वैश्विक तपन : खतरे में जीवन
वैश्विक तपन अर्थात ग्लोबल वार्मिंग आज विश्व की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी है। इससे न केवल मनुष्य, बल्कि धरती के सभी जीव जंतु और पेड़ पौधे प्रभावित हो रहे है। ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए दुनियाभर में प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन समस्या कम होने के बजाय साल-दर-साल बढ़ती ही जा रही है। चूंकि यह एक शुरुआत भर है, इसलिए अगर हम अभी से नहीं संभलें तो भविष्य और भी भयावह हो सकता है। आगे बढ़ने से पहले हम यह जान लें कि आखिर ग्लोबल वार्मिंग है क्या।
क्या है ग्लोबल वार्मिंग?
ग्लोबल वार्मिंग अर्थात भूमंडलीय उष्मीकरण धरती के वातावरण के तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी है जिसके फलस्वरूप् जलवायु में परिवर्तन ह¨ रहा है । हमारी धरती प्राकृतिक तौर पर सूर्य की किरणों से उष्मा प्राप्त करती है। ये किरणें वायुमंडल से गुजरती हुईं धरती की सतह से टकराती हैं और फिर वहीं से परावर्तित होकर पुन: लौट जाती हैं। धरती का वायुमंडल कई गैसों से मिलकर बना है जिनमें कुछ ग्रीनहाउस गैसें भी शामिल हैं। इनमें से अधिकांश धरती के ऊपर एक प्रकार से एक प्राकृतिक आवरण बना लेती हैं। यह आवरण लौटती किरणों के एक हिस्से को रोक लेता है और इस प्रकार धरती के वातावरण को गर्म बनाए रखता है। गौरतलब है कि मनुष्यों, प्राणियों और पौधों के जीवित रहने के लिए कम से कम 16 डिग्री सेल्शियस तापमान आवश्यक होता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोतरी होने पर यह आवरण और भी सघन या मोटा होता जाता है। ऐसे में यह आवरण सूर्य की अधिक किरणों को रोकने लगता है और फिर यहीं से शुरू हो जाते हैं ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव।
क्या हैं ग्लोबल वार्मिंग की वजह ?
ग्लोबल वार्मिंग जैसे हालात पैदा होने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार मनुष्य और उसकी अप्राकृतिक गतिविधियां ही हैं। खुद को धरती का सबसे समझदार प्राणी समझने वाला मनुष्य लगातार हालात बिगाड़ने पर तुला हुआ है। मनुष्य की पर्यावरण विरोधी गतिविधियों के कारण कार्बन डाआक्साइड, मिथेन, नाइट्रोजन आक्साइड इत्यादि ग्रीनहाउस गैसों(ग्रीन हाउस गैस वो होती हैं जो पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश
तो कर जाती हैं लेकिन फिर वो यहाँ से वापस श्स्पेसश् में नहीं जातीं और यहाँ का तापमान
बढ़ाने में कारक बनती हैं) की मात्रा में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, जिससे इन गैसों का आवरण मोटा होता जा रहा है। यही आवरण सूर्य की परावर्तित किरणों को रोक रहा है जिससे धरती का तापमान बढ़ रहा है।
कहाँ से होता है ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन
पॉवर स्टेशन से - 21.3 प्रतिशत
इंडस्ट्री से - 16.8 प्रतिशत
यातायात और गाड़ियों से - 14 प्रतिशत
खेती-किसानी के उत्पादों से - 15.4 प्रतिशत
जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल से - 11.3 प्रतिशत
रहवासी क्षेत्रों से - 10.3 प्रतिशत
बॉयोमॉस जलने से - 10 प्रतिशत
कचरा जलाने से - 3.4 प्रतिशत
वाहनों व फैक्ट्रियों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं तथा तेजी से बढ़ते प्रदूषण के कारण कार्बन डायआक्साइड बढ़ रही है। जंगलों का बड़ी संख्या में हो रहा विनाश इसकी दूसरी वजह है। जंगल कार्बन डाय आक्साइड की मात्रा को प्राकृतिक रूप से नियंत्रित करते हैं, लेकिन इनकी बेतहाशा कटाई से यह प्राकृतिक नियंत्रक भी हमारे हाथ से छूटता जा रहा है। इसकी एक अन्य वजह सीएफसी है जो रेफ्रीजरेटर्स व अग्निशामक यंत्रों में इस्तेमाल की जाती है। यह धरती के ऊपर बने एक प्राकृतिक आवरण ओजोन परत को नष्ट करने का काम करती है। ओजोन परत सूर्य से निकलने वाली घातक पराबैंगनी किरणों को धरती पर आने से रोकती है। बताते हैं कि ओजोन परत में एक बड़ा छिद्र हो चुका है जिससे पराबैंगनी किरणें सीधे धरती पर पहुंचकर उसे लगातार गर्म बना रही हैं। यह बढ़ते तापमान का ही नतीजा है कि धरती के ध्रुव¨ं पर सदियों से जमी बर्फ भी पिघलने लगी है।
आज हर देश में बिजली की जरूरत बढ़ती जा रही है। बिजली के उत्पादन के लिए जीवाष्म ईंधन का इस्तेमाल बड़ी मात्रा में करना पड़ता है। जीवाष्म ईंधन के जलने पर कार्बन डायआक्साइड पैदा होती है जो ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव को बढ़ा देती है। इसका नतीजा भी ग्लोबल वार्मिंग के रूप में सामने आता है। पिछले दस सालों में धरती के औसत तापमान में 0.3 से 0.6 डिग्री सेल्शियस की बढ़ोतरी हुई है। आशंका यही जताई जा रही है कि आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिंग में और बढ़ोतरी ही होगी। ग्लोबल वार्मिंग से धरती का तापमान बढ़ेगा जिससे ग्लेशियरों पर जमा बर्फ पिघलने लगेगी। कई स्थानों पर तो यह शुरू भी हो चुकी है। ग्लेशियरों की बर्फ के पिघलने से समुद्रों में पानी की मात्रा बढ़ जाएगी जिससे साल-दर-साल उनकी सतह में भी बढ़ोतरी होगी। समुद्रों की सतह बढ़ने से प्राकृतिक तटों का कटाव शुरू होगा, जिससे धरती का एक बड़ा हिस्सा डूब जाएगा। और, हो भी यही रहा है।
गर्मी बढ़ने की वजह से मलेरिया, डेंगू जैसे कई संक्रामक रोग बढ़ रहे हैं, जिससे भारी जनहानि हो रही है। यही स्थिति रही तो वह समय भी आ सकता है जब हमें पीने को साफ पानी, ताजा भोजन और सांस लेने के लिए शुद्ध हवा भी नसीब न हो। माना जा रहा है कि गर्मी बढ़ने के साथ ही पशु-पक्षी और वनस्पतियां धीरे-धीरे पहाड़ी इलाकों की ओर प्रस्थान करेंगे। शहर में रहने वाले सभ्रांत नागरिक भी अब महसूस करते है की ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही आज कौए , नीलकंठ , मोर ,तोता ,मैना आदि कई पछियो की संख्या कम होती जा रही है। इसी तरह अनेको वनस्पतिया भी लुप्तप्रायः हो चुकी है।
इसमें कोई शक नहीं है कि गर्मी बढ़ने से ठंड भगाने के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाली ऊर्जा की खपत में कमी होगी, लेकिन इसकी पूर्ति एयर कंडिशनिंग में हो जाएगी। घरों को ठंडा करने के लिए भारी मात्रा में बिजली का इस्तेमाल करना होगा। बिजली का उपयोग बढ़ेगा तो उससे भी ग्लोबल वार्मिंग में इजाफा ही होगा।
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव
वैश्विक तपन का अर्थ है हमारे वातावरण में बदलाव होना, संतुलन बिगड़ना। औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, कृषि का आधुनिकीकरण , उपभोक्ता संस्कृति और प्रकृति का अनियंत्रित दोहन पर्यावरण को असंतुलित बना रहे हैं। एक आकलन के अनुसार वैश्विक ताप का सबसे बुरा प्रभाव जल आपूर्ति पर पड़ेगा। मानसून अर्थात वर्षा, कहीं ज्यादा, कहीं कम प्रभावी होगा जिससे पानी का संकट पैदा होगा। ग्लेशियरों से निकली नदियों, जैसे-गंगा, यमुना, ब्राहृपुत्र आदि खतरे में हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की स्टडी के मुताबिक अगर धरती के तापमान में एक डिग्री का इजाफा होता है तो अफ्रीका में 2030 तक सिविल वार होने का खतरा 55 फीसदी बढ़ जाएगा...सब सहारा इलाके में ही युद्ध भड़कने से तीन लाख नब्बे हजार लोगों को मौत के मुंह में जाना पड़ सकता है...जाहिर है ग्लोबल वार्मिंग ने खतरे की घंटी बजा दी है...बस जरूरत है हमें नींद से जागने की...और अपने आस पास पेड़ पौधा रोपने की , उनके फलने फूलने के लिए आवश्यक उपाय यथा खाद पानी देना तथा जानवरों की चराई से सुरक्षा करना।
पहले दो विश्व युद्ध इंसान की सनक अर्थात प्रक्रति के साथ बर्बरता परक व्यहार के चलते ही हुए थे...तीसरे विश्व युद्ध का भी इंसान ही जरिया होगा...और उसने विकास की दौड़ में प्रकृति को ही दांव पर लगाकर विनाश की ओर बढ़ना भी शुरू कर दिया है...जब इंसान का वजूद ही मिट जाएगा तो फिर किसके लिए ये सारा विकास... पिछले दस सालों में धरती के औसत तापमान में 0.3 से 0.6 डिग्री सेल्शियस की बढ़ोतरी हुई है। आशंका यही जताई जा रही है कि आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिंग में और बढ़ोतरी ही होगी। ग्लोबल वार्मिंग से धरती का तापमान बढ़ेगा जिससे ग्लैशियरों पर जमा बर्फ पिघलने लगेगी। कई स्थानों पर तो यह प्रक्रिया शुरू भी हो चुकी है। 64
हजार स्कवायर किलोमीटर में फैले हिमालय के ग्लेशियर अब तबाही की दस्तक दे रहे हैं।
हालात यह हैं कि हिमालय के 54 ग्लेशियर धीरे-धीरे पिघल रहे हैं। हिंद-कुश
इलाके में भी तबाही ने दस्तक दे दी है, इससे गंगा-ब्रह्मपुत्र जैसी कई नदियां सूख
सकती हैं।
सेंटर ऑफ इंटिग्रेटेड माउंटेन डवलपमेंट के
वैज्ञानिकों ने एक रिसर्च में पाया है कि हिमालय के ग्लेशियर तेज गति से पिघल रहे
हैं। डरबन में हो रहे क्लाइमेट चेंज समिति में पेश की गई रिपोर्ट में ये खुलासा हुआ
है। वैज्ञानिकों
की मानें तो हमारे खूबसूरत हिमालय का वजूद ही खतरे में है।ग्लैशियरों की बर्फ के पिघलने से समुद्रों में पानी की मात्रा बढ़ जाएगी जिससे साल-दर-साल उनकी सतह में भी बढ़ोतरी होती जाएगी। भारत सरकार के भू विज्ञान विभाग के आंकड़े बताते हैं कि भारत के सागरों का जल स्तर हर साल 1.5 मिलीमीटर बढ़ रहा है यानी पिछले 50 साल में ये 75 मिलीमीटर बढ़ चुका है। समुद्रों की सतह बढ़ने से प्राकृतिक तटों का कटाव शुरू हो जाएगा जिससे एक बड़ा हिस्सा डूब जाएगा। इस प्रकार तटीय ( कोस्टल) इलाकों में रहने वाले अधिकांश लोग बेघर हो जाएंगे।
जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर मनुष्य पर ही पड़ेगा और कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पडेगा। गर्मी बढ़ने से मलेरिया, डेंगू और यलो फीवर ( एक प्रकार की बीमारी है जिसका नाम ही यलो फीवर है) जैसे संक्रामक रोग ( एक से दूसरे को होने वाला रोग) बढ़ेंगे। वह समय भी जल्दी ही आ सकता है जब हममें से अधिकाशं को पीने के लिए स्वच्छ जल, खाने के लिए ताजा भोजन और श्वास लेने के लिए शुध्द हवा भी नसीब नहीं हो। ग्लोबल वार्मिंग का पशु-पक्षियों और वनस्पतियों पर भी गहरा असर पड़ेगा। माना जा रहा है कि गर्मी बढ़ने के साथ ही पशु-पक्षी और वनस्पतियां धीरे-धीरे उत्तरी और पहाड़ी इलाकों की ओर प्रस्थान करेंगे, लेकिन इस प्रक्रिया में कुछ अपना अस्तित्व ही खो देंगे। इसमें कोई शक नहीं है कि गर्मी बढ़ने से ठंड भगाने के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाली ऊर्जा की खपत में कमी होगी, लेकिन इसकी पूर्ति एयर कंडिशनिंग में हो जाएगी। घरों को ठंडा करने के लिए भारी मात्रा में बिजली का इस्तेमाल करना होगा। बिजली का उपयोग बढ़ेगा तो उससे भी ग्लोबल वार्मिंग में इजाफा ही होगा।
भारत की भी हालत तेजी से खराब होती जा रही है। ताजा आंकड़े बताते हैं कि हवा में नाइट्रोजन आक्साइड, सल्फर डाइआक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड जैसी जहरीली गैसें भारत के 80 फीसदी शहरों में खतरनाक स्तर तक बढ़ चुकी हैं, जिनका स्वास्थ्य पर सीधा असर पड़ता है। भारत के सबसे प्रदूषित शहरों में गोविंदगढ़, गाजियाबाद, खन्ना, लुधियाना, सतना, खुर्जा, आगरा, लखनऊ, फैजाबाद और कानपुर आते हैं। फैक्ट्रियों, कारों से निकलने वाला धुंआ हवा में ऐसी परत बना रहा है जो सूरज के ताप को धरती तक आने तो देती है पर वापस नहीं लौटने देती (जोकि एक सहज प्रक्रिया थी, जिससे गर्मी अपने आप संतुलित हो जाती थी)। ये धरती की ओजोन परत को नुकसान पहुंचा रही है। इस परत में जिस ष्ब्लैक होलष् की चर्चा सुनाई देती है, उसके जरिए सूरज की किरणें अपने अल्ट्रा वायोलट ताप के साथ सीधी पड़ने लगी हैं, जिसे पहले ओजोन परत बाहर ही रोक दिया करती थी। बढ़ती गर्मी ने गंगोत्री ग्लेशियर को धीरे-धीरे कम करना शुरू कर दिया है। इतना कि लोग व वैज्ञानिक गंगा के अस्तित्व पर ही संकट देख रहे हैं और सवाल पूछ रहे कि क्या 100 साल गंगा रहेगी? ताप बढ़ने के अलावा वहां जाने वाले सैलानियों ने ग्लेशियर के आस-पास टनों कचरा फेंका है। दरअसल, आजकल तीरथ करने श्रद्धालु कम जाते हैं, सैर करने वाले ज्यादा जाते हैं। इसलिए आस्था से उनका लेना-देना कम ही होता है और अपनी मौज मस्ती में गंदगी फैलाकर अपनी नासमझी का परिचय देना ज्यादा भाता है। विशेषज्ञों के अनुसार, इनसानी नासमझी और लापरवाही के कारण धरती का औसत तापमान इधर कुछ वर्षो में 0.6 डिग्री बढ़ गया है। नदियां सूखने का डर पैदा हुआ है और समुद्र का जल स्तर हर साल 1.5 मिलीमीटर बढ़ रहा है जिससे भारत में बंगाल के कुछ इलाके और अन्य समुद्र से नीचे स्तर के क्षेत्रों सहित बंगलादेश में भारी नुकसान के कयास लगाए जा रहे हैं।
भारत की 70 फीसदी आबादी का जीने का आधार भी खेत-खलिहान ही हैं...पिछले 10 साल में जहां समूची दुनिया से 7 फीसदी जंगल का सफाया हो गया वहीं भारत में दुनिया की औसत दर से ज्यादा यानि 9 फीसदी जंगल पूरी तरह साफ हो गया...इसी दौर में 11 फीसदी खेती योग्य जमीन विकास और ऊर्जा की भेंट चढ़ गई... जितने स्पेशल इकोनामी जोन (एसईजेड) बनाने की दरख्वास्त सरकार के पास लगी हुई और उन्हें सब को मंजूरी मिल गई तो खेती की साढ़े चार फीसदी जमीन और कम हो जाएगी...जाहिर है खेती का दायरा इसी तरह सिकुड़ता रहा तो अनाज और दूसरे कृषि उत्पादों की कीमतें आसमान छूने लगेंगी...और जैसे जैसे ये पहुंच से बाहर होती जाएंगी वैसे वैसे अराजकता की स्थिति बढ़ती जाएगी । जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान बढ़ने पर अनाजों और खासकर गेहूं के उत्पादन पर असर पड़ सकता है। रिपोर्ट कहती है कि तापमान में 1 डि.से. की बढ़ोतरी होने पर इसके उत्पादन में 60 लाख टन तक की कमी आ सकती है, लेकिन कार्बनडाईऑक्साइड के उत्सर्जन में कमी लाई जा सकी तो इस नुकसान को रोका जा सकता है।
ग्लोबल वार्मिंग से कैसे बचें?
आज विश्व मंच पर भी ग्लोबल वार्मिंग सबसे गर्म मुद्दा है...अमेरिका ने ऐलान कर दिया है कि वो 2005 के लेवल को आधार मान कर 2020 तक कार्बन गैसों के उत्सर्जन में 17 फीसदी की कमी कर देगा...चीन भी साफ कर चुका है कि 2020 तक स्वेच्छा से 40 से 50 फीसदी प्रति यूनिट जीडीपी के हिसाब से ग्रीन हाउस गैसों में कटौती करेगा...ग्लोबल वार्मिंग के प्रति दुनियाभर में चिंता बढ़ रही है। हमारे देश को भी कार्बन गैसों के उत्सर्जन में यथोचित कमी लाने का द्रण संकल्प लेना होगा तभी हम भावी पीढ़ी को सुखमय जीवन दे सकते है।
जागरूकता ही उपाय रू ग्लोबल वार्मिंग को रोकने
का कोई इलाज नहीं है। इसके बारे में सिर्फ जागरूकता फैलाकर ही इससे लड़ा जा सकता है।
हमें अपनी पृथ्वी को सही मायनों में श्ग्रीनश् बनाना होगा। अपने श्कार्बन फुटप्रिंट्सश्
(प्रति व्यक्ति कार्बन उर्त्सजन को मापने का पैमाना) को कम करना होगा। हम अपने आसपास
के वातावरण को प्रदूषण से जितना मुक्त रखेंगे इस पृथ्वी को बचाने में उतनी बड़ी भूमिका
निभाएँगे।
याद रखें कि बूँद-बूँद से ही घड़ा भरता है।
अगर हम ये सोचें कि एक अकेले हमारे सुधरने से क्या हो जाएगा तो इस बात को ध्यान रखें
कि हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा। सभी लोग अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करें तो ग्लोबल वार्मिंग
को भी परास्त किया जा सकता है। ये एक ऐसा राक्षस है जो जब तक सो रहा है, हम
सुरक्षित हैं लेकिन अगर यह जाग गया तो हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा।
कुछ दिनों पहले अमरीका के पर्यावरणविदों ने बयान दिया था कि वैश्विक ताप के लिए विकसित नहीं विकासशील देश दोषी हैं क्योंकि वे अंधाधुंध विकास के चक्कर में पर्यावरण से छेड़छाड़ कर रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि दुनिया के 10 प्रतिशत धनाढ्य देश धरती के 90 प्रतिशत संसाधनों का बेलगाम दोहन कर रहे हैं। पैसे के बल पर वे हर चीज को अपने वश में करना चाहते हैं। प्राकृतिक संसाधनों पर पहला हक जताते हैं। धरती का जलवायु संतुलन बिगाड़ने में सबसे बड़ी भूमिका किसी की है तो वह अमरीका, इग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस जैसे पश्चिमी देशों की, जिनकी संस्कृति है -दोहन करो- मौज करो। ऐसे माहौल में अगर कोई विचार पर्यावरण का संतुलन संभाल सकता है तो वह है भारत में प्राचीन काल से मान्यता है कि जितनी जरूरत बस उतना लेना। इतना ही नहीं, उतना लेकर कल फिर मिले, उसके लिए उतने को पैदा करने की चिंता करना। दोहन की बजाय समायोजन। प्रकृति तो हमारे यहां पूजी जाती है, उसका दोहन कैसे संभव है? पर हां, विदेशी नकल की होड़ में समाज का एक वर्ग इसे दकियानूसी सोच बताकर मनमानी कर रहा है, जिसका खामियाजा पूरे समाज को भुगतना पड़ रहा है। हमारी सरकार देश के कई राज्यों में स्पेशल इकनोमिक जोन बना रही है, यह एक अच्छा कदम हो सकता है लेकिन खेती किसानी योग्य जमीन को उद्यागों के हवाले कर देना समझदारी वाला कदम कतई नहीं हो सकता। में यहाँ कहना चाहूँगा की इस तरह के जोन बंजर गैर कृषि योग्य जमीनों पर ही बनाना चाहिए। इसके अलावा विशेष कृषि क्षेत्र बनाने की महती आवस्यकता है। इससे हमारे अन्नदाता किसानों को राहत मिलेगी और हमारी कृषि भी समोन्नत होगी। विशेष कृषि क्षेत्र बनाने से हमारा पर्यावरण भी सुरक्षित बना रहेगा और ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से हम सब को हमेशा के लिए निजात मिल जाएगी।
आइए प्रकृति के साथ चले और अपना भविष्य सुरक्षित बनाएँ।
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