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सोमवार, 24 जून 2019

जलवायु परिवर्तन-संकट में जीवन : जिम्मेदार कौन ?

जलवायु परिवर्तन-संकट में जीवन : जिम्मेदार कौन ?
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर, इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
पृथ्वी के अलग-अलग स्थानों पर एक निश्चित जलवायु होती है जिसे वहां की वर्षा, धुप, हवा, तापमान, आदि मिलकर निर्धारित करते है.जलवायु में हमेशा कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है, जिससे कभी ठण्ड ज्यादा तो कभी गर्मी ज्यादा पड़ती है और धरती पर रहने वाले जिव-जंतु उससे अपना सामंजस्य बनाते रहते है।  बीते 100-150 वर्षो से जलवायु में तेजी से परिवर्तन देखने को मिल रहा है जिसकी वजह से बहुत से पेड़-पौधे और जिव जंतु इससे अनकूलन नहीं बैठा पा रहे है. इसकी वजह वैज्ञानिकों ने ग्रीन हाउस गैसों में बढोत्तरी बताया है. दरअसल हमारा पर्यावरण अनेक प्रकार की गैसों (78 % नाइट्रोजन, 21 % ऑक्सीजन और 1 % अन्य गैसों) से मिलकर बना है. इसमें 1 % अन्य  गैसों में ग्रीन हाउस गैसे यथा कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, फ्लोरोकार्बन आदि शामिल है. यह ग्रीन हौस पृथ्वी के लिए सुरक्षा कवच के समान कार्य करती है. ये धरती की प्राकृतिक तापमान नियंत्रक है. वर्तमान विश्व में बढ़ते औद्योगिकरण एवं बढ़ते वाहनों की संख्या से ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में इजाफा हुआ है । बढ़ती ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन से वैश्विक तापमान में वृद्धि एवं जलवायु परिवर्तन जैसी घटनाओं ने समस्त विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है । ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इन्डेक्स 2010 के अनुसार, भारत जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित देशों में छठे स्थान पर है, जो कि देश में बाढ़, चक्रवात, और सूखे जैसी प्रकृतिक आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति से  स्पष्ट हो जाता है। जलवायु परिवर्तन मानसून को प्रभावित करता है और भारतीय कृषि मानसून पर ही निर्भर है। मानसून का समय पर आगमन और पर्याप्तता  कृषि की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका है।  जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून अवधि में कमीं तथा वर्षा जल की मात्रा में निरंतर गिरावट के कारण हमारी कृषि अर्थव्यस्था बेपटरी होती जा रही है। जलवायु परिवर्तन से कृषि केवल प्रभावित ही नहीं हो रही है वरन वह जलवायु परिवर्तन में योगदान भी दे रही है. मौसम के बदलाव हेतु जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कृषि भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।  कृषि से ही मीथेन एवं नाइट्रस ऑक्साइड गैस का सबसे अधिक उत्सर्जन होता है। 

जलवायु परिवर्तन :  आखिर जिम्मेदार कौन ?

          पृथ्वी गतिशील है और प्राकृतिक रूप से इसकी जलवायु में कुछ न कुछ परिवर्तन आता रहताहै.जलवायु परिवर्तन के दो कारण है एक तो प्राकृतिक और दूसरा मानव जनित कारण महाद्वीपों का अपने स्थान से खिसकना अथवा धरती के निचे स्थित प्लेटों का चलना. उदहारण के लिए हिमालय पर्वत का प्रतिवर्ष 1 मि.मी. बड़ते जाना आदि ऐसी घटनाएं है जो पूरी तरह से प्राकृतिक है।  ज्वालामुखी पर्वत फटने से लाखों टन सल्फर डाइ ऑक्साइड, राख, धुल और एनी गैसे वातावरण में बिखेर देते है, जिससे सूर्य की किरणों का पृथ्वी पर आना अवरुद्ध हो जाता है और उस क्षेत्र की जलवायु प्रभावित होती है।  समुद्र की लहरें भी जलवायु परिवर्तन में सहायक है. वातावरण एवं जमीन की अपेक्षा समुद्र सूर्य की दुगुनी ऊर्जा को अवशोषित करता है, जिससे वाष्पीकरण बढता है और ग्रीन हाउस गैसों में बढोत्तरी होती है।  इस प्रकार से बहुत से प्राकृतिक कारक है जो जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार होते है परन्तु यह सभी सैकड़ों वर्षों में अपना प्रभाव दिखाते है। प्रकृति के कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन पर हमारा वश नहीं है परन्तु प्राकृतिक संतुलन बनाने में हम महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते है। 

हम ही प्रभावित और हम ही जलवायु परिवर्तन के जिम्मेदार  

            जलवायु परिवर्तन में  मुख्य भूमिका मानवीय कारकों की ही मानी जाती है क्योंकि प्रकृति जन्य परिवर्तन तो हमेशा से होता आया है. ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोत्तरी हेतु हमारे द्वारा किये जा रहे विकास और विलासितापूर्ण जीवन के लिए जुटाए जा रहे साधन जिम्मेदार है, जैसे-
1.तीव्र उद्योगिकीकरण: अंधाधुंध औद्योगीकरण में व्यापक पैमाने पर फ़ॉसिल फ्यूल (डीजल, पेट्रोल,कोयला) का उपयोग किया जा रहा है  और प्रदूषण फ़ैलाने में आज उद्योग-कल कारखाने सबसे अग्रणी है।  उद्योग संचालन में अत्यधिक कोयले व बिजली की खपत  भी ग्रीन हाउस गैसों को बढावा दे रही है। औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाली कार्बनडाइ ऑक्साइड से शहरों का तापमान बढ़ रहा है। 
2. ऊर्जा खपत: बिजली प्रतिष्ठानों में ताप पैदा करने में, मोटरगाड़ी एवं उद्योगों में प्राकृतिक ईधन, गैस एवं कोयले की सबसे अधिक खपत होती है. इनके जलने से कार्बनडाइ ऑक्साइड गैस निकलती है जिससे वायुमंडल प्रदूषित हो रहा है। 
3. वनों का विनाश एवं पेड़ों की कटाई:वनों एवं पेड़ पौधों के कम होने से पर्यावरण में प्रदूषण की मात्रा में इजाफा हो रहा है।  जंगल एवं पेड-पौधे वायु मंडल से कार्बनडाइ ऑक्साइड शोषित कर जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने में सहायक होते है. वनों की अंधाधुंध कटाई से न केवल परिस्थितिकीय संतुलन बिगड़ा है बल्कि वनोपज पर आश्रित रहने वाले आदिवासी समुदाय के लिए आजीविका का संकट भी उत्पन्न हो गया है। 
4. जनसँख्या वृद्धि: तेजी से बढ़ रही जनसंख्या  भी जलवायु परिवर्तन में अहम भूमिका निभा रही है।  हमारे प्राकृतिक साधन सीमित मात्रा में उपलब्ध है, परन्तु बढती आबादी की जरुरत के कारण इन ससाधनों का असीमित और अनियमित दोहन किया जाने लगा है।  मिट्टी, पानी, हवा के अनियमित दोहन से प्रदुषण बदने के साथ-साथ इनकी उपलब्धतता और गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। 
5.भूमि उपयोग एवं कृषि क्रियाओं में बदलाव: आज अनेक स्थानों पर जंगलों को काटकर फसलों का उत्पादन अथवा खेती योग्य जमीनों को रिहायसी अथवा ओद्योगिक प्रयोजन में बदलने से भी जलवायु परिवर्तन हो रहा है अधिक उत्पादन के वास्ते फसलों में अंधाधुंध तरीके से रासयनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का इस्तेमाल, कृषि अवशेषों को जलाना, अधिक पानी चाहने वाली फसलों की खेती करने से भी जलवायु परिवर्तित हो रहा है 

घातक है विलासिता पूर्ण जीवन 

             सूर्य की पराबैगनी किरणों से धरती की रक्षा करने वाली ओजोन परत में छेद होने की भनक होते ही इसकी सुरक्षा के लिए दुनिया भर के नेताओं ने मोंट्रियल संधि करने का फैसला किया जिसके तहत ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने वाली गैस क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स (CFCs) में कटौती की बात कही गई थी।  इस गैस को रेफ्रिजरेटर्स, एयरकंडीशनर के अलावा हेयरस्प्रे,डियोडरेंट आदि में इस्तेमाल किया जाता था।  ज्ञात हो कि क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स के अपघटन से निकलने वाली गैस क्लोरीन ओजोन परत को प्रभावित करती है.बिलासितापूर्ण जीवन शैली के लिए इस्तेमाल की जा रही सुविधाओं और वस्तुओं से हम जाने-अनजाने में हम अपने ही पर्यावरण को नष्ट करने पर आमादा है यद्यपि मोंट्रियल प्रोटोकाल के असर से  इस गैस के उत्सर्जन में कमीं तो आई परन्तु क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स की जगह हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (HFCs) का इस्तेमाल किया जाने लगा. मगर अब दुनिया को हाइड्रोफ्लोरोकार्बन के दुष्प्रभावों की चिंता सताने लगी है क्योंकि इसमें मौजूद फ्लोरीन क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स की क्लोरीन से कहीं अधिक खतरनाक है।  हाइड्रोफ्लोरोकार्बन न केवल ओजोन परत को नुकसान पहुंचा रही है बल्कि ग्लोबल वार्मिंग में भी ज्यादा योगदान दे रही है एक बार उत्सर्जन के बाद यह गैस वातावरण में लगभग 15  वर्ष तक बनी रहती है जबकि कार्बन डाइऑक्साइड पांच सदी तक वातावरण में रहती है, परन्तु ग्लोबल वार्मिंग में हाइड्रोफ्लोरोकार्बन का योगदान  कार्बन डाइऑक्साइड से हजारों गुना ज्यादा होता है. इसी वजह से रवांडा की राजधानी किगाली में 197  देशों के नेताओं ने हाइड्रोफ्लोरोकार्बन के उत्सर्जन में कटौती का प्रण लिया है, परन्तु अभी भी इस खतरनाक गैस का उत्सर्जन सालाना 7-15  प्रतिशत की दर से बढ़ता जा रहा है।  वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ने से तापमान में बढ़ोत्तरी हो रही है. ज्ञात हो ग्रीन हाउस गैसों में सबसे खतरनाक हाइड्रोफ्लोरोकार्बन  है, जिसके उत्सर्जन में कमीं नहीं की गई तो इस सदी के अंत तक तापमान में 0.5  डिग्री सेल्सियस का इजाफा हो सकता है. यदि ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा इसी प्रकार से बढती रही तो हमारी धरती भी एक दिन  मंगल और शुक्र गृह की भांति जीवन रहित हो जाएगी।

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