डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं
अनुसंधान केंद्र,
कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)
प्राचीनकाल से गौधन, गजधन और बाजिधन को को
रतन धन से भी पहले रखा गया है, क्योंकि पशुधन हमारे देश में कृषि व्यवस्था का आधार
रहा है। पशुपालन
पूर्व में कृषि का सहायक धंधा हुआ करता था किंतु अब ऐसा नहीं है। आज कल यह एक पृथक रोजगार और आय सृजन का ऐसा क्षेत्र बन
गया है जिसमें विपुल संभावनाएं है। पूरे
देश में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधारने एवं किसानों की आमदनी को दोगुना करने
अनेक कृषि और किसान हितैषी योजनाये चलाई जा रही है। धान छत्तीसगढ़ की प्रमुख फसल है और 65 प्रतिशत क्षेत्र में धान की एक फसली
खेती प्रचलित है। धान बाहुल्य राज्य होने
के बावजूद प्रदेश के किसान धान की औसत पैदावार अन्य राज्यों की तुलना में बहुत कम (महज
1.5 से 2.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) ले पा रहे है। धान लेने के बाद सिंचाई सुविधाओं
के अभाव में रबी फसलों की खेती नहीं करते है। इसके परिणामस्वरूप प्रदेश
के किसानों को गरीबी और बेरोजगारी का सामना करना पड़ रहा है। प्रदेश में पशुपालन बहुतायत में किया जाता है परन्तु
दाना-चारा के अभाव में यहां के पशुओं की दुग्ध उत्पादन क्षमता बहुत ही कम (800-900
मिली प्रति पशु प्रति दिन) है जिससे किसानों को पशुपालन आर्थिक से लाभकारी नहीं
होने तथा चारा संकट के चलते वें अपने पशुधन को खुला चरने के लिए छोड़ देते है और
यहीं वजह है जिससे राज्य में द्विफसली क्षेत्र में इजाफा नहीं हो पा रहा है। कम होती वर्षा, गिरता भू-जल स्तर, बढती खेती की लागत एवं
पशुधन के लिए चारा संकट जैसी समस्याओं से निपटने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने नरवा,गरवा,
घुरवा अउ बाड़ी नाम की महत्वकांक्षी योजना की शुरुवात की है। मुख्यमंत्री श्री
भूपेश बघेल ने नारा दिया-‘छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी नरवा,गरवा,घुरवा अउ बाड़ी,एला
बचाना हे संगवारी’ ! उनका स्पष्ट मानना है
कि छत्तीसगढ़ की पहचान के लिए चार चिन्ह है-नरवा (नाला), गरवा (पशु और गोठान),घुरवा
(खाद) एवं बाड़ी (बगीचा), जिनके संरक्षण से भूजल भरण, सिंचाई सुविधाओं का विस्तार,
जैविक खेती को बढ़ावा, फसल सघनता (रबी फसलों का क्षेत्र विस्तार) बढ़ने के साथ-साथ
पशुधन को आर्थिक रूप से लाभकारी बनाने और परम्परागत किचन गार्डन (बाड़ी) बढ़ावा
मिलने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार और किसानों की आमदनी में इजाफा होने से
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार होने की उम्मीद है । इस में कोई दो मत नहीं है कि जिस उद्देश्य से यह योजना
प्रारम्भ की गई है उसका सही और सम्क्रियक यान्वयन होता है तो निश्चित ही प्रदेश की कृषि
अर्थव्यवस्था को इससे दूरगामी लाभ हो सकता है।
माननीय मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ द्वारा गौधन न्याय योजना का शुभारम्भ फोटो साभार गूगल |
भारत में पहली बार लागू इस
महत्वकांक्षी योजना के तहत छत्तीसगढ़ के लोक पर्व हरेली (20 जुलाई,2020, हरियाली
अमावश्या) के अवसर पर मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने सांकेतिक रूप से
गोबर खरीद कर योजना का शुभारम्भ किया । इस योजना के तहत सरकार पशुपालकों से दो
रुपए किलो की दर से गोबर खरीद कर इससे गोठानों में वर्मीकम्पोस्ट बनाकर किसानों को
बेचा जायेगा । अब तक प्रदेश में 3509
गोठान बन चुके है। इनमें से
1659 गोठानों में कृषि, बागवानी के अलावा
वर्मीकम्पोस्ट बनाने का काम ग्रामीण महिला समूहों के माध्यम से प्रारम्भ हो गया है।
प्रदेश में 5409 ग्राम पंचायतों में गोठान निर्माण का प्रावधान है। योजना के
हितग्राहियों का पंजीयन कर उन्हें एक कार्ड जारी किया जायेगा जिसमें गोबर खरीद की
मात्रा, कीमत एवं अन्य जानकारियां दर्ज की जायेगा।
क्या कहता है गोबर का गणित
पशुपालन विभाग की 19वीं पशु गणना के
हिसाब से प्रदेश में 1 करोड़ 46 लाख 13 हजार पशुधन है। इनमे 98.13 लाख गाय और 14
लाख भैंस है। स्वस्थ पशु दिनभर में औसतन 10-12 किलो तक गोबर देते है। सामान्यतौर
पर एक पशु से औसतन एक दिन में पांच किलो गोबर भी मिलेगा तो पूरे प्रदेश में हर रोज
5 करोड़ 60 लाख 65 हजार किग्रा (56065 टन प्रति दिन) गोबर प्राप्त होगा। यह सालाना
2 करोड़ 4 लाख 63 हजार 725 टन होगा। सरकार द्वारा यदि 2 रूपये प्रति किलो अर्थात
2000 रूपये प्रति टन की दर से गोबर क्रय किया जाता है, तो प्रति दिन 11 करोड़ 21 लाख
30 हजार रूपये खर्च करना होगा । सरकार को वार्षिक बजट में गोबर खरीदने के
लिए भारी भरकम बजट का प्रावधान करना होगा । यदि सब कुछ ठीक-ठाक रहता है तो 2 रूपये
प्रति किलो के भाव से गोबर बेचने से किसान को एक पशु से 3650 रूपये और 5 पशुओं से
18,250 रूपये प्रति वर्ष का मुनाफा हो सकता है ।
यदि ख़रीदे गए गोबर से केंचुआ खाद बनाई जाती है तो लगभग 28 हजार टन केंचुआ
खाद का निर्माण होगा जिसे 8000 प्रति टन (8 रूपये प्रति किलो सरकारी दर) के भाव से
बेचने पर 22,40,00000 की आमदनी हो सकती है। इसमें आधी उत्पादन लागत को घटा दिया
जाये तो भी सरकार की यह योजना घाटे की नहीं है। अब सवाल उठता है की किसान 8 रूपये
किलों केंचुआ खाद क्यों और कैसे खरीदेगा। वर्तमान में इस्तेमाल किया जा रहा
रासायनिक उर्वरक किसान को सस्ता पड़ता है । इसे एक उदाहरण से समझते है: मान लीजिये
किसी धान्य फसल में 60:40:20 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से क्रमशः नाइट्रोजन:फॉस्फोरस: पोटाश दिया
जाना है तो इसके लिए 134:375:33 किलो क्रमशः यूरिया:सिंगल सुपर फॉस्फेट:म्यूरेट ऑफ़
पोटाश की आवश्यकता पड़ेगी। बाजार में यूरिया 5.56/-, सिंगल सुपर फॉस्फेट 7.25/-व म्यूरेट ऑफ़ पोटाश 18.20/-किलो के भाव से
मिलता है तो किसान को कुल उर्वरकों पर 4068 रूपये प्रति हेक्टेयर का खर्चा करना
पड़ेगा। दूसरी ओर फसल में 60 किग्रा
नाइट्रोजन तत्व की पूर्ती करने के लिए किसान को कम से कम 4 टन वर्मीकम्पोस्ट (1.5
% नत्रजन) खाद क्रय करनी होगी जिसके लिए उसे 32000 रूपये की कीमत चुकानी होगी जो उसकी
सीमा से बाहर है। यद्यपि वर्मीकम्पोस्ट का इस्तेमाल करने से भूमि की उर्वरा शक्ति
और फसल की गुणवत्ता में सुधार होगा परन्तु रासायनिक उर्वरकों की तुलना में उपज कम
या बराबर आ सकती है। कुल मिलाकर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि वर्मी कम्पोस्ट खाद विक्रय पर किसान को कम से कम
50 प्रतिशत की छूट प्रदान कर 4 रूपये प्रति किलो की दर से यह खाद उपलब्ध कराने का प्रावधान
किया जाए तभी गौधन न्याय योजना अपने
उद्देश्यों में फलीभूत हो सकती है।
गोबर से जैविक
खाद कम्पोस्ट
भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए खेती में जैविक खाद का प्रयोग आवश्यक
होता है। इसी उद्देश्य से कृषि विभाग ने नाडेप विधि से खाद (कम्पोस्ट) बनाने की
विधि की जोर-शोर से प्रचार-प्रसार किया जिसके फलस्वरूप गाँव-गाँव में नाडेप-टांका
निर्मित किये गए। कम से कम गोबर का उपयोग करके अधिकाधिक मात्रा में खाद बनाने के
लिए नाडेप पद्धति सर्वोत्तम है। नाडेप विधि से कम्पोस्ट बनाने में जैविक कचरा और
गोबर को मिलाकर टांका में भरा जाता है। इस पद्धति से मात्र एक गाय के वार्षिक गोबर
से 80 से 100 टन (लगभग 150 बैलगाड़ी ) खाद प्राप्त हो सकती है।
ऐसे बनेगी गोबर
से वर्मीकम्पोस्ट
वर्मीकम्पोस्ट तैयार करने के लिए गोबर की खाद के अलावा मिट्टी,पानी, घरेलू
तथा पशुशाला का कूड़ा कचरा तथा फसल अवशेष के अलावा केंचुओं (एपीजेइक तथा एनेसिक प्रजातियाँ)
की आवश्यकता होती है। केंचुआ खाद बनाने के लिए गड्ढा विधि सर्वोत्तम रहती है।
इसमें 4 x 1.25 x 0.75 मीटर आकार की जुड़वां पक्की टंकी बनाते है जिसका निर्माण जमीन
पर होना चाहिए। हर दिवार में 30 सेमी.पर छेद रखे जाते है। इस विधि में सूखी
घास-पत्तियां,गोबर 3-4 क्विंटल, कूड़ा कचरा 7-8 क्विंटल एवं 8500 से 10,000 केंचुओं
की आवश्यकता होती है। सर्वप्रथम 15 सेमी. सूखी घास, चारा,कचरा की तह लगाकर उसे 24
घंटे तक पानी से तार रखते है। अब इसमें 300-350 केंचुआ प्रति वर्ग मीटर की दर से
छोड़कर 20 सेमी कचरे की तह जमा देते है। इसे
भी पानी से नम बनाये रखते है। भराई के बाद ढेर के ऊपर छाया की व्यवस्था करना
आवश्यक है। भराई के बाद 30-45 दिन तक ढेर को नम बनाये रखना चाहिए. इस प्रकार 60-65
दिन में 3-4 क्विंटल कम्पोस्ट तैयार हो जाता है। इसके अतिरिक्त उक्त ढेर से 20-25
हजार केंचुआ भी प्राप्त हो जाते है। दूसरी बार खाद बनाने के लिए इन केंचुओं का इस्तेमाल किया जा सकता है। एक वर्ष
में 3-4 बार में वर्मी कम्पोस्ट तैयार
किया जा सकता है।
विवरण
|
गोबरखाद
|
कम्पोस्ट
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वर्मीकम्पोस्ट
|
यूरिया+सुपर फॉस्फेट +म्यूरेट ऑफ़ पोटाश
|
तैयार होने में लगने वाली अवधि
|
6 माह
|
4 माह
|
2 माह
|
रेडीमेड
|
नाइट्रोजन %
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0.3-0.5
|
0.5-1.0
|
1.2-1.6
|
यूरिया-46 % नत्रजन
|
फॉस्फोरस %
|
0.4-0.6
|
0.5-0.9
|
1.5-1.8
|
सुपर फॉस्फेट-16% फॉस्फोरस
|
पोटाश %
|
0.4-0.5
|
1.0
|
1.2-2.0
|
म्यूरेट ऑफ़ पोटाश-60 % पोटाश
|
लाभदायक जीवों की संख्या
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बहुत कम
|
कम
|
काफी अधिक
|
नगण्य
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मात्रा प्रति हेक्टेयर
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10 टन
|
10 टन
|
4-5 टन
|
कम मात्रा
|
गोबर गैस संयंत्र: ऊर्जा के साथ खाद
गौधन न्याय योजना के तहत प्रदेश की सभी गौठानों
में यदि गोबर गैस संयंत्रों की स्थापना की जाए तो इससे ग्रामीणों के लिए ईंधन,
प्रकाश और कम हॉर्स पॉवर के डीजल इंजन चलाने के लिए बिजली के साथ-साथ उत्तम
गुणवत्ता की जैविक खाद (बायोगेस स्लरी) भी उपलब्ध हो सकती है। दरअसल,
ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर गोबर का प्रयोग उपले बनाकर ईंधन के रूप में किया
जाता है। यदि ग्रामीण जन गोबर को बेच देते है तो उन्हें ईंधन की कमीं के अलावा खाद
भी उपलब्ध नहीं हो पायेगा। वर्मीकम्पोस्ट खरीदकर खेती में उपयोग करना किसानों के लिए एक मंहगा सौदा हो सकता है। अतः 5-6 पशु पालने वाले किसान परिवारों को गोबर गैस संयत्र स्थापित करने के लिए
उन्हें प्रेरित करने की आवश्यकता है । इससे उनके ईंधन और खाद की समस्या का समाधान
हो सकता है ।
क्या है बायोगेस स्लरी
बायोगैस संयंत्र में गोबर गैस की पाचन क्रिया के बाद 25 प्रतिशत गैस के रूप में और 75 प्रतिशत ठोस पदार्थ का रूपान्तरण खाद के रूप
में होता हैं, जिसे बायोगैस स्लरी कहा जाता हैं । दो घनमीटर के बायोगैस संयंत्र
में 50 किलोग्राम प्रतिदिन या 18.25 टन गोबर एक वर्ष में डाला जाता है। उस गोबर
में 80 प्रतिशत नमी युक्त करीब 10 टन बायोगैस स्लरी का खाद प्राप्त होता हैं।
खेती के लिये यह अति उत्तम खाद होता है। स्लरी खाद में लगभग 1.4 % नाइट्रोजन, 1.2 % फॉस्फोरस और 1 % पोटाश के अलावा अनेक
सूक्ष्म पोषक तत्व (आयरन, मैगनीज,जिंक,कॉपर आदि ) पर्याप्त मात्रा में पाए जाते है।
स्लरी के खाद के इस्तेमाल से फसल को आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध होने के साथ-साथ मिट्टी की संरचना में सुधार होता है तथा जल धारण
क्षमता बढ़ती है। सूखी खाद असिंचित खेती में 5 टन एवं सिंचित खेती में 10 टन प्रति हैक्टर की आवश्यकता होती है । ताजी गोबर गैस स्लरी सिंचित खेती
में 3-4 टन प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करने की सिफारिस की जाती है ।
सूखी खाद का उपयोग खेत की अंतिम जुताई के समय एवं ताजी स्लरी का उपयोग सिंचाई जल के
साथ किया जा सकता है । स्लरी के उपयोग से फसलों को तीन वर्ष तक पोषक तत्व
धीरे-धीरे उपलब्ध होते रहते हैं।
गौधन न्याय
योजना सफल बनाने कुछ सुझाव
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा प्रारम्भ की गई गौधन न्याय योजना को सफल बनाने के लिए गाँव-गौठानों के पास और गौचर भूमि में
वर्ष भर हरा चारा उत्पादन का कार्यक्रम प्रारम्भ किया जाये और यह कार्य ग्राम
समितियों के माध्यम से संपन्न कराया जाए। उत्पादित चारे को न्यूनतम दर पर गौपालकों
को उपलब्ध कराया जाए। हरा चारा उपलब्ध होने से छुट्टा चराई पर रोक लगेगी, गाँव में
दुग्ध उत्पादन बढेगा जिससे पशुपालन को बढ़ावा मिलेगा। गौठानों में सामुदायिक स्तर
पर अथवा 5-6 परिवारों को मिलाकर गोबर गैस
संयंत्रों की स्थापना की जाए जिससे ग्रामीण परिवारों को बिजली, रसोई के लिए गैस और
छोटे पम्पों के लिए उर्जा प्राप्त होने के साथ-साथ बहुमूल्य खाद (स्लरी) प्राप्त
होगी जिससे जंगलों-पेड़-पौधों की कटाई रुकेगी तथा फसल उत्पादन में सतत
बढ़ोत्तरी होगी। गौपालकों से गोबर क्रय करने के बदले उन्हें हरा चारा और वर्मी
कम्पोस्ट न्यूनतम लागत पर उपलब्ध कराये जाने से जैविक खेती को बढ़ावा मिलेगा। गौपालकों
द्वारा उत्पादित दूध, दही, घी आदि का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया जाए
ताकि पशुपालन लाभ का व्यवसाय बन सकें। इसके अलावा प्रदेश में उपलब्ध पशुधन की
उत्पादकता को बढ़ाने के लिए पशु नश्ल सुधार कार्यक्रम को बढ़ावा देना आवश्यक है तभी
हमारे पशुधन आर्थिक रूप से लाभकारी हो सकते है। इस प्रकार गौधन न्याय योजना के सफल
क्रियान्वयन से ग्रामीण क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था में सुधार होने के साथ-साथ भूमिहीन
और सीमान्त किसानों को वर्ष भर रोजगार देने में यह वरदान सिद्ध हो सकती है।
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