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रविवार, 21 अप्रैल 2013

एक चमत्कारिक फसल- सोयाबीन का सस्यविज्ञान

           डॉ . गजेन्द्र सिंह तोमर 
                  प्रमुख वैज्ञानिक, सस्य विज्ञानं बिभाग 
                      इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)      

सोयाबीन: विविध उपयोग 

            सोयाबीन अर्थात ग्लाइसिन मैक्स  दलहनी कुल की तिलहनी फसल है। इसे एक चमत्कारी फसल की संज्ञा दी गई है क्योकि   इसके दाने में 40-42 प्रतिशत उच्च गुणवत्ता वाली प्रोटीन और 18-20 प्रतिशत तेल के अलावा 20.9 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 0.24 प्रतिशत कैल्शियम, 11.5 प्रतिशत फास्फोरस व 11.5 प्रतिशत लोहा पाया जाता है। सोयाबीन में 5 प्रतिशत लाइसिन नामक अमीनो अम्ल पाया जाता है, जबकि अधिकतर धान्य फसलों में इसकी कमी पायी जाती है। प्रचुर मात्रा  में विटामिन पाये जाने के कारण एन्टीबाइटिक दवा बनाने के लिए यह विशेष उपयुक्त है । प्रोटीन व तेल की अधिकता के कारण इसका उपयोग घरेलू एंव औद्योगिक स्तर पर किया जाता है। सोयाबीन ऐसा खाद्य पदार्थ है जो  लगभग गाय के दूध के समान पूर्ण आहार माना जाता है । इससे दूध, दही तथा अन्य खाद्य साम्रगी तैयार की जाती है। बीज में स्टार्च की कम मात्रा तथा प्रोटीन की अधिकता होने के कारण मधुमेह रोगियों के लिए यह अत्यंत लाभप्रद खाद्य पदार्थ हैं। इसके अलावा वनस्पति तेल-घी, साबुन, छपाई की स्याही, प्रसाधन सामग्री, ग्लिसरीन, औषधियाँ आदि बनाई जाती हैं। सोयाबीन की खली और भूसा मूर्गियों एंव जानवरों के लिए सर्वोत्तम भोजन है। दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ों में ग्रंथियाँ  पाई जाती हैं जो  जिनमे वायुमंडलीय नत्रजन संस्थापित करने की  क्षमता होती हैं जिससे भूमि की उर्वरता बढ़ती है। सोयाबीन का विविध प्रयोग एवं अनेक विशेषताएँ होने के कारण इसे मिरेकल क्राप और  चमत्कारी फली  कहा जाता हैं।सोयाबीन की दाल की उपयोगिता अधिक है । इससे तरह-तरह के व्यंजन बनते है । परन्तु अभी भी भारतीय घरो  में सोयाबीन के उत्पाद अधिक प्रचलित नहीं हुए है । 
मूँगफली एवं सोयाबीन के पोषक तत्वो  का तुलनात्मक विवरण
विवरण                सोयाबीन (प्रतिशत)        मूँगफली (प्रतिशत)
जल                              8.1                                7.9
प्रोटीन                         43.2                               2.7
वसा                           19.5                                40.1
कार्बोहाइड्रेट                20.9                               20.3
खनिज                         4.6                                 1.9
फॉस्फ़ोरस                   0.69                               0.39
कैल्शियम                   0.24                               0.05
लोह (मिग्रा)                 11.5                                1.6
कैलोरी भेल्यू               451                                  549       

         सम्पूर्ण भारत के कुल उत्पादन का 59.06 प्रतिशत सोयाबीन उत्पादन कर मध्यप्रदेश प्रथम स्थान पर है , इसलिए  इसे सोयाबीन राज्य के नाम से जाना जाता है। प्रदेश में वर्ष 2008-09 में स¨यबीन 5.12 मिलियन हैक्टर क्ष्¨त्र्ा में उगाया गया जिससे 5.85 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त किया गया । प्रदेश में स¨याबीन की अ©सत उपज 1142 किग्रा, प्रति हैक्टर रही ।  छत्तीसगढ़ राज्य में 133.06 हजार हेक्टेयर में सोयाबीन  की खेती होती है  जिससे 1114 किग्रा. प्रति हेक्टेयर औसत उपज प्राप्त होती है ।

 उपयुक्त जलवायु
    साधारण शीत से लेकर साधारण उष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में सोयाबीन की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। सोयाबीन के बीजो  का अंकुरण 20-32 डि से  तापक्रम पर 3-4 दिन में हो जाता है। फसल वृद्धि के लिए 24-28 डि से तापमान उचित रहता है। बहुत कम (10 डि से  से कम) या अधिक होने पर सोयाबीन की वृद्धि, विकास एंव बीज की गुणता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सोयाबीन एक अल्प प्रकाशापेक्षी पौधा   है जिससे इसकी अधिकांश किस्मों में दिन छोटे व रातें लम्बी होने पर ही फूल आता है। इसकी अधिकांश किस्मों में दिन की अवधि 14 घंटे से कम होने पर ही फूल आता है। भारत में खरीफ में उगाई जाने वाली किस्में प्रकाशावधि के लिए अधिक संवेदनशील होती हैं। अच्छी फसल के लिए 62-75 सेमी. वार्षिक वर्षा होना आवश्यक हैं। शाखाएँ व फूल बनते समय खेत में नमी रहना आवश्यक है । पुष्पीय कलियो  के विकसित होने के 2-4 सप्ताह पूर्व पानी की कमी होने से पौधो की शाकीय वृद्धि घट जाती है जिसके फलस्वरूप अधिक संख्या में फूल व फलियाँ गिर जाती है । फल्लियाँ पकते समय वर्षा  होने से फलियो  पर अनेक रोग लग जाते है जिससे वे सड़ जाती है साथ ही बीज गुणता में भी कमी आ जाती है । यदि कुछ समय तक पौधे सूखे की अवस्था में रहे और इसके बाद अचानक बहुत वर्षा हो जाए या सिंचाई कर दी जाए, तो फल्लियाँ गिर जाती है।
भूमि का चयन 
             सोयाबीन की खेती के लिए उचित जल निकास वाली हल्की मृदायें  अच्छी रहती हैं। दोमट, मटियार दोमट  व अधिक उर्वरता वाली कपास की काली मिट्टियों  में सोयाबीन फसल का उत्पादन सफलतापूर्वक किया जा सकता है। भूमि का पी. एच. मान 6.5 से 7.5 सर्वोत्तम पाया गया है। छत्तीसगढ़ की डोरसा एंव कन्हार जमीन सोयाबीन की खेती के लिए अच्छी होती है। अम्लीय मृदाओं   में चूना तथा क्षारीय मृदाओंमें जिप्सम मिलाकर खेती करने से इसकी जड़ों में गाँठों का विकास अच्छे से होता है।
खेत की तैयारी
          खेत की मिट्टी महीन, भुरभुरी तथा ढेले रहित होनी चाहिए। पिछली फसल की कटाई के तुरंत बाद खेत में गहरी जुताई करने से भूमि में वायु संचार और  जल सग्रहण क्षमता  बढ़ती है और विभिन्न खरपतवार, रोगाणु व कीट आदि धूप से नष्ट हो जाते हैं। इसके बाद दो या तीन बार देशी हल से खेत की जुताई कर पाटा चलाकर खेत को समतल व भुरभुरा कर लेना चाहिए। खेत में हल्का ढलान देकर जल निकास  का समुचित प्रबंध भी कर लेना चाहिए। समयानुसार वर्षा न होने की स्थिति में सिंचाई उपलब्ध हो तो पलेवा  देकर बुवाई की जा सकती है। ऐसा करने पर अंकुरण अच्छा होता है।
उन्नत किस्में
    सोयाबीन की सफल खेती, साथ ही साथ अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने का प्रमुख आधार, उपयुक्त किस्म का चयन व उत्तम बीज का चुनाव ही है। उत्तम किस्म का सोयाबीन का स्वस्थ बीज बोने से उपज में लगभग  20-25 प्रतिशत की वृद्धि की जा सकती है। उन्नत किस्म का बीज राज्य कृषि विश्वविद्यालय, कृषि विभाग या अन्य विश्वसनीय प्रतिष्ठानो से क्रय किया जाना चाहिए।
सोयाबीन की प्रमुख उन्नत किस्मो  की विशेषताएँ
1.जेएस. 93-05: सोयाबीन की यह शीघ्र पकने (90-95 दिन) वाली किस्म है । इसके फूल बैंगनी रंग के ह¨ते है तथा फली में चार दाने होते है । इस किस्म की उपज क्षमता 200-2500 किग्रा.प्रति हैक्टर आंकी गई है ।
2.जेएस. 72-44: सोयबीन की यह भी अगेती (95-105 दिन) किस्म है । इसका पौधा सीधा, 70 सेमी. लम्बा। होता है । इसकी उपज क्षमता     2500-3000 किग्रा. प्रति हैक्टर है ।
3.जे. एस.-335: यह 115-120 दिन में पकने वाली किस्म है जिसका दाना पीला तथा फल्लियाँ चटकने वाली होती है । इसकी ओसत उपज 2000-2200 किग्रा. प्रति हैक्टर होती है ।
4.जेएस. 90-41: स¨याबीन की यह किस्म 90-100 दिन में तैयार होती है । इसके फूल बैंगनी रंग के ह¨ते है तथा प्रति फली 4 दाने पाये जाते है । इसकी अ©सत उपज क्षमता 2500-3000 किग्रा. प्रति हैक्टर मानी जाती है ।
5.समृद्धि: यह शीघ्र तैयार ह¨ने (93-100 दिन) वाली किस्म है । इसके फूल बैगनी, दाना पीला दाना और  नाभि काल ह¨ती है । ओसत उपज क्षमता 2000-2500 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है ।
6.अहिल्या-3: यह किस्म 90-99 दिन में पककर तैयार ह¨ती है तथा ओसतन 2500-3500 किग्रा. उपज क्षमता रखती है । इसके फूल बैगनी तथा दाने पीले ¨ रंग के होते है । विभिन्न कीट-रोग प्रतिरोधी किस्म है ।
7.अहिल्या-4: यह किस्म 99-105 दिन में पककर तैयार होती है । इसके फूल सफेद तथा दाना पीला और नाभि भूरी होती है । इसकी उपज क्षमता 2000-2500 किग्रा. प्रति हैक्टर होती है ।
8.पीके-472: यह किस्म 100-105 दिन में तैयार होती है । इसके फूल सफेद तथा पीला दाना होता है । ओसत उपज क्षमता 3000-3500 किग्रा. प्रति हैक्टर होती है ।
9.जेएस. 75-46:  बोआई से 115-120 दिन में तैयार होने वाली इस किस्म के फूल गहरे बैंगनी रंग तथा दाना पीला होता है । ओसतन 2000-2200 किग्रा. उपज देने में सक्षम पाई गई है ।
10.जेएस 72-280(दुर्गा): सोयाबीन की यह किस्म 102-105     दिन में पकती है । सफेद फूल, पीला दाना तथा काली नाभि वाली यह किस्म 2000-2200 किग्रा. उपज देने में सक्षम पाई गी है ।
11.एमएसीएस-58: शीघ्र तैयार (90-95 दिन) होने वाली इस किस्म के फूल बैंगनी, पीला दाना और  भूरी नाभि पाई जाती है । ओसत उपज क्षमता 2500-4000 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है ।
12.जेएस. 76-205(श्यामा): यह किस्म 105-110 दिन में तैयार ह¨ती है । इसके फूल बैगनी तथा  दाना काल्¨ रंग का होता है । ओसतन 2000-2500 किग्रा. उपज क्षमता पाई गई है ।       
13. इंदिरा सोया-9: यह किस्म 110-115 दिन में पकती है । इसके फूल बैंगनी तथा दाना पीले  रंग का होता है । ओसत उपज क्षमता 2200-2500 किग्रा. प्रति हैक्टर पाई गई है ।
14. परभनी सोनाः सोयबीन की यह शीघ्र तैयार होने वाली (85-90 दिन) बहु-रोग प्रतिरोधी किस्म है ।इसके 100 दानो  का भार 11-12 ग्राम तथा उपज क्षमता 2500-3000 किग्रा. दर्ज की गई है ।
15.प्रतीक्षा (एमएयूएस-61-2): यह मध्यम अवधि में तैयार ह¨ने वाली किस्म है जो  जेएस-335 से 10 प्रतिशत अधिक उपज देती है । मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश (बुन्देलखण्ड) तथा महाराष्ट्र राज्य में खेती हेतु संस्तुत की गई है
बोआई का समय
           सोयाबीन की अतिशीघ्र बोआई  से पौधों की वृद्धि अधिक होकर उपज सीमित हो जाती है, जबकि देर से बोने पर तापमान कम हो जाने के कारण पौधों की वृद्धि कम हो जाती है और उपज कम आती है। अतः उपयुक्त समय पर बोआई करना चाहिए। इसका बुवाई का समय इस प्रकार निश्चित करना चाहिए कि पौधों को वानस्पतिक बढ़वार के लिए उचित प्रकाशवधि   मिले। खरीफ में बुवाई के लिये जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के द्वितीय सप्ताह तक का समय उपयुक्त पाया गया है। रबी , बसन्त और गर्मी के मौसम में भी कुछ क्षेत्रों मे सोयाबीन उगाई जा सकती है।
बीज दर एंव पौध  अन्तरण
    बीज का आकार, किस्म, बीज की  अंकुरण क्षमता, बोने की विधि व समय के आधार पर बीज  की मात्रा  निर्भर करती है। सोयाबीन बीज जिसकी अंकुरण क्षमता 85 प्रतिशत हो और 1000 दानों का वजन 125-140 ग्राम हो, चयन करना चाहिए। बुवाई से पूर्व बीज अंकुरण क्षमता ज्ञात कर लें और 60-70 प्रतिशत अंकुरण क्षमता हो तो बीज दर सवा गुना कर बोयें।
    सामान्य तौर पर बड़े दाने वाली सोयाबीन की किस्मो  के लिए 80-90 कि.ग्रा., मध्यम दाने वाली किस्मो  के लिए 70-75 किग्रा. तथा छोटे दानो  वाली किस्मो  हेतु  55-60 किग्रा, बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई करना चाहिए। उत्तम उपज के लिए  खेत में वांछित पौध संख्या (3-4 लाख पौधे/हे. ) कायम रखना आवश्यक पाया गया  है । खरीफ में  सोयाबीन 30-45 सेमी. पंक्ति से पंक्ति के फासले पर तथा बसंन्तकालीन फसल में 30 सेमी. की दूरी पर बोना चाहिए। पौधे से पौधे का अन्तर 5 से 8 से. मी. रखना उचित होता है। बसंत ऋतु में 100 किग्रा. प्रति हे. बीज की आवश्यकता होती है। सोयाबीन की खेती में बीज बोने की गहराई का भी विशेष महत्व है। बीज बोने की गहराई मृदा की किस्म व उसमें नमी की मात्रा और बीज के आकार पर निर्भर करती है। सोयाबीन बीज की बुवाई हल्की मिटटी  में 3-5 से.मी. तथा चिकनी व इष्टतम नमी युक्त  चिकनी व भारी मिट्टी में 2-3 सेमी. की गहराई पर ही करनी चाहिए अन्यथा बीज को चींटियाँ   क्षति पहुंचा सकते हैं। बोने के बाद बीज को लगभग 8-10 दिन तक पक्षियों से बचाए रखें ताकि नवजात पौधों को क्षति न पहुँचे।
बीजोपचार
           प्रारंभिक अवस्था में पौधों को फफूँदजनक रोगोंसे बचाने के लिए 1.5 ग्राम थायरम व 1.5 ग्राम कार्बेन्डाजिम (बाविस्टिन) प्रति कि.ग्रा. बीज से बीजोपचार करें। बीजोपचार के समय हाथों में दस्ताने  पहनें और मुँह पर कपड़ा लपेटें या फेसमास्क लगाएँ। वायुमंडल की नाइट्रोजन पौधे को उपलब्ध होती रहे व भूमि की उर्वरा शक्ति भी अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ाने के लिए उपरोक्त उपचारित बीज को  पुनः सोयाबीन के राइजोबियम कल्चर  25 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। बीज के साथ कल्चर को  अच्छी प्रकार से मिलाने के लिए 10 प्रतिशत गुड़ का घोल (100 ग्राम गुड़ एक लीटर पानी) बनाकर 15 मिनट उबालकर, कमरे के तापक्रम पर ठण्डा कर लेते हैं। इसमें कल्चर का एक पैकेट (250 ग्राम) डालकर  अच्छी तरह से मिलाते हैं। कल्चर के इस मिश्रण को  10 किग्रा. बीज पर डालकर एक समान मात्रा में मिलाकर छाया में सुखाया जाता है। जिस ख्¨त में पहली बार स¨याबीन ली जा रही है उसमें कल्चर की दुगनी या तीन गुनी मात्रा  का प्रयोग करना चाहिए । कल्चर को  अधिक गर्म या ठंडे स्थानो  पर रखने से इसके जीवाणु मर जाते है तथा यह प्रभावी नहीं रह पाता है । राइजोबियम कल्चर से बीजोपचार करने से पौधों की जड़ों में ग्रंथियाँ  अधिक संख्या में बनती हैं, जिनसे वायुमंडली नाइट्रोजन पौधे को प्राप्त होती है। ध्यान रखें कि फफूँदनाशक दवा एंव राइजोबियम कल्चर को एक साथ मिलाकर कभी भी बीजोपचार नहीं करना चाहिए। उपचारित बीज को ठंडे व छायादार जगह पर रखें तथा यथाशीघ्र बुवाई करना चाहिए। राइजोबियम कल्चर न मिलने पर किसी भी खेत  की मिट्टी, (जहां पूर्व में 2-3 वर्ष से सोयाबीन लगाई जा रही ह¨) 15 सेमी. की गहराई से खोदकर  10-12 क्विंटल  की दर से मिटटी में मिलाना चाहिए ।
बोआई विधियाँ
            सोयाबीन की बुवाई छिंटकवां विधि, सीड ड्रिल से या देशी हल के पीछे कूँड़ो  में की जाती है । आमतौर पर सोयाबीन छिटकवाँ विधि से बोया जाता है। यह वैज्ञानिक विधि नहीं हैं क्योंकि इस विधि में पौधे असमान दूरी पर स्थापित होते हैं, बीज अधिक लगता है और फसल की निराई-गुडाई व कटाई में असुविधा होती है। देशी हल के पीछे अथवा सीड ड्रिल से कतार में बोआई  करने पर बीज कम लगता है और पौधे समान दूरी पर स्थापित होते है। हल के पीछे कूडो़ में सोयाबीन की बुआई करने पर देशी हल से संस्तुत दूरी पर कूँड बना लिये जाते हैं जिनमें बीज को डालकर हल्की मिट्टी से ढँक दिया जाता है। अधिक क्षेत्र में बोनी हेतु ट्रैक्टर या पशु चलित बुवाई मशीन (सीड ड्रिल) का प्रयोग किया जाता है। फसल बोने के एक सप्ताह बाद यदि कूँड़ में किसी स्थान पर अंकुरण न हुआ हो  तथा मृदा में नमी हो तो   खुरपी की सहायता से रिक्त स्थानो  में बीज की बुवाई कर देने से अच्छी  उपज हेतु  खेत में बांछित पौध संख्या स्थापित हो जाती है।
खाद एंव उर्वरक
    सोयाबीन के पौधों को अच्छी वृद्धि, समुचित विकास, भरपूर उपज और बढ़िया गुणों के लिए समुचित पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। मृदा परीक्षण के बाद पोषक तत्वों की आपूर्ति जैविक खाद और रासायनिक उर्वरक देकर करनी चाहिए। सोयाबीन की 30 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज देने वाली फसल की कायिक वृद्धि  और बीज निमार्ण के लिए लगभग 325 किग्रा. नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है।  परन्तु दलहनी फसल होने के कारण अपनी जड़ ग्रंथिकाओं द्वारा वायुमंडल से नाइड्रोजन ग्रहण करके पौधों को उपलब्ध कराती है। पौधों में ये ग्रंथिकाएँ अधिक हों और वे प्रभावकारी ढ़ग से कार्य करें, तो फसल के लिए आवश्यक नाइट्रोजन संस्थापित हो जाती हैं। इसके लिए राइजोबियम कल्चर से बीज निवेशन  करना आवश्यक है। राइजोबियम कल्चर उपलब्घ न होने पर नाइट्रोजन धारी खाद अधिक मात्रा में उपयोग करना चाहिए। नाइट्रोजन युक्त खाद अधिक मात्रा में देने की अपेक्षा जीवाणु संवर्ध  देना अधिक उत्तम रहता है। फसल की प्रारंभिक बढ़वार के लिए नाइट्रोजन देना लाभकारी रहता है। प्रति हेक्टेयर 10-12 टन गोबर की खाद के साथ 20 किग्रा. नत्रजन बोआई के समय देने से उपज में वृद्धि होती है, साथ ही भूमि की उर्वरता भी बनी रहती है। फूल आने से तुरन्त पहले की अवस्था सोयाबीन के लिए नाइट्रोजन आवश्यकता का क्रान्तिक समय है। जहाँ जीवाणु संवर्ध का प्रयोग नहीं किया गया है, वहाँ फसल की कायिक वृद्धि और अधिक उपज के लिए 120-150 किग्रा. नाइट्रोजन देना चाहिए।
    पौधों की वृद्धि व जड़ों के विकास के लिए फास्फोरस भी उपयोगी तत्व है। फास्फोरस 60-70 किग्रा./हे. देने से उपज व दानों के भार में वृद्धि होती है। इस खाद का 5-25 प्रतिशत भाग ही प्रथम वर्ष में पौधों को प्राप्त हो पाता है। जड़ ग्रंथियों व फल्लियों का विकास, दाने भरने तथा फसल की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए पोटाश का उपयोग करना आवयक है। सामान्य तौर पर भारतीय मृदाओं में पोटाश की आवयकता नहीं होती है। मृदा परीक्षण के आधार पर पोटाश की कमी वाली मृदाओं में पोटाश देना आवश्यक होता है। मृदा परीक्षण की सुविधा न हो , तो 30-40 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर डालना चाहिए। तीनों उर्वरकों को बोआई के समय कूँड में बीच के नीचे प्रयोग करना चाहिए। फास्फोरस को सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में डालने से सल्फर और कैल्सियम तत्वों की आपूर्ति भी हो जाती है।जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में बुआई के समय 25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर जिंक सल्फेट देना लाभकारी पाया गया है। खडी फसल में 5 किग्रा. जिंक सल्फेट तथा 2.5 किग्रा. बुझा हुआ चूना 1000 लीटर पानी में घोलकर एक हेक्टेयर में छिड़काव करने से उपज में वृद्धि होती है।
खरपतवार प्रबन्धन
    सोयाबीन के उत्पादन में खरपतवार प्रकोप की विशेष समस्या आती है और खेत में उपलब्ध नमी एंव पोषक तत्वों का अधिकांश भाग ये खरपतवार ही ग्रहण कर लेते हैं।फलस्वरूप उपज में 50-60 प्रतिशत तक हांनि हो सकती है। सोयाबीन फसल के प्रारंभिक 45 दिन तक खरपतवार नियंत्रण पर ध्यान देना आवश्यक है ताकि उपज पर विपरीत प्रभाव न पड़े। खरपतवार नियंत्रण निम्नानुसार किया जा सकता है-
1. यांत्रिक विधि: सोयाबीन फसल की दो बार निराई-गुड़ाई (पहली 15-20 दिन के अन्दर व दूसरी 30-35 दिन पर) करने की सिफारिश की जाती है। यह कार्य खुरपी, हैण्ड हो, डोरा आदि यंत्रों से किया जाता सकता है ।
2. रासायनिक विधि: खरीफ में प्रायः वर्षा के कारण समय पर प्रभावशाली ढंग से निराई या गुडा़ई कर पाना संभव नहीं हो पाता है । अतः ऐसी परिस्थितियों में नींदानाशक रसायन का प्रयोग सुविधाजनक व लाभप्रद होता है।फसल बोने से पूर्व फ्लूक्लोरालिन 45 ई.सी.(बासालिन) या ट्राइफलूरालिन 48 ईसी (तुफान, त्रिनेम) की 2.5 लीटर मात्रा को 500-600 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हे. छिड़काव करके कल्टीवेटर या हल आदि से मिट्टी में मिला देना चाहिए। बुआई पूर्व क्लोरिम्यूरान इथाइल 25 डब्लूपी (क्लोबेन) 40 ग्राम प्रति हे. को 500 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से भी खरपतवार नियंत्रित हो जाते है। बोने के तुरंत बाद एलाक्लोर 50 ईसी. (लासो) सोयाबीन बोने के तुरंत बाद 2 कि.ग्रा. दवा 800 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हे. छिड़काव करें । फसल अंकुरण पश्चात् खरपतवार नियंत्रण हेतु फयूजीफाप 25 ई.सी. (फयूजीलेड) 0.25 कि.ग्रा. प्रति हे. की दर से प्रयोग करते है। आजकल घास कुल के खरपतवारो  पर नियंत्रण  पाने के लिए अंकुरण पश्चात क्वीजालफॉप-इथाइल 50 ग्राम प्रति हैक्टर क¨ 750-800 लीटर पानी में घ¨लकर ब¨ने के 25 दिन बाद छिड़काव करने की सलाह दी जाती है ।
सिंचाई
    सोयाबीन साधारणतः वर्षाधारित फसल है परन्तु लम्बे समय तक वर्षा न हो, तो सिंचाई करना आवश्यक हो जाता है। सोयाबीन की अच्छी फसल को 45-50 सेमी. पानी की आवश्यकता होती है। सोयाबीन में फूलने, फलने, दाना बनने तथा दानों के विकास का समय पानी के लिए बहुत ही क्रांतिक  होता है। इन अवस्थाओं  में पानी की कमी होने से फूल गिर जाते हैं, फल्लियाँ   कम लगती हैं, दाने का आकार छोटा हो जाता है, फलस्वरूप उपज घट जाती है। लम्बे समय तक सूखे की अवस्था में एक सिंचाई फल्लियों में दाना भरते समय अवश्य देना चाहिए। बलुई मृदा में भारी मिट्टियो  की अपेक्षा सिंचाई अधिक बार करनी पड़ती है। फसल की प्रारम्भिक अवस्था में अधिक सिंचाई से पौधों की वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है जिससे  पौधे जमीन पर गिर जाते हैं जिससे उपज कम हो जाती है। लगातार या भारी वर्षा होने पर ख्¨त में जल निकास की उचित व्यवस्था करना आवश्यक रहता है।
कटाई एंव गहाई
    सोयाबीन फसल तैयार होने में किस्म के अनुसार 90-140 दिन लगते है। पकने पर पत्तियाँ पीली होकर गिरने लगती है। जब फल्लियाँ (90 से 95 प्रतिशत) भूरे या गाढ़े भूरे रंग की हो  जाये तब कटाई करनी चाहिए। इस समय बीज में 15-18 प्रतिशत नमी होती है। देर से कटाई करने पर फल्लियाँ चटकने  लगती हैं व उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। फसल की कटाई हँसिया या कम्बाइन हारवेस्टर द्वारा की जाती हैं। कटी हुई फसल को खलियान में रखकर 8-10 दिन तक सुखाया जाता है। इसके पश्चात् डंडो से पीटकर या बैलों से दाय चलाकर या ट्रैक्टर  से मड़ाई करते  हैं।मड़ाई सावधानी से करें जिससे बीजो  को क्षति न पहुँचे क्योंकि सोयाबीन के बीज मुलायम होते है। सोयाबीन के दाने में हरापन क्लोरोफिल तथा पीलापन एन्थोसायनिन पिगमेंट के कारण होता है।
उपज एंव भंडारण
    सोयाबीन की फसल पर जलवायु तथा मृदा कारकों का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। साधारण दशा में इसकी उपज 20-25 क्विंटल  प्रति हे. तक ली जा सकती है। सोयाबीन का भूसा पशुओं के लिए पौष्टिक चारा है। बीज को साफ कर, अच्छी तरह सुखाना चाहिए और जब बीज में नमी का अंश 10 प्रतिशत या इससे कम हो जाए तभी हवादार स्थान में भंडारण करना चाहिए। सोयाबीन के बीज को एक साल से अधिक भण्डारित नही करना चाहिए। क्योंकि इसमें तेल की मात्रा अधिक होने के कारण खटास उत्पन्न हो जाती है।

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