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शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

बहुपयोगी तिलहनी फसल-कुसुम (करडी ) की खेती कैसे करें ?

                                                                          डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                                  प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं बिभाग 
                                                          इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

वारानी क्षेत्रों की आदर्श  तिलहनी फसल-कुसुम   (करडी )

                देश के शुष्क भागों (असिंचित क्षेत्रो) में उगाई जाने वाली कुसुम प्रमुख तिलहनी फसल है जिसमें सूखा सहने की क्षमता अन्य फसलों से ज्यादा होती है। कुसुम की ख्¨ती तेल तथा रंग प्राप्त करने के लिए की जाती है । इसके दाने में तेल की मात्रा 30 - 35 प्रतिशत होती है। तेल खाने-पकाने व प्रकाश के लिए जलाने के काम आता है। यह साबुन, पेंट, वार्निश, लिनोलियम तथा इनसे सम्बन्धित पदार्थों को तैयार करने के काम मे भी लिया जाता है। इसके तेल से तैयार पेंट व वार्निश  स्थाई  चमक व सफेदी होती है जो कि अलसी के तेल से बेहतर होती है। इसके तेल में उपस्थित पोली अनसैचूरेटेड वसा अम्ल अर्थात लिनोलिक अम्ल (78%) खून में कोलेस्ट्राल स्तर को नियंत्रित करता है जिससे हृदय रोगियो के लिए विशेष उपयुक्त रहता है। इसका तेल सफोला ब्रांड के नाम से बेचा जाता है। इसके तेल वाटर प्रूफ कपड़ा भी तैयार किया जाता है। इसके तेल से रोगन तैयार किया जाता है जो शीशे जोड़ने के काम आता है। इसके हरे पत्तों में लोहा व केरोटीन (विटामिन ए) प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। अतः इसके हरे व कोमल भाग स्वादिष्ट व पौष्टिक सब्जी बनाने के लिए सर्वोत्तम है। इसके फूल की पंखुड़ियों की चाय  स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद रहती है। कुसुम फूलों में मुख्यतः रंगो के दो पदार्थ कार्थामिन  व पीली रंग  पाया जाता है। भारत वर्ष से कार्थामिन का निर्यात करके विदेशी पूँजी अर्जित की जा सकती है कपड़े व खाने के रंगो में कुसुम का प्रयोग किया जाता है। कुसुम के छिले दानों से प्राप्त खली पशुओं को खिलाने  बिना दानों से प्राप्त खली, खाद के रूप में प्रयोग की जाती है।  दानों से प्राप्त छिलका सैल्यूलोज आदि के बनाने में प्रयोग में लिया जा सकता है। तेल के अतिरिक्त इसके दानों को भूनकर खाया भी जाता है।

 जलवायु

    कुसुम की खेती सूख्¨ तथा ठण्डे मौसम में की जाती है। इसकी जड़ें काफी गहराई से मृदा नमी का अवशोषण कर सकती है, इससे यह फसल सूखे को सहन कर सकती है। इसकी खेती 60 - 90 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलता पूर्वक की जा सकती है। बीज अंकुरण के लिए 15-16 डि से  तथा फूल आने के समय तापक्रम 24 से  32 डि से  के मध्य होने से उपज अच्छी प्राप्त होती है। कुसुम एक अप्रदीप्तकाल फसल है परन्तु लम्बे प्रकाशकाल  में अधिक उपज देती है। पाले से कुसुम की फसल को क्षति होती है।

कैसी भूमि

    रेतीली भूमि को छोड़कर कुसुम उत्तम जल निकास वाली सभी प्रकार की भूमि में उगाई जा सकती हैं। उत्तर भारत में कुसुम क¨ सामान्यतः बलुई दोमट या दोमट भूमि में ही बोया जाता  है परन्तु दक्षिण भारत में इसकी खेती प्रायः भारी कपास की काली मिट्टी में की जाती है ।मध्यम भारी किस्म की भूमि इसके लिये अधिक उपयुक्त हैं। हल्की एल्यूवियल मृदाओं में कुसुम की अच्छी उपज आती है। लवणीय मृदा में कुसुम को उगाया जा सकता है परन्तु अम्लीय भूमि में इसकी खेती नहीं की जा सकती है। बहुत अधिक उपजाऊँ भूमि में पौध  वृद्धि अधिक होती है तथा बीज कम बनते है ।

भूमि की तैयारी

    कुसुम की  खेती के लिए अधिक भूपरिष्करण की आवश्यकता नहीं रहती । खरीफ की फसल काटने के पश्चात् 2 - 3 बार हल या बखर से जुताई करके पाटा चलाकर खेत को ढेले रहित भुरभुरा एवं समतल कर लेना चाहिए।

बुआई का समय

    वर्षा समाप्त  होते ही सितम्बर माह के अंतिम सप्ताह से लेकर अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक इसकी बोनी करनी चाहिये। बरानी क्षेत्रों में अक्टूबर माह के बाद इसकी बोनी करना लाभप्रद नहीं हैं क्योंकि देरी से बोनी करने से फसल पर न केवल एफिड का प्रकोप अधिक हैं, वरन् प्रति हेक्टेयर पैदावार भी कम प्राप्त होती है। सिंचित क्षेत्रों में अक्टूबर के अंत तक इसकी बोनी की जा सकती है।

उन्नत किस्में

    उन्नत किस्मों का स्वस्थ बीज बोआई हेतु प्रयोग करना चाहिये। कुसुम की किस्मों को उसकी पत्तियों में पाए जाने वाले काँटों के आधार पर काँटेदार  व काँटेरहित वर्ग में वर्गीकृत किया गया है। काँटे दार किस्मों में सस्य क्रियाएँ व कटाई-मड़ाई संपन्न करने में कठिनाई होती है। परन्तु अब बिना काँटे वाली उन्नत किस्में भी विकसित हो चुकी हैं। आमतौर पर काँटेदार किस्में तेल के उद्देश्य से व काँटेरहित किस्में रंग, चारे व सब्जी के उद्देश्य से उगाई जाती है। काँटेरहित अर्थात् रंग के लिए उगाई गई किस्मों में नारंगी या पीले स्कारलैट रंग के आते हैं। काँटेदार अर्थात् तेल के लिए उगाई गई किस्मों में पीले रंग के फूल ही अक्सर आते हैं।
कुसमु की प्रमुख संकर एवं उन्नत किस्मों की विश्¨षताएं
जेएसएफ-1(श्वेता):यह किस्म 135-145 दिन में तैयार होती है जिसकी उत्पादन क्षमता16-20 क्विंटल  प्रति हैक्टर आंकी गई है । भुनगा (एफिड) की प्रतिरोधी किस्म है ।
जेएसएफ-5 (जवाहर कुसुम 5): यह देरी से पकने वाली किस्म हैं जो लगभग 145 से 150 दिनो में पक जाती है। इसका दाना सफेेद, ठोस तथा लम्बा एवं छोटा होता है। औसत पैदावार लगभग 15 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर तथा बीज में तेल कर मात्रा 35 से 36 प्रतिशत होती हैं। यह बिना काँटों वाली किस्म है। यह संपूर्ण मालवा क्षेत्र के लिये उपयुक्त है तथा इस पर एफिड का प्रकोप कम होता है।
जेएसआई-7: यह देरी से पकने वाली किस्म है जो लगभग 130 दिनों में पक जाती है। औसत पैदावार लगभग यह 14  क्विंटल  प्रति हेक्टेयर तथा इसके बीज में तेल की मात्रा 30 प्रतिशत होती है। यह बिना काँटों वाली किस्म है।
एनएआरआई - 6: यह 117-137 दिन में  तैयार होती है। इसका दाना सफेद चमकीला होता है। औसतन पैदावार लगभग 10-11 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर तथा तेल की मात्रा 35 प्रतिशत होती है। यह एक काँटेरहित किस्म  है जो   उकठा व पत्ती वाले  रोगों  के प्रति सहनशील पाई गई है ।
डीएसएच-129: कुसुम की यह संकर 129 दिन में तैयार ह¨कर लगभग 19.89  क्विंटल  उपज देती है । आल्टरनेरिया, लीफ ब्लाइट रोग तथा एफिड कीट रोधी  है । इसके 100 दानो  का भार 7 ग्रा  तथा तेल की मात्र्ाा 31 प्रतिशत ह¨ती है ।
एनएआरआईएनएच-1: यह 130 दिन में तैयार ह¨ने वाली विश्व की प्रथम कांटो   रहित संकर कुसुम है । इसकी दानो  की उपज 19.36  क्विंटल  के अलावा 2.15 क्विंटल  प्रति हैक्टर उपय¨गी फूल भी प्राप्त ह¨ते है । इसके 100 दानो  का भार 3.8 ग्राम तथा इनमें 35 प्रतिशत तेल पाया जाता है । उकठा रोग प्रतिरोधी  है ।
जे.एस.आई. - 73: यह देरी से पकने वाली किस्म है जो कि लगभग 147 दिन में पक जाती है। औसत पैदावार लगभग यह 14.50 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर तथा इसके बीज में तेल की मात्रा 31 प्रतिशत होती है। यह बिना काँटो वाली किस्म है।
जे.एस.एफ.-97: यह 132 दिन में पकने वाली काँटेरहित किस्म है जो कि लगभग 15 - 16  क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज देती है तथा इसके बीज में तेल की मात्रा 30 प्रतिशत होती है। पौधों की लम्बाई 90 सेमी., पुष्प प्रारम्भ में पीले तथा बाद में मौसमी लाल रग के हो जाते हैं।
जे.एल.एस.एफ.-414 (फुले कुसुम): यह सूखा सहनशील किस्म है जो 125 - 140 दिनों में पक जाती है। असिंचित अवस्था में औसतन 12 - 15 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज देती है तथा इसके बीज में तेल की मात्रा 28 - 29 प्रतिशत होती है।
एमकेएच-11: यह संकर 130 दिन में तैयार होती है जिसकी उपज क्षमता 19 क्विंटल  प्रति हैक्टर होती है । दानो  में तेल की मात्रा  31 प्रतिशत होती है ।

बीज दर व बीजोपचार

    बीज दर बोने की विधि, खेत में नमी की मात्रा , बोई जाने वाली किस्म तथा बीज की अंकुरण क्षमता पर निर्भर करती है । कुसुम की बुआई के लिए सिंचित दशा में 10 - 15 किग्रा. असिंचित दशा के लिए 15-20 किग्रा. तथा मिश्रित फसल के लिए 4 - 5 किग्रा. प्रति हे. बीज की आवश्यकता पड़ती है। बोनी के पूर्व बीज को कार्बे्न्डाजिम (2 ग्राम प्रति किग्रा. बीज) से बीजोपचार करना चाहिये। इससे जड़ सड़न रोग नही लगता। कुसुम के बीज का बाहरी खोल बहुत अधिक सख्त रहता है। अतः बीज को करीब 24 घंटे तक पानी में भिगोकर बाद में बोना चाहिये। इससे बीज का खोल मुलायम पड़ जाता है और अंकुरण जल्दी हो जाता है।

बोआई की विधियाँ

    कुसम की ब¨आई छिंटकवाँ विधि, हल के पीछे कूँड़ में तथा सीड ड्रिल से कतारो   में की जाती है । यह बहुत आवश्यक है कि कुसुम का बीज भूमि में नमी वाली तह पर पहुँचे अन्यथा अंकुरण कम ह¨गा । छिटकवाँ विधि की अपेक्षा बुआई हल के पीछे पंक्तियों में या सीड ड्रिल से करना उचित रहता है । कुसुम की सिंचित शुद्ध फसल 40-50 से.मी तथा वर्षा पोषित फसल 60 से.मी. की दूरी पर बोना चाहिए। दोनों  ही परिस्थितियो  में पौधे-से-पौधे की दूरी 20-25 से.मी. रखना चाहिए । बारानी या असिंचित अवस्था में 111,000 पौधे  तथा सिंचित दशा में 75000-80,000 पौध  संख्या प्रति हैक्टर अच्छी उपज के लिए आवश्यक रहती है । बुआई 3-5 सेमी. गहराई पर करना चाहिये। खाद बीज से 2 से 4 से.मी. नीचे तथा नमी में पड़ना चाहिये।

खाद एवं उर्वरक

    बारानी अथवा असिंचित परिस्थितियो  में भी खाद एवं उर्वरक देने से कुसुम की उपज में आशातीत वृद्धि ह¨ती है । कुसुम की फसल प्रति हैक्टर भूमि से ओसतन  60-65 किग्रा. नत्रजन, 27-30 किग्रा. फॉस्फ़ोरस और  40-50 किग्रा. पोटाष ग्रहण करती है । अतः उर्वरको  की  सही और  संतुलित मात्रा  में देने से ही अपेक्षित उत्पादन प्रप्त किया जा सकता है । खेत की अंतिम जुताई के समय 2 या 3 वर्ष में एक बार 10-12 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से मिलाना चाहिये। असिंचित क्षेत्रों तथा हल्की जमीनों में 30 किलो नत्रजन एवं 30 किलो स्फुर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से तथा भारी काली जमीन में 40 किलो नत्रजन तथा 40 किलो स्फर प्रति हेक्टेयर देना चाहिये। इनके अलावा 10-20 किग्रा. प्रति हैक्टर पोटाश देना लाभकारी पाया गया है। उर्वरक की मात्रा मृदा परीक्षण के आधार पर कम या अधिक की जा सकती है। उर्वरकों को  बोनी के समय कूड़ों में ही डालना चाहिये। नत्रजतन, फास्फोरस व पोटाश को क्रमशः अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फास्फेट व पोटेशियम सल्फेट उर्वरक से देना चाहिए। इन उर्वरकों से फसल को गन्धक भी  प्राप्त हो जाता है जिससे तेल की मात्रा व गुणों में सुधार होता है।

थोड़ी सी सिंचाई

    कुसुम की खेती प्रायः बारानी दशा में की जाती है और  कुसुम को  सूखा सहने वाली फसल माना जाता है । फिर भी फसल की क्रांतिक अवस्थाओ  पर सिंचाई करने पर अधिक उपज प्राप्त होती है। सिंचाई की सुविधा होने पर दो सिंचाई, पहली बुआई के 30 दिन बाद व दूसरी सिंचाई फूल आते समय देने पर अधिक उपज प्राप्त होती है।  कुसमु की पुष्पावस्था व दाना भरने की अवस्था पर नमी की कमी से उपज में गिरावट आती है। खेत में जल निकास अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि थोड़े जल भराव से ही फसल को क्षति होती है।

खरपतवार नियंत्रण

    कुसुम के बीज बोने के 4-6 दिन में अंकुरित हो जाते है । फसल की प्रारंभिक अवस्था में दो बार खुरपी या कुदाल से द्वारा निराई-गुड़ाई की जाती है । पहली  निराई-गुड़ाई बुआई के 20 दिन बाद तथा दूसरी बुआई के 40 दिन बाद करने से खरपतवार नियंत्रण में रहते है  और पौध  वृद्धि अच्छी ह¨ती है। बोने के 10-15 दिन बाद कुसुम के घने पौधों को उखाड़कर पौधों के बीच आवश्यक अंतरण स्थापित कर लेना चाहिये। उखाड़े गये पौधों का उपयोग भाजी के रूप में किया जा सकता है। फसल के जीवन काल में एक बार पौधो  पर मिट्टी चढ़ाना  भी लाभदायक पाया गया है, परन्तु यह क्रिया प्रचलन में नहीं है । खरपतवारों के रासायनिक नियंत्रण हेतु फ्लूक्लोरालिन 1.5 किग्रा. प्रति हे. को  800 लीटर पानी में घोलकर अंकुरण पूर्व खेत में छिड़कना चाहिये। अधिकतम पैदावार के लिये पौधे जब डेढ़ या दो माह के हो जावें तब उनकी ऊपरी शाखा (फुनगी) को तोड़ देना चाहिये । सर्वप्रथम पौधो  की मध्य शाखा पर फूल आता है जिसे तोड़ देने से अन्य फूल वाली शाखाएँ बगल से फूट पड़ती है जिससे  उपज बढ़ती है । तोड़ी गई कोमल शाखाओं एवं पत्तियो   को हरे चारे एवं हरी सब्जी के लिये उपयोग में लाया जाता है। जानवरों के लिये भी यह एक पौष्टिक आहार है।
फसल पद्धति
    कुसुम की खेती ज्वार, बाजरा, धान सोयाबीन आदि खरीफ फसलों के पश्चात् रबी फसल के रूप में की जाती है। कुसुम गेहूँ, जौ, चना के साथ मिलाकर मिश्रित फसल के रूप में भी उगाया जाता है। चना व कुसुम (3.1), धनियाँ व कुसुम (3.1) तथा अलसी व कुसुम (2.1) की सह फसली पद्धतियाँ लाभदायक पायी गई है। शरदकालीन गन्ने के साथ भी कुसुम की बुआई की जा सकती है। रबी की फसलों के खेत के चारों और काँटेदार किस्मों को रक्षा पंक्ति के रूप में इसकी फसल उगाते हैं।
फसल की पक्षियो  से सुरक्षा: कुसुम की फसल की  पक्षियो  विशेषकर तोतों  से बहुत नुकसान होता है । नये क्षेत्रो  जहां कुसुम नही लगाई जाती वहां पक्षियो  से अधिक हांनि होती है । जब दाने पड़ने एवं पकने की अवस्था पर फसल की पक्षियो  से सुरक्षा करना आवश्यक रहता है । कांटे वाली किस्मो  में पक्षियो  से क्षति कम होती है ।

कटाई एवं गहाई

    कुसुम की फसल लगभग 115 से 140 दिन मे पककर तैयार हो जाती है। फसल पकने पर पत्तियाँ व कैपसूल पीले पड़ जाते है व सूखने लगते है। दाने सफेद चमकीले दिखाई देने लगते है। पकने पर दानो  में 12-14 प्रतिशत नमी रह जाती है । देर से कटाई करने पर दाने खेत मे ही झड़ने लगते है। समय से पूर्व कटाई करने पर उपज कम प्राप्त होती है साथ ही तेल के गुणों में भी गिरावट आती है। जब फसल पूरी तरह से पक जावे तब हँसिया या दराते से कटाई कर लेना चाहिये। सुबह के समय कटाई करने से पौधे टूटने से बच जाते है और काँटों  का प्रभाव भी कम होता है। काँटों से बचाव के लिये हाथों में दास्ताने  पहन कर या दो नाली लकड़ी के पौधों को फँसाकर करना चाहिये। कटाई के बाद फसल  के छ¨टे-छ¨टे गट्ठर बना कर  खलिहान में रखकर धूप मे सुखा लेना चाहिये। फसल की गहाई, लकड़ी से पीटकर या गेहूँ गहाई की मशीन (थ्रेशर) से कर लेना चाहिये। साफ दानो को  3 - 4 दिन धूप में सुखाकर (नमी का स्तर 8 प्रतिशत रहने पर) भण्डारण करना चाहिए।
रंग प्राप्त करने फूलो  की चुनाई     कुसुम की फसल से बीज व रंग दोनों प्राप्त करने के लिए फूल में निषेचन की क्रिया के बाद पुष्पदल एकत्रित कर लिए जाते है तथा बीज पकने के लिए छोड़ देते है। गर्भाधान के पश्चात फूलो  की पंखुड़ियो  का रंग गहरा और  चमकीला हो जाता है । इसी समय इन्हे रंग प्राप्त करने के लिए तोड़ लेना चाहिए । पंखुड़ियाँ तोड़ने का कार्य 2-3 दिनो  के अन्तर पर कई बार करना पड़ता है । उचित समय पर इन्हे न तोड़ने से कम मात्रा  में और  घटिया किस्म का रंग निकलता है । गर्भाधान समाप्त होने के कारण इन पंखुड़ियो  के तोड़ लेने से बीज की उपज पर विपरीत  प्रभाव नहीं पड़ता ।फूलने के समय वर्षा हो  जाने से रंग धुल जाता है जिससे  व्यापक हांनि होती है ।
    फूलों से रंग प्राप्त करने के लिए इनकी पंखुड़ियो  को  छाया में सुखाया जाता है। सूखे फूलों क¨ हल्के अम्लीय पानी में लगातार 3 - 4 दिन तक धोते है। इससे पानी में घुलनशील पीला रंग पानी में घुल जाता है। शेष पदार्थ को सुखाकर टिक्की के रूप में बिक्री के लिए तैयार करते है। व्यापारिक दृष्टिकोण से उपयोगी कार्थामिन धुले हुए पुष्प के भाग से निकाला जाता है। इसे सोडियम बाइकार्बोनेट से उपचारित किया जाता है तथा हल्के अम्लों से इसका प्रैसिपिटेट प्राप्त किया जाता है।कुसुम का कार्थामिन लुगदी के रूप में बाजार में बेचा जाता है। यह पदार्थ रंगाई के काम में आता है।

3 टिप्‍पणियां:

लोकेश सिंह ने कहा…

ati uttam jankari ke liye dhanywaad

लोकेश सिंह ने कहा…

उत्तम जानकारी प्रदान करने के लिए धन्यवाद।

लोकेश सिंह ने कहा…

उत्तम जानकारी प्रदान करने के लिए धन्यवाद।