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शुक्रवार, 15 मार्च 2019

धान संग मछली पालन: रोजगार और आमदनी का उत्तम साधन


  धान संग मछली पालन: रोजगार और आमदनी का उत्तम साधन
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
धान छत्तीसगढ़ की मुख्य फसल है जिसकी खेती 68 प्रतिशत कृषि भूमि पर की जाती है और यहाँ की बहुसंख्यक आबादी का चावल ही मुख्य भोजन है। इसलिए प्रदेश को  धान के कटोरा के नाम से संबोधित किया जाता है। प्रदेश में धान की खेती  खरीफ में 3745 हजार हेक्टेयर तथा तथा रबी में 196 हजार हेक्टेयर में की जाती है जिससे 22 से 29 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के औसत मान से उत्पादन लिया जा रहा है, जो की धान की राष्ट्रिय औसत उपज से भी कम है. प्रदेश के 32.55 लाख कृषक परिवारों में से 76 प्रतिशत लघु एवं सीमांत श्रेणी में आते हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। धान फसल की कटाई के बाद अधिकांश किसान या तो बेरोजगार रहते है अथवा रोजी रोटी की तलाश में अन्यंत्र पलायन कर जाते है।  प्रदेश में औसतन 1200 से 1400 मि.मी.वार्षिक वर्षा होती है। प्रदेश के किसानों को धान की खेती के साथ मछली पालन के लिए प्रेरित किया जाए तो निश्चित ही सीमान्त और लघु किसानों की रोजी रोटी का पुख्ता इंतजाम हो सकता है।  धान संग मछली की  एकीकृत खेती  किसानों को धान की मुख्य फसल  के साथ मछली उत्पादन अतिरिक्त कमाई का मौका देती है। छत्तीसगढ़ के सरगुजा की बहरा जमीनों तथा नहरी क्षेत्रों के आस-पास धान संग मछली उत्पादन की समन्वित प्रणाली के तहत धान की दो फसलें (खरीफ एवं रबी में) एवं साल में मछली की एक फसल आसानी से ली जा सकती हैं। धान सह मछली पालन का चुनाव करते समय इसका ध्यान रखना चाहिए कि भूमि में अधिक से अधिक पानी रोकने की क्षमता होनी चाहिए जो इस क्षेत्र में कन्हार मढ़ासी एवं डोरसा मिट्टी में पाई जाती है। खेत में पानी के आवागमन की उचित व्यवस्था मछली पालन हेतु अति आवश्यक है। सिंचाई के साधन मौजूद होने चाहिए व औसत वर्षा 800 किलोमीटर से अधिक होनी चाहिए। इस प्रकार की खेती सीमान्त एवं लघु किसानों की आर्थिक उन्नति और प्रगति  में विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध हो सकती है ।
धान संग मछली पालन की समन्वित खेती फोटो साभार गूगल
धान संग मछली पालन के फायदे
  • तालाब या झीलों में मछली पालन की अपेक्षा धान के खेत में मछली उत्पादन अधिक होता है, धान के खेतों में मछली धान की सड़ी-गली पत्तियों एवं अन्य खरपतवारों, कीड़े-मकोड़ों को खाती है जिससे धान के उत्पादन में भी वृद्धि होती है।
  • धान सह मछली की समन्वित खेती में जल और जमीन का किफायती उपयोग हो जाता है।  इसमें  किसान मुख्य फसल की उपज को प्रभावित किये बिना मछली उत्पादन से अतिरिक्त आमदनी प्राप्त कर सकते  है ।
  • किसानों को लम्बे समय तक रोजगार एवं अधिक आमदनी प्राप्त होती है।
  • मछलियां कीटों, खरपतवारों और बीमारियों को कम करके धान की फसल को फायदा पहुंचाती हैं। धान फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े को  मछलियाँ खा लेती है ।
  • मछलियों के उत्सर्जी पदार्थ धान के लिए खाद व उर्वरक का काम करते हैं।
  • धान सह मछली  प्रणाली में  धान फसल  की कम पैदावार की मछलियों से पूर्ति हो जाती है ।
  • धान सह मछली की खेती  धान  की उपज को बढ़ाती है क्योंकि धान के खेतों में मछली धान की सड़ी-गली पत्तियों एवं अन्य खरपतवारों, कीड़े-मकोड़ों को खाती है जिससे धान के उत्पादन में भी वृद्धि होती है।
            धान संग मछली पालन में सबसे बड़ी समस्या मछलियों की चोरी तथा कीट भच्छी/शिकारी पछियों यथा बगुला, कौआ आदि से मछलियों का भच्छण, अतः मछलियों की सुरक्षा के लिए आवश्यक इंतजाम कर लेना आवश्यक है।
धान के खेतों में जलीय खरपतवारों के नियंत्रण में शाकाहारी मछलियाँ जैसे तिलापिया प्रजातियाँ, पुन्टियस जावानिकस,ट्राईकोगैस्टर पैक्टोरैलिस आदि कारगर साबित हुई है।  धान की फसल को स्नैल तथा केकड़े भी काफी नुकसान पहुंचाते है । इनके नियंत्रण के लिए मोलासका भक्षी मछलियाँ जैसे पंगेसियस, हैप्लोक्रोमिस मिलैंडी का संचय करना चाहिए। धान के खेत में मछली पालन मुख्यतः तीन प्रकार से किया जा सकता है।
1.   धान की फसल काटने के बाद खेत में पुनः पानी भरकर मछली पालन किया जा सकता है। यह पद्धति सिंचित क्षेत्रों के लिए अधिक उपयुक्त है ।
2.   दूसरी विधि में मछली और धान को साथ-साथ बढ़ाते है तथा धान की कटाई के समय मछली को भी निकाल लेते है। यह पद्धति जल भराऊ वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है।
3.   तीसरी विधि में लम्बे समय तक जल की उपलब्धतता वाले क्षेत्रों में दीर्धकालीन मछली पालन (खरीफ एवं रबी में) किया जा सकता है । इसमें धान काटने के बाद मछली खेत में पहले से ही बने हुए गहरे भाग (खाई)  में चली जाती है, जहाँ पानी हमेशा बना रहता है । इस भाग में फिर से मत्स्य बीज संचय कर देते है। इस विधि में  धान एवं मछली उत्पादन अधिक होता है ।
  धान खेती सह मत्स्य पालन में धान मुख्य फसल होती है, इसलिए मत्स्य पालन तकनीकी में बदलाव किया जा सकता है । इसमें मछलियों को रोकने के लिए खेत की मेंड़ों को ऊंचा भी करना पड़ सकता है । धान की फसल में कीट-रोग-खरपतवार नाशक दवाओं का प्रयोग नहीं करना है अन्यथा मछलियाँ मर सकती है ।  धान उत्पादन सह मत्स्य पालन तकनीकी क्षेत्र, मौसम, मत्स्य प्रजातियाँ, धान की किस्में, धान उत्पादन की विधियाँ आदि पर निर्भर करती है । कुछ स्थानों पर धान के खेत में मछलियों का संचय नहीं किया जाता है बल्कि जंगली/देशी मछलियों का ही पालन किया जाता है । मछली पालन किये जाने वाले धान के खेतों का प्रबंधन तालाब की तरह करना चाहिए तथा पानी का स्तर थोडा कम ही रखना चाहिए नहीं तो धान की फसल को क्षति हो सकती है । यदि इस क्षेत्र में लगातार पानी आता रहे और निकलता रहे तो सर्वोत्तम है ।
मछली एवं धान की प्रजातियाँ   
धान की खेती संग मछली पालन हेतु धान की लम्बी किस्मों या गहरे जल वाली किस्मों को लगाना चाहिए। छत्तीसगढ़ के लिए धान की जलदुबी नमक किस्म उपयुक्त रहती है. इस पद्धति में वहीं मछलियाँ अच्छी होती है जो कम घुलित ऑक्सीजन में भी जीवित रह सकें, उनकी वृद्धि तेज हो तथा  मैले जल में रह सकें आदि । मछली की ऐसी प्रजाति जो कम जल स्तर (16 सेमी से भी कम पानी) में रह सके और अधिक तापमान (38 डिग्री सेंटीग्रेड तक) को बर्दाश्त कर सके, उत्तम रहती है। इन मछलियों में तिलापिया, मांगुर आदि प्रमुख है । इनके अलावा सामान्य कार्प या मृगल, कतला और रोहू प्रजातियों  तथा झींगा को भी पाला जा सकता है । छत्तीसगढ़ की जलवायु में धान के खेतों में मोंगरी मछली स्वतः पैदा हो जाती है परन्तु धीरे-धीरे यह मछली विलुप्त होती जा रही है।
धान संग मछली उत्पादन ऐसे करें
धान की बुआई/रोपाई हेतु  जून-जुलाई में खेत तैयार किया जाता है तथा मछलियों के लिए खेत के निचले हिस्से में 0.5 मीटर गहरी  और कम से कम एक मीटर चौड़ी खाई बनाई जाना चाहिए, जिससे इनमे पर्याप्त पानी भरा रहे । धान  की अच्छी पैदावार के लिए इस बात को सुनिश्चित करें कि गहरी खाइयां धान के क्षेत्र से 10 फीसदी से ज्यादा ना हो। मछली के संचयन के बाद खेत में  10 से 15 सेमी पानी की गहराई सुनिश्चित की जानी चाहिए ताकि मछली के जीवन को पक्का किया जा सके। वर्षा के दौरान खेत की ऊपरी सतह एवं खाई में पानी भर जाने पर धान की रोपाई कर देना चाहिए। रोपाई के पूर्व  गोबर की खाद या कम्पोस्ट को प्रति हेक्टेयर 8-10  टन की दर से मिटटी में मिला देना चाहिए । ऊर्वरक के तौर पर प्रति हेक्टेयर 80 किलो नाइट्रोजन, 40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस  और 30 किलो पोटैशियम देना चाहिए । इन ऊर्वरकों (नाइट्रोजन और पोटैशियम) को अलग-अलग चरणों जैसे कि पौधारोपन, जुताई और फूल आने के वक्त इस्तेमाल करना चाहिए।रोपाई के 8-10 दिन बाद एक से.मी. आकार की फ्राय या फिंगरलिंग्स (मछली का बच्चा) 2500-3000 प्रति हेक्टेयर की दर से संचित कर लेते है ।मछलियों की उचित वृद्धि के लिए उन्हें कृत्रिम आहार भी उपलब्ध करना आवश्यक है । मछली पालन के दौरान खेत में  7 से 18 से.मी.  जल स्तर बनाए रखना चाहिए। प्रतिदिन फिश बायोमास की 5 फीसदी मात्रा  मछलियों को अनुपूरक भोजन के तौर पर दिया जा सकता है। इस भोजन में सोयाबीन आटा (10 फीसदी), गेंहू आटा (20 फीसदी) और चावल की भूसी (70 फीसदी) से मिलाकर बनाया जा सकता है। मछलियों को यह अतिरिक्त भोजन देने से उनकी बढ़वार और पैदावार अच्छी होती है ।  
फसल की कटाई एवं मछलियों की निकासी
सामान्यतौर पर नवम्बर-दिसंबर तक धान की फसल तैयार हो जाती है । धान की परिपक्व फसल की कटाई थोडा ऊपर से की जाती है, जिससे निचला भाग जल में सड़कर मृदा एवं जल की उर्वरता को बढ़ाता रहें तथा मछलियों के लिए जल में प्राकृतिक भोजन बनता रहे।  आमतौर पर मछली के विकास करने या बढ़ने की अवधि 70 से 100 दिन के बीच होती है।  धान की कटाई से एक सप्ताह पहले मछली को जाल चलाकर निकाल लेना चाहिए। बांकी मछलियाँ खेत में पर्याप्त जल वाली गहरी खाई में चली जाती है। इसके बाद खेत में धान की दूसरी फसल बोई जा सकती है जो कि मार्च-अप्रैल तक तैयार हो जाती है। धान की फसल कटाई पश्चात खाइयों की मछलियों को निकाल कर बेच दिया जाता है तथा खेत को सुखा दिया जाता है।  धान संग मछली पालन की समन्वित खेती को अगले वर्ष भी जारी रखा जा सकता है।
उपज एवं आमदनी
उपयुक्त मौसम तथा सही प्रबंधन से धान संग मछली पालन से वर्ष में धान की दो फसलों से 60-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर  धान की उपज  के साथ-साथ मछली की एक फसल (1000-1500 किग्रा./हेक्टेयर) प्राप्त की जा सकती है । इस पद्धति में यदि धान की उपज 60 क्विंटल तथा मछली की उपज 1000 किलो मान ली जाये तो इन्हें बेचने पर धान से 150000 रूपये तथा मछली बेच कर (100 रूपये प्रति किलो भाव)  100,000 रूपये यानि कुल 2,50,000 रूपये प्राप्त होते है जिसमे धान संग मछली उत्पादन लागत 50000 को घटाकर किसान को आसानी से दो लाख का शुद्ध मुनाफा प्राप्त हो सकता है। धान संग मछली पालन पद्धति में मछलियों की चोरी तथा परभच्छी पक्षियों से सुरक्षा के उपाय अवश्य करें।

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गुरुवार, 14 मार्च 2019

बटन मशरूम उत्पादन: स्वास्थ्य और समृद्धि का साधन


             बटन मशरूम उत्पादन: स्वास्थ्य और समृद्धि का साधन
डॉ.जी.एस.तोमर (प्रोफ़ेसर,सस्यविज्ञान)
एवं
डॉ.ए.के सिंह (प्रोफ़ेसर,पौध रोग विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
मशरूम की खेती भारत के ग्रामीण और शहरी बेरोजगारों को रोजगार तथा खेतिहर एवं भूमिहीन किसानों को अतिरिक्त आमदनी का बेहतर जरिया बनती जा रही है। भारत में अधिकतर लोग शाकाहारी है, जिनके भोजन में प्रोटीन की कमीं महसूस की जा रही है जिसके परिणामस्वरूप बड़ी आबादी कुपोषण की गिरफ्त में आती जा रही है देश में खाद्यान्न सुरक्षा के साथ-साथ लोगों को पोषण सुरक्षा की भी महती आवश्यकता है। बटन मशरूम की बाजार में अच्छी मांग है। पंच सितारा होटलों एवं ढाबों में मशरूम की सब्जी महंगे दामों में परोशी जाती है जिसे लोग बड़े ही चाव से खाते है। भूमिहीन किसान, महिलाएं इसकी खेती कर परिवार के लिए ताजी और पौष्टिक सब्जी उपलब्ध करा सकते है बल्कि इसका व्यवसायिक उत्पादन कर सीमित निवेश से आकर्षक लाभ अर्जित कर सकते है। इस प्रकार से मशरूम उत्पादन परिवार के स्वास्थ्य और आर्थिक समृद्धि का बेहतरीन विकल्प सिद्ध हो सकता है।   मशरूम अर्थात खुम्बी एक गूदेदार खाद्य फफूंद है जो खाने में स्वादिष्ट एवं पौष्टिक पोषक तत्वों से भरपूर सब्जी है।   पौष्टिक मान की दॄष्टि से प्रति 100 ग्राम ताजा मशरूम में 90% जल, 3.1 ग्राम प्रोटीन,0.8 ग्राम वसा, 4.3 ग्राम कार्बोहाईड्रेट, 0.8 ग्राम रेशा, 6.0 मि.ग्रा. कैल्शियम 110 मि.ग्रा. फॉस्फोरस, 1.5 मि.ग्रा. लोहा, 43 किलो कैलोरी उर्जा, 12 मि.ग्रा. विटामिन-सी, 24 मि.ग्रा. फोलिक एसिड, 2.4 मि.ग्रा. नियासिन तथा अन्य विटामिन्स भी प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। मशरूम खाने से गर्भवती महिलाओं तथा खून की कमीं (एनीमिक) रोगियों को लाभ होता है। सोडियम तथा पोटैशियम का अनुपात अधिक होने के कारण यह उच्च रक्तचाप को भी दूर करता है।  कम कैलोरी का भोजन होने के कारण यह मोटापा दूर करने के लिए उपयोगी है। इसमें शर्करा तथा स्टार्च नहीं होने के कारण इसे ‘डिलाइट ऑफ़ ड़ाइ बिटिक’ कहा जाता है। इसमें वसा तथा कार्बोहाइड्रेट की न्यूनता के कारण यह डायबिटीज तथा हृदय रोगियों के लिए वरदान सिद्ध हो रही है। प्रमुख वैज्ञानिक डॉ.ए.के.सिंह द्वारा राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर के शोध प्रक्षेत्र पर मात्र 18-20 हजार की लागत से 2400 वर्ग फुट में धान के पैरा, बांस,बल्ली की सहायता से निर्मित झोपणी में बटन मशरूम उत्पादन प्रारंभ किया गया जिसके नतीजे उत्साहवर्धक रहे. इसमें 25 जनवरी से उत्तम गुणवत्ता की 5-6 किलो मशरूम प्रतिदिन तोड़ी जा रही है।  अभी तक 150 किलो बटन मशरूम तोड़कर स्थानिय बाजार में 100-150 रूपये प्रति किलो की दर से बेचीं जा चुकी है।
कृषि महाविद्यालय अंबिकापुर में  उत्पादित बटन मशरूम का प्रदर्शन करते हुए लेखकगण 
तथा वैज्ञानिकों के साथ जिले के एस पी श्री सदानंद   

मशरूम की प्रजातियाँ
भारत में जलवायु के अनुसार मशरूम की 4-5 प्रजातियों का उत्पादन किया जा रहा है. जिसमें मुख्य रूप से बटन मशरूम (एगेरिक्स बाइस्पोरस), ढिंगरी (प्ल्युरोटस प्रजातियाँ), धान पुवाल मशरूम (वोल्वारिएला वोल्वासिया), दूधिया मशरूम (कैलोसाइबी इंडिका) का उत्पादन प्रमुखता से किया जाता है।  इनमे से बटन मशरूम को भोजन में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है और देश में कुल मशरूम उत्पादन में  बटन मशरूम की भागीदारी सबसे अधिक है।  बटन मशरूम की एस-11, यू-3, पन्त-31 तथा एम्.एस.-39 उन्नत किस्में है।
खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
बटन मशरूम शीत ऋतु की फसल है। बटन मशरूम उत्पादन  के लिए कवक जाल फैलाव के दौरान  22 से 25  डिग्री सेल्सियस तथा फलन के समय 14 से 18 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है। इससे ज्यादा तापमान मशरूम के लिए हानिकारक होता है। उत्तम बढ़वार के लिए 80-85 प्रतिशत नमीं की जरुरत पड़ती है। शीत ऋतु के आरंभ व अंत तिक इस तापमान और नमीं को आसानी से बनाये रखा जा सकता है छत्तीसगढ़ सहित भारत के उत्तरी मैदानी भागों में अक्टूबरमार्च तक उगाया जा सकता है।
बटन मशरूम उतपादन विधि
मशरूम की खेती के लिए भूमि की आवश्यकता नही पड़ती है।  इसीलिए इसकी खेती को भूमि बचत अथवा भूमि रहित खेती भी कहते हैं। इसकी खेती साधारण कमरों बरामदा,ग्रीन हाउस, झोपड़ी  तथा गैराज आदि में आसानी से की जा सकती हैं परन्तु विशेष प्रकार से निर्मित मशरूम उत्पादन कक्ष में इसकी व्यवसायिक खेती करना उत्तम रहता है। मशरूम उगाने के लिए मूल रूप से मशरूम घर (घास-पात और बांस-बल्लियों से निर्मित झोपडी अथवा कच्चा घर), कम्पोस्ट, स्पान तथा केसिंग मिश्रण की आवश्यकता होती है।
कृषि महाविद्यालय, अंबिकापुर में बांस-बल्ली से तैयार झोपणी में बटन मशरूम उत्पादन
मशरूम की खेती हेतु कम्पोस्ट तैयार करना
मशरूम की खेती के लिए कम्पोस्ट एक माह में आसानी से तैयार कर सकते हैं।  इसके लिए खुली हवादार पक्का फर्श का उपयोग कर सकते हैं।   मशरूम उगाने के लिए खाद तैयार करने हेतु गेंहू का भूसा अथवा पैरा कुट्टी-300 किलोग्राम, कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट (कैन)- 9 किलोग्राम, यूरिया-4 किलोग्राम, म्यूरेट ऑफ़ पोटाश-3 किलोग्राम,सुपर फॉस्फेट-3 किलोग्राम, गेंहू का चोकर-15 किलोग्राम एवं जिप्सम-20 किलोग्राम की आवश्यकता होती है।  अधिक मात्रा में मशरूम पैदा करने के लिए इस सामग्री को इस अनुपात में बढाया जा सकता है।   कम्पोस्ट बनाने के लिए गेंहू/धान के भूसे को किसी पक्के फर्श पर 30 सेंटीमीटर ऊंची तह बिछाकर उसे 1-2 दिन तक रुक रुक कर  पानी का छिडकाव कर भिगो दिया जाता हैं।  भूसे को गीला करते समय पैरों से दबाना अच्छा रहता है।  गीले भूसे की ढेरी बनाने के 12-16 घंटे पहले सभी उर्वरकों व चोकर (जिप्सम छोड़कर) को एक साथ मिलाकर हल्का गीला कर लेते है तथा ऊपर से गीली बोरी से ढँक देते है।
कम्पोस्ट का ढेर बनाना
गीले किये गए मिश्रण (भूसा +उर्वरक+चोकर) को मिलाकर 5 फुट चौड़ा व 5 फुट ऊंचा ढेर बनाते है। ढेर की लम्बाई सामग्री की मात्रा पर निर्भर करती है, परन्तु ऊंचाई व चौड़ाई ऊपर बताये माप से अधिक व कम नहीं होनी चाहिए। यह ढेर पांच दिन तक ज्यों का त्यों बना रहने देवें।  बाहरी परतों में नमीं कम होने पर आवश्यकतानुसार पानी का छिडकाव करते रहें। दो तीन दिनों में इस ढेर का तापमान करीब 65-700 से.ग्रे. हो जाता है जो कि एक अच्छा संकेत है।
कम्पोस्ट पलटाई क्रम
पहली पलटाई(6वां दिन): छठवें दिन ढेर की प्रथम पलटाई की जाती है।  पलटाई करते समय ध्यान रखें कि ढेर के प्रत्येक भाग की उलट-पलट अच्छी प्रकार से हो जाए ताकि प्रत्येक हिस्से को सड़ने-गलने के लिए पर्याप्त वायु व नमीं प्राप्त हो जाये।  ढेर बनाते समय यदि खाद में नमीं कम हो तो आवश्यकतानुसार पानी का छिडकाव कर देना चाहिए।  नए ढेर का आकर व नाप पहले ढेर की भांति रखा जाता है। आगे की पलटाईयां भी पहली पलटाई की भांति की जाती है।  दूसरी पलटाई 10 वें दिन  करें तथा तीसरी पलटाई (13 वें दिन) के समय जिप्सम भी मिलायें इसके बाद चौथी, पांचवी एवं छठवी पलटाई क्रमशः 16, 19 व 22 वें दिन करें। सातवी पलटाई (25 वें दिन) करते समय मैलाथियान (0.1%) का छिडकाव करें। इसके बाद आठवीं पलटाई (28 वें दिन) करते समय कम्पोस्ट में अमोनिया व नमीं का परीक्षण करें। खाद को मुट्ठी में दबाने पर हथेली व उँगलियाँ गीली हो जाये परन्तु खाद से पानी निचुड़कर न बहे।  इस अवस्था में खाद में नमीं का स्तर उचित होता है तथा इस दशा में कम्पोस्ट में 68-70% नमीं मौजूद होती है जो बिजाई के लिए उपयुक्त होती है।  अमोनिया का परीक्षण करने के लिए खाद को सूंघ जाता है, सूंघने पर यदि अमोनिया की गंध (पशु मूत्र जैसी गंध) आती है तो 3 दिन के अंतर से एक या दो पलटाई और करना चाहिए।  अमोनिया की गंध समाप्त होने पर कम्पोस्ट को फर्श पर फैला दिया जाता है और उसे 250 सेल्सियस तापमान तक ठण्डा होने के पश्चात बिजाई करें।
मशरूम के लिए स्पान (बीज)
मशरूम अथवा खुम्ब के बीज को स्पान कहा जाता है ।बटन मशरूम का शुद्ध कल्चर प्रमाणित प्रयोगशालाओं (कृषि महाविद्यालय, कृषि अनुसन्धान केंद्र अथवा कृषि विज्ञान केंद्र) से क्रय किया जाना चाहिए. श्वत बटन मशरूम की उन्नत किस्मों में एन सी एस-101,पन्त-31,एम् एस-39, एस-7, एस-91, एन सी एच-102 आदि है जिनसे 15-20 कि.ग्रा.मशरूम प्रति क्विंटल कम्पोस्ट से प्राप्त किया जा सकता है ।

बिजाई (स्पानिंग) करना
मशरूम अथवा खुम्ब के बीज को स्पान कहा जाता है, जिसे कम्पोस्ट में मिलाया जाता है । स्पान देखने में श्वेत व रेशमी कवक जालयुक्त हो तथा इसमें किसी भी प्रकार की अवांक्षित गंध न हो । याद रहे स्पान एक माह से अधिक पुराना न हो । स्पान मिलाने से पूर्व बिजाई स्थान (फर्श) व बिजाई में प्रयुक्त किये जाने वाले बर्तनों को  2 % फोर्मेलिन घोल में धोएं व बिजाई करने वाले व्यक्ति अपने हांथों को साबुन से धोयें, ताकि कम्पोस्ट में किसी प्रकार का संक्रमण न फैले. इसके पश्चात 100 किलोग्राम तैयार कम्पोस्ट में 500-700 ग्राम स्पान (बीज) मिलायें. 

                     बीजित खाद को पोलिबेग/बोरी में भरना व कमरों में रखना

हवादर कमरे/झोपणी में मजबूत  बांस/बल्ली की सहायता से लगभग दो-दो फुट की दूरी पर कमरे की ऊंचाई की दिशा में (अलमारी के समान) एक के ऊपर एक मचान बना लेवें।  मचान की चौड़ाई 4’ से अधिक न रखें।  यह कार्य प्रारंभ में ही कर लेना चाहिए।  खाद भरे थैले रखने से 2 दिन पूर्व इस कमरे के फर्श को 2 % फार्मेलीन घोल से धोये तथा दीवारों व छत पर इस घोल का छिडकाव करें।  इसके तुरंत बाद कमरे के दरवाजे तथा खिड़कियाँ बंद करे जिससे अन्दर की हवा बाहर न आ सके।   अब बिजाई करने के साथ-साथ, 10-12 किलोग्राम बीजित खाद को पोलीबेग में भरते जाये तथा थैलों का मुंह मोड़कर बंद कर दें।  ध्यान रखें कि थैले में खाद 1 फुट से ज्यादा न भरें।  इसके पश्चात इन थैलों को कमरे में बने बांस के मचान पर एक-दुसरे से सटाकर रख देवें।  कम्पोस्ट को बिजाई करने के उपरान्त मचान पर लगभग 6’’ मोटाई में ऐसे ही फैला कर रखा जा सकता है।  ऐसी दशा में मचान की सतह पर पोलीथिन की शीट  बिछा देना चाहिए। कम्पोस्ट को फैला देने के बाद ऊपर से अख़बारों से ढँक दिया जाता है और अख़बारों पर दिन में एक या दो बार पानी का छिडकाव करते रहना चाहिए।  तत्पश्चात कमरे में 22-260 से.ग्रे. तापमान व 80-90 % नमीं बनाये रखें।  इस तापमान को कूलर, हीटर, प्रकाश बल्ब  आदि की सहायता से नियंत्रित किया जा सकता है।  नमीं कम होने पर कमरे की दीवारों पर पानी का छिडकाव करके व फर्श पर पानी भरकर नमीं को बढाया जा सकता है। मशरूम उत्पादन कक्ष बंद रखें।  बिजाई के लगभग 12-15 दिनों में मशरूम  का कवकजाल पूरी तरह कम्पोस्ट में फ़ैल जाता है और कम्पोस्ट पर सफेदी छा जाती है। अब समाचार पत्रों को हटा कर केसिंग की जाती है।
कम्पोस्ट पर केसिंग करना
कम्पोस्ट में  मशरूम का कवकजाल पूरी तरह फैलने के पश्चात कम्पोस्ट को केसिंग मिश्रण की परत से ढकना पड़ता है।  किसिंग मिश्रण एक प्रकार की मिटटी है जिसे  दो साल पुरानी गोबर की खाद व दोमट मिटटी (2:1) को मिलाकर तैयार किया जाता है।  केसिंग को रोग रहित बनाने के लिए इस पर 2 % फार्मोलिन (40 % सक्रिय तत्व) घोल (एक लीटर फोर्मेलिन को 20 लीटर पानी में घोलकर) का छिडकाव कर मिश्रण को गीला किया जाता है। घोल की मात्रा केसिंग मिश्रण की मात्रा पर निर्भर करती है। उपचारित केसिंग मिश्रण को पोलीथिन से चारों तरफ से ढँक देते है और इस पोलीथिन को केसिंग प्रक्रिया शुरू करने के 24 घंटे पूर्व हटते है।  पोलीथिन हटाने के बाद केसिंग मिश्रण को साफ़ बेलचे से उलट-पलट देते है।  केसिंग तैयार करने का कार्य केसिंग प्रक्रिया शुरू करने से लगभग 15 दिन पहले समाप्त कर लेना चाहिए अर्थात बिजाई के बाद कार्य शुरू कर देना चाहिए। कवक जाल फैले कम्पोस्ट से अख़बार पेपर हटाकर कम्पोस्ट की सतह को हल्का-हल्का दबाकर एक सार कर लेते है तथा केसिंग मिश्रण की 3-4 से.मी.मोटी परत चढ़ा डी जाती है। थैलों की अतिरिक्त पोलीथिन को नीचे की ओर मोड़ देते है।  अब पहले की भांति थैलों को कमरे में रख देते है। केसिंग करने के  बाद  5 से 6 दिन तक मशरूम उत्पादन कक्ष  का तापमान 22 से 260  से.ग्रे. तथा 80-90 % नमीं बनाये रखना चाहिए।
फसल की देख रेख
केसिंग के बाद कम्पोस्ट माध्यम पर सुबह-शाम पानी का छिडकाव करते रहना चाहिए जिससे केसिंग माध्यम में पर्याप्त नमीं बनी रहे । कवक जाल कम्पोस्ट से धीरे-धीरे केसिंग माध्यम में फैलता है जिसमे 8-10 दिन का समय लग जाता है। अब कमरे के तापमान को 22-260 से.ग्रे. से घटाकर 16-180 से.ग्रे. पर ले आना चाहिए तथा इस तापमान को पूरे फसल उत्पादन काल तक बनाये रखना चाहिए।  इस तापमान पर  कवकजाल से श्वेत बटन मशरूम के छोटे-छोटे पिन हेड बनना प्रारंभ हो जाते है जो 7-8 दिन में पूर्ण विकसित होकर बटन का रूप ले लेते है। इस दरम्यान कमरे में नमीं 85 % तक बनाये रखना चाहिए। सुबह व शाम केसिंग पर पानी का छिडकाव करना चाहिए। तापमान व नमीं के अलवा, मशरूम उत्पादन के लिए वायु का आदान-प्रदान आवश्यक है. इसके लिए उत्पदान कक्ष में रोशनदान, खिड़की व दरवाजे सुबह-शाम खोल देना चाहिए। घास-फूस से निर्मित झोपणी में हवा का आवागमन होता रहता है।
मशरूम की तुड़ाई 
श्वेत बटन मशरूम की तुड़ाई सही अवस्था में करना अत्यंत आवश्यक है अन्यथा उसकी महक, चमक, स्वाद और गुणवत्ता खराब हो जाती है। मशरूम कलिकाए बनने के लगभग 2-4 दिन बाद विकसित होकर बटन मशरूम में परिवर्तित हो जाती है। जब मशरूम की टोपी का आकर 3-4 से.मी. एवं टोपी बंद हो तब इन्हें परिपक्व समझना चाहिए। तुड़ाई के समय बटन का आकार तने की लम्बाई से दुगुना होना चाहिए और छत्रक न बना हो। मशरूम छत्रकों की तुड़ाई सुबह के समय करनी चाहिए। पूर्ण विकसित मशरूम की तुड़ाई चाकू से काट कर अथवा दो अंगुलियों के बीच में लेकर इसको मरोड़कर करना चाहिए। मशरूम तोड़ने के बाद पानी का छिडकाव करना चाहिए ।इस प्रकार करीब करीब प्रतिदिन मशरूम की पैदावार मिलती रहती है तथा 40-50 दिन तक उत्पादन लिया जा सकता है। 
                                      उत्पादन एवं लाभांश 
सम्पूर्ण मौसम में श्वेत बटन मशरूम का उत्पादन 12-15 कि.ग्रा. प्रति 100 किलो कम्पोस्ट की दर से प्राप्त किया जा सकता है।  मशरूम का उत्पादन वातावरण एवं प्रबंधन पर निर्भर करता है ।  सामन्य तौर पर एक टन कम्पोस्ट से  लगभग 120 किलो  बटन मशरूम का उत्पादन प्राप्त हो जाता है, जिसे 120 रूपये प्रति किलो की दर से बेचने पर 14400 रुपये प्राप्त होते है। इसमें उत्पादन लागत 5000 रूपये प्रति टन कम्पोस्ट को घटाने पर 9400 रूपये का शुद्ध मुनाफा होता है। यदि किसान भाई 10 टन कम्पोस्ट पर मशरूम उत्पादन करते है तो उन्हें तीन माह में एक लाख से अधिक यानि 1100 रूपये से ज्यादा का मुनाफा हो सकता है। मशरूम की कटाई उपरान्त शेष बचे कम्पोस्ट को फसल उत्पादन में जैविक खाद के रूप में इस्तेमाल करने से भूमि की उर्वरा शक्ति एवं फसल की उपज में बढ़ोत्तरी होती है। इस खाद को पशुओं के चारे के रूप में भी खिलाया जा सकता है। 
पेकिंग एवं भण्डारण
साफ़ और ताजे मशरूम को एकत्रित कर तने के मिटटी वाले भाग को चाकू से काटकर अलग कर दें. स्वच्छ पानी से धोने के बाद उनकी छटाई करें।  बंद टोपी वाले 3-4 से.मी. व्यास के छत्रक ए ग्रेड के माने जाते है, इन्हें अलग रखें तथा बड़े या थोड़े खुले छत्रक अलग रखें।   छटाई के बाद अलग-अलग श्रेणियों के छत्रकों को  200-250 ग्राम के हिसाब से पोलीथिन की थैलियों/डिब्बों  में भरकर बाजार में विक्रय हेतु भेजा जा सकता है । इन थैलियों में मशरूम भरते समय 0.5 % जगह वायु के आने जाने के लिए छोड़ना चाहिए, ताकि मशरूम को रेफ्रिजेटरों में भंडारित किया जा सकें। तोड़ने के बाद मशरूम को कमरे के तापक्रम पर 12  घंटे तथा रेफ्रिजेटरों में 4-5 दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। सामान्य तौर पर भण्डारण हेतु 50 से.ग्रे. तापक्रम एवं 85-90 % आपेक्षिक आद्रता होना चाहिए। लम्बे समय तक मशरूम का भण्डारण करने के लिए इसे 18% नमक के घोल में रखा जा सकता है। सामान्य रूप से मशरूम की सफेदी बनाये रखने के लिए इसे पोटेशियम मेटाबाई सल्फाइड (0.025 से 0.05 %) तथा साइट्रिक अम्ल (0.25%) के घोल में डुबोकर साफ़ करके रखा जा सकता है।

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