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बुधवार, 29 जुलाई 2020

सोर्फ़ मशीन का वादा-पेड़ी गन्ने से उपज एवं मुनाफा ज्यादा

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

भारत में गन्ने की खेती लगभग 5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है तथा इसकी औसत उत्पादकता 70 टन प्रति हेक्टेयर के आस पास है। देश में लगभग 50 मिलियन गन्ना किसान तथा उनके परिवार अपने जीविकोपार्जन के लिए इस फसल व इस पर आधारित चीनी-गुड़ उद्यग से सीधे जुड़े हुए है। गन्ना उत्पादन में पेड़ी फसल का विशेष महत्त्व है, क्योंकि गन्ने का  भारत में गन्ने के कुल क्षेत्रफल में से आधे क्षेत्रफल (50-55 %) में गन्ने की पेड़ी  फसल ली जाती है। शीघ्र परिपक्व होने के कारण पेड़ी फसल की कटाई एवं पिराई पहले होती है। पेड़ी गन्ने के रस में चीनी परता अधिक होता है परन्तु औसत उत्पादकता मुख्य फसल से 20-25 प्रतिशत कम आती है। दरअसल गन्ना उत्पादन में फसल अवशेष प्रबंधन सबसे बड़ी समस्या है गन्ना कटाई के बाद खेत में लगभग 8-10 टन प्रति हेक्टेयर गन्ने की सूखी पत्तियां खेत में रह जाती है. पेड़ी फसल वाले खेत में उर्वरक एवं सिंचाई देने में काफी परेशानी होती है जिसके कारण किसान फसल अवशेष जला देते है। एक तो फसल अवशेष जलाने से भूमि की उर्वरा शक्ति में कमीं होती है तो दूसरी ओर पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है। गन्ने से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने में गन्ना कल्लों की अधिक मृत्यु दर, पोषक तत्वों की निम्न उपयोग दक्षता, गन्ने की सूखी पातियों एवं अवशेष का कुप्रबंधन प्रमुख बाधक कारक है। 

पेड़ी गन्ना फसल के बेहतर प्रबंधन के लिए अद्भुत सोर्फ़ मशीन फोटो साभार गूगल  
(SORF) यानी Stubble shaver, Off-bar, Root pruner cum Fertilizer drill मशीन के नाम से जाना जाता है। यह एक बहुउद्देशीय मशीन है जिसकी सहायता से पेड़ी फसल का बेहतर प्रबंध किया जा सकता है। इस  मशीन से निम्न कार्य सम्पादित किये जा सकते है:

1.सोर्फ़ मशीन ट्रेश (फसल अवशेष,पत्ती) आच्छादित खेत में भी रासायनिक उर्वरकों को पेड़ी गन्ने की जड़ों के पास (मृदा के अन्दर) स्थापित करने में सक्षम है।

2.यह मशीन गन्ना काटने के बाद खेत में शेष बचे हुए ठूठों (स्टबल) को भूमि की सतह के पास से एक सामन रूप से काटने के लिए उपयुक्त है।

3.इस मशीन द्वारा गन्ने की पुरानी मेंड़ों (रेज्ड बेड) की मिट्टी को बगल से आंशिक रूप से काटकर (ऑफ़ बारिंग) उसको दो मेंड़ों के बीच पड़ी ट्रेश के ऊपर डाल दिया जाता है जिससे अवशेष (ट्रेश) के शीघ्र अपघटन (सड़ने) में मदद मिलती है।

4.सोर्फ़ मशीन द्वारा पेड़ी  गन्ने की पुरानी जड़ों को बगल से कर्तन कर दिया जाता है जिससे नई जड़ों का विकास होता है जो पानी और पोषक तत्वों के अवशोषण बढ़ाने में सहायक होती है। इससे पेड़ी गन्ने में कल्लों (टिलर) की संख्या व उपज में बढ़ोत्तरी होती है।

सोर्फ़ मशीन के फायदे

Øपेड़ी गन्ने की उपज बढाने के लिए विशेष फसल प्रबंधन कार्यो का समय पर निष्पादन होता है.

Øपत्ती-फसल अवशेष (ट्रेश) आच्छादित खेत में भी रासायनिक उर्वरकों का भूमि में स्थापन संभव होता है।

Øस्वस्थ कल्लों की संख्या में वृद्धि होती है जिससे पेड़ी गन्ने की उपज में 10-38 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी होती है।

Øप्रति हेक्टेयर 27 से 50 हजार रूपये तक शुद्ध मुनाफे में इजाफा होता है जिससे लाभ:लागत अनुपात में 12-13 प्रतिशत तक बढ़त होती है।

Øइस मशीन के प्रयोग से 20-25 % उर्वरक वचत तथा 6-21 % सिंचाई जल की बचत होती है. इस प्रकार उर्वरक उपयोग दक्षता तथा जल उपयोग क्षमता में बढ़ोत्तरी होती है।

Øपौधों की जड़ कर्तन (कटिंग) से अधिक मात्रा में स्वस्थ जड़ों का विकास होने से अल्प अवधि के सूखे से होने वाले दुष्प्रभावों से फसल की सुरक्षा होती है।

Øयह पर्यावरण हितकारी तकनीक है जिसके तहत नत्रजन धारी उर्वरक का भूमि में स्थापन होने अमोनिया उत्सर्जन में कमीं होती है तथा ट्रेश (फसल अवशेष) जलाने से होने वाले पर्यावरणीय दुष्प्रभावों से छुटकारा मिलता है ।

मुख्य गन्ना फसल की कटाई के पश्चात गन्ने की पेड़ी फसल के बेहतर प्रबंधन के लिए किसान भाई उपरोक्त सोर्फ़ मशीन का उपयोग कर 3-4 पेड़ी फसल लेकर अपनी आमदनी में इजाफा कर सकते है। इस मशीन के उपयोग से एक तरफ गन्ना उपज में बढ़ोत्तरी होती है तो दूसरी ओर किसानों को शीघ्र फसल प्राप्त होने से आर्थिक लाभ भी होता है।

कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 

मंगलवार, 28 जुलाई 2020

आज की जरुरत है बिन माटी हवा में स्मार्ट खेती -हाइड्रोपोनिक्स

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

आमतौर पेड़-पौधे-फसलें भूमि या मिट्टी में ही उगाए जाते हैं। हम यह भी जानते है कि पेड़-पौधे-फसल उगाने और उनकी वृद्धि-विकास के लिये खाद, मिट्टी, पानी और सूर्य का प्रकाश जरूरी होता है। लेकिन सच्चाई यह भी है कि पौधे या फसल उत्पादन के लिये सिर्फ तीन चीजों अर्थात  पानी, पोषक तत्व और सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता होती है। इस प्रकार से यदि हम बगैर मिट्टी के ही पेड़-पौधों को किसी अन्य माध्यम से पोषक तत्व उपलब्ध करा दें तो बिना मिट्टी के भी, पानी और सूरज के प्रकाश की उपस्थिति में पेड़-पौधे उगाये जा सकते हैं। दरअसल, बढ़ती आबादी, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण  ने खाद्ध्य और पोषण सुरक्षा की आबाद गति में रुकावट पैदा कर दी है. ऐसे में बिना मिट्टी के पौधे उगाने वाली स्मार्ट तकनीक एक नई उम्मीद के रूप में उभरकर आई है. न खेत की जरुरत, न मौसम का इन्तजार, दुकान, छत, छज्जे, कहीं पर माटी बिना साग, सब्जी, गेंहू, धान,चारा, फल, फूल सभी की फसलें उगाई जा सकती है. केवल पानी में या बालू या कंकड़, लकड़ी का बुरादा या नारियल का रेशा आदि  के बीच नियंत्रित जलवायु ( में बिना मिट्टी के सब्जी,चारा व फूलों के पौधे उगाने की तकनीक को हाइड्रोपोनिक्स कहते है. दूसरे शब्दों में, यह कृषि की एक ऐसी विधा है जिसमें मृदा का उपयोग किये बिना जल और पोषक तत्वों की सहायता से खेती की जाती है.

चित्र: मृदा  रहित खेती(हाइड्रोपोनिक) फोटो साभार गूगल 
हाइड्रोपोनिक्स तकनीक वास्तव में अनादिकालीन उस प्रौद्योगिकी का परिष्कृत स्वरूप है जिसमें नदी-नालों व तालाबों में कुछ सीमित पौधों की खेती हुआ करती थी.बेबीलान के हैंगिंग गार्डन, एजटेक के तैरते खेत और भारत में नदी किनारे पनपी सभ्यता एक प्रकार की जलीय खेती के ही उदाहरण है.

क्या है स्मार्ट हाइड्रोपोनिक्स तकनीक

स्मार्ट हाइड्रोपोनिक्स, खेती की वो आधुनिक तकनीक है जिसमें वनस्पति वृद्धि और उपज का नियंत्रण जल और उसके पोषण स्तर के जरिये होता है. मृदा रहित खेती का अविष्कार जूलियस वों सचस और विलियम क्नॉप (1859-1875) ने किया. इसके बाद पहली बार वर्ष 1929 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के सस्यवैज्ञानिक डॉ. विलियम एफ.गेरिक ने मृदा रहित माध्यम पर टमाटर की व्यवसायिक खेती की और इस तकनीक का नाम ‘हाइड्रोपोनिक’ रखा. हाइड्रोपोनिक्स शब्द की उत्पत्ति दो ग्रीक शब्दों हाइड्रो तथा पोनोस से मिलकर हुई है. हाइड्रो का अर्थ है  पानी, जबकि पोनोस का अर्थ है कार्य. हाइड्रोपोनिक्स में पौधों और चारे वाली फसलों को नियंत्रित परिस्थितयों में 15 से 30 डिग्री सेल्सियस ताप पर लगभग 80 से 85 प्रतिशत आर्द्रता में उगाया जाता है. सामान्यतया पेड़-पौधे अपने आवश्यक पोषक तत्व जमीन से ग्रहण करते है, लेकिन हाइड्रोपोनिक्स तकनीक में पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध कराने के लिए पौधों में एक विशेष प्रकार का घोल डाला जाता है. इस घोल में पौधों की बढ़वार के लिए जरुरी खनिज लवण मिलाये जाते है. पानी, कंकडों या बालू आदि में उगाये जाने वाले पौधों में इस घोल की माह में एक-दो बार केवल कुछ बूंदे ही डाली जाती है. इस घोल में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश, मैग्नेशियम, कैल्शियम, सल्फर, जिंक और आयरन आदि तत्वों को एक विशेष अनुपात में मिलाया जाता है, जिससे पौधों को आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध होते रहें.

हाइड्रोपोनिक्स अर्थात जलीय कृषि में जल को अच्छी प्रकार से उन सभी पोषक तत्वों को समृद्ध किया जाता है जो पौधों की वृद्धि और बेहतर उपज के लिए जिम्मेदार होते है. जल के पीएच को संतुलित रखा जाता है जिससे पौधों की अच्छी वृद्धि होती है. कृषि की इस पद्धति में पौधे जल और सूरज की रौशनी से पोषण प्राप्त कर उत्पादन देते है. हाइड्रोपोनिक्स कृषि के लिए यह सुनिश्चित करना होता है कि मिट्टी की बुनियादी क्रिया को जल के साथ बदल दिया जाए. आमतौर पर हाइड्रोपोनिक्स प्रणाली में बालू या बजरी या प्लास्टिक का इस्तेमाल पौधों की जड़ों को समर्थन देने के लिए किया जाता है. हाइड्रोपोनिक्स में पौधों को संतुलित पोषण प्रदान करने के लिए जल में उर्वरक मिलाया जाता है. इजराइल, जापान, चीन और अमेरिका आदि देशों के बाद अब भारत में भी यह तकनीक विस्तार ले रही है. हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से चारा फसलों के अलावा स्ट्राबेरी, खीरा, टमाटर,पलक, गोभी, शिमला मिर्च जैसी सब्जिय उगाई जाने लगी है.

हाइड्रोपोनिक्स तकनीक में पौधों को पाइप के माध्यम से उगाया जाता है. पौधों के आकर एवं किस्म के अनुसार पाइप का चयन किया जाता है तथा एक निश्चित दूरी पर इनमे गोल छेद बनाकर जालीनुमा कप में पौधों को रखा जाता है तथा सभी पाइप को एक-दूसरे से नलियों के माध्यम से जोड़ दिया जाता है जिनमें पानी को बहाया जाता है. इसमें पौधों के विकास के लिए जरुरी पोषक तत्वों का घोल पानी में मिला दिया जाता है.

हाइड्रोपोनिक्स तकनीक की विशेषता यह है की इसमें मिट्टी के बिना परु पानी के सीमित इस्तेमाल से चारा फसलें, सब्जियां, फल-फूल पैदा किये जाते है. इसमें n तो अनावश्यक खरपतवार उगते है और न in पौधों पर कीड़े लगने का भय रहता है. यह तकनीक पत्ते वाली सब्जियों के लिए काफी उपयुक्त है. वर्तमान में खेतों में प्रति एकड़ 25-30 हजार स्ट्राबेरी के पौधे लगये जाते है. इस तकनीक का उपयोग कर प्रति एकड़ 60 से 120 हजार पौधे लगाये जा सकते है तथा उत्पादन को कई गुना बढाया जा सकता है.

लाभकारी है हाइड्रोपोनिक्स तकनीक

परम्परागत तकनीक से पौधे उगाने की अपेक्षा हाइड्रोपोनिक्स तकनीक के अनेक लाभ है.

1.   इस तकनीक से विपरीत जलवायु परिस्थितियों में उन क्षेत्रों में भी पौधे उगाये जा सकते है, जहां भूमि की कमीं है अथवा वहां की मिट्टी उपजाऊ नहीं है.

2.   इस तकनीक से बेहद कम खर्च में पौधे और फसलें उगाई जा सकती है. एक अनुमान के अनुसार 5 से 8 इन्च ऊंचाई वाले पौधे के लिए प्रति वर्ष एक रुपये से भी कम खर्च आता है. इसकी सहायता से आप कहीं भी पौधे उग सकते है.

3.   परंपरागत बागवानी की अपेक्षा हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से बागवानी करने पर पानी का 20 प्रतिशत भाग ही पर्याप्त होता है.

4.   हाइड्रोपोनिक्स तकनीक का प्रयोग बड़े पैमाने पर अपने घरों एवं बड़ी इमारतों में सब्जियां उगाने में किया जा सकता है.

5.   चूंकि इस विधि से पैदा किये गए पौधों और फसलों का मिट्टी और भूमि से कोई सम्बन्ध नहीं होता, इसलिए इनमें कीट-रोग का प्रकोप कम होने से कीट रोग नाशको का इस्तेमाल नहीं करना पड़ता है. अतः यह एक पर्यावरण हितैषी तकनीक है.   

6.   हाइड्रोपोनिक्स तकनीक में पौधों में पोषक तत्वों का विशेष घोल डाला जाता है, इसलिए इसमें उर्वरकों एवं अन्य रासायनिक पदार्थों की आवश्यकता नहीं होती है.

7.   इस विधि से उगाई गई फसलें और पौधे जल्दी तैयार हो जाते है. इस विधि के अंतर्गत क्षैतिज के साथ-साथ उर्ध्वाधर स्थान का भी उपयोग कर सकते हैं।  

8.   जमीन में उगाये जाने वाले पौधों की अपेक्षा इस तकनीक में बहुत कम स्थान की आवश्यकता होती है.

9.   इस तकनीक में पारम्परिक खेती के मुकाबले कम समय में फसल तैयार हो जाती है और इस प्रकार की खेती में श्रम की आवश्यकता भी कम होती है.

10. इस नई तकनीक के माध्यम से शुष्क क्षेत्रों और शहरों में वर्ष पर्यंत हरा चारा पैदा किया जा सकता है, जिससे अधिक दुग्ध उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है.

कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 

रविवार, 26 जुलाई 2020

खेतों की मेड़ों पर वर्षभर करें पशुधन के लिए हरा चारा उत्पादन

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

जनसँख्या दबाव, शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण की वजह से दिन प्रति दिन कृषि योग्य भूमि कम होती जा रही है, जिससे एक ओर खाद्यान्न उत्पादन में कठिनाई आ रही है, वहीं दूसरी ओर पशुधन के लिए आवश्यक पौष्टिक हरा चारा भी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है यदि चारा उगाने के लिए अधिक भूमि का प्रयोग किया जाता है, तो इससे खाद्यान्न उत्पादन में नकारात्मक असर पड़ सकता है इस समस्या से पूर्ण निजात पाने के लिए यह जरुरी हो जाता है, कि खाद्यान्न उत्पादन को प्रभावित किये बिना पशुधन के लिए आवश्यक हरा चारा उत्पादित किया जाये.इसके लिए खेतों के चारों तरफ खाली पड़ी मेंड़ों पर हरा चारा का वर्ष पर्यन्त उत्पादन लिया जा सकता है एक अनुमान के अनुसार भारत में मेंड़ों का कुल क्षेत्रफल 383.8 हजार हेक्टेयर है जिससे हम प्रति वर्ष  लगभग 43,542 टन हरा चारा प्राप्त कर सकते है छत्तीसगढ़ में खेतों की मेड़ों के अंतर्गत लगभग 10 प्रतिशत भूमि आती है जिसका कोई उपयोग नहीं हो पा रहा है।

खेत की मेंड़ पर नेपियर घास फोटो साभार गूगल 
मेंड़ पर चारा उगाने की तकनीक से जहां खाली पड़ी मेंड़ों का उपयोग हो जाता है वहीं दूसरी तरफ अन्य फायदे भीं होते है जैसे-चारा उत्पादन लागत में कमीं, पारंपरिक चारा उत्पादन की तुलना में प्रति इकाई क्षेत्रफल में अधिक चारा उत्पादन और अधिक ऊंचाई वाली फसलें जैसे संकर नेपियर बाजरा, गिनी घास आदि के जडित कल्ले मेड़ों पर लगाने से ये बाड़ (घेरा) का भी काम करती है इसके अलावा मेंड़ों पर खरपतवार पनपने की समस्या भी समाप्त हो जाती है इस प्रकार मेंड़ों पर उत्पादित हरे चारे से 5 लाख से अधिक पशुओं को वर्ष भर हरा चारा उपलब्ध हो सकता है संकर नेपियर घास एवं गिनी घास मेंड़ पर उगाने के लिए उपयुक्त पाई गई है. जलमग्न भूमि की मेंड़ों पर पैरा घास आसानी से उगाई जा सकती है उद्यानों या बागानों में गिनी घास अच्छा उत्पादन देती है पेड़ों की छाया में भी इस घास से हरा चारा प्राप्त किया जा सकता हैबारानी दशाओं के लिए अंजन घास अथवा सेवन घास उपयुक्त रहती है सिंचित क्षेत्रों में किसान चाहे तो खेतों की मेड़ों की बेकार पड़ी भूमि पर लौकी, तोरई, करेला, सेम (मंडप बनाकर) तथा मंडप के नीचे  मटर, फूल गोभी, पत्ता गोभी, स्ट्राबेरी आदि फसलों की मल्टीलेयर खेती करके अतिरिक्त आमदनी अर्जित कर सकते है

मेंड़ों पर हरा चारा रोपण तकनीक

मेंड़ों पर चारा रोपण के लिए बहुवर्षीय चारा फसलों के जीवित कल्लों की आवश्यकता होती है आमतौर पर इन कल्लों की रोपाई 50-100 सेमी. की दूरी पर वर्षा के मौसम में की जाती है इसकी रोपी जडित कल्ले या तनों की कटिंग  से की जाती है तने की कटिंग में कम से कम 3-4 आँखें (बड) होना चाहिए. रोपाई का उपयुक्त समय फरवरी-मार्च तथा जुलाई-अगस्त होता है रोपाई के लिए कटिंग को जमीन में कुदाली की सहायता से 450 कों पर 4 से 5 सेमि. गहरा रोपकर आस-पास की मिट्टी अच्छे से दबा देते है तने की कटिंग लगाते समय कम से कम दो कलियाँ (बड) भूमि के अन्दर दबानी चाहिए कल्लों या कटिंग की रोपाई के पश्चात वर्षा न होने की स्थिति में हल्का पानी देना चाहिए जिससे वह मिट्टी में अच्छी प्रकार से पकड़ बना लें. रोपाई के कुछ दिनों बाद जीवित कल्लों से छोटी-छोटी पत्तियां निकलने लगती है. रोपाई के 30-35 दिनों के बाद जड़ों से कल्ले फूटने लगते है प्रयोगों में देखा गया है की 4 माह में प्रत्येक कल्ले से 12-18 कल्ले विकसित हो जाते है रोपाई के 60-68 दिनों बाद प्रथम कटाई में प्रत्येक घेर से 2-3 किग्रा (2-4 क्विंटल प्रति 100 मीटर मेंड़) हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है.संकर नेपियर की उपयुक्त किस्मों में आई.जी.एफ.आर.आई.हाइब्रिड नेपियर न.6,7 एवं 10 उपयुक्त पाई गई है जिनसे 70-100 क्विंटल हरा चारा प्राप्त होता है अन्य किस्मों में एन.बी.-21 से 100-160 क्विंटल, यसवंत से 190-250 क्विंटल तथा सी.ओ.-3 से 400-450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है   

कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 

अधिक उपज के लिए ऐसे करें फसलों में पोषक तत्व प्रबंधन

        डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

भारत के आर्थिक विकास में कृषि का महत्वपूर्ण योगदान है। देश 60 प्रतिशत से अधिक आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपने जीवनयापन के लिए कृषि पर निर्भर है। यही नहीं देश में शक्कर, गुण,सूती कपड़ा निर्माण के लिए कपास, सब्जी,फल-फूल सभी कुछ कृषि पर निर्भर है । कृषि क्षेत्र में लगातार हो रही तकनीकी विकास और किसान हितैषी सरकारी योजनाओं की बदौलत आज कृषि उन्नति और प्रगति के राह पर है।स्वतन्त्रता के बाद देश में खाद्यान्न उत्पादन, दुग्ध उत्पादन, शक्कर उत्पादन,फल और सब्जी उत्पादन आदि में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई होने के फलस्वरूप आज हम अनेक कृषि उत्पाद के मामले में आत्म निर्भर हो गए है।हरित क्रांति की सफलता की वजह से खाद्यान्न उत्पादन एवं अन्य कृषि उत्पाद में वृद्धि संभव हो सकती है जिससे अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्मों के साथ-साथ सिंचाई एवं पोषक तत्वों की अतुलनीय भुमिका रही है। यह सर्विदित है की अनाज उत्पादन से लेकर कृषि की सभी जिन्सों के उत्पादन में 50 प्रतिशत वृद्धि केवल उर्वरकों के उपयोग के कारण हुई है। उन्नत किस्मों के विकास तथा सिंचाई सुविधाओं के प्रसार के करण देश में उर्वरक उपयोग में निरंतर वृद्धि हो रही है। देखने में आया है की फसलों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों में से किसान भाई नत्रजनयुक उर्वरकों का अधिक प्रयोग करते है, जिससे भूमि में अन्य आवश्यक पोषक तत्वों का संतुलन बिगड़ गया है जिसके फलस्वरूप उत्पादकता में वांक्षित वृद्धि नहीं हो पा रही है। उत्तम गुणवत्ता युक्त बेहतर उपज के लिए पोषक तत्वों का संतुलित मात्रा में उपयोग नितान्त आवश्यक है।

पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्व

पौधों की अच्छी वृद्धि एवं समुचित विकास के लिए मुख्यरूप से 17 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। भूमि में इन पोषक तत्वों की कमीं से फसल की वृद्धि एवं विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिससे फसलों की पैदावार कम हो जाती है। अतएव कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए खाद एवं उर्वरकों के माध्यम से पोषक तत्वों का उचित प्रबंधन आवश्यक हो जाता है. पौधों का 95 प्रतिशत भाग कार्बन,हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन से निर्मित होता है. जबक शेष 5 प्रतिशत भाग में अन्य पोषक तत्वों का योगदान रहता है। पौधों की आवश्यकतानुसार पोषक तत्वों को मुख्यरूप से निम्न दो भागों में विभाजित किया गया है:

   1.मुख्य पोषक तत्व: इस वर्ग में कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नत्रजन, फॉस्फोरस, पोटाश, कैल्शियम, मैग्नेशियम एवं सल्फर पोषक तत्व आते है. इन पोषक तत्वों को पुनः तीन भागों में विभाजित किया गया है:

(अ)आधारभूत पोषक तत्व: कार्बन, हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन तत्व इस वर्ग में आते है जो पौधों को हवा एवं पानी के माध्यम से प्राप्त हो जाते है. ये तत्व वायुमंडल में प्रचुर मात्रा में पाए जाते है, अतः इन्हें अलग से देने की आवश्यकता नहीं होती है.

(ब)प्राथमिक पोषक तत्व: इस वर्ग में मुख्य रूप से नत्रजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश को सम्मलित किया गया है. पौधों को इन तत्वों की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है और ये तत्व भूमि से जल के माध्यम से अवशोषित किये जाते है.

(स) द्वितीयक पोषक तत्व: इसमें मुख्यतः कैल्शियम, मैग्नेशियम एवं सल्फर तत्व आते है. ये पोषक तत्व भूमि से लिए जाते है, लेकिन प्राथमिक पोषक तत्वों की अपेक्षा इनकी कम आवश्यकता पड़ती है।

2.सुक्ष पोषक तत्व: पौधों को इन पोषक तत्वों की बहुत कम मात्रा की आवश्यकता होती है परन्तु पौधों की वृद्धि एवं जीवन चक्र को पूरा करने के लिए मुख्य पोषक तत्वों के सामान इनकी भी जरुरत होती है। आज कल सघन फसल प्रणाली अपनाने के कारण बहुत सी मिट्टियों में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमीं परिलक्षित हो रही है। इस वर्ग में आयरन, जिंक, मैगनीज, बोरोन, तांबा, कोबाल्ट आदि आते है।

पोषक तत्वों के प्रकार एवं महत्त्व

पौधे अपना भोजन मुख्यतः पत्तियों के हरे भाग (प्रकाशसंश्लेषण) के माध्यम से ग्रहण करते है। पौधे भूमि से आवश्यक पोषक तत्व घोल अथवा द्रव के रूप में जड़ों द्वारा ग्रहण करते है। अधिक और गुणवत्तायुक्त उत्पादन के लिए यह आवश्यक है की भूमि में सभी आवश्यक पोषक तत्वों का प्रबंधन किया जाए। जैसे बीज खेती का आधार है, उसी प्रकार अच्छी पौध वृद्धि, उपज एवं गुणवत्ता का आधार पोषक तत्वों को माना जाता है। फसल की समुचित वृद्धि एवं विकास के लिए आवश्यक पोषक तत्व खाद एवं उर्वरकों के माध्यम से दिए जाते है। खाद एवं उर्वरकों को उनकी उपलब्धता के साधन एवं पोषक तत्वों की मात्रा के आधार पर कार्बनिक, अकार्बनिक एवं जैविक खादों में बांटा गया है।

पशुओं के गोबर और जैविक कचड़ा को मिलाकर कम्पोस्ट खाद बनाया जाता है। इसमें पोषक तत्वों की मात्रा कम होती है जिससे इनकी अधिक मात्रा लगती है। फसलों की मांग के अनुरूप पोषक तत्वों की आपूर्ति करने के लिए पर्याप्त मात्रा में जैवक खाद उपलब्ध न हो पाने की वजह से आज काल किसान भाई रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल अधिक करते है। उर्वरक का उपयोग सस्ता और आसान रहता है।

उर्वरक एक प्रकार के रासायनिक यौगिक होते है जिन्हें कारखानों में तैयार किया जाता है तथा इनमें एक या एक से अधिक पोषक तत्व अधिक मात्रा में पाए जाते है। मुख्य पोषक तत्वों यथा नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश की आपूर्ति के लिए उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है. इन पोषक तत्वों को फसल उत्पादन के लिए अधिक आवश्यकता होती है।उर्वरकों में पाये जाने वाली पोषक तत्वों के आधार पर इनकों तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है:

(i)           नत्रजन धारी उर्वरक: यूरिया, अमोनियम सल्फेट, कैल्शियम नाइट्रेट

(ii)          फॉस्फोरस धर उर्वरक: सिंगल सुपर फॉस्फेट, डबल सुपर फॉस्फेट, ट्रिपल सुपर फॉस्फेट, डाईअमोनियम फॉस्फेट (डी ए पी)

(iii)        पोटाशधारी उर्वरक: म्यूरेट ऑफ़ पोटाश.पोटेशियम क्लोराइड

पोषक तत्वों (उर्वरकों) का उपयोग हमेशा निम्न बातों को ध्यान में रखकर करना चाहिए जिससे फसलों की अच्छी वृद्धि एवं बेहतर उपज प्राप्त होने के साथ-साथ पोषक तत्व उपयोग क्षमता में वृद्धि हो सके।

(i)           फसल की किस्म (ii) भूमि का प्रकार (iii) भूमि में नमीं की उपलब्धतता एवं (iv) भूमि की उर्वरता

खरीफ एवं रबी फसलों में पोषक तत्व प्रबंधन

खरीफ फसलों की खेती सामान्यतौर पर वर्षा पर आधारित होती है. कम वर्षा वाले क्षेत्रों में मुख्य रूप से ज्वार, बाजरा,मक्का के अलावा दलहनी व तिलहनी फसलों की खेती की जाती है। जबकि अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इन फसलों के अलावा धान की फसल भी ली जाती है। सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने पर रबी ऋतु में गेंहू, सरसों, चना, सूर्यमुखी, गन्ना आदि फसलों की खेती की जाती है। इन सभी फसलों से अधिकतम पैदावार के लिए पोषक तत्वों को फसल में उचित मात्रा में एवं सहीं समय पर देना अत्यंत आवश्यक है।

खरीफ फसलों में पोषक तत्व प्रबंधन

फसल

पोषक तत्वों की मात्रा (नत्रजन:फॉस्फोरस:पोटेशियम, किग्रा/हे.)

उर्वरक देने का समय

धान-बौनी

किस्में

80-100:40-50:20-25

20 % नत्रजन तथा फॉस्फोरस व पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई/रोपाई के समय

50 % नत्रजन बुवाई के 40-50 दिन तथा शेष 30% बुवाई के 60-70 दिन बाद

ज्वार

80-100:40:20

½ नत्रजन एवं फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय

½ नत्रजन बुवाई के 30-35 दिन बाद

बाजरा

80:40:20

½ नत्रजन एवं फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय

½ नत्रजन बुवाई के 30-35 दिन बाद

मक्का

80-120:40:20

½ नत्रजन एवं फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय

 ¼ नत्रजन बुवाई के 30 दिन बाद एवं ¼ नत्रजन 45-50 दिन बाद  

मूंग/उड़द/लोबिया

20:30:10

सम्पूर्ण नत्रजन एवं फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय

 

अरहर

30:40:20

सम्पूर्ण नत्रजन एवं फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय

 

मूंगफली

20-30:60:20

सम्पूर्ण नत्रजन एवं फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा तथा 250 किग्रा.जिप्सम बुवाई के समय

 

तिल

40-50:30:20

½ नत्रजन तथा फॉस्फोरस व् पोटाश की पूरी मात्रा के अलावा 250 किग्रा जिप्सम बुवाई के समय

½ नत्रजन बुवाई के 30-35 दिन बाद

रबी फसलों में पोषक तत्व प्रबंधन

फसल

पोषक तत्वों की मात्रा (नत्रजन:फॉस्फोरस:पोटेशियम, किग्रा/हे.)

उर्वरक देने का समय

गेंहूँ

120:40:30

1/3 नत्रजन एवं फॉस्फोरस तथा पोटेशियम की पूरी मात्रा बुवाई के समय

1/3 नत्रजन पहली सिंचाई के समय एवं 1/3 नत्रजन दूसरी सिंचाई के समय

जौ

80:40:10

½  नत्रजन एवं फॉस्फोरस तथा पोटेशियम की पूरी मात्रा बुवाई के समय

½ नत्रजन पहली सिंचाई के समय

सरसों

80-100:40:20

½ नत्रजन एवं फॉस्फोरस तथा पोटेशियम की पूरी मात्रा बुवाई के समय

½ नत्रजन पहली बुवाई के 30-35 दिन बाद

चना/मटर

20:40:20

सम्पूर्ण नत्रजन एवं फॉस्फोरस तथा पोटेशियम बुवाई के समय

 

गन्ना

120-150:80:60

½  नत्रजन एवं फॉस्फोरस तथा पोटेशियम की पूरी मात्रा गन्ना लगाते समय

½ नत्रजन बुवाई के 110-120 दिन बाद

खाद एवं उर्वरक देते समय ध्यान योग्य बातें

1.   सभी पोषक तत्वों को खाद एवं उर्वरक के माध्यम से भूमि में दिया जाना चाहिए. खाद एवं उर्वरक की मात्रा फसल की किस्म, भूमि की दशा तथा मृदा में नमीं की मात्रा पर निर्भर करती है। अनाज वाली फसले जैसे धान, ज्वार, बाजरा, गेंहू, मक्का आदि को दलहनी फसलों की अपेक्षा अधि नत्रजन की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार तिलहनी फसलों को भी अधिक नत्रजन की जरुरत होती है। जबकि दलहनी फसलों को नत्रजन कम एवं फॉस्फोरस की आवश्यकता अधिक होती है। दलहनी फसलें अपनी जड़ों में वायुमंडलीय नत्रजन का स्थिरीकरण कर नत्रजन की पूर्ती स्वतः कर लेती है।

2.   फसलों के लिए पोषक तत्वों की सही मात्रा का निर्धारण मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए. ऐसा करने से उर्वरकों की बचत हो सकती है और फसल को संतुलित मात्रा में आवश्यकतानुसार पोषक तत्व उपलब्ध हो सकेंगे।

3.   फसलों को पोषक तत्वों की आपूर्ति खाद, उर्वरक एवं जैव उर्वरकों के माध्यम से कराई जाती है तो इस विधा को समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन कहते है। इस तकनीक का उपयोग करने से भूमि की उर्वरा शक्ति बरक़रार रहती है और फसल की उपज में भी बढ़ोत्तरी होती है।

4.   तिलहनी फसलों को गंधक (सल्फर) तत्व की आवश्यकता होती है। अतः 30-40 किग्रा. सल्फर या फिर 250 किग्रा. जिप्सम प्रति हेक्टेयर का इस्तेमाल कर in फसलों की उपज और बीज में तेल की मात्रा को बढाया जा सकता है.

5.   दलहनी फसलों की अच्छी पैदावार के लिए बुवाई पूर्व बीज का राइजोबियम कल्चर से उपचार के साथ  पौधों की शुरुआती बढ़वार एवं विकास के लिए बुवाई के समय 20-30 किग्रा नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से देना आवश्यक होता है.

6.   फसल प्रणाली में दलहनी फसलों का समावेश अवश्य करें अर्थात फसलों को हेर फेर कर (फसल चक्र) बोना चाहिए ताकि भूमि की उर्वरा शक्ति कायम रह सकें.

उपरोक्तानुसार फसलों में पोषक तत्वों का उचित मात्रा में संतुलित एवं समन्वित प्रयोग करके न केवल अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है, बल्कि भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाये रखा जा सकता है जो हमारी भूमि के स्टेट एवं टिकाऊ उत्पादन के लिए बहुत आवश्यक है।

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