डॉ.गजेन्द्र
सिंह तोमर
प्राध्यापक
(शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी
कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
खाद्यान्न
फसलों में कोदों (पेस्पैलम स्कोर्बिकुलेटम) भारत का एक प्राचीन अन्न है जिसे ऋषि अन्न
का दर्जा प्राप्त है । ऐसा माना जाता है की जब महर्षि विश्वामित्र जब स्रष्टि की रचना कर रहे थे तो सबसे पहले उन्होंने
कोदों अन्न की उत्पत्ति की थी. यह एक जल्दी पकने वाली सबसे अधिक सूखा अवरोधी आदिवासी
प्रिय फसल है. यह गरीबों की फसल मानी जाती है क्योकि इसकी खेती अनउपजाऊ भूमियों
में बगैर खाद-पानी के की जाती है। इसके दानो का इस्तेमाल चावल की तरह उबालकर खाने में किया जाता है। इसके दाने में 8.3 प्रतिशत प्रोटीन, 1.4 प्रतिशत वसा, 65.9 कार्बोहाइड्रेट तथा 2.9 प्रतिशत राख पाई जाती है।
मधुमेह के रोगियों के लिए चावल व गेहूँ के
स्थान पर कोदों अन्न विशेष लाभकारी पाया गया है।
भारत में कोदो पैदा करने वाले राज्य महाराष्ट्र, उत्तरी कर्नाटक, तमिलनाडु के कुछ भाग,
मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ पश्चिम बंगाल के कुछ भाग, बिहार, गुजरात एंव उत्तर प्रदेश है। कोदो की खेती अधिकतर असिंचित क्षेत्रों में,
खरीफ के मौसम में की जाती है। इसके बाद रबी के मौसम में कम पानी
चाहने वाली फसलें जैसे, जौ मसूर, सरसों
चना, अलसी आदि ली जा सकती है। सिंचाई की सुविधा होने पर
गेहूँ की फसल भी ली जा सकती है। कोदों को धान, ज्वार, मक्का, अरहर ऊपरी खेतों में सावाँ, रागी के साथ मिलाकर भी बोया जा सकता है। हल्की भूमियों में तिल के साथ और
भारी भूमियों में अरहर, ज्वार आदि के साथ कोदो को उगाया जा
सकता है।
उपयुक्त जलवायु
उष्ण एंव
समशीतोष्ण जलवायु वाले देशों में कोदों की खेती होती है। भारत में इसकी खेती खरीफ
के मौसम में की जाती है। इस फसल के लिए 40-50 सेमी. वार्षिक
वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त रहते है। इसमें सूखा सहने की अच्छी क्षमता होती हैं।
भूमि का चुनाव एवं खेत की तैयारी
कोदों की खेती
के लिए दोमट तथा हल्की दोमट भूमियाँ उपयक्त रहती हैं।कंकरीली -पथरीली भूमियों में
भी कोदो की खेती की जाती है। अच्छी उपज के लिए उचित जल निकास वाली ऊँची भूमि
सर्वोत्तम रहती है। खेत को एक बार मिट्टि पलटने वाले हल से तथा 2-3 बार देशी हल या कल्टीवेटर से जोत कर तैयार कर लेना चाहिए। जुताई के बाद
पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए।
उन्नत किस्मों का चयन
कोदों की उन्नत किस्मों की औसत उत्पादन क्षमता 17-22 क्विंटल/हेक्टेयर
के मध्य है। जबकि स्थानीय किस्मों की उत्पादकता 10 क्विंटल/हेक्टेयर
से भी कम होती है। अतः उपज के लिए अग्र लिखित उन्नत किस्मों के बीज का उपयोग करना आवश्यक होता
है।
जवाहर कोदों: बीज भूरे रंग का तथा पकने की
अवधि ल्रभग 110-120 दिन है। इस जाति की पैदावार लगभग 20 क्विंटल/हेक्टेयर होती है।
जवाहर कोदो-2: इसके
बीच का रंग भूरा होता है। यह किस्म 110-115 दिनों में पककर
तैयार होती है। इसकी औसत उपज 13 क्विंटल प्रति हे. है।
जवाहर कोदो-41: इसके
दाने का रंग हल्का भूरा होता है। यह 105 से 108 दिन में पककर तैयार होती है तथा औसत पैदावार 20 क्विंटल/हेक्टेयर
है।
जवाहर कोदों-62: यह
किस्म 95 से 100 दिन में पककर तैयार होकर औसतन उपज 22 क्विंटल/हेक्टेयर उपज देती है। यह किस्म
सामान्य वर्षा वाले क्षेत्र तथा कम उपज वाली भूमि
के लिए उपयुक्त है।
जवाहर कोदों-101: इसके पौधों की ऊँचाई 60 सेमी. होती है। यह जाति 100 दिन में पककर तैयार
होती हैै। दाना भूरा और बड़ा होता हैै। इसकी औसत पैदावार 20 क्विंटल/हेक्टेयर होती है।
जवाहर कोदों-46: दानों
का रंग हल्का कत्थई होता है। पकने की अवधि 100-105 दिन है।
इसकी औसत पैदावार 15-17 क्विंटल/हेक्टेयर है।
जवाहर कोदों-364: इसके
बीज गाढे भूरे या चाकलेट रंग के होते हैं। इसकी पैदावार 15-17 क्विंटल/हेक्टेयर है।
जे. के.-76: यह मात्र 85 दिन में पकने वाली किस्म है। इसकी उपज 8-10 क्विंटल/हेक्टेयर
होती है।
उपरोक्त किस्मे मध्य
प्रदेश में खेती के लिए उपयुक्त पाई गई है।
जीपीयूके-3: कोदो की
यह किस्म 100 दिन में तैयार होती है जो कि 20-22 क्विंटल/हेक्टेयर उत्पादन देने में सक्षम है।
आईसीसीके-737: यह
किस्म 95-10 दिन में तैयार होती है तथा औसतन 20-25 क्विंटल/हेक्टेयर उपज क्षमता है।
कोदों की उपरोक्त दोनों किस्में छत्तीसगढ़ की हल्की पथरीली भूमियों के लिए उपर्युक्त है।
बोआई का समय
कोदों प्रमुख रूप से खरीफ ऋतु की फसल है। जून के अंतिम सप्ताह से लेकर मध्य जुलाई तक,
जब खेत में पर्याप्त नमी हो, कोदों की बोआई कर
देनी चाहिए। अगेती बोनी करने से रबी की फसल के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है।
बीज एंव बोआई
कोदों की फसल में बीज जनित एंव मृदा जनित रोगों का प्रकोप होता है। फसल की रोगों से सुरक्षा क लिए
मोनोसान 5 ग्राम या सेरेसान 2 ग्राम,
प्रति किग्रा. बीज के हिसाब से उपचारित कर बीज बोना चाहिए। कोदो की
बोआई छिटककर या बिखेरकर की जाती है। विधि से अंकुरण एक-सा नहीं होता हैं तथा उपज
कम मिलती है। अधिकतम उपज के लिए बोनी कतार में ही करना चाहिए। कतार बोनी में 8-10 किग्रा. और छिडकवाँ विधि में 10-12 किग्रा. प्रति
हे. बीज लगता है। बीज को 40-45 सेमी. की दूरी पर बनी
पंक्तियों मंे हल के पीछे कूड़ में या फिर सीड ड्रिल द्वारा बोना चाहिए। बीज से बीज
की दूरी 8-10 सेमी. रखी जाती है जो कि बोआई के 15-20 दिन बाद पौध विरलीकरण करके प्राप्त की जा सकती है। बीज बोने की गहराई
लगभग 3 सेमी. रखना चाहिए। कोदो का बीज छोटा, गोल एंव चिकना होता है, अतः बीज को 20 भाग रेत या गोबर की सूखी एंव भुरभुरी खाद के साथ मिलाकर बोआई करना चाहिए।
अन्तर्वर्तीय या मिश्रित फसल लेने पर कोदो की बीज दर, कतारों
के अनुपात पर निर्भर करती है जो कि शुद्ध फसल से कम होती है।
खाद एंव उर्वरक
आमतौर पर किसानकोदों में खाद एंव उर्वरकों का प्रयोग कम करते हैं, जिससे
उत्पादन भी कम प्राप्त होता है। कोदो की अच्छी फसल लेने के लिए 40 किग्रा. नत्रजन , 20 किग्रा. फाॅस्फोरस व 20 किग्रा. पोटाॅश प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है। इन उर्वरकों को बोआई
से पहले खेत में छिड़ककर मिला देना चाहिए। यदि गोबर की खाद या कम्पोस्ट उपलब्ध हो,
तो 5-7 टन प्रतिहे. अंतिम जुताई के समय खेत
में मिला देना चाहिए। जैविक खाद देने पर उर्वरकों की मात्रा आधी कर देनी चाहिए।
सिंचाई एंव जल निकास
कोदों वर्षा ऋतु
की फसल है, अतः इसे अलग से सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है।
अवर्षा की स्थिति में 1-2 सिंचाई देने से उपज में बढ़ोत्तरी
होती है। इस फसल की खेती के लिए खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था कर लेनी
चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण
कोदों को भी
अन्य फसलों की भाँति खरपतवारों से हानि होती है। बोआई के 20-25 दिन पश्चात् पहली और 45-50 दिन बाद दूसरी निंदाई
करनी चाहिए। खरपतवारों के रासायनिक नियंत्रण हेतु एट्राजीन (50 प्रतिशत घुलनशील पाउडर) 2 किग्रा. /हे. को 800 लीटर पानी में घोलकर अंकुरण पूर्व छिड़कना चाहिए।
कटाई - मड़ाई
कोदों की फसल 90-110 दिन (सितम्बर-नवम्बर) तक पककर तैयार हो जाती है। उचित समय पर कोदो की
कटाई करना आवश्यक रहता है। अधपके अवस्था में इस फसल की कटाई करने पर कोदो के बीजों
में विषैले पदार्थ की मात्रा अधिक रह जाती है। कटाई योग्य कोदो की फसल की पत्तियाँ
सूखकर भूरी हो जाती हैं एंव दाना काला व कठोर हो जाता है। इस अवस्था में कोदो के
दानों में 15-17 प्रतिशत नमी होती जो कि भण्डारण हेतु
उपयुक्त नहीं मानी जाती है। अतः पूर्ण रूप से पकी हुई फसल की बालियाँ काट लेते हैं
अथवा सम्पूर्ण पौधों की कटाई करके एक सप्ताह तक धूप में सुखाना चाहिए। इसके पश्चात्
हाथ से पीटकर या बैलों की दांय चलाकर मड़ाई
की जाती है। तत्पश्चात् ओसाई कर दाना भूषा अलग किया जाता है।
उपज एंव भण्डारण
कोदों की अच्छी
फसल से 10-20 क्विं. प्रति हे. पुआल या भूसा प्राप्त होता
है। दानों को अच्छी तरह सुखाकर नमी का अंश 10-12 प्रतिशत
होने पर नमी रहित स्थान पर अच्छी तरह भंडारित करना चाहिए।
सावधानी से करें कोदों अन्न का इस्तेमाल: कोदों के दाने तथा पुआल कुछ विशेष
दशाओं में विषैलापन उत्पन्न करते है। जिससे दाने भोजन के योग नही रहा जाते हैं।
अतः ध्यान रखें कि दाने खूब पके हुए हों और कम से कम 6 माह पुराने गोदाम में रखे हुए हों, तभी खाने हेतु प्रयोग करना चाहिए। अधिक नमी की अवस्था में केादो भंडारण से
विष उत्पन्न होता है। यदि वर्षा या बदली के समय इसकी कटाई की गई हो अथवा भण्डारण
के समय दानों में अधिक नमी होने पर इनमें
विषैलापन उत्पन्न हो जाता है। यदि कोदो के भंडारण में किसी प्रकार नमी का प्रवेश हो जाता है तब इसमें सड़न की क्रियायें आरंभ हो जाती हैं। परिणामस्वरूप टोमेन नामक विष उत्पन्न हो जाता है। ऐसी दशा में भंडार गृह में प्रवेश करने या ऐसे विषैले अन्न का भोजन करने से मानव स्वास्थ को भारी क्षति अथवा मृत्यु तक हो सकती है।
कोदों का चारा मवेशिओं के लिए
हानिकारक : इसका पुआल घटिया किस्म का होता है। अतः इसे पशु चाव से नहीं खाते हैं।
घोड़ों के लिए इसका भूसा विषयुक्त होता है। इसलिए घोड़ो को इसका चारा-भूसा नहीं दिया जाना चाहिए ।
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।
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1 टिप्पणी:
बहुत अच्छी जानकारी के लिए धन्यवाद. के साथ जानकारी चाहिए कि ओक्टबर मे कौन कौन सी फसल ले सकते हैं और उनका बीज कहा से मिलेगा, जमीन मुरमभर्रि वाली है किंतु तालाब और बोर् के द्वारा पानी का साधन है.🙏🙏
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