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शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

स्वाद,सुगंध एवं सेहत के लिए उपयोगी फल स्ट्राबेरी की व्यवसायिक खेती से मालामाल

 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

फ़्रांस से चलकर भारत पहुंची स्ट्राबेरी को वनस्पति शास्त्र में फ्रागरिया x अनानास के नाम से जाना जाता है जो रोजेसी कुल का पौधा है इसके खट्टे-मीठे फल स्वास्थ्य एवं आय दोनों ही दृष्टिकोण से लाभदायक है.पोषण मान के लिहाज से 100 ग्राम खाने योग्य स्ट्राबेरी में 89.9 ग्राम पानी, 0.7 ग्राम प्रोटीन, 0.5 ग्राम वसा, 8.4 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 164 मिग्रा पोटैशियम,21 मिग्रा कैल्शियम, 21 मिग्रा फॉस्फोरस, 1 मिग्रा आयरन, 1 मिग्रा सोडियम, 59 मिग्रा विटामिन सी के अलावा विटामिन ए, विटामिन बी, नियासिन भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते है इसे ताजे फल के रूप में खाने के अतिरिक्त स्ट्राबेरी से विशेष संसाधित पदार्थ जैसे जैम, जेली, डिब्बाबंद स्ट्राबेरी, कैंडी आदि  तैयार किये जा रहे है स्ट्राबेरी का उपयोग आइसक्रीम एवं अन्य पेय पदार्थ तैयार करने में भी किया जाता है स्ट्रॉबेरी में पाए जाने वाले पौष्टिक तत्व पाचन क्रिया में सहायक, त्वचा में नव जीवन एवं चेहरे कि चमक बढ़ाने, रक्त चाप को नियंत्रित करने में सहायक होती है प्राकृतिक एंटीऑक्सीडेंट और एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण  विद्यमान होने के कारण यह दिमाग को तनाव मुक्त रखने में  उपयोगी हैं। विटामिन सी की अधिकता होने के कारण यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मदद करती है


स्ट्राबेरी की खेती ऐसे करे

स्ट्राबेरी का बाजार में बहुत मांग होने के कारण इसकी व्यवसायिक खेती बहुत लाभदायक सिद्ध हो रही है स्ट्राबेरी शीत ऋतु की फसल है जिसके पौधों की उचित बढ़वार एवं फलन के लिए 20-30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त रहता है अधिक तामपान पर उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है भारत के मैदानी क्षेत्रों के लिए कैलीफोर्निया में विकसित कैमारोजा, ओसो ग्रैन्ड व चैंडलर के अलावा शीघ्र तैयार होने वाली ओफरा एवं स्वीट चार्ली उपयुक्त पाई गई है। भारत में विकसित पूसा अर्ली ड्वार्फ उत्तरी भारत के लिए अच्छी किस्म है. इसकी खेती के लिए 5.5 पी एच मान से लेकर 6.5 पी एच मान वाली बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती है

मेड-नाली (रिज एंड फरो) पद्धति से  स्ट्राबेरी का रोपण करने पर पौधों का विकास अच्छा होने के साथ-साथ उत्तम गुणवत्ता  वाले अधिक फल प्राप्त होते है इसके लिए तैयार खेत में 1 मीटर चौड़ी एवं 25 सेमी. ऊंची मेंडे तैयार की जानी चाहिए दो मेंड़ों के बीच 50 सेमी का फासला रखना चाहिए इन मेंड़ों पर ड्रिप (सिंचाई हेतु) एवं मल्च (प्लास्टिक चादर) बिछाने के उपरान्त 25-30 सेमी की दूरी पर मल्च में छेद कर स्ट्राबेरी के स्वस्थ  पौधों अथवा रनर (स्ट्राबेरी के पौधों के बगल से निकलने वाले नए पौधे) का रोपण करना चाहिए इससे पौधों को संतुलित मात्रा में पानी एवं पोषक तत्व उपलब्ध होने के साथ-साथ खरपतवार प्रकोप भी नहीं होता है। एक एकड़ में लगभग 27 हजार पौधे/रनर की आवश्यकता होती है। पौध रोपण के बाद ड्रिप से सिंचाई करे एवं आवश्यकतानुसार तरल उर्वरकों का प्रयोग करें आमतौर पर जनवरी-फरवरी में फल पकने लगते है फलों की तुड़ाई सावधानी से करना चाहिए ताकि फलों को क्षति न पहुंचे. सामान्यतौर पर स्ट्राबेरी के फल फरवरी-अप्रैल तक तुड़ाई हेतु पक कर  तैयार हो जाते है. स्ट्राबेरी के 70 % फलों का रंग जब  लाल-पीला होने लगे, तुड़ाई प्रारंभ करें एक पौधे से औसतन 200-200 ग्राम फल प्राप्त किये जा सकते है तोड़ने के पश्चात फलों की शीघ्र पैकिंग कर बाजार में बेचने कि व्यवस्था कर लेना चाहिए फलों के भण्डारण के लिए कमरे का तापमान 5 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए अन्यथा फल खराब होने लगते है फलों के साथ-साथ पौध सामग्री के रूप में स्ट्राबेरी के रनर (नवीन विकसित पौधे) बेचकर अतिरिक्त मुनाफा अर्जित किया जा सकता हैस्ट्राबेरी की खेती के लिए राज्य के उद्यानिकी विभाग से अनुदान भी प्राप्त किया जा सकता है


नोट :कृपया  लेखक/ब्लोगर की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्य पत्र-पत्रिकाओं अथवा इंटरनेट पर प्रकाशित न किया जाए. यदि इसे प्रकाशित करना ही है तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पता तथा ब्लॉग का नाम अवश्य प्रेषित करें

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022

सेहत और समृद्धि का आधार बन सकता है छिंद (जंगली खजूर): संरक्षण एवं संवर्धन जरुरी

 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

प्रकृति ने हमें नाना प्रकार के बहुपयोगी पेड़-पौधे की सौगात दी है, जिनसे प्राप्त होने वाले फल, फूल, सब्जी, लकड़ी एवं औषधियों का उपयोग मनुष्य  प्राचीन काल से  करता आ रहा है. आधुनिक युग में विकास और अधिक धन कमाने के लालच में आकर मनुष्य ने प्राकृतिक पेड़-पौधों का बेहिसाब दौहन तो प्रारंभ कर दिया लेकिन उनका संरक्षण एवं संवर्धन करना भूल गया जिसके कारण न केवल हमारे वन-उपवन उपयोगी पेड़-पौधों को खोते जा रहे है, बल्कि धरती की हरियाली एवं पर्यावरण को भी भारी क्षति होती जा रही है सूखी एवं बंजर धरती पर बिना खाद पानी एवं देखरेख के उगने वाले छिंद (जंगली खजूर) के  पेड़ ग्रामीण भारत के आदिवासी-वनवासी तथा गाँव की भूमिहीन एवं बेरोजगारी आबादी की आजीविका का एक साधन बन सकते है. परन्तु प्राकृतिक रूप से उग रहे  छिंद वृक्षों का गलत तरीके से अथवा अत्यंत दोहन से इनके पेड़ों का  अस्तित्व आज खतरे में नजर आ रहा है छिंद पेड़ के अत्यधिक दोहन एवं उनके कटने पर सरकार एवं वन विभाग को तो आवश्यक कदम उठाने ही चाहिए, लेकिन हम सब को  भी  सामुदायिक रूप से अपने क्षेत्र की जैव विविधता के सरंक्षण एवं  संवर्धन में सक्रिय योगदान देना चाहिए  

भारतीय मूल के छींद पेड़ को जंगली खजूर, संस्कृत में खर्जूर, अंग्रेजी में सिल्वर डेट पाम, इंडियन डेट, शुगर डेट पाम, इंडियन वाइन पाम तथा वनस्पति शास्त्र में  फीनिक्स सिल्वेस्ट्रिस  के नाम से जाना जाता जो  अरेकेसी परिवार का  बहुवर्षीय  वृक्ष है। प्राचीन काल से ही छिंद के पेड़ प्राकृतिक रूप से  समस्त भारत में  बहुतायत में पाये जाते है। राजस्थान, गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल  मै नैसर्गिक रूप से उग्त्ते है. छत्तीसगढ़ के बस्तर, सरगुजा एवं मैदानी क्षेत्रों में छिंद के वृक्ष बड़ी संख्या में देखे जा सकते है और इनकी बहुलता के कारण छिन्दगड़, छिंदपुर जैसे गाँव भी बसे है  मध्यप्रदेश के छिंदवाडा शहर का नाम भी छिंद कि बहुलता के कारण पड़ा. छिंद बाहुल्य वाले क्षेत्रों में स्थानीय गरीब  लोगों की आजीविका प्रमुख साधन है आदिवासी-वनवासी समाज में छिंद के पेड़ बहुत ही पवित्र एवं पूज्यनीय माने जाते है. परंपरागत रूप से छिंद की पत्तियों से मुकुट (मोर) बनाकर शादी विवाह में पहना जाता है इस पेड़ की पूजा करने के उपरान्त ही आदिवासी इसके फल एवं रस का सेवन करते है

छिंद के पेड़ प्रायः जंगल, सडक किनारे, नहर, नाले, तालाब, नदी के किनारे तथा खेतों की मेंड़ों पर स्वमेव उगते है छिंद के धारीदार तने और उस पर हरे धूसर रंग की विराट पत्तियों का ताज धारण किये हुए इसके पेड़ बेहद ख़ूबसूरत लगते है और इसलिए आजकल इसके पेड़ बाग़-बगीचों एवं सडकों पर भी लगाये जाने लगे है छिंद ही आज के खजूर का पूर्वज है  छिंद खजूर शुष्क एवं मरुस्थलीय क्षेत्रों के आदिवासी एवं वनवासियों के लिए प्रकृति प्रदत्त वरदान है  छिंद के वृक्ष 10 से 16 मीटर ऊंचे तथा खुरदुरे तने  वाले होते है इसके वयस्क पेड़ पर 80-100 पत्तियां हो सकती है जो हरे-धूसर रंग की, 3-4.5 मीटर लंबी, थोड़ी मुड़ी हुई एवं कांटे युक्त आधार वाली  तने के चारों ओर एकांतर क्रम में लगी रहती है। इसका पुष्पक्रम पीले रंग का लगभग 1 मीटर लम्बा बहुशाखित होता है जिसमें छोटे-छोटे सुगंधित  सफेद पुष्प घने गुच्छो में लगते है। इसके फल (ड्रुप) गुच्छो में आते है। खजूर कि अपेक्षा छिंद के फल आकार में छोटे (2.5 से 3.2 सेमी लम्बे)  एवं कम गूदेदार होते है इसके फल पीले एवं नारंगी  रंग के होते है जो जो पकने पर लाल-गुलाबी रंग के हो जाते है फलों के अन्दर एक सख्त बीज होता है सामान्य तौर पर छिंद में  जनवरी से अप्रैल तक फूल आते है तथा अक्टूबर- दिसम्बर तक फल पकते है एक पेड़ से औसतन 7-8 किग्रा फल प्राप्त किये जा सकते है फलों का रंग पीला-नारंगी होने पर फल गुच्छो को काटकर धान के पुआल अथवा गेंहू के भूसे में दबाकर  रख देने से  2-3 दिन में फल पक जाते है

अमृत है छिंद रस : मूल्य संवर्धन की पहल जरुरी 

शीत ऋतू में छिंद के पेड़ उपहार स्वरूप छिंद रस प्राप्त होता है । प्रति वर्ष नवम्बर की शुरुआत में  ग्रामीण एवं वनवासी रात्रि के समय छिंद के वयस्क  पेड़ों के ऊपरी हिस्से के नर्म तने में धार वाले औजार से चीरा लगाकर मिट्टी का घड़ा (हांडी) अथवा एल्युमिनियम का बर्तन टांग देते है रात्रि भर में बूँद-बूँद कर रस टपकता रहता है और सुबह तक बर्तन पूरा भर जाता हैएक पेड़ से प्रतिदिन 3-4 लीटर शुद्ध रस प्राप्त हो जाता है शर्दी भर यह रस प्राप्त होता रहता है। छिंद का ताजा  रस स्वाद में खट्टा- मीठा एवं जो दूसरे दिन से  हल्का नशीला होने  लगता है। छत्तीसगढ़ के बस्तर एवं सरगुजा क्षेत्र में सडक किनारे छिंद रस का बाजार सजा रहता है। यहां से गुजरने वाले राहगीर एवं पर्यटक छिंद रस का स्वाद एवं आनंद लेते देखे जा सकते है। एक गिलास रस आज भी 10-15 रूपये में उपलब्ध हो जाता है। कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान छिंद बाहुल्य क्षेत्र के नशेड़ियों के लिए छिंद रस ही एक सहारा था।

पौष्टिकता के लिहाज से 100 ग्राम ताजे  छिंद रस में 358 kcal ऊर्जा, 85.83 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 3.95 ग्राम शर्करा, 1.08 ग्राम प्रोटीन, 1.15 ग्राम वसा,0.18 ग्राम फाइबर, खनिज लवण (180.9 मिग्रा फॉस्फोरस, 80 मिग्रा पोटैशियम, 4.76 मिग्रा कैल्शियम, 2.23 मिग्रा मैग्नीशियम, 18.23 मिग्रा सोडियम, 15.8 मिग्रा आयरन, 7.13 मिग्रा जिंक, 2.13 मिग्रा कॉपर)  के अलावा विटामिन ए, विटामिन बी 1 (थियामिन), विटामिन बी 2 (रिबोफ्लेविन), विटामिन बी 3 (नियासिन), विटामिन बी 5, विटामिन बी 6 एवं विटामिन सी प्रचुर मात्रा में पाए गए है (सल्वी एवं कटेवा, 2012). इस प्रकार से छिंद का ताजा रस स्वास्थ्यवर्धक एवं पौष्टिक पेय माना जा सकता है। लेकिन 12 घंटे से अधिक समय तक रखने पर इमसे किण्वन (Fermentation)  प्रारंभ होने से यह मादक एवं उत्तेजक हो जाता है

छिंद रस को गर्म करके गुड़ भी तैयार कर खाया एवं बेचा जाता  है पौष्टिक एवं औषधीय गुणों से भरपूर छिंद के गुड़ का बाजार में काफी मांग रहती है। शर्दी एवं गर्मी में  छिंद गुड़ 200-250 रुपये प्रति किलो के भाव से मिलता है। गुड़ का उपयोग मिठाइयां और खीर बनाने में किया जाता है। छिंद रस से बने रसगुल्ले एवं कलाकंद स्वादिष्ट होने की वजह से बेहद पसंद किये जाते है शहरवाशी एवं पर्यटक छिंद रस की मिठाई खाते भी है और अपने घर भी ले जाते है प्रकृति प्रदत्त छिंद रस का  वैज्ञानिक तरीके से प्रसंस्करण  एवं  मूल्य संवर्धन कर  कुछ नवीन  उत्पादों को बाजार में अच्छा प्रतिसाद मिल सकता है। अतः छिंद रस के विभिन्न उत्पादों से संबंधित लघु एवं कुटीर उद्योग स्थापित करने से  ग्रामीण समुदाय को रोजगार एवं आय अर्जन के नयें अवसर प्राप्त हो सकते है  

ग्रामीणों एवं वनवासियों का मेवा है छिंद फल 

छिंद के फल खाने में मीठे एवं पौष्टिक होते है. इसके ताजे पके  फल सीधे  एवं सुखाकर छुहारे की भांति खाए जाते है इनसे जैम, जेली एवं मुरब्बा  तैयार कर खाने में इस्तेमाल किया जा सकता है छिंद के फल अर्थात जंगली खजूर  को आयुर्वेद में  शीतल गुणों वाला मधुर, पौष्टिक एवं बलवर्धक माना गया है इसमें  कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, विटामिन, रेशे, शर्करा,खनिज एवं  विटामिन भरपूर मात्रा में पाये जाते है शरीर में शक्ति बढ़ाने, पाचन विकार, गठिया रोग  एवं खून की कमी (एनीमिया) को दूर करने के लिए इनका सेवन लाभप्रद होता है एंटीऑक्सीडेंटस की  बहुलता होने के कारण इसके सेवन से शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढती है और अनेक जानलेवा बिमारियों से सुरक्षा होती है पौष्टिक गुणों से भरपूर खजूर फल प्रकृति का बेमिसाल उपहार है, जो मानव शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है।  स्वाद और पोषक तत्वों से परिपूर्ण छिंद फल अभी भी अल्प उपयोगी फल है.  ग्रामीण क्षेत्रों में ही इस फल को थोडा-बहुत खाने में प्रयोग किया जाता है, बाकी फल बेकार हो जाते है जिन ग्रामीण क्षेत्रों में छिंद के वृक्ष बहुतायत में उगते है, वहां फलों के एकत्रीकरण, प्रसंस्करण एवं मूल्य संवर्धन से स्थानीय लोगो को रोजगार के नए अवसर मिल सकते है.इन फलों से जैम, जेली अथवा सुखाकर पाउडर बनाया जा सकता है इन प्रसंस्कृति उत्पादों को गाँव की आँगन बाड़ी एवं स्कूलों के मध्यान्ह भोजन में सम्मलित किया जा सकता है इससे ग्रामीण बच्चो में व्याप्त कुपोषण कि समस्या से निजात मिल सकती है

छिंद के पत्ते भी रोजगार एवं आय का साधन 

फल और रस के अलावा छिंद की लंबी संयुक्त पत्तियों से उम्दा किस्म की झाड़ू, टोकरी, चटाई, टोपी, रहने के लिए झोपड़ी, रस्सी और  पशुओं के लिए अस्तबल (कोठा) तैयार किये जाते है इसकी पत्तियों से निर्मित झाड़ू मजबूत एवं टिकाऊ होने के कारण ग्रामीण  क्षेत्रों में  बहुतायत में इस्तेमाल की जाती है। इसके फलों के मजबूत डंठलों के झुंड  भी खेत खलियान की साफ़- सफाई के लिए झाड़ू  की भांति उपयोग किये जाते  है। ग्रामीण एवं जनजातीय महिलाओं के लिए छिंद की पत्तियां रोजगार एवं आमदनी का सस्ता एवं सुलभ साधन है। छिंद के पेड़ से सिर्फ नीचे की 50 % पातियाँ ही काटी जानी चाहिए ताकि ऊपर की हरी पत्तियों से पेड़ों को पर्याप्त पोषण मिलता रहे और वे सूखे नहीं. इसके लिए  ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागरूकता अभियान चलाने की जरुरत है इसके अलावा इसके पत्तों से विभिन्न प्रकार के घरेलू सामान जैसे झाडू, उन्नत झाड़ू, रस्सी, टोकनी, चटाई, झोला, टोपी आदि तैयार करने की तकनीक से सम्बंधित ग्रामीण महिलाओं एवं नौजवानों को उचित प्रशिक्षण एवं रोजगार स्थापित करने के लिए आर्थिक सहायता एवं तकनीकी मार्गदर्शन दिया जाना चाहिए  ग्रामीण क्षेत्र में छिंद वृक्ष के विभिन्न उत्पाद तैयार करने के लिए लघु एवं कुटीर उद्योग स्थापित करने की अच्छी संभावना है

छिंद के वृक्षों के अतिसय दोहन पर रोक जरुरी 

छिंद वृक्ष न केवल आदिवासियों के लिए बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों के बेरोजगार एवं भूमिहीन किसानों के लिए रोजगार एवं आमदनी का सुलभ साधन है, बल्कि इन क्षेत्रों में व्याप्त कुपोषण उन्मूलन में भी वरदान सिद्ध हो सकता है  दुर्भाग्य से व्यापारियों एवं शहरियों की छिंद के पेड़ों पर नजर पड़ने से विभिन्न प्रयोजनों जैसे फल एवं रस के लिए इनके पेड़ों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है इनसे रस निकालने के लिए अनुचित तरीके से इनमें चीरा लगाया जाता है इसके  कारण हरे-भरे पेड़ सूखने लगते है.इसके  लिए स्थानीय निकायों एवं ग्राम पंचायतो को सतत निगरानी रखना चाहिए  तथा पेड़ों से रस निकालने की वैज्ञानिक पद्धति के बारे में ग्रामीणों को शिक्षित प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है।  झाडू एवं अन्य सामग्री तैयार करने के लिए छिंद पेड़ की अधिकांश हरी पत्तियों को भी काट लिया जाता है इससे इनके पेड़ों की वृद्धि एवं विकास पर प्रतिकूल प्रभाव  पड़ने के साथ-साथ बहुत से पेड़ असमय ही सूखकर दम तोड़ते नजर आ रहे है  इसके लिए ग्राम पंचायतो को नियम बनाकर सिर्फ नीचे के सूखे एवं अर्द्ध सूखे पत्तों को काटने की सूचना ग्रामवासियों को प्रदान करना चाहिए।  समय रहते  प्रकृति की अनमोल धरोहर  के अतिसय दोहन को सीमित करते हुए बंजर एवं खाली भूमियों पर इनका रोपण करना भी जरुरी है, तभी हम इन बहुपयोगी वृक्षों को सुरक्षित कर सकते है।

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सोमवार, 5 दिसंबर 2022

मृदा स्वास्थ्य की रक्षा से ही संभव है भोजन सुरक्षा

विश्व मृदा दिवस-2022 पर विशेष 

                                                                    डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

     विश्व की आबादी के उदर पोषण  का मुख्य आधार  मृदा ही है और भविष्य में भी इसका अन्य कोई विकल्प नहीं हो सकता है। विज्ञान की मदद से हम सब कुछ बना सकते है, लेकिन मिट्टी, जल और वायु  बनाने में हम शायद कभी कामयाब  नहीं हो सकते है। मिट्टी,पानी और बयार-ये है जीवन के आधार वाले सूत्र में मिट्टी का स्थान सर्वोपर्य है। एक इंच मोटी मिट्टी की उपजाऊ परत के निर्माण में प्रकृति को करीब 700-800 वर्ष लगते है। यही एक इंच मिट्टी कृषि भूमि का अभिन्न अंग एवं जीवन का आसरा है। उस मिट्टी का तेजी से क्षरण (Degradation) और गैर उपजाऊ अर्थात बीमार होते जाना बेहद चिंता का विषय है। इसी चिंता को मद्देनजर रखते हुए संयुक्त राष्ट्रसंघ के खाद्य और कृषि संगठन ने मृदा के महत्व एवं मृदा प्रबंधन से संबंधित  वैश्विक जागरूकता के उद्देश्य से वर्ष 2014 से प्रति वर्ष 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस मनाये जाने का निर्णय लिया. इस वर्ष विश्व मृदा दिवस-2022 का मुख्य विषय ‘मृदा-जहां भोजन की शुरुआत (Soils, Where Food Begins) रखा है.

हमारे  जीवन के लिए उपयोगी 95 प्रतिशत से अधिक भोज्य सामग्री मिट्टी  में ही उपजती है। खाद्य सामग्री पैदा करने वाले पेड़-पौधों का पोषण मृदा से ही होता है। गहन कृषि एवं पोषक तत्वों की कम अथवा असंतुलित आपूर्ति, मृदा प्रदूषण एवं मृदा क्षरण आदि कारकों के चलते अन्नपूर्ण धरती की उर्वरा शक्ति क्षीण होती जा रही है, जिसका कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव देखा जा रहा है.  इतिहास साक्षी है कि जब-जब मानव ने मिट्टी को सजीव मानकर उसकी आवश्यकताओं  की पूर्ति की तो उसने धरती को अन्नपूर्णा के रूप में पाया । किन्तु जब मिट्टी की उपेक्षा की गयी तो कई सभ्यतायें नष्ट हो गयी।  संत कबीरदास ने ठीक ही कहा था
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोहे, एक दिन ऐसा आएगा मैं रौदूंगी तोय ।।  विकास की रफ़्तार और अधिक कमाने के लालच में मानव ने धरती का अत्यधिक दोहन तो किया लेकिन उसे उर्वरा बनाये रखने के लिए कोई उपाय नहीं किये और यही कारण है  कि हमारी  अन्नपूर्णा धरती भूख और कुपोषण (पोषक तत्वों एवं पानी की कमीं) की शिकार हो गई।  विभिन्न रूपों में हमारी थालियों को  सजाने वाली मिट्टी  अपनी उर्वरता एवं उत्पादकता खोती जा रही है । वैश्विक स्तर पर देखें तो 90% मिट्टी की गुणवत्ता यानी मृदा स्वास्थ  में कमी आ चुकी है। इसका तात्पर्य है कि मृदा में कार्बनिक पदार्थ सहित पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की कमीं  आती जा रही है, जो हमारी खाद्य सुरक्षा  के लिए गंभीर समस्या पैदा कर सकती है।

कृषि उत्पादकता को टिकाऊ बनाये रखने और पर्यावरणीय संसाधनों की रक्षा करने के लिए मृदा का स्वस्थ बने रहना जरुरी है स्वस्थ मृदा लाभदायक, उत्पादक और पर्यावरण अनुकूलित कृषि प्रणालियों की नींव है जलवायु परिवर्तन के कारण तापक्रम में बढ़ोत्तरी, भू-जल में कमीं, मृदा अपरदन, मृदा में कार्बनिक पदार्थ का ह्रास, उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग, गहन कृषि के कारन मृदा में पोषक तत्वों की कमीं आदि मृदा स्वास्थ्य में हो रही गिरावट के मुख्य कारण है अतः मृदा में हो रहे क्षरण को रोकने तथा मृदा स्वास्थ्य एवं गुणवत्ता में सुधार के उपायों से संबंधित सम्पूर्ण जानकारी किसानों को देना समय की मांग है स्वस्थ मृदा-स्वस्थ धरा की अवधारण के अंतर्गत मृदा में आवश्यक पोषक तत्वों एवं उपयोगी जीवों की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता के लिए  मिट्टी परिक्षण के आधार पर उर्वरकों के साथ-साथ जैविक खाद एवं हरी खाद का संतुलित उपयोग निहायत जरुरी है प्रत्येक किसान को अपने सभी खेतों का मृदा स्वास्थ्य कार्ड बनवाकर उसकी अनुसंषाओं के अनुरूप खाद एवं उर्वरकों की संतुलित मात्रा का  इस्तेमाल करना चाहिए

इसके अलावा फसल प्रणाली में दलहनी फसलों का समावेश, मृदा नमीं का संरक्षण, न्यूनतम जुताई, फसल अवशेष का उचित प्रबंधन भी आवश्यक है अतः प्राकृतिक संसाधनों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना मिट्टी की गुणवत्ता बनाएं रखना अथवा मृदा के स्वास्थ्य में सुधार ही हमारे कृषि उत्पादन का समग्र लक्ष्य होना चाहिए तभी हम भविष्य की खाद्य एवं पोषण सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते है    

रविवार, 4 दिसंबर 2022

सुख-शांति एवं शौभाग्य के लिए बेसकीमती वृक्ष -सफेद चन्दन: एक पेड़ से कमायें एक लाख

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 भारतीय संस्कृति एवं आध्यात्म में अपनी पैठ जमाये हुए चन्दन के वृक्ष  विश्व में  न केवल सबसे अधिक प्रसिद्ध है, बल्कि भारत के सफेद चन्दन के उत्पादों की मांग निरंतर बढती जा रही है रामायण एवं महाभारत काल से ही भारत में सफेद चन्दन का उपयोग धार्मिक कार्यो, सौन्दर्य प्रसाधन एवं विभिन्न चिकित्सा पद्धति में रोगों के उपचार में किया जा रहा है श्रीराम चरित मानस में भी तुलसी दास ने चन्दन का जिक्र करते हुए लिखा है: 

चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर. तुलसीदास चन्दन घिसे तिलक करे रघुवीर।। 

स्वेत चन्दन को श्रीगंध, चंदनम, भारतीय चन्दन अंग्रेजी में इंडियन सेंडलवुड तथा वनस्पति शास्त्र में सैंटलम एल्बम कहा जाता है जो सेंटेलेसी कुल का बहुवर्षीय 10 मीटर तक ऊंचा बढ़ने वाला सदाबहार पेड़ है इसके पत्ते अंडाकार होते है जिनका अग्र भाग नुकीला होता है वृक्ष की टहनियां सरल एवं नीचे की ओर झुकी हुई होती हैं। इसकी छाल लाल भूरी या काली भूरी होती है ।  इसमें छोटे-छोटे पीले-भूरे फूल लगते है जो बाद में  बैंगनी रंग के हो जाते है सफेद चन्दन के फल  हरे गोलाकार होते है, जो पकने पर जामुनी-काले रंग के हो जाते है फल गूदेदार होते है जिनमें एक गुठली (बीज) पाई जाती है. सामान्य रूप से इसके पेड़ में पुष्पन  दो बार मार्च-मई तथा सितम्बर-दिसम्बर  में होता है।

चन्दन  के गुणों के बारे में हमारे ग्रंथों में लिखा है ‘चन्दन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग’ इसका तात्पर्य ये बिलकुल नहीं कि चन्दन के पेड़ों से साप लिपटे रहते है  चन्दन वृक्ष की सुगंध एवं शीतलता के गुणों के कारण विषधारी सांप भी इसमें लिपटे रहे तो भी इसके वृक्षों पर सांप के विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है. चन्दन हमारे मन मस्तिक को शान्ति एवं स्थिरता प्रदान करने वाला वृक्ष है

चन्दन का प्रयोग सनातन परंपरा में माथे पर तिलक लगाने से लेकर पूजा-हवन  सामग्री, माला एवं घरेलू साज-सज्जा वाली वस्तुए तैयार करने में किया जाता है. चन्दन के सुगंधित तेल का उपयोग उच्च गुणवत्ता युक्त  इत्र (परफ्यूम) से लेकर अगरबत्ती, साबुन तथा  विभिन्न सौंदर्य प्रशाधन  सामग्री के निर्माण, विभिन्न खाद्य सामग्री को सुवासित करने  के अलावा आयुर्वेद, यूनानी, होम्योपैथी आधुनिक चिकित्सा पद्धति में इसकी लकड़ी का पाउडर एवं  तेल का प्रयोग बहुतायत में किया जाता है।

चन्दन का के तेल एवं पाउडर का इस्तेमाल श्वसन रोग (शर्दी, अस्थमा,गले कि खरास), लिवर रोग आदि के उपचार में किया जाता है। इसके तेल में  विद्यमान अल्फ़ा बीटा सैंटेलाल (α-Santalol,β-Santalol) का प्रयोग कैंसर के उपचार में किया जाता है।

सफेद चन्दन को रॉयल ट्री का दर्जा  

भारतीय चन्दन के महत्व एवं गुणवत्ता से प्रभावित मैसूर राज्य के मुग़ल शासक टीपू सुलतान ने  वर्ष 1792 में चंदन को रॉयल ट्री घोषित  किया था और इस फरमान को  भारत सरकार ने आज तक जारी रखते हुए देश में चन्दन के पेड़ों पर अपना आधिपत्य बनाये रखा है  चन्दन की बड़े पैमाने अवैध कटाई एवं तस्करी के कारण चन्दन वन नष्ट होते जा रहे है और इनका  रोपण नहीं के बराबर हो रहा है इसलिए चन्दन लकड़ी की देश में  भारी कमी हो गयी अब देश की  कुछ राज्य सरकारे चन्दन की खेती को  प्रोत्साहित करने लगी है, परन्तु चन्दन वृक्षों की कटाई एवं विक्रय  सरकार के वन विभाग की देखरेख में ही  किया जा रहा है

चन्दन की खेती: उभरता लाभकारी व्यवसाय  


बेसकीमती एवं बहुपयोगी भारतीय चन्दन के पेड़ों के अत्यधिक दोहन एवं तस्करी  के कारण  इसके पेड़ों की संख्या लगातार घटती जा रही है, जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय तथा अंतरास्ट्रीय बाजार में  चन्दन की लकड़ी एवं इसके उत्पादों की कीमते भी बढती जा रही है। इसलिए आज चन्दन कि खेती सबसे लाभदायक कृषि व्यवसाय सिद्ध हो रही है विश्वसनीय संसथान अथवा भरोसेमंद स्त्रोत से सफेद चन्दन के बीज लेकर उचित स्थान पर फ़रवर-मार्च में  नर्सरी तैयार कर जून-जुलाई में  मुख्य खेत में पौध रोपण किया जा सकता है

चंदन के 30 सेमी ऊंचे पौधों को 50 वर्ग सेमी के गड्डे में कतार से कतार 3.5 मीटर एवं पौधे से पौधे 3.5  मीटर की दूरी पर  लगाया जाना चाहिए। चन्दन का पेड़  अर्द्ध परिजीवी प्रकृति के होते है अर्थात इसके पौधे दूसरे पौधों की जड़ों से पोषक तत्व ग्रहण कर बढ़ते है। इसलिए  आश्रित पौधों (Host) के रूप में अरहर, मीठी नीम, पपीता, अनार, अमरुद,सहजन आदि की  अंतरवर्ती  फसलों की खेती से चन्दन के वृक्षों की वृद्धि एवं विकास के साथ-साथ अतिरिक्त मुनाफा भी अर्जित  किया जा सकताहै। प्रारंभिक अवस्था आर्थात पौधशाला  में  चंदन के बीजों के साथ छुई-मुई (Mimosa pudica) के बीज मिलाकर बोने से पौध वृद्धि अच्छी होती है। एक एकड़ (0.4 हेक्टेयर)  के खेत में  326 चन्दन के स्वस्थ पौधों के साथ 200 आश्रित पौधे  अंतरवर्ती फसल के रूप में लगाए जा सकते है।

 पौध रोपण के 7-8 वर्ष बाद चन्दन के पेड़ में 1 किग्रा प्रति वर्ष की दर से हार्ट वुड विकसित होने लगती है। चन्दन के पेड़ को परिपक्व होने में 14-15 वर्ष का समय लगता है। सामान्य परिस्थिति एवं उत्तम प्रबंधन से   एक पेड़ से 15 वर्ष में 10-12 किग्रा हार्टवुड प्राप्त की जा सकती है। इसकी लकड़ी का बाजार भाव 10,000 से 12,000 रूपये प्रति किलो के आस पास रहता है, जिसकी अंतराष्ट्रीय बाजार में 25-30 हजार रूपये कीमत होती है जबकि चन्दन के तेल की कीमत 150,000 रूपये प्रति लीटर से अधिक होती है. व्यवसायिक सस्तर पर चन्दन की खेती की सूचना राज्य के वन विभाग को सूचित कर पेड़ों का पंजीयन करा लेना चाहिए। वन विभाग के मार्गदर्शन में चन्दन के पेड़ों  की कटाई एवं विक्रय किया जा सकता है।

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शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

काँटों में छुपा है सेहत का राज-नाशपाती कैक्टस-21वी सदी का पौष्टिक आहार

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

यह जानकार बहुत से लोगों को हैरानी हो सकती है कि कांटों से भरा कैक्टस भी खाया जा सकता है प्रकृति में विद्यमान ऐसे तमाम पेड़-पौधे है जिनके गुणों से अनभिज्ञ होने की वजह से हम उनका इस्तेमाल नहीं कर पा रहे है नागफनी की एक प्रजाति  नाशपाती कैक्टस दुनियां की सबसे महत्वपूर्ण एवं आर्थिक रूप से उपयोगी प्रजाति है। 

अमेरिकी मूल के नाशपाती कैक्टस  को  नागफनी, कांटेदार नाशपाती, कैक्टस नाशपातीनोपल फ्रूट,  भारतीय अंजीर  आदि, अंग्रेजी में प्रिकली पियर केक्टस, इंडियन फिग ओपुन्टिया  तथा वनस्पति विज्ञान में ओपंटिया फिकस इंडिका  के नाम से जाना जाता है रेगिस्तान जैसी अत्यंत गर्म जलवायु में जब सब फसलें सूख जाती है, उस समय यदि कोई फसल बचती है, तो वह नागफनी ही है इसके पौधे 3-5 मीटर ऊंचे बहुशाखित नुकीले कांटेयुक्त होते है। इसके कांटो में एंटीसेप्टिक गुण पाए जाने के कारण पहले लोग बच्चो के कान छेदने के लिए इसके कांटे का इस्तेमाल किया करते थे।


कैक्टस की ज्यादातर प्रजातियों में पत्ते नहीं होते है नाग के फन  अथवा अंडाकार आकृति  की हरे रंग  की रचना होती है, जो  एक प्रकार का परिवर्तित तना (स्टेम) है, जिसे हत्था (पैड) कहते हैइनमें  छोटे-छोटे पैने कांटे पाए जाते है नाशपाती कैक्टस में पीले-लाल रंग के फूल आते है  इसके फल  लाल, बैंगनी, पीले, नारंगी एवं हरे रंग वाले  तथा  बारीक कांटे युक्त होते है, जो  आकार में नाशपाती समान होते है, इसलिए इस पौधे को  प्रिकली पियर कहा जाता है   जलवायु एवं प्रजाति के अनुसार कैक्टस नाशपाती में पुष्पन एवं फलन बसंत एवं ग्रीष्मकाल  में होता है

नाशपाती कैक्टस के नए  पैड  को नोपल एवं फलों को टुना कहा जाता है.इसके  पैड (परिवर्तित तने)को सब्जी, सलाद एवं अचार के रूप में खाया जाता हैइसके तने अर्थात पैड एवं फलों का खाने के लिए उपयोग करने से पहले इनमें उपस्थित छोटे-छोटे काँटों (हाथों में दस्ताने पहनकर) को सावधानी पूर्वक निकालकर अथवा चाकू से छीलकर अलग कर देना चाहिए

कैक्टस नाशपाती के फल में 43-57 % गुदा (पल्प) होता है जिसमें 84-90 % जल, 0.2-1.6 % प्रोटीन, 0.09-0.7 % वसा,0.02-3.1 % फाइबर, 10-17% शक्कर एवं 1-41 मिग्रा विटामिन सी के अलावा  खनिज

लवण (कैल्शियम, मैग्नेशियम, आयरन, सोडियम, पोटैशियम एवं फॉस्फोरस) तथा  विभिन्न प्रकार के अमीनो अम्ल प्रचुर मात्रा में पाए जाते है इसके अलावा इसके फल में बीटालेन रंजक पाया जाता है, जो खाध्य पदार्थ को प्राकृतिक रंग प्रदान करने में इस्तेमाल किया जाता है इसके हत्थे (पैड) में पेक्टिन, म्युसिलेज, खनिज एवं विटामिन्स भरपूर मात्रा में पाए जाते है

इसके फल अथवा जूस के सेवन से थैलेसीमिया, मधुमेह  जैसे रोगों को नियंत्रित करने में मदद मिलती है।  इसके सेवन पाचन तंत्र मजबूत होता है। इसके फल  मोटापा और कोलेस्ट्रॉल कम करने में सहायक माने जाते है।  इसके अलावा इसे एनीमिया और रक्त संबंधी बीमारियों के उपचार में भी काफी कारगर माना जाता है। कैक्टस नाशपाती की आजकल काँटा रहित किस्में भी विकसित हो गयी है जिन्हें  फल, सब्जी एवं पशुओं के चारे के लिए व्यवसायिक रूप से आसानी से उगाया जा सकता है।

    जंगली रूप से उगने  वाले नागफनी अर्थात कैक्टस  300 प्रजातियां  पहचानी गई है, जिनमें से 10-12 प्रजातियों का इस्तेमाल फल, सब्जी, औषधि एवं चारे के रूप में किया जा रहा है नागफनी को शोभाकारी झाडी अथवा बाग़ बगीचों में घेरेबंदी के लिए लगाया जाता है। लेकिन तमाम विकसित एवं विकासशील देशों में कैक्टस पियर का उपयोग पौष्टिक वनस्पति एवं फल के रूप में किया जा रहा है इसके अलावा इससे जूस, पाउडर, वाइन, एथेनोल आदि उत्पाद तैयार किये जा रहे है, जिनकी अन्तराष्ट्रीय बाजार में काफी मांग है  कैक्टस नाशपाती की खेती विकसित एवं विकासशील देशों में सफलता पूर्वक कि जा रही है। भारत के गर्म क्षेत्रों में कैक्टस नाशपाती की देशी किस्में नैसर्गिक रूप से उगती है परन्तु इसकी व्यवसायिक खेती अभी-अभी शुरू हुई है। नाशपाती कैक्टस को विषम परिस्थियों जैसे अत्यंत गर्म, ठंड, वर्षा, सूखा के साथ-साथ गैर उपजाऊ कंकरीली-पथरीली जमीनों में सुगमता से उगाया जा सकता है। इस पौधे को इसके वानस्पतिक भागों से उगाया जा सकता है। व्यवसायिक रूप से  कैक्टस नाशपाती की  आधुनिक किस्मों की खेती से 10-12 मेट्रिक टन फल एवं 50-100 मेट्रिक टन चारा प्रति हेक्टेयरप्रति वर्ष उत्पादित किया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के दौर में खाद्य एवं पोषण सुरक्षा के लिए कृषि प्रणाली में विविधता लाना आवश्यक है. इसके लिए प्रकृति में विद्यमान उपयोगी पेड़ पौधों को पहचान कर उनकी खेती एवं कटाई उपरान्त तकनीक अर्थात प्रसंस्करण पर ध्यान देने से हम कृषि प्रणाली एवं पौष्टिक आहार श्रंखला को मजबूती प्रदान कर सकते है। कैक्टस नाशपाती भविष्य के लिए एक उपयोगी खाद्य सामग्री साबित हो सकती है।
नोट :कृपया  लेखक/ब्लोगर की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्य पत्र-पत्रिकाओं अथवा इंटरनेट पर प्रकाशित न किया जाए. यदि इसे प्रकाशित करना ही है तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पता तथा ब्लॉग का नाम अवश्य प्रेषित करें