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सोमवार, 21 मार्च 2016

घातक है फसलोत्पादन में उर्वरकों का असंतुलित उपयोग

डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (सस्य विज्ञानं विभाग)
इंदिरा गांधी  कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगह)
                      माता भूमिः पुत्र¨ अहं पृथिव्याः अर्थात भूमि सबकी उत्पादक होने के  कारण मेरी माता है और  मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ।  प्राचीन समय में प्रचलित भूमि प्रबन्ध की सर्वाधिक प्रमुख बात भूमि के  साथ मातृवत व्यवहार तथा  प्रकृति तथा प्राकृतिक संघटकों  के साथ साहचर्य एवं  सहकार की भावना रही है । आज  मानव ने अपने स्वार्थ को  साकार करने मैं भूमि का अनवरत दोहन-शोषण करते हुए भूमि और  प्रकृति के  साथ स्थापित तारतम्य एवं साहचर्य को  लगभग समाप्त कर दिया है जिसके  परिणामस्वरूप जीवनदायिनी भूमि मृतपाय स्थिति में है। विगत कुछ वर्षों  से बहु-फसली सघन खेती में हमने भूमि के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों  पर प्रहार किया है। आज उच्च विश्लेषण उर्वरकों  यथा यूरिया, डाइअमोनियम फाॅस्फेट और  म्यूरेट आॅफ पोटाश का प्रचलन बढ गया है जिनसे क¢वल नत्रजन, फाॅस्फ¨रस एवं पोटाश तत्व ही फसल क¨ प्राप्त ह¨ते हैं। जबकि निम्न विश्लेषण उर्वरकों के प्रयोग से फसलों  को गौण  तथा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व प्राप्त होते रहते है।  दरअसल उच्च विश्लेषण उर्वरकों के लगातार प्रयोग से मिट्टी में गौण तथा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों  की कमी आ रही है । भारत में अमूमन 47 प्रतिशत मृदाओं  में जस्ता, 12 प्रतिशत में लोहा, 5 प्रतिशत में तांबा तथा 4 प्रतिशत मृदाओं  में मैंगनीज की कमीं है जिसका दुष्प्रभाव फसलों  की उपज एवं गुणवत्ता पर भी पड़ रहा है। दलहन, तिलहन तथा अधिक उपज देने वाली फसलों  में गन्धक का प्रयोग आवश्यक होता है। यहीं नहीं भारतीय मृदाओं  में कार्बनिक कार्बन की सर्वत्र कमी (0.17 प्रतिशत) परिलक्षित हो रही हैं जिसकी वजह से हमारी अधिकांश मिट्टियाँ बीमार अर्थात अनुपजाऊ होती जा रही है। दरअसल जैविक खादें जैसे गो बर की खाद, कम्प¨स्ट, हरी खाद आदि मृदा उर्वरता बनाए रखने, उत्पादन क¨ स्थिर रखने एवं पोषक तत्वों  से सही परिणाण प्राप्त करने के  लिए आवश्यक हैं। यहीं नहीं जैविक खादें वर्तमान फसल को  लाभ पहुँचाने के  साथ-साथ आगामी फसल क¨ भी अवश¨षित प्रभाव द्वारा लाभ पहुँचाती हैं।
उर्वरकों  का समुचित एवं संतुलित प्रयोग से तात्पर्य है कि फसल की आवश्यकतानुसार सभी आवश्यक पोषक तत्व समुचित मात्रा, सही अनुपात एवं उचित समय में मृदा में उपलब्ध होना चाहिए। परन्तु रासायनिक उर्वरकों के अनुचित और  असंतुलित प्रयोग न हरित क्रांति की सफलता पर सवालिया निशान लगा दिया है। कभी हरित क्रांति आवश्यक थी परन्तु रासायनिक उर्वरकों  का अंधाधुन्ध एवं असंतुलित उपयोग के दुष्परिणाम अब स्पष्ट दिख रहे है। देश के  अनेक कृषि क्षेत्रों  में पौधों के  लिए तीन मुख्य पोषक तत्वों  यथा नाइट्रोजन, फाॅस्फ़ोरस व पोटाश का प्रयोग एक अनिश्चित अनुपात में किया जा रहा है। किसी-किसी क्षेत्र में तो  यह अनुपात 9:3:1 है । जबकि अनाज वाली फसलों  में नाइट्रोजन, फास्फेट एवं पोटाश का आदर्श अनुपात 4:2:1, दाल वाली फसलों  में 1:2:1 तथा सब्जी वाली फसलों  में यह  अनुपात 2:1:1  होना चाहिए। स्वस्थ जीवन के  लिए हम सब क¨ स्वच्छ वायु, शुद्द जल, पौष्टिक भोजन, पशुओं के लिए चारा, ईधन, आवास और  प्रदूषण मुक्त पार्यवरण की आवश्यकता होती है। ये आवश्यकताएं कहीं न कहीं आधुनिक खेती से ताल्लुक रखती है। विकास मूलक कार्यो के  लिए कृषि भूमि को  गैर कृषि भूमि में तबदील किया जा रहा है। बढ़ते शहरीकरण, आधुनिकीकरण, ओद्योगिकीकरण और  रासायनिक उर्वरकों के अन्धाधुन्ध व असंतुलित प्रयोग से उपजाऊ भूमि बंजर भूमि में परिवर्तित हो  रही है जिसके  परिणामस्वरूप पारिस्थितिक असंतुलन की स्थिति पैदा हो  गई है।
रासायनिक उर्वरकों के असंतुलित प्रयोग के दुष्परिणाम
  • बीते  कुछ दशक से देश के  अनेक राज्यों  में फसल उत्पादन बढ़ाने हेतु रासायनिक उर्वरकों  के बढ़ते प्रयोग से वायु, जल और  मृदा प्रदूषण में लगातार इजाफा हो  रहा है जिसके  फलस्वरूप मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है ।
  • रासायनिक उर्वरकों के  लगातार असंतुलित प्रयोग से कृषि भूमि का उपजाऊपन और  उत्पादकता दोनों ही  घटती जा रही है।
  •  मिट्टी में उपस्थित केंचुए और अनेक अन्य सूक्ष्मजीव वास्तव में किसानों  लिए प्रकृति प्रदत्त निःशुल्क उपहार है । ये जीव अपनी जैव क्रियाओं  से भूमि को  पोषक तत्व तो  प्रदान करते ही है, साथ ही मिट्टी क¨ भुरभुरा बनाकर उसमें धूप और  हवा के  आवागमन को  सुगम बनाते है। परन्तु रासायनिक उर्वरकों  एवं कीटनाशकों के प्रयोग से केँचुए एवं अन्य लाभ कारी जीव विलुप्त होते जा रहे है।
  • असंतुलित उर्वरक उपय¨ग में मुख्यतः नाइट्र¨जन प्रदान करने वाले अकार्बनिक उर्वरको  का प्रयोग अधिक करने से मृदा में कुछ द्वितीयक व सूक्ष्म पोषक तत्वों  की कमी होती जा रही है जिसके  परिणामस्वरूप फसलों  की गुणवत्ता और  पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
  • दलहनी फसलों  में अत्यधिक नाइट्रोजनधारी उर्वरक   प्रयोग करने या फिर अधिक उर्वरता वाली भूमि में उगाने के  फलस्वरूप जड़ों की ग्रन्थि निर्माण और  वायुमंडलीय नाइट्रोजन स्थिरीकरण प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
  • देश के  अनेक राज्यों  जैसे पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान आदि के  कृषि क्षेत्रों  में लगातार एक ही किस्म के  रासायनिक उर्वरकों के  अन्धाधुन्ध प्रयोग  के  परिणामस्वरूप उपजाऊ भूमि का बड़ा भू भाग तेजी से लवणीय, क्षारीय और  अम्लीय भूमि मेें तबदील ह¨ता जा रहा है।
  • रासायनिक उर्वरकों  एवं कीटनाशकों के  अनुचित एवं बेखौफ  इस्तेमाल  से भूमिगत जल, नदियाँ और सरोवरों  का जल प्रदूषित होता जा रहा है, साथ ही फसल  उत्पादों में इन रसायनिकों की विषाक्तता भी बढ़ती जा  रही है। 
  •  रसायनिक उर्वरकों के अवशेष जैसे नाइट्रेट आदि  भोज्य पदार्थों के माध्यम से शरीर में पहुंच जाते है जिससे खतरनाक बीमारियां होने का अंदेशा बना रहता है। 
  • उर्वरकों से निकलने वाली ग्रीन  हाउस गैस (नाइट्रस ऑक्साइड ) वायुमंडल में उपस्थित ओजोन परत को नष्ट करती है। ओजोन परत सूर्य से निकलने वाली खतरनाक उलटरता वॉयलेट किरणों को रोकने में मदद करती है।  अल्ट्रा वॉयलेट किरणों की वजह से मनुष्यो में त्वचा कैंसर हो जाता है।  

                  कुछ कृषक खेती में उर्वरक का उपयोग तो  करते है किंतु एक या दो  तत्व से संबंधित उर्वरक को  भूमि में मिलाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है। इस प्रकार से उर्वरक देने से उस तत्व विशेष की तो  भूमि में प्रचुर मात्रा उपलब्ध हो  जाती है परन्तु अन्य तत्वों  की कमीं से मृदा में पोषक तत्वों  का संतुलन अस्त-व्यस्त हो  जाता हैं । उदाहरण के  लिए यदि हम मृदा में सिर्फ यूरिया का उपयोग लम्बे समय तक करते रहें तो  मृदा में नत्रजन तो  पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहेगी किंतु फाॅस्फोरस, पोटाश, गंधक आदि तत्वों  की कमी हो  जाती हैं जिससे मृदा का स्वास्थ बिगड़ता है एवं फसल का उत्पादन निसन्देह घट जाएगा। चंद जागरूक किसान भूमि में नाइट्रोजन, स्फुर एवं पोटाश युक्त उर्वरक का प्रयोग भरपूर मात्रा में करते हैं परन्तु अन्य गौड़  एवं सूक्ष्म तत्वों  जैसे कैल्शियम, सल्फर, मैग्नीशियम, जिंक आदि की मृदा में उपलब्धता पर ध्यान ही नहीं देते है जिससे इन तत्वों  की कमी के  लक्षण फसल पर दिखते हैं। ऐसे में भरपूर मात्रा में उर्वरक देने पर भी फसल उत्पादन के  परिणाम निराशाजनक आते  हैं। इसी प्रकार से तिलहनी फसलों के  लिए सल्फर आवश्यक पोषक तत्व है जिसकी तेल निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका  होती होती  हैं। मूंगफली फसल में पुष्ट फल्लियों  एवं दानों के  विकास में सल्फर के  अलावा कैल्शियम तत्व की आवश्यकता होती है। धान-गेंहू फसल चक्र वाली भूमियों  में मुख्य पोषक तत्वों के  अलावा कुछ सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे जिंक की कमीं देखी जा रही हैं। अतः खेत में उर्वरता का संतुलन इस प्रकार किया जाए कि फसल मांग एवं आवश्यकता के  अनुसार  पौधों को  जरूरी पोषक तत्व उपलब्ध होते रहें, जिससे अधिक से अधिक उपज प्राप्त हो सके और  मृदा स्वस्थ एवं सुरक्षित बनी रहें। वास्तव में स्वस्थ्य  मृदा उसे कहते है जिसमें जल धारण एवं निष्कासन, पोषक तत्वों  की समुचित उपलब्धता, पौधों  की बढवार एवं विकास की क्षमता, लाभकारी जीव-जन्तुओं  युक्त भूमि है जो  विभिन्न सस्य क्रियाओं के  प्रति अनुक्रियाशील हो ।

नोट: कृपया इस लेख को लेखकों की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो लेखक और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

गुरुवार, 17 मार्च 2016

स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए वर्षात में कुल्थी लगायें

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (सस्य विज्ञानं विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

         कुल्थी  को संस्कृत में कुलत्थ तथा अग्रेजी में हॉर्सग्राम कहते है।  दलहनी कुल की   सदस्य कुल्थी  वानस्पतिक  नाम मेक्रोटाइलोमा यूनिप्लोरम है। प्राचीनकाल से भारत के शुष्क  क्षेत्रों में उगाई जाने वाली दलहनी फसलों में कुल्थी  सबसे महत्वपूर्ण फसल है जिसे रबी और खरीफ में उगाया जाता है।  कुल्थी दलहनी वर्ग की कम अवधी की  फसल होने के कारण इसे फसल चक्र में आसानी से सम्मलित किया  जा सकता  है। इसकी खेती से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है तथा भूमि कटाव रोकने में मदद करते है।  इसका पौधा 30 से 45 सेमी ऊँचा अनेक शाखाओ युक्त होता है।  इसके बीज देखने में उड़द के समान हल्के लाल,काले, चितकबरे, चपटे और चमकीले होते है। कुल्थी का बीज चपटे, लाल,भूरे, धूसर काले या चितकबरे रंग के हो सकते है। इसके बीजों को दक्षिण भारत सहित अनेक राज्यों में दाल और पशु आहार के रूप में प्रयोग किया जाता है। पोषणमान की दृष्टि से  इसके  100 ग्राम दानों में 12 ग्रा.  नमी के साथ-साथ 22  ग्रा.  प्रोटीन, 57 ग्रा.  कार्बोहाइड्रेट,  5 ग्रा. रेशा, 3 ग्रा. खनिज, 287 मिग्रा.  कैल्सियम, 311 मिग्रा. फॉस्फोरस, तथा 7 मिग्रा. आयरन  पाया जाता है।कुल्थी की दाल स्वादिष्ट  और पौष्टिक होने के साथ-साथ इसमें स्वास्थ्य का खजाना छुपा है 
अनेक रोगों की रामबाण दवा 
       कुलथी कटु रस वाली, कसैली, पित्त रक्त कारक, हलकी, दाहकारी, उष्णवीर्य और श्वास, कास, कफ और वात का शमन तथा कृमि को दूर करने वाली है। यह गर्म, मूत्रल, मोटापा नाशक और पथरी नाशक है। आयुर्वेद में इसे मूत्र सम्बन्धी विकारों और अश्मरी (पथरी) रोग को दूर करने के लिए  पथरीनाशक बताया गया है। गुर्दे की पथरी और गॉल पित्‍ताशय की पथरी के लिए यह फायदेमंद औषधि है। आयुर्वेद में गुणधर्म के अनुसार कुलथी में विटामिन ए पाया जाता। यह शरीर में विटामिन ए की पूर्ति कर पथरी को रोकने में मददगार है। शरीर से अतिरिक्त वसा और वजन कम करने में कारगर होती है। 

ऐसे करते है कुल्थी की खेती
            कुल्थी की खेती शुद्ध फसल के रूप में तथा मिश्रित या अंतर्वर्ती फसल के रूप में मक्का, ज्वार, बाजरा और अरहर के साथ भी की जाती है। इस बहुपयोगी दलहन की अधिकतम उपज लेने हेतु सस्य तकनीक का संक्षिप्त विवरण अग्र प्रस्तुत है। 

उत्तम जलवायु 
                कुल्थी उष्ण एवं उपोष्ण कटबंधी  जलवायु में की जाती है परन्तु   अच्छी उपज की दृष्टि से उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु  उत्तम मानी जाती है। फसल वृद्धि के लिए 20 से 30 डि सेग्रे तापमान अनुकूल होता है। कुल्थी की फसल में सूखा सहन करने की क्षमता होती है। सामान्य तौर पर 500 से 700 मिमी वार्षिक  वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी खेती की जा सकती है। इसकी खेती अधिक ठन्डे और  पाला प्रभावित क्षेत्रों  में नहीं होती है। 
मृदा का चयन एवं खेती की तैयारी 
        कुल्थी के खेती  उचित जल निकासी वाली और उदासीन पी एच मान वाली लगभग सभी प्रकार की भूमियों  में आसानी  से की जा सकती है। खेत की 2-3 बार जुताई करने के पश्चात पाटा चलकर उसे समतल कर लेना चाहिए।  
बुआई का समय 
           वर्षा आगमन पश्चात कुल्थी की बुआई जून के अंतिम सप्ताह से लेकर 15 जुलाई तक करना अच्छा रहता है। परन्तु इसे खरीफ में विलम्ब से यानि अगस्त में  भी बोया जा सकता है। दक्षिण भारत में इसकी खेती रबी मौसम में की जाती है। 
कुल्थी की उन्नत किस्मों 
         भारत के विभिन्न कुल्थी उत्पादक क्षेत्रों/राज्यों के लिए कुल्थी की एके-42 (राजस्थान,पश्चिम बंगाल,गुजरात, झारखण्ड हिमाचल प्रदेश) बीएलजी-10 (उत्तराखंड), बीएलजी-8 (उत्तराखंड एवं हिमाचल प्रदेश),बीएलजी-15 (देश के उत्तरी पहाड़ी व मध्य वर्ती क्षेत्रों के लिए), बीजेपीएल-1 (कर्नाटक,आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु) उन्नत किश्मे उपलब्ध है। इन किस्मो से 90 से 110 दिन में 10-12 क्विंटल उपज प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती है। 
छत्तीसगढ़ राज्य के किसानों के लिए कुल्थी की सफ़ेद दानों वाली प्रमुख किस्में अग्र प्रस्तुत है :
बीके-1:- कुल्थी की यह किस्म 90 से 100 दिन में तैयार होकर 8 से 10 क्विंटल उपज प्रति हेक्टेयर देती है। 
एके-21 :- यह शीघ्र तैयार (80 -90 दिन) होने वाली उन्नत  किस्म है, जिससे 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।  
जेएनडी-2 :- मध्यम  अवधि में तैयार (95-110 दिन में ) होने वाली इस किस्म की उत्पादन क्षमता 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।  
इनके अलावा प्रदेश के लिए  इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय ने कुल्थी की एक नई छत्तीसगढ़ कुल्थी-2 के नाम से विकसित की है जिसमे पीला मोजेक रोग, एन्थ्रेक्नोज एवं सर्कोस्पोरा पत्ती धब्बा रोग का प्रकोप कम होता है।  
सही विधि से हो बीज की बुआई 
           सामान्यतौर पर किसान कुल्थी की बुआई छिटकवाँ पद्धति से करते आ रहे है परन्तु अधिक उपज के लिए कुल्थी की बुआई कतार पद्धत्ति से करना चाहिए। इसके लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से 45 सेमी तथा पौध से पौध के मध्य  7 से 10 सेमि. का अंतर रखते हुए बुआई करना उपयुक्त रहता है। ध्यान रखें की अन्य दलहनी फसलों की भांति  बुआई पूर्व कुल्थी के बीज का भी फफूंदनाशक दवा एवं राइजोबियम कल्चर से उपचार करें।
खाद एवं उर्वरक भी आवश्यक 
         कुल्थी की अधिकतम पैदावार के लिए खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर करना चाहिए।  सामान्य तौर पर बुआई के समय 20 किग्रा नत्रजन, 50-60 किग्रा फॉस्फोरस और 20 किग्रा  पोटाश  प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देने से बिना उर्वरक की तुलना में उपज में काफी बढ़ोत्तरी होती है। 
 फसल को रखें  खरपतवारो से मुक्त 
         खरीफ की फसल होने के कारण कुल्थी  में खरपतवार प्रकोप अधिक होता है। अतः बुवाई से 30-40 दिन तक फसल को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए।  इसके लिए बुवाई के 20-25 दिन बाद निराई-गुड़ाई करें। रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण हेतु  पेंडीमेथालिन (30  ईसी ) 3.4 लीटर मात्रा को 600 से 700 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के तुरंत बाद (अंकुरण पूर्व ) छिड़कने से खरपतवार प्रकोप कम होता है। 
 फसल कटाई,गहाई और भंडारण 
फसल की 90 प्रतिशत फल्लियाँ पकने पर इसकी कटाई कर लेना चाहिए।  कटाई में देरी करने से फलियों से दानें झड़ने की आशंका रहती है।  कटाई पश्चात फसल को सुखाकर बैलों या ट्रेक्टर से गहाई कर बीज को भूषा से अलग कर लें। दानों को अच्छी प्रकार सुखाने के बाद (8 से 10 % नमीं पर) भंडारित करना चाहिए। उपयुक्त जलवायु एवं उचित फसल प्रबंधन से 10 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर दाना उपज प्राप्त हो सकती है।
नोट: कृपया इस लेख को लेखकों की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो लेखक और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

मंगलवार, 15 मार्च 2016

ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार और समृद्धि के लिए कारगर है सिसल की खेती



डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्रोफेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
 
अमेरिकन मूल का पौधा सिसल (अगेव) जिसे भारत में खेतकी तथा रामबांस कहते है। आमतौर पर सिसल को शुष्क क्षेत्रों में पशुओं और जंगली जानवरों से सुरक्षा हेतु खेत की मेड़ों पर लगाया जाता रहा है। अनेक स्थानों पर इसे शोभाकारी पौधे के रूप में भी लगाया जाता है। परन्तु अब यह एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक रेशा प्रदान करने वाली फसल के रूप में उभर रही है। इसकी पत्तियों से उच्च गुणवत्ता युक्त मजबूत और चमकीला प्राकृतिक रेशा प्राप्त होता है।  विश्व में रेशा प्रदान करने वाली प्रमुख फसलों में सिसल का छटवाँ स्थान है और पौध रेशा उत्पादन में दो प्रतिशत की हिस्सेदारी है। वर्त्तमान में हमारे देश में लगभग 12000 टन सिसल रेशे का उत्पादन होता है, जबकि 50000 टन रेशे की आवश्यकता है।  भारत को प्रति वर्ष सिसल के रेशे अन्य देशों जैसे तंज़ानिया, केनिया आदि से आयात करना पड़ता है। 
क्या है सिसल ?
        सिसल यानि सेंचुरी प्लांट  (एगेव) प्रजाति की विभिन्न किस्मों  अर्थात एगेव सीसलानाaa  एगेव कैनटला,  अमेरिकाना, एगेव एमेनियेनसीस, एगेव फोरक्रोयडेस एगेव एनगुस्टीफोलिया इत्यादि  की पत्तियों से रेशा प्राप्त होता है। सीसल (एगेव सीसलाना) एगेव वर्ग के एगेभेसी वंशज के अन्तर्गत आता है। इसकी पत्तियां 2 से 3 फिट लम्बी होती है जिनके  अग्र भाग यानि टिप पर नुकीले कांटे होते है
सिसल उत्पादन करने वाले प्रमुख देश 
      विश्व में सीसल उत्पादन करने वाले प्रमुख देश ब्राजील, चीन, तनजानियां, केनिया, मोजाम्बिक और मेडागास्कर हैं. भारत में इसकी खेती उड़ीसा, छत्तीसगढ़,  मध्य प्रदेश, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र्, बिहार और अन्य राज्यों में की जाती है।
सिसल का आर्थिक महत्त्व  
        भारत में पत्तियों से रेशा प्राप्ति वाली फसलों में सीसल अर्थात खेतकी एक अत्यधिक महत्वपूर्ण फसल है। सीसल के पौधों को उगाकर मिट्टी के कटाव को भी रोका जा सकता है। खेत के  चारों तरफ सीसल की बाड़ (फेंसिंग) लगाने से जानवरों से फसल की सुरक्षा की जा सकती है  इसका रेशा मजबूत सफ़ेद और चमकीला होता है।  इसका उपयोग समुद्री जहाज के लंगर का रस्सा और औद्योगिक कल-कारखानों में भी होता है। इसके अलावा गद्दी, चटाई, चारपाई बुनाई की रस्सी और घरेलू उपयोग में प्रयोग किया जाता है। सीसल का रेशा उत्कृष्ट किस्म के कागज बनाने में उपयोग किया जाता है। वर्तमान में इसका अनेक प्रकार की वस्तुएं बनाने में उपयोग किया जा रहा है। जैसे कि फिशिंग नेट, कुशन, ब्रश, स्ट्रेप चप्पल और फैन्सी सामग्री के रूप में लेडीज बैंग, कालीन, बेल्ट, फ्लोर  कवर, वाल कवर इत्यादि के अलावा घर को सजाने के लिए विभिनन प्रकार की सजावट की वस्तुएं बनायी जा रही हैं। सीसल के रेशे से बनायी गयी वस्तुएं अपेक्षाकृत मजबूत टिकाऊ  और सस्ती होती है। सीसल  रेशा निकलने के बाद शेष कचरे में हेकोजेनीन पाया जाता है। जिसका कारटीजोन हार्मोन बनाने में उपयोग किया जाता है।  इसके अलावा कचरे का उपयोग जैविक खाद के रूप में भी किया जाता है।
                               ऐसे करें सिसल की खेती 
उत्तम जलवायु 
         सीसल की खेती अधिकाशतः शुष्क और अर्धशुष्क जलवायु में होती है। सीसल में कुछ समय तक सूखे की अवधि को सहन करने की क्षमता होती है। आमतौर पर पौधे की बढ़वार के लिए अनुकूल वर्षा चाहिए। अच्छी फसल उत्पादन के लिए यह जरूरी है कि पौध अवस्था के दिनों में वर्षा समय-समय पर हो। जहां वार्षिक वर्षो कम से कम 250 से 350  मिलीमीटर होती हो वहां इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। सीसल की अच्छी फसल बढ़वार के लिए तापमान अधिक, मौसम सूखा,तेज धूप एवं अधिक समय तक प्रकाश की आवश्यकता होती है।
खेती के लिए मृदा का चयन 
          सीसल की खेती उचित जलनिकास वाली सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है परन्तु बलुई दोमट मिट्टी अच्छी मानी गई है। इसके अलावा कंकरीली-पथरीली, ऊँची-नीची बंजर भूमियों में भी इसकी खेती की जा सकती है। ज्यादा अम्लीय और क्षारीय मिट्टिया इसकी खेती ¢ लिए उपयुक्त नहीं होती है।
खेत की तैयारी 
              खेती की तैयारी से पहले खरपतवारों  को साफ करके एक या दो बार जुताई करके खेत को समतल कर लेना चाहिए ताकि मिट्टी में वायु संचार जल धारण क्षमता बढ़ सके। मिट्टी की उपरी सतह को जहां तक संभव हो कम खोलना चाहिए। बुआई के लिए ढेलेदार मिट्टी पर्याप्त होती है।  जहां भूमि कटाव की संभावना हो वहां जुताई नहीं करनी चाहिए वहां कतारबध्द गडढे बनाकर सीसल की रोपाई करनी चाहिए।
पौध सामग्री  
       सीसल के पौधे में बहुधा बीज का विकास नहीं होता है।  इसका प्रगुणन वानस्पतिक विधि से किया जाता है। बुआई-रोपाई हेतु पौधे से उत्पन्न सकर्स और  बल्बिल्स उपयोग में लाये जाते है।  सीसल के जीवन काल के अन्त में एक लम्बे डण्डे के समान आकृति विकसित होती है जिसकी शाखाओं पर बल्बिल्स बनते हैं। एक पौधे से औसतन 500 से 2000  बल्बिस  की उत्पत्ति होती है। मध्य फरवरी से मध्य अप्रैल तक बल्बिल्स को संग्रह करके नर्सरी में बुआई कर देनी चाहिए। इसके अलावा सीसल के पौधों के मूल से प्रकन्द की उत्पत्ति होती है, जो 5 से 15 सेमी नीचे से निकलकर मिट्टी में समतल बढ़ते है और कुछ दूरी पर जाकर ऊपर की ओर उठने लगते है, जिन्हे  सकर्स के नाम से जाना जाता है। अपने जीवन काल में एक पौधा लगभग 20 से 30  सकर्स  उत्पन्न करता है। भारत में  सीसल की खेती के लिए मुख्यतः सकर्स  का अधिक प्रयोग किया जाता है।  सामान्यतौर पर एक से डेढ़  वर्ष  पुराने सकर्स को नर्सरी में पौध तैयार करना अच्छा रहता है।  बल्बिल्स से पौध तैयार करने में अधिक समय लगता है।
नर्सरी में पौधा कब और कैसे तैयार करें
  नर्सरी में सकर्स या बल्बिल्स को उगाकर अच्छे पौधे तैयार किये जा सकते हैं तथा इसकी रोपाई  अधिक भूखण्ड में की जा सकती है। जहां नर्सरी बनाई जाये वहां जल निकास का उचित प्रबंध, मिट्टी उपजाऊ, समतल और  सिंचाई की समुचित व्यवस्था आवश्यक है। नर्सरी वाले खेत की जुताई करने के बाद पाटा चलाकर मिटटी को अच्छी तरह  भुरभुरा करने की आवश्यकता होती है। गर्मी के मौसम में प्राथमिक नर्सरी में नये स्वस्थ सकर्स या बल्बिल्स को कतार में 10 सेमी तथा पौध से पौध 5 सेमी की दूरी पर रोपाई करनी चाहिए। रोपाई के पश्चात् हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है। पूर्णरूप से देख-रेख करने के 4-6 माह  पश्चात् इस पौध  यानि 20 से 30 सेमी ऊँचे पौधे  को प्राथमिक नर्सरी से चुनकर द्वितीय नर्सरी में उगाते है। रोपाई से  पहले  पौध की ख़राब  जड़ों और सूखी पत्तियों की छंटाई करके साफ करने के पश्चात् 50 x 25  सेंमी की दूरी पर द्वितीय नर्सरी में रोपाई  की जाती है। 
मुख्य खेत में रोपाई
 खेत  में निश्चित दुरी पर 30-40 सेमी गहरे गड्ढे बनाकर उसमे  जैविक खाद  को मिट्टी के साथ मिलाकर हल्का भरना चाहिए। रोपाई मानसून आरम्भ होने के साथ-साथ कर लेनी चाहिए। एक कतार में रोपाई विधि में पंक्ति से पंक्ति 2  मीटर की दूरी  तथा पौध से पौध ¢ बीच 1 मीटर की दूरी रखने पर एक हैक्टर में 5000  ©धे स्थापित हो जाते है दो कतारों के बीच खाली स्थान में आवश्यकतानुसार  फलीदार फसलों को उगाकर एक निश्चित भूखण्ड से अतिरिक्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
खाद एवं उर्वरक
     उर्वरक और खाद का प्रयोग मिट्टी की उर्वरा शक्ति ओर जलवायु के आधार पर किया जाता है। उपजाऊ जमीनों में उर्वरक देने की आवश्यकता नहीं होती है। अधिकतम रेशा उत्पादन के के लिए नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस तथा पोटाश क्रमशः60:30:60 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से समान रूप से गड्ढों में डालना चाहिए 
कटाई का समय   
      पत्तियों की कटाई, रोपाई से 2 से 3  वर्ष के बाद हंसिआ से करनी चाहिए। जब पत्तियां 60 सेमी या इससे अधिक लम्बी हो जायें और  पत्तियां मिट्टी को छूने लगें। कटाई नवम्बर से जून के प्रथम सप्ताह तक कर लेनी चाहिए। पौधो से पत्तियों की प्रथम कटाई के समय 16 पत्तियों को काटा जाता है और दूसरी कटाई के लिए 12 पत्तियों को प्रति पौधा छोड़ दिया जाता है। सीसल की पत्तियों की कटाई 3 से 6  माह के अंतराल की अपेक्षा वार्षिक कटाई लाभदायक सिध्द हुई है।
उपज एवं रेशा निष्कर्षण 
      सीसल का पौधा अपने पूरे जीवन काल अर्थात 7 से 8 वर्षो में लगभग 250 से 300  पत्तियों की उत्पत्ति करता है। एक पत्ती से सामान्यतः 20 से 30  ग्राम सूखा रेशा प्राप्त होता है। सामान्यतौर पर सीसल की पत्तियों में रेशे की मात्रा कुल हरे भाग का 4  प्रतिशत होती है। आमतौर पर सीसल की औसत उपज ढाई से चार  टन प्रति हैक्टर प्रति वर्ष प्राप्त होती है। यह पौधों की संख्या, जलवायु,  मिट्टी की उर्वरता तथा पौध प्रबंधन पर निर्भर करता है। पत्तियों की कटाई के पश्चात् डिकोरटीकेटर मशीन द्वारा रेशा निकालते है। रेशा पत्तियों की कटाई के साथ-साथ या कटाई के 48  घंटे के अन्दर निकाल लेना चाहिए। अन्यथा रेशा अच्छे किस्म का नहीं होता है। कटाई के पश्चात् पत्तियों को ग्रीष्म ऋतु की प्रचण्ड गर्मी में सूर्य के प्रकाश में नही रखना चाहिए  अन्यथा रेशे की गुणवत्ता ख़राब हो सकती है। रेशा निकालने के पश्चात् इसे साफ पानी से अच्छी तरह धुलाई करके इन्हें निचोड़ने के तुरन्त बाद बांस के मचान पर रखकर सुखाया जाता है। जमीन या सड़कों पर रेशा सुखाने से रेशे गंदे हो जाते है। सूखे रेशे को खंभे से पटककर अनुपयुक्त कोशिकाओ को अलग करना चाहिए।  तत्पश्चात् रेशे को अच्छी तरह झाड-पोंछ और ब्रश करके एक या दो दिन सुखाते हैं। पूर्ण रूप से सुखाने के बाद रेशे का बंडल बनाकर बेचने के लिए बाजार भेज देते हैं।
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