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मंगलवार, 28 जनवरी 2020

देशवासियों की थाली में मिलावट के जहर का कहर

देशवासियों की थाली में  मिलावट के जहर का कहर
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

दूषित जल और वायु से त्रस्त आदमी अब मिलावटी और नकली खाद्य पदार्थो से बेहाल है।  खाद्य-पदार्थ मनुष्य जीवन की सबसे सामान्य एवं अनिवार्य वस्तु है। इस पर ही जीवन की सारी गति निर्भर है। बल, बुद्धि, विद्या, ओज-तेज और शक्ति-सामर्थ्य का मूलभूत पदार्थ हमारा भोजन ही तो है। शुद्ध, पौष्टिक और विश्वस्त आहार से ही मनुष्य स्वस्थ एवं सामर्थ्यवान् बन सकता है । एक औसत शहरी भारतीय खाने-पीने पर सबसे अधिक खर्च करता है।  खाने-पीने में होने वाले व्यय में  सबसे ऊपर अनाज और दालें, फल और सब्जियों के बाद दूध एवं दूध से बने उत्पाद, अंडा, मछली, खाने का तेल आदि आते हैं।  खाद्य पदार्थों में मिलावटखोरी का फलता-फूलता कारोबार मानवीय स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा बनता जा रहा है। आज  चाहे मांसाहार हो या फिर शाकाहार,  ऐसा कोई खाद्य पदार्थ नहीं है, जो विषैले कीटनाशक और मिलावटी पदार्थो से अछूता बच पाया हो।   अधिक धान कमाने की लालसा  के फेर में मिलावटखोर आपकी थाली में जहर परोस रहे हैं । बाजार में उपलब्ध खानपान की अमूमन सभी वस्तुओं मसलन दूध, दही, मक्खन,पनीर, खोवा, घी, तेल, मिठाई, मिर्च-मसाले, दाल, आटा, बेसन, चीनी, नमकीन आदि रोजमर्रा की वस्तुओं  में  मिलावट का खेल बदस्तूर जारी है।
मिलावटी और दूषित खाद्य पदार्थो के सेवन का परिणाम है कि देश में कैंसर, मधुमेह, ह्रदयाघात, अलसर और दमें जैसी बीमारियां बहुत तेजी से पाँव पसार रही है ।  भारत की अमूमन पूरी आबादी मिलावटी खाध्य और पेय पदार्थ खाकर जी रही है।  हमारे बच्चे इन मिलावटी सामानों को खाकर बड़े हो रहे है तो देश की आने वाली युवा पीढ़ी कैसे स्वस्थ और ताकतवर बनेगी, यह एक यक्ष प्रश्न है ?
खाद्य पदार्थों में मिलावट फोटो साभार गूगल 
 
किसे कहते है मिलावट
जब खाध्य पदार्थों में उनसे मिलता-जुलता कोई ऐसा घटिया किस्म का पदार्थ मिला दिया जाये जिससे उसकी गुणवत्ता तथा शुद्धता पर नकारात्मक प्रभाव पड़े तो इसे भोज्य पदार्थों में मिलावट कहते है।  भोज्य पदार्थों में मिलावट प्रमुख रूप से तीन प्रकार से की जाती है। 
1.पहला भोज्य पदार्थों को आकर्षक बनाने तथा रंग उभारने हेतु हानिकारक तत्वों को मिलाया जाता है. उदहारण के लिए मिठाइयों तथा मसालों का रंग उभारने हेतु उनमें रंग मिलाना। 
2. भोज्य पदार्थों में मिलावट के लिए उनमेस सस्ते तथा घाटियाँ किस्म के पदार्थ जैसे भोज्य पदार्थों की घटिया किस्म, कंकड़, रेट आदि मिला दिया जाते है।  जैसे सरसों के तेल में अर्जिमोन खरपतवार के बीजों का तेल मिलाकर उपभोक्ता को ठगना और उसके स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करना। 
3.भोज्य पदार्थों में से अमूल्य पोषक तत्वों को निकाल कर अशुद्ध पदार्थो को मिलाना. जैसे दूध में से वसा निकालकर उसमें डालडा मिलाकर बेचना। 
खाद्यान्न में मिलावट
खाद्यान्नों तथा अन्न जिन्सों में कूड़ा-करकट, ईंट-पत्थर, धूल-मिट्टी एवं अन्य बीज मिलाकर मुख्य अनाज के मूल्य पर ही बेच दिये जाते हैं। चना और अरहर की दाल में खेसारी दाल, मटर दाल मिलाकर बेचा जाता है. ग्राहकों को हानिकारक तत्वों की मिलावट का पता न चले इसलिए बड़े ही सुनियोजित ढंग से चावल और  दालों पर पोलिस की जाती है। अन्न तो अन्न अब गेंहू के आटे और चने के बेसन में भी मिलावट की जाने लगी है।  चने के  बेसन में मक्का और खेसारी दाल (तिवड़ा) का आटा मिलाया जाता है। 
हरी भरी सब्जियां भी खतरनाक : आधुनिक जीवन शैली में बेमौसमी सब्जियों यथा बरसात और गर्मीं में शीत ऋतू की सब्जियां जैसे गोभी, मटर आदि की बाजार में अधिक मांग होती है।  इन सब्जियों को उगाने में अंधाधुंध रसायनों और कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है।  इन्हें हम महंगे दामों में खरीदकर बड़े ही शौक से खाते है।  बाजार में बिकने वाली सब्जियों को खतरनाक रसायन के माध्यम से रंग-बिरंगा कर उपभोक्ताओं को आकर्षित किया जाता है।  मटर, परवल, कुंदरू और करेलों को हरे रंग से हरा भरा बनाकर बेचा जाता है।  फूलगोभी की सफेदी और ताजगी बढ़ाने के लिए उस पर सिल्वर नाइट्रेट डाला जाता है। बाजार में बिकने वाली सुन्दर व् सुडौल लौकी फसल में पादप वृद्धि रसायनों के माध्यम से शीघ्र बड़ा कर बाजार में बेचा जाता है। 
आकर्षक और सुन्दर दिखने वाले फल भी जहरीले: फलों को ताजा दिखाने के लिए लेड और कॉपर सॉल्यूशन लगाया जा रहा है। फलों को चमकाने के लिए और उन्हें लम्बे समय तक रखने के लिए उन पर वैक्स की कोटिंग की जाती है । वैक्स युक्त फलों का सेवन करने से डायरिया और कैंसर जैसी बीमारियां होती हैं।  बाजार में उपलब्ध आम, केला और पपीता जैसे फलों को कैल्शियम कार्बाइड की मदद से पकाया जाता है।  ये सब स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक है। 
दूध और दूध से बने पदार्थ: स्वास्थ्यवर्धक पेय दूध अब मिलावटी तत्वों का नमूना होकर रह गया है जिसके सेवन से लाभ कम हानि ज्यादा है।  आजकल दूध में पानी के अलावा यूरिया, डिटर्जेंट पाउडर, सोडा, ग्लूकोज, सफेद पेंट और रिफ़ाइंड तेल मिलाकर बेचा जा रहा है।यूरिया खाद से दूध बनाकर असली दूध में मिलकर  बड़े दूध सप्लायरों को बेचा जाता है।  दूध में झाग पैदा करने के लिए साबुन बनाने वाला कॉस्टिक सोडा, अरारोट और स्टार्च भी मिलाया जा रहा है। ऐसी मिलावटों से दूध गाढ़ा दिखता है और अधिक दिनों तक खराब नहीं होता है।  देशी घी में  वनस्पति घी (डालडा) और जानवरों की चर्बी तो खोवा में आलू, शकरकंद, स्टार्च मिलाकर बेचा जाता है।  हर दिल अजीज आइसक्रीम में वॉशिग पाउडर, स्कि्मड पाउडर, टिस्स्यु पेपर, नकली खोवा  व सेकरीन मिलाकर बेचा जा रहा है।  पनीर में मैदा और सोयाबीन मिलाकर बेचा जाता है।  एक तरफ चाय पत्ती में रंग हुआ लकड़ी का बुरादा, रंग वाली पत्तिया मिलाकर बेचा जा रहा है तो दूसरी तरफ रेलवे स्टेशनों और रेलगाड़ियों में  मिलावटी चाय पत्ती, सफेद पेंट से तैयार दूध और शक्कर के नाम पर शेकरीन से तैयार चाय बेचीं जा रही है जिसे हम सब 10 रूपये प्रति कप खरीद कर बड़े चाव से पीते आ रहे है। 
भारत की खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआइ) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, देश में बेचे जाने वाले 68.7 फीसदी दूध एवं दूध से बनी चीजों में मिलावट का कारोबार होता है।  हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सरकार को कुछ जरूरी सुझाव दिया था। इस संगठन का आकलन है कि खाद्य पदार्थों, खासकर दुग्ध उत्पादों, में जारी मिलावट पर अगर रोक नहीं लगी, तो 2025 तक भारत के 87 फीसदी लोग कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों के शिकार हो सकते हैं। 
मसालों में मिलावट : लाल मिर्च में ईंट का पाउडर, लकड़ी का बुरादा, डंठल आदि, हल्दी में लैड क्रोमेट व पीली मिट्टी, काली मिर्च में  पपीते के बीज, हींग में  सोप स्टोन व मिट्टी, धनिया में  सूखा गोबर, गंधक मिलाकर बेचा जाता है।  पिसे हरे रंग के धनिये को आकर्षक बनाने के लिए उसमें हरा रंग, धान की भूसी और घोड़े की लीद मिलाई जाती है जिसके सेवन से लीवर,किडनी और तिल्ली रोगग्रस्त हो सकती है। 
खाद्य तेल भी मिलावट के शिकार: खाद्य तेल हमारे भोजन और स्वास्थ्य का अहम् अंग है। सरसों तेल में  आर्जीमोन व मूंगफली तेल में  सस्ता पॉम ऑयल और अन्य अखाद्य तेलों की मिलावट की जाती है  निम्न गुणवत्ता वाले  सस्ते तेलों को नामी ब्रांडों के नाम से आकर्षक विज्ञापन के नाम से बेचा जा रहा है। 
रेडी टु ईट खाद्य सामग्री भी खतरे के निशान से ऊपर: आज कल रेडी टु ईट खाध्य (तुरंत खाने योग्य) सामग्री जैसे मैगी, नूडल्स, पास्ता, ब्रेड, नमकीन आदि से बाजार अटे पड़े है परन्तु इन खाद्य पदार्थो की गुणवत्ता को अनदेखा करते हुए हम सब इनका सेवन कर रहे है।   पिछले वर्ष मैगी में शीशे की मिलावट का मुद्दा बड़े जोर-शोर से उछला था तो हाल ही में  खाने वाली ब्रेड में पोटैशियम ब्रोमेट तथा पोटाशियम आयोडेट की मिलावट की बात सामने आई है। सेंटर फार साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) के एक अध्ययन में 38 ब्रेड और पाँव  के  नमूनों में से 32 नमूने यानि 84 प्रतिशत  में पोटाशियम ब्रोमेट तथा पोटाशियम आयोडेट की मिलावट पाई गई ।आहार विशेषज्ञों के अनुसार ये दोनों केमिकल कार्सिनोजेनिक होते हैं जिससे कैंसर तथा थायराइड की बीमारी हो सकती है।
शीतल पेय: खाद्य पदार्थों के अलावा आजकल बाजार में उपलब्ध भांति-भांति के शीतल पेय यथा कोल्ड ड्रिंक्स, लस्सी, छाछ, फलों का जूस आदि की शुद्धता की कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे है।   कोल्ड ड्रिंक्स में पाए जाने वाले लिंडेन, डीडीटी मैलेथियान  और क्लोरपाइरिफॉस को कैंसर, स्नायु, प्रजनन संबंधी बीमारी और प्रतिरक्षित तंत्र में खराबी के लिए जिम्मेदार माना जाता है । कोल्ड ड्रिंक्स के निर्माण के दौरान इसमें फॉस्फोरिक एसिड डाला जाता है । फॉस्फोरिक एसिड एक ऐसा अम्ल है जो दांतों पर सीधा प्रभाव डालता है । इसमें लोहे तक को गलाने की क्षमता होती है । इसी तरह इनमें मिला इथीलिन ग्लाइकोल रसायन पानी को शून्य डिग्री तक जमने नहीं देता है । बाजार में सुन्दर पेकिंग में उपलब्ध भांति-भाँती के शीतल पेय पदार्थों को मीठा जहर  कहा जा सकता है ।
मांस-मछली भी मिलावटी : मिलावट के इस दौर में लोगों को शुद्ध मछली और मांस भी नसीब नहीं है। जिस प्रकार शवगृह में लाशों/मुर्दों को रखा जाता है, उसी तरीके से अमोनिया और फॉर्मलडिहाइड में मछलियों को रखा जाता है। अनेक  बड़े शहरों में एक सप्ताह पुरानी मछलियों को बर्फ में रखा जाता है। मछलियों को ताजा दिखाने के लिए उन पर तमाम तरह के खतरनाक रसायन छिड़के जाते हैं।  आज कल मछली व्यापारी पानी से भरी टंकी  में  विभिन्न प्रजातियों की जिंदा मछलियां रखते हैं जिनका वजन बढ़ाने के लिए तमाम प्रकार के प्रतिबंधित रसायन का इस्तेमाल करते है, जो हमारे स्वास्थ्य के लिए बेहद  हानिकारक समझे जाते  हैं। परन्तु नासमझ ग्राहक उक्त जिन्दा मछलियों को सामने कटवा कर अपने भोजन का हिस्सा बनाने में शान समझते है। देश के सभी छोटे और बड़े शहरों में बकरे के मांस में बूढ़ी और बीमार बकरियों के मांस की मिलावट की जाती है। मुर्गियों को एंटीबायोटिक खिला कर तेजी से बड़ा और वजनदार बनाकर बेचा जा रहा है। इस प्रकार से देश में शाकाहार नहीं अब मासाहार भी मिलावट के शिकार होते जा रहे है।  
जहर भी मिलावटी : कहते है कि आजकल जहर भी शुद्ध नहीं मिलता है।  बाजार में रंग-बिरंगे आकर्षक पाउचों में बिकने वाले गुटकों, पान मसालों एवं पान के अन्दर पड़ने वाले तत्वों में घाटियाँ सामग्री मिलाकर धडल्ले से बेचा जा रहा है।  यही नहीं अब तो मिलावटखोरों ने शराब में भी मिलावट करना प्रारंभ कर दिया है।  नकली और जहरीली शराब पीकर मरने वालों की खबरे आये दिन अख़बारों में पढने को मिल जाती है।  साइंस पत्रिका के मुताबिक भारत में उत्पादित कुल शराब का दो तिहाई हिस्सा अवैध तरीके से बनाया जाता है।  
औषधियां भी अछूती नहीं: मिलावटी चीजों के खाने से अगर कोई बीमार पड़ जाए तो अब बाजार में दवाइयां भी मिलावटी या नकली बिक रही हैं। च्यवनप्राश में कद्दू और आलू तथा शहद में शक्कर की चासनी मिलाकर बेचा जा रहा है।  औषधियों में मिलावट या नकली दवाइयां यानि यानी आपके बचने के सभी रास्ते बंद होते जा रहे है ।

खाद्य पदार्थो में मिलावट रोकने सख्त कानून 

खाद्य पदार्थों में मिलावाटखोरी को रोकने और उनकी गुणवत्ता को स्तरीय बनाये रखने के लिए केंद्र सरकार ने खाध्य सुरक्षा और मानक अधिनियम-2006 के तहत  खाद्य  पदार्थो के विज्ञान आधारित मानक निर्धारित करने एवं निर्माताओं को नियंत्रित  करने के लिए भारतीय खाध्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण का गठन किया जिसे 1 अगस्त,2011 को केंद्र सरकार के खाध्य सुरक्षा और मानक विनिमय (पैकेजिंग एवं लेबलिंग) के तहत अधिसूचित किया गया।  यह देश के सभी राज्‍यों, ज़िला एवं ग्राम पंचायत स्‍तर पर खाद्य पदार्थों के उत्पादन और बिक्री के तय मानकों को बनाए रखने में सहयोग करता है।  इस कानून के तहत मिलावटी, घटिया, नकली माल की बिक्री, भ्रामक विज्ञापन के मामले में सम्बंधित प्राधिकारी भारी भरकम  जुर्माना लगा सकता है।  मिलावटी खाध्य पदार्थो के सेवन से यदि किसी की मौत हो जाती है तो अदालत उस व्यक्ति को कुछ वर्षो से लेकर उम्रकैद और भरी जुर्माने से दण्डित कर सकते है।  खाध्य पदार्थो के छोटे निर्माता, रिटेलर,हॉकर, वेंडर, खाध्य पदार्थो के छोटे व्यापारी जिनका सालाना टर्नओवर 12 लाख रूपये से कम है, उन्हें पंजीकरण कराना होगा और  12 लाख रूपये से अधिक के टर्नओवर वाले व्यापारियों को खाध्य लाइसेंस लेना होगा।   बिना पंजीकरण और  लायसेंस के खाद्य कारोबार करते पाये जाने पर कारावास एवं  भारी जुर्माना हो सकता है। कानून में कड़े प्रावधान होने के बावजूद  देश में लागू खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम-2006 का कड़ाई से अनुपालन न होने की वजह से खाद्य पदार्थों में अपमिश्रण/मिलावट का खेल बदस्तूर जारी है जिसके कारण बहुसंख्यक आबादी विभिन्न बिमारियों का शिकार होती जा रही है। 

शुद्ध के लिए युद्ध : सचेत ग्राहक तंदुरस्त भारत

मिलावटी खाध्य वस्तुएं तैयार करने से लेकर बाजार तक पहुचाने और बेचने जैसी अनैतिक और आपराधिक गतिविधियों का देश में समूचा जाल कार्यरत है जो जीवन और स्वास्थ्य के हमारे बुनियादी अधिकारों के साथ खिलवाड़ में लगा है।  इनसे बचने के लिए हम सबको और आम उपभोक्ता को जागरूक होकर शुद्ध के लिए युद्ध का शंखनाद करना पड़ेगा। केंद्र सरकार द्वारा देश में लागू खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम-2006 के बारे में आम नागरिक/उपभोक्ताओं को जागरूक करने की आवश्यकता है।  बाजार या दुकान से सामान खरीदने  से पहले इस बात की पड़ताल अवश्य करें कि क्या वह सामग्री  साफ है ? क्या वहां खाद्य निरीक्षक जांच करते हैं ? क्या सामग्री की पैकेजिंग सही है? सामग्री निर्माण की तिथि और स्थान अंकित है या नहीं ? क्या सामान पर इस्तेमाल करने की तारीख भी लिखी है? दूकानदार के पास खाध्य सामग्री बेचने का लाइसेंस है या नहीं । हमेशा सस्ता नहीं अच्छा खरीदें।   डिब्बा बंद या पैक्ड और इस्तेमाल करने की अंतिम तारीख लगी हुई   ब्रांडेड वस्तुएं ही खरीदें। आइएसआइ मार्क देखकर ही सामान खरीदें, जो भारतीय मानक ब्यूरो  क्वालिटी व विश्वसनीयता के आधार पर कंपनी को देता है। यह मार्क फलों, सब्जियों, मसाले आदि पर दिया जाता है। एग मार्क लगी हुई चीजें गुणवत्ता व शुद्धता का प्रतीक माना जाता हैं । यह प्रतीक खासतौर पर घी, तेल और मसालों की पेकिंग पर अंकित होता है। किसी ब्रांडेड आइटम की गुणवत्ता या शुद्धता पर शक होने पर उसके पैकेट पर छपे कंपनी के फोन नंबर या पते पर संपर्क किया जाना चाहिए या खाद्य विभाग/पुलिस थाने में  शिकायत दर्ज करना चाहिए । खरीदे गए सामान की हमेशा रसीद जरूर लेना चाहिए।
कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 

शनिवार, 25 जनवरी 2020

ग्रीष्मकाल में करें मेंथा की रोपाई, होगी भरपूर कमाई

ग्रीष्मकाल में करें मेंथा की रोपाईहोगी भरपूर कमाई

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
महासमुंद (छत्तीसगढ़)
धान-गेंहूं की खेती के बाद ग्रीष्मकाल में नकदी फसल के रूप में मेंथा (मिंट) किसानों की आर्थिक समृद्धि का आधार बनती जा रही है। मेन्थॉ का वानस्पतिक नाम मेंथा आर्वेनसिस तथा साधारण नाम जापानी पुदीना भी है। हमारे देश में मेंथालमिंट यानि जापानी पौदीना और पिपरमिंट की खेती अधिक प्रचलन में है।  भारत, इंडोनेशिया और पश्चिमी अफ्रीका में बड़े पैमाने पर पुदीने का उत्पादन किया जाता है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक देश है और दुनियां के कुल उत्पादन में भारत का लगभग 80 फीसदी योगदान है । मेन्थॉल मिंट पर आधारित उत्पादों की विश्व भर में बढ़ती हुई मांग को देखते हुए भविष्य में मेन्थाल की खेती की बेहतर संभावनाएं प्रतीत होती है। भारत के धान गेंहू फसल प्रणाली वाले क्षेत्रों में सिंचाई सुविधा होने पर ग्रीष्मकाल में धान के बदले मेंथा की खेती आर्थिक दृष्टी से अधिक लाभदायक होने के साथ मेंथा की खेती कम पानी और कम खर्च में आसानी से की जा सकती है। मेंथाल मिंट का प्रमुख रासायनिक घटक मेन्थॉल है। इससे प्राप्त तेल का उपयोग सुगन्ध के लिए, पेनबाम, कफ सीरप, माउथवाश में होता है।  इसके अलावा  मसालों एवं सौंदर्य प्रसाधनों में भी इसकी काफी मांग रहती है।  
स्वाद, सौन्दर्य और सुगंध का संगम है मिंट
मेंथाल मिंट की फसल फोटो साभार गूगल 
मेन्थाल (मिंट) अर्थात पुदीने को गर्मी और बरसात की संजीवनी बूटी कहा गया है।  स्वाद, सौन्दर्य और सुगंध का ऐसा संगम बहुत कम पौधों में देखने को मिलता है। मेंथा की पत्तियाँ औषधीय और सौंदर्योपयोगी गुणों से भरपूर है। इसे भोजन में रायता, चटनी तथा अन्य विविध रूपों में उपयोग में लाया जाता है। मिन्ट, मैन्थोल का प्राथमिक स्रोत है। ताजी पत्ती में 0.4-0.6 % तेल होता है। तेल का मुख्य घटक मेन्थोल (65-70%), मेन्थोन (7-10 %) तथा मेन्थाइल एसीटेट (12-15 %) तथा टरपीन (पिपीन, लिकोनीन तथा कम्फीन) है। तेल का मेन्थोल प्रतिशत, वातावरण के प्रकार पर भी निर्भर करता है। मेंथा में विटामिन ए,बी,सी,डी और ई के अतिरिक्त लोहा, फास्फोरस और कैल्शियम भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। मेन्थोल का उपयोग बड़ी मात्रा में दवाईयों, सौदर्य प्रसाधनों,  कनफेक्शनरी, पेय पदार्थो, सिगरेट, पान मसाला आदि में सुगंध के लिये किया जाता है। इसके अलावा इसका उड़नशील तेल पेट की शिकायतों में प्रयोग की जाने वाली दवाइयों, सिरदर्द, गठिया इत्यादि के मल्हमों तथा खाँसी की गोलियों, इनहेलरों, तथा मुखशोधकों में काम आता है । मिंट का इस्तेमाल चूइंगम, टूथपेस्ट आदि वस्तुओं में किया  जाता है।  ग्रीष्मऋतु का लोकप्रिय पेय  जलजीरे का भी यह प्रमुख तत्त्व होता है। गन्ने के रस का जायका बढाने में भी मिंट का प्रयोग किया जाता है।

                            भारत में मेंथा की खेती का उज्जवल भविष्य 

मेन्थाल (मिंट) की  खेती उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में बहुतायत में की जा रही हैं। मिंट की बहु-उपयोगिता एवं बाजार में बढती मांग को देखते हुए अब बिहारमध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और ओडीशा जैसे राज्यों में  भी मेंथा की खेती के प्रति किसानों में उत्साह देखा जा रहा है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक दुनिया में प्रति वर्ष करीब 40 हजार  टन मिंट  तेल की मांग है,जबकि भारत में महज 25 हजार  टन का उत्पादन हो रहा हैजिसका सीधा मतलब है कि आगे मेंथा की खेती की बहुत संभावनाएं हैं। धान-गेंहूँ की परंपरागत खाद्यान्न फसलों के बाद वसंत-ग्रीष्म में मेंथा की खेती कर कम समय में  आकर्षक मुनाफा कम सकते है। मेंथा (मिंट) की खेती से अधिकतम उत्पादन और लाभ अर्जित करने के लिए किसान भाइयों को अग्र-प्रस्तुत सस्य तकनीक का अनुशरण करना चाहिए।  
उपयुक्त जलवायु  एवं बुवाई का समय
 मिंट  की खेती उष्ण तथा उपोषण जलवायु अर्थात हल्के जाड़े एवं गर्म ग्रीष्म ऋतु वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है।  फसल की अच्छी बढ़वार के लिए दिन का तापमान 30 डिग्री सेल्सियस और रात का तापमान 18 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए अधिक ठंड वाले दिनों को छोड़कर मिंट की बुवाई/रोपाई कभी भी  की जा सकती है, परन्तु शरद ऋतु समाप्त होने एवं ग्रीष्म ऋतु का प्रारम्भ काल सर्वाधिक उपयुक्त समय रहता है।  उत्तरी एवं मध्य भारत में मध्य जनवरी से मध्य फरवरी तक का समय मेंथालमिंट  की बुआई के लिए सर्वोत्तम पाया गया है। फरवरी से पहले और मार्च के बाद बुवाई करने पर भूस्तारियों (सकर्स) के अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। पिपरमिंट की बुवाई/रोपाई के लिए दिसंबर-जनवरी का समय सर्वश्रेष्ठ रहता है।   रबी फसलों की कटाई पश्चात 30 मार्च तक मेंथालमिंट की बुवाई की जा सकती है परन्तु  बेहतर उत्पादन हेतु रबी फसलो की कटाई के पूर्व मिंट की पौध तैयार कर रोपाई करना अधिक श्रेयस्कर होता है
उपयुक्त भूमि एवं खेत की तैयारी
मेंथा की खेत, उत्तम जलनिकास, बेहतर जल धारण क्षमता  तथा प्रचुर जीवांश पदार्थ वाली भूमियों में सफलता पूर्वक की जा सकती है।  अच्छी फसल के लिए बलुई दोमट भूमि जिसका पी एच मान 6-7.5 हो, सर्वोत्तम होती है । भारी और चिकनी मिटटी में पौधों के विकास में कठिनाइयाँ होती हैमिंट  की  बुवाई करने से पूर्व खेत को अच्छी प्रकार तैयार करना आवश्यक होता है।  सर्प्रथम  मिट्टी पलटने वाले हल या हैरो आड़ी-तिरछी जुताई करके मिट्टी को भुरभुरा कर लिया जाता है। इसके  बाद 10  से 12 टन  प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी हुई गोबर खाद या कंपोस्ट की खाद खेत में  फैलाकर कल्टीवेटर चलायें तथा पाटा लगाकर  खेत को समतल कर लेना चाहिए । खेत तैयार होने के उपरांत खेत को सुविधानुसार  छोटी-छोटी क्यारियों में विभाजित कर लेना चाहिए, जिससे  सिंचाई-गुड़ाई  के कार्मेंय सुगमता से संपन्न किये जा सकें।  इससे सकर्स की मात्रा कम लगती है और पौधा रोपण पर खर्च में कटौती होती है
मेन्था प्रजातियाँ एवं  उन्नत किस्में
मेंथा सुगन्धित पौधों का एक समूह है जिसमें इसकी कई प्रजातिया सम्मलित है जिनमें जापानी पौदीना यानि मेंथॉलमिंट (मेंथा अरवेंसिस), पिपरमिंट (मेंथा पिपरिटा), स्पियरमिंट (मेंथा स्पीकाटा) एवं बरगामॉट मिंट (मेंथा सिट्राटा) प्रमुख है।  अच्छी एवं गुणवत्तायुक्त पैदवार प्राप्त करने के लिए मेंथा की उन्नत किस्मों का चुनाव करें। मेंथॉलमिंट की उन्नत किस्मों में शिवालिक,हिमालय, कोसी,कुशल एवं सक्षम, पिपरमिंट की कुकरैल-तुषार, सिम-मधुरस एवं सिन-इंडस, स्पियरमिंट की अर्का,एम.ए.एस.5, नीरा, नीरकालका तथा बरगामॉट मिंट की किरण प्रमुख है . ये  किस्में  तेजी से बढ़ती है एवं इनका उत्पादन भी देशी  किस्मों से लगभग दोगुना होता है।  सीमैप, लखनऊ द्वारा विकसित  उन्नत किस्मों से न केवल कम समय में तेल का अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है बल्कि उच्च गुणवत्ता तथ उद्योग की मांग के अनुरूप मूल्यवान सुगंधित तेल प्राप्त होता है।
मिंट का प्रसार-प्रवर्धन
मेंथा का प्रवर्धन आमतौर पर भुस्तारियों (जड़ भाग) द्वारा किया जाता है, जिसे सकर्स कहते हैं।  पहले से लगाई गई फसल को उखाड़कर उसके निचले हिस्से से सकर्स प्राप्त करना चाहिए  भूस्तारी (सकर्स) कीट-रोग रहित स्वस्थ फसल से लेना चाहिए सकर्स सफेद, रसीले एवं मांसल अच्छे माने जाते है।  बुवाई हेतु 5 से 7 सेंटीमीटर लम्बाई के  सकर्स तैयार करें।  प्रत्येक सकर्स के टूकड़े में कम से कम एक आंख (नोड) होनी चाहिए
पौध रोपण की विधि
मिंट की बुआई मुख्यतः दो  विधियों यथा  नर्सरी में पौध तैयार कर रोपण विधि  और मुख्य खेत में सीधे सकर्स द्वारा की जाती हैं :
1.नर्सरी द्वारा रोपाई :  रबी फसलों की कटाई के उपरान्त मेंथा की खेती के लिए यह सर्वोत्तम विधि है।  इसमें सबसे पहले 5 X 4 मीटर  की 10  क्यारियाँ (कुल 200 वर्ग मीटर क्षेत्र) तैयार करते हैं।  प्रत्येक क्यारी में 50 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद डालकर अच्छी तरह जोतकर मिट्टी भुरभुरी कर लेना चाहिए।  इन क्यारियों में धान की नर्सरी  की भांति पानी से भर मिंट  की कटी हुई सकर्स को कतारों में लगा दिया जाता है।  इस विधि से बुवाई करने पर लगभग 100-125  कि.ग्रा स्वस्थ सकर्स की आवश्यकता होती है।  सकर्स को लगाने के पूर्व कार्बेन्डाजिम के 5 लीटर घोल प्रति 40 किग्रा सकर्स की दर से उपचरित कर बुवाई  की जाती है।  नर्सरी में 2-3  दिन के अंतराल पर हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए।  बुवाई के 10-15 दिन बाद सकर्स अंकुरित होने लगते है।  बुवाई के 40-45 दिनों बाद  पौधों में 4-5 पत्तियां आने पर उन्हें नर्सरी से जड़ सहित उखाड़कर मुख्य खेत में 20-25 से.मी. की दूरी पर रोपाई कर देना चाहिए।  रोपाई से पूर्व रात में खेत में पानी छोड़ देना चाहिए ताकि मिट्टी अच्छी प्रकार से गीली हो जाये।  इससे पौधों को आसानी से रोपा जा सकता है और पौधे भी अच्छे से स्थापित हो जाते है।  इस विधि में सकर्स की मात्रा कम लगती है तथा फसल में खरपतवार प्रकोप कम होता है।  इसके अलावा पौध रोपण में लागत कम आती है। 
2.मुख्य खेत में सीधे बुआई: इस विधि में मुख्य खेत/क्यारियों  में सिंचाई कर सकर्स की सीधे कतारों में 60 X 45 सेंटीमीटर की दूरी पर  रोपाई कर दी जाती है।  इस विधि से बुवाई करने पर 350-500 कि.ग्रा। सकर्स प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। इस विधि में खरपतवार प्रकोप अधिक होता है  तथा सकर्स का अंकुरण कम होने के कारण पौधों की उपयुक्त संख्या स्थापित नहीं हो पाती है जिससे उत्पादन कम प्राप्त होता है।  आलू की भाँती मेंड़ (क्यारी) बनाकर मेंथा की खेती से पानी कम लगता है और उपज भी अधिक प्राप्त होती है। 
पोषक तत्व प्रबंधन
मेन्था की फसल घनी पत्तियों से युक्त होने के कारण अधिक मात्रा में पोषक तत्वों का अवशोषण करती है। वानस्पतिक भाग (पत्तियां) से मेंथाल तेल प्राप्त होता है ।अतः बेहतर वानस्पतिक वृद्धि के लिए फसल को संतुलित मात्रा में पोषक तत्वों की खुराक देना आवश्यक है। मृदा परिक्षण के आधार पर पोषक तत्वों की सही मात्रा का निर्धारण करना चाहिए। सामान्यतौर पर बुवाई से पहले खेत में 50 किलो नाइट्रोजन, 50-60  किलो फास्फेट, 40 किलो पोटाश, 200 किलो जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में  अच्छी तरह मिला देना चाहिए । इसके अलावा 20-25  किग्रा नाइट्रोजन बुवाई के 35-40 दिन बाद  तथा इतनी ही मात्रा बुवाई के 75-80 दिन बाद खड़ी फसल की नालियों में देकर सिंचाई करना चाहिए।  इसके बाद मेंथा की प्रथम और दूसरी कटाई के बाद 15 किग्रा नाइट्रोजन देकर सिंचाई करना चाहिए। 
सिंचाई प्रबंधन
मेन्था की फसल घनी एवं रसीली पत्तियों वाली होती है।  अतः फसल की  अच्छी बढ़त तथा बेहतर उत्पादन के लिए पर्याप्त सिंचाई की जरूरत होती है। इसके लिए खेत में हमेशा नमीं बनाए रखने की आवश्यकता होती है।  बुवाई/रोपाई के बाद एक सिंचाई आवश्यक है।  इसके बाद मिट्टी एवं जलवायु के अनुसार 15-20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करना चाहिए।  अप्रैल से जून तक फसल में 8-10 दिन के अंतराल पर एवं कटाई के बाद  सिंचाई करना चाहिए।  स्प्रिंकलर  सिंचाई पद्धति द्वारा सिंचाई करने से समय के साथ-साथ पानी की भी बचत होती है।  फसल की प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई अवश्य करें।  खेतों में जल निकासी की भी उचित व्यवस्था करना आवश्यक होता है। 
निंदाई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
खरपतवार पुदीना की बढ़त को तो रोकते ही हैं साथ ही पुदीने के तेल में अनैच्छिक गंध  उत्पन्न कर उसकी गुणवत्ता को भी प्रभावित करते हैं, इसलिए खरपतवार की रोकथाम आवश्यक है. मेंथा की जड़ें अधिक गहराई तक जाने के कारण इनको वायु संचार की अधिक आवश्यकता पड़ती है।   फसल में बुवाई/रोपाई के 25-30 दिनों बाद निराई गुड़ाई करने से खरपतवारों की रोकथाम के साथ-साथ पौधों की बढ़वार अच्छी होती है।  दूसरी कटाई के एक महीना बाद भी एक निराई-गुड़ाई करने से फसल बढ़वार  तेजी से होती है। 
फसल की कटाई
 मेंथा एकवर्षीय फसल है तथा एक वर्ष के दौरान तीन कटाईयाँ ली जा सकती है। मेंथा से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए इसके कटाई सही समय पर करना आवश्यक है।  उचित समय पर कटाई न करने से कम उत्पादन के साथ-साथ तेल की गुणवत्ता में भी गिरावट आ जाती है।  फसल में फूल आने की अवस्था कटाई का उचित समय होता है।  देर से कटाई करने पर पत्तियां गिर जाती है जिससे तेल का उत्पादन स्वतः कम आता है। फसल की पहली कटाई  बुवाई के 90 से 110  दिन  बाद  अथवा 60 से 70 प्रतिशत पौधों पर हल्के सफेद व जामुनी रंग के फूल दिखाई देने पर करना चाहिए।  दूसरी कटाई पहली कटाई  के लगभग 70 से 80 दिन  के अंतर पर करें. तीसरी कटाई दूसरी कटाई के 70 से 80 दिन बाद करना चाहिए।  मिंट  फसल की कटाई चमकीली धूप में दोपहर के समय तेज धारदार हसिये या दराती से करना चाहिए।  फसल कटाई के बाद कम से कम 5-6 घंटे तक शाक खेत में हीं पड़े रहने दें, ताकि फसल की अतिरिक्त नमीं सूख जाये।  इसके बाद फसल को एक हची प्रकार से पक्के फर्श या तिरपाल पर फैलाकर छाँव में रखना चाहिए ताकि हवा लगती रहे अन्यथा फसल की गुणवत्ता खराब होने लगती है।  कटाई के 2-3 दिन के अन्दर  आसवन करके तेल निकाल लेना चाहिए। 
ऐसे निकलेगा मेंथा तेल 
             मेंथा की कटाई एवं पेराई मई से लेकर जून जुलाई तक की जाती है।  मेंथा की पत्तियों में तेल पाया जाता है जिसे पेराई सयंत्र (आसवन इकाई) द्वारा निकाला जाता है।  आसवन इकाई में तीन प्रमुख भाग होते है, उबालने वाली बड़ी टंकी, जिसमे मेंथा और पानी भरकर नीचे से आग जलाई जाती है।  दूसरा कंडेंसर, जिसमे भाप बनकर पानी और तेल पहुँचता है और तीसरा सेपरेटर, जहाँ पानी और तेल अलग-अलग हो जाते है।  यह आसवन इकाई स्टेनलेस स्टील की होना चाहिए. बाजार में ये 50 हजार से लेकर 2 लाख में मिल जाती है। सीमैप, लखनऊ द्वारा विकसित आधुनिक पेराई सयंत्र द्वारा 10-20 प्रतिशत तेल निकाला जा सकता है. फसल से अधिकतम तेल प्राप्त करने के लिए उसकी कटाई 90 दिन से पहले नहीं करना चाहिए. पेराई से पहले टंकी को अच्छी प्रकार से गर्म पानी से साफ़ कर लेना चाहिए।  फसल कटाई के एक दिन सुखाने के बाद पेराई करें।  फसल को फैला कर रखे , ढेर बनाकर कदाचित न रखें. कंडेसर का पानी जल्दी-जल्दी बदलते रहना चाहिए।   
उपज एवं आमदनी
मेंथा तेल की मात्रा भूमि, उगाई गई प्रजाति, उत्पादन तकनीकी, फसल की वृद्धि, फसल की कटाई का समय, प्रयुक्त किया गया आसवन संयंत्र आदि पर निर्भर करती है।  सामान्यतौर  पर उपरोक्त उन्नत तकनीक अपनाने पर  एक हेक्लटेयर में लगभग  25-30 टन शाक उपज प्राप्त होती है जिससे 150-200 लीटर  तेल  प्राप्त हो सकता है।  तेल प्राप्ति के बाद उसे किसी स्टेनलेस स्टील के कंटेनर में भर कर अँधेरे कमरे में रख देने से यह तेल दो वर्ष तक खराब नहीं होता है।  तेल का अच्छा भाव मिलने पर बेच देना चाहिए। बाजार में मेंथा तेल उत्पादन एवं मांग के अनुसार 1200 से 1800 रूपये प्रति किलो की दर से बिकता है।  
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शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

वसंत ऋतु में सूरजमुखी उगायें स्वास्थ्य और समृद्धि घर लायें


डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

देश में खाद्य तेलों के कम उत्पादन के कारण बढती आबादी की पूर्ति के लिए प्रति वर्ष विदेशों से भारी  मात्रा में खाध्य तेल आयात करना पड़ रहा है। सूरजमुखी  (हेलिएन्थस एनस एक शीघ्र तैयार होने वाली, प्रकाश एवं ताप के प्रति असंवेदनशील और  सूखा को सहने वाली महत्वपूर्ण तिलहनी फसल है । सूरजमुखी की खेती वर्ष भर यानी खरीफ, रबी और ग्रीष्म ऋतु में की जा सकती है।  खरीफ में फसल पर अनेक प्रकार कीट रोगों का प्रकोप होता है तथा पर्याप्त प्रकाश न मिलने के कारण फूल छोटे होते है और दानों का विकास कम होता है जिससे उपज कम मिलती है। ग्रीष्मकाल में उत्तम जलवायु के साथ-साथ खाद-उर्वरक एवं जल उपयोग दक्षता बेहतर होने की वजह से अधिक उत्पादन प्राप्त होता है। कम लागत और कम समय (तीन माह) में तैयार होने वाली इस फसल से किसान बेहतर मुनाफा अर्जित कर सकते है। सिंचाई संपन्न धान-गेंहूँ फसलों के बाद सूरजमुखी की खेती से किसान भाई अपनी आमदनी बढ़ा सकते है।  सूरजमुखी की खेती न केवल आर्थिक रूप से फायदेमंद है अपितु इसके तेल और बीजों का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी माना जाता है।
सूरजमुखी बीज: पौष्टिक गुणों का खजाना
सूरजमुखी की लहलहाती फसल फोटो साभार गूगल 
सूरजमुखी देखने में जितना खुबसूरत एवं आकर्षक होता है, स्वास्थ्य के लिए इसका बीज और तेल कहीं ज्यादा लाभदायक भी होता है. इसके फूलों व बीजों में कई औषधीय गुण छिपे होते हैं। इसके बीजों में 40-45  प्रतिशत तेल पाया जाता है। इसका तेल हल्के रंग, अच्छे स्वाद और इसमें उच्च मात्रा में लिनोलिक एसिड होता है, जो कि दिल के मरीज़ों के लिए अच्छा होता है इसके अलावा सूरजमुखी के तेल का सेवन करने से लीवर सही तरीके से काम करता है और ऑस्टियोपरोसिस जैसी हड्डियों की बीमारी भी नहीं होती है सूरजमुखी का तेल बालों और पाचन तंत्र के लिए भी लाभकारी होता है इसके तेल से वनस्पति घी भी बनाया जाता है. सूर्यमुखी के बीज पौष्टिक और खाने में स्वादिष्ट होते है. सौ ग्राम सूरजमुखी के बीज में वसा 41 ग्राम, प्रोटीन 21 ग्राम, रेशा 9  ग्राम,शुगर 2.6 ग्राम, ऊर्जा 584 कैलोरी, पोटैशियम 645 मि.ग्रा.,कॉपर 1.8 मि.ग्रा., ज़िंक 5 मि.ग्रा.,मैंगनीज़ 1.95 मि.ग्रा., फॉस्फोरस 660 मि.ग्रा., सोडियम 9 मि.ग्रा., पैंटोंथेनिक एसिड 1.13 मिलीग्राम, पायरिडाक्साइन 1.345 मि.ग्रा., नियासिन 8.335 मि.ग्रा. के अलावा विटामिन ए, विटामिन बी-6, विटामिन सी,सेलेनियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम और आयरन प्रचुर मात्रा में पाए जाते है, जो हमारे शरीर को स्वस्थ रखने में सहायक होते है। इसके बीजों के सेवन से शरीर में कोलेस्ट्राल की मात्रा घटती है, ह्रदय रोग का खतरा कम होता है तथा त्वचा में निखार आता है। सूरजमुखी के बीज को कच्चा या भूनकर स्नैक्स के रूप में खाया जा सकता है अथवा इन्हें सलाद, पास्ता, पोहा या सब्जी में स्वाद और पोष्टिकता बढ़ाने के लिए ऊपर से डालकर भी खाया जा सकता है। इसका तना जलाने के काम आता है। इसकी खली पशुओं एवं  मुर्गियों के लिए आदर्श भोजन है।

                                  ग्रीष्मकाल में सूरजमुखी की खेती ऐसे करें 

उपयुक्त मृदा एवं खेत की तैयारी  
            सूरजमुखी की खेती सभी प्रकार की मृदाओं  में की जा सकती है। किन्तु उचित जल निकास व उदासीन अभिक्रिया वाली (पीएच मान 6.5 -8.0) दोमट से भारी मृदाएं अच्छी समझी जाती है । मृदा की जलधारण क्षमता एवं कार्बनिक पदार्थ की मात्रा अच्छी होनी चाहिए । सामान्यतः खरीफ में असिंचित एवं रबी - जायद में इसे सिंचित क्षेत्रों में उगाया जाता है । खेत में पर्याप्त नमी न होने की दशा में पलेवा (हल्की सिंचाई) देकर खेत की  जुताई करनी चाहियें। इसके बाद  देशी हल से 2 से 3 बार जुताई कर  मिट्टी भुरभुरी बना लेनी चाहिए। इसके बाद खेत में पाटा चलाकर समतल कर बुवाई करना चाहिए ।
न्नत प्रजातियों के बीज का चयन
सूरजमुखी की अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्मों अथवा संकर प्रजातियों का बीज विश्वशनीय प्रतिष्ठानों से क्रय करना चाहिए। अधिक उपज के लिए संकर किस्मों के बीज का प्रयोग करें परन्तु इन प्रजातियों से पैदा किये गए बीज की पुनः बुवाई न करें अर्थात अगले वर्ष संकर प्रजाति का न्य बीज ही प्रयोग करें. सूरजमुखी की उन्नत किस्मों एवं संकर प्रजातियों की विशेषताएं अग्र सारणी में प्रस्तुत है:  
उन्नत किस्म एवं संकर प्रजातियों की विशेषताएं
प्रजाति
उपज क्षमता (क्विंटल/हेक्टेयर)
अवधि (दिनों में)
दानों में तेल (%)
बी.एस.एच.-1
10-15
 90-95
40-41 
एम.एस.एच. -17
15-18 
 90-100 
42-44 
एम.एस.एफ.एस. -8   
 15-18 
 90-100
42-44 
एस.एच.एफ.एच.-1   
15-20 
 90-95 
40-42 
एम.एस.एफ.एच.-4   
 20-30 
 90-95 
42-44 
ज्वालामुखी 
30-35 
 85-90 
42-44 
.सी. 68415  
10-12  
 110-115 
42-46 
मॉडर्न
12-14
75-80
42-44
सूर्या
15-16
80-100
42-44
बोआई का समय
            सूरजमुखी की बंसलकालीन फसल को बोने का उचित समय फरवरी का प्रथम से द्वितीय पखवाड़ा है. यह फसल मई के अंतिम या जून के प्रथम सप्ताह तक तैयार हो जाती है । देर से बोआई करने पर फसल देर से पकती है और मानसून की बारिस शुरु हो जाती है जिससे फसल कटाव एवं गड़ाई में समस्या हो सकती है।
बीज एवं बुवाई
सामान्य किस्मों की बुवाई हेतु 12-15 किग्रा बीज और संकर प्रजातियों के लिए 5-6 किग्रा प्रति हेक्टेयर बीज पर्याप्त होता है। बुवाई से पूर्व बीज को रात में पानी में भिंगोकर रखने के उपरान्त सुबह छाया में सुखाकर थिरम या बाविस्टीन 3 ग्राम प्रति किलो बीज दर से उपचारित कर बुवाई करना चाहिए। बोआई सदैव लाइनों में करें, संकुल एवं बौनी प्रजातियों को 45 से.मी. तथा संकर एवं लम्बी प्रजातियों को 60 से.मी. दूरी पर बनी कतारों में बोयें तथा पौधे से पौधे की दूरी 20-30 से.मी. रखें । बीज की गहराई 3-4 सेमी रखें । बोआई के 15-20 दिन बाद विरलीकरण कर पौधे से पौधे की दूरी 20-30 से.मी. स्थापित  कर लेना चाहिए ।
संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन 
            सूरजमुखी की सफल खेती हेतु मृदा परिक्षण के आधार पर उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए. इसकी खेती में 3 से 4 टन गोबर की कम्पोस्ट खाद प्रति हेक्टर का प्रयोग लाभप्रद पाया गया है। सामान्यतः फसल में  80-100 कि.ग्रा. नत्रजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस एवं 40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर  पर्याप्त रहता है । नत्रजन की    आधी से दो तिहाई मात्रा बोते समय तथा शेष 25-30 दिन बाद या पहली सिंचाई के समय खड़ी फसल में  कूंड़ों में प्रयोग करना चाहिए । फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय दें ।  फास्फोरस को सिनगले सुपर फोस्फेट के रुप में देने से फसल के लिए आवश्यक सल्फर तत्व की पूर्ति हो जाती जाती है। सल्फरधारी उर्वरकों के प्रयोग से सूरजमुखी के बीज में तेल प्रतिशत में वृद्धि होती है। रश्मि पुश्प्कों के खिलते समय मुंडकों पर २% बोरेक्स एवं 1% जिंक सल्फेट के छिडकाव से बीजों के भराव, उपज एवं तेल प्रतिशत में वृद्धि होती है।
समय पर सिंचाई जरुरी  
            सूरजमुखी की अच्छी फसल के लिए हलकी मृदाओं में  4 से 5 तथा भारी भूमि में 3 से 4 सिंचाइयां की आवश्यकता होती है आवश्यकतानुसार पहली सिंचाई बोने के 20-25 दिन बाद आवश्यक है । तदोपरान्त समान्यतया 15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की आवश्कता पड़ती है । वानस्पतिक, कली, फूल एवं दाने पड़ते समय खेत में नमी की कमी होने पर सिंचाई अवश्य करनी चाहिए । फूल विकसित होने की अवस्था में सिंचाई सावधानी पूर्वक करना चाहिए जिससे पौधे गिरने न पायें.
अंतर्कर्षण एवं खरपतवार नियंत्रण
            पौधों की समुचित बढ़वार एवं खरपतवार नियंत्रण हेतु बोने के 15-20 दिन बाद पहली निराई-गुड़ाई करें तथा दूसरी गुड़ाई के समय पौधों पर मिट्टी भी चढ़ा दें, जिससे पौधे तेज हवा के कारण गिरने नहीं पाते।  खरपतवार नियंत्रण हेतु पेन्डिमैथेलिन 30 इसी की 3.3 लीटर मात्रा प्रति हेक्टर के हिसाब से 800 से 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के बाद 1 से 2 दिन के अन्दर छिड़काव करना चाहिए।
परसेचन क्रिया :  सूर्यमुखी में परागण (निषेचन) की क्रिया मुख्यतः भौरों एवं मधुमक्खियों  के माध्यम से संपन्न होती है।  इसमें बीजों के विकास के लिए परसेचन क्रिया अत्यंत आवश्यक है। परागण हेतु पर्याप्त संख्या में भौरें एवं मधुमक्खियां नहीं आने पर पुष्प मुंडको में बीज का समुचित विकास नहीं हो पाता है । इसके निदान के लिये  अच्छी तरह फूल खिल जाने पर हाथ में दस्ताने पहनकर या किसी मुलायम रोयेदार कपड़े को लेकर सूरजमुखी के मुंडको पर चारों ओर फेरना चाहिए। पहले फूल के किनारे वाले भाग पर, फिर बीच के भाग पर यह  क्रिया प्रातःकाल 8  बजे तक संपन्न   कर लेना चाहिए। पुष्प मुंडको में हाथ से कपड़ा फेरने का कार्य 15 से 20 प्रतिशत फूल आने पर लगभग 15 दिन तक करना चाहिए ।
कीट-रोगों से फसल सुरक्षा
            दीमक व कटुवा कीट बीज अंकुरण एवं पौध विकास के समय फसल को नुकसान करते हैं । इनकी रोकथाम के लिए बुवाई के पहले क्लोरपायरीफ़ॉस 6 लीटर मात्रा को 600-700 लीटर पानी में घोलकर खेत में छिड़ककर मिट्टी में मिला देना चाहिए । खड़ी फसल पर इन कीड़ों का प्रकोप दिखने पर सिंचाई जल के साथ क्लोरपाइरीफास 20 ईसी दो से तीन लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। हरा फुदका, बिहार की बालदार सूड़ी, तम्बाकू की सूड़ी, चेंपा, सफेद मक्खी तथा रस चूसने वाले अन्य कीड़ों की रोकथाम के लिए  मिथाइल ओडिमेटान 25 ईसी एक लीटर मात्रा का 600 से 800 लीटर पानी के साथ प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए।
            ग्रीष्मकालीन फसल में जड़ तथा तना सड़न, फूल गलन और झुलसा रोग प्रकोप की संभावना रहती हैं । इन रोगों से बचने के लिए बुवाई पूर्व बीजों का उपचार करना आवश्यक है।  खड़ी फसल में इन रोगों के नियंत्रण हेतु कापर ऑक्सिक्लोराइड 1.5 से 2 लिटर को 800 से 900 लिटर पानी में घोल बनाकर 15-15 दिन के अन्तराल पर दो छिडकाव करेध्यान रहें, सूरजमुखी फसल में फूल आने के बाद किसी भी प्रकार के कीटनाशक/रोगनाशकों का इस्तेमाल न करें अन्यथा परसेचन क्रिया के लिए आवश्यक मधुमक्खी एवं भौरों की संख्या कम हो सकती है। 
पशु पक्षियों से सुरक्षा
            सूरजमुखी की फसल को मुख्यतः नीलगाय, जंगली सुअर, बंदर, तोता, कौआ आदि मुण्डक में दाना भरते समय भारी नुकसान करते हैं । अतः इन पशु-पक्षियों से फसल को बचाना अति आवश्यक होता है। आजकल बाजार में पक्षी उड़ाने वाले टेप (एल्यूमिनियम) उपलब्ध हैं। खेत में फसल से  अधिक ऊॅचाई पर चारों तरफ एवं खेत में आड़े तिरछे लकड़ी/बांस गाड़कर उन पर टेप बाँधने  से चिड़ियों/तोते से फसल को बचाने में सहायता मिलती है। बाजार में जूट, रेशम एवं धागे से बने जाल भी उपलब्ध है जिनसे फसल की सुरक्षा की जा सकती है।
कटाई एवं मड़ाई
जब सूरजमुखी के मुण्डक (फूल) का पिछला भाग हल्के पीले-भूरे रंग का होने लगे तभी फसल के मुण्डकों को काटकर 5-6 दिन तेज धूप में सुखाकर डण्डे से पीटकर दाने निकाल लिए जाते हैं । आजकल बाजार में सूरजमुखी थ्रेसर उपलब्ध हैं जिनकी सहायता से सूरजमुखी की मड़ाई की जा सकती है । सूरजमुखी के बीज को अच्छी प्रकार से सुखाकर (नमीं स्तर 5-6 %) भंडारित करें अथवा बाजार में बेचने की व्यवस्था करना चाहिएसूरजमुखी की मड़ाई के तीन माह के अन्दर तेल निकालने (पिराई) का कार्य कर लेना चाहिए अन्यथा नमीं के कारण तेल की गुणवत्ता खराब हो सकती है।
उपज एवं आमदनी
सामान्यतौर पर उपरोक्तानुसार वैज्ञानिक विधि से सूरजमुखी की खेती करने पर लगभग 22-28 कुन्तल बीज एवं 80-100 कुन्तल डण्ठल प्रति हैक्टर पैदा किये जा सकते हैं।  केंद्र सरकार ने वर्ष 2019-20 के लिए सूरजमुखी बीज का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5388 रुपए प्रति क्विंटल निर्धारित किया है। उक्त भाव से सूरजमुखी की उपज बेचने पर 1,18,536 से 1,50,864 रूपये  प्रति हैक्टर की आमदनी प्राप्त हो सकती है जिसमें 25000 रूपये प्रति हेक्टेयर की उत्पादन लागत घटा देने से मात्र 90-100 दिनों में 93,536 से  1,25,864 रूपये  शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है। सूरजमुखी की खेती के साथ-साथ मधुमक्खी पालन करने से सूरजमुखी उपज में 10-15 प्रतिशत उपज में इजाफा होने के अलावा बहुमूल्य शहद का उत्पादन प्राप्त कर अतिरिक्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है 
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