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रविवार, 13 जनवरी 2019

सूखे चारे को पौष्टिक बनायें, पशुधन को उत्पादक बनायें


                   सूखे चारे को पौष्टिक बनायें, पशुधन को उत्पादक बनायें
                                    डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी), 
     इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
                                                 अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

पशुपालन एवं डेयरी  उद्योग का हमारे देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान है।   विश्व भर की कुल गायों का 20 प्रतिशत तथा भैसों का 57 प्रतिशत हमारे देश की धरोहर तो अवश्य है, परन्तु उनकी उत्पादन क्षमता अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है।  देश  के सीमान्त एवं लघु किसान अपने परिवार की आजीविका के लिए पशुधन पर आश्रित है।  जनसँख्या दबाव, घटती कृषि जोत, सिकुड़ते प्राकृतिक संसाधनों के कारण पशुओं के लिए चारा और पशु चारण क्षेत्रों में निरंतर कमीं के चलते अब पशुपालन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।  वर्तमान में पशुओं का जीवन निर्बाह  अपौष्टिक सूखे चारे से हो पा रहा है, जिससे उनकी उत्पादन क्षमता में निरंतर गिरावट देखने को मिल रही है।   पशुधन को स्वस्थ और सतत उत्पादनशील बनाये रखने के लिए उनके आहार में पौष्टिक चारे का महत्वपूर्ण स्थान है।  हमारे देश में पशुधन को खिलाये जाने वाले सूखे चारे जैसे गेंहू का भूसा,ज्वार, बाजरा एवं मक्का की  कड़वी, धान के पुआल आदि में पौष्टिक तत्व बहुत कम तथा रेशे की  अधिक मात्रा होती है।  इनका रेशा अधिक कड़ा और लिग्नीफाइड होने के कारण कम पचनीय होता है।  इस प्रकार का सूखा चारा खिलाने से पशुधन के शरीर भार में कमीं होने के साथ-साथ उनकी उत्पादन क्षमता में भी कमीं होती है।  उपलब्ध सूखे चारे का उपचार कर बहुत कम खर्चे में इनकी पोषकता एवं गुणवत्ता आसानी से बढ़ाई जा सकती है।  हरे चारे की कमीं अथवा अभाव में उपचारित सूखे चारे को खिलाने से पशुधन को स्वस्थ और उत्पादक बनाये रखा जा सकता है।  सूखे चारे को पौष्टिक बनाने के लिए  यूरिया अथवा यूरिया-शीरा उपचार  विधि  का प्रयोग किया जा सकता है।
1.सूखे चारे का यूरिया से उपचार
एक क्विंटल सूखे चारे जैसे भूसा, पुआल या कड़वी  के लिए चार कि.ग्रा. यूरिया का 50-60 लीटर स्वच्छ  पानी में  भली भांति घोल बनाते है।  चारे को समतल तथा कम ऊंचाई वाले स्थान पर 3-4 मीटर की गोलाई में 30 से.मी. ऊंचाई की तह में फैला कर उस पर यूरिया के घोल का समान रूप से छिड़काव करते हैं।  चारे को पैरों से अच्छी तरह दबा कर उस पर पुनः  सूखे चारे की एक और पर्त बिछा दी जाती है। इस परत पर भी  यूरिया के घोल का समान रूप से छिड़काव करने के उपरान्त पैरों से अच्छी तरह दबाकर उसे एक पोलीथीन की शीट से अच्छी तरह से ढक  दिया जाता है।  यदि पोलीथीन की शीट उपलब्ध न हो तो उपचारित चारे की ढेरी को गुम्बदनुमा बनाते हैं जिसे ऊपर से पुआल आदि से ढक दिया जाता है। उपचारित चारे को 20-22 दिन तक इसी अवस्था में छोड़ देते है।  ऐसा करने से यूरिया से  अमोनिया गैस बनती है जो घटिया चारे को मुलायम एवं   पाच्य बना देती है। इस चारे में प्रोटीन की मात्रा 3.0-3.5 प्रतिशत से बढ़कर 8 से 9 प्रतिशत हो जाती है।  इस चारे को पशु को अकेले या फिर हरे चारे के साथ मिलाकर खिलाया जा सकता है।  इस चारे से पशुधन को संतुलित पोषक तत्व उपलब्ध हो जाते है।
2.सूखे चारे का यूरिया-शीरा द्वारा उपचार  
         इस विधि में 100  किग्रा भूसे  को उपचारित करने के लिए एक कि.ग्रा. यूरिया, 10 किग्रा शीरा और एक  किग्रा खनिज  मिश्रण, 50 ग्राम विटामिन मिश्रण  तथा 15  लीटर स्वच्छ पानी की आवश्यकता होती है । उपचारित करने के लिए 1  किग्रा यूरिया को 7  लीटर पानी मे अच्छी प्रकार से  घाले लिया जाता है तथा शेष  8  लीटर पानी मे शीरा, खनिज एवं विटामिन  मिश्रण को मिलाकर अच्छी प्रकार से घोल  लिया जाता है। इसके बाद दोनों घोलों को अच्छी तरह मिला लेते  है। अब  100 कि.ग्रा. भूसे  की   30  से.मी. मोटी परत  पर उक्त घोल को  हजारे द्वारा छिड़क कर  हाथ से  भूसे में अच्छी तरह मिलाया जाता है। । इससे चारे की पचनीयता एवं पौष्टिकता मे काफी वृद्धि होती है।  इस चारे को तुरंत पशुओं को खिलाया जा सकता है।  उपरोक्त दोनों  विधियां में आवश्यक समाग्री की मात्रा नीचे सारिणी मे दर्शायी गयी है।
सारणी : यूरिया तथा यूरिया-शीरा द्वारा उपचार के लिए आवश्यक सामग्री की मात्रा
आवश्यक सामग्री की मात्रा
यूरिया  द्वारा उपचार
यूरिया-शीरा द्वारा उपचार
धान का पुआल, गेंहू का भूसा/ ज्वार,बाजरा,मक्का की कड़वी
100 कि.ग्रा.
100 कि.ग्रा.
यूरिया
4 कि.ग्रा.
1 कि.ग्रा.
शीरा
-----
10 कि.ग्रा.
लवण मिश्रण
-----
1 कि.ग्रा.
स्वच्छ जल
50-60 लीटर
15 लीटर

उपचारित सूखा चारा खिलाने के फायदे
 हरे चारे की कमीं होने पर पशुओं को यूरिया उपचारित सूखा चारा खिलाने से विशेष लाभ होता है, क्योंकि यूरिया उपचारित चारे से पशुओं को 4-5 % प्रोटीन एवं 48-50 % कुल पाचक तत्व मिलते है।  जबकि गैर उपचारित चारे में न के बराबर प्रोटीन एवं 34-40 % पाचक तत्व मिल पाते है। उपचारित चारा नरम व स्वादिष्ट कोने के कारण पशु उसे खूब चाव से खाते हैं तथा चारा बर्बाद नहीं होता है।  पांच या 6 किलों उपचारित भूसा खिलने से दुधारू पशुओं में लगभग 1 किलो दूध की वृद्धि हो सकती है। यूरिया उपचारित चारे को पशु आहार में सम्मिलित करने से दाने में कमी की जा सकती है जिससे दूध के उत्पादन की लागत कम हो सकती है।  बछड़े एवं बच्छियों को यूरिया उपचारित चारा खिलाने से उनके  शरीर भार में तेजी से वृद्धि होती  है तथा वे स्वस्थ रहते है।
यूरिया उपचार में सावधानियाँ
          सूखे चारे के उपचार हेतु यूरिया का घोल साफ पानी में तथा यूरिया की सही मात्रा के साथ बनाना चाहिए। घोल में यूरिया पूरी तरह से घुल जानी चाहिए. युरा उपचारित चारे को 3 सप्ताह से पहले पहुओं को बिल्कुल नहीं खिलाना चाहिए। यूरिया के घोल को सूखे चारे के ऊपर समान रूप से छिड़कना चाहिए।

कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लोगर  की आज्ञा के बिना  इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में  ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।

हरे चारे के अभाव में साइलेज से पशुधन की पोषण सुरक्षा


        हरे चारे के अभाव में साइलेज से पशुधन की पोषण सुरक्षा
                           डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
     इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
                                                 अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

देश में पशुधन के पोषण हेतु हरे और पौष्टिक चारे की बहुत कमी है। निरंतर घटती जोत के कारण मात्र 4 फीसदी कृषि भूमि पर हरे चारे का उत्पादन  संभव हो पा रहा है। जबकि देश की कुल कृषि भूमि में से 8 प्रतिशत जमीन पर हरे चारे की पैदावार होनी चाहिए। सघन फलस चक्र में चारे की फसलें उगाने के बावजूद वर्ष  में दो बार हरे चारे की कमी के अवसर आते हैं। मानसून शुरू होने से पहले यानि अप्रैल-जून तथा मानसून समाप्त  होने के बाद बाद यानी अक्तूबर-नवम्बर  में हरे चारे की कमी होती है। जबकि जनवरी-मार्च एवं अगस्त-सितंबर महीनों के दौरान हरा चारा आवश्यकता से अधिक मात्रा में उपलब्ध रहता है। इसके अलावा वर्षा एवं शीत ऋतु में चरागाहों में भी प्रचुर मात्रा में घास उपलब्ध रहती है।  यदि आवश्यकता से अधिक मात्रा में उत्पादित हरे चारे को उपयुक्त तरीके से सरंक्षित कर लिया जाये तो चारा संकट/अभाव के दिनों में पशुधन को पौष्टिक आहार प्रदान किया जा सकता है। हरा चारा सरंक्षण हेतु साइलेज सर्वश्रेष्ठ विधि है।  अधिकतर पशुपालक पशुओं को अपौष्टिक भूसा या पुआल खिलाते है जिससे पशुओं के स्वास्थ और उनकी उत्पादन क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है क्योंकि सूखे चारे में प्रोटीन, खनिज तत्व एवं ऊर्जा की उपलब्धतता कम होती है।  हरे चारे की कमी के समय साइलेज खिलाकर पशुओं का दूध उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। साइलेज की पाचनशीलता व स्वाद अच्छा होता है। इसमें 80-90 प्रतिशत हरे चारे के बराबर पोषक तत्व मौजूद होते हैं।
हरा चारा जिसमें नमी की पर्याप्त मात्रा होती है, को हवा की अनुपस्थिति में जब किसी गड्ढे में दबाया जाता है तो किण्डवन की क्रिया से वह चारा कुछ समय बाद एक अचार की तरह बन जाता है जिसे साइलेज कहते हैं। दूसरे शब्दों में हरे चारे को हवा की अनुपस्थिती में गड्ढे के अन्दर रसदार परिरिक्षित अवस्था में रखने से चारे में लैक्टिक अम्ल बनता है जो चारे का पी.एच.कम कर देता है तथा हरे चारे को सुरक्षित रखता है।  इस सुरक्षित हरे चारे को साइलेज कहते है।  हरे चारे की कमी के समय  साइलेज खिलाकर पशुओं को स्वस्थ और उत्पादक बनाया जा सकता है।
साइलेज बनाने हेतु उपयुक्त फसलें
साइलेज लगभग सभी घासों से अकेले अथवा उनके मिश्रण से बनाया जा सकता है. चारे की फसलें जिनमें घुलन शील कार्बोहाईड्रेट्स अधिक मात्रा में हो, उन्हें साइलेज बनाने के लिए उपयुक्त माना जाता हैं जैसे ज्वार, बाजरा, मक्का, नैपियर, गिन्नी घास, जई एवं प्राकृतिक घास ।  कार्बोहाईड्रेट की अधिकता से दबे चारे में किण्वन क्रिया तीव्र होती है। मोटे तने वाले पौधे जैसे मक्का, ज्वार, बाजरा अदि सालेज बनाने के लिए बेहतर होते है।  दलहनी  फसलों में कार्बोहाइड्रेटस कम तथा नमी की मात्रा अधिक होती है। अतः इनका साइलेज अच्छा नहीं रहता परन्तु दलहनी फसलों को अधिक कार्बोहाइड्रेटस वाली डेन वाली फसलों के साथ मिलाकर अथवा शीरा या गुड का घोल मिला कर अच्छा साइलेज बनाया जा सकता है। 
साइलेज हेतु फसल की कटाई
साइलेज बनाने के लिए दाने वाली चारे की फसलों जैसे मक्का, ज्वार, बाजरा, जई आदि को 50 % पुष्पावस्था (फूल आने पर) से लेकर दानों के दूधिया होने तक की अवस्था में काट लेना चाहिए। कटाई के उपरान्त हरे चारे को 60-70  प्रतिशत नमीं आने तक सुखा लेना चाहिए।  चारे में नमीं की अधिक मात्रा होने पर उसे थोड़ा सुखा लेना चाहिए।
साइलेज हेतु गड्ढे बनाना  
साइलेज बनाने के लिए सबसे पहले पशुशाला के समीप साइलो पिट (गड्ढा) बनाया जाता है। इसके लिए शुष्क एवं ऊंचे स्थान पर का चयन करना चाहिए ताकि वर्षा के पानी का निकास अच्छी प्रकार से हो सके।  साइलेज जिन गड्ढों में  बनाया जाता है उन्हें साइलोपिट्स कहते हैं। साइलोपिट्स कई प्रकार के हो सकते हैं परन्तु  ट्रेन्च साइलो बनाना सस्ता व आसान होता हैं।  गड्ढों का आकार उपलब्ध चारे और पशुओं की संख्या पर निर्भर करता है। सामान्यतौर पर 1x1x1 मीटर व्यास के गड्ढे में लगभग 4-5 क्विंटल साइलेज बनाया जा सकता है ।  साइलो के फर्श व दीवारें पक्की बनानी चाहिए और यदि ये संभव न हो तो दीवारों की गोबर-मिटटी से लिपाई भी की जा सकती है।  इसके बाद सूखे चारे की एक तह लगा देना चाहिए या चारों ओर दीवारों के साथ पोलीथिन लगा देना चाहिए।कम मात्रा में साइलेज प्लास्टिक बैग में भी बनाया जा सकता है।
सायलोपिट को भरना एवं बंद करना
हरे चारे को उचित नमीं (60-70 %) तक सुखाने के बाद  चारा काटने वाली मशीन से उसे  छोटे-छोटे टुकड़ों (3-5 से.मी.) में काट लिया जाता है जिससे कम जगह में एवं वायु रहित वातावरण में भंडारित किया जा सके।  हरे चारे की कुट्टी को गड्ढों (साइलोपिट) में अच्छी प्रकार परत दर परत भरकर पैरों अथवा अन्य तरीके से भली भांति दबाना चाहिए, जिससे किसी भी कोने में हवा न रह जाये। कुट्टी को उस समय तक भरना चाहिए  जब तक की कुट्टी की ऊंचाई साइलो की ऊपरी सतह से लगभग एक मीटर न  हो जाये । चारा भराई के बाद ऊपर की सतह को गुम्बदाकार बनाने के पश्चात  पोलीथिन अथवा सूखे घास से अच्छी प्रकार से ढँक कर उसके ऊपर मिटटी की 15-20 से.मी. मोटी तह बिछा कर मिटटी एवं गोबर से लीप देना चाहिए  जिससे उसमे बाहर से पानी या हवा न प्रवेश कर सकें।इस प्रकार से सुरक्षित किया गया हरा चारा 45-60 दिन में साइलेज के रूप में परिवर्तित हो  जाता है। उत्तम किस्म की साइलेज की महक अम्लीय होती है। दुर्गन्ध युक्त एवं तीखी गंध वाली साइलेज ख़राब होती है। 
सायलोपिट को खोलना
अच्छी प्रकार से सायलोपिट भरने एवं बंद करने के 45-60 दिन बाद यानि डेढ़ से दो माह बाद चारा निकालने के लिए खोला जा सकता है।  सायलोपिट का कुछ हिस्सा खोलकर साइलेज एक तरफ से परतों में निकालना चाहिए और पुनः उसे अच्छी प्रकार से ढँक देवें।  सायलोपिट खोलने के बाद साइलेज को जितना जल्दी हो सके पशुओं को खिलाकर समाप्त करन चाहिए।  चिपचिपी फफूंद लगी साइलेज को पशुओं को नहीं खिलाना चाहिए।
 सभी पशु खा सकते हैं साइलेज
सभी प्रकार के पशुओं को साइलेज खिलाया जा सकता है। एक भाग सूखा चारा, एक भाग साइलेज मिलाकर खिलाना चाहिए। गड्ढे को भरने के तीन महीने बाद उसे खोलना चाहिए। खोलते वक्त एक बात का विशेष ध्यान रखें कि साइलेज एक तरफ से परतों में निकाला जाए। एक सामान्य पशु को हरे चारे की 35-50 प्रतिशत मात्रा साइलेज के रूप में खिलाई जा सकती है।  प्रारम्भ में साइलेज को थोड़ी मात्रा में अन्य चारों के साथ मिला कर पशु को खिलाना चाहिए तथा धीरे-धीरे पशुओं को इसका स्वाद/आदत लग जाने पर इसकी मात्रा 20-25 किलो ग्राम प्रति पशु प्रति दिन तक बढायी जा सकती है।  दुधारू पशुओं को साइलेज दूध निकालने के बाद खिलाएं ताकि दूध में साइलेज की गंध न आ सके ।

कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लोगर  की आज्ञा के बिना  इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में  ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।

शनिवार, 12 जनवरी 2019

रबी फसलों के बाद ग्रीष्मकालीन मूंग की खेती


              रबी फसलों के बाद ग्रीष्मकालीन मूंग की खेती
                                      डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
     इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
                                                 अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

भारत में खरीफ एवं ग्रीष्म ऋतु में बोई जाने वाली प्रमुख दलहनी फसलों में  मूँग का महत्वपूर्ण स्थान है. देश की शाकाहारी आबादी के लिए यह प्रोटीन आवश्यकता की पूर्ति का मुख्य स्त्रोत है।  मूंग के डेन में 24-25 % प्रोटीन, 56 % कार्बोहाईड्रेट एवं 1.3 % वसा पाया जाता है।  सिंचाई की पूर्ण सुविधा होने पर किसान भाई  गेंहू, सरसों, चना, मटर, आलू आदि फसल के बाद  तीसरी फसल के रूप मे ग्रीष्मकालीन मूँग की खेती  कर अल्प अवधि में आर्थिक लाभ अर्जित कर सकते है। धान-गेंहू फसल चक्र वाले क्षेत्रों में ग्रीष्मकालीन  मूंग की खेती करने से भूमि की उर्वरा शक्ति में सुधार लाया जा सकता है। फली तोड़ने के बाद फसलों को भूमि में पलट देने से यह हरी खाद की पूर्ति भी करती है।
भूमि एंव उसकी तैयारी : मूंग की खेती के लिए दोमट भूमि अधिक उपयुक्त रहती है। उचित जल निकास वाली मटियार और बलुई दोमट मिट्टियां में भी मूंग की खेती की जा सकती है।  मिटटी का  पी एच मान 7-7.5 होना चाहिए। रबी फसल की कटाई के तुरंत बाद खेत की जुताई कर छोड़ देना चाहिए।  इसके बाद  पलेवा करके देशी हल या कल्टीवेटर से दो जुताइयां कर पाटा लगाकर खेत को समतल कर बुवाई करना चाहिए ।
उन्नत किस्में:  रबी फसलों की कटाई पश्चात ग्रीष्मकाल में मूंग से अधिकतम पैदावार लेने के लिए अग्र लिखित उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज का प्रयोग करना चाहिए.
1.पी.डी.एम.-11: यह किस्म 60 से 65 दिन मे पककर 10 से 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।
2.पूसा विशालः यह किस्म 60-65  दिन मे पककर 12 से 14 क्विटंल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। 
3.सम्राट (पी.डी.एम.-139): यह किस्म 60 से 65 दिन मे तैयार होकर 9 से 10  क्विंटल प्रति हेक्टेयर  तक उपज देती है तथा पीला मौजेक प्रतिरोधक किस्म है।
4.आर.एम.जी.-62 : यह किस्म 60 से 80 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज 8-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
5.आई.पी.एम.-99-125: यह  किस्म 60-65  दिन मे पकती है। इसकी औसत उपज 12-15  क्विंटल प्रति हेक्टर है।
6. मालवीय जाग्रति (एच.यू.एम.-2): यह किस्म 65 से 70 दिन में पकती हैं। इसकी उपज 10 से 12 क्विंटल प्रति हेक्टर होती है।
7. मालवीय जन चेतना (एच.यू.एम.-12): यह किस्म 60-62 दिन में तैयार होकर 12-14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज देती है.
बुवाई का समय  एवं बीज दर :  मूंग की बुवाई के लिए उपयुक्त समय 10 मार्च से 10 अप्रैल तक है। बुवाई में देर करने पर फूल आते समय तापमान में वृद्धि के कारण फलिया  कम बनने के कारण उपज में कमीं हो सकती है । अच्छी उपज की लिए स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज का इस्तेमाल करना चाहिए. ग्रीष्मकालीन  बुवाई हेतु 20-25  किलोग्राम बीज की प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। गन्ने के साथ सहफसली खेती के लिए मूंग की बीज दर 7-8 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए।
बीज उपचार :  बुवाई से पहले प्रति किलोग्राम बीज को तीन ग्राम थाईरम या 2.5 ग्राम थाईरम एवं एक ग्राम कार्बेन्डाजिम या 5-10 ग्राम ट्राइकोडर्मां से उपचारित करे। बीज की कीड़ों  से सुरक्षा के लिए मूँग मे इमिडाक्लोप्रिड 5 मिलीलीटर/किलोग्राम बीज दर के हिसाब से बीजोपचार करे।  इसके बाद  बीजो  को राइजोबियम से उपचारित  करें । आवश्यकतानुसार गर्म पानी में 250 ग्राम गुड़ मिलाकर घोल बनावे तथा ठण्डा होने पर उसमे 600 ग्राम मूँग का जीवाणु संवर्ध मिला देवे। एक हेक्टर में बोये जाने वाले बीजो को उक्त जीवाणु सवंर्ध में भली भाँति मिलाकर छाया मे सुखाकर बुवाई करे। राइजोबियम कल्चर के साथ साथ फास्फेट की उपलब्धता बढ़ाने के लिये पी.एस.बी. कल्चर का भी प्रयोग करने से उपज में वृद्धि होती है। 
बुवाई की विधि: मूंग की बुवाई देशी हल के पीछे नई या चोंगा बाँध कर अथवा सीड ड्रिल से  पंक्तियों  में करना चाहिए।  कतार से कतार की दूरी 30  से.मी. और पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखें। बीज 4-5 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिए।
उर्वरक का प्रयोग : उर्वरक का प्रयागे मृदा परीक्षण के आधार पर किया जाना चाहिए। सामान्यतयाः जायद मूँग में 20 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम फॉस्फोरस, 20 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। उर्वरक की पूरी मात्रा बुवाई के समय कूंडों में  बीज से 2-3 से.मी. की गहराई पर देना चाहिये ।
सिंचाई आवश्यक :  मूंग में सिंचाई भूमि की किस्म तथा वायुमंडल के तापमान पर निर्भर करती है. सामान्यतौर पर 3-4 सिंचाई देने से मूंग की अच्छी उपज प्राप्त होती है. पहली सिंचाई बुवाई के 20-25  दिन बाद और  फिर 10  से 12  दिन के अंतराल पर करनी चाहिए। फसल में फूल  आने से पूर्व तथा फलियो  मे दाना बनते समय सिंचाई अत्यन्त आवश्यक है।
खरपतवार प्रबंधन: पहली सिंचाई के बाद निकाई करने से खरपतवार नष्ट होने के साथ-साथ भूमि से वायु का भी संचार होता है. मूँग की फसल मे घास कुल के खरपतवारो के नियंत्रण के लिए क्यूजालोफॉप  इथाइल (टरगा सुपर) 50 ग्राम प्रति हेक्टर की  दर से 500 लीटर पानी में घोल बनाकर फसल बुवाई के 15-20 दिन बाद  छिड़काव करे।  घास कुल, मोथा  तथा चौड़े पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिए इमेजेथापायर 100 ग्राम प्रति हेक्टर की दर से 500 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के 20 दिन बाद छिडकाव करें ।
फसल की कटाई एवं उपज: मूंग की फसल सामान्य तौर पर 60-65 दिन में पक कर तैयार हो जाती है।  फलियाँ पक कर हल्के भूरे या काले रंग  की होने पर कटाई कर लेना चाहिए।  सामान्यतौर पर फसल में 70-80 प्रतिषत फलियाँ पकने पर इनकी तुडाई  कर लेना चाहिए।  फलियों की तुड़ाई  2-3 बार में करने के बाद सम्पूर्ण फसल की कटाई करना चाहिए अथवा फसल को खेत में जुताई कर फसल को मिटटी में मिला देना चाहिए. फलियों को  घूप मे सूख्राने के बाद मड़ाई कर लेना चाहिए । उन्नत तरीके से मूँग की खेती करने से ग्रीष्मकाल में औसतन  10 से 12  क्विटंल  प्रति हेक्टर उपज प्राप्त की जा सकती है। 
कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लोगर  की आज्ञा के बिना  इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में  ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।