डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर
(सस्यविज्ञान)
इंदिरा
गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
कोडार
रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)
पौधे मानव जाति के लिए
बहुमूल्य निधि है। इनके बिना हम
पृथ्वी पर जीवित नहीं रह सकते है, परन्तु सभी पौधों को अबाध गति से उगने एवं बढ़ने
नहीं दिया जा सकता। विश्व में तीन
लाख से अधिक पौधों की प्रजातियाँ पायी जाती है, जिसमें से केवल तीन हजार जातियाँ
आर्थिक महत्त्व की है। जो पौधे मानव की
आवश्यकताओं की पूर्ती करते है, उन्हें फसल कहते है और जो पौधे फसलों से
प्रतियोगिता करते है, उन्हें खरपतवार कहा जाता है । जब आर्थिक महत्त्व की
जाती (फसल) उगाई जाती है, तो उसके साथ बहुत से अन्य पौधे उग जाते है जो फसल के साथ
प्रतिस्पर्धा करते है तथा अवांछनीय होते है। इन्ही अवांछनीय पौधों को खरपतवार कहते है। ऐसा पौधा या वनस्पति जो अतिशय हानिप्रद, अनुपयोगी, अवांछनीय या विषैला हो,
खरपतवार की श्रेणी में आता है।फसलों में खरपतवारों का प्रकोप होने से उपज में 20
से 65 प्रतिशत का नुकसान हो सकता है। खरपतवारों के प्रकोप के कारण होने वाले
नुकसान की सीमा कई बातों पर निर्भर करती है। फसलों में किसी भी अवस्था पर खरपतवार
नियंत्रण करना समान रूप से आर्थिक दृष्टि से लाभकारी नहीं होता है। इसलिए प्रत्येक
फसल के लिए खरपतवारों की उपस्थिति के कारण सर्वाधिक हानि होने की अवस्था या अवधि
होती है। इस अवधि या अवस्था को क्रांतिक अवस्था कहते है। अधिकांश खाद्यान्न फसलों
में यह अवस्था 30-45 दिन की होती है अर्थात बुवाई से लेकर 45 दिन तक खेत खरपतवार
मुक्त होना जरुरी है। उचित समय पर सही ढंग से समझदारी से खरपतवारों का नियंत्रण
करके फसल की उपज और गुणवत्ता में वृद्धि की जा सकती है।
खरपतवारों से होने वाली हानियाँ
1.खरपतवारों से फसलों की उपज में कमीं:खरपतवारों
की उपस्थिति से फसलों की पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यदि इनका सही समय पर समझदारी से नियंत्रण
न किया जाए तो ये फसलों की उपज में 20 से 65 प्रतिशत तक कमीं कर सकते है।
2.फसल क्रियाओं व भण्डारण में बाधा:
खरपतवार, खेतों में की जाने वाली विभिन्न कृषि क्रियाओं जैसे जुताई, सिंचाई,
उर्वरकों के प्रयोग, कटाई व मड़ाई में बाधा डालते है। बहुत से खरपतवारों के बीज फसलों के बीजों के साथ मिल जाते है,
जिनको साफ़ करने में खाद्यान्न बीज की काफी मात्रा भी साथ में व्यर्थ हो जाती है।
3.फसल की गुणवत्ता में कमीं:
खरपतवार,फसलों के उत्पाद की गुणवत्ता को कम कर देते है जिससे उत्पादकों को बाजार
में कम मूल्य मिलता है। बहुत से खरपतवार
जैसे जंगली प्याज के कन्द फसलों में दुर्गन्ध तथा सत्यानाशी के बीज सरसों के बीज
में मिल जाने से ड्राप्सी नामक घातक बिमारी फैलाते है।
4.जानवरों के उत्पाद की गुणवत्ता में ह्रास:
बहुत से खरपतवारों जैसे जंगली प्याज के बीज चारे की फसलों में दुर्गन्ध पैदा करते
है तथा पार्थेनियम पशुओं के दूध व मांस की गुणवत्ता को प्रभावित करती है।
5.जानवरों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव:
चारागाहों व चारे की फसलों के साथ मिलकर कुछ खरपतवार जैसे पार्थेनियम (कांग्रेस
घास) तथा बर्रू घास, कल्ले निकलने की अवस्था में जानवरों द्वारा अधिक खा लेने पर
जहरीले साबित होते है।
6.मनुष्य के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव:
बहुत से खरपतवार मनुष्यों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डालते है। कुछ खरपतवारों से मनुष्य को एलर्जी व
अन्य बीमारियाँ हो जाती है। विश्व
में लाखों व्यक्तियों को श्वांस व त्वचा रोग पार्थेनियम पौधों के परागकणों व पौधों
के सम्पर्क में आने के कारण हो रहे है।
काँटेदार खरपतवारों से खेत में काम करने वाले व्यक्तियों की त्वचा कट-फट जाती है।
7.नदी,तालाबों में प्रदूषण:
खरपतवार, नदी,नाला, बाँध,झीलों,तालाबों में प्रदूषण फैलाते है जिससे पानी का
रंग,स्वाद व गंध बदल जाता है तथा नदी में तैरने व नाव खेने में दिक्कत आती है.
खरपतवार,नहरों में जल बहाव की गति को 20-30 प्रतिशत तक कम कर देते है तथा सिंचाई व
जल निकास के लिए बनाई गई नालियों को अवरुद्ध कर देते है.इससे नालियों के आस-पास जल
भराव की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
पानी में पाए जाने वाले खर्प्तार मछली पालन के लिए भी अभिशाप है।
8.प्राकृतिक सौन्दर्य का ह्रास:हमारे
रहने व कार्य करने के स्थान पर खरपतवार आस-पास के वातावरण के सौन्दर्य पर
दुष्प्रभाव डालते है।
खरपतवारों द्वारा फसलों की उपज में कमीं के कारण
1.आवश्यक पोषक तत्वों के लिए स्पर्धा:
खरपतवार, फसलों में दिये गये आवश्यक पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा करते है तथा
कुछ खरपतवारों की वृद्धि दर अधिक होने के कारण फसलों की तुलना में अधिक पोषक तत्व
ग्रहण कर लेते है, जिससे फसलों के लिए पोषक तत्वों की कमीं हो जाती है।
2.सौर ऊर्जा के लिए प्रतिस्पर्धा:सामान्यतः
खरपतवारों की वृद्धि फसलों की तुलना में अधिक होती है तथा ये फसलों पर छाया करते
है, जिससे फसलों के पौधों को समुचित मात्रा में सूरज का प्रकाश नहीं मिल पाता
जिसके फलस्वरूप प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया प्रभावित होती है।
3.जल के लिए प्रतिस्पर्धा:
खरपतवार, फसलों के साथ भूमि में उपलब्ध नमीं के लिए प्रतिस्पर्धा करते है तथा
फसलों की अपेक्षा ये अधिक जल का वाष्पोत्सर्जन करते है, जिससे फसलों के लिए भू-जल
की उपलब्धतता कम हो जाती है।
4.स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा:
खरपतवार, फसलों के साथ भूमि के अन्दर व बाहर स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा करते है,
जिससे पौधों की जड़ों व शाखाओं को बढ़ने के लिए कम स्थान मिल पाती है।
5.एलिलोपैथिक प्रभाव:
पर्याप्त पोषक तत्व, प्रकाश व पानी होने के बावजूद भी फसलों के पौधों की बढ़वार
खरपतवारों की मौजूदगी में कम हो जाती है. पौधों के बढ़वार में कमीं, साथ में उग रहे
खरपतवारों की जड़ों द्वारा उत्सर्जित होने वाले घातक रसायनों या पत्तियों द्वारा
वाष्पीय तत्व या अवशेष के सड़ने गलने के कारण उत्पन्न होते है। उदाहरण के लिए ज्वार की पौधों की जड़ों
द्वारा प्रूसिक अम्ल उत्सर्जित होता है जो ज्वार की फसल के बाद उगाई जाने वाली
गेंहूँ की फसल की वृद्धि पर कुप्रभाव डालता है।
6.हानिकारक कीट व रोगों का अधिक प्रकोप:
फसलों की पैदावार कम करने के साथ-साथ खरपतवार, बहुत से कीड़े व रोगाणुओं के लिए
विपरीत मौसम में मेजवान का कार्य करते है, जो फसल उगने पर आक्रमण करते है।
खरपतवारों को वर्गीकरण
विश्व
में खरपतवारों की 30000 से अधिक प्रजातियॉ
पाई जाती है जिनमें लगभग 18000 किस्म के पौधों से अधिक नुकसान होता हैं । सभी
प्रकार के खरपतवारों के लिए अलग प्रकार से नियंत्रण की आवश्यकता होती है तथा इनके
बढ़ने के तरीके और इसे होने वाली हानिया भी अलग प्रकार की होती है । खरपतवारों को
निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है ।
जीवन चक्र
के आधार पर वर्गीकरण: जीवन चक्र के आधार पर
खरपतवारों को तीन वर्गा में विभक्त किया जाता है ।
1.एकवर्षीय खरपतवार :ये
खरपतवार अपना जीवन चक्र एक वर्ष या एक ऋतु में पूर्ण कर लेते है। वार्षिक खरपतवार
के पौधो को उगने के समय के अनुसार चार वर्गो में विभक्त करते है।
वर्षा ऋतु
के खरपतवार: ये
खरपतवार जून-जुलाई में उगते है तथा सितम्बर अक्टूबर तक अपना जीवन चक्र पूर्ण कर
लेते हैं जैसे मकोय, जंगली चौलाई, लहसुआ.हजारदाना आदि ।
शरद ऋतु के
खरपतवार: ये
पौधे रबी की फसलो के साथ सितम्बर से नवम्बर तक उगकर फरवरी-मार्च तक जीवन चक्र
पूर्ण कर लेते है । इसमे जंगली जई, बथुआ,
कृष्ण नील, वनप्याजी, गेहू का मामा आदि ।
ग्रीष्म
ऋतु के खरपतवार-इस
वर्ग में ऐसे खरपतवार आते है जो गर्म और शुष्क मौसम में फरवरी से जून तक अपना
जीवन-चक्र पूर्ण कर लेते है । इसमें नुनियॉं,
पत्थर चट्टा आदि प्रजातियॉ
आती है।
बहु-मौसमी
खरपतावर: इस वर्ग
में वे खरपतवार आते है । जो वर्ष भर में किसी समय उगकर अपना जीवन चक्र पूर्ण कर
सकते है । इनमें किसी खास मौसम के लिए अनुकूलन नहीं होता है। ये पौधे वर्ष में एक से अधिक बार अपना जीवन
चक्र पूर्ण कर सकते है जैसे संवई घास,हजारादाना
आदि ।
2.द्विवर्षीय खरपतवार:
इस वर्ग के खरपतवार दो वर्षो में अपना जीवन चक्र पूर्ण करते है । इन खरपतवारों में
प्रथम वर्ष में वानस्पतिक वृद्धि होती है तथा दूसरे वर्ष में फूल फल आते है जैसे जंगली गाजर ।
3.बहु वर्षीय खरपतवार
:इस वर्ग के खरपतवार एक बार उगने के बाद कई वर्षो तक जीवित रहते है । इनकी वृद्धि
तथा प्रवर्धन इसके वानस्पतिक भागों जैसे जड़ों प्रकन्द, कंद, शल्ककंद से होता है । इस वर्ग के कुछ पौधे बीजों द्वारा भी बढ़ते है. बहु
वर्षीय खरपतवारों में दूब घास, मौथा,कांस आदि आते है.
पौधा की
बनावट के आधार पर वर्गीकरण
1.चौड़ी पत्ती वाले या
द्विबीज पत्री खरपतवार: इसमें बथुआ, हिरनखुरी, मटरी आदि सम्मिलित है ।
2.घासे या एकबीज पत्री
खरपतवार: इसमें दूबघास, जंगली जई आदि आते
है ।
3.सेजिस: इस वर्ग में
मोथ, नागरमोथा इत्यादि पौधे सम्मिलित हैं ।
खरपतवार
प्रबन्ध की विधियॉं
खरपतवार
प्रबन्ध के अंतर्गत खरपतवारों का निरोधन,उन्मूलन तथा नियंत्रण
सम्मिलित है । खरपतवार नियंत्रण से तात्पर्य खरपतवार खरपतवारों को इस प्रकार
नियंत्रण करने से है जिससे कृषि क्रियाओं सुगमता पूर्वक सम्पादित की जा सकें तथा
लाभदायक फसलोंत्पादन किया जा सके । इस
प्रकार मात्र खरपतवारों नियंत्रित करना पर्याप्त नहीं हैं । कुछ हानिकारक, कष्टप्रद,
विषैले, ऐसे खरपतवार होते है,
जिनका उन्मूलन करना
आवश्यक होता है ताकि वे पुनः न उग पाए। खरपतवारों की रोकथाम अथवा निरोध से
अभिप्राय है खरपतवारों को खेत में उगने ही न देना । इसके अर्न्तगत वे समस्त विधियॉं
आती है जिनके माध्यम से खरपतवारों का नए स्थानों पर प्रवेश रोका जाता है । ऐसे खरपतवार
जो फसलों के बीज व रोपण सामग्री अथवा फार्म यंत्रों के माध्यम से फैलते है उनकी
रोकथाम के लिए निम्न विधियॉं प्रयोग में लाई जाती है ।
खरपतवार रहित साफ़ बीजों का प्रयोग करना चाहिए ।पशुओं को ऐसे खरपतवार चारे के रूप में नहीं खिलाने चाहिए जिनके बीज परिपक्व
हो चुके हो तथा जिनमें अंकुरण क्षमता हो । यदि इस प्रकार के पदार्थ को खिलाना
अपरिहयि हो तो खिलाने के पहले
उन्हेंउबालना चाहिए या उनकी पिसाई कर देनी चाहिए । ताजी गोबर की खाद अथवा अधूरी सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग नहीं करना चाहिए । जीवांश पदार्थ युक्त ऐसे पलवार (मल्च) का प्रयोग नहीं करना जिसमें खरपतवार
के बीजों के होने की सम्भावना हो । पके हुए बीज युक्त खरपतवारों से आच्छादित खेतों में पशुओं की चराई के पश्चात
उन्हें खरपतवार रहित खेतों में नहीं जाने देना चाहिए । पशुओं के गोबर के साथ अथवा शरीर से चिपक कर खेत में
बीजें के प्रसारणकी सम्भावना रहती है । एक खेत से होकर दूसरे खेत में ले जाने से पूर्व कृषि यंत्रों की अच्छी
प्रकार साफ़-सफाई कर लेनी चाहिए ताकि खरपतवारों को फैलने से रोका जा सकें । फार्म की सड़को के किनारों खलिहान,
फार्म के भवनों के
आसपास के खरपतवारों बीज बनने से को पूर्व ही समाप्त कर देना चाहिए । सिंचाई और जल निकास की नालियों के किनारों तथा इनके बीच उगे खरपतवारों को
नष्ट करते रहना चाहिए । रोपाई की जाने वाली फसलों में नर्सरी से पौध उखाड़तें
समय ध्यान देना चाहिए कि पौधों के साथ
खरपतवार के पौधे न मिले हों ।
खरपतवार नियंत्रण की विधियाँ
खरपतवार नियंत्रण के लिए यांत्रिक, कृषिगत और रासायनिक विधियों का इस्तेमाल किया जाता है ।
1.यांत्रिक
विधिया: इस विधि
में खरपतवारों को उखाड़ने,
कटाई करने, दबाने जलाने,
आदि कार्यों हेतु
मशीनों व यंत्रों का प्रयोग किया जाता हे
। इस विधि में खरपतवारों को हाथ से खींच कर या खुरपी, फावड़ा या कुदाल के द्वारा
अथवा ट्रैक्टर के पीछे कई टाइनों वाला यंत्र लगाकर उखाड़ दिया जाता है । घास या
फसलों की पत्तियों को एक परत के रूप में भूमि पर फसलों के बीच में बिछाना या उनको
जला देना भी इसी विधि में सम्मलित है। प्रतेक फसल को खरपतवार मुक्त रखने के लिए कम
से कम 25 दिन के अंतराल पर दो बार निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है । इस विधि में
लागत व समय अधिक लगता है ।
2.जैविक
विधियां: जैव
नियंत्रण में विशिष्ट प्रकार के खरपतवारों
को विशिष्ट परजीवियों,
परभक्षियों तथा रोगाणुओं
के माध्यम से नियंत्रित किया जाता है । इस विधि का इस्तेमाल अभी प्रचलन में नहीं
है।
3.रासायनिक
नियंत्रण: खरपतवार
की रासायनिक विधियों का प्रयोग विवेक तथा सावधानी पूर्वक करने पर अच्छी सफलता
प्राप्त होती है । खरपतवार के नियंत्रण हेतु प्रयुक्त कुछ रसायन एक वर्ग के पौधो
के समाप्त कर देते है जबकि दूसरे वर्ग के पौधे इनके प्रयोग से अप्रभावित रहते है ।
खरपतवार नाशकों का चयन व प्रति इकाई क्षेत्रफल में उनकी मात्रा, प्रयोग करने की
विधि व समय की खरपतवार नियंत्रण की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। रसायनों
की सहायता से खरपतवार नियंत्रण जल्दी, कम लागत में प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता
है। यह विधि आर्थिक दृष्टि से लाभकारी भी सिद्ध हुई है ।
4.समन्वित खरपतवार नियंत्रण: जब दो या दो से अधिक खरपतवार नियंत्रण की विधियाँ खरपतवारों के
प्रभावशाली नियंत्रण के लिए अपनाई जाती है तो इसमें विभिन्न विधियों का समुचित
चयन, समन्वय तथा क्रियान्वयन, पर्यावरण एवं आर्थिक पहलुओं को ध्यान में रखना
अत्यंत आवश्यक होता है।
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