डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर
(सस्यविज्ञान)
इंदिरा
गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
कोडार
रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)
जलकुम्भी आर्थात वाटरहायसिंथ (आइकार्निया क्रेसपीस) पाण्टीडेरीयेसी
कुल का स्वतन्त्र रूप से जल में तैरने वाला खरपतवार है। इसके पौधे ऊंचाई में कुछ
सेंटीमीटर से लेकर 60 सेंटीमीटर तक के हो सकते है। इसका तना खोखला और छिद्रदार होता है तथा पर्व
संधियों से झुण्ड में रेशेदार जड़ें निकलती है। इसकी पत्तियां चिकने हरे रंग की
होती है। इस पौधे के फूल नीले, सफ़ेद-बैंगनी रंग के आकर्षक होते है। इन पौधों की
पत्तियों में हवा भरी होती है जिससे ये जल की सतह पर आसानी से तैर सकते है। इसके
बीज लम्बे समय तक जीवित रहते है। यह खरपतवार बहुत तेजी से प्रगुणन और वृद्धि करता
है और लगभग 12-15 दिन में इसकी संख्या दुगुनी हो जाती है।
जल कुम्भी पुष्पन अवस्था फोटो साभार गूगल |
जल कुम्भी का नियंत्रण
सौन्दर्य की छटा बिखेरती जल कुम्भी फोटो साभार गूगल |
समस्या नहीं रोजगार का साधन है जलकुम्भी
जलकुंभी के दुष्प्रभावों के साथ-साथ इसमें बहुत से आर्थिक गुण भी पाए जाते है. ग्रामीण क्षेत्रों में पौधे का उपयोग जैव-गैस संयंत्रों में कच्चे पदार्थ के रूप में किया जा सकता है। जलकुम्भी मुलायम होने के कारण आसानी से विघटित होने वाली वनस्पति है। इसी गुण के कारण जलकुम्भी इथेनाल और बायो-गैस (मीथेन) उत्पादन के लिए वरदान साबित हो सकती है। जैव-गैस संयंत्र में जलकुम्भी के उपयोग से गोबर की बचत होगी जिसे खाद के रूप में खेतों में उपयोग किया जा सकता है। जलकुम्भी का उपयोग कागज, रस्सी, बैग, टोकरी और अन्य सजावटी सामन बनाने में भी किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, जलकुम्भी को पालतू पशुओं जैसे बकरी एवं अन्य मवेशियों हेतु पौष्टिक हरे चारे के रूप में भी खिलाया जा सकता है। भैंसों को जल कुम्भी काफी पसंद है । सूखे चारे के साथ 20 प्रतिशत जलकुम्भी मिलाकर पशुओं को खिलाई जा सकती है। एक विश्लेषण के अनुसार जलकुम्भी में 96% जल, 0.04% नाइट्रोजन,0.0.6 % फॉस्फोरस, 0.2% पोटैशियम, 3.5 % कार्बनिक तत्व और 1 % लौह तत्व के अलावा अनेक प्रकार के एमिनो अम्ल भी इसमें प्रचुर मात्रा में पाए जाते है । अतः पौधे को हरी खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। जलकुम्भी पौधे का उपयोग कम्पोस्ट बनाकर कमाई का जरिया बनाया जा सकता है । जलकुम्भी से तैयार कम्पोस्ट को गृह वाटिका में सब्जियों, फलों तथा सजावटी पौधों को उगाने में प्रयोग किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, जलकुम्भी कम्पोस्ट को नर्सरी में पौधो को तैयार करने हेतु भी प्रयुक्त किया जा सकता है। कम्पोस्ट को जमीन से निकाली गई पौध की जड़ों की नमीं को बनाये रखने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। जलकुम्भी का उपयोग पौध प्रसारण विधियों जैसे दाव कलम (लेयरिंग) तथा रोपण (ग्राफ्टिंग) में भी किया जा सकता है।
जलकुम्भी में जल के प्रदूषकों जैसे लीड, क्रोमियम, जिंक, मैगनीज, कॉपर आदि को अवशोषित करने की क्षमता होती है। अतः पौधे का उपयोग जल शोधन में भी किया जा सकता है। इन सब के अलावा दुनिया भर में लोग अपने भोजन में इसका उपयोग पूरक आहार के रूप में करते हैं। इसमें 90% पानी के अलावा कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा के अलावा विटामिन ए, विटामिन सी, रिबोफाल्विन, विटामिन बी 6, कैल्शियम की उचित मात्रा भी पायी जाती है। देश की पुरातन चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में जलकुम्भी का विशेष महत्व है । इसके पौधे से अस्थमा, कफ, एंजाइमा, थाइराइड, शरीर के अंदरूनी दर्द, त्वचा संबंधी बीमारियों के लिए दवाइयां बनाई जाती है। जलकुम्भी का तेल और इसके सूखे पाउडर से दवाइयां तैयार की जाती है। जलकुंभी की भस्म से मोटापा, बाल गिरना, याददाश्त कमजोर होना, रूखी त्वचा, पेट की समस्या व हाथ-पैरों में ऐंठन जैसी बीमारियों से भी राहत मिलने के प्रमाण है। यहां हम किसी भी रोग के निवारण हेतु जलकुम्भी सेवन की सिफारिस नहीं कर रहे है। सक्षम चिकत्सक के परामर्श के उपरान्त ही इसके सेवन की सलाह दी जाती है ।
इस प्रकार हम देखते है की भारत के सभी राज्यों के जल स्त्रोतों विशेषकर
जलाशयों एवं तालाबों में तेजी से पैर पसारती जलकुम्भी देश के बेरोजगारों और
नौजवानों के लिए आकर्षक रोजगार और आमदनी अर्जित करने का साधन बन सकती है। प्रकृति प्रदत्त जल कुम्भी की समस्या को अवसर में बदला जा सकता है। जल कुम्भी से एक नावोन्वेशी स्टार्ट-अप के रूप में खेती के लिए बहुमूल्य खाद,विविध सजावटी सामान, कागज,
बैग,टोकनी, धागे, दवाइयों के अलावा जैव-उर्जा का उत्पादन किया जा सकता है।