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शनिवार, 11 जनवरी 2020

अधिक लाभकारी है ग्रीष्म में तिल की खेती

                                                                       डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रमुख वैज्ञानिक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

तिलहनी फसलों में  तिल (सीसमम इंडिकम)  दुनियां की सबसे पुरानी और ख़ास फसल है । तेलशब्द की उत्पत्ति संभवतः तिलसे ही हुई मानी जाती है। भारत के प्रमुख पर्व मकर संक्रांति के मौके पर आमतौर पर घरों में क्रंची और मीठी  तिल की चिक्की और स्वादिष्ट लड्डू बनाने की परंपरा है । देश में अनेक धार्मिक अनुष्ठानों में तिल का उपयोग प्रमुखता से  किया जाता है।तिल में उत्तम गुणवत्ता वाला पौष्टिक तेल होता है जिसका उपयोग खाने में और   सौंदर्य प्रसाधन सामग्री तैयार करने में किया जाता है।  तिल के बीज से तैयार की जाने वाली लोकप्रिय मिठाइयों यथा  गजक, रेवड़ी, तिल पट्टी आदि का व्यवस्थित व्यवसाय है जो लाखों लोगों की जीविका एवं आमदनी का साधन बन गया है। गजक तिल और गुड या शक्कर से निर्मित एक प्रकार की खस्ता  मिठाई है। मध्यप्रदेश के मोरेना में विगत 100 वर्षो से गजक का कारोबार फल फूल  रहा है। यहाँ की विभिन्न प्रकार की गजक पूरे देश में लोकप्रिय है।
तिल से निर्मित मुरैना की लोकप्रिय गजक 
पोषक  तत्वों में समृद्ध तिल के बीज से प्राप्त तेल का उपयोग खाने के अलावा वैकल्पिक चिकित्सा एवं उपचार में भी किया जाता है । पोषण की दृष्टी से तिल का तेल शक्तिवर्धक आहार है। तिल के प्रति 100 ग्राम बीज में प्रोटीन-
18.3 ग्राम प्रोटीन, 43.3 ग्राम वसा, 25 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 1450 मि.ग्रा. कैल्शियम, 570 मि.ग्रा. फॉस्फोरस, 9.3 मि.ग्रा, आयरन विद्यमान रहता है। तिल के फेटी ऑयल में सीसमिन (163 मि.ग्रा. प्रति 100 ग्राम) तथा सीसमोलिन (101 मि.ग्रा. प्रति 100 ग्राम) पाए जाते है जो कि शरीर में कॉलिस्ट्रोल स्तर कम करने तथा उच्च रक्तचाप को कम करने में सहायक होते हैं। इसके बीज को उर्जा का भण्डार माना जाता है क्योंकि इसमें 640 कैलोरी प्रति 100 ग्राम विद्यमान होती है ।  इसमें दो अच्छे फीनोलिक एंटी ऑक्सीडेंट सीसमोल तथा सीसमिनोल पाये गये है जो कि इसे लम्बे समय तक सुरक्षित बनाये रखते हैं। तिल के तेल को तेलों की रानी कहा जाता है, क्योंकि इस में त्वचा निखारने और खूबसूरती बढ़ाने के गुण मौजूद होते हैं। तिल में मोनो-सैचुरेटेड फैटी एसिड होता है जो शरीर से कोलेस्ट्रोल को कम करता है। दिल से जुड़ी बीमारियों के लिए भी यह बेहद फायदेमंद है। तिल में सेसमीन नाम का एंटीऑक्सिडेंट पाया जाता है जो शरीर में कैंसर कोशिकाओं को बढ़ने से रोकता है। इसके अलावा तिल में कुछ ऐसे तत्व और विटामिन पाए जाते हैं जो तनाव और डिप्रेशन को कम करने में सहायक होते हैं। तिल में कई तरह के लवण जैसे कैल्शियम, आयरन, मैग्नीशियम, जिंक और सेलेनियम होते हैं जो हृदय की मांसपेशियों को सक्रिय रूप से काम करने में मदद करते हैं। तिल में डाइट्री प्रोटीन और एमिनो एसिड होता है जो हड्डियों के विकास में सहायक होता है।
तिल की लाभकारी खेती ऐसे करें
तिल की लहलहाती फसल फोटो साभार गूगल 
विश्व में तिल के क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का प्रथम स्थान है परन्तु प्रति हेक्टेयर उपज के मामले में मैक्सिको, चीन और अफगानिस्तान हमसे काफी आगे है। भारत में मुख्य रूप से गुजरात, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़,तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश तथा उड़ीसा में तिल की खेती प्रचलित हैं। तिल के  विविध उपयोग एवं व्यवसायिक महत्ता को देखते हुये यदि इसको मुख्य फसल के रूप में अपनाया जाय तो यह किसानों  की आर्थिकी का बेहतर विकल्प बन सकता है। ग्रीष्मकालीन तिल की खेती बहुत आसान एवं लाभदायक होती है तथा उत्पादन भी खरीफ की फसल से अच्छा होता है।
भूमि एवं खेत की तैयारी   
            तिल शुष्क और अर्ध शुष्क क्षेत्रों में उगाई जाने वाली उष्णकटिवंधीय फसल है।  पौधों की बधवार के लिए आदर्श इष्टतम तापमान 25-27 डिग्री सेल्सियस होता है। तिल  छोटे दिन का पौधा है। उच्च प्रकाश में पौधों की बढ़वार  एवं उपज अधिक होती है। भारत में सभी मौसमों में तिल लगाया जा सकता है। हल्की रेतीली, दोमट भूमि तिल की खेती हेतु उपयुक्त होती हैं। खेती हेतु भूमि का पी.एच. मान 5.5 से 7.5 होना चाहिए। भारी मिटटी में तिल को जल निकास की विशेष व्यवस्था के साथ उगाया जा सकताहै।तिल का बीज बहुत छोटा होने की वजह से इसका अंकुरण ठीक से हो इसके लिए खेत की भली भाँती जुताई कर मिट्टी को भुरभुरा किया जाना आवश्यक है।
उन्नत किस्मों से अधिक उपज
भूमि का प्रकार, मौसम एवं पकने की अवधि के आधार पर तिल की उन्नत प्रजातियों का चयन करना चाहिए । देशी प्रजातियों  की तुलना में तिल की उन्नत प्रजातियां 25 से 100 फीसदी अधिक उपज देती हैं। बहुउपयोग एवं बाजार में अधिक मांग होने के कारण सफेद बीज वाली उन्नत किस्मों के बीज खेती हेतु इस्तेमाल करना चाहिए । अधिक उत्पादन के लिए तिल की निम्न किस्मों के बीज का प्रयोग करना चाहिए। 
टी.के.जी. 308: तिल की यह किस्म 80-85 दिनों में तैयार होकर  600-700 किग्रा प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन देती है. यह किस्म तना एवं जड सड़न रोग के लिये सहनशील है । इसके दानों में तेल की मात्रा 48-50 % होती है ।
जे.टी-11(पी.के.डी.एस.-11): यह 82-85 दिनों में तैयार हो जाती है. औसतन  650-700 किग्रा प्रति हेक्टर तक उत्पादन क्षमता होती है। इस किस्म के बीज गहरे भूरे रंग के होते है जिनमें 46-50 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
जे.टी-12(पी.के.डी.एस.-12): तिल की यह किस्म 82-85 दिन में पककर तैयार हो जाती है. इसकी उपज क्षमता  650-700 किग्रा प्रति हेक्टेयर होती है। इस किस्म के बीज सफेद रंग के होते है जिनमें तेल की मात्रा 50-53  प्रतिशत होती है ।
जवाहर तिल 306:  यह किस्म 85-90 दिनों में तैयार होकर 700-900 किग्रा प्रति हेक्टेयर तक उपज देती है. यह किस्म पौध गलन, सरकोस्पोरा पत्ती घब्बा, भभूतिया एवं फाइलोड़ी रोग के लिए सहनशील पाई गई है  । इसके बीजों में 50-52  प्रतिशत तक तेल पाया जाता है ।
जे.टी.एस. 8: यह किस्म 80-86 दिनों में तैयार होकर औसतन 600-700 किग्रा प्रति हेक्टेयर उपज देती है।इसके दाने का रंग सफेद होता जिनमे 50-52 % तेल पाया जाता  है। यह किस्म फाइटोफ्थोरा अंगमारी, आल्टरनेरिया पत्ती धब्बा तथा जीवाणु अंगमारी रोगों  के प्रति सहनशील पाई गई है ।
टी.के.जी. 55: तिल की यह सफेद बीज वाली उन्नत किस्म है  जो 76-78 दिनों में तैयार होकर 630 किग्रा प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसके दानों में तेल की मात्रा 50 -53 प्रतिशत होती है । यह किस्म  फाइटोफ्थोरा अंगमारी, मेक्रोफोमिना तना एवं जड़ सड़न रोगों  के लिये सहनशील होती है ।
उपरोक्त किस्मों के अलावा टीकेजी-22, रमा सलेक्शन-5  भी तिल की उन्नत किस्में है  जो ग्रीष्मकालीन खेती के लिए उपयुक्त पाई गई है। ये किस्में 80-90 दिन में तैयार होकर 700-800 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर उत्पादन देने में सक्षम है।
बुवाई का समय: वर्षा आश्रित क्षेत्रों में तिल की बुवाई खरीफ ऋतु में की जाती है परन्तु सिंचाई की सुविधा होने पर ग्रीष्मकाल में तिल की खेती से अधिक उत्पादन लिया जा सकता है । ग्रीष्मकालीन तिल की बुवाई  जनवरी माह के दूसरे पखवाडे से लेकर फरवरी माह के दूसरे पखवाडे तक करना चाहिए ।
बीज दर एवं बीजोपचार: उत्तम उपज के लिए उन्नत किस्म के 3-4 किलोग्राम  स्वस्थ बीज प्रति हेक्टेयर  की दर से आवश्यकता होती है । बीज जनित बीमारियां जैसे पौध अंगमारी, तना एवं जड़ सड़न को रोकने के लिए बीज को 2 ग्राम थायरम+1 ग्रा. कार्बेन्डाजिम , 2:1 में मिलाकर 3 ग्राम/कि.ग्रा. फफूंदनाशी के मिश्रण से बीजोपचार करें।
बुवाई की विधि
तिल की बुवाई कतारों में करनी चाहिए जिससे खेत में खरपतवारों की निंदाई, गुड़ाई आसानी से हो सके। छिटकवां विधि की तुलना में  25 से 30 प्रतिशत अधिक उपज प्राप्त होती है। तिल की बुवाई  कतार से कतार की दूरी 30-45 से.मी. तथा कतारों में पौधो से पौधों की दूरी 15 से.मी. रखते हुये 2-3 से.मी. की गहराई पर करें । बीज का आकार छोटा होने के कारण इसके बीजों  को छनी हुई गोबर की खाद, रेत,राख या सूखी हल्की बलुई मिट्टी के साथ मिलाकर बोया जाना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
पौध पोषण के लिए 5-6 टन सड़ी गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर खेत की अंतिम जुताई के समय डालकर  मिट्टी में अच्छी तरह मिलाना चाहिए। इसके अतिरिक्त 60 कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस  एवं 20 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से दिया जाना चाहिए.  स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा बोनी करते समय आधार रूप में दें तथा शेष नत्रजन की मात्रा खड़ी फसल में बुवाई  के 30-35 दिनों  बाद निंदाई करने के  उपरान्त खेत में पर्याप्त नमी हाने पर देवें । स्फुर तत्व को सिंगल सुपर फास्फेट के माध्यम से देना लाभकारी होता है क्योंकि इससे फसल की लिए आवश्यक  गंधक तत्व की पूर्ति  भी हो जाती है।
सिंचाई एवं जल प्रबंधन
तिल की किस्मों की अवधि के आधार पर तिल को 350-४५० मिमी जल की आवश्यकता होती है. मिट्टी के प्रकार, मौसम की स्थिति और फसल अवधि के आधार पर तिल फसल में 12-15 दिनों में एक बार सिंचाई देना चाहिए।  इष्टतम अंकुरण एवं पौध स्थापना हेतु बुवाई के बाद एक सिंचाई आवश्यक होती है । फसल से अच्छी उपज प्राप्त करने के लिये सिंचाई हेतु क्रान्तिक अवस्थाओं यथा फूल आते समय एवं फल्लियों (कैप्सूल) में दाना भरने के समय सिंचाई करना लाभप्रद होता है । फसल की किसी अवस्था में खेत में जल भराव की स्थिति नहीं रहना चाहिए। 
निंदाई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
तिल की फसल बुवाई से 15-25 दिनों तक खरपतवार प्रतिस्पर्धा के प्रति सवेदनशील होती है । बोनी के 15-20 दिन पश्चात् पहली निंदाई करें तथा इसी समय आवश्यकता से अधिक पौधों को निकालना चाहिये । खरपतवारों के प्रभावी नियंत्रण हेतु बुआई के तुरन्त बाद किन्तु अंकुरण के पहले पेन्डीमिथिलीन 500-700 मि.ली. या थायोबेनकार्ब 2 कि.ग्रा.  प्रति हेक्टेयर की दर से 600 लीटर  पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए । खरपतवार नियंत्रित न होने पर बुआई के 15 से 20 दिन बाद क्यूजोलोफाप इथाईल 800 मि.ली. प्रति हेक्टेयर की दर सी 600 लीटर  पानी में मिलाकर छिड़काव करे।
कीट नियंत्रण
तिल पत्ती मोड़क एवं फल्ली बेधक कीट: फसल के प्रारंभिक अवस्था में इल्लीयां पत्तियों  के अंदर रहकर खाती हैं। प्रोफ़ेनोफॉस  50 ईसी 1 लीटर प्रति हेक्टेयर दवा को 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें ।
कली मक्खी: इस कीट की इल्लियां फूल के अन्दर घुसकर क्षति पहुंचाती है कलियां सिकुड़ जाती है. इसके नियंत्रण हेतु क्विनॉलफॉस  25 ईसी (1.5 मि.ली./ली. ) या ट्रायजफॉस 40 ईसी (1 मि.ली./ली. ) दवा को 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें ।
रोग नियंत्रण
फाइटोफ्थोरा अंगमारी: प्रारंभ में पत्तियों व तनों पर भूरे रंग के धब्बे दिखते है जो बाद में काले रंग के हो जाते हैं। इस रोग से फसल की सुरक्षा हेतु बुवाई पूर्व बीजों को थायरम (3 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी (5 ग्रा./कि.ग्रा. बीज) द्वारा उपचारित करें। खड़ी फसल पर रोग दिखने पर रिडोमिल एम जेड (2.5 ग्रा. प्रति लीटर पानी)  या कापर अक्सीक्लोराइड की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर 10 दिन के अंतर से छिड़काव करें।
भभूतिया रोग: इस रोग में फसल की पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता हैं। रोग के लक्षण प्रकट होने पर घुलनशील गंधक (2 ग्राम/ लीटर) का खडी फसल में 10 दिन के अंतर पर 2-3 बार छिड़काव करें।
तना एवं जड़ सड़न रोग: इस रोग से प्रभावित पौधे की जड़ों का छिलका हटाने पर नीचे का रंग कोयले के समान घूसर काला दिखता हैं. इस रोग से बचने  हेतु थायरम + कार्बेन्डाजिम (2:1 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी (5 ग्रा. प्रति कि.ग्रा. बीज ) द्वारा बीजोपचार करने के बाद  बुवाई करें । खड़ी फसल पर रोग के लक्षण दिखने पर थायरम 2 ग्राम+ कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम. इस तरह कुल 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर पौधो की जड़ों को तर करें। एक सप्ताह पश्चात् पुनः छिडकाव दोहराएं।
पर्णताभ रोग (फायलोडी): फसल में फूल आने के समय इस रोग का प्रकोप होता है जिससे  फूल के सभी भाग हरे पत्तियों समान हो जाते हैं।  रोग से प्रभावित पौधे में पत्तियाँ गुच्छों में छोटी -छोटी दिखाई देती हैं। फुदका कीट द्वारा फैलने वाले इस रोग के नियंत्रण हेतु  सबसे पहले रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट करें तथा खेत में पर्याप्त नमी होने पर फोरेट 10 जी  10 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से मिलाएं । खडी फसल में डायमेथोयेट (3 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोलकर  बुवाई के  30,40 और 60 दिनों पर छिड़काव करने से रोग पर काबू पाया जा सकता है।
कटाई गहाई एवं भण्डारण 
आम तौर पर तिल की फसल 80-120 दिन में तैयार हो जाती है। पौधो की पत्तियां पीली पड़कर झड़ने लगे और कैप्सूल पीले-भूरे रंग के होने लगे तब कटाई करे। कटाई करने उपरान्त फसल के गट्ठे बाधकर खेत में अथवा खालिहान में खडे रखे। 8 से 10 दिन तक सुखाने के बाद लकड़ी के ड़न्डो से पीटकर तिरपाल पर झड़ाई करने के उपरान्त बीज को साफ कर धूप में अच्छी तरह सूखा लेवें । बीजों में जब 8 प्रतिशत नमीं  होने पर भंडार पात्रों में /भंडारगृहों में भंडारित करें अथवा बाजार में बेचने की व्यवस्था करें ।
संभावित उपज एवं आमदनी  
उपरोक्तानुसार बताई गई उन्नत तकनीक अपनाते हुऐ 7 से 8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर  तक उपज प्राप्त होती है जिसपर 8-9 हजार प्रति हेक्टेयर रूपये उत्पादन लागत आ सकती है। बाजार में उत्तम किस्म का सफेद तिल 70-80 रूपये प्रति किलो के भाव से आसानी से बिक जाता है। इस प्रकार ग्रीष्म में तिल की उन्नत खेती से 40,000 प्रति हेक्टेयर की शुद्व आमदनी प्राप्त कर दुगुना लाभ कमाया जा सकता है । इसके अलावा  तिल के साथ मूंग,उर्द या सोयाबीन की  अन्तवर्तीय फसल लेकर अतिरिक्त मुनाफा अर्जित किया जा सकता है।
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