डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र,
कांपा, पोस्ट बिरकोनी, जिला महासमुंद (छत्तीसगढ़)
रासायनिक उर्वरकों पर आधारित आधुनिक खेती की शुरुआत 1840 में जर्मनी में हुई. इससे पूर्व पूरे विश्व में सजीव यानि जैविक खेती हुआ करती थी । जर्मनी में 1840 में प्रसिद्ध केमिस्ट जस्टस वोन लाइबिग ने रासायनिक उर्वरक का मेमोरेंडम प्रसिद्ध किया। उन्होंने रासायनिक उर्वरकों पर पॉट कल्चर प्रयोग किया। जस्टस वोन लाइबिग कृषि वैज्ञानिक नहीं थे, अतः कृषि वैज्ञानिक जोह्न्सन ने रासायनिक उर्वरकों का खेत में परीक्षण किया। प्रथम दो वर्ष में फसल उत्पादन अच्छा मिला। यह जानकार जर्मनी की सभी युद्ध का सामन बनाने वाली फैक्टरी रासायनिक उर्वरक बनाने लगी। अगले दो साल बाद फसलों का उत्पादन कम होने लगा। उर्वरकों के प्रयोग से भूमि में लाभदायक जीवाणु की संख्या घटने लगी तथा सभी फसलों और वनस्पतियों में रोगों का प्रकोप बढ़ने लगा। इसके बावजूद भी रासायनिक उर्वरकों एवं कीट नाशकों का प्रयोग बढ़ने लगा जिसके परिणामस्वरूप रसायनयुक्त वनस्पति एवं चारे को खाने वाले पशु रोगग्रस्त होने लगे। पशुओं के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए पशु औषधालयों की आवश्यकता पड़ने लगी।
यूरोप में औद्योगिक क्रांति के साथ-साथ ग्रामीण जनता औद्योगिक नगरों में रहने लगें। रासायनिक उर्वरकों से उत्पादित खाद्यान्न के सेवन से शहरी जनता में बीमारियों का प्रकोप बढ़ने लगा जिससे अस्पताल और चिकित्स्कों की संख्या में बढ़ोत्तरी होने लगी। लोगों में ह्रदय आघात, मधुमेह, रक्त चाप, कैंसर, किडनी व लिवर रोग जैसी समस्यायें उत्पन्न होने लगी।
अपनी मौत के पहले जस्टस वोन लाइबिग ने लिखा-'मेरा रासायनिक उर्वरक' का 1840 का मेमोरेंडम गलत था। रासायनिक उर्वरकों पर सभी संसोधन कृषि वैज्ञानिक डॉ जोह्न्सन ने मेरे नाम से प्रसिद्ध किये। समग्र मानव जाती को रोगी बनाने का पाप मैंने किया है। मैं ईश्वर से माफ़ी मांगता हूँ। मैं अंधा हो गया हूँ। ईश्वर ने मुझे दण्डित किया है। रासायनिक खेती का सिद्धांत गलत है। मुझे माफ़ करना !
भारत के किसानों को आधुनिक रासायनिक खेती सीखने के लिए ब्रिटिश वैज्ञानिक सर आल्बर्ट (1910-1940) भारत आया परन्तु भारत के किसानों की सजीव खेती देखकर वह खुद जैविक खेती (organic farming) का वैज्ञानिक बन गया। उन्होंने रानी विक्टोरिया को पत्र लिखा-भारत के किसान मेरा प्रोफ़ेसर है। जैविक कृषि से ही मनुष्य सहित जीव प्राणीमात्र निरोगी रह सकते है, परन्तु समग्र विश्व में रासायनिक कृषि से प्रजा रोग ग्रस्त हो रही है। जस्टस वोन लाइबिग का रासायनिक कृषि का सिद्धांत गलत है। सीक्रेट्स ऑफ़ सॉइल्स नामक पुस्तक में क्रिस्टोफर बर्ड-पीटर टोम्पस्कीन लेखक ने लिखा है-रासायनिक कृषि से उत्पादित खाद्यान्न के सेवन से 30 प्रतिशत से अधिक युवा नपुंसक हो गए है। समग्र प्रजा रोग ग्रस्त हो रही है। मधुमेह, कैंसर ,ह्रदय आघात जैसे असाध्य रोग बढ़ते जा रहे है. अभी भी समय है सजीव प्राकृतिक खेती से उत्पादित खाद्यान्न खाने से मानव जाती निरोगी बना सकते है। हरित क्रान्ति के आगमन के पश्चात भारत में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, फफूंदीनाशकों एवं शाकनाशकों के उपयोग में निरंतर इजाफा होता जा रहा है।
विकास के पश्चिमी मॉडल को अपनाकर हमारे अधिकांश कृषक प्रकृति के सह अस्तित्व के सिद्धांत को भूलते जा रहे है एवं स्वअस्तित्व को बनाये रखने के लक्ष्य में प्रकृति के अपने मित्र घटकों (जल, जंगल, जमीन, पशुधन) को नष्ट करते जा रहे है। परिणामस्वरूप प्रकृति भी अपना विकराल रूप अर्थात सूखा, बाढ़, कीट, रोग आक्रमण, भूकंप आदि मानव जाती को नष्ट करने वाली विभीषकाएं उत्पन्न हो रही है। भूमि, जल तथा वायु का प्रदुषण इस स्तर पर बढ़ा है कि भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् (ICAR) के तत्कालीन महानिदेशक डॉ. मंगला राय (भारत सरकार के पूर्व कृषि सलाहकार) को लिखना पड़ा 'रासायनिक खेती से जनजीवन का अस्तित्व खतरे में आया है। अब कुछ वर्षों से भारत सरकार जैविक खेती को बढ़ावा दे रही है जिसके कारण देश के उच्च वर्ग एवं कुछ मध्यम वर्ग में जैविक खेती के उत्पादों के इस्तेमाल की और रुझान बढ़ा है। उच्च गुणवत्ता वाले उत्पाद एवं अच्छा भाव मिलने के कारण जैविक कृषि के प्रति किसानों में जागृति पैदा हो रही है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि आने वाला भविष्य जैवक खेती का होगा अर्थात हमें अपने देश में पुनः प्राकृतिक खेती खेती के सिद्धांतों का अनुपालन करना होगा, तभी समृद्ध, स्वस्थ, आत्मनिर्भर और खुशहाल भारत की कल्पना साकार हो सकती है ।
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