डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि
महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)
फ़्रांस से चलकर भारत पहुंची स्ट्राबेरी को वनस्पति शास्त्र में फ्रागरिया x अनानास के नाम से जाना जाता है जो रोजेसी कुल का पौधा है। इसके खट्टे-मीठे फल स्वास्थ्य एवं आय दोनों ही दृष्टिकोण से लाभदायक है.पोषण मान के लिहाज से 100 ग्राम खाने योग्य स्ट्राबेरी में 89.9 ग्राम पानी, 0.7 ग्राम प्रोटीन, 0.5 ग्राम वसा, 8.4 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 164 मिग्रा पोटैशियम,21 मिग्रा कैल्शियम, 21 मिग्रा फॉस्फोरस, 1 मिग्रा आयरन, 1 मिग्रा सोडियम, 59 मिग्रा विटामिन सी के अलावा विटामिन ए, विटामिन बी, नियासिन भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। इसे ताजे फल के रूप में खाने के अतिरिक्त स्ट्राबेरी से विशेष संसाधित पदार्थ जैसे जैम, जेली, डिब्बाबंद स्ट्राबेरी, कैंडी आदि तैयार किये जा रहे है। स्ट्राबेरी का उपयोग आइसक्रीम एवं अन्य पेय पदार्थ तैयार करने में भी किया जाता है। स्ट्रॉबेरी में पाए जाने वाले पौष्टिक तत्व पाचन क्रिया में सहायक, त्वचा में नव जीवन एवं चेहरे कि चमक बढ़ाने, रक्त चाप को नियंत्रित करने में सहायक होती है। प्राकृतिक एंटीऑक्सीडेंट और एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण विद्यमान होने के कारण यह दिमाग को तनाव मुक्त रखने में उपयोगी हैं। विटामिन सी की अधिकता होने के कारण यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मदद करती है।
स्ट्राबेरी की खेती ऐसे
करे
स्ट्राबेरी का बाजार में बहुत मांग
होने के कारण इसकी व्यवसायिक खेती बहुत लाभदायक सिद्ध हो रही है। स्ट्राबेरी शीत ऋतु की फसल है जिसके
पौधों की उचित बढ़वार एवं फलन के लिए 20-30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त रहता है। अधिक तामपान पर उपज पर प्रतिकूल प्रभाव
पड़ता है। भारत के मैदानी क्षेत्रों के लिए कैलीफोर्निया में विकसित कैमारोजा,
ओसो ग्रैन्ड व चैंडलर के अलावा शीघ्र तैयार होने वाली ओफरा एवं
स्वीट चार्ली उपयुक्त पाई गई है। भारत में विकसित पूसा अर्ली
ड्वार्फ उत्तरी भारत के लिए अच्छी किस्म है. इसकी खेती के लिए 5.5 पी एच मान से लेकर 6.5 पी
एच मान वाली बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती है।
मेड-नाली (रिज एंड फरो) पद्धति से स्ट्राबेरी का रोपण करने पर पौधों का विकास अच्छा
होने के साथ-साथ उत्तम गुणवत्ता वाले अधिक
फल प्राप्त होते है। इसके लिए तैयार खेत में 1 मीटर चौड़ी एवं 25 सेमी. ऊंची मेंडे
तैयार की जानी चाहिए। दो मेंड़ों के बीच 50 सेमी का फासला रखना चाहिए। इन मेंड़ों पर ड्रिप (सिंचाई हेतु)
एवं मल्च (प्लास्टिक चादर) बिछाने के उपरान्त 25-30 सेमी की दूरी पर मल्च में छेद
कर स्ट्राबेरी के स्वस्थ पौधों अथवा रनर
(स्ट्राबेरी के पौधों के बगल से निकलने वाले नए पौधे) का रोपण करना चाहिए। इससे पौधों को संतुलित मात्रा में पानी एवं पोषक
तत्व उपलब्ध होने के साथ-साथ खरपतवार प्रकोप भी नहीं होता है। एक एकड़ में लगभग 27 हजार पौधे/रनर की आवश्यकता होती है। पौध रोपण के बाद ड्रिप से सिंचाई करे एवं आवश्यकतानुसार तरल
उर्वरकों का प्रयोग करें। आमतौर पर जनवरी-फरवरी में फल पकने लगते है। फलों की तुड़ाई सावधानी से करना चाहिए
ताकि फलों को क्षति न पहुंचे. सामान्यतौर पर स्ट्राबेरी के फल फरवरी-अप्रैल तक तुड़ाई
हेतु पक कर तैयार हो जाते है. स्ट्राबेरी
के 70 % फलों का रंग जब लाल-पीला होने
लगे, तुड़ाई प्रारंभ करें। एक पौधे से औसतन 200-200 ग्राम फल प्राप्त किये जा सकते है। तोड़ने के पश्चात फलों की शीघ्र
पैकिंग कर बाजार में बेचने कि व्यवस्था कर लेना चाहिए। फलों के भण्डारण के लिए कमरे का
तापमान 5 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए अन्यथा फल खराब होने लगते है। फलों के साथ-साथ पौध सामग्री के रूप
में स्ट्राबेरी के रनर (नवीन विकसित पौधे) बेचकर अतिरिक्त मुनाफा अर्जित किया जा
सकता है। स्ट्राबेरी की खेती के लिए राज्य के उद्यानिकी विभाग से अनुदान भी
प्राप्त किया जा सकता है।
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