प्राध्यापक (सस्य विज्ञानं विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
कुल्थी को संस्कृत में कुलत्थ तथा अग्रेजी में हॉर्सग्राम कहते है। दलहनी कुल की सदस्य कुल्थी वानस्पतिक नाम मेक्रोटाइलोमा यूनिप्लोरम है। प्राचीनकाल से भारत के शुष्क क्षेत्रों में उगाई जाने वाली दलहनी फसलों में कुल्थी सबसे महत्वपूर्ण फसल है जिसे रबी और खरीफ में उगाया जाता है। कुल्थी दलहनी वर्ग की कम अवधी की फसल होने के कारण इसे फसल चक्र में आसानी से सम्मलित किया जा सकता है। इसकी खेती से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है तथा भूमि कटाव रोकने में मदद करते है। इसका पौधा 30 से 45 सेमी ऊँचा अनेक शाखाओ युक्त होता है। इसके बीज देखने में उड़द के समान हल्के लाल,काले, चितकबरे, चपटे और चमकीले होते है। कुल्थी का बीज चपटे, लाल,भूरे, धूसर काले या चितकबरे रंग के हो सकते है। इसके बीजों को दक्षिण भारत सहित अनेक राज्यों में दाल और पशु आहार के रूप में प्रयोग किया जाता है। पोषणमान की दृष्टि से इसके 100 ग्राम दानों में 12 ग्रा. नमी के साथ-साथ 22 ग्रा. प्रोटीन, 57 ग्रा. कार्बोहाइड्रेट, 5 ग्रा. रेशा, 3 ग्रा. खनिज, 287 मिग्रा. कैल्सियम, 311 मिग्रा. फॉस्फोरस, तथा 7 मिग्रा. आयरन पाया जाता है।कुल्थी की दाल स्वादिष्ट और पौष्टिक होने के साथ-साथ इसमें स्वास्थ्य का खजाना छुपा है ।
अनेक रोगों की रामबाण दवा
कुलथी कटु रस वाली, कसैली, पित्त रक्त कारक, हलकी, दाहकारी, उष्णवीर्य और श्वास, कास, कफ और वात का शमन तथा कृमि को दूर करने वाली है। यह गर्म, मूत्रल, मोटापा नाशक और पथरी नाशक है। आयुर्वेद में इसे मूत्र सम्बन्धी विकारों और अश्मरी (पथरी) रोग को दूर करने के लिए पथरीनाशक बताया गया है। गुर्दे की पथरी और गॉल पित्ताशय की पथरी के लिए यह फायदेमंद औषधि है। आयुर्वेद में गुणधर्म के अनुसार कुलथी में विटामिन ए पाया जाता। यह शरीर में विटामिन ए की पूर्ति कर पथरी को रोकने में मददगार है। शरीर से अतिरिक्त वसा और वजन कम करने में कारगर होती है।
ऐसे करते है कुल्थी की खेती
कुल्थी की खेती शुद्ध फसल के रूप में तथा मिश्रित या अंतर्वर्ती फसल के रूप में मक्का, ज्वार, बाजरा और अरहर के साथ भी की जाती है। इस बहुपयोगी दलहन की अधिकतम उपज लेने हेतु सस्य तकनीक का संक्षिप्त विवरण अग्र प्रस्तुत है।
कुल्थी उष्ण एवं उपोष्ण कटबंधी जलवायु में की जाती है परन्तु अच्छी उपज की दृष्टि से उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु उत्तम मानी जाती है। फसल वृद्धि के लिए 20 से 30 डि सेग्रे तापमान अनुकूल होता है। कुल्थी की फसल में सूखा सहन करने की क्षमता होती है। सामान्य तौर पर 500 से 700 मिमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी खेती की जा सकती है। इसकी खेती अधिक ठन्डे और पाला प्रभावित क्षेत्रों में नहीं होती है।
मृदा का चयन एवं खेती की तैयारी
कुल्थी के खेती उचित जल निकासी वाली और उदासीन पी एच मान वाली लगभग सभी प्रकार की भूमियों में आसानी से की जा सकती है। खेत की 2-3 बार जुताई करने के पश्चात पाटा चलकर उसे समतल कर लेना चाहिए।
बुआई का समय
वर्षा आगमन पश्चात कुल्थी की बुआई जून के अंतिम सप्ताह से लेकर 15 जुलाई तक करना अच्छा रहता है। परन्तु इसे खरीफ में विलम्ब से यानि अगस्त में भी बोया जा सकता है। दक्षिण भारत में इसकी खेती रबी मौसम में की जाती है।
कुल्थी की उन्नत किस्मों
भारत के विभिन्न कुल्थी उत्पादक क्षेत्रों/राज्यों के लिए कुल्थी की एके-42 (राजस्थान,पश्चिम बंगाल,गुजरात, झारखण्ड हिमाचल प्रदेश) बीएलजी-10 (उत्तराखंड), बीएलजी-8 (उत्तराखंड एवं हिमाचल प्रदेश),बीएलजी-15 (देश के उत्तरी पहाड़ी व मध्य वर्ती क्षेत्रों के लिए), बीजेपीएल-1 (कर्नाटक,आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु) उन्नत किश्मे उपलब्ध है। इन किस्मो से 90 से 110 दिन में 10-12 क्विंटल उपज प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती है।
छत्तीसगढ़ राज्य के किसानों के लिए कुल्थी की सफ़ेद दानों वाली प्रमुख किस्में अग्र प्रस्तुत है :
बीके-1:- कुल्थी की यह किस्म 90 से 100 दिन में तैयार होकर 8 से 10 क्विंटल उपज प्रति हेक्टेयर देती है।
एके-21 :- यह शीघ्र तैयार (80 -90 दिन) होने वाली उन्नत किस्म है, जिससे 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।
जेएनडी-2 :- मध्यम अवधि में तैयार (95-110 दिन में ) होने वाली इस किस्म की उत्पादन क्षमता 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
इनके अलावा प्रदेश के लिए इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय ने कुल्थी की एक नई छत्तीसगढ़ कुल्थी-2 के नाम से विकसित की है जिसमे पीला मोजेक रोग, एन्थ्रेक्नोज एवं सर्कोस्पोरा पत्ती धब्बा रोग का प्रकोप कम होता है।
सही विधि से हो बीज की बुआई
सामान्यतौर पर किसान कुल्थी की बुआई छिटकवाँ पद्धति से करते आ रहे है परन्तु अधिक उपज के लिए कुल्थी की बुआई कतार पद्धत्ति से करना चाहिए। इसके लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से 45 सेमी तथा पौध से पौध के मध्य 7 से 10 सेमि. का अंतर रखते हुए बुआई करना उपयुक्त रहता है। ध्यान रखें की अन्य दलहनी फसलों की भांति बुआई पूर्व कुल्थी के बीज का भी फफूंदनाशक दवा एवं राइजोबियम कल्चर से उपचार करें।
खाद एवं उर्वरक भी आवश्यक
कुल्थी की अधिकतम पैदावार के लिए खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। सामान्य तौर पर बुआई के समय 20 किग्रा नत्रजन, 50-60 किग्रा फॉस्फोरस और 20 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देने से बिना उर्वरक की तुलना में उपज में काफी बढ़ोत्तरी होती है।
फसल को रखें खरपतवारो से मुक्त
खरीफ की फसल होने के कारण कुल्थी में खरपतवार प्रकोप अधिक होता है। अतः बुवाई से 30-40 दिन तक फसल को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए। इसके लिए बुवाई के 20-25 दिन बाद निराई-गुड़ाई करें। रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण हेतु पेंडीमेथालिन (30 ईसी ) 3.4 लीटर मात्रा को 600 से 700 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के तुरंत बाद (अंकुरण पूर्व ) छिड़कने से खरपतवार प्रकोप कम होता है।
फसल कटाई,गहाई और भंडारण फसल की 90 प्रतिशत फल्लियाँ पकने पर इसकी कटाई कर लेना चाहिए। कटाई में देरी करने से फलियों से दानें झड़ने की आशंका रहती है। कटाई पश्चात फसल को सुखाकर बैलों या ट्रेक्टर से गहाई कर बीज को भूषा से अलग कर लें। दानों को अच्छी प्रकार सुखाने के बाद (8 से 10 % नमीं पर) भंडारित करना चाहिए। उपयुक्त जलवायु एवं उचित फसल प्रबंधन से 10 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर दाना उपज प्राप्त हो सकती है।
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