डॉ.गजेन्द्रसिंह तोमर, प्रोफ़ेसर
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि
महाविद्यालय एवं अनुसंधान
केंद्र,कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)
चांदनी रात में चांदी
जैसी आभा बिखेरते तथा जंगल में अलग से दिखाई देने वाले कुल्लू (Sterculia
urens) की खुबसूरती देखकर अंग्रेजों ने इसे 'लेडी लेग' का नाम दिया था।
तने के आकर्षक चमकीलेपन के चलते अंग्रेज इसकी तुलना गोरी मेम की टांगों से करते
थे। चमकीले आकर्षक सफेद रंग के दिखने के कारण ये पेड़ रात में अलग से पहचाने जा
सकते हैं। इस पेड़ की पत्तियां हथेली जैसी 25 सेमी. व्यास की होती है जो शाखाओं के
अन्त में झुण्ड में लगती है। फरवरी-मार्च में पतझड़ होने के उपरान्त इस पर हरापन लिए पीले रंग
के छोटे आकार के फूल खिलते जिन पर रोयें पाए जाते हैं। इसके फल अंडाकार 7.5 सेमी
लम्बे होते है जो पकने पर लाल रंग के हो जाते है। फलों का बाहरी आवरण लालिमायुक्त रोयें
से ढका होता है। एक फल में 3-6 काले या
कत्थई रंग के बीज होते है. पत्तेविहीन
होने के बाद चमकीले तने और डालियों के कारण कुल्लू के पेड़ रात में अजीब दहशत महसूस होती हैं।
इसलिए
ग्रामीण क्षेत्रों में इसे भूतहा
या भूतिया पेड़ (घोस्ट ट्री) के नाम से भी जाना जाता है। आदिवासी इसके बीज को भूनकर खाते है।
बहुमूल्य गोंद कतीरा देने वाला
वृक्ष है कुल्लू
कुल्लू एक ओद्योगिक रूप से
महत्वपूर्ण वृक्ष है, क्योंकि अंतराष्ट्रीय
बाजार में सबसे अधिक मांग तथा सर्वाधिक निर्यात की जाने वालीं गोंदों में से एक गम कराया (गोंद) है, जो गोंद कतीरा के नाम से
विश्व विख्यात है. भारत में विगत 5000 वर्ष से परंपरागत औषधि के रूप में इसका
प्रयोग हो रहा है। कुल्लू का गोंद
शक्तिवर्धक और औषधीय गुणों वाला होता है। विदेशों में इसकी कीमत काफी होती है।
औषधीय एवं खाध्य के रूप में बेहद उपयोगी गोंद कतीरा या कराया गोंद ‘कुल्लू वृक्ष’
से प्राप्त किया जाता है। कुल्लू गोंद का
प्रयोग खाध्य पदार्थों एवं औषधियां आदि तैयार करने में किया जाता है। स्वादिष्ट मिठाई, आइसक्रीम, चुइगम, सॉस, दवाई के केप्सूल
जोड़ने, टूथपेस्ट बनाने में एवं श्रृंगार सामग्री बनाने में इसका इस्तेमाल किया
जाता है।
भारत के गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश,
छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र के कोकड़ के जंगलों में कुल्लू के पेड़ पाए जाते
है। इस वृक्ष में ग्रीष्म ऋतू (अप्रैल-जून)
में सर्वाधिक गोंद पैदा होता है। भारत में
लगभग 4000 टन कराया गोंद का उत्पादन होता है। असली
कतीरा गोंद बाजार में ट्रेड नम्बर E-416
से बेचा जा रहा है।
गोंद के आलावा इसकी छाल से उपयोगी रेशा (fiber) प्राप्त होता है जिसे कपड़ा एवं रस्सी बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है। कुल्लू की लकड़ी से फर्नीचर, शोभाकारी वस्तुएं, खेती के औजार आदि बनाये जा सकते है।
कहीं लुप्त न हो जाएँ बहुपयोगी
वृक्ष कुल्लू
वर्तमान में कुल्लू का विदोहन अधिक मात्रा में होने एवं इनसे गोंद प्राप्त करने के लिए अनियंत्रित आकार एवं अधिक गहराई के खांचे बनाने या शाखाओं के काटने के कारण इन पेड़ों को भारी क्षति हो रहीं है। यहाँ तक कई जंगलों में कुल्लू के पेड़ नजर ही नहीं आते है अर्थात लुप्तप्राय होते जा रहे है। कुल्लू के कुछ पेड़ अब भी बचे हैं और जल्दी ही इन्हें बचाने की कोशिश नहीं की गई तो भारत का यह दुर्लभ औषधीय वृक्ष समाप्त हो सकते हैं। कराया गोंद भारत के जंगलों की प्रमुख वनोपज है और जंगल में बसने वाले आदिवासियों की रोजी-रोटी का सहारा है. बेतहासा जंगल कटाई एवं लगातार विदोहन के कारण नष्ट होते जा रहे कुल्लू के पेड़ों की अवैध कटाई पर तत्काल रोक लगाने के साथ-साथ जंगलों में इनके प्रतिरोपण की आव7 श्यकता है। यही नहीं कृषि क्षेत्र में भी किसानों को कुल्लू वृक्षों के रोपण के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। खेतों की मेड़ों पर कुल्लू के वृक्ष लगाने से किसानों को गोंद उत्पादन के माध्यम से अतिरिक्त आमदनी प्राप्त हो सकती है। इसके बीज से पौध तैयार कर व्यवसायिक खेती की जा सकती है। रोपाई के बाद लगभग 6-7 वर्ष बाद पेड़ों से गोंद प्राप्त होने लगता है। वैज्ञानिक तरीके से गोंद निकालने पर इनसे 20-30 वर्ष तक अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है।
1 टिप्पणी:
बलौदाबाजार ज़िले के कसडोल एवं बिलाईगढ़ ब्लॉक के वनों में वन विभाग द्वारा कुल्लू के 25000 पौधों का रोपण किया गया है जो अब पूर्ण रूप से वयस्क हो चुके हैं
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