इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के छठवें दीक्षांत समारोह छत्तीसगढ़ के माननीय राज्यपाल श्री शेखर दत्त जी का उद्बोधन
रायपुर, 20 जनवरी 2013
आज के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि एवं छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह जी, श्री चन्द्रशेखर साहू जी, मंत्री - कृषि, पशु विकास, मत्स्य एवं श्रम, छत्तीसगढ़ शासन, पद्मश्री डा. अनिल के. गुप्ता, कार्यपालन उपाध्यक्ष, नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन, डा. एस.के. पाटील, कुलपति, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर, विश्वविद्यालय के प्रबंध मंडल एवं विद्या परिषद के सदस्य, प्राध्यापक, वैज्ञानिक, राज्य शासन के अधिकारीगण, विद्यार्थियों, प्रेस एवं मीडिया के महानुभाव, देवियों एवं सज्जनों।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर, के 27वें स्थापना दिवस पर आयोजित छठवें दीक्षांत समारोह में शामिल होते हुए मुझे काफी प्रसन्नता हो रही है। मैं विश्वविद्यालय के पदक और उपाधि ग्रहण करने वाले सभी छात्र-छात्राओं को हार्दिक बधाई एवं उज्जवल भविष्य की शुभकामनाए देता हूँ ।
ज्ञान की जिज्ञासा, रचनात्मकता एवं नवोन्मेष जीवन को परिवर्तित करने की कुंजी हैं। ये सभी कारक अनुसंधान के रूप में व्यक्त होते हैं एवं ज्ञान की नई राह खोलते है , जो निश्चित ही देश के समग्र विकास के लिए महत्वपूर्ण है। शायद इसलिए अनुसंधान को विश्वविद्यालय के प्रमुख कार्य के रूप में चिन्हित किया गया है। भारत में कृषि, सूचना प्रौद्योगिकी, ऊर्जा, अंतरिक्ष आदि क्षेत्रों में हमारे बैद्धिक संसाधनों के निरंतर प्रयासों के कारण उल्लेखनीय उन्नति हुई है और हमारा देश भविष्य मे ‘वैश्विक ज्ञान केन्द्र’ बनने की ओर अग्रसर है। हमारी उच्च शिक्षा पद्धति विशेषकर हमारे विश्वविद्यालयों के कार्यों पर हमारी सफलता निर्भर करेगी। संसाधनों, उचित प्रोत्साहन एवं समर्पित भावना की कमी आदि ऐसे अवरोध हैं जो विश्वविद्यालय के अनुसंधान की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहे हैं। हमारे विश्वविद्यालयों में क्षमता निर्माण की कमी एवं अपर्याप्त प्रशिक्षण ने भी विद्यार्थियों की रचनात्मकता को प्रभावित किया है।
हमारे युवाओं की प्रतिभा में निखार ला कर समाज के हित में उसका उपयोग किया जा सकता है। हमारे देश के तीव्र गति से बढ़ते आर्थिक विकास के कारण नवसर्जक युवा सशक्त भारत के रोलमाडल के रूप में उभर रहे हैं और नये मानदण्ड स्थापित कर रहे हैं।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था ’’सभी अन्य चीजें रूक सकती है, लेकिन कृषि नहीं’’। भारत की खाद्य, पोषण, जीविकोपार्जन तथा आर्थिक सुरक्षा कृषि क्षेत्र की सफलता पर निर्भर करती है। सकल घरेलू उत्पादन (जी.डी.पी.) में कृषि एवं सहायक क्षेत्रों की भागीदारी पिछले 50 वर्षों में 61 प्रतिशत से घटकर 17.5 प्रतिशत तक गिर गई। भारत की विश्व में भागीदारी - मानव जनसंख्या में 16.8 प्रतिशत, पशु संख्या में 11 प्रतिशत, जल संसाधनों में 4.2 प्रतिशत तथा जमीन में 2.3 प्रतिशत है। प्रति व्यक्ति संसाधनों की उपलब्धता देखे तो यह विश्व के औसत से 4 से 6 गुणा कम है। इसी प्रकार सन् 1950 के मुकाबले फसल तीव्रता 26 प्रतिशत बढ़कर 137 प्रतिशत दर्ज हुई है। वर्षा आश्रित क्षेत्र कुल बोये गये क्षेत्र का 65 प्रतिशत है। इसी प्रकार भूजल एवं जमीन का बहुत बड़े पैमाने पर क्षरण हुआ है। वर्तमान में कुल वर्षा जल का मात्र 29 प्रतिशत ही संरक्षित हो पाता है, वह भी पूरी दक्षता से उपयोग नहीं हो पाता। वर्तमान विधियों को अपनाते हुये जल उपयोग दक्षता शायद ही 40 प्रतिशत से ऊपर गई होगी। इसी प्रकार पोषक तत्वों की उपयोग दक्षता 2 से 50 प्रतिशत के बीच है। उत्पादन व्यवस्था के विभिन्न आयामों एवं तत्वों के बीच एकीकरण एवं समन्वय करते हुये एकीकृत पोषक तत्व एवं कीट प्रबंधन व्यवस्था का उपयोग किया जाना समय की मांग है।
पिछले कई दशकों से उपयोग की जा रही एक फसल की व्यवस्था एवं रासायनिक ऊर्वरकों के अधिकाधिक उपयोग से मृदा की उत्पादन क्षमता में गिरावट आई है। गहन कृषि जिसमें अधिक उत्पादन देने वाली किस्मों एवं संकर बीजों का उपयोग किया जाता है, जिसमें मृदा से तेजी से पोषक तत्वों का हा्रस होता है। भारत इसका ताजा उदाहरण है, जहा खेती का स्थायित्व एक बहुत बड़ी चुनौती है। खेती की उत्पादन व्यवस्था में दीर्घकालिक स्थायित्व लाने के उपायों पर समग्र रूप में विचार करने की जरूरत है। जैविक एवं कार्बनिक उर्वरकों का निरंतर उपयोग न केवल संतुलित सूक्ष्म तत्वों की आपूर्ति करता हैं वरन् मृदा की जैविक एवं भौतिक-रासायनिक गुणों में अभिवृद्धि भी करता है। फसल व्यवस्था में स्थायित्व लाने के लिए जैविक एवं कार्बनिक खाद का उपयोग करने के साथ फसलचक्र में दलहनी फसलों को शामिल करते हुए प्रभावी फसल प्रबंधन व्यवस्था की जा सकती है। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करते हुए वैश्विक खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ऐसे परिवर्तन लाने होंगे कि हरितक्रांति के दौर से विश्व में हमेेशा हरितक्रांति होती रहे।
वर्ष 2011 के राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल तथा छत्तीसगढ़ खाद्य सुरक्षा विधेयक 2012 में जनसामान्य तक भोजन की पहुंच को वैधानिक अधिकार का दर्जा प्रदान किया गया है। जिससे भूख से मुक्त भारत का गांधी जी का सपना साकार हो सकेगा। हमारे देश में लोगों के स्वस्थ जीवन के लिए कार्बनिक सिद्धांतों पर आधारित खाद्य, उत्तम एवं सुरक्षित हैं जो हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को हानि भी नहीं पहुंचाते।
श्री पद्धति धान उत्पादन की क्रांतिकारी विधि है, जिसका उपयोग सर्वप्रथम 1980 में मेडागास्कर में हुआ। इस विधि में उर्वरक, जल एवं बीज की आवश्यकता को कम किया जा सकता है तथा धान उत्पादन को दोगुना किया जा सकता है। कोनोवीडर तथा अम्बिका पैडी वीडर आदि के उपयोग से स्वतंत्र गैस विनिमय, जड़ों को स्थापित करने एवं जड़ों का विकास करने आदि में मदद मिलती है। यह रासायनिक दवाओं का एक अच्छा विकल्प प्रस्तुत करता है। उच्च क्षेत्रों में सुखी बुआई के द्वारा एरोबिक धान सीधे कतारों में तथा शेष स्थानों में विकसित एरोबिक धान का रोपा लगाकर खरपतवार पर नियंत्रण पाया जा सकता है। निम्न भूमि के धान के किसान खेतों में क्रमशः सूखा एवं नमी का क्रम रखते हुये जल के उपयोग को बहुत कम कर सकते हैं। इस जल बचत धान उत्पादन टेक्नोलाॅजी से 47 से 56 प्रतिशत जल संसाधनों की बचत के साथ ही वातावरण में कम ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जित होती है। यह आंकलन किया गया है कि पानी से डूबे धान के खेत में 25 प्रतिशत तक मीथेन गैस उत्पन्न होती है।
उपरोक्त संदर्भ में कृषि विकास का एक ऐसा रोड मैप तैयार किया जाना चाहिए जिसमें बायोफार्मिंग का उपयोग करते हुये प्रति इकाई की लागत से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा प्राप्त हो सके। इसमें रसायनों का कम से कम उपयोग किया जाए तथा उनके स्थान पर बायो-पेस्टिसाईड एवं जैव उरर्वरकों आदि का उपयोग किया जाना चाहिए। कार्बनिक खाद्य पदार्थों की बढ़ती हुई मांग पूरे विश्व में है। उपभोक्ताओ में कार्बनिक उत्पादों की गुणवत्ता के प्रति जागरूकता, रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती कीमतें व आपूर्ति में कमी, किसानों को कार्बनिक खेती करने के लिए प्रेरित कर रही हैं। महिला किसानों के उपयोग-समूह एवं स्व-सहायता समूहों को बायोफार्म बनाने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। खेती एवं इससे संबंधित गतिविधियां बढ़ायी जा सकती हैं। पशुपालन, मुर्गी पालन, वरमी-कम्पोस्ट इकाई तथा बायो गैस प्लांट आदि को स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुरूप किसानों को आर्थिक गतिविधियां से जोड़ा जाना चाहिए। बायोफार्म स्थानीय उपलब्ध संसधानों का उपयोग करते हुये किसानों का सशक्तिकरण करते है। इसमें स्थानीय ज्ञान पद्धति एवं विशेष परामर्श को पुर्नजीवित करते हुए इसका उपयोग किया जा सकता है। इससे किसानों की धीरे धीरे बाहरी निर्भरता कम होती है और खाद्य सुरक्षा बढ़ती है।
कृषि के विश्व बाजार से जुड़ाव के कारण कृषि और किसानों को एक नई तरह की प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। जिसके परिणाम स्वरूप किसानों के लिए बाजार को समझना बेहद जरूरी हो गया है। हमारे किसानों को बाजार की मांग के अनुसार उत्पाद तैयार करना पड़ेगा तथा बाजार की संभावनाओं के अनुरूप नये अवसर तैयार करने होंगे।
सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति कृषि के लिये भी मील का पत्थर साबित हुई है। सुदूर गाँव के चैपाल पर भी अब इंटरनेट और कम्प्यूटर का उपयोग हो रहा है। इससे किसान कृषि के क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों, अनुसंधानों, शोध-निष्कर्षो, नई तकनीकों, आधुनिक यंत्रों, मौसम बदलाव और बाजार की स्थिति से परिचित हो रहे हैं। किसानों को कृषि तकनीकों से लाभांवित करने तथा उनके सशक्तिकरण के लिए विश्वविद्यालय के कृषि विज्ञान केन्द्र निरंतर कार्य कर रहे हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के 65 वर्षों में देश के खाद्य उत्पादन में लगभग 5 से 6 गुना वृद्धि हमारी विशिष्ट उपलब्धि है। इसका श्रेय हरित क्रांति, पीली क्रांति, श्वेत क्रांति, नीली क्रांति को है, जिससे देश मजबूत हुआ है तथा अंतर्राष्ट्रीय गौरव बढ़ा है।
कृषि उत्पादन में वृद्धि के बावजूद दलहन, तिलहन आदि के उत्पादन में भी हम मांग की तुलना में काफी पिछड़े हुये हैं। हमें खाद्य तेल का आयात करना पड़ रहा है। दलहन, तिलहन तथा उद्यानिकी के क्षेत्र में एक और क्रांति की आवश्यकता है। नये स्नातको को इन चुनौतियों का सामना करने के लिये आगे आना चाहिए।
वर्ष 1991 में खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति प्रति दिन उपलब्धता लगभग 510 ग्राम थी, यह घटकर सन् 2010 में 438 ग्राम हो गई, वर्तमान में यह 403 ग्राम रह गई है। इसी तरह दलहन के क्षेत्र में पहले जहाँ दालों की उपलब्धता 70 ग्राम थी। यह घटकर अब मात्र 22 ग्राम रह गई है। जिसके कारण आहार में प्रोटीन की कमी चिंता का कारण है।
कृषि कार्यों को पूर्ण करने के लिये कृषि मशीन उपकरण को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। बड़ी स्वचालित मशीनें जैसे धान रोपाई यंत्र, कम्बाईन हार्वेस्टर, सेल्फ प्रोपेल्ड रीपर, थे्रशर आदि किसानों को खेतों पर किराये पर उपलब्ध कराई जा सकती है। यह छोटे और सीमांत किसानों के लिये लाभदायक साबित होगा। एग्रो सर्विस सेन्टर तथा नये उद्यमी स्नातकों को इस दिशा में पहल करनी चाहिए। मांग पर आधारित कृषि मशीनीकरण की प्रक्रिया राज्य के कृषि विकास दर में पर्याप्त रूप से वृद्धि लाकर राज्य के एकफसली क्षेत्रों को दो फसली क्षेत्र में बदलने की क्षमता रखती है। जीरो टिल सीड कम फर्टीलाईजर ड्रिल धान में कटाई के बाद उपलब्ध नमी का उपयोग कर बिना जुताई के सीधे कतारों में बुवाई कर दूसरी रबी की फसल लेने में मदद् करती है। पहाड़ी क्षेत्रों, आदिवासी क्षेत्रों तथा लघु एवं सीमांत कृषकों के फायदे लिए विश्वविद्यालय ने विभिन्न प्रकार के 40 उन्नत यंत्र विकसित किये है। ये यंत्र या मशीनें राज्य के कृषि विभाग के सहयोग से, अनुदान पर, किसानों को विकासखंड स्तर तक पंहुचा कर दी जा रही है। इन यंत्रों में महिलाओं के लिये भी उपयोगी यंत्र है। अभी तक 5.24 करोड की लागत के 1 लाख 11 हजार कृषि यंत्र या मशीनों को किसानों तक पहुंचाया गया है। जिसमें 68 लाख रूपये का शुद्ध मुनाफा हुआ। लोकप्रिय यंत्रों में अम्बिका पैडी वीडर, हाथ खुरपी, मैज शेलर, बियासी हल एवं भोरमदेव सीड ड्रिल है।
वृष्टिछाया क्षेत्रों में स्थाई विकास के लिए वाटरशेड पर आधारित विकास की रणनीति बेहतर हो सकती है। जिसमें ज्ञान आधारित नवोन्मेष के बेहतर परिणामों द्वारा किसानों को सीधा फायदा पहुंचाया जा सकता है।
केन्द्रीय जल आयोग की योजना के अंतर्गत किसानों के लिए 176 हेक्टेयर में 6 उन्नत तकनीकांे का प्रदर्शन किया गया। इन तकनीकों में श्री विधि से धान उत्पादन, जीरो टिल सीड ड्रिल से रबी फसल उत्पादन, ड्रिप एवं स्प्रिंकलर से सिंचाई कर उद्यानिकी फसल उत्पादन लिया गया। इसके साथ ही 22 किसानों के यहां डबरी सह-उथला कुआ बनाकर धान को पूरक सिंचाई दी गई एवं रबी फसलें ली गई। इससे धान उत्पादन में 22 से 43 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसके साथ ही इन डबरी में मछली एवं बतख पालन कर किसानों की आय को बढ़ाया गया। इसी तरह एन.ए.आई.पी. (नेशनल एग्रीकल्चर इनोवेशन प्रोजेक्ट) योजना के अंतर्गत आदिवासी किसानों के जीविकोपार्जन को समुन्नत करने हेतु बड़े माॅडल तैयार किये गये हंै। उपयुक्त सरंचनाओं जैसे डबरी, कुए स्टाप डेम, चेक डेम, डायवर्सन आदि रेनवाटर हार्वेस्टिंग सरंचनाऐं 184 माइनर पर बनाकर 390 हे. क्षेत्र तथा 658 किसानों को लाभान्वित किया गया। इनसे सूखे से बचाव के साथ उपज में 8 से 12 क्विंटल या हेक्टेयर वृद्धि हुई। भूजल दोहन के लिए बाड़ी में बने रिंग वेल का उपयोग सिंचाई व निस्तार हेतु किया गया। सभी क्लस्टर में कुल 63 कुओं से 82 किसानों के 93 हेक्टेयर में सिंचाई की गई।
हमारे देश में 52 प्रतिशत आबादी कृषि पर आश्रित है, परन्तु देश के जी.डी.पी. में कृषि का योगदान लगातार घटता जा रहा है। हमारे देश में लघु एवं सीमांत किसानों का बाहुल्य है, जिनका पीढ़ी दर पीढ़ी घटता रकबा चिंता एवं सोच का विषय है। यह जरूरी है कि खेती-किसानी को और अधिक स्थाई व लाभकारी बनाया जाए तथा खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता लायी जा सके। इसके लिए स्रोतों के बेहतर एवं कुशल प्रबंधन के लिए हमारे युवा नेतृत्व को आगे आना होगा। इसके साथ ही सहकारी खेती तथा सहकारी संस्थाओं को भी प्रोत्साहन देने की जरूरत है।
पिछले वर्षों में हमारे देश और प्रदेश में सिंचाई के साधनों में काफी वृद्धि हुई है परन्तु बुनियादी रूप से अधिकांष खेती आज भी वर्षा पर ही आश्रित है। अति वर्षा के कारण बाढ़ और कम वर्षा के कारण सूखे की स्थिति का सामना करने के लिये स्थाई खेती को मजबूत बनाने के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग, ड्रेनेज सिस्टम विकसित किया जाना चाहिए। इन कार्यों को महात्मा गाँधी नरेगा योजना के साथ जोड़ा जा सकता है।
बारहवीं पंचवर्षीय योजना में भी कुशल मानव संसाधन विकास का प्रावधान है। मेरा यह सुझाव है कि कृषि वैज्ञानिक राज्य के विकासखंड स्तर की परिस्थितियों और जलवायु के अनुरूप शोध और अनुसंधान पर जोर दें।
यह हमारे लिये गर्व की बात है कि छत्तीसगढ़ में लगभग 23070 (तेईस हजार सत्तर) धान के जर्मप्लाज्म है । धान के अतिरिक्त कोदों, कुटकी, रागी, रामतिल, तिवड़ा, अलसी, सोयाबीन, अरहर, मक्का व गेहूं आदि फसलों की भी खेती यहां की जाती है। विश्वविद्यालय कृषि के विकास और कृषि तकनीकों को किसानों के खेतों तक पहुंचाने के लिए जागरूक है। मुझे इस बात की खुशी है कि विश्वविद्यालय ने लगभग सभी फसलों की उन्नत किस्मों का विकास करने तथा उन्नत कृषि और कृषि तकनीकी को प्रोत्साहन दिया है।
इसी तरह विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने फसल प्रणाली, समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन, कीट एवं रोग नियंत्रण, सघन धान उत्पादन, जैविक खेती, खरपतवार नियंत्रण, खाद्य प्रसंस्करण, कृषि यंत्रीकरण, जल प्रबंधन, मृदा संरक्षण, सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली, उद्यानिकी, वानिकी और जैव प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य किया है।
छत्तीसगढ़ के कुल भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 34 प्रतिशत भाग (लगभग 47 लाख हेक्टेयर) में खेती होती हैं। वहीं राज्य के लगभग 46 प्रतिशत भाग (लगभग 63.4 लाख हेक्टेयर) वनों से आच्छादित हैं। प्रकृति से छत्तीसगढ़ को खनिज स्रोतों एवं प्राकृतिक सम्पदा का उपहार मिला है। हमें ज्ञान-विज्ञान और कौशल के द्वारा सामूहिक प्रयास कर अपने प्रदेश को अग्रणी और विकसित राज्य बनाना है।
छत्तीसगढ़ में केवल धान की ही फसल नहीं होती बल्कि उत्तर के पहाड़ी तथा दक्षिण के पठारी आदिवासी क्षेत्रों में अन्य फसलें भी उगाई जाती हैं। छत्तीसगढ़ में उद्यानिकी फसलों के साथ-साथ पशुपालन एवं मत्स्य पालन को भी समन्वित रूप से बढ़ावा दिया जाना जरूरी है। हमारे राज्य में जमीन और पानी की कमी नहीं है, लेकिन एक फसलीय खेती के बदले दो और तीन फसलीय खेती को बढ़ावा देकर किसान को साल भर काम मिले ऐसा प्रयास करने की जरूरत है। छत्तीसगढ़ के तीव्र विकास के लिए यह जरूरी हैं कि हम कृषि के उत्पादन में कम से कम राष्ट्रीय औसत के बराबर पहुंचें। छत्तीसगढ़ में मवेशियों को अच्छा चारा तथा नस्ल सुधार कर दूध का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। हमें अच्छे बीजों पर भी विशेष रूप से जोर देने की जरूरत है। राज्य में राष्ट्रीय बागवानी मिशन संचालित है। यहां आम, अमरूद, पपीता, अनार, सीताफल और नींबू आदि के उत्पादन की भी अच्छी संभावनाए हैं। हमारा राज्य संभावनाओं से भरा है और इसे मूर्त रूप प्रदान करने में आप सभी की महत्वपूर्ण भूमिका है।
आज के युग में कृषि उत्पादों की संग्रहण सुविधाओं और प्रसंस्करण कार्यों ने फसलों के मूल्य संवर्धन (वेल्यू एडीशन) का महत्वपूर्ण कार्य किया है। इससे खाद्य पदार्थों की उपलब्धता बढ़ी हैं, रोजगार के लिए नये अवसर बढ़े हैं और फसलों के व्यापक उत्पादन को बढ़ावा मिला है।
मैं इस बात को दोहराना चाहता हूं कि इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय का यह विशेष उत्तरदायित्व है कि वह अपने छात्र-छात्राओं एवं शोधकर्ताओं में इस तरह की योग्यता व क्षमता का विकास करे जिससे वे प्रदेश और देश के समग्र विकास करने तथा किसानों को सम्पन्न बनाने में अपना सम्पूर्ण और सक्रिय योगदान दें। मुझे यह जानकर भी खुशी हुई है कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के मापदंडों एवं दिशा-निर्देशों के अनुरूप कृषि स्नातक एवं स्नाकोत्तर शिक्षा पाठ्यक्रम की समीक्षा की गई है। शिक्षकों और विद्यार्थियों को कृषि के नवीन क्षेत्रों जिनमें कृषि अनुसंधान प्रणाली, जैविक खेती, जैव प्रौद्योगिकी, प्रिसीजन फार्मिंग, वाटर हार्वेस्टिंग, बारानी खेती आदि क्षेत्रों में प्रशिक्षित किया जा रहा है।
हमारे किसान इस विश्वविद्यालय को एक ऐसे ज्ञान और आशा के केन्द्र के रूप में देखते हैं, जो उनकी चुनौतियों एवं समस्याओं का सामना करने में काफी मद्दगार साबित हो सकता है। किसानों की समस्याओं को आत्मीय रूप से समझना तथा उन्हें दूर करने के लिए विस्तार कार्य करना बेहद जरूरी है। किसान को केवल सही राह दिखाने की जरूरत है। इसके बाद वह अच्छे सुझावों और उपायों को स्वयं अपना लेते हैं। इसी तरह किसानों के परम्परागत ज्ञान को भी समझना होगा और उनका व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार करना जरूरी है।
किसानों की इस आशा और विश्वास को पूरा करने के लिए विश्वविद्यालय के सभी वैज्ञानिकों, शिक्षकों तथा छात्र-छात्राओं को कठिन परिश्रम करना होगा। इसके लिए यह भी जरूरी है कि विश्वविद्यालय, राज्य शासन के कृषि सहित इससे जुड़े विभिन्न विभागों, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के संस्थानों और अंतर्राष्ट्रीय कृषि संस्थानों के साथ अधिक से अधिक सहयोग तथा समन्वय के साथ उपलब्ध संसाधनों का बेहतर उपयोग करते हुए कार्य करे। मैं आशा करता हूँ विश्वविद्यालय के ज्ञान के निरंतर प्रवाह से किसान लगातार लाभान्वित होते रहेंगे।
अंत में, मैं यह कहना चाहता हूँ कि किसानों की प्रगति से ही हम सबका भविष्य जुड़ा हुआ है। कृषि एवं कृषिगत व्यवसायों से जुड़े कृषक भाईयों एवं बहनों के सुख-दुख को हम महसूस कर सकते हैं। निश्चित ही किसानों के कल्याण एवं उत्थान से ही हम सभी की समृद्धि जुड़ी हुई है।
अंत में एक बार फिर से मैं छात्र-छात्राओं के उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ एवं आशा करता हूँ कि इसके बाद आपके जीवन को नई दिशा मिलेगी और नये अवसर प्राप्त होंगे। विश्वविद्यालय ने आपको एक अच्छी आधारशिला दी है और आप सफलता प्राप्त कर प्रदेश एवं देश के विकास में अपना अमूल्य योगदान दें।
धन्यवाद.जय हिन्द।
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