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शनिवार, 25 जनवरी 2020

ग्रीष्मकाल में करें मेंथा की रोपाई, होगी भरपूर कमाई

ग्रीष्मकाल में करें मेंथा की रोपाईहोगी भरपूर कमाई

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
महासमुंद (छत्तीसगढ़)
धान-गेंहूं की खेती के बाद ग्रीष्मकाल में नकदी फसल के रूप में मेंथा (मिंट) किसानों की आर्थिक समृद्धि का आधार बनती जा रही है। मेन्थॉ का वानस्पतिक नाम मेंथा आर्वेनसिस तथा साधारण नाम जापानी पुदीना भी है। हमारे देश में मेंथालमिंट यानि जापानी पौदीना और पिपरमिंट की खेती अधिक प्रचलन में है।  भारत, इंडोनेशिया और पश्चिमी अफ्रीका में बड़े पैमाने पर पुदीने का उत्पादन किया जाता है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक देश है और दुनियां के कुल उत्पादन में भारत का लगभग 80 फीसदी योगदान है । मेन्थॉल मिंट पर आधारित उत्पादों की विश्व भर में बढ़ती हुई मांग को देखते हुए भविष्य में मेन्थाल की खेती की बेहतर संभावनाएं प्रतीत होती है। भारत के धान गेंहू फसल प्रणाली वाले क्षेत्रों में सिंचाई सुविधा होने पर ग्रीष्मकाल में धान के बदले मेंथा की खेती आर्थिक दृष्टी से अधिक लाभदायक होने के साथ मेंथा की खेती कम पानी और कम खर्च में आसानी से की जा सकती है। मेंथाल मिंट का प्रमुख रासायनिक घटक मेन्थॉल है। इससे प्राप्त तेल का उपयोग सुगन्ध के लिए, पेनबाम, कफ सीरप, माउथवाश में होता है।  इसके अलावा  मसालों एवं सौंदर्य प्रसाधनों में भी इसकी काफी मांग रहती है।  
स्वाद, सौन्दर्य और सुगंध का संगम है मिंट
मेंथाल मिंट की फसल फोटो साभार गूगल 
मेन्थाल (मिंट) अर्थात पुदीने को गर्मी और बरसात की संजीवनी बूटी कहा गया है।  स्वाद, सौन्दर्य और सुगंध का ऐसा संगम बहुत कम पौधों में देखने को मिलता है। मेंथा की पत्तियाँ औषधीय और सौंदर्योपयोगी गुणों से भरपूर है। इसे भोजन में रायता, चटनी तथा अन्य विविध रूपों में उपयोग में लाया जाता है। मिन्ट, मैन्थोल का प्राथमिक स्रोत है। ताजी पत्ती में 0.4-0.6 % तेल होता है। तेल का मुख्य घटक मेन्थोल (65-70%), मेन्थोन (7-10 %) तथा मेन्थाइल एसीटेट (12-15 %) तथा टरपीन (पिपीन, लिकोनीन तथा कम्फीन) है। तेल का मेन्थोल प्रतिशत, वातावरण के प्रकार पर भी निर्भर करता है। मेंथा में विटामिन ए,बी,सी,डी और ई के अतिरिक्त लोहा, फास्फोरस और कैल्शियम भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। मेन्थोल का उपयोग बड़ी मात्रा में दवाईयों, सौदर्य प्रसाधनों,  कनफेक्शनरी, पेय पदार्थो, सिगरेट, पान मसाला आदि में सुगंध के लिये किया जाता है। इसके अलावा इसका उड़नशील तेल पेट की शिकायतों में प्रयोग की जाने वाली दवाइयों, सिरदर्द, गठिया इत्यादि के मल्हमों तथा खाँसी की गोलियों, इनहेलरों, तथा मुखशोधकों में काम आता है । मिंट का इस्तेमाल चूइंगम, टूथपेस्ट आदि वस्तुओं में किया  जाता है।  ग्रीष्मऋतु का लोकप्रिय पेय  जलजीरे का भी यह प्रमुख तत्त्व होता है। गन्ने के रस का जायका बढाने में भी मिंट का प्रयोग किया जाता है।

                            भारत में मेंथा की खेती का उज्जवल भविष्य 

मेन्थाल (मिंट) की  खेती उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में बहुतायत में की जा रही हैं। मिंट की बहु-उपयोगिता एवं बाजार में बढती मांग को देखते हुए अब बिहारमध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और ओडीशा जैसे राज्यों में  भी मेंथा की खेती के प्रति किसानों में उत्साह देखा जा रहा है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक दुनिया में प्रति वर्ष करीब 40 हजार  टन मिंट  तेल की मांग है,जबकि भारत में महज 25 हजार  टन का उत्पादन हो रहा हैजिसका सीधा मतलब है कि आगे मेंथा की खेती की बहुत संभावनाएं हैं। धान-गेंहूँ की परंपरागत खाद्यान्न फसलों के बाद वसंत-ग्रीष्म में मेंथा की खेती कर कम समय में  आकर्षक मुनाफा कम सकते है। मेंथा (मिंट) की खेती से अधिकतम उत्पादन और लाभ अर्जित करने के लिए किसान भाइयों को अग्र-प्रस्तुत सस्य तकनीक का अनुशरण करना चाहिए।  
उपयुक्त जलवायु  एवं बुवाई का समय
 मिंट  की खेती उष्ण तथा उपोषण जलवायु अर्थात हल्के जाड़े एवं गर्म ग्रीष्म ऋतु वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है।  फसल की अच्छी बढ़वार के लिए दिन का तापमान 30 डिग्री सेल्सियस और रात का तापमान 18 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए अधिक ठंड वाले दिनों को छोड़कर मिंट की बुवाई/रोपाई कभी भी  की जा सकती है, परन्तु शरद ऋतु समाप्त होने एवं ग्रीष्म ऋतु का प्रारम्भ काल सर्वाधिक उपयुक्त समय रहता है।  उत्तरी एवं मध्य भारत में मध्य जनवरी से मध्य फरवरी तक का समय मेंथालमिंट  की बुआई के लिए सर्वोत्तम पाया गया है। फरवरी से पहले और मार्च के बाद बुवाई करने पर भूस्तारियों (सकर्स) के अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। पिपरमिंट की बुवाई/रोपाई के लिए दिसंबर-जनवरी का समय सर्वश्रेष्ठ रहता है।   रबी फसलों की कटाई पश्चात 30 मार्च तक मेंथालमिंट की बुवाई की जा सकती है परन्तु  बेहतर उत्पादन हेतु रबी फसलो की कटाई के पूर्व मिंट की पौध तैयार कर रोपाई करना अधिक श्रेयस्कर होता है
उपयुक्त भूमि एवं खेत की तैयारी
मेंथा की खेत, उत्तम जलनिकास, बेहतर जल धारण क्षमता  तथा प्रचुर जीवांश पदार्थ वाली भूमियों में सफलता पूर्वक की जा सकती है।  अच्छी फसल के लिए बलुई दोमट भूमि जिसका पी एच मान 6-7.5 हो, सर्वोत्तम होती है । भारी और चिकनी मिटटी में पौधों के विकास में कठिनाइयाँ होती हैमिंट  की  बुवाई करने से पूर्व खेत को अच्छी प्रकार तैयार करना आवश्यक होता है।  सर्प्रथम  मिट्टी पलटने वाले हल या हैरो आड़ी-तिरछी जुताई करके मिट्टी को भुरभुरा कर लिया जाता है। इसके  बाद 10  से 12 टन  प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी हुई गोबर खाद या कंपोस्ट की खाद खेत में  फैलाकर कल्टीवेटर चलायें तथा पाटा लगाकर  खेत को समतल कर लेना चाहिए । खेत तैयार होने के उपरांत खेत को सुविधानुसार  छोटी-छोटी क्यारियों में विभाजित कर लेना चाहिए, जिससे  सिंचाई-गुड़ाई  के कार्मेंय सुगमता से संपन्न किये जा सकें।  इससे सकर्स की मात्रा कम लगती है और पौधा रोपण पर खर्च में कटौती होती है
मेन्था प्रजातियाँ एवं  उन्नत किस्में
मेंथा सुगन्धित पौधों का एक समूह है जिसमें इसकी कई प्रजातिया सम्मलित है जिनमें जापानी पौदीना यानि मेंथॉलमिंट (मेंथा अरवेंसिस), पिपरमिंट (मेंथा पिपरिटा), स्पियरमिंट (मेंथा स्पीकाटा) एवं बरगामॉट मिंट (मेंथा सिट्राटा) प्रमुख है।  अच्छी एवं गुणवत्तायुक्त पैदवार प्राप्त करने के लिए मेंथा की उन्नत किस्मों का चुनाव करें। मेंथॉलमिंट की उन्नत किस्मों में शिवालिक,हिमालय, कोसी,कुशल एवं सक्षम, पिपरमिंट की कुकरैल-तुषार, सिम-मधुरस एवं सिन-इंडस, स्पियरमिंट की अर्का,एम.ए.एस.5, नीरा, नीरकालका तथा बरगामॉट मिंट की किरण प्रमुख है . ये  किस्में  तेजी से बढ़ती है एवं इनका उत्पादन भी देशी  किस्मों से लगभग दोगुना होता है।  सीमैप, लखनऊ द्वारा विकसित  उन्नत किस्मों से न केवल कम समय में तेल का अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है बल्कि उच्च गुणवत्ता तथ उद्योग की मांग के अनुरूप मूल्यवान सुगंधित तेल प्राप्त होता है।
मिंट का प्रसार-प्रवर्धन
मेंथा का प्रवर्धन आमतौर पर भुस्तारियों (जड़ भाग) द्वारा किया जाता है, जिसे सकर्स कहते हैं।  पहले से लगाई गई फसल को उखाड़कर उसके निचले हिस्से से सकर्स प्राप्त करना चाहिए  भूस्तारी (सकर्स) कीट-रोग रहित स्वस्थ फसल से लेना चाहिए सकर्स सफेद, रसीले एवं मांसल अच्छे माने जाते है।  बुवाई हेतु 5 से 7 सेंटीमीटर लम्बाई के  सकर्स तैयार करें।  प्रत्येक सकर्स के टूकड़े में कम से कम एक आंख (नोड) होनी चाहिए
पौध रोपण की विधि
मिंट की बुआई मुख्यतः दो  विधियों यथा  नर्सरी में पौध तैयार कर रोपण विधि  और मुख्य खेत में सीधे सकर्स द्वारा की जाती हैं :
1.नर्सरी द्वारा रोपाई :  रबी फसलों की कटाई के उपरान्त मेंथा की खेती के लिए यह सर्वोत्तम विधि है।  इसमें सबसे पहले 5 X 4 मीटर  की 10  क्यारियाँ (कुल 200 वर्ग मीटर क्षेत्र) तैयार करते हैं।  प्रत्येक क्यारी में 50 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद डालकर अच्छी तरह जोतकर मिट्टी भुरभुरी कर लेना चाहिए।  इन क्यारियों में धान की नर्सरी  की भांति पानी से भर मिंट  की कटी हुई सकर्स को कतारों में लगा दिया जाता है।  इस विधि से बुवाई करने पर लगभग 100-125  कि.ग्रा स्वस्थ सकर्स की आवश्यकता होती है।  सकर्स को लगाने के पूर्व कार्बेन्डाजिम के 5 लीटर घोल प्रति 40 किग्रा सकर्स की दर से उपचरित कर बुवाई  की जाती है।  नर्सरी में 2-3  दिन के अंतराल पर हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए।  बुवाई के 10-15 दिन बाद सकर्स अंकुरित होने लगते है।  बुवाई के 40-45 दिनों बाद  पौधों में 4-5 पत्तियां आने पर उन्हें नर्सरी से जड़ सहित उखाड़कर मुख्य खेत में 20-25 से.मी. की दूरी पर रोपाई कर देना चाहिए।  रोपाई से पूर्व रात में खेत में पानी छोड़ देना चाहिए ताकि मिट्टी अच्छी प्रकार से गीली हो जाये।  इससे पौधों को आसानी से रोपा जा सकता है और पौधे भी अच्छे से स्थापित हो जाते है।  इस विधि में सकर्स की मात्रा कम लगती है तथा फसल में खरपतवार प्रकोप कम होता है।  इसके अलावा पौध रोपण में लागत कम आती है। 
2.मुख्य खेत में सीधे बुआई: इस विधि में मुख्य खेत/क्यारियों  में सिंचाई कर सकर्स की सीधे कतारों में 60 X 45 सेंटीमीटर की दूरी पर  रोपाई कर दी जाती है।  इस विधि से बुवाई करने पर 350-500 कि.ग्रा। सकर्स प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। इस विधि में खरपतवार प्रकोप अधिक होता है  तथा सकर्स का अंकुरण कम होने के कारण पौधों की उपयुक्त संख्या स्थापित नहीं हो पाती है जिससे उत्पादन कम प्राप्त होता है।  आलू की भाँती मेंड़ (क्यारी) बनाकर मेंथा की खेती से पानी कम लगता है और उपज भी अधिक प्राप्त होती है। 
पोषक तत्व प्रबंधन
मेन्था की फसल घनी पत्तियों से युक्त होने के कारण अधिक मात्रा में पोषक तत्वों का अवशोषण करती है। वानस्पतिक भाग (पत्तियां) से मेंथाल तेल प्राप्त होता है ।अतः बेहतर वानस्पतिक वृद्धि के लिए फसल को संतुलित मात्रा में पोषक तत्वों की खुराक देना आवश्यक है। मृदा परिक्षण के आधार पर पोषक तत्वों की सही मात्रा का निर्धारण करना चाहिए। सामान्यतौर पर बुवाई से पहले खेत में 50 किलो नाइट्रोजन, 50-60  किलो फास्फेट, 40 किलो पोटाश, 200 किलो जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में  अच्छी तरह मिला देना चाहिए । इसके अलावा 20-25  किग्रा नाइट्रोजन बुवाई के 35-40 दिन बाद  तथा इतनी ही मात्रा बुवाई के 75-80 दिन बाद खड़ी फसल की नालियों में देकर सिंचाई करना चाहिए।  इसके बाद मेंथा की प्रथम और दूसरी कटाई के बाद 15 किग्रा नाइट्रोजन देकर सिंचाई करना चाहिए। 
सिंचाई प्रबंधन
मेन्था की फसल घनी एवं रसीली पत्तियों वाली होती है।  अतः फसल की  अच्छी बढ़त तथा बेहतर उत्पादन के लिए पर्याप्त सिंचाई की जरूरत होती है। इसके लिए खेत में हमेशा नमीं बनाए रखने की आवश्यकता होती है।  बुवाई/रोपाई के बाद एक सिंचाई आवश्यक है।  इसके बाद मिट्टी एवं जलवायु के अनुसार 15-20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करना चाहिए।  अप्रैल से जून तक फसल में 8-10 दिन के अंतराल पर एवं कटाई के बाद  सिंचाई करना चाहिए।  स्प्रिंकलर  सिंचाई पद्धति द्वारा सिंचाई करने से समय के साथ-साथ पानी की भी बचत होती है।  फसल की प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई अवश्य करें।  खेतों में जल निकासी की भी उचित व्यवस्था करना आवश्यक होता है। 
निंदाई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
खरपतवार पुदीना की बढ़त को तो रोकते ही हैं साथ ही पुदीने के तेल में अनैच्छिक गंध  उत्पन्न कर उसकी गुणवत्ता को भी प्रभावित करते हैं, इसलिए खरपतवार की रोकथाम आवश्यक है. मेंथा की जड़ें अधिक गहराई तक जाने के कारण इनको वायु संचार की अधिक आवश्यकता पड़ती है।   फसल में बुवाई/रोपाई के 25-30 दिनों बाद निराई गुड़ाई करने से खरपतवारों की रोकथाम के साथ-साथ पौधों की बढ़वार अच्छी होती है।  दूसरी कटाई के एक महीना बाद भी एक निराई-गुड़ाई करने से फसल बढ़वार  तेजी से होती है। 
फसल की कटाई
 मेंथा एकवर्षीय फसल है तथा एक वर्ष के दौरान तीन कटाईयाँ ली जा सकती है। मेंथा से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए इसके कटाई सही समय पर करना आवश्यक है।  उचित समय पर कटाई न करने से कम उत्पादन के साथ-साथ तेल की गुणवत्ता में भी गिरावट आ जाती है।  फसल में फूल आने की अवस्था कटाई का उचित समय होता है।  देर से कटाई करने पर पत्तियां गिर जाती है जिससे तेल का उत्पादन स्वतः कम आता है। फसल की पहली कटाई  बुवाई के 90 से 110  दिन  बाद  अथवा 60 से 70 प्रतिशत पौधों पर हल्के सफेद व जामुनी रंग के फूल दिखाई देने पर करना चाहिए।  दूसरी कटाई पहली कटाई  के लगभग 70 से 80 दिन  के अंतर पर करें. तीसरी कटाई दूसरी कटाई के 70 से 80 दिन बाद करना चाहिए।  मिंट  फसल की कटाई चमकीली धूप में दोपहर के समय तेज धारदार हसिये या दराती से करना चाहिए।  फसल कटाई के बाद कम से कम 5-6 घंटे तक शाक खेत में हीं पड़े रहने दें, ताकि फसल की अतिरिक्त नमीं सूख जाये।  इसके बाद फसल को एक हची प्रकार से पक्के फर्श या तिरपाल पर फैलाकर छाँव में रखना चाहिए ताकि हवा लगती रहे अन्यथा फसल की गुणवत्ता खराब होने लगती है।  कटाई के 2-3 दिन के अन्दर  आसवन करके तेल निकाल लेना चाहिए। 
ऐसे निकलेगा मेंथा तेल 
             मेंथा की कटाई एवं पेराई मई से लेकर जून जुलाई तक की जाती है।  मेंथा की पत्तियों में तेल पाया जाता है जिसे पेराई सयंत्र (आसवन इकाई) द्वारा निकाला जाता है।  आसवन इकाई में तीन प्रमुख भाग होते है, उबालने वाली बड़ी टंकी, जिसमे मेंथा और पानी भरकर नीचे से आग जलाई जाती है।  दूसरा कंडेंसर, जिसमे भाप बनकर पानी और तेल पहुँचता है और तीसरा सेपरेटर, जहाँ पानी और तेल अलग-अलग हो जाते है।  यह आसवन इकाई स्टेनलेस स्टील की होना चाहिए. बाजार में ये 50 हजार से लेकर 2 लाख में मिल जाती है। सीमैप, लखनऊ द्वारा विकसित आधुनिक पेराई सयंत्र द्वारा 10-20 प्रतिशत तेल निकाला जा सकता है. फसल से अधिकतम तेल प्राप्त करने के लिए उसकी कटाई 90 दिन से पहले नहीं करना चाहिए. पेराई से पहले टंकी को अच्छी प्रकार से गर्म पानी से साफ़ कर लेना चाहिए।  फसल कटाई के एक दिन सुखाने के बाद पेराई करें।  फसल को फैला कर रखे , ढेर बनाकर कदाचित न रखें. कंडेसर का पानी जल्दी-जल्दी बदलते रहना चाहिए।   
उपज एवं आमदनी
मेंथा तेल की मात्रा भूमि, उगाई गई प्रजाति, उत्पादन तकनीकी, फसल की वृद्धि, फसल की कटाई का समय, प्रयुक्त किया गया आसवन संयंत्र आदि पर निर्भर करती है।  सामान्यतौर  पर उपरोक्त उन्नत तकनीक अपनाने पर  एक हेक्लटेयर में लगभग  25-30 टन शाक उपज प्राप्त होती है जिससे 150-200 लीटर  तेल  प्राप्त हो सकता है।  तेल प्राप्ति के बाद उसे किसी स्टेनलेस स्टील के कंटेनर में भर कर अँधेरे कमरे में रख देने से यह तेल दो वर्ष तक खराब नहीं होता है।  तेल का अच्छा भाव मिलने पर बेच देना चाहिए। बाजार में मेंथा तेल उत्पादन एवं मांग के अनुसार 1200 से 1800 रूपये प्रति किलो की दर से बिकता है।  
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2 टिप्‍पणियां:

Dr. P. C. Chaurasiya ने कहा…

बहुत ही सुन्दर और gyaanvardhak लेख कृषि के ुउत्तथान appkaa sayhog सराहनीय है mangal kaamnaa ke saath

Rahul Dev Tiwari ने कहा…

Main aapki jankari se bahut santust hoon. Aapne mentha ki kheti kaise kare iske baare me vidhivat bataya hai in