डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्राध्यापक (सस्यविज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
कांपा, जिला महासमुंद (छत्तीसगढ़)
खस (वेटीवर) घास भारतीय मूल की घनी गुच्छेदार एक बहुवर्षी घास है। इसका वैज्ञानिक नाम वैटिवेरिया जिजेनिओइड्स जो पोयेसी कुल की सदस्य है। इसके पौधे 1.5 मीटर (5 फीट) ऊंचे होते है जो चौड़े घेर (clump) बनाते है। इसकी पत्तियां 3 मीटर तक लम्बी एवं 8 मिमी. चौड़ी होती है। खस की रेशेदार जड़ें नीचे की ओर बढ़ती हुई 2 से 3 मीटर तक भूमि की गहराई में चटाईनुमा फैलती हैं। हल्के पीले रंग या भूरे से लाल रंग वाली जड़ों को सुगन्धित तेल उत्पादन के लिए उत्कृष्ट माना जाता है। इसकी पत्तियां पतली लम्बी, सुदृण तथा किनारे पर खुरदुरी होती है। इसका पुष्पक्रम पैनिकल (15 से 30 सेमी. लम्बा) के रूप में जिसके केन्द्रीय कक्ष में अनेक पतले रैसीम का झुंड होता है। इसके स्पाइकलेट भूरे-हरे और बैंगनी रंग के जोड़े में होते है।
बहुत उपयोगी है खस
खस (वेटीवर)घास के पौधे, जड़ें एवं पुष्पक्रम |
सुगन्धित तेल के अलावा इसकी जड़ों से परदे, चटाईयां तथा पंखे बुने जाते है। गर्मियों में खश की टट्टियाँ तैयार कर कूलर में लगाई जाती है तथा परदे खिड़की दरवाजों में टाँगे जाते है। पानी पड़ने या छिडकने पर शीतल व सुगन्धित हवा प्रदान करती है। इसकी पत्ती एवं तनों का उपयोग झोपडी बनाने में किया जाता है। इसकी पत्तियों को कपड़ों में रखने से कीड़े आदि से सुरक्षित रहते है । इसकी हरी मुलायम पत्तियों का उपयोग पशु चारे के रूप में भी किया जाता है। इसकी सूखी पत्तियों से टोपी, हस्त-बैग, हाँथ के पंखे और बहुत सी शोभाकारी वस्तुए बनाई जाने लगी है। खस की जड़ें भूमि की गहराई में क्षैतिज रूप से बढ़कर चटाई नुमा संरचना बनाती है जिससे इसके पौधे भूमि के कटाव रोकने और जल संरक्षण में सहायक होते हैं। खस के पौधों में सूखा सहन करने की क्षमता अधिक होती है।
खस की मांग अधिक उत्पादन कम
खस (वेटीवर) के तेल की बहुपयोगिता के कारण राष्ट्रिय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर इसके तेल की अधिक मांग होने के कारण नैसर्गिक रूप से जंगलों व नदी किनारों पर पैदा होने वाली खश घास का रकबा घटता जा रहा है। कम उत्पादन एवं बढती मांग के कारण इसके तेल एवं जड़ों की कीमतें भी बढती जा रही है। संसार में खस तेल का उत्पादन लगभग 300 टन होता है जिसमें केवल 20-25 टन तेल भारत में उत्पादित होता है. हमारे देश में खस की खेती राजस्थान, असम, बिहार, उत्तरप्रदेश, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश और मध्यप्रदेश राज्यों में की जाती है, जिनसे केवल 20-25 टन तेल पैदा हो पाता है । वर्तमान में हमारे देश में वेटीवर तेल की खपत 100 टन के आस-पास है जिसमें से 80 प्रतिशत तेल के आपूर्ति आयात के माध्यम से की जाती है। उत्तर खस(भारत में उत्पादित होने वाले खस के सुगन्धित तेल की प्रीमियम गुणवत्ता की कीमत अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बहुत अच्छी प्राप्त होती है। कम उत्पादन और बढती मांग के कारण भारत में खस घास की खेती की अपार संभावनाएं है। उपजाऊ, गैर-उपजाऊ अथवा बेकार पड़ी भूमियों और खेत की मेंड़ों पर खस घास का रोपाण कर आकर्षक आमदनी अर्जित की जा सकती है. ग्रामीण नौजवानों के लिए खस की खेती और तेल के आसवन की इकाई एक बेहतर रोजगार और आय अर्जन का सुनहरा व्यवसाय हो सकती है।
खस (वेटीवर) घास उत्पादन की सस्य तकनीक
भारत में ठन्डे इलाकों को छोड़कर सभी प्रदेशों में खस की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। खस के पौधों का विकास प्राकृतिक रूप से अथवा खेतों में 1000 से 2000 मि.मी. वार्षिक वर्षा 220 से 420 सेग्रे. तापक्रम एवं मध्यम आर्द्रता व नम जलवायु में सफलतापूर्वक उगाये जा सकते है। इसकी जड़ों की उचित बढ़वार के लिए मृदा का तापक्रम 250 सेग्रे उपयुक्त पाया गया है। वातावरण का तापक्करम 50 सेग्रे से कम होने पर इसकी जड़े सुषुप्ता अवस्था में चली जाती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी इसे आसानी से लगाया जा सकता है।
भूमि का चयन
खस घास के पौधे प्राकृतिक रूप से नदियों के किनारे अथवा दलदली भूमि पर उगते है। खश की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमियों (जलमग्न, लवणीय, क्षारीय, ऊंची-नीची) में आसानी से की जा सकती है, परन्तु बलुई दोमट भूमि, जिसका पी एच मान 6-8 हो, सर्वोत्तम पायी गई है। चिकनी मृदाओं में जड़ों की खुदाई में कठिनाई होती है। बलुई दोमट मृदा में जड़ें लम्बी होती है और इनकी खुदाई पर अपेक्षाकृत कम खर्च आता है। ग्रीष्मकाल में एक दो बार खेत की गहरी जुताई (20-25 से.मी.)करने से जड़ों का विकास अच्छा होने के साथ-साथ मृदा जल संरक्षण होता है एवं खरपतवार नियंत्रित रहते है। पौधों की रोपाई के समय खेत में 1-2 बार कल्टीवेटर से जुताई करने के बाद पाटा चलाकर मिट्टी को समतल कर लेना चाहिए।
उन्नत किस्में
भारत में खस घास की दो प्रजातियाँ यथा दक्षिण भारतीय खस एवं उत्तर भारतीय खस की खेती की जाती है। उत्तर भारतीय खस से उत्तम गुणवत्ता का सुगन्धित तेल प्राप्त होता है परन्तु इनकी जड़े कम लम्बी होती है। दक्षिण भारतीय खस घास से जड़ एवं तेल की पैदावार अधिक प्राप्त होती है। दक्षिण भारतीय खस की प्रमुख उन्नत किस्मों में पूसा हाइब्रिड-8, सीमेप खस.-2, के एच-8, सुगंधा, के एच-40 व ओ डी व्ही-3 व्यापारिक खेती के लिए उपयुक्त है। केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ ने अधिक उत्पादन एवं उच्च गुणवत्ता वाली किस्में विकसित की है। इनमें (i) धारिणी-खश तेल की सुगंध वाली व मृदा संरक्षण के लिए उपयुक्त, (ii)गुलाबी-गुलाब जैसी सुगंध (iii)केसरी-केसर जैसी सुगंध वाली खश की नवीन किस्में है।
पौध रोपण का समय एवं विधि
सिंचित क्षेत्रों में खश की रोपाई फरवरी से लेकर मध्य अक्टूबर तक की जा सकती है परन्तु बेहतर उत्पादन के लिए जुलाई से अगस्त माह का समय सर्वोत्तम रहता है। असिंचित एवं ढालू जमीनों में वर्षात का समय इसकी रोपण हेतु अच्छा रहता है। सिंचित क्षेत्रों में घास की रोपाई के लिए मार्च-अप्रैल का समय सर्वोत्तम रहता है, परन्तु पौध स्थापन हेतु आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना जरुरी है।
खश का प्रवर्धन बीज व वानस्पतिक विधि से किया जा सकता है। बीज से अप्रैल-मई में नर्सरी में पौधे तैयार कर दो माह बाद तैयार पौधों को मुख्य खेत में रोपा जाता है। खस की सभी जातियों एवं सभी परिस्थितयों में बीज उत्पादन नहीं होता है। व्यवसायिक खेती के लिए वानस्पतिक विधि अधिक कारगर रहती है। वानस्पतिक विधि अर्थात स्लिप्स से रोपण हेतु इसके 12 माह पुराने पौध झुंडों को सावधानी पूर्वक उखाड़कर उनसे एक-एक कलम अलग की जाती है। इन जड़युक्त कलमों को ही स्लिप्स कहते है। प्रत्येक स्लिप 10-15 से.मी. लम्बी स्लिप (जड़युक्त तना), जिनमें 2-3 गांठे होना चाहिए। पर्याप्त जड़ वाला मुलायम तना (स्लिप) रोपाई के लिए अच्छा रहता है।
पौध झुंड से स्लिप्स को निकालने के बाद इन्हें छाया में रखना चाहिए। इनकी ऊपर की पत्तियां काट दें तथा नीचे की सूखी पत्तियों को हटा कर इन पर पानी छिडक देना चाहिये। खस घास की स्लिप्स को भूमि में 10 से.मी. की गहराई पर कतार से कतार तथा पौध से पौध 60 x 30, 60 x 45 या 60 x 60 सेंटीमीटर की दूरी पर भूमि की उर्वरा शक्ति, सिंचाई की सुविधा तथा किस्म के आधार पर लगाना चाहिए। इस प्रकार एक हेक्टेयर में 27,800 से लेकर 1,10,000 पौधे स्थापित होने चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
खेत की अंतिम जुताई के समय 8-10 टन गोबर की खाद
मिट्टी में मिला देने से उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है। मध्यम एवं उच्च
उर्वरायुक्त मृदाओं में सामान्यतः खस बिना खाद एवं उर्वरक के उगाई जा सकती है। कम
उर्वर या हल्की भूमि में 50 किग्रा.
नाइट्रोजन, 30 किग्रा. फॉसफोरस:20 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की
दर से देना लाभकारी रहता है। खस स्थापन के दूसरे वर्ष वर्षा प्रारंभ होने के बाद 40 किग्रा
नाइट्रोजन का उपयोग खड़ी फसल में करना चाहिए।
सिंचाई प्रबंधन
खस सूखा सह घास है तथा सामान्यतौर में इसकी फसल
को सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है. रोपाई के समय बेहतर पौध स्थापना हेतु सिंचाई
की आवश्यकता पड़ती है। पौधे एक माह में पूर्णतः स्थापित हो जाते हैं। रोपाई के बाद
वर्षा हो जाने पर सिंचाई की जरुरत नहीं पड़ती है। अवर्षा की स्थिति में जड़ों के बेहतर विकास के लिए सिंचाई देना लाभकर
होता है।
खरपतवार प्रबंधन
खस की रोपाई के बाद 35 से 40 दिन तक खेत खरपतवार मुक्त रखा जाना चाहिए. पौध स्थापित होने के बाद खरपतवार प्रकोप कम होता है। खेत में 1-2 बार निराई एवं गुड़ाई करने से खरपतवार समाप्त होने के साथ-साथ खस की पौध वृद्धि एवं विकास अच्छा होता है। रोपाई के 4-5 माह बाद पौधों के ऊपरी हरे भाग को जमीन से 20-30 ऊंचाई से काट देने से जड़ों का विकास अच्छा होता है। इसी प्रकार द्वितीय वर्ष घास में फूल आने के पूर्व ऊपर से हरे भाग को काट देना लाभकारी पाया गया है।
जड़ों की खुदाई
खश की जड़ों में तेल पुष्पन काल के बाद बनता है।
सामान्यतः खश 18 से 20 माह
में खुदाई योग्य हो जाती हैं। पूर्ण विकसित जड़ों की खुदाई नवम्बर से लेकर फरवरी
तक की जा सकती है। खुदाई पूर्व पौधों का ऊपरी भाग हंसिया से काट लिया जाता है। काटे गये ऊपरी भाग को चारे, ईंधन या झोपड़ियाँ बनाने के काम में लाया जाता है।
ऊपरी भाग की कटाई उपरान्त कुदाली या अन्य यंत्र
की सहायता से जड़ों को खोद लिया जाता है। खुदाई के समय जमीन में हल्की नमीं रहना
आवश्यक है। खुदाई पश्चात् जड़ों को खेत में दो से तीन दिन सुखाने से मिट्टी झड़
जाती है। ट्रैक्टर चालित मिट्टी पलटने
वाले हल से 40 से 45 सेंमी.
गहराई तक जड़ों की खुदाई आसानी से की जा
सकती है। औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित ट्रेक्टर चालित खस जड़
खुदाई यंत्र अधिक सुविधाजनक एवं किफायती पाया गया है।
उत्पादन एवं आमदनी
खस घास के तेल उत्पादन की मात्रा रोपाई के समय, किस्म, जलवायु एवं सस्य प्रबंधन पर निर्भर करती है। उपजाऊ दोमट व बलुई दोमट मृदा में रोपी गई खस घास की उन्नत किस्मों से 35-40 क्विंटल ताज़ी जड़े प्राप्त हो जाती है जिन्हें छाया में सुखाने के बाद आधुनिक आसवन विधि के माध्यम से 20-30 किग्रा तेल प्राप्त किया जा सकता है। मध्यम उपजाऊ बलुई भूमि से 25-30 क्विंटल जड़े तथा उनसे 15-25 किग्रा तक सुगन्धित तेल प्राप्त किया जा सकता है। जलमग्न एवं समस्याग्रस्त भूमियों में खस घास एवं तेल का उत्पादन कम होता है। इसकी जड़ों में 0.6 से 0.8 प्रतिशत तेल पाया जाता है। उन्नत किस्मों की सूखी जड़ों में औसतन 1 प्रतिशत तक तेल प्राप्त हो जाता है। खस की जड़ों का सुगन्धित तेल का उत्पादन वाष्प आसवन विधि द्वारा किया जाता है। इसकी जड़ों से सामान्यतः तेल निकालने के लिए 14-16 घंटे जड़ों का आसवन करना उपयुक्त रहता है। खुदाई के जड़ों को पानी में धोकर साफ़ करने के पश्चात छोटे-छोटे (5-10 से.मी.)टुकड़ों में काट कर छाया में 1-2 दिन तक सुखाया जाता है। जड़ों को धूप में सुखाने पर तेल की गुणवत्ता खराब हो जाती है। इसके बाद भाप आसवन विधि से तेल निकाला जाता है। स्टेनलेस स्टील से बने आसवन संयंत्र द्वारा उच्च गुणवत्ता का तेल प्राप्त होता है। तेल को सूखे एवं ठन्डे स्थान पर स्टेनलेस स्टील के पात्रों में भंडारित कर रखना चाहिए अथवा बाजार में बेच देना चाहिए।
सामान्यतौर पर खस घास उत्पादन में 50 से 60 हजार रूपये प्रति हेक्टेयर लागत आती है। खस घास का तेल बाजार में 25 से 30 हजार रूपये प्रति किलो की दर से बिकता है। खस के पौधों का ऊपरी भाग तथा तेल निकालने के पश्चात इसकी जड़े बेचकर अतिरिक्त लाभ अर्जित किया जा सकता है। उचित किस्म एवं सही फसल उत्पादन तकनीक अपनाने पर खस की खेती से लगभग 1.8 लाख से 2.5 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर का शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
खस घास से निर्मित हस्त शिल्प वस्तुएं फोटो साभार गूगल |
नोट : 1.खस (वेटीवर) घास की उन्नत खेती से सम्बंधित अधिक जानकारी एवं उचित दर पर इसकी पौध सामग्री प्राप्त करने के लिए लेखक से ई-मेल profgstomar@gmail.com के माध्यम से संपर्क किया जा सकता है।
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