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शुक्रवार, 6 जून 2014

भारी पड़ सकती है पौष्टिक अनाजों (मोटे अनाज) की अवहेलना

                                                                         डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
                                                             प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
                                  इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                   प्राचीन काल में भारत की कृषि उत्पादन प्रणाली में काफी विविधता देखने को मिलती थी। गेहूं, चावल, जौ,  मक्का, ज्वार, बाजरा, कोदों, कुटकी, रागी, चना, मटर, मूँग, उड़द, अरहर, सरसों ,मूंगफली, गन्ना, कपास आदि नाना प्रकार की फसलें उगाई जाती थी। लघु-धान्य फसलों  को  मोटे अनाज कहा जाता है । दानों  के  आकार के  अनुसार मोटे अनाजों  को  दो  वर्गों में वर्गीकृत किया गया है प्रथम मुख्य मोटे अनाज जिसमें ज्वार और  बाजरा आते है।  दूसरे लघु धान्य जिसमें बहुत से छोटे दाने वाले मोटे अनाज आते है जैसे रागी (फिंगर मिलेट), कंगनी (फाॅक्स-टेल मिलेट), कोदों  (कोदो  मिलेट), चीना (प्रोसो  मिलेट), सांवा (बार्नयार्ड मिलेट) और और कुटकी (लिटिल मिलेट) । इन अनाजो  की खेती से अनेक फायदे है जिसमें इनमें सूखा सहन  करने  की अदभुत क्षमता, पकने की संक्षिप्त अवधि , कम लागत विशेषकर खाद-उर्वरको  की न्यूनतम मांग, कम मेहनत के  अलावा कीट-व्याधी प्रतिर¨धक क्षमता, प्रमुख है ।  मौसम परिवर्तन (कम होती वर्षा, तापमान में इजाफा तथा पर्यावरण प्रदुषण) के इस  दौर में इनकी खेती लाभकारी ही नहीं बल्कि आवश्यक भी है।अब स्थिति यह है कि आजादी के बाद बदली कृषि-व्यवस्था ने भारतीयों को गेहूं व चावल आदि फसलों पर निर्भर बना दिया है । इसके अलावा विश्व-व्यापारीकरण और  बाजारीकरण के बढ़ते प्रभाव से किसानों का मोटे अनाजों, दलहनों और तिलहनों की खेती से मोहभंग होता चला जा रहा है। आजादी के बाद धान और गेहूं जैसी फसलों को बढ़ावा दिया गया जिसके  परिणाम स्वरूप कुल कृषि भूमि में से मोटे अनाजों का रकबा  और  उत्पदान निरंतर घटता जा रहा है। यद्यपि मोटे अनाज के  उत्पादन  में भारत अभी भी विश्व में सिरमौर है परन्तु 1961 से 1912 के  दरम्यान इनके  क्षेत्रफल में भारी गिरावट हुई है । इसके  बावजूद कुछ मोटे अनाजों  में उन्नत किस्मों  के  प्रयोग से कुल उत्पाद में इजाफा हुआ है। मोटे अनाजों  का लगभग 50 प्रतिशत क्षेत्र सोयाबीन, मक्का, कपास, गन्ना और  सूर्यमुखी की खेती में तब्दील होता जा रहा  है। इन बहुपयोगी फसलों के क्षेत्रफल में इसी रफ़्तार से गिरावट जारी रही तो एक दिन  पुरखों की इस अमूल्य धरोहर-पौष्टिक अनाज विलुप्त भी हो सकते है और यदि ऐसा होता है तो निश्चित ही देश-दुनियां को भीषण अकाल-भुखमरी की त्रासदी झेलने के लिए विबस होना पड़ेगा। पौष्टिक अनाजों के अतीत और वर्तमान का लेख जोखा सारणी में प्रस्तुत है। 

            पौष्टिक अनाज और लघु धान्य फसलों के क्षेत्रफल में गिरावट और गेहूं और धान के क्षेत्र और  उत्पादन में बेतहासा इजाफा हुआ है । चावल-गेंहू की खेती के  क्रम में स्थान विशेष के पारिस्थितिकीय हालात, मिट्टी की संरचना, नमी की मात्रा, भू-जल आदि की घोर उपेक्षा की गई जिसके फलस्वरूप इन फसलों की उत्पादकता स्थिर हो गई है जो की चिंता का विषय है । दूसरी ओर गेंहू-धान फसलों में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक और असन्तुलित प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता और  उत्पादकता कम होने के  साथ-साथ पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है जिसकी वजह से वायुमण्डल के तापमान में भी वृद्धि  परिलक्षित होने लगी है।  सिंचाई के लिए भू-जल का अंधाधुंध दोहन किया जा  रहा है जिससे भू-जल स्तर गिर कर पाताल में पहुंच गया जिससे गहरे जल-संकट के  आसार नजर आ रहे है। अतः अब एक ऐसी नई हरित क्रान्ति लाने की आवश्यकता है जिससे मोटे अनाजों की पैदावार में वृद्धि हो सके। इससे जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा संकट, भू-जल ह्रास, स्वास्थ्य और खाद्यान्न संकट जैसी समस्याओं को काबू में किया जा सकता है। इन फसलों को पानी, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की जरूरत कम पड़ती है जिससे मिट्टी व भू-जल स्तर पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। इसके अलावा इन फसलों को उगाने में खेतीकी लागत भी कम आती है। सूखा प्रतिरोधी होने के साथ-साथ ये फसलें कम उपजाऊ भूमि पर भी सफलता से उगाई जा सकती है। ज्वार, बाजरा, रागी, कोदो, कुटकी आदि मोटे अनाजो  की खेती मुख्यतः कम वर्षा वाले क्षेत्रों और ऊँची-नीची गैर उपजाऊ भूमिओं में की जाती है।इन विशेषताओं के बावजूद मोटे अनाज किसानों,कृषि-वैज्ञानिकों और नीति-निर्धारकों की नजर में अभी तक उपेक्षित है तो इसके पीछे प्रमुख कारण जनसाधारण में इनके प्रति गलत धारणाएं है।

पौष्टिकता में बेजोड़-सेहत के साथी  

                  पौष्टिकता और सेहत के मामले में मोटे अनाज गेहूं व चावल पर भारी पड़ते हैं। चूंकि आमजन  इन्हे मोटे अनाज के  रूप में जानते है और  सोचते है कि यह रूखा-सूखा और कम पौष्टिक अनाज  गरीब लोग खाते  है। इसके विपरीत मोटे अनाज भारत के सूखाग्रस्त इलाकों में रहने वाले करोड़ों लोगों के लिए पौष्टिकता का स्त्रोत हैं अर्थात नाजुक पारिस्थितिक तंत्र में पैदा होने वाले जवार, बाजरा, रागी और अन्य छोटे अनाज भारतीयों के भोजन की पौष्टिकता को बढ़ाते हैं.। इनमें प्रोटीन, फाइबर, कैल्शियम, लोहा, विटामिन और अन्य खनिज चावल और गेहूं की तुलना में दो गुने अधिक पाए जाते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने इन अनाजों  की पौष्टिक श्रेष्ठता रेखांकित किया है। चावल की तुलना में कंगनी (फाक्सटेल मिलैट) में 81 प्रतिशत अधिक प्रोटीन, उपवास के  दौरान खीर-हलवा के  रूप में बहुदा खाई जाने वाली सवां (लिटिल मिलेट) में 840 प्रतिशत अधिक वसा (फैट), 350 प्रतिशत रेशा (फाइबर) और 1229 प्रतिशत लोहा (आयरन) पाया जाता है।  कोदो  में 633 प्रतिशत अधिक खनिज तत्व होते है। रागी में 3340 प्रतिशत अधिक कैल्शियम और  बाजरा में 85 प्रतिशत अधिक फाॅस्फ़ोरस पाया जाता है। इन सबके  अलावा ये अनाज विटामिनों  का भी खजाना है जैसे थायमेन (फाक्सटेल मिलेट), रायबोफ्लेविन व फ़ोलिक अम्ल (बाजरा), नियासिन (कोदो मिलेट) जैसी महत्वपूर्ण विटामिन इनमें विद्यमान होती है। अत्यंत पौष्टिक होने की वजह से इन अनाजों  में बहुत से औषधीय गुण भी होते है। अनेक विकारों  में इनके सेवन की संस्तुति की जाती है। मसलन पाचन (हाजमा) में सुधार, दिल से संबंधित विकृतियों में सुधार और  मधुमेह जैसे खतरनाक रोगों के लिए इनका भोजन रामवाण साबित हो रहा है । आजकल  चिकित्सक भी इनके  सेवन की सलाह देने लगे है।
                     इतने  सारे गुणो  के  बाबजूद क्या अभी भी हम इन स्वास्थ्यवर्धक और  पौष्टिक अनाजों  को  मोटा अनाज कहा जाना उचित ठहरा सकते है ? कदाचित नहीं।   इन अनाजो  की पौष्टिकता को  हम दूसरे  सरल तरीके  से भी समझ सकते है । भोजन में  बाजरे की एक रोटी खाने से हमें शरीर के  लिए आवश्यक विटामिन-ए मिल जाती है जिसकी पूर्ति एक किग्रा गाजर खाने से हो सकती है। एक अन्डे के  बराबर प्रोटीन हमें फाक्सटेल मिलेट का भोजन करने से मिल जाती है। तीन ग्लास दूध पीने से हमारे शरीर को  जितना कैल्श्यिम मिलता है उतना एक कटोरी रागी(मड़ुआ) को  भोजन के  रूप में लेने से प्राप्त हो सकता है। चूकि गाजर, अन्डे, दूध, पत्तेदार हरी सब्जियाँ गरीबों  की पहुँच के  बाहर हैं। इसलिए पौष्टिकता के  दृष्टिकोण से मिलैट को  गरीबों  का सोना कहना अतिशयोक्ति नहीं है । ऐसे महत्वपूर्ण और पौष्टिक अनाजों का इस्तेमाल इसलिए कम होता है क्योंकि उन्हें मोटे अनाज की श्रेणी में डाल दिया गया है। आम तौर पर लोग यही मानते हैं कि ये निम्न गुणवत्ता के अनाज हैं. जबकि ये देखने में तो मोटे अनाज लगते हैं किंतु हैं बेहद पौष्टिक और  स्वादिष्ट भी। हमारे परंपरागत आहार में मोटे अनाजों का महत्वपूर्ण स्थान था किंतु गलत नामावली और भारी जनउपेक्षा की बजह से ये अनाज  धीरे-धीरे हमारी  थाली से बाहर निकलते चले गए। हमारी जीवनपद्धति से जुड़ी बहुत-सी बीमारियां इन मोटे अनाजों की अवहेलना का दुष्परिणाम हैं।  जैसे ही मोटा अनाज कहा जाता है आप सोचते हैं कि ये शायद पशुओं का भोजन है. हमें लगता है कि यह रूखा-सूखा और कम पौष्टिक अनाज है. बढिया अनाज केवल गेहूं और चावल को माना जाता है. यही हमारे जन मानस में गहराई से बैठ गया है।

बदलना होगा इनका नामकरण

               बदलते परिवेश में समय की मांग है कि पौष्टिकता से सरावोर इन मोटे अनाजों  का नाम बदल कर पौष्टिक अनाज (न्यूट्री-सीरियल) क्यो  नहीं किया जा सकता ?  जब हम बम्बई का नाम बदलकर मुम्बई, मद्रास का चैनई, कलकत्ता का कोलकाता कर सकते है तो  फिर हम पौष्टिक अनाजॉ का नया वर्गीकरण क्यो  नहीं कर सकते है ? क्यो  नहीं मोटे अनाजों  के  स्थान पर हम इन्हे पौष्टिक अनाज के  रूप में जानें ? पौष्टिक अनाजों  में दलहन जैसे चना, अरहर, मूँग आदि को भी सम्मलित करना सोने पर सुहागा होगा । वैसे भी दाल-रोटी का चोली-दामन का साथ है। इनके मिले जुले सेवन से ही हमें संतुलित आहार प्राप्त हो सकता है। इस छोटे से बदलाव से ये भूले बिसरे पौष्टिक अनाज हमारी भोजन प्रणाली और  खेती किसानी कीे मुख्य धारा में सम्मलित हो  सकते  है ।
          आज विश्व में कुपोषण की समस्या गहराती जा रही है और  भारत भी इस गंभीर समस्या से अछूता नहीं है। अतः इन पौष्टिक अनाजों को दैनिक आहार का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाने की आवश्यकता है । यद्यपि खाद्य सुरक्षा कानून में इन फसलों  का जिक्र किया गया है । परन्तु सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत इनका भी  जन वितरण होना चाहिए । भारत सरकार को  इन अनाजों के लिए लाभकारी समर्थन-मूल्य घोषित किया जाना चाहिए और राज्य सरकारों को इनकी सरकारी खरीद, भंडारण व विपणन के लिए प्रभावी नेटवर्क स्थापित करने आवश्यक कदम उठाना चाहिए । गेहूं और धान की भाँति मोटे अनाजों के अनुसंधान, विकास और  प्रसंस्करण की सुविधाएं देश भर में स्थापित की जाए। वर्ष 2025 तक लगभग 30 मिलियन टन पौष्टिक अनाजों  की आवश्यकता का अनुमान लगाया जा रहा है जिसकी पूर्ति के  लिए हमें क्षेत्र विस्तार के  साथ-साथ प्रति इकाई उत्पादकता बढ़ाने के  भी प्रयास करना चाहिए। पूरे देश में पौष्टिक एवं स्वास्थप्रद इन अनाजों  के   महत्व, उपयोगिता और इनकी खेती के  लाभों  के  बारे में जनजागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है । इन फसलों  की खेती को  बढ़ावा देने से न केवल रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का आयात व प्रयोग कम होगा, बल्कि मिट्टी, भू-जल के साथ-साथ कुपोषण की समस्या से निजात मिलेगी और  जनता  का स्वास्थ्य भी सुधरेगा। इस प्रकार बदलते मौसम चक्र, एकफसली खेती से हो रहे नुकसान  को देखते हुए पौष्टिक अनाजों की खेती भविष्य में एक उम्मीद की किरण के समान है। इससे न केवल कृषि का विकास होगा बल्कि खाद्य-सुरक्षा के साथ-साथ भारत की आम जनता को  पोषण-सुरक्षा भी हासिल हो सकेगी। 
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मंगलवार, 3 जून 2014

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून

            डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर
                                                               प्राध्यापक (सस्यविज्ञान विभाग)
                                इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                    भारत में आसन्न जल संकट से निपटने कारगर कदम आवश्यक 

                यह निर्विवाद रूप से सत्य है की जल प्रकृति का वाहक है और यह भी  कटु सच है की  जल है तो  कल है । जब वच्चा  संसार में आता है तो उसे जल की घुट्टी ही दी जाती है। हमारी जीवन लीला जल से चलती है और अंत में अस्थियां जल में प्रवाहित कर दी जाती हैं। ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गए न ऊबरे, मोती, मानूस, चून’- लगभग चार सौ वर्ष पूर्व कही गई संत रहीम की यह उक्ति आज मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए ध्येय वाक्य की भांति ग्रहण करने योग्य है। मोती और चून के बिना तो फिर भी दुनिया रह सकती है, परन्तु जल के बिना यह मात्र आकाशीय पिण्ड बन कर रह जाएगी। अतः जल के बिना जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। भारतीय संस्कति में नदियों को पुण्य-सलिला माना गया है । अधिकतर सभ्यताएं नील, गंगा, सिंधु, फरात आदि नदी-घाटी में ही जन्मी और फली-फूली हैं। भारत में जल लोगों में श्रद्धा की भाव जगाता है। इसे ‘वरुण’ देवता का अवतार माना गया है, जिन्हें जल देवता के रूप में पूजा जाता है। ये जल की महत्ता  ही थी कि जन-कल्याकण के लिए भागीरथ ऋषि को गंगा धरती पर लाने के लिए कड़ी तपस्या करनी पड़ी। प्रकृति के  जिन पंचभूतों (क्षिति जल पावक गगन समीरा) से  मानव शरीर का निर्माण हुआ उनमें जल प्रमुख है। जल देवताओं के रूप में इंद्र और वरुण की सृष्टि हुई। महाभारत के भीष्म गंगा से जन्मे। गंगा हमारी आस्था, सभ्यता, संस्कृति और जीवन से जुड़ी आराध्य नदी है। भारत में आसन्न जल संकट से निपटने के  लिए प्रकृति के  अनमोल रत्न जल के  संरक्षण और उसके  संवर्धन के लिए हम सबक¨ मिलकर ईमानदान कोशिश करना होगी तभी हमारा आज और  कल सुरक्षित रह सकता है। 

                पृथ्वी के भीतर लगभग 1 अरब 40 करोड़ घन कि.मी. पानी है एक घन कि.मी. में औसतन 900 अरब लीटर पानी मौजूद है। इस अथाह जल भंडार का 97 प्रतिशत हिस्सा खारा और मात्र 3 प्रतिशत ही मीठे पानी का है जिसका तीन चैथाई भाग ग्लेशियर और बर्फीली पहाड़ियों के पिघलने से बने जल का है जो अनादिकाल से नदी, झरने आदि के रूप में पृथ्वी पर अनवरत रूप से बह रहा है। समस्त जीवों के शरीर का अधिकांश भाग पानी है । मानव शरीर का 65 प्रतिशत, हाथी के शरीर का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा पानी है यहां तक कि आलू में 80 प्रतिशत और टमाटर में 95 प्रतिशत पानी होता है। गेंहू की बुआई से लेकर उसे एक रोटी का रूप देने में लगभग 435 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है । पानी की सबसे अधिक खपत औद्योगिक इकाईयों में होती है। एक कि.ग्रा. एल्यूमीनियम बनाने में 1400 लीटर, एक टन स्टील बनाने में 270 टन और एक टन कागज बनाने में 250 मी.टन तथा एक लीटर पेट्रोल या अंग्रेजी शराब के शोधन में 10 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। दैनिक उपयोग में खर्च होने वाले पानी का 70 प्रतिशत हिस्सा वाष्प के जरिए या तो वातावरण में पहुंचता है या फिर जहां पानी गिरता है उस  क्षेत्र के पौधों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। शेष पानी नदी-नालों के जरिए समुद्र में पहुंच जाता है। गौरतलब है, वातावरण में नमी की मात्रा 85 प्रतिशत समुद्री पानी के वाष्प से होती है तथा शेष नमी पौधों आदि के वाष्पोत्सर्जन के कारण होती है। उदाहरण के लिए  मक्का की फसल प्रति हेक्टेयर क्षेत्रफल से प्रतिदिन औसतन 37,000 लीटर पानी वाष्प के  रूप में वातावरण में प्रवाहित करती है।
             भारत की जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का 1/6 हिस्सा है जबकि हमारे यहां संसाधन विश्व के लगभग 25वें भाग ही हैं। देश में जल उपलब्धता की पूर्णतः मानसून पर निर्भर करती है।। क्योंकि लगभग 75 प्रतिशत जल वर्षा के रूप में चार महीनों के अन्दर हमारे भूभाग पर पड़ता है। देश का 1/3 क्षेत्रफल सूखे तथा 1/8 भाग बाढ़ की संभावना से ग्रस्त रहता है। जनसंख्या की वृद्धि, तीव्र शहरीकरण तथा विकासात्मक जरूरतों ने भारत की जल उपलब्धता पर भारी दबाव डाला है। वर्ष 1991 में भारत में लगभग 2200 घनमीटर प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता थी, जो  वर्तमान में घटकर 1545 घनमीटर  से भी कम आंकी जा रही है। यह भी आंकलन किया गया है कि वर्ष 2025 और 2050 तक जल उपलब्धता घटकर लगभग 1340 और 1140 घनमीटर क्रमशः रह जाएगी। अन्तरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार उपरोक्त औसत 1700 घनमीटर से कम जल उपलब्धता को जल की दबाव वाली स्थिति तथा 1000 घनमीटर से कम को जल की कमी वाली स्थिति माना गया है। यह हम सबके लिए चिंता और  चिंतन का विषय है।
              अमूमन धरती की सतह का अधिकांश भाग समुद्र द्वारा आच्छादित है और पृथ्वी पर पानी का विशाल भण्डार हमें दिखता भी है। परन्तु छत्तीसगढ़ के रहवासियों  और किसानों के लिए बंगाल की खाड़ी का पानी उपलब्ध कराना क्या व्यावहारिक है ? कदाचित नहीं। हालांकि प्रकृति ने इसकी निःशुल्क व्यवस्था कर रखी है। सूर्य की गर्मी से समुद्र का पानी वाष्पीकृत होकर बादलों में पहुंचता है, जो बाद में वर्षा के रूप में शुद्ध पानी हमारे स्थान पर उलब्ध हो जाता हैं। घर पहुँच सेवा (होम डिलीवरी) की इतनी सुन्दर व्यवस्था बगैर किसी शुल्क के प्रकृति ने हमारे लिए संजोई  है। परन्तु वर्षा तो कुछ माह ही होती है, जबकि पानी हमें हर समय प्रति दिन चाहिए। जल भण्डार के लिए भी प्रकृति हमारे साथ है। परंतु मनुष्य ने अपने तात्कालिक सुख एवं स्वार्थ के लिए  प्रकृति की सुन्दर व्यवस्था को  तहस-नहस कर दिया है। जंगलों  की अंधाधुंध कटाई, ओद्योगिक अपशिष्ट व शहरी कचरे क¨ नदियों में बहा देना, हानिकारक गैसों को वायुमण्डल में फैलाना, भू-जल का अन्धाधुन्ध दोहन, गावों  व नगरों के प्राचीन तालाब-पोखरों  पर अतिक्रमण आदि ऐसे कारक है जिनसे प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा हैं।
              मंगल पर जीवन और पानी की खोज तो  की जा रही है परन्तु पृथ्वी पर पहले से मौजूद जल और  जीवन के संरक्षण-संवर्धन को लेकर उदासीनता ही दिखाई देती है । अब भी समय है सँभलने का, यदि नहीं संभले तो जल-संकट के कारण ग्रह युद्ध जैसे हालात उत्पन्न हो  सकते है और इसमें कोई दो-राय नहीं कि अगला विश्वयुद्ध गहराते जल संकट की वजह से हो सकता है । जल ही हमारा रक्षक है। यदि जल ना हो तो प्रकृति की प्रक्रियाएं बन्द हो जायेंगी । प्रकृति हमे मानसून की बारिश के रूप में पानी मुफ्त में देती है। जो चीज मुफ्त मिले, देखा गया है कि इंसान उसकी कोई कदर नहीं  करता । यही कारण है कि आज बेरहमी से पानी की बर्बादी हो रही है  और जल-संसाधनों को बचाने में कोई भी खास  दिलचस्पी लेता नजर नहीं आ रहा है। सब कुछ सरकार और सरकारी महकमें के भरोसे छोड़ दिया जाना  कहां तक उचित है । अपने  आस-पास देखें तो इसका सबूत अपने आप मिल जाएगा। मसलन सबमर्सिबल पम्प का पाइप हाथ में लेकर चमचमाती गड़ियों  यहां तक सड़क को धोते लोग आपको दिखाई दे जायेंगे । धरती के गर्भ से हर दिन लाख¨-करोड़ों लीटर पानी बेरहमी से खींचा जा रहा है लेकिन उसकी भरपाई (रिचार्ज) करने की ओर बहुत ही कम लोगों का ध्यान है । भू-गर्भ जल के अंधाधुंध दोहन को देखते हुए स्पष्टं हैं कि अगर हम न सुधरे तो आने वाला कल भयावह होगा।
               ऐसे समय में जब हम घटते जल संसाधनों तथा जल की बढ़ती मांग से जूझ रहे हैं, जल दक्षता से ही लाभ हो सकता है। भारत के प्रत्येक क्षेत्र में जल संग्रहण, प्रबंधन एवं वितरण की प्राचीन परंपराओं  पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता तो संभवतः जल को लेकर त्राहिमान की स्थिति कभी नहीं उत्पन्न होती। वर्षा जल संचयन द्वारा भूगर्भ जलस्रोतों के नवीकरण में पारम्परिक जलस्रोतों की  महत्वपूर्ण भूमिका को  पुनः अमल में लाना होगा। परम्परागत जलस्रोतों के  गहरीकरण, मरम्मत और  निरन्तर रखरखाव से कम खर्च में जल उपलब्धता को  काफी हद तक बढ़ाया जा सकता हैं। भारत के विभिन्न गांवॉ -शहरों  में ऐतिहासिक धरोहर के तालाबों को  बेहतर रख-रखाव और  नवनिर्मित डबरियों  से क्षेत्र में अनुकूल जल प्रबंधन का महत्वपूर्ण आधार निर्मित किया जा सकता है । वास्तव में आज समग्रीकृत वाटरशैड विकास परियोजनाओं के अन्तर्गत जल-संग्रहण-संरक्षण में नए कार्यों के साथ पुराने जलस्रोतों को नवजीवन देने की ठोस  कार्ययोजना के  साथ-साथ जल संग्रहण व संरक्षण के लिए जनजागरुकता व सहकारिता की भावना विकसित करनी चाहिए। वर्तमान में लगभग 80 प्रतिशत जल कृषि क्षेत्र की मांग को पूरा करता है। भविष्य में उद्योगों में तथा ऊर्जा एवं पेयजल की मांग तेजी से बढ़ने के कारण अत्यावश्यक हो गया है कि जल संरक्षण के प्रयास तेजी से और योजनाबद्ध ढंग से किए जाएं। वर्ष 2011 में शूरू किये गये राष्ट्रीय जल मिशन का उद्देश्य जल संरक्षण, जल की बर्बादी में कमी लाना तथा समतापूर्ण वितरण है। जल उपयोग दक्षता में बीस प्रतिशत की वृद्धि करना भी राष्ट्रीय जल मिशन का लक्ष्य है। इसी प्राकर राष्ट्रीय जल नीति 2012 में जल संसाधनों के उपयोग में दक्षता सुधार की जरूरत को स्वीकार किया गया है । अभी तक उपलब्ध जल की मात्रा बढ़ाने पर अधिक ध्यान दिया गया, परन्तु अब जल का कुशल उपयोग तथा उसका प्रबंधन कैसे किया जाए, पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। इस प्रकार वर्तमान जल संकट से उबरने के  लिए ‘जल संसाधन विकास’ से 'समेकित जल संसाधन प्रबंधन’ की दिशा में आमूल चूल बदलाव किये जाने की महती आवश्यकता है। इसके लिए जन जागरण अभियान तथा सम्यक जल नीतियों को  धरातल पर उतारना होगा । भारत में कृषि क्षेत्र में जल की सर्वाधिक खपत है। अतः कृषि में यथोचित जल प्रबंधन हमारी समग्र जल सततता के लिए आवश्यक है। इसके  लिए जल का कुशल उपयोग, पुनर्चक्रण तथा पुनः प्रयोग की तीन-सूत्रीय कार्ययोजना को हमारे खेतों में उपयोग में लाना होगा। हमारी सिंचाई प्रणाली में बदलाव कर जल के उचित प्रयोग को भी प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। वर्षा जल सरंक्षण एवं उपलब्ध जल के किफायती उपयोग से  हम आसन्न जल संकट के असर को कम कर सकते  है। 
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