड़ें बनाकर आलू के बीज बो दिये जाते हैं और पुनः मिट्टी चढ़ा दी जाती है।
3. मेंड़ों पर आलू की बुआई:  इस विधि में मेंड बानने वाले यंत्रों की सहायता से अभीष्ट दूरी पर मेंड़ें बना ली जाती हैं मेंड़ों की ऊँचाई प्रारम्भ में 15 सेमी. रखी जाती है। तत्पश्चात् 15-25 सेमी. की दूरी पर 8-10 सेमी. की गहराई पर आलू के बीजों को खुरपी की सहायता से मेंड़ों पर गाड़ देते हैं। अधिक नम व भारी भूमि के लिए यह विधि उपयुक्त रहती है क्योंकि मेंड़ों पर बोने से नमी कम हो जाती है।
4. पोटैटो प्लाण्टर से बुआईः पोटैटो प्लांटर से मेंड व कूँड़ बनाते चलते हैं। पहली मेंड पर आलू बो दिये जाते हैं। जब प्लांटर पहली कूँड़ के पास से दूसरी कूँड़ में गुजरता है तो पहली मेंड पर बोये हुए कन्दों को हल्की मिट्टी से ढँकता हुआ चला जाता है और अगली मेंड और कूँड तैयार हो जाते हैं।
5. दोहरा कूँड़ विधि: इस विधि में आलू की दो पंक्तियाँ एकान्तर विधि से बोई जाती हैं। दो पंक्तियों के मध्य 75 सेमी. की दूरी रखते हैं। यदि बुआई मेंड़ियों पर करनी है, तब इनकी चैड़ाई 75 सेमी. रखते हैं और आलू की दो पंक्तियाँ इसी मेंड़ी पर बनाकर बोआई करते हैं। इस विधि से अंकुरण और आलू का विकास अच्छा होता है। यह विधि पंजाब में प्रचलित है ।

पर्याप्त और  संतुलित  पोषण

    आलू की अच्छी उपज के लिए खाद एवं उर्वरकों की प्रचुर मात्रा प्रदान करना आवश्यक है। फसल को पोषक तत्वों की पूर्ति जैविक खाद एवं उर्वरकों के माध्यम से करना लाभप्रद रहता है। गोबर की खाद 5-10 टन प्रति हैक्टर के प्रयोग से उपज में 15-20 प्रतिशत की बढ¨त्तरी देखी गई है । इसी प्रकार से 50 क्विंटल  प्रति हैक्टर मुर्गी की खाद से भी उपज में 25-30 प्रतिशत का इजाफा संभावित है । इन खादों को बोने के 15-20 दिन पूर्व खेत  जोतकर अच्छी प्रकार से मिलाना चाहिए। इससे भूमि की भौतिक, रासायनिक और जैविक दशाओं में सुधार होता है जो कन्द की वृद्धि के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने में सहायक होता है। इसके अलावा मृदा परीक्षण  के आधार पर संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग आवश्यक रहता है। आलू की वानस्पतिक वृद्धि के लिए नत्रजन अति आवश्यक है। कंदों की वृद्धि एवं विकास में नत्रजन के साथ-साथ फास्फोरस तथा पोटाश की भी आवश्यकता होती है। इनके प्रयोग से कंदों का आकार बढ़ता है, कंदों का निर्माण होता है तथा सूखा सहन करने की शक्ति और रोग रोधिता बढ़ती है। आलू की अगेती फसल के लिये 100 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. स्फुर एवं 100 किग्रा., पोटाश की आवश्यकता होती है। शीतकालीन या मुख्य फसल में 120 किग्रा. नत्रजन, 80 किग्रा., स्फुर एवं 125 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रयोग करनी चाहिये। बसन्त कालीन या पछेती फसल के लिए 100 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. स्फुर एवं 100 किग्रा. पोटाश की आवश्यकता होती है। आलू की बुआई करते समय 25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से जिंक सल्फेट का प्रयोग करने से कन्द की उपज बढ़ती है।
    स्फुर एवं पोटाश की संपूर्ण मात्रा एवं नत्रजन की 75 प्रतिशत मात्रा आलू के कंदों को लगाते समय दो मेंड़ों के बीच की नालियों में देना चाहिए, ताकि मिट्टी चढ़ाते समय उर्वरक मिट्टी में मिल जाये और उर्वरक एवं मिट्टी का मिश्रण मेंड़ों पर जमा हो जाये। नत्रजन की शेष 25 प्रतिशत मात्रा टापड्रेसिंग के रूप में बुआई के 35-40 दिन बाद मिट्टी चढ़ाते समय दी जानी चाहिये। नाइट्रोजन की तरह पोटाश को भी दो बराबर भागों में बाँटकर दिया जा सकता है जिससे आलू के कंद की गुणवत्ता एवं भंडारण क्षमता में वृद्धि देखी गयी हैं।

फसल वढ़वार और  कंद विकास के  लिए करें सिंचाई

    आलू उथली जड़ वाली  फसल है अतः इसे बार-बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। सिंचाई की संख्या एवं अंतर भूमि की किस्म और मौसम पर निर्भर करता है। औसतन आलू की फसल की जल माँग 60-65 सेमी. होती है। बुआई के 3-5 दिन बाद पहली सिंचाई हल्की करनी चाहिए। अधिक उपज के लिए यह आवश्यक है कि मृदा सदैव नम रहे। जलवायु और मृदा की किस्म के अनुसार आलू में 5-10 सिंचाइयाँ देने की आवश्यकता पड़ती है। भारी मृदाओं में कम और हल्की मृदाओं में अधिक पानी की आवश्यकता होती है। नाली का केवल आधा भाग ही पानी से भरना अच्छा होता हैं। सिंचाई सदैव 50 प्रतिशत उपलब्ध मृदा जल पर कर देनी चाहिए। सिंचाई की सीमित व्यवस्था होने पर सिंचाई के कूड़ों की लंबाई कम कर देनी चाहिए। मृदा में नमी की हानि रोकने के लिए नालियों में पलवार  बिछा देनी चाहिए। आलू की फसल में देहांकुर बनते समय, मिट्टी चढ़ाने के बाद और कंदों की वृद्धि के समय सिंचाई करना आवश्यक रहता है। सिंचाई की इन क्रांतिक अवस्थाओं के समय खेत में नमी की कमी से उपज में बहुत गिरावट हो जाती है।
    आलू की सिंचाई करते समय नालियों में पानी का बहाव तेज नहीं होना चाहिए। इससे मेड़ियाँ कट जाती है जिससे कंद खुल जाते हैं। सूर्य के प्रकाश से ये कन्द हरे हो जाते हैं। खेत में जल निकास का उचित प्रबन्ध होना चाहिए। जल भराव की स्थिति में कन्द सड़ जाते हैं। आलू की खुदाई के पूर्व सिंचाई बन्द कर देनी चाहिये।

खेत रखे खरपतवार मुक्त

    आलू की फसल के साथ उगे खरपतवार को नष्ट करने हेतु आलू की फसल में एक बार ही निंदाई गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है, जिसे बुआई के 25-30 दिन बाद कर देना चाहिये। गुड़ाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि भूमि के भीतर के तने  बाहर न आ जायँ नहीं तो  वे सूर्य की रोशनी  से हरे हो जाते है । रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण आर्थिक रूप से लाभप्रद रहता है। इसके लिए मैट्रीब्यूजिन (सेंकर) 1 किग्रा. या आक्सीफ्लोरफैन (गोल) प्रति हेक्टेयर, 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बुआई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्व छिड़कना चाहिए। खड़ी फसल में एलाक्लोर 2 किलोग्राम को 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

 पौधों पर मिट्टी चढ़ाएं

       आलू की भरपूर और गुणवत्ता युक्त उपज लेने के लिए पौधों पर मिट्टी चढ़ाना आवश्यक रहता है। इससे कन्दों का विकास अच्छा होता है। मिट्टी न चढ़ाने से पौधों का आलू बनाने वाला भाग भूमि की ऊपरी सतह पर आकर हरे कन्द पैदा करने लगता है। खुले आलू के कन्दों में, सूर्य का प्रकाश या धूप पड़ने पर एन्थोसायनीन और क्लोरोफिल के संश्लेषण से, सोलेनिन  नामक एल्केलाइड बनने लगता है। इससे आलू हरे रंग के होने लगते हैं, जो कि स्वाद में कसैले  और स्वास्थ के लिए हांनिकारक होते है। इस प्रकार के आलुओं की गुणवत्ता खराब हो जाती है। अतः जब आलू के पौधे 10-15 सेमी. ऊँचे हो जाएँ, तब उन पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य (बोआई के 25-30 दिन) पहली सिंचाई के बाद करना चाहिए। यदि आलू की बुआई मशीन (प्लांटर) से की गई है, तब मिट्टी चढ़ाने की आवश्यकता नहीं होती है।

खुदाई एवं उपज

    आलू की खुदाई उसकी किस्म और उगाये जाने के उद्देश्य पर निर्भर करती है। आलू की फसल उस समय पूरी तरह तैयार ह¨ जाती है, जब पौधे  सूख जाँय, पत्ते  पीले  पड़ जाँय और  खोदने पर आलू के छिलके न उतरें । यदि आलू के कंदो को खुदाई पश्चात् सीधे बाजार मे बिक्री हेतु भेजना हो तो क्यूरिंग की आवश्यकता नहीं होती है। संग्रहण से पूर्व आलुओं को हवादार व ठंडे स्थानों पर रखा जाता है जहाँ प्रकाश न आता हो। खुदाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि आकन्द  पर किसी भी प्रकार का आघात न ह¨, नहीं त¨ उनके जल्द सड़ने का भय रहता है । उपलब्धता के अनुसार, आलू के कंदो की खुदाई यांत्रिक रूप से करने के लिए पोटेटो डिगर या मूँगफली हारवेस्टर का उपयोग किया जा सकता है। खुदाई के बाद आलुओ  का ढेर बनाकर बोरी आदि से लगभग 3 दिन तक ढंक देना चाहिए जिससे उन पर धूप न लगे । ऐसा करने से कंदों  पर लगी मिट्टी भी अलग ह¨ जाती है ।

अब लें भरपूर उपज

    आलू की उपज, भूमि के प्रकार, खाद एवं उर्वरक, किस्म व फसल की देखभाल आदि कारकों पर निर्भर करती है। सामान्य रूप से आलू से 250 से 500 क्ंिवटल प्रति हैक्टर तक उपज ली जा सकती है । आलू की अगेती किस्मों से औसतन 250 से 320 क्ंिवटल एवं पिछेती किस्मों से 300 से 600 क्ंिवटल उपज प्राप्त की जा सकती है।

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।