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सोमवार, 7 जनवरी 2019

प्रकृति का अनुपम उपहार: स्वास्थ के लिए उपयोगी खरपतवार-III


         प्रकृति का अनुपम उपहार: स्वास्थ के लिए उपयोगी खरपतवार


                                   डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
                                                 अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

वैदिक काल से ही भारत में औषधीय महत्त्व के पौधों, लताओं और वृक्षों को पहचान कर उनका इस्तेमाल विभिन्न रोगों के उपचार में किया जा रहा है। महर्षि चरक की 'चरक सहिंता' में पेड़-पौधों के औषधीय महत्त्व की गहन विवेचना की गई है। इसमें प्रत्येक पेड़-पौधे की जड़ से लेकर पुष्प, पत्ते एवं अन्य भागों के औषधीय गुणों और रोग उपचार की विधियाँ वर्णित है। आयुर्वेद के देवता धन्वंतरि ने जड़ी-बूटियों के अलौकिक संसार से जगत का साक्षात्कार कराया है। इन वनस्पतियों के चमत्कारिक प्रभाव को वैज्ञानिक धरातल पर भी जांचा-परखा जा चूका है।  एलोपैथिक दवाओं के दुष्प्रभाओं से घबराकर विश्व के जनमानस का झुकाव अब वैकल्पिक जड़ी-बूटी की परम्परागत दवाओं (आयुर्वेद) की तरफ बढ़ने लगा है। आयुर्वेदिक दवाओं और हर्बल उत्पादों की बाजार में बढती मांग को देखते हुए तमाम राष्ट्रिय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने जड़ी-बूटी, औषधीय पौधों, लताओं तथा वृक्षों से निर्मित दवाओं, केश निखार के शैम्पू, केश तेल, साबुन, त्वचा को चमकाने के लोशन, चेहरे के आभा लाने वाली क्रीम, पाउडर, टूथ पेस्ट, काजल, बाल रंगने वाले आदि उत्पादों को बाजार में पेश किया है।  इसलिए भारत से औषधीय महत्व के पौधों का निर्यात भी जोर पकड़ रहा है।  हमारे आस-पास, खेत और खलिहानों में बहुत से औषधीय महत्त्व के पेड़-पौधे जड़ी-बूटियाँ अपने आप स्वतः उगती है, जिन्हें हम खरपतवार समझ कर उखाड़ फेंकते है अथवा उन्हें शाकनाशी दवाइयों से नष्ट कर देते है।  जनसँख्या दबाव,सघन खेती, वनों के अंधाधुंध कटान, जलवायु परिवर्तन और रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से आज बहुत सी उपयोगी वनस्पतीयां विलुप्त होने की कगार पर है।  आज आवश्यकता है की हम औषधीय उपयोग की जैव सम्पदा का सरंक्षण और प्रवर्धन करने किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागृति पैदा करें ताकि हम अपनी परम्परागत घरेलू चिकित्सा (आयुर्वेदिक) पद्धति में प्रयोग की जाने वाली वनस्पतियों को विलुप्त होने से बचा सकें. यहाँ हम कुछ उपयोगी खरपतवारों के नाम और उनके प्रयोग से संभावित रोग निवारण की संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत कर रहे है ताकि उन्हें पहचान कर सरंक्षित किया जा सके और उनका स्वास्थ्य लाभ हेतु उपयोग किया जा सकें।  आप के खेत, बाड़ी, सड़क किनारे अथवा बंजर भूमियों में प्राकृतिक रूप से उगने वाली इन वनस्पतियों के शाक, बीज और जड़ों को एकत्रित कर आयुर्वेदिक/देशी दवा विक्रेताओं को बेच कर आप मुनाफा अर्जित कर सकते है।  फसलों के साथ उगी इन वनस्पतियों/खरपतवारों का जैविक अथवा सस्य विधियों के माध्यम से नियंत्रण किया जाना चाहिए। 
               इन वनस्पतियों के महत्त्व को दर्शाने बावत हमने इनके कुछ औषधीय उपयोग बताये है परन्तु  चिकत्सकीय परामर्श/आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह के उपरांत ही किसी भी रोग निवारण के लिए इनका  प्रयोग करें। भारत के विभिन्न प्रदेशोंकी मृदा एवं जलवायुविक परिस्थितियों में उगने वाले कुछ खरपतवार/वनस्पतियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है।
1.एलिफैन्टोपस स्केबर (जंगली गोभी), कुल- एस्टरेसी
        एलिफेंट फूट की जड़, पत्ती एवं फूल में औषधीय गुण होते है।   पत्ती एवं जड़ का काढ़ा बार-बार बुखार आने, डायरिया एवं अस्थमा में गुणकारी है. जड़ का काढ़ा ह्रदय रोग एवं  बवासीर में लाभकारी है।  इसके पुष्पों का प्रयोग यकृत रोग, नेत्र रोग, अस्थमा,कफ एवं सूजन के उपचार में किया जाता है।  सर्प दंश में जड़ का प्रलेप लगाने से फायदा होता है।  पत्तियों का अर्क सिर में लगाने से बाल झड़ना बंद होता है।
2.यूफॉर्बिया थाइमीफोलिया (छोटी दुधी), कुल- यूफोर्बियेसी
छोटी दूधी फोटो साभार गूगल
इस खरपतवार को अंग्रेजी में थाईम लीव्ड स्पर्ज, संस्कृत में लघु दुग्धिका, गोरक्षदुग्धी, ताम्रदुग्धी, क्षीरिका तथा हिंदी में छोटी दुधी के नाम से जाना जाता है।  इसके पौधे  ज़मीन पर फैलकर बरसात के दिनों में पनपते है, परन्तु इसके पौधे हर मौसम में मिल जाते है।  इसके तने या पत्तियों को तोड़ने से दूध निकलता है, इसी लिए इसे दुधि बूटी कहते हैं।  दुधी  पेचिश में काम आती है।  इसका पेस्ट बनकर पिलाने से आराम होता है।  ये एक आम तौर से पाया जाने वाला पौधा है. डायबिटीज के मरीजों के लिए छोटी दुधी बहुत कारगर मानी जाती है।  छोटी दुधी को जड़ से उखाड़कर छाया में सूखा लें।  सूखने पर इसका पाउडर बनाकर 3 से 5 ग्राम की मात्रा में सादे पानी के साथ  दिन में दो बार इस्तेमाल करने से डायबिटीज में बहुत लाभ होता है।  मुहांसों और दाद पर इसका दूध लगाने से आराम होता है।

3.यूफोर्बिया हिर्टा (बड़ी दुधी), कुल- यूफोर्बियेसी
बड़ी दूधी फोटो साभार गूगल
इस पौधे को अंग्रेजी में अस्थमा वीड तथा हिंदी में  बड़ी दुधी कहते है।  यह वर्षा ऋतु की फसलों के साथ, नम एवं शुष्क भूमियों, बाग़-बगीचों, बंजर भूमियों  में उगने वाली एक वर्षीय छोटी शाक है।  इसका मुलायम ताना लालिमा लिए हुए ताम्र रंग का होता है जो जमीन के सहारे बढ़ता है।  इसका तना तोड़ने से दूध जैसा सफ़ेद पदार्थ निकलता है. पत्तियों के अक्ष से छोटे ताम्र-लाल रंग के गोल पुष्प निकलते है।  पुष्प अवस्था में इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण विद्यमान होते है.इस समय इसके पौधों को सुखाकर विभिन्न रोगों के उपचार हेतु इस्तेमाल किया जाता है।  यह अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, कफ,खांसी, उदरशूल एवं ह्रदय स्पंदन में लाभकारी होता है।  पेट दर्द, खांसी, अस्थमा एवं बच्चों में उदर कृमि होने पर सम्पूर्ण पौधे का काढ़ा लाभकारी होता है।  इसका दूध दाद-खाज एवं अन्य चर्म रोगों में उपयोगी होता है।
4.यूफोर्बिया नेर्रीफ़ोलिया (थूहड़), कुल- यूफोर्बियेसी
थूहड़ फोटो साभार गूगल
इस पेड़ को कॉमन मिल्क हेज तथा हिंदी में सेंहुड़, थूहड़ के नाम से जाना जाता है।  इसके पौधों को बाग़ बगीचों की सुरक्षा हेतु  बाढ़ के रूप में अथवा शोभाकारी वृक्ष  के रूप में लगाया जाता है।  इसका तन बेलनाकार और पत्ते लम्बे, आगे से गोलाई लिए चमच के आकर के होते हैं।  ये कैक्टस के पौधों की वैराइटी का है. इसमें दूध या लैटेक्स पाया जाता है।  इसके पौधे कम पानी में भी ज़िंदा रह बने रहते है।  वर्षों से लोग इसके दूध को रेचक के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं।  दूध में कब्ज़ को दूर करने का गुण है।  इसका  दो से पांच बूँद दूध भुने चने के पाउडर में मिला कर गोली सी बना कर खाने से कब्ज़ दूर हो जाता है।  दूध का प्रयोग तेल में मिला कर और उस तेल को पाक कर और छान कर एक्ज़िमा त्वचा पर दाद, सोराइसिस पर लगाने में करते हैं।  इससे त्वचा के रोग ठीक हो जाते हैं। कान के दर्द में इसके पत्तों  को आग पर गर्म करके, जब पत्ते कुम्हला जाते हैं और मुलायम हो जाते हैं, उनका पानी या रस निचोड़ कर दो तीन बूँद कान में डालने से आराम होता है।  कच्चे फोड़ों को पकाने के लिए इसका पत्ता सरसों का तेल लगाकर, आग पर गर्म करके फोड़े पर बाँधने से फोड़े पाक कर फूट जाता है। जाड़ों में एड़ियां फट  जाने पर  जब उनमें क्रैक पड़ जाते हैं।  थूहड़ के गूदे /सैप को सरसों के तेल में पकाकर, और गूदे को तेल में अच्छी तरह मिक्स करके लगाने से लाभ होता है।  कभी भी इसका ताज़ा दूध सीधे ज़बान पर नहीं डालना चाहिए।  तेज़ स्वाभाव के कारण इसका दूध  दाने और छाले पैदा कर सकता है।  दूध त्वचा पर लग जाने से त्वचा पर घाव हो सकते हैं, लाल पड़ जाती है, दाने निकल आते हैं।

5.इवोल्वुलस अल्सिनोइड्स (शंखपुष्पी), कुल-कनवाल्वुलेसी 
शंखपुष्पी फोटो साभार गूगल
इस पौधे को  अंग्रेजी में  लिटल ग्लोरी तथा हिंदी में   शंखपुष्पी, श्यामक्रांत  एवं विष्णुक्रांत  के नाम से जाना जाता है।  यह वर्षा ऋतु एवं शीत ऋतु में खेतों, सडक एवं रेल पथ किनारों में उगने वाला लतानुमा  खरपतवार है।  हिरनखुरी की भांति यह भी जमीन के सहारे अथवा दूसरे पौधों से लिपटकर बढ़ता है।  पुष्प रंग के हिसाब से शंखपुष्पी की तीन प्रजातियाँ (श्वेत, लाल और नीलपुष्पी) होती है।  औषधीय दृष्टिकोण से  सफेद रंग की शंखपुष्पी को सर्वोत्तम माना जाता है। इसमें शंखनुमा बड़े सफ़ेद रंग के सुन्दर पुष्प आते है।  पुष्पन एवं फलन जुलाई से नवम्बर तक होता है. शंखपुष्पी के पूरे पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है।  इसका पौधा कटु, पौष्टिक, बलवर्धक, पाचक,ज्वर नाशक, कृमि नाशक होता है।  शंखपुष्पी के क्षाराभ (एल्केलाइड) में मानसिक उत्तेज़ना शामक अति महत्वपूर्ण गुण विद्यमान है।  उच्च रक्तचाप, मानसिक तनाव और अनिद्रा जैसी परिस्थितयों में शंखपुष्पी बहुत कारगर औषधि है।  इसका चूर्ण दिमागी ताकत और स्मरण शक्ति बढ़ाने में अत्यंत गुणकारी पाया गया है।  उदर कृमि, पुरानी पेचिस, शारीरिक कमजोरी एवं बुखार में पौधे का काढ़ा लाभदायक होता है।  इसकी पत्तियों को सिगरेट की भांति पीने से ब्रोंकाइटिस तथा अस्थमा में लाभ मिलता है।  शरीर में गर्मी बढ़ने से इसकी ताज़ी पत्तियों को पीसकर पीने से आराम मिलता है।  हड्डी टूटने पर इस पौधे के रस में मिश्री मिलाकर सेवन करने से आराम मिलता है. पत्तियों के रस को केश तेल में मिलाकर सिर में लगाने से बालों का विकास अच्छा होता है।  

6.गाइनेन्ड्रापसिस पेण्टाफिला (सफ़ेद हुल-हुल), कुल- कैपारेसी 

         इस पौधे को अंग्रेजी में वाइल्ड स्पाइडर फ्लावर तथा हिंदी मेंजखिया, सफ़ेद हुलहुल तथा संस्कृत में अजगंधा  के नाम से जाना जाता है।  यह एमरेंथेसी कुल का सदस्य है।  हुल-हुल वर्षा ऋतु में खेतों एवं पड़ती भूमियों में बीज से उगने वाला एक वर्षीय खरपतवार है।  पर्याप्त धुप युक्त उपजाऊ शुष्क भूमियों में इसके पौधों  की बढ़वार अधिक होती है। इसके पौधे चिपचिपे एवं  तीक्ष्ण गंध वाले होते है।  इसके पौधों में सफ़ेद या बैगनी रंग के पुष्प आते है।  इसकी फल्लियाँ (कैप्सूल) चिकनी एवं धारीदार होती है जिसमे भूरे या काले रंग के झुर्रीदार बीज होते है।  पौधों में जुलाई-अगस्त में पुष्पन एवं फलन होता है।  इसकी पत्तियों में कडवाहट होती है. इसकी पत्तियों, बीज एवं जड़ में औषधीय गुण पाए जाते है।  गठिया वात, पेशीय दर्द,गर्दन में सख्ती होने पर एवं सिर दर्द में इसकी पत्तियों की लेई से आराम मिलता है।  कान दर्द एवं कानों से मवाद आने पर इसकी पत्तियों का गर्म अर्क फायदेमंद होता है।  पत्तियों को हाथ से मसलकर सूंघने से सिर दर्द में लाभ होता है।  इसके बीजों का चूर्ण लेने से पेट के गोलकृमि बाहर निकल जाते है।  इसकी जड़ का काढ़ा ज्वरनाशक होता है।  बिच्छू दंश एवं सर्प दंश के उपचार में इसके पौधे का इस्तेमाल किया जाता है।  इसकी ताजा मुलायम पत्तियां एवं कोमल टहनियों को भाजी के रूप में पकाया जाता है। इसकी पत्तियों में विटामिन सी एवं खनिज तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते है, इसलिए स्वास्थ विशेषकर पेट से सम्बंधित विकारों  के लिए इसकी भाजी बहुत लाभकारी होती है।  हुल-हुल के बीज में 17% से अधिक उत्तम गुणवत्ता वाला खाने योग्य तेल पाया जाता है।  इसके तेल को सिर में लगाने से जुएं समाप्त हो जाते है।

7.हेमिडेस्मस इण्डिकस (अनंतमूल), कुल- एपोसाइनेसी
अनंतमूल फोटो साभार गूगल
अनन्तमूल को अंग्रेजी में इंडियन सारसपरीला तथा हिंदी में अनन्तमूल, मगराबू  एवं संस्कृत में सारिवा कहते है।   यह सफ़ेद और काली, दो प्रकार की होती है, जिसे गौरीसर और कालिसर  के नाम से जाना जाता है।  यह बहुवर्षीय पतले तने वाली लता है जो बाग़-बगीचों में जमीन के सहारे अथवा बृक्षों के सहारे बढती है।   इसकी शाखाएं रोमयुक्त होती है।  इसकी पत्तियां हरी चमकीली तथा सफ़ेद धब्बेदार होती है जिनकी निचली सतह रोयेंदार होती है।  पत्तों को तोड़ने पर दूध जैसा पदार्थ निकलता है।  इसके फूल छोटे सफ़ेद रंग के हरापन लिए होते है जो अन्दर की ओर बैगनी रंग युक्त, गंध रहित  मंजिरियों में शरद ऋतु में लगते है।  फूल लोंग के आकर के पांच पंखुड़ी वाले होते है।   इसकी बेल में अक्टूबर-नवम्बर में छोटी-छोटी अनेक फलियाँ लगती है जो पकने पर चटक जाती है। इसके काले रंग के छोटे बीजों में सफ़ेद रोमों का गुच्छा होता है।  इसकी जड़े भूमि में काफी गहरी जाती है, जिसका छोर ढूँढना मुश्किल होता है, इसलिए इसे अनन्तमूल कहते है।  जड़ की ऊपरी छल लाल रंग की कुछ भूरी सी होती है. इसकी ताज़ी जड़ों को तोड़ने से सफ़ेद दूध (लैटेक्स) निकलता है. इसकी जड़ से कपूर मिश्रित चन्दन जैसी सुगंध आती है।  सुगन्धित जड़े ही औषधीय कार्य के लिए उत्तम मानी जाती है. अनंतमूल मधुर, शीतल, तीखी सुगंधित, वीर्यवर्धक, त्रिदोषनाशक (वात, पित्त और कफ), रक्त शोधक, पौष्टिक, बलवर्धक एवं  मूत्र वर्धक होती है।    जड़ें चर्म रोग, वमन,प्रदर,भूख की कमीं एवं मूत्र विकार में लाभदायक होती है।  पुराना कफ एवं शरीर में गर्मीं तथा खून साफ़ करने में इसके काढ़े का सेवन  कारगर होता है। इसकी नई हरी-ताज़ी पत्तियों को चबाने से शरीर में ताजगी आती है।  इसका लेप गठियावात, फोड़े-फुंसी तथा अन्य चर्म विकारों में लाभकारी होता है. सर्पदंश एवं बिच्छू के काटने पर इसकी ताज़ी जड़ों का प्रलेप लाभप्रद होता है।

8.आइपोमिया एक्वेटिका (कलमी साग),कुल-कानवलवुलेसी
इसे अंग्रेजी में  स्वाम्प कैबेज/वाटर स्पिनाच  तथा हिंदी में कलमी साग और नरकुल  के नाम से जाना जाता है जो कन्वोल्वुलेसी कुल का सदस्य है।  वर्षा ऋतु में नम एवं जल भराव वाले क्षेत्रों में बीज से पनपने वाला यह एकवर्षीय सदाबहार खरपतवार है।  ग्रामीण क्षेत्रों में यह तालाबों के किनारे एवं पानी के गड्ढो एवं नालियों में भी उगता है।  इसकी मुलायम पत्तियों एवं टहनियों से भाजी बनाई जाती है।  इसका तना मुलायम-खोखला एवं मोटा होता है।  इसके तने के अग्र भाग से पत्तियों के अक्ष से लम्बे पुष्प वृंत युक्त कीप के आकार के बैगनी-सफ़ेद पुष्प निकलते है।  गीली मिट्टी के संपर्क में आने से इसके तने की प्रत्येक गाँठ से जड़े निकल आती है।  इसकी फलियों में काले रंग के अनेक चिकने बीज बनते है।  इसकी पत्तियों का अर्क वमनकारी एवं दस्तावर होता है।  महिलाओं में तंत्रिका एवं सामान्य कमजोरी होने पर सम्पूर्ण पौधे का काढ़ा देने से लाभ होता है।  इसके बीज विरेचक होते है।
9.ल्यूकस एस्पेरा (गुमा), कुल- लैमिनेसी
गुमा फोटो साभार गूगल
इसे गुम्मा एवं छोटा हल्कुसा एवं द्रौणपुष्पी के नाम से जाना जाता है।  यह एक वर्षीय खरपतवार है जो वर्षा ऋतु में उपजाऊ खेतों एवं बंजर भूमियों में बीज से उगता है।  इसकी पत्तियों से विशेष प्रकार की गंध आती है।  इसकी पत्तियां शाधारण, भालाकार एवं किनारे पर दांतेदार होती है।  इसकी लम्बी पुष्प मंजरिका में गुच्छे में सफ़ेद या धूसर सफ़ेद रंग के फूल निकलते है।  इसके बीज भूरे-काले रंग के होते है।  इसका पौधा ज्वर नाशक, उत्तेजक, स्वेदक तथा कीटनाशक होता है।  ज्वर, शर्दी-जुखाम में इसकी पत्तियों एवं पुष्पों का काढ़ा लाभप्रद होता है।  नाक में सूजन होने या खून आपने पर पत्तियों का अर्क डालने से आराम मिलता है।  खसरा, सोरिओसिस तथा त्वचा के चटकने पर पत्तियों का अर्क लगाने से लाभ होता है।  गठिया वात, सिर दर्द एवं सर्प दंश में पत्तियों का प्रलेप लगाने से फायदा होता है।  सांप के काटने पर पौधे का रस देने से जहर का असर कम हो जाता है।  इसके सूखे पौधे जलाकर धुआं करने से मच्छर भाग जाते है।
10.लेपिडियम सैटिवम (चंसूर), कुल ब्रेसीकेसी 
इस पौधे को अंग्रेजी में गार्डन क्रेस और हिंदी में हलीम, चंसूर,असारिया के नाम से जाना जाता है. यह सरसों कुल का शाकीय  वार्षिक पौधा है।  इसके पौधे सीधे बढ़ने वाले बहुशाखित होते है।  रबी फसलों के खेत, बंजर भूमियों, बाग़-बगीचों, सडक एवं रेल पथ के किनारे खरपतवार के रूप में उगता है।  इसके पौधे नमीं युक्त बलुई मिटटी में बहुत तेजी से बढ़ते है।  इसका पौधा सफ़ेद-भूरे रंग का, फूल सफ़ेद और बीज लाल रंग के सरसों जैसे बेलनाकार होते है।  बीज में खाने योग्य तेल पाया जाता है।  प्रारंभिक अवस्था में इसके छोटे पौधों से भाजी एवं सूप बनाया  जाता है, जो बहुत पौष्टिक एवं  स्वास्थ्य वर्धक होता है।  गाय एवं भैस के लिए यह उत्तम चारा है, जिसे खिलाने से दूध की मात्रा बढती है।  इसके सम्पूर्ण पौधे एवं बीज में औषधीय गुण होते है।  इसका पौधा अस्थमा निरोधक, खूनी बवासीर एवं सिफलिस के उपचार में कारगर है। यह विभिन्न स्त्री रोग, प्रसवोत्तर शारीरिक क्षति पूर्ति एवं प्रमेह निवृत हेतु उपयुक्त औषधि मानी जाती है। इसके बीज के चूर्ण/लेई को शहद के साथ लेने से दस्त में लाभ होता है।  इसके बीज को चबाने से गले का दर्द, कफ, अस्थमा एवं सिर दर्द में आराम मिलता है।  बीज के प्रलेप को लगाने से त्वचा सम्बंधित विकारों में लाभ होता है । इसके बीजों में प्रोटीन, खनिज, रेशा के अलावा विटामिन ‘ए’, ‘सी’, ‘ई’ एवं फोलिक एसिड प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।  बच्चों में बढ़वार एवं स्फूर्ति हेतु बीज बहुत लाभकारी है. चंसूर के बीजों का (पानी में फुलाकर)  सलाद के रूप में या पेय पदार्थ सेवन करने से शरीर का वजन कम या नियंत्रिन होता है और रोगप्रतिरोधक क्षमता बढती है।
11.मेलिलोटस इंडिकस (बनमेथी), कुल-
इंडियन स्वीट क्लोवर तथा हिंदी में  सेंजी एवं बनमेथी के नाम से जाना जाता है।  यह फाबेसी कुल का सदस्य है जो शीत ऋतु की फसलों में खरपतवार की तरह उगता है।  इसके पौधो में अक्टूबर से जनवरी तक पुष्पन एवं फलन होता है।  पुष्प पीले रंग के होते है।  इसके बीजों का औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।  पेट जनित समस्याओं के निवारण एवं डायरिया के उपचार में बीज फायदेमंद होते है।
12.मार्टिनिया एनुआ (बघनखी), कुल- मार्टीनियेसी
बघनखी फोटो साभार गूगल
अंग्रेजी भाषा में  डेविल्स क्ला, टाइगर क्ला  एवं हिंदी में उलट काँटा,बघनखी या बाघनखी तथा बिच्छू फल   के नाम से जाना जाता है।  इसके  बीज की शकल बाघ के मुड़े हुए नाखूनों जैसी होती है।  इसलिए इसे बघनखी या बाघनखी इसके पौधे वर्षा ऋतु में खेतों, बाग़-बगीचों, बंजर भूमियों, सडक किनारे उगते है और शीत ऋतु आगमन पर सूख जाते है।  इसके पत्ते बड़े और रोएंदार होते हैं।  इसके फल सूख कर चटक जाते हैं और उनमे से एक काले या भूरे रंग का बड़ा सा बीज निकलता है। बघनखी के सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है। यह बिच्छू दंश की अच्छी दवा है।  ये पौधा सूजन और दर्द को दूर करता है। इसमें रक्त शोधक गुण हैं।  सूजन और दर्द को दूर करने के गुणों के कारण  इसे गठिया रोग में इस्तेमाल किया जाता है।  इसके पत्तों को सरसों के तेल में पकाकर ये तेल जोड़ो के दर्द में मालिश करने से बहुत आराम मिलता है।  इसके सूखे फलों को कूटकर भी तेल में पका सकते हैं।  ये एक अच्छा दर्द निवारक तेल बन जाता है।  इसके फलो का तेल बालों में लगाने से बाल जल्दी सफ़ेद नहीं होते है।  इसकी जड़ का पाउडर एक से दो ग्राम की मात्रा में अश्वगंधा का पाउडर सामान मात्रा में मिलाकर शहद के साथ सुबह शाम इस्तेमाल करने से गठिया रोग में राहत मिलती है।
13.मिमोसा प्यूडिका (लाजवंती), कुल- फैबेसी
इसे अंग्रेजी में टच-मी-नॉट एवं सेंसिटिव प्लांट तथा हिंदी में लाजवंती, छुई-मुई के नाम से जाना जाता है।  यह बीज से उगने वाला बहुवर्षीय शाकीय खरपतवार है जो खेतों की मेंड़ों, सड़क एवं रेल पथ के किनारे एवं बंजर भूमियों में फैलकर तेजी से पनपता है।   इसके तने और शाखाओं में मजबूत एवं तेज कांटे पाए जाते है।  इसकी पत्तियां रात में ऊपर की ओर सिकुड़कर एक दुसरे से चिपक जाती है और सुबह होते ही यथावत खुल जाती है।  खुली हुई पत्तियों को छूने या छेड़ने से इसके पत्रक सिकुड़कर आपस में चिपक जाते है। पत्तियों के अक्ष से गुलाबी रंग के गोल रोयेदार पुष्प निकलते है।  इसकी फलियाँ रोयेंदार एवं चपटी एवं गुच्छे में बनती है जो पकने पर काली हो जाती है।  इसके पूरे पौधे में औषधीय गुण मौजूद होते है।  इसकी पत्तियों एवं टहनियों का काढ़ा मूत्राशय की पथरी, वृक्क विकार, बवासीर एवं पेचिस में उपयोगी है।  ग्रंथिशूल एवं  हाइड्रोसिल में पौधे का अर्क का प्रलेप लगाने से लाभ मिलता है। पेट में भारीपन, बदहजमी, दमा एवं कंठपीड़ा में पौधे का चूर्ण शहद के साथ सेवन करने से आराम मिलता है।  इसकी पत्तियों एवं फूलों की लेई बनाकर शरीर पर मलने से त्वचा मुलायम एवं कांतिमय होती है।  अधिक मात्रा में इसका सेवन करना हानिकारक होता है।
14.मुकुना प्रुरिटा (किवांच), कुल-
किवांच एक मौसमी लता है जो सेम की लता से मिलती जुलती है।  यह लता वर्षा ऋतु में जंगलों, खेतों की मेंड़ों एवं बाड़ में उगती है और अन्य पेड़ों के सहारे लिपटकर बढती है।  इसमें बैगनी रंग के पुष्प लगते है।  पुष्पन एवं फलन सितम्बर-दिसंबर तक होता है।  इसकी फली दोनों छोर पर मुड़ी हुई अंग्रेजी के एस आकार की दिखती है।  फलियों पर भूरे रंग के घने  रोम होते है जिन्हें छूने या संपर्क में आने पर खुजली उत्पन्न होती है।  इसके सम्पूर्ण पौधे एवं बीज में औषधीय गुण पाए जाते है।  किवांच के बीज शक्ति वर्धक, कामोत्तेजक एवं  बिच्छू दंश निवारक माने जाते है.फलियों के ऊपर के रोम आँतों के कीड़े निकालने में उपयोगी होते है।  पेशियों के दर्द निवारण में बीज से प्राप्त  एल्ड्रोपा रसायन का उपयोग होता है।  इसकी पत्तियां मुंह के छालों के निदान में उपयोगी है।  जड़े मूत्रल, दस्तावर, ज्वर नाशक, किडनी रोग एवं हांथीपांव में उपयोगी समझी जाती है।  जड़ो का काढ़ा सेवन करने से खुनी आंव में आराम मिलता है।

15.ओसिमम ग्रांटीसिमम (बन तुलसी), कुल-
इस वनस्पति को अंग्रेजी में वाइल्ड बेसिल तथा हिंदी में बन तुलसी, बुवई के नाम से जाना जाता है. यह वर्षा एवं शीत ऋतु का बीज से पनपने वाला एक वर्षीय झाड़ीनुमा शाकीय खरपतवार है।  इसकी अन्य प्रजाति राम तुलसी या काली तुलसी (ऑसिमम कैनम) भी खरपतवार के रूप में उगती है।  इसे बंजर भूमियों, सडक एवं रेल पथ के किनारों पर आसानी से देखा जा सकता है।  घरों में लगाई जाने वाली पूज्य तुलसी  (ऑसिमम सेन्कटम) की अपेक्षा वन तुलसी की महक कपूर की भांति तेज होती है।  इनकी शाखाओं एवं टहनियों की सीमाक्ष पर गुलाबी सफेद एवं हल्के बैगनी रंग के पुष्प लम्बी मंजरी में लगते है।  बीज काले रंग के होते है जिन्हें पानी में भिगोने पर  लसलसा पदार्थ (म्युसिलेज) बनता है।  इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है जो सुगन्धित, उत्तेजक, शीतल, तीक्ष्ण, अग्निप्रदीपक एवं पित्तकारक होता है।  यह कफ विकार, वात विकार, रक्त विकार, कृमि तथा खाज-खुजली को समाप्त करने वाला होता है।  इसकी पत्तियों का अर्क नाक से खून आने, खांसी, जुखाम, मुत्रावरोध, श्वासनाली शोथ, चर्म रोग निदान  में उपयोगी पाया गया है।  पुराने घाओं को धोने एवं मसूड़ों की सडन रोकने हेतु इसके काढ़े का प्रयोग करने से लाभ होता है।  बच्चों में उदर विकार एवं मलेरिया बुखार होने पर जड़ों का अर्क शहद के साथ देने से आराम मिलता है।  बच्चों में उदर कृमि, अतिसार तथा खांसी होने पर बीजों का चूर्ण शहद के साथ देने से लाभ होता है।  बीजों के लिसलिसे पदार्थ को आँखों में लगाने से रौशनी बढती है।  बवासीर, वृक्क विकार तथा कब्ज होने पर बीजों की चाय पीने से लाभ मिलता है।  फूल आने के बाद बन तुलसी का पौधा सुखाकर घर में टांगने से मच्छर प्रकोप कम होता है। 
16.ऑक्सालिस कॉर्निकुलाटा (तिनपतिया), कुल-  
इस वनस्पति को अंग्रेजी में इंडियन सोरेल तथा हिंदी में तिनपतिया कहा जाता है जो नम एवं छायादार भूमियों में भूस्तारी कन्दीय जड़ों से पनपने वाला बहुवर्षीय खरपतवार है।  यह भूमि के सहारे बढ़ने वाला शाक है  जिसकी एकांतर संयुक्त पत्ती में हल्के हरे रंग के तीन ह्र्द्याकार पत्रक होते है।  इसके प्रकन्द के केंद्र से  लंबे डंठल पर जनवरी-मार्च में गुलाबी-पीले रंग के कीप के आकार के छोटे-छोटे पुष्प निकलते है।   इसकी फली (कैप्सूल) बेलनाकार एवं हल्की धूसर भूरी होती है जिनमे अनेक छोटे-छोटे बीज रहते है।  इसकी मुलायम ताज़ी पत्तियों की भाजी बनाई जाती है।  इसकी पत्तियां शीतल, क्शुदावर्धक, पाचक एवं विटामिन सी से परिपूर्ण होती है. मलेरिया, ज्वर,अतिसार, उदरपित्त एवं स्कर्वी रोग में पत्तियों का काढ़ा लाभदायक होता है। त्वचा में रूखापन, लाल चकत्ते एवं चटखन होने पर पत्तियों का अर्क घी के साथ मलने से लाभ होता है।  फोड़ा-फुंसी एवं अन्य चर्म रोगों में प्रकन्द (जड़) का प्रलेप फायदेमंद होता है।
17.पेगनम हरमाला (हरमल), कुल-
इसे अंग्रेजी में वाइल्ड रियू, संस्कृत में गन्ध्या एवं हिंदी में हरमल, मरमरा  के नाम से जाना जाता है।  यह छोटा झाड़ीनुमा बहुवर्षीय जंगली पौधा है जो देश के शुष्क मैदानी क्षेत्रों में पाया जाता है।  इसकी पत्तियों के अक्ष से सफ़ेद रंग के एकल पुष्प निकलते है।  फल सम्पुटिका गोलाकार एवं गहरी धारियों वाली होती है।  इसके बीज भूरे रंग के होते है।  इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है।  इसका पौधा मोह्जनक मद्कारी, कामोत्तेजक,फीता कृमि नाशक होता है।  इसकी पत्तियों का काढ़ा गठिया वात के दर्द में लाभदायी है। इसके पुष्पों एवं तने की छल का प्रलेप ह्रदयोत्तेजना शांत करने में गुणकारी है।  इसके बीज भी औषधीय गुणों से परिपूर्ण होते है।  हरमल के बीज दर्दनाशक, मदकारी, निद्राकारी,कृमि नाशक,कामोत्तेजक,ज्वरनाशक एवं दुग्ध वर्धक होते है।  इसके बीजों का काढ़ा वात विकार, वृक्क एवं पित्ताशय की पथरी,पेट दर्द एवं ऐंठन, ज्वर,पीलिया, दमा, माहवारी में रूकावट एवं वातीय दर्द में लाभकारी पाया गया है।  इसके बीजों का चूर्ण लेने से फीताकृमि दस्त के साथ बाहर निकल जाते है।  इसके काढ़े से कुल्ला एवं गरारा करने से स्वर यंत्र विकार में लाभ मिलता है।  इसके बीजों का अधिक मात्रा में सेवन हानिकारक प्रभाव छोड़ता है।
18.फाइलैण्थस निरूराई (भू-आंवला), कुल- फाइलेन्थेसी
इसे अंग्रेजी में सीडअण्डर लीफ एवं ग्राइप वीड तथा हिंदी में हजारदाना, भुई आंवला एवं  भू-आंवला के नाम से पुकारा जाता है।  यह वर्षा ऋतु में बीज से उगने  एवं सीधा बढ़ने वाला एक वर्षीय शाकीय  वनस्पति है।  यह पौधा खरीफ की फसलों के साथ-साथ, जंगल, बाग़-बगीचों  एवं खाली पड़ी भूमियों में खरपतवार के रूप में उगता है तथा शीत ऋतु में भी देखा जाता है।   इसमें आंवले की भांति संयुक्त पत्तियां लम्बी सींक पर दो कतारों में लगी रहती है।  प्रत्येक छोटी पत्ती के पीछे तरफ अक्ष से हल्के सफ़ेद रंग के छोटे-छोटे पुष्प एकल रूप में बनते है जो बाद में हरे गोल छोटे फल के रूप में परिवर्तित हो जाते है।  एक पौधे से हजारों की संख्या में फल एवं बीज पैदा होते है. पौधों में पुष्पन एवं फलन अगस्त से अक्टूबर तक होता रहता है।  इसका पूरा पौधा मूत्र वर्धक, मृदुरेचक, पाचक, कटुपौष्टिक तथा अवरोधनाशक होता है।  इसकी जड़ एवं पत्तियों का ताजा  अर्क  पीलिया रोग की कारगर औषधि है।  पेट दर्द, कब्ज, अतिसार, सुजाक,पेचिस आदि रोगों में इसका काढ़ा पीने से लाभ होता है। जड़ का काढ़ा पीलिया एवं ज्वर नाशक, दुग्ध स्त्राव वर्धक एवं महिलाओं में अत्यधिक् मासिक स्त्राव रोकने वाला होता है।  पत्तियों का रस अथवा अर्क सेवन से हिपैटाइटिस बी जैसी घातक यकृत व्याधि के उपचार में सहायता मिलती है।चर्म रोग, अल्सर,घमोरी, खरोंच, जले-कटे भाग पर इसकी पत्तियों का प्रलेप लगाने से आराम मिलता है।  इसके फलों एवं बीजों का सफ़ेद दूध चर्म विकार एवं सूजन में लगाने से लाभ मिलता है।  इसके फल अल्सर, घाव भरने एवं दाद-खाज के उपचार में उपयोगी है।

19.फिजलिस मिनिमा (परपोटी), कुल- सोलानेसी
परपोटी पौधा फोटो बालाजी फार्म, दुर्ग
इस पौधे के अंग्रेजी में ग्राउंड चेरी एवं सन बेरी तथा हिंदी में पोपटी, चिरपोटी, रसभरी  एवं परपोटी के नाम से जाना जाता है।  यह पौधा सिंचित क्षेत्रों में सभी प्रकार की भूमियों में खरपतवार के रूप में उगता है।  इस पौधे में पीले रंग के पुष्प तथा बीज गोल आवरण में ढकें रहते है।  इसके फल गोल खाने में खट्टे-मीठे स्वादिष्ट  होते है।  इसमें अगस्त से जनवरी तक पुष्पन एवं फलन होता है।  इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण होते है।  इसके पौधे एवं फलों  का प्रयोग मूत्र सम्बंधित विकारों के उपचार में किया जाता है।  इसके फलों में एंटीओक्सिडेंट मौजूद होते है।  इसके सेवन से शरीर का वजन घटाने में फायदा होता है।  खांसी, हिचकी, श्वांस रोगों में इसके फल का चूर्ण लाभकारी पाया गया है।  इसके पौधे की पत्तियों का काढ़ा पाचन शक्ति बढ़ने, भूख बढ़ाने, लिवर को स्वस्थ रखने एवं शरीर के अन्दर की सूजन को कम करने में लाभकारी है।  चमड़ी के सफ़ेद दाग पर इसकी पत्तियों का लेप लगाने से फायदा होता है।  रसभरी का अर्क पेट के रोग एवं रक्त शोधन में भी उपयोगी होते है।  पत्तियों के रस को सरसों के तेल में मिलकर कान में डालने से कान दर्द में रहत मिलती है।
20.पेडालियम मुरेक्स (गोखुरू बड़ा),  कुल-पेडालियेसी
इस पौधे को अंग्रेजी में

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