प्रकृति का अनुपम उपहार: स्वास्थ के लिए उपयोगी खरपतवार
डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी),
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय
एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
वैदिक
काल से ही भारत में औषधीय महत्त्व के पौधों, लताओं
और वृक्षों को पहचान कर उनका इस्तेमाल विभिन्न रोगों के उपचार में किया जा रहा है।
महर्षि चरक की 'चरक सहिंता' में
पेड़-पौधों के औषधीय महत्त्व की गहन विवेचना की गई है। इसमें प्रत्येक पेड़-पौधे की
जड़ से लेकर पुष्प, पत्ते एवं अन्य भागों के औषधीय गुणों और
रोग उपचार की विधियाँ वर्णित है। आयुर्वेद के देवता धन्वंतरि ने जड़ी-बूटियों के
अलौकिक संसार से जगत का साक्षात्कार कराया है। इन वनस्पतियों के चमत्कारिक प्रभाव
को वैज्ञानिक धरातल पर भी जांचा-परखा जा चूका है। एलोपैथिक
दवाओं के दुष्प्रभाओं से घबराकर विश्व के जनमानस का झुकाव अब वैकल्पिक जड़ी-बूटी की
परम्परागत दवाओं (आयुर्वेद) की तरफ बढ़ने लगा है। आयुर्वेदिक दवाओं और हर्बल
उत्पादों की बाजार में बढती मांग को देखते हुए तमाम राष्ट्रिय और बहुराष्ट्रीय
कंपनियों ने जड़ी-बूटी, औषधीय पौधों,
लताओं तथा वृक्षों से निर्मित दवाओं, केश निखार के शैम्पू,
केश तेल, साबुन, त्वचा
को चमकाने के लोशन, चेहरे के आभा लाने वाली क्रीम, पाउडर, टूथ पेस्ट, काजल,
बाल रंगने वाले आदि उत्पादों को बाजार में पेश किया है।
इसलिए भारत से औषधीय महत्व के पौधों का निर्यात भी जोर पकड़ रहा है।
हमारे आस-पास, खेत और खलिहानों में बहुत से
औषधीय महत्त्व के पेड़-पौधे जड़ी-बूटियाँ अपने आप स्वतः उगती है, जिन्हें हम खरपतवार समझ कर उखाड़ फेंकते है अथवा उन्हें शाकनाशी दवाइयों से नष्ट कर देते है।
जनसँख्या दबाव,सघन खेती, वनों के अंधाधुंध कटान, जलवायु परिवर्तन और रसायनों
के अंधाधुंध प्रयोग से आज बहुत सी उपयोगी वनस्पतीयां विलुप्त होने की कगार पर है।
आज आवश्यकता है की हम औषधीय उपयोग की जैव सम्पदा का सरंक्षण और
प्रवर्धन करने किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागृति पैदा करें ताकि हम अपनी
परम्परागत घरेलू चिकित्सा (आयुर्वेदिक) पद्धति में प्रयोग की जाने वाली वनस्पतियों
को विलुप्त होने से बचा सकें. यहाँ हम कुछ उपयोगी खरपतवारों के नाम और उनके प्रयोग
से संभावित रोग निवारण की संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत कर रहे है ताकि उन्हें पहचान
कर सरंक्षित किया जा सके और उनका स्वास्थ्य लाभ हेतु उपयोग किया जा सकें।
आप के खेत, बाड़ी, सड़क
किनारे अथवा बंजर भूमियों में प्राकृतिक रूप से उगने वाली इन वनस्पतियों के शाक,
बीज और जड़ों को एकत्रित कर आयुर्वेदिक/देशी दवा विक्रेताओं को बेच
कर आप मुनाफा अर्जित कर सकते है। फसलों के साथ उगी इन
वनस्पतियों/खरपतवारों का जैविक अथवा सस्य विधियों के माध्यम से नियंत्रण किया जाना
चाहिए।
इन वनस्पतियों के महत्त्व को दर्शाने बावत हमने इनके कुछ औषधीय
उपयोग बताये है परन्तु चिकत्सकीय परामर्श/आयुर्वेदिक
चिकित्सक की सलाह के उपरांत ही किसी भी रोग निवारण के लिए इनका प्रयोग करें। भारत के विभिन्न प्रदेशोंकी मृदा एवं जलवायुविक परिस्थितियों
में उगने वाले कुछ खरपतवार/वनस्पतियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है।
1.एलिफैन्टोपस
स्केबर (जंगली गोभी), कुल- एस्टरेसी
एलिफेंट फूट की जड़, पत्ती एवं फूल
में औषधीय गुण होते है। पत्ती एवं जड़ का
काढ़ा बार-बार बुखार आने, डायरिया एवं अस्थमा में गुणकारी है. जड़ का काढ़ा ह्रदय रोग
एवं बवासीर में लाभकारी है। इसके पुष्पों
का प्रयोग यकृत रोग, नेत्र रोग, अस्थमा,कफ एवं सूजन के उपचार में किया जाता है।
सर्प दंश में जड़ का प्रलेप लगाने से फायदा होता है। पत्तियों का अर्क सिर में
लगाने से बाल झड़ना बंद होता है।
2.यूफॉर्बिया
थाइमीफोलिया (छोटी दुधी), कुल- यूफोर्बियेसी
छोटी दूधी फोटो साभार गूगल |
3.यूफोर्बिया
हिर्टा (बड़ी दुधी), कुल- यूफोर्बियेसी
बड़ी दूधी फोटो साभार गूगल |
4.यूफोर्बिया नेर्रीफ़ोलिया (थूहड़), कुल- यूफोर्बियेसी
थूहड़ फोटो साभार गूगल |
5.इवोल्वुलस अल्सिनोइड्स (शंखपुष्पी), कुल-कनवाल्वुलेसी
शंखपुष्पी फोटो साभार गूगल |
6.गाइनेन्ड्रापसिस पेण्टाफिला (सफ़ेद हुल-हुल), कुल- कैपारेसी
इस पौधे को अंग्रेजी में वाइल्ड स्पाइडर फ्लावर तथा हिंदी मेंजखिया, सफ़ेद हुलहुल तथा संस्कृत में अजगंधा के नाम से जाना जाता है। यह एमरेंथेसी कुल का सदस्य है। हुल-हुल वर्षा ऋतु में खेतों एवं पड़ती भूमियों में बीज से उगने वाला एक वर्षीय खरपतवार है। पर्याप्त धुप युक्त उपजाऊ शुष्क भूमियों में इसके पौधों की बढ़वार अधिक होती है। इसके पौधे चिपचिपे एवं तीक्ष्ण गंध वाले होते है। इसके पौधों में सफ़ेद या बैगनी रंग के पुष्प आते है। इसकी फल्लियाँ (कैप्सूल) चिकनी एवं धारीदार होती है जिसमे भूरे या काले रंग के झुर्रीदार बीज होते है। पौधों में जुलाई-अगस्त में पुष्पन एवं फलन होता है। इसकी पत्तियों में कडवाहट होती है. इसकी पत्तियों, बीज एवं जड़ में औषधीय गुण पाए जाते है। गठिया वात, पेशीय दर्द,गर्दन में सख्ती होने पर एवं सिर दर्द में इसकी पत्तियों की लेई से आराम मिलता है। कान दर्द एवं कानों से मवाद आने पर इसकी पत्तियों का गर्म अर्क फायदेमंद होता है। पत्तियों को हाथ से मसलकर सूंघने से सिर दर्द में लाभ होता है। इसके बीजों का चूर्ण लेने से पेट के गोलकृमि बाहर निकल जाते है। इसकी जड़ का काढ़ा ज्वरनाशक होता है। बिच्छू दंश एवं सर्प दंश के उपचार में इसके पौधे का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी ताजा मुलायम पत्तियां एवं कोमल टहनियों को भाजी के रूप में पकाया जाता है। इसकी पत्तियों में विटामिन सी एवं खनिज तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते है, इसलिए स्वास्थ विशेषकर पेट से सम्बंधित विकारों के लिए इसकी भाजी बहुत लाभकारी होती है। हुल-हुल के बीज में 17% से अधिक उत्तम गुणवत्ता वाला खाने योग्य तेल पाया जाता है। इसके तेल को सिर में लगाने से जुएं समाप्त हो जाते है।
7.हेमिडेस्मस इण्डिकस (अनंतमूल), कुल-
एपोसाइनेसी
अनंतमूल फोटो साभार गूगल |
8.आइपोमिया एक्वेटिका (कलमी साग),कुल-कानवलवुलेसी
इसे अंग्रेजी में स्वाम्प कैबेज/वाटर स्पिनाच तथा हिंदी में कलमी साग और नरकुल के नाम से जाना जाता है जो कन्वोल्वुलेसी कुल
का सदस्य है। वर्षा ऋतु में नम एवं जल भराव वाले क्षेत्रों में बीज से पनपने वाला
यह एकवर्षीय सदाबहार खरपतवार है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह तालाबों के किनारे एवं
पानी के गड्ढो एवं नालियों में भी उगता है। इसकी मुलायम पत्तियों एवं टहनियों से
भाजी बनाई जाती है। इसका तना मुलायम-खोखला एवं मोटा होता है। इसके तने के अग्र भाग
से पत्तियों के अक्ष से लम्बे पुष्प वृंत युक्त कीप के आकार के बैगनी-सफ़ेद पुष्प
निकलते है। गीली मिट्टी के संपर्क में आने से इसके तने की प्रत्येक गाँठ से जड़े
निकल आती है। इसकी फलियों में काले रंग के अनेक चिकने बीज बनते है। इसकी पत्तियों
का अर्क वमनकारी एवं दस्तावर होता है। महिलाओं में तंत्रिका एवं सामान्य कमजोरी
होने पर सम्पूर्ण पौधे का काढ़ा देने से लाभ होता है। इसके बीज विरेचक होते है।
9.ल्यूकस एस्पेरा (गुमा), कुल-
लैमिनेसी
गुमा फोटो साभार गूगल |
10.लेपिडियम सैटिवम (चंसूर), कुल ब्रेसीकेसी
इस पौधे को अंग्रेजी में
गार्डन क्रेस और हिंदी में हलीम, चंसूर,असारिया के नाम से जाना जाता है. यह सरसों
कुल का शाकीय वार्षिक पौधा है। इसके पौधे
सीधे बढ़ने वाले बहुशाखित होते है। रबी फसलों के खेत, बंजर भूमियों, बाग़-बगीचों,
सडक एवं रेल पथ के किनारे खरपतवार के रूप में उगता है। इसके पौधे नमीं युक्त बलुई
मिटटी में बहुत तेजी से बढ़ते है। इसका पौधा सफ़ेद-भूरे रंग का, फूल सफ़ेद और बीज लाल
रंग के सरसों जैसे बेलनाकार होते है। बीज में खाने योग्य तेल पाया जाता है।
प्रारंभिक अवस्था में इसके छोटे पौधों से भाजी एवं सूप बनाया जाता है, जो बहुत पौष्टिक एवं स्वास्थ्य वर्धक होता है। गाय एवं भैस के लिए
यह उत्तम चारा है, जिसे खिलाने से दूध की मात्रा बढती है। इसके सम्पूर्ण पौधे एवं
बीज में औषधीय गुण होते है। इसका पौधा अस्थमा निरोधक, खूनी बवासीर एवं सिफलिस के
उपचार में कारगर है। यह विभिन्न स्त्री रोग, प्रसवोत्तर शारीरिक क्षति पूर्ति एवं
प्रमेह निवृत हेतु उपयुक्त औषधि मानी जाती है। इसके बीज के चूर्ण/लेई को शहद के
साथ लेने से दस्त में लाभ होता है। इसके बीज को चबाने से गले का दर्द, कफ, अस्थमा
एवं सिर दर्द में आराम मिलता है। बीज के प्रलेप को लगाने से त्वचा सम्बंधित
विकारों में लाभ होता है । इसके बीजों में
प्रोटीन, खनिज, रेशा के अलावा विटामिन ‘ए’, ‘सी’, ‘ई’ एवं फोलिक एसिड प्रचुर
मात्रा में पाया जाता है। बच्चों में बढ़वार एवं स्फूर्ति हेतु बीज बहुत लाभकारी
है. चंसूर के बीजों का (पानी में फुलाकर)
सलाद के रूप में या पेय पदार्थ सेवन करने से शरीर का वजन कम या नियंत्रिन
होता है और रोगप्रतिरोधक क्षमता बढती है।
11.मेलिलोटस इंडिकस (बनमेथी), कुल-
इंडियन स्वीट क्लोवर तथा हिंदी
में सेंजी एवं बनमेथी के नाम से जाना जाता
है। यह फाबेसी कुल का सदस्य है जो शीत ऋतु की फसलों में खरपतवार की तरह उगता है।
इसके पौधो में अक्टूबर से जनवरी तक पुष्पन एवं फलन होता है। पुष्प पीले रंग के
होते है। इसके बीजों का औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। पेट जनित समस्याओं
के निवारण एवं डायरिया के उपचार में बीज फायदेमंद होते है।
12.मार्टिनिया
एनुआ (बघनखी), कुल- मार्टीनियेसी
बघनखी फोटो साभार गूगल |
13.मिमोसा प्यूडिका (लाजवंती),
कुल- फैबेसी
इसे अंग्रेजी में टच-मी-नॉट
एवं सेंसिटिव प्लांट तथा हिंदी में लाजवंती, छुई-मुई के नाम से जाना जाता है। यह
बीज से उगने वाला बहुवर्षीय शाकीय खरपतवार है जो खेतों की मेंड़ों, सड़क एवं रेल पथ
के किनारे एवं बंजर भूमियों में फैलकर तेजी से पनपता है। इसके तने और शाखाओं में मजबूत एवं तेज कांटे
पाए जाते है। इसकी पत्तियां रात में ऊपर की ओर सिकुड़कर एक दुसरे से चिपक जाती है
और सुबह होते ही यथावत खुल जाती है। खुली हुई पत्तियों को छूने या छेड़ने से इसके
पत्रक सिकुड़कर आपस में चिपक जाते है। पत्तियों के अक्ष से गुलाबी रंग के गोल
रोयेदार पुष्प निकलते है। इसकी फलियाँ रोयेंदार एवं चपटी एवं गुच्छे में बनती है
जो पकने पर काली हो जाती है। इसके पूरे पौधे में औषधीय गुण मौजूद होते है। इसकी
पत्तियों एवं टहनियों का काढ़ा मूत्राशय की पथरी, वृक्क विकार, बवासीर एवं पेचिस में
उपयोगी है। ग्रंथिशूल एवं हाइड्रोसिल में
पौधे का अर्क का प्रलेप लगाने से लाभ मिलता है। पेट में भारीपन, बदहजमी, दमा एवं
कंठपीड़ा में पौधे का चूर्ण शहद के साथ सेवन करने से आराम मिलता है। इसकी पत्तियों
एवं फूलों की लेई बनाकर शरीर पर मलने से त्वचा मुलायम एवं कांतिमय होती है। अधिक
मात्रा में इसका सेवन करना हानिकारक होता है।
14.मुकुना प्रुरिटा (किवांच), कुल-
किवांच एक मौसमी लता है जो सेम
की लता से मिलती जुलती है। यह लता वर्षा ऋतु में जंगलों, खेतों की मेंड़ों एवं बाड़
में उगती है और अन्य पेड़ों के सहारे लिपटकर बढती है। इसमें बैगनी रंग के पुष्प
लगते है। पुष्पन एवं फलन सितम्बर-दिसंबर तक होता है। इसकी फली दोनों छोर पर मुड़ी
हुई अंग्रेजी के एस आकार की दिखती है। फलियों पर भूरे रंग के घने रोम होते है जिन्हें छूने या संपर्क में आने पर
खुजली उत्पन्न होती है। इसके सम्पूर्ण पौधे एवं बीज में औषधीय गुण पाए जाते है।
किवांच के बीज शक्ति वर्धक, कामोत्तेजक एवं
बिच्छू दंश निवारक माने जाते है.फलियों के ऊपर के रोम आँतों के कीड़े
निकालने में उपयोगी होते है। पेशियों के दर्द निवारण में बीज से प्राप्त एल्ड्रोपा रसायन का उपयोग होता है। इसकी पत्तियां
मुंह के छालों के निदान में उपयोगी है। जड़े मूत्रल, दस्तावर, ज्वर नाशक, किडनी रोग
एवं हांथीपांव में उपयोगी समझी जाती है। जड़ो का काढ़ा सेवन करने से खुनी आंव में
आराम मिलता है।
15.ओसिमम ग्रांटीसिमम (बन
तुलसी), कुल-
इस वनस्पति को अंग्रेजी में
वाइल्ड बेसिल तथा हिंदी में बन तुलसी, बुवई के नाम से जाना जाता है. यह वर्षा एवं
शीत ऋतु का बीज से पनपने वाला एक वर्षीय झाड़ीनुमा शाकीय खरपतवार है। इसकी अन्य
प्रजाति राम तुलसी या काली तुलसी (ऑसिमम कैनम) भी खरपतवार के रूप में उगती है। इसे
बंजर भूमियों, सडक एवं रेल पथ के किनारों पर आसानी से देखा जा सकता है। घरों में
लगाई जाने वाली पूज्य तुलसी (ऑसिमम
सेन्कटम) की अपेक्षा वन तुलसी की महक कपूर की भांति तेज होती है। इनकी शाखाओं एवं
टहनियों की सीमाक्ष पर गुलाबी सफेद एवं हल्के बैगनी रंग के पुष्प लम्बी मंजरी में
लगते है। बीज काले रंग के होते है जिन्हें पानी में भिगोने पर लसलसा पदार्थ (म्युसिलेज) बनता है। इसके
सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है जो सुगन्धित, उत्तेजक, शीतल, तीक्ष्ण,
अग्निप्रदीपक एवं पित्तकारक होता है। यह कफ विकार, वात विकार, रक्त विकार, कृमि
तथा खाज-खुजली को समाप्त करने वाला होता है। इसकी पत्तियों का अर्क नाक से खून
आने, खांसी, जुखाम, मुत्रावरोध, श्वासनाली शोथ, चर्म रोग निदान में उपयोगी पाया गया है। पुराने घाओं को धोने
एवं मसूड़ों की सडन रोकने हेतु इसके काढ़े का प्रयोग करने से लाभ होता है। बच्चों
में उदर विकार एवं मलेरिया बुखार होने पर जड़ों का अर्क शहद के साथ देने से आराम
मिलता है। बच्चों में उदर कृमि, अतिसार तथा खांसी होने पर बीजों का चूर्ण शहद के
साथ देने से लाभ होता है। बीजों के लिसलिसे पदार्थ को आँखों में लगाने से रौशनी बढती
है। बवासीर, वृक्क विकार तथा कब्ज होने पर बीजों की चाय पीने से लाभ मिलता है। फूल
आने के बाद बन तुलसी का पौधा सुखाकर घर में टांगने से मच्छर प्रकोप कम होता है।
16.ऑक्सालिस कॉर्निकुलाटा (तिनपतिया), कुल-
इस वनस्पति को अंग्रेजी में
इंडियन सोरेल तथा हिंदी में तिनपतिया कहा जाता है जो नम एवं छायादार भूमियों में
भूस्तारी कन्दीय जड़ों से पनपने वाला बहुवर्षीय खरपतवार है। यह भूमि के सहारे बढ़ने
वाला शाक है जिसकी एकांतर संयुक्त पत्ती
में हल्के हरे रंग के तीन ह्र्द्याकार पत्रक होते है। इसके प्रकन्द के केंद्र
से लंबे डंठल पर जनवरी-मार्च में
गुलाबी-पीले रंग के कीप के आकार के छोटे-छोटे पुष्प निकलते है। इसकी फली (कैप्सूल) बेलनाकार एवं हल्की धूसर
भूरी होती है जिनमे अनेक छोटे-छोटे बीज रहते है। इसकी मुलायम ताज़ी पत्तियों की
भाजी बनाई जाती है। इसकी पत्तियां शीतल, क्शुदावर्धक, पाचक एवं विटामिन सी से
परिपूर्ण होती है. मलेरिया, ज्वर,अतिसार, उदरपित्त एवं स्कर्वी रोग में पत्तियों
का काढ़ा लाभदायक होता है। त्वचा में रूखापन, लाल चकत्ते एवं चटखन होने पर पत्तियों
का अर्क घी के साथ मलने से लाभ होता है। फोड़ा-फुंसी एवं अन्य चर्म रोगों में प्रकन्द
(जड़) का प्रलेप फायदेमंद होता है।
17.पेगनम हरमाला (हरमल), कुल-
इसे अंग्रेजी में वाइल्ड रियू,
संस्कृत में गन्ध्या एवं हिंदी में हरमल, मरमरा
के नाम से जाना जाता है। यह छोटा झाड़ीनुमा बहुवर्षीय जंगली पौधा है जो देश
के शुष्क मैदानी क्षेत्रों में पाया जाता है। इसकी पत्तियों के अक्ष से सफ़ेद रंग
के एकल पुष्प निकलते है। फल सम्पुटिका गोलाकार एवं गहरी धारियों वाली होती है।
इसके बीज भूरे रंग के होते है। इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है।
इसका पौधा मोह्जनक मद्कारी, कामोत्तेजक,फीता कृमि नाशक होता है। इसकी पत्तियों का
काढ़ा गठिया वात के दर्द में लाभदायी है। इसके पुष्पों एवं तने की छल का प्रलेप
ह्रदयोत्तेजना शांत करने में गुणकारी है। इसके बीज भी औषधीय गुणों से परिपूर्ण
होते है। हरमल के बीज दर्दनाशक, मदकारी, निद्राकारी,कृमि नाशक,कामोत्तेजक,ज्वरनाशक
एवं दुग्ध वर्धक होते है। इसके बीजों का काढ़ा वात विकार, वृक्क एवं पित्ताशय की पथरी,पेट
दर्द एवं ऐंठन, ज्वर,पीलिया, दमा, माहवारी में रूकावट एवं वातीय दर्द में लाभकारी
पाया गया है। इसके बीजों का चूर्ण लेने से फीताकृमि दस्त के साथ बाहर निकल जाते
है। इसके काढ़े से कुल्ला एवं गरारा करने से स्वर यंत्र विकार में लाभ मिलता है।
इसके बीजों का अधिक मात्रा में सेवन हानिकारक प्रभाव छोड़ता है।
18.फाइलैण्थस निरूराई (भू-आंवला), कुल-
फाइलेन्थेसी
इसे अंग्रेजी में सीडअण्डर लीफ
एवं ग्राइप वीड तथा हिंदी में हजारदाना, भुई आंवला एवं भू-आंवला के नाम से पुकारा जाता है। यह वर्षा ऋतु में बीज से उगने एवं सीधा बढ़ने वाला एक वर्षीय शाकीय वनस्पति है। यह पौधा खरीफ की फसलों के साथ-साथ,
जंगल, बाग़-बगीचों एवं खाली पड़ी भूमियों
में खरपतवार के रूप में उगता है तथा शीत ऋतु में भी देखा जाता है। इसमें आंवले की भांति संयुक्त पत्तियां लम्बी
सींक पर दो कतारों में लगी रहती है। प्रत्येक छोटी पत्ती के पीछे तरफ अक्ष से
हल्के सफ़ेद रंग के छोटे-छोटे पुष्प एकल रूप में बनते है जो बाद में हरे गोल छोटे
फल के रूप में परिवर्तित हो जाते है। एक पौधे से हजारों की संख्या में फल एवं बीज
पैदा होते है. पौधों में पुष्पन एवं फलन अगस्त से अक्टूबर तक होता रहता है। इसका
पूरा पौधा मूत्र वर्धक, मृदुरेचक, पाचक, कटुपौष्टिक तथा अवरोधनाशक होता है। इसकी जड़
एवं पत्तियों का ताजा अर्क पीलिया रोग की कारगर औषधि है। पेट दर्द, कब्ज,
अतिसार, सुजाक,पेचिस आदि रोगों में इसका काढ़ा पीने से लाभ होता है। जड़ का काढ़ा
पीलिया एवं ज्वर नाशक, दुग्ध स्त्राव वर्धक एवं महिलाओं में अत्यधिक् मासिक
स्त्राव रोकने वाला होता है। पत्तियों का रस अथवा अर्क सेवन से हिपैटाइटिस बी जैसी
घातक यकृत व्याधि के उपचार में सहायता मिलती है।चर्म रोग, अल्सर,घमोरी, खरोंच,
जले-कटे भाग पर इसकी पत्तियों का प्रलेप लगाने से आराम मिलता है। इसके फलों एवं
बीजों का सफ़ेद दूध चर्म विकार एवं सूजन में लगाने से लाभ मिलता है। इसके फल अल्सर,
घाव भरने एवं दाद-खाज के उपचार में उपयोगी है।
19.फिजलिस मिनिमा (परपोटी), कुल- सोलानेसी
परपोटी पौधा फोटो बालाजी फार्म, दुर्ग |
20.पेडालियम मुरेक्स (गोखुरू बड़ा),
कुल-पेडालियेसी
इस
पौधे को अंग्रेजी में
नोट : मानव शरीर
को स्वस्थ्य रखने में खरपतवारों/वनस्पतियों के उपयोग एवं महत्त्व को हमने ग्रामीण
क्षेत्रों के वैद्य/बैगा/ आयुर्वेदिक चिकित्स्कों के परामर्श तथा विभिन्न शोध
पत्रों/ आयुर्वेदिक ग्रंथों एवं स्वयं के अनुभव से उपयोगी जानकारी उक्त वनस्पतियों
के सरंक्षण एवं जनजागृति एवं किसान एवं ग्रामीण भाइयों के लिए आमदनी के अतिरिक्त
साधन बनाने
के उद्देश्य से प्रस्तुत की है। अतः किसी वनस्पति का रोग निवारण
हेतु उपयोग करने से पूर्व आयुर्वेद चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेवें। किसी भी रोग
निवारण हेतु हम इनकी अनुसंशा नहीं करते है। अन्य उपयोगी वनस्पतियों के बारे में
उपयोगी जानकारी के लिए हमारा अगला ब्लॉग देख सकते है।
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