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शनिवार, 2 जून 2018

फसल चक्र अपनाएं, भूमि की उर्वरता एवं उत्पादकता बढ़ाएं


डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर, इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

           आधुनिक युग में खेतों से अधिकतम उत्पादन लेने हेतु नाना प्रकार के खाद एवं उर्वरक उपलब्ध हैं. खरपतवारों, कीटों तथा बीमारियों से पौधों की रक्षा करने के लिए अनेक शाकनाशी तथा कीटनाशक और रोगनाशक रसायनों से बाजार अटा पड़ा है जिनसे खरपतवारों तथा कीट-रोगों का प्रभावी ढंग से नियन्त्रण किया  जा सकता है।  प्राचीन समय में   भूमि की उर्वरता बढ़ाने, कीट-ब्याधिओं के नियंत्रण हेतु विविध फसल चक्र अपनाने के अलावा हमारे पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता था लेकिन आज उन्नत और आधुनिक कृषि के दौर में हमारे पास भूमि की उर्वरता और उत्पादकता को टिकाऊ बनाये रखने, कीट-रोग और खरपतवारों के नियंत्रण हेतु  सस्ते तथा कम समय में प्रभावकारी अनेक  विकल्प उपलब्ध है। अतः  कृषि को लाभकारी बनाने के लिए अथवा खेती से दो गुनी आमदनी प्राप्त करने के लिए  हमें  बाजार की मांग के अनुसार तथा भूमि और जलावायुविक परिस्थितिओं को ध्यान में रखते हुए फसल चक्र  अपनाने की महती आवश्यकता हैं।
फसल चक्र का मुख्य उद्देश्य भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखना तथा इसके अलावा कीट-ब्याधिओं से फसल की सुरक्षा करना होता है । प्राचीन समय में फसल चक्र में हरी खाद की फसल उगाना तथा खेत को परती छोड़ना आवश्यक समझा जाता था परन्तु आधुनिक कृषि में सघन फसल पद्धति को अपनाना मजबूरी है क्योंकि आधुनिक समय में हमारी जनसंख्या जिस तरह से बढ़ रही है उसके लिए यह आवश्यक है कि सघन खेती वाले कार्यक्रमों के लिए सघन फसल चक्र अ[नए  जायें ताकि कम समय में प्रति इकाई क्षेत्र से अधिकतम  उत्पादन/आर्थिक लाभ  प्राप्त किया जा सके

फसल चक्र के प्रकार

Ø ऐसे फसल चक्र जिनके पूर्ण या बाद में खेत परती छोड़ी छोड़ा जाता है जैसे- परती-बाजरा, गेहॅू-परती आदि.
Ø से  फसल चक्र जिनमें मुख्य फसल से पूर्व या बाद में हरी, खाद वाली फसल उगाई जाती है .उदाहरणार्थ हरी-खाद-जौ, हरी खाद-गेहॅू गेहॅू-हरी खाद।
Ø ऐसे फसल चक्र जिसमें बिना दाल वाली फसल से पूर्व अथवा बाद में दाल वाली फसल उगाई जाती है उदाहरणार्थ- गेहॅू-सोयाबीन,ज्वार-चना, अरहर-मक्का, मूंगफली-गेंहू आदि
Ø भूमि की उर्वरा शक्ति की परवाह किये बिना  अनाज के बाद  फिर अनाज वाली फसल लेना जैसे- धान-गेंहू, मक्का-गेंहूँ आदि.
Ø भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने के लिये दाल वाली फसलों  के बाद दलहन फसल  ली जा सकती है  जैसे अरहर-मुंग,मॅूग-चना, सोयाबीन-मटर/मसूर आदि.
Ø से फसल चक्र जिनमें सघन फसल पद्धति से विविध फसलों की खेती की जाती है जैसे- धान-गेंहू-मूंग, मॅूग-मक्का, तोरिया-गेहॅू-लोबिया, मक्का-चना-मक्का आदि फसल चक्रों में से कृषक भूमि, जलवायु, सिंचाई आदि की सुविधानुसार कोई सा भी फसल चक्र अपना सकते  है।

फसल चक्र के सिद्वान्त

              फसल चक्र का  निर्धारण करने  से पूर्व किसान को अपनी भूमि का आकर-प्रकार, जलवायु, सिंचाई साधन,फसल का प्रकार, किस्में,दैनिक आवश्यकताएं, लागत का स्वरूप तथा भूमि की उर्वरा शक्ति को ध्यान में  रखना चाहिए।   फसल चक्र बनाते और अपनाते  समय किसान भाइयों को अग्र प्रस्तुत बातों को ध्यान में अवश्य रखना चाहिये:
1. दलहनी फसलों के बाद खाद्यान्न  फसलें उगाना चाहिये। दलहनी फसलों की जड़ों में ग्रन्थियां पाई जाती है जिनमे नत्रजन स्थिरीकरण करने वाले  राइजोबियम जीवाणु पाये जाते हैं जो वायमण्डल की नत्रजन को भूमि में स्थिर करते है  इससे भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है जो की आगामी फसल के लिए लाभदायक होती है।          
2. गहरी जड़ों वाली फसलों के साथ उथली जड़ों वाली फसल उगानी चाहिय क्योंकि गहरी जड़ों वाली फसलें भूमि में गहराई से पोषक  तत्वों का अवशोषण करती है तथा उथली जड़ों वाली फसल ऊपरी भूमि उपस्थित  शेष पोषक तत्वों का अवशोषण कर सकती है इस प्रकार की फासले उगाने से भूमि की विभिन्न परतों में विद्यमान पोषक तत्वों का समुचित उपयोग हो जाता है. उदहारण अरहर-गेंहू, चना-धान,कपास-मैंथी आदि।    
3.अधिक खाद चाहने वाली फसलों के साथ कम खाद चाहने वाली फसलें बोना चाहिए. आधिक खाद-उर्वरक चाहने वाली फसलें लगातार एक ही भूमि में लगाते रहने से भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण हो जाती है और खेती की लागत भी बढ़ जाती है.अतः अधिक पोषक तत्व चाहने वाली फसलों के बाद कम पोषक तत्व चाहने वाली फसलें लगाना चाहिए. जैसे गन्ना-गेंहू, धान-चना,आलू-लोबिया,मक्का-मूंग/उर्द आदि।  
4. अधिक पानी चाहने वाली फसलों के बाद कम पानी चाहने वाली फसलें बोना चाहिए .इससे  उपलब्ध सिंचाई साधनों का सदुपयोग हो सकेगा. इसके अलावा इस प्रकार के फसल चक्र से  भूमि का वायु संचार अच्छा ना रहेगा। खेत में लगातार अधिक पानी चाहने वाली फसलें उगाते रहने से मृदा जल स्तर ऊपर आ जायेगा जिससे भूमि की सेहत खराब हो सकती है . उदहारण गन्ना-जौ, धान-चना/मटर आदि .   
5. फसलें  इस प्रकार ली जानी चाहिये कि फार्म पर उपलब्ध  सिंचाई साधनों, खाद एवं उर्वरकों, कृषि  यन्त्रों आदि  का भली-भांति  सदुपयोग हो सके। इसके अतिरिक्त उपलब्ध श्रम, बीज, भूमि इत्यादि के सही उपयोग के आधार पर   फसल चक्र बनाना/अपनाना चाहिये।
6.फसल चक्र में इस तरह की फसलों को समायोजित करना चाहिए कि अधिकाधिक आर्थिक लाभ   हो सके। इसके लिये आवश्यक है कि स्थानीय आवश्यकताओं तथा स्थानीय बाजार का भली भाँती  होना चाहिए ताकि उसी के अनुसार फसल चक्र बनाया जाये।
7.अधिक कर्षण क्रियाये/भूपरिष्करण चाहने वाली फसल के बाद कम कर्षण क्रियाये चाहने वाली फसल लगाना चाहिए।  इस प्रकार के फसल चक्र से मृदा की भौतिक सरंचना अच्छी बनी रहती है . इससे फसल उत्पादन लागत भी कम आती है। 

फसल चक्र का चुनाव

          किसी भी फसल चक्र को बनाने और उसे अपनाने  से पूर्व उसमें सम्मिलित की जाने वाली फसलों का चयन करते समय  निम्नलिखित कारकों को  ध्यान में  रखना आवश्यक होता है:
v जलवायु:- अपने क्षेत्र विशेष के लिए फसल चक्र बनाते/अपनाते समय क्षेत्र की जलवायु  अर्थात  वर्षा की मात्रा और उसका वितरण, अधिकतम और न्यूनतम  तापक्रम,प्रकाश की अवधि को ध्यान में रखना आवश्यक होता है. 
v मुदा :- फसल चक्र में विभिन्न फसलों के चयन के समय खेत में उपलध मृदा नमी ; मृद गठन ; मृदा पी. एच.  मान को ध्यान में रखना चाहिए। 
v सस्य प्रबन्धन:-खाद व उर्वरकों की उपलब्धता, सिंचाई जल की उपलब्धता, फसल  सुरक्षा रसायनों (कीट, रोग और खरपतवार नियंत्रण हेतु)  उपलब्धता के आधार पर फसलों का चयन लाभकारी होता है। 
v आर्थिक कारक :- फसल की आवश्यकता या माग,  ; फसल का बाजार  मूल्य या कीमत को भी ध्यान में रखकर फसलों का चयन करना चाहिए। 

फसल चक्र के फायदे

              फसल चक्र अपनाने से मृदा उर्वरता तथा मृदा नमी का सन्तुलित रूप से उपयोग होता है । उदाहरणार्थ यदि एक फसल मृदा से अधिक मात्रा में पोषक तत्व ग्रहण करती है तो अगली दलहनी फसल मृदा में पोषक तत्व का स्थिरीकरण करती है। इस प्रकार मृदा उर्वरता और उत्पादकता में  सन्तुलन बना रहता है।
§  विभिन्न दलहनी, उथली,गहरी, जड़ों वाली फसलों का समावेश फसल चक्र में होने के कारण मृदा के भौतिक, रासायनिक, जैविक गुणों में सुधार  होता है।
§  फसल चक्र में विभिन्न तरह की फसलों के समायोजन के कारण खरपतवारों, कीटों तथा बीमारियों पर प्रभावी  नियंत्रण रखा जा सकता है। एक ही फसल खेत में बार-बार उगाने  से फसल पर कीट ब्याधिओं का प्रकोप  बढ़ता है।
§  मृदा की उर्वरा शक्ति, मृदा, नमी, वायु, संचार इत्यादि जब अच्छे बने रहते हैं तो फसलोत्पादन स्वतः ही बढ़ जाता है और उपज अपेक्षाकृत अधिक प्राप्त होती है।
§  कीट तथा बीमारियों से बचाव के कारण फसल उपज की गुणता बढ़ जाती है।
§  अच्छे गुण वाली अधिक फसल उपज होने के कारण अधिक आर्थिक लाभ होता है।
§  फसल चक्र अपनाकर खेती करने से सिंचाई के साधनों, फार्म, यन्त्रों, मजदूरों, की उपलब्धता तथा उपलब्ध अन्य साधनों हम भली-भाॅति उपयोग में ला सकते हैं और उनकी दक्षता बढ़ा सकते हैं तथा इस प्रकार उनकी आयु भी बढ़ जाती है।
इस प्रकार से किसी भी क्षेत्र में टिकाऊ और लाभकारी फसलोत्पादन के लिए किसानों को अपने खेत मृदा के प्रकार, जलवायु, सिंचाई, खाद एवं उर्वरकों  की उपलब्धता, बाजार भाव आदि के आधार पर फसल चक्र का चयन कर अपनाने से टिकाऊ फसलोत्पादन लिया जा सकता है।   
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